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View Full Version : कथा संस्कृति


VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:03 PM
बढ़ई की जोरू
किसी नगर में वीरवर नाम का एक बढ़ई रहता था। उसकी घरवाली का नाम कामिनी था। वह बहुत चलता-पुर्जा और बदनाम थी। जब सबकी जबान पर एक ही बात हो तो भला बढ़ई के कान में इसकी भनक क्यों न पड़ती। बढ़ई ने सोचा, मुझे पहले इस बात की जाँच करनी चाहिए। पुरुष होने के नाते बढ़ई यह तो जानता ही था कि स्त्रियाँ स्वभाव से बदचलन होती हैं। जैसे आग का शीतल होना या चन्द्रमा का गर्म होना या दुष्टों का परोपकारी होना असम्भव है उसी तरह स्त्री का सती होना भी असम्भव है। फिर उसकी जोरू को तो सारी दुनिया कुलटा कह रही थी।
ताड़नेवाले तो पत्थर की नजर रखते ही हैं। वे उसे भी जान लेते हैं जो न वेद में लिखी हो न शास्त्र में। कोई लाख परदे में कोई अच्छा-बुरा काम करे, वह लोगों से छिपा नहीं रह पाता है।
ऐसा सोचकर उसने अपनी जोरू से कहा, ‘‘प्यारी, मैं कल सुबह ही किसी दूसरे गाँव जाने वाला हूँ। मुझे वहाँ पूरा दिन लग जाएगा। तुम इसी समय मेरे खाने के लिए कुछ सामान बनाकर रख दो।’’
उसकी जोरू को और क्या चाहिए था! उसकी तो मन की मुराद पूरी हो गयी। सारा काम-धाम छोड़कर पकवान बनाने में जुट गयी।
दूसरे दिन सोकर उठते ही बढ़ई घर से बाहर निकला। अब पति का डर तो था नहीं। उसकी जोरू सारे दिन सजती-सँवरती रही। किसी तरह शाम हुई। अब वह पहुँची अपने यार के घर और बोली, ‘‘मेरा मुँहजला खसम आज किसी दूसरे गाँव को गया हुआ है। लोगों की आँख लगते ही चुपचाप मेरे यहाँ आ जाना।’’
उधर बढ़ई ने जैसे-तैसे दिन काटा और शाम का झुटपुटा होते ही चुपचाप पीछे की खिड़की से घर में घुसा और चारपाई के नीचे छिप गया। उसकी जोरू का यार देवदत्त आकर उस चारपाई पर बैठ गया। बढ़ई को अपना गुस्सा रोकते न बनता था। उसके मन में आता वह अभी चारपाई के नीचे से निकले और उसकी जान ले ले। पर उसने अक्ल से काम लिया। सोचा, जब ये दोनों सो जाएँगे उसी समय इनका गला दबा दूँगा। पहले यह तो देख लूँ कि यह इसके साथ करती क्या है। दोनों की बातें भी तो सुनूँ। क्या करना है, क्या नहीं, इसका फैसला बाद में करूँगा।
अभी बढ़ई इस उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि इसी समय उसकी जोरू भी आकर अपने यार के पास बैठ गयी। चारपाई पर बैठते समय उसका पैर बढ़ई के शरीर को छू गया। उसे ताड़ते देर न लगी कि चारपाई के नीचे कोई दुबका हुआ है। अब यह बात तो उसकी समझ में आ ही गयी कि हो न हो यह उसका पति ही है, जो उसको परखने की कोशिश कर रहा है। उसने सोचा, अब मैं भी इसे दिखा ही दूँ कि मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।
अभी वह कोई जुगत सोच ही रही थी कि उसके यार ने उसे अपनी बाँहों में भरने के लिए अपने हाथ बढ़ाये। उसे अपनी ओर हाथ बढ़ाते देखकर बढ़ई की जोरू बोली, ‘‘देखो, मुझे हाथ लगाया तो तुम्हारी खैर नहीं है। तुम नहीं जानते मैं कितनी सती-साध्वी स्त्री हूँ। यदि तुमने कुछ भी ऐसा-वैसा किया तो मैं तुम्हें शाप देकर भस्म कर दूँगी।’’
देवदत्त को तो कुछ मालूम नहीं था। उसने कहा, ‘‘ऐसा था तो तूने मुझे बुलाया क्यों?’’
बढ़ई की जोरू ने कहा, ‘‘कारण जानना ही चाहते हो तो सुनो। आज सुबह मैं चण्डी देवी के दर्शन करने गयी थी। मेरे वहाँ पहुँचते ही एकाएक आकाशवाणी हुई, ‘बेटी, तू मेरी सच्ची भक्त है इसलिए कहते हुए दुख तो होता है पर इस बात को छिपा जाना और भी दुखद है। जी कड़ा करके सुन। दुर्भाग्य से आज से छह महीने के भीतर तू विधवा हो जाएगी।’
आकाशवाणी सुनकर मैंने पूछा, ‘माँ भगवती, आप यदि यह जानती हैं कि मेरे ऊपर कौन-सी विपदा आनेवाली है तो यह भी जानती ही होंगी कि इससे बचने का उपाय क्या है। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे मेरे पति सौ वर्ष तक जीवित रहें।’
देवी माँ ने कहा, ‘उपाय तो तेरे वश का है, पर क्या तू उसे कर भी पाएगी?’
मैंने कहा, ‘माँ आप बताएँ तो सही। अपने पति के लिए तो मैं अपने प्राण भी दे सकती हूँ। आप बिना किसी आशंका के मुझे वह उपाय बता भर दें।’
मेरी प्रार्थना सुनकर देवी ने कहा, ‘यदि तू किसी पर-पुरुष के साथ शयन करके उसका आलिंगन करे तो तेरे पति की अकाल मृत्यु का प्रवेश उस पुरुष में हो जाएगा। इससे तुम्हारा पति तो सौ साल तक जीवित रहेगा, पर उसकी आयु घट जाएगी। मैंने आपको इसीलिए बुलाया है। आप मेरे साथ जो चाहे सो करें, पर एक बात जान लें कि देवी के मुँह से निकली बात अकारथ नहीं जाएगी।’
बढ़ई की बहू की बात सुनकर उसका यार मन ही मन उसकी चतुराई पर मुस्कराने लगा और जिस काम के लिए आया था उस काम पर जुट गया।
वह मूर्ख बढ़ई तो अपनी जोरू की बातें सुनकर पुलकित हो गया। उसके आनन्द का कोई ठिकाना न था। वह चारपाई के नीचे से निकलकर बाहर आ गया और बोला, ‘‘धन्य है! मेरी पतिव्रता पत्नी, तू धन्य है। मैंने नाहक चुगलखोरों के कहने में आकर तेरे ऊपर सन्देह किया। मैं तो तुम्हें परखने के लिए ही दूसरे गाँव जाने का बहाना बनाकर निकला था। अब मेरा मन साफ हो गया। आओ, मेरे हृदय से लग जाओ। तुम पतिव्रता नारियों की सिरमौर हो। पर-पुरुष के साथ रहकर भी तुमने इतने संयम से काम लिया। तुमने मेरी अकाल मृत्यु को दूर करने और मुझे दीर्घायु बनाने के लिए जो कुछ किया उसे मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ।’’ यह कहकर उसने अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया।
उसने अपनी जोरू को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया और देवदत्त से बोला, ‘‘महानुभाव, यह मेरे पिछले जन्म का पुण्य है जो आप ने यहाँ आने का कष्ट किया। आपकी कृपा से ही मुझे सौ वर्ष की आयु मिली है इसलिए आप भी मेरे गले लग जाएँ और कन्धे पर चढ़ जाएँ।’’
देवदत्त आना-कानी करता रहा पर उसने उसकी एक न सुनी। हारकर उसे भी उसके कन्धे पर सवार होना ही पड़ा। अब वह खुशी से नाचते हुए कहने लगा, ‘‘आप लोगों ने मेरा इतना बड़ा उपकार किया है, आप दोनों धन्य हैं।’’
वह उन दोनों को लेकर अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ जाता और सभी को यह कहानी सुनाता और उन दोनों की तारीफ के पुल बाँधने लगता।
कहानी पूरी करके रक्ताक्ष बोला, ‘‘मैं इसीलिए कह रहा था कि अपनी आँखों से किसी को पाप करते देखकर भी मूर्ख आदमी झूठे बहानों से ही सन्तुष्ट हो जाता है।’’
अब वह मन्त्रियों की ओर मुड़ा और बोला, ‘‘आप लोगों ने तो अपनी ही जड़ खोद डाली है। अब हमें तबाह होने से कौन रोक सकता है? सयानों ने कुछ गलत तो कहा नहीं है कि जो मित्र बनकर भी भलाई की जगह बुराई की सलाह देते हैं उन्हें समझदार लोग अपना दुश्मन समझते हैं। कौन नहीं जानता कि जिस मन्त्री को यह मालूम ही नहीं कि किस देश में और किस मौके पर क्या करना चाहिए, उसे मन्त्री बनानेवाला राजा उसी तरह मिट जाता है जैसे सूरज के निकलने पर अँधेरा मिट जाता है।’’
पर वहाँ कौन था जो रक्ताक्ष की बात पर कान देता। अब वे उल्लू स्थिरजीवी को उठाकर अपने दुर्ग में ले जाने लगे। जब वे स्थिरजीवी को इस तरह ले जा रहे थे तो उसने कहा, ‘‘मैं अब किसी काम का तो रहा नहीं। मेरे लिए आप लोग इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं? मुझे तो आप लोग थोड़ी-सी आग दे दें, मैं उसी में जल मरूँ। इसी में मेरा कल्याण है।’’
उसकी बात सुनकर राजनीति कुशल रक्ताक्ष बोला, ‘‘जनाब, आप काफी घुटे हुए हैं और बातें गढ़ने में तो आपका कोई जवाब नहीं। आप अगले जन्म में उल्लू योनि में पैदा हों तो भी आप को कौओं से ही लगाव रहेगा। कहते हैं जाति का मोह आसानी से नहीं छूटता। चुहिया को ब्याहने के लिए सूर्य, मेघ, पवन और पर्वत सभी तैयार थे, फिर भी उसने अपने पति के रूप में यदि चुना तो एक चूहे को चुना।’’
मन्त्रियों में से किसी को इस चुहिया के बारे में कुछ मालूम न था। उनके आग्रह करने पर रक्ताक्ष ने जो कहानी सुनायी वह इस प्रकार थी।

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:04 PM
नीति
600-700 ई.पू. लिखी गयी ‘पंचतन्त्र की कथाएँ, सम्भव है, आर्यों की लौकिक नीतिकथाएँ रही हों। आर्यों ने नियमन के लिए व्यक्ति को कभी सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा, मात्र संकेत ही किये हैं। और ये नीति कथाएँ इस दृष्टि से रोचक भी हैं और कहानियाँ भी।’
एक
एक गाँव में द्रोण नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भीख माँगकर उसकी जीविका चलती थी। उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। उसकी दाढ़ी और नाखून बढ़े रहते थे। एक बार किसी यजमान ने उस पर दया करके उसे बैलों की एक जोड़ी दे दी। लोगों से घी-तेल-अनाज माँगकर वह उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा। दोनों बैल खूब मोटे-ताजे हो गये।
एक चोर ने उन बैलों को देखा, तो उसका जी ललचा गया। उसने निश्चय किया कि वह बैलों को चुरा लेगा। जब वह यह निश्चय कर अपने गाँव से चला, तो रास्ते में उसे लम्बे-लम्बे दाँतों, लाल-आँखों, सूखे बालोंवाला एक भयंकर आदमी मिल गया।
‘‘तुम कौन हो?’’ चोर ने डरते-डरते पूछा।
‘‘मैं ब्रह्मराक्षस हूँ,’’ भयंकर आकृति वाले ने उत्तर दिया और पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’
चोर ने उत्तर दिया, ‘‘मैं क्रूरकर्मा चोर हूँ। पासवाले ब्राह्मण के घर से बैलों की जोड़ी चुराने जा रहा हूँ।’’
राक्षस बोला, ‘‘प्यारे भाई, मैं तीन दिन में एक बार भोजन करता हूँ। आज मैं उस ब्राह्मण को खाना चाहता हूँ। हम दोनों एक मार्ग के यात्री हैं। चलो, साथ-साथ चलें।’’
वे दोनों ब्राह्मण के घर गये और छुपकर बैठ गये। वे मौके का इन्तजार करने लगे। जब ब्राह्मण सो गया, राक्षस उसे खाने के लिए आगे बढ़ा। चोर ने उसे टोक दिया, ‘‘मित्र, यह बात न्यायानुकूल नहीं है। पहले मैं बैल चुरा लूँ, तब तुम अपना काम करना।’’
राक्षस बोला, ‘‘बैलों को चुराते हुए खटका हुआ, तो ब्राह्मण जरूर जाग जाएगा। फिर मैं भूखा रह जाऊँगा।’’
चोर बोला, ‘‘जब तुम उसे खाने जाओगे, तो कहीं कोई अड़चन आ गयी, तो मैं बैल नहीं चुरा पाऊँगा।’’
दोनों में कहा-सुनी हो गयी। शोर सुनकर ब्राह्मण जाग गया। उसे जागा हुए देखकर चोर बोला, ‘‘ब्राह्मण, यह राक्षस तेरी जान लेने लगा था। मैंने तुझे बचा लिया।’’
राक्षस बोला, ‘‘ब्राह्मण, यह चोर तेरे बैल चुराने आया था। मैंने तुझे लुटने से बचा लिया।’’
इस बातचीत से ब्राह्मण सतर्क हो गया। उसने अपने इष्ट देव को याद किया। राक्षस फौरन भाग गया। फिर डण्डे की मदद से ब्राह्मण ने चोर को भी मार भगाया।
-अनीति

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:33 PM
दो
एक झील के किनारे भरुण्ड नामक पक्षी रहते थे। उनका पेट तो अन्य पक्षियों की तरह एक ही था, पर सिर दो थे।
एक बार की बात है, इनमें से एक पक्षी कहीं घूम रहा था। उसके एक सिर को एक मीठा फल मिल गया। दूसरा सिर बोला, ‘‘आधा फल मुझे दे दो।’’ पहले सिर ने इनकार कर दिया। दूसरे सिर को गुस्सा आ गया। उसने कहीं से जहरीला फल खा लिया। पक्षी का पेट तो एक ही था, इसलिए जल्दी ही वह मर गया।

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:33 PM
तीन
एक राज्य में बड़ा पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था। अपनी वीरता के लिए वह दिग्दिगन्त में प्रख्यात था। दूर-दूर तक के राजा उसका मान करते थे। समुद्र तट तक उसका राज्य फैला था।
राजा नन्द का मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान और शास्त्र-पारंगत था, पर उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था। एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रूठ गयी कि मानी ही नहीं।
तब वररुचि ने उससे पूछा, ‘‘प्रिये, तेरी खुशी के लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। जो तू कहेगी, मैं वही करूँगा।’’
पत्नी बोली, ‘‘अच्छी बात है। मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुँडाकर, मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना।’’
वररुचि ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।
उसी दिन की बात है, राजा की स्त्री भी रूठ गयी। नन्द ने भी कहा, ‘‘प्रिये, तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है। तेरी खुशी के लिए मैं सबकुछ करने को तैयार हूँ। तू आदेश कर, मैं उसका पालन करूँगा।’’
राजा की स्त्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूँ कि तेरे मुँह में लगाम डालकर तुझ पर सवारी करूँ और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौड़े।’’
राजा ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।
दूसरे दिन सुबह राजदरबार में जब वररुचि उपस्थित हुआ, तो राजा ने पूछा, ‘‘मन्त्री, तुमने अपना सिर किस पुण्यकाल में मुँडा डाला?’’
वररुचि ने उत्तर दिया, ‘‘राजन्, मैंने उस पुण्यकाल में सिर मुँडाया, जिस काल में पुरुष मुँह में लगाम लगाकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं।’’
सुनकर राजा बड़ा लज्जित हुआ।

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:43 PM
चंगुल में गर्दन
किसी वन में एक विशाल सरोवर था। उसमें तरह-तरह के जीव-जन्तु रहते थे। उन्हीं जन्तुओं में एक बगुला भी था। जवानी के दिनों में तो उसकी गर्दन में इतनी लोच, नजर में ऐसा पैनापन और चोंच में ऐसी पकड़ हुआ करती थी कि भूले-भटके भी कोई मछली उसके पास पहुँच जाती तो उसकी चोंच में दबकर उसके पेट की ओर सरक जाती थी। अब वह बूढ़ा हो चला था और हर तरफ से निढाल-सा हो चुका था। बस एक चीज बची हुई थी। यह थी उसकी चालाकी। अब इसी का भरोसा था।
एक दिन वह सरोवर के किनारे बैठकर रोने लगा। दूसरे जीवों ने बहुत पूछा पर वह बताने का नाम न ले। रोता चला जा रहा था, रोता चला जा रहा था। आँसू थमते ही न थे। उसको किसी ने इससे पहले इस तरह रोते नहीं देखा था इसलिए सभी को हैरानी हो रही थी। हैरानी इसलिए भी हो रही थी कि मछलियाँ उसके पास तक चली आ रही थीं। फिर भी वह उनकी ओर देख तक नहीं रहा था। अब केंकड़ा आदि कुछ जीव एक शिष्टमण्डल बनाकर उसके पास आये और बार-बार यह जानने का हठ करने लगे कि वह रो क्यों रहा है।
अब लम्बी उसाँस लेता हुआ वह भरे गले से बोला, ‘‘प्यारे, मैंने अब वैराग्य ले लिया है। अब मछलियों को तो नहीं ही खाऊँगा और कुछ खाये-पिये बिना ही उपवास करते हुए मैं अपने प्राण दे दूँगा। यह निश्चय करके मैं यहाँ बैठा हूँ। तुम लोगों ने तो देखा ही होगा कि पास आयी मछलियों को भी मैं उलटकर नहीं देख रहा हूँ।’’
अब केकड़े की उत्सुकता और बढ़ गयी। उसने पूछा, ‘‘आपके इस तरह एकाएक वैराग्य लेने का कोई कारण तो होगा? हमें भी बताइए न!’’
बगुले ने कहा, ‘‘बच्चे, मैं इसी सरोवर में पैदा हुआ, यहीं बड़ा हुआ, यहीं पर बूढ़ा भी हो गया। अब जो जीवन जीना और भोगना था वह तो मैं जी और भोग चुका। मुझे अपने लिए तो कोई दुख हो ही नहीं सकता। दुख तो इस सरोवर के प्राणियों के लिए हो रहा है।’’
अब श्रोताओं का कुतूहल और प्रबल हो उठा। उनके कुछ और जिज्ञासा करने के बाद उसने बताया कि उसने किसी से सुना है कि इस साल बहुत भयंकर सूखा पड़नेवाला है। उस सूखे में यह सरोवर तो सूख जाएगा और सभी प्राणियों को तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा। उसी की कल्पना करके उसे रोना आ रहा था।
केकड़े ने पूछा, ‘‘किससे सुनी है आपने यह बात?’’
बगुले ने उत्तर दिया, ‘‘ज्योतिषियों को बात करते सुना था। उनका कहना था कि इस साल शनि रोहिणी के शकट का भेदन कर रहा है और फिर उसका योग शुक्र से होगा। तुमने वराहमिहिर की वह उक्ति तो सुनी ही होगी कि यदि शनि रोहिणी के शकट का भेदन करता है तो बारह वर्ष तक बरसात नहीं होती। कहते हैं रोहिणी के शकट का भेदन हो जाने पर पृथ्वी अपने को पापिनी समझने लगती है, इसलिए शुद्धि करने के लिए भस्म और राख मलकर कापालिक का वेश अपना लेती है।’’
पृथ्वी के कापालिक वेश धारण करने की बात केकड़े की समझ में नहीं आयी तो उसने बगुले से इसे कुछ समझाकर बताने को कहा।
उसकी इस सरलता पर इस दुख के बीच भी बगुले को हँसी आ गयी, ‘‘मतलब इसका यह है भानजे कि इस विकराल सूखे के प्रभाव से धरती रेगिस्तान का-सा रूप ले लेती है। जहाँ देखो वहाँ धूल और राख उड़ती दिखाई देती है और जगह-जगह मरे हुए लोगों के कपाल और पंजर बिखरे दिखाई देते हैं मानो धरती ने मुण्डमाला पहन रखी हो।’’
केकड़े ने पूछा, ‘‘क्या सचमुच ऐसा हो सकता है?’’
बगुला बोला, ‘‘ज्योतिषी की बात है, झूठी तो हो नहीं सकती। ज्योतिषियों का तो कहना है कि शनि तो दूर, यदि चन्द्रमा भी रोहिणी के शकट का भेदन करे तो प्रलय की-सी स्थिति उपस्थित हो जाती है। लोग बेहाल होकर अपने बच्चों तक को मारकर खा जाते हैं। यदि कहीं चुल्लू दो चुल्लू पानी मिला भी तो सूर्य की दहकती किरणों से इस तरह उबल रहा होता है कि उसके पीने पर प्यास बुझने के स्थान पर और भड़क उठती है। लगता है पानी नहीं आग पी रहे हैं।
‘‘तो मुझे चिन्ता तो इसी बात को लेकर है कि जल्द ही इस तालाब का पानी सूखकर घट जाएगा और फिर पूरी तरह सूख जाएगा। जिन जीवों के साथ मैं पैदा हुआ, जिनके साथ खेलता-खाता हुआ बड़ा हुआ, वे सभी पानी के बिना मर जाएँगे। उनका वियोग मैं अपनी आँखों से देख नहीं पाऊँगा। यही सोचकर रो रहा था। यही सोचकर मैं यह आमरण उपवास का व्रत ठानकर बैठा हूँ। इस समय दूसरे छोटे सरोवरों के जीवों को उनके अपने सगे-सम्बन्धी बड़े सरोवरों में ले जा रहे हैं। कुछ बड़े जानवर, जैसे मगर, घड़ियाल, गोह और दरियाई हाथी अपने पाँवों चलकर दूसरे बड़े तालाबों में जा रहे हैं। इस सरोवर के प्राणियों को कोई चिन्ता ही न हो जैसे। वे निश्चिन्त पड़े हुए हैं। यही सोचकर तो मुझे और भी रोना आ रहा है कि यहाँ तो न कोई किसी का नाम लेनेवाला रह जाएगा, न पानी देनेवाला।’’
शिष्टमण्डल ने यह बात सुनी तो उसने यह बात चारों ओर फैला दी। इस समाचार का फैलना था कि सारे जानवर डर से काँपने लगे। मछलियों और कछुओं ने तो घबराहट में उससे अपने बचाव का उपाय भी पूछना शुरू कर दिया, ‘‘मामा जी, क्या हमारे प्राण किसी तरह बच सकते हैं?’’
बगुले ने कहा, ‘‘यहाँ से कुछ ही दूर पर एक बहुत गहरा जलाशय है। उसमें खाने के लिए सेवार आदि तो भरा ही हुआ है, पानी इतना अधिक है कि बारह वर्ष की तो बात ही अलग, यदि चौबीस वर्ष तक भी वर्षा न हो तो भी वह न सूखे। यदि कोई मेरी पीठ पर बैठ जाए तो मैं उसे वहाँ पहुँचा भी सकता हूँ।’’
अब तो उसकी साख यूँ जम गयी कि सारे जलचर उससे अपना सम्बन्ध निकालने लगे। उसे भाई, चाचा, ताऊ, मामा कहकर पुकारते हुए इस बात का आग्रह करने लगे कि सबसे पहले वह उन्हें ही ले जाए। वह बदमाश भी उन्हें पीठ पर चढ़ाकर ले जाता और वहाँ से कुछ ही दूरी पर स्थित एक चट्टान पर पहुँचते ही उन्हें नीचे गिरा देता और आराम से खाता रहता और फिर वापस आ जाता। लौटने पर वह जिन जीवों को ले जा चुका रहता था उनके विषय में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर दूसरे जीवों का जी खुश कर देता। इसी तरह उसके दिन कटते रहे।
एक दिन उससे केकड़े ने कहा, ‘‘मामा जी, सबसे पहले तो आपने यह बात मुझसे कही थी और मुझे ही भूल गये। मुझसे पहले दूसरे जानवरों को ले जा रहे हो। आज तो आपको मुझे लेकर चलना ही होगा।’’
केकड़े की बात सुनकर बगुला सोचने लगा, बात तो यह भी ठीक है। इतने समय से लगातार मछलियों का ही मांस खाते-खाते मेरा भी मन ऊब चुका है। आज स्वाद बदलने के लिए इसको गटकूँगा। यह सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बैठा लिया और उस चट्टान की ओर उड़ चला। अभी दोनों वहाँ पहुँच भी नहीं पाये थे कि केकड़े ने दूर से ही उस स्थान को देख लिया, जहाँ मछलियों के काँटों के ढेर के ढेर पड़े हुए थे। अब सारा खेल उसकी समझ में आ गया। उसने बड़े भोलेपन से पूछा, ‘‘मामा, अब वह सरोवर कितनी दूर रह गया? मुझे तो लगता है आप मुझे ढोते-ढोते थक भी चले हैं।’’
बगुले ने सोचा, पानी का यह जीव अब आसमान में क्या कर पाएगा। वह हँसकर बोला, ‘‘भानजे, कैसा सरोवर और कैसी थकान। इस समय तो तुम अपने देवी-देवताओं को मनाओ। मैं अब तुम्हें इस चट्टान पर पटककर चट कर जाऊँगा।’’
उसका इतना कहना था कि केकड़े ने अपने चंगुल से उसकी गर्दन धर दबोची और वह वहीं टें बोल गया।
अब केंकड़ा किसी तरह घिसटता-लुढ़कता उस सरोवर में लौटा। अब सभी जलचर उसे घेरकर पूछने लगे, ‘‘अरे कुलीरक, तू वापस क्यों आ गया? इतना समय हो गया और वह मामा भी नहीं आया। बात क्या हुई? इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? हम लोगों की बारी कब आएगी?’’
उनकी बात सुनकर केंकड़ा हँसने लगा। उसने सारी कथा उन्हें कह सुनायी और अन्त में कहा, ‘‘यह रही उसकी गर्दन। इसे मैं साथ ही लेता आया कि तुम लोगों को विश्वास दिला सकूँ। अब डरने की कोई बात नहीं। जो हुआ सो भले के लिए ही हुआ। अब भविष्य में कोई ज्योतिषियों और ग्रहों का नाम लेकर हमें बहका नहीं सकेगा। और भविष्य के खतरे दिखाकर उनसे बचाने के नाम पर हमें लूटकर खा नहीं सकेगा।’’
जलचरों की समझ में तो यह बात आ गयी पर मनुष्यों की समझ में यह बात कभी नहीं आ सकेगी। पर मैं ठहरा सियार और तुम ठहरे पक्षियों में सबसे चौकस पक्षी, हम आदमियों जितने मूर्ख तो हो नहीं सकते।
कौआ और कौवी को अपनी बड़ाई सुनकर खुशी हुई, पर यह बात तो वे पहले से जानते थे कि मनुष्य बुद्धि के मामले में उनसे उन्नीस पड़ता है और अपने बच्चों को सिखाता है कि जैसे कौआ चौकन्ना रहता है उसी तरह तुम भी रहा करो। इस समय तो उन्हें काले साँप से छुटकारा चाहिए था और इसकी सलाह चाहिए थी। इसलिए कौआ कुछ उतावली में आ गया, ‘‘भाई, यह तो बताओ कि उस काले साँप से छुटकारा कैसे मिलेगा?’’
सियार ने कहा, ‘‘तुम ऐसा करो कि किसी पास के नगर में चले जाओ और वहाँ किसी राजा, साहूकार या जमींदार के यहाँ से कोई कीमती हार या माला उठा लाओ और साँप के उस कोटर में डाल दो। जो लोग तुम्हारा पीछा करते हुए आएँगे और हार को उस कोटर में गिरते देखेंगे तो वे जब हार निकालने चलेंगे तो पहला काम उस काले साँप को मारने का ही करेंगे। तुम्हारा कण्टक ही कट जाएगा।’’
सियार की बात सुनकर कौआ और कौवी दोनों उड़ चले। कौवी ने देखा कि किसी सरोवर में राजा के रनिवास की रानियाँ अपने सोने और मोती के हार और वस्त्र आदि किनारे रखकर जलविहार कर रही हैं। कौवी ने एक झपट्टा मारा और सोने की एक माला लेकर उड़ चली। अब जो रानियों की रखवाली के लिए आये हुए बूढ़े और जनखे थे, वे लाठी लेकर पीछे-पीछे दौड़ पड़े। कौवी ने योजना के अनुसार उस सोने की माला को कोटर में डाल दिया और दूर जाकर एक डाली पर बैठकर तमाशा देखने लगी। होना तो वही था जिसका सियार ने पहले ही अनुमान करा दिया था। जब वे कोटर के पास पहुँचे तो भीतर से साँप की फुफकार सुनाई दी। उन्होंने डण्डे से मार-मारकर उसका कीमा बना दिया। सोने की माला लेकर वे तो वापस लौट गये। इधर कौआ अपनी घरवाली के साथ आराम से रहने लगा और निश्चिन्त होकर अण्डे देने और बच्चे पालने लगा।
इस कथा को सुनाने के बाद दमनक बोला, ‘‘मैं इसीलिए कह रहा था कि उपाय से जो सम्भव है वह पराक्रम से भी सम्भव नहीं है। बुद्धिमान आदमी के लिए कोई काम असम्भव नहीं है। कहते हैं कि जिसके पास बुद्धि है बल भी उसी के पास है। बुद्धिहीन के पास भला बल हो भी कैसे सकता है?

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:44 PM
चींटियाँ साँप को चट कर गयीं
किसी वल्मीक में अतिदर्प नाम का एक काला नाग रहता था। एक दिन वह बिल के रास्ते को छोड़कर किसी दूसरे तंग रास्ते से निकलने लगा। उसका शरीर तो मोटा था और रास्ता सँकरा, इसलिए निकलते समय रगड़ से उसका शरीर छिल गया। अब उसके घाव और खून की गन्ध पाकर चींटियों ने उसे घेर लिया। वह विकल हो गया। वह भागता तो कहाँ भागता और जाता तो कहाँ जाता। चींटियाँ एक-दो तो थीं नहीं। उसका पूरा शरीर घावों से भर गया और उसके प्राण निकल गये।
इसीलिए कह रहा था, बहुत से लोगों का विरोध मोल नहीं लेना चाहिए। अब इस बारे में मुझे खास बात कहनी है। उसे सुनने के बाद आपको जो भी ठीक लगे कीजिए।
मेघवर्ण बोला, ‘‘कहिए। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा।’’
स्थिरजीवी बोला, ‘‘तो फिर साम आदि के चार उपायों के अलावा जो पाँचवाँ उपाय है उसे सुनें। आप मुझे विद्रोही घोषित कर दें। यह प्रकट न होने दें कि मैं आपसे मिल गया हूँ। इसके लिए मुझे ताड़ना देकर अपनी सभा से निकाल बाहर करें। यह काम इस तरह होना चाहिए कि शत्रु पक्ष के जासूसों को पूरा विश्वास हो जाए कि मुझे दरबार से निकाल दिया गया है। फिर कहीं से नकली खून मँगाकर मेरे शरीर पर जहाँ-तहाँ चुपड़कर इसी बरगद के नीचे पड़ा रहने दें और स्वयं ऋष्यमूक पर्वत की ओर चले जाएँ। वहाँ आप चैन से रहें। इधर मैं शत्रुओं को अपने जाल में फाँसता हूँ। उनका विश्वास पूरी तरह जम जाने के बाद मैं उनके दुर्ग का भेद मालूम कर लूँगा और फिर कभी दिन के समय जब उन्हें दिखाई नहीं देता, मैं उन्हें मार डालूँगा। इसे छोड़कर दूसरा कोई उपाय हमारे पास बचा नहीं है। शत्रुओं के दुर्ग में जान बचाकर भागने के लिए कोई गुप्त मार्ग नहीं है। वे बचकर निकलना भी चाहेंगे तो निकल नहीं पाएँगे। यही उनके सर्वनाश में सहायक होगा। आप तो जानते ही हैं कि कूटनीतिज्ञ उस दुर्ग को दुर्ग नहीं मानते जिससे निकल भागने का कोई रास्ता ही न हो। वह तो दुर्ग के नाम पर जेलखाना हुआ।
और देखिए, मेरे ऊपर जो भी बीते आपको मेरे साथ किसी तरह की दया नहीं दिखानी है। युद्ध के समय में राजा को अपने उन सेवकों को भी सूखे काठ की तरह युद्ध की आग में झोंक देना चाहिए जिन्हें उसने बड़े लाड़-प्यार से पाला हो। राजा अपने सेवकों की रक्षा अपने प्राणों की तरह करता है, उनका पालन-पोषण अपनी काया की तरह करता है, पर किसलिए? इसीलिए न कि जिस दिन शत्रु का सामना होगा उस समय वे काम आएँगे!
इसलिए इस समय मैंने जो सुझाव दिया आपको उसी पर चलना होगा। आप न तो मुझे रोकेंगे न ही मनाएँगे। इतनी बात गुपचुप समझाकर वह भरी सभा में मेघवर्ण से अकारण तकरार करने लगा।
अब उसके दूसरे सेवक स्थिरजीवी को ऊटपटाँग जवाब देते और उलटी-सीधी बातें करते देखकर जब उसका वध करने चले तो मेघवर्ण ने उन्हें रोक दिया, ‘‘आप लोग इसे रहने दें। शत्रुओं का पक्ष लेनेवाले इस दुष्ट को मैं अपने हाथों दण्ड दूँगा।’’ ऐसा कहकर वह उछलकर उसके ऊपर चढ़ गया और हल्के-हल्के उसे चोंच से मारते हुए यह दिखाने लगा कि वह उसे पूरी निर्दयता से मार रहा है। फिर उसके ऊपर मँगाया हुआ खून उँड़ेलकर उसके उपदेश को मानते हुए सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत की ओर रवाना हो गया।
इसी अवधि में उल्लुओं की दूती खिंडरिच ने कहीं से मेघवर्ण और स्थिरजीवी के बीच कलह का समाचार सुन लिया। वह झट उलूक राजा के पास जा पहुँची और सारी घटना बताकर बोली कि अब आपका शत्रु डरकर इस स्थान को छोड़कर जाने कहाँ चला गया। उलूकराज ने अपने सैनिकों को ललकारते हुए कहा, ‘‘दौड़ो, उनका पीछा करो। कोई बचकर निकलने न पाए। डरकर भागता हुआ शत्रु बड़े भाग्य से ही हाथ आता है। भागता हुआ शत्रु अपना पुराना स्थान छोड़ चुका रहता है और नये ठिकाने पर जम नहीं पाया रहता है, इसलिए उसकी हालत इतनी डाँवाडोल होती है कि वह बहुत आसानी से काबू में आ जाता है।’’
इस तरह अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करके उसने उस बरगद के पेड़ को चारों ओर से घेरकर उसी के नीचे डेरा डाल दिया। उस पेड़ की डाल-डाल छान मारने के बाद भी जब कोई कौआ नहीं मिला तो उसके बन्दीजन उसका गुणगान करने लगे। वह स्वयं पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर बैठकर कहने लगा, पता लगाओ वे किस मार्ग से यहाँ से भागकर गये हैं। नये दुर्ग में पहुँचने से पहले ही उनका सफाया कर दो। क्योंकि यदि शत्रु को टाट की भी ओट मिल जाए तो उसको हराना कठिन हो जाता है। यदि दुर्ग की सुरक्षा मिल गयी तब तो उसका बाल भी बाँका नहीं किया जा सकता।
स्थिरजीवी की ओर इस बीच किसी उल्लू ने ध्यान ही नहीं दिया। वह सोचने लगा कि यदि इनकी नजर मेरे ऊपर पड़ी ही नहीं तब तो मेरा सारा नाटक ही धरा रह जाएगा। कहते हैं कि समझदारी इसमें है कि किसी काम में हाथ ही न डालो। अगर हाथ डाल ही दिया तो उसे अन्त तक निभाओ। आरम्भ करके छोड़ देने से अच्छा तो यह था कि कुछ करते ही नहीं। आरम्भ किया है तो इसे सफल भी बनाना होगा। यदि वे स्वयं मुझे नहीं देख पाते हैं तो मैं अपनी कराह से इनका ध्यान अपनी ओर खींचूँगा। यह सोचकर वह धीरे-धीरे कराहने लगा। उसकी कराह सुनना था कि सारे उल्लू मारने के लिए एक साथ झपट पड़े।
उनको झपटते देखकर उसने कहा, ‘‘अरे भाई, मैं मेघवर्ण का मन्त्री स्थिरजीवी हूँ। मैं तो पहले से ही अधमरा हो चुका हूँ। उसी दुष्ट ने मेरी यह गति बना दी है। मेरी सारी बातें अपने स्वामी से जाकर बताओ। मुझे उनसे कुछ और जरूरी बातें करनी हैं।’’
जब उलूकराज ने स्थिरजीवी की पूरी रामकहानी सुनी तो वह स्वयं उसके पास आया और पूछा, ‘‘आपकी यह दशा कैसे हुई?’’
स्थिरजीवी बोला, ‘‘महाराज, हुआ यह कि वह दुष्ट मेघवर्ण आपके मारे हुए असंख्य कौओं की हालत देखकर क्रोध से भड़क उठा और आपके ऊपर चढ़ाई करने को तैयार हो गया। मैंने उस मूर्ख को उसके भले के लिए समझाया कि मालिक, आपको उलूकराज पर चढ़ाई करने की बात भी नहीं सोचनी चाहिए, क्योंकि हम लोग उनकी तुलना में अधिक कमजोर हैं। नीति यही कहती है कि दुर्बल राजा को अपने से अधिक शक्तिशाली राजा का विरोध करने की बात मन में नहीं लानी चाहिए। उसका तो इससे कुछ बिगड़ेगा नहीं पर चढ़ाई करने वाला उसी तरह मिट जाएगा, जैसे दीये की लौ पर हमला करनेवाले पतंगे जलकर राख हो जाते हैं। इसलिए हमारे पास एक ही उपाय है और वह यह कि हमें उन्हें उपहार आदि देकर सन्धि कर लेनी चाहिए। कहा भी है कि बलवान शत्रु को देखकर ही समझदार राजा को अपना सबकुछ देकर भी अपने प्राण बचा लेना चाहिए। जान बची रही तो धन तो बाद में भी आ जाएगा।
मेरी यह सलाह सुनकर वह मूर्ख भड़क उठा और क्रोध से भरकर मेरे ऊपर उसी समय हमला कर दिया और मार-मारकर मेरी यह गति बना दी। अब तो मैं आपकी ही शरण में हूँ। अधिक क्या कहूँ! अभी तो मुझसे चला-फिरा भी नहीं जा रहा है। चलने-फिरने लगा तो पहले मैं आपको ले चलकर वह जगह दिखाऊँगा जहाँ वे छिपे बैठे हैं। मेघवर्ण का नाश कराने से पहले मेरे जी को शान्ति नहीं।’’
उसकी बात सुनकर अरिमर्दन नाम का वह उल्लू अपने कुल के पुराने मन्त्रियों से सलाह करने लग गया। उसके भी एक नहीं पाँच मन्त्री थे। उनके नाम थे रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास और प्राकारकर्ण। सबसे पहले रक्ताक्ष से उसने पूछा, ‘‘मन्त्रिवर, शत्रुपक्ष का एक मन्त्री हमारे काबू में आ गया है। इस हालत में हमें क्या करना चाहिए?’’
रक्ताक्ष ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज, इसमें इतना सोच-विचार क्या करना। उसको झट मौत के घाट उतार देना चाहिए। कहते हैं, हीनः शत्रु निहन्तव्यो यावत् न बलवान् भवेत्। शत्रु कमजोर हो तभी उसे मार डालना चाहिए। यदि दया करके उसे उस समय छोड़ दिया और वह ताकतवर हो गया तो फिर उसे जीतना कठिन हो जाता है।
और फिर हाथ आया हुआ शत्रु तो हाथ आयी हुई लक्ष्मी होता है। यदि आयी लक्ष्मी को लौटा दिया तो वह शाप देती है। कहते हैं यदि आदमी अवसर की तलाश में रहे तो उसे एक बार अवसर जरूर मिलता है पर यदि उस समय भी आलस्य कर जाए तो अवसर हाथ से निकल जाता है और वह लौटकर फिर नहीं आता।’’

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:44 PM
पढ़े-लिखे मूर्ख
किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए।
अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे। बारह वर्ष तक जी लगाकर पढ़ने के बाद वे सभी अच्छे विद्वान हो गये।
अब उन्होंने सोचा कि हमें जितना पढ़ना था पढ़ लिया। अब अपने गुरु की आज्ञा लेकर हमें वापस अपने नगर लौटना चाहिए। यह निर्णय करने के बाद वे गुरु के पास गये और आज्ञा मिल जाने के बाद पोथे सँभाले अपने नगर की ओर रवाना हुए।
अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि रास्ते में एक तिराहा पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आगे के दो रास्तों में से कौन-सा उनके अपने नगर को जाता है। अक्ल कुछ काम न दे रही थी। वे यह निर्णय करने बैठ गये कि किस रास्ते से चलना ठीक होगा।
अब उनमें से एक पोथी उलटकर यह देखने लगा कि इसके बारे में उसमें क्या लिखा है।
संयोग कुछ ऐसा था कि उसी समय पास के नगर में एक बनिया मर गया था। उसे जलाने के लिए बहुत से लोग नदी की ओर जा रहे थे। इसी समय उन चारों में से एक ने पोथी में अपने प्रश्न का जवाब भी पा लिया। कौन-सा रास्ता ठीक है कौन-सा नहीं, इसके विषय में उसमें लिखा था, ‘‘महाजनो येन गतः स पन्था।’’
किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि यहाँ महाजन का अर्थ क्या है और किस मार्ग की बात की गयी है। श्रेणी या कारवाँ बनाकर निकलने के कारण बनियों के लिए महाजन शब्द का प्रयोग तो होता ही है, महान व्यक्तियों के लिए भी होता है, यह उन्होंने सोचने की चिन्ता नहीं की। उस पण्डित ने कहा, ‘‘महाजन लोग जिस रास्ते जा रहे हैं उसी पर चलें!’’ और वे चारों श्मशान की ओर जानेवालों के साथ चल दिये।
श्मशान पहुँचकर उन्होंने वहाँ एक गधे को देखा। एकान्त में रहकर पढ़ने के कारण उन्होंने इससे पहले कोई जानवर भी नहीं देखा था। एक ने पूछा, ‘‘भई, यह कौन-सा जीव है?’’
अब दूसरे पण्डित की पोथी देखने की बारी थी। पोथे में इसका भी समाधान था। उसमें लिखा था।
उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति सः बान्धवः।
बात सही भी थी, बन्धु तो वही है जो सुख में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रुओं का सामना करने में, न्यायालय में और श्मशान में साथ दे।
उसने यह श्लोक पढ़ा और कहा, ‘‘यह हमारा बन्धु है।’’ अब इन चारों में से कोई तो उसे गले लगाने लगा, कोई उसके पाँव पखारने लगा।
अभी वे यह सब कर ही रहे थे कि उनकी नजर एक ऊँट पर पड़ी। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतनी तेजी से चलने वाला यह जानवर है क्या बला!
इस बार पोथी तीसरे को उलटनी पड़ी और पोथी में लिखा था, धर्मस्य त्वरिता गतिः।
धर्म की गति तेज होती है। अब उन्हें यह तय करने में क्या रुकावट हो सकती थी कि धर्म इसी को कहते हैं। पर तभी चौथे को सूझ गया एक रटा हुआ वाक्य, इष्टं धर्मेण योजयेत प्रिय को धर्म से जोड़ना चाहिए।
अब क्या था। उन चारों ने मिलकर उस गधे को ऊँट के गले से बाँध दिया।
अब यह बात किसी ने जाकर उस गधे के मालिक धोबी से कह दी। धोबी हाथ में डण्डा लिये दौड़ा हुआ आया। उसे देखते ही वे वहाँ से चम्पत हो गये।
वे भागते हुए कुछ ही दूर गये होंगे कि रास्ते में एक नदी पड़ गयी। सवाल था कि नदी को पार कैसे किया जाए। अभी वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि नदी में बहकर आता हुआ पलाश का एक पत्ता दीख गया। संयोग से पत्ते को देखकर पत्ते के बारे में जो कुछ पढ़ा हुआ था वह एक को याद आ गया। आगमिष्यति यत्पत्रं तत्पारं तारयिष्यति।
आनेवाला पत्र ही पार उतारेगा।
अब किताब की बात गलत तो हो नहीं सकती थी। एक ने आव देखा न ताव, कूदकर उसी पर सवार हो गया। तैरना उसे आता नहीं था। वह डूबने लगा तो एक ने उसको चोटी से पकड़ लिया। उसे चोटी से उठाना कठिन लग रहा था। यह भी अनुमान हो गया था कि अब इसे बचाया नहीं जा सकता। ठीक इसी समय एक दूसरे को किताब में पढ़ी एक बात याद आ गयी कि यदि सब कुछ हाथ से जा रहा हो तो समझदार लोग कुछ गँवाकर भी बाकी को बचा लेते हैं। सबकुछ चला गया तब तो अनर्थ हो जाएगा।
यह सोचकर उसने उस डूबते हुए साथी का सिर काट लिया।
अब वे तीन रह गये। जैसे-तैसे बेचारे एक गाँव में पहुँचे। गाँववालों को पता चला कि ये ब्राह्मण हैं तो तीनों को तीन गृहस्थों ने भोजन के लिए न्यौता दिया। एक जिस घर में गया उसमें उसे खाने के लिए सेवईं दी गयीं। उसके लम्बे लच्छों को देखकर उसे याद आ गया कि दीर्घसूत्री नष्ट हो जाता है, दीर्घसूत्री विनश्यति। मतलब तो था कि दीर्घसूत्री या आलसी आदमी नष्ट हो जाता है पर उसने इसका सीधा अर्थ लम्बे लच्छे और सेवईं के लच्छों पर घटाकर सोच लिया कि यदि उसने इसे खा लिया, तो नष्ट हो जाएगा। वह खाना छोड़कर चला आया।
दूसरा जिस घर में गया था वहाँ उसे रोटी खाने को दी गयी। पोथी फिर आड़े आ गयी। उसे याद आया कि अधिक फैली हुई चीज की उम्र कम होती है, अतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेत् न चिरायुषम्। वह रोटी खा लेता तो उसकी उम्र घट जाने का खतरा था। वह भी भूखा ही उठ गया।
तीसरे को खाने के लिए ‘बड़ा’ दिया गया। उसमें बीच में छेद तो होता ही है। उसका ज्ञान भी कूदकर उसके और बड़े के बीच में आ गया। उसे याद आया, छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति। छेद के नाम पर उसे बड़े का ही छेद दिखाई दे रहा था। छेद का अर्थ भेद का खुलना भी होता है, यह उसे मालूम ही नहीं था। वह बड़े खा लेता तो उसके साथ भी अनर्थ हो जाता। बेचारा वह भी भूखा रह गया।
लोग उनके ज्ञान पर हँस रहे थे पर उन्हें लग रहा था कि वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अब वे तीनों भूखे-प्यासे ही अपने-अपने नगर की ओर रवाना हुए।
यह कहानी सुनाने के बाद स्वर्णसिद्धि ने कहा, ‘‘तुम भी दुनियादार न होने के कारण ही इस आफत में पड़े। इसीलिए मैं कह रहा था शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:45 PM
अन्धा, कुबड़ा और राजकुमारी
एक राजा था, उसकी एक गम्भीर समस्या थी। उसने ब्राह्मण बुलवाये। उनसे बताया कि उसके एक ऐसी कन्या हुई है जिसके तीन स्तन हैं। उसने उनसे इस अशुभ के निवारण का कोई उपाय बताने को कहा।
ब्राह्मण बोले, ‘‘यदि किसी राजा की कन्या का कोई अंग न हो या कोई अंग अधिक हो तो उसका अपना चरित्र भी दूषित होता है और उसके पति की मृत्यु भी हो जाती है।
हीनांगी वाऽधिकांगी वा या भवेत् कन्यका नृणाम्।
भर्तुः स्यात् सा विनाशाय, स्वशीलनिधनाय च।
फिर उन्होंने बताया कि इनमें भी तीन स्तनों वाली कन्या से तो और भी अनिष्ट हो जाता है। यदि ऐसी कन्या नजर भी आ जाए तो इससे पिता का नाश होते देर नहीं लगती।
या पुनस्त्रिस्तनी कन्या याति लोचनगोचरम्।
पितरं नाशयत्येव सा द्रुतं, नाऽत्र संशयः।
ब्राह्मण जिस तरह की सलाह देने के लिए बुलाये जाते रहे हैं उस तरह की सलाह उन्होंने दे दी और कहा कि राजा उस कन्या को इस तरह रखे कि उस पर उसकी नजर न पड़ने पाए। यदि कोई इसके साथ विवाह करना चाहे तो उसके साथ इसका विवाह करके उसे राज्य से बाहर निकाल दिया जाए।
राजा ने ऐसा ही किया। उसको एक गुप्त स्थान में इस तरह छिपाकर रखा गया कि किसी भी सूरत में उस पर राजा की नजर न पड़ने पाए। कन्या धीरे-धीरे जवान होती गयी। जब शादी की उम्र हुई तो राजा ने मुनादी फिरा दी कि जो कोई उसकी तीन स्तनों वाली कन्या से विवाह करेगा उसे एक लाख सोने की मुहरें दी जाएँगी पर इसके साथ ही उसे राज्य से बाहर भी निकाल दिया जाएगा।
राजा को मुनादी कराये बहुत दिन बीत गये पर कोई उस कन्या से विवाह करने के लिए नहीं आया। उसी नगर में एक अन्धा रहता था। उसका एक सहायक था। उसका नाम था मन्थरख। वह शरीर से कुबड़ा था। वह उस अन्धे की लाठी पकड़कर चलता था। उन दोनों ने राजा की मुनादी का समाचार सुना पर उस समय उनकी हिम्मत यह कहने की नहीं हुई कि उनमें से कोई उससे विवाह करना चाहता है। जब उन्होंने देखा कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी कोई उस कन्या से विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो उन्होंने सोचा कि क्यों न हम एक बार चलकर अपना भाग्य आजमाएँ और उस नगाड़े को छूकर अपना इरादा प्रकट कर दें। यदि राजा मान गया तो राजकुमारी के साथ एक लाख सोने की मुहरें मिल जाएँगी और पूरा जीवन आराम से कटेगा। यदि राजा सुनकर बिगड़ उठा तो अधिक से अधिक जान से मरवा देगा। इससे उन्हें अपने इस नरक जैसे जीवन से छुटकारा तो मिलेगा।
यह तय कर लेने के बाद अन्धे ने उस कुबड़े के साथ जाकर नगाड़े को हाथ लगा दिया। यह नगाड़ा छूने का काम कुछ उसी तरह का था जैसे राजसभा में किसी काम का बीड़ा उठाने का होता है। नगाड़े को छूकर उसने कहा, ‘‘मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूँ।’’
राजा के सिपाहियों ने यह बात राजा को बताकर पूछा कि आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाए।
राजा ने कहा, ‘‘रूप-रंग या उम्र पर न जाओ। कोई अन्धा हो या लँगड़ा, कोढ़ी हो या खंजा, जात हो या बेजात, काला हो या गोरा, जो भी उससे विवाह करना चाहता है उसके साथ विवाह कर दिया जाएगा, पर उसे मेरे राज्य से बाहर अवश्य जाना होगा।
राजा की आज्ञा पाकर उन सिपाहियों ने नदी के किनारे ले जाकर उस अन्धे के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया। राजा की ओर से उसे एक लाख मुहरें दे दी गयीं। फिर उसे नाव में बैठाकर मल्लाहों से कहा गया कि वे उसे राज्य से बाहर छोड़ आएँ।
अब वे दूसरे देश में जाकर आराम से रहने लगे। अन्धा तो दिन-रात मजे से चारपाई तोड़ता रहता। घर का सारा काम कुबड़े को सँभालना पड़ता था। इस तरह कुछ दिनों के बाद राजकुमारी का उस कुबड़े मन्थरक से लगाव पैदा हो गया। यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि चाहे दुनिया उलट जाए पर कोई स्त्री सती हो ही नहीं सकती। फिर इस तीन स्तनोंवाली कन्या के तो भाग्य में ही चरित्रहीन होना लिख दिया गया था।
एक दिन उस कन्या ने मन्थरक से कहा, ‘‘यह अन्धा हमारी राह का काँटा बना हुआ है। कहीं से जहर ले आओ और इसे पिलाकर ठण्डा कर दिया जाए। फिर हम दोनों खुलकर मौज करें।’’
अगले दिन जब मन्थरक जहर की तलाश में निकला तो उसे एक काला नाग मिल गया। उसे लेकर वह खुश-खुश घर लौटा। उसने राजकुमारी से कहा, ‘‘प्रिये, इस काले नाग को काटकर मसाले के साथ पकाकर इस अन्धे को खिला दो। इसे मछली खाने का बड़ा शौक है। चुपचाप खा लेगा और इसके साथ ही इसकी छुट्टी हो जाएगी।’’
यह कहकर मन्थरक कहीं बाहर चला गया। उस राजकुमारी ने साँप के टुकड़े किये और तेल में भूनकर आग पर पकने को छोड़ दिया। इसी बीच उसे कोई काम आ पड़ा। उसने अन्धे से कहा कि चूल्हे पर मछली पक रही है। वह उसके पास ही बैठ जाए और बीच-बीच में कलछी से चलाता रहे।
मछली का नाम सुनते ही अन्धे की लार टपकने लगी। वह कलछी लेकर उसे चलाने लगा। चलाते समय साँप की जहरीली भाप उसकी आँखों में लगी तो इससे उसका मोतियाबिन्द गलने लगा। भाप उसे बहुत अच्छी लग रही थी इसलिए उसने जमकर सिंकाई की।
उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि वहाँ तो मछली के स्थान पर साँप के टुकड़े पड़े हैं। उसकी समझ में न आया कि उसकी पत्नी ने इसे मछली बताकर चलाते रहने को क्यों कहा। उसने इसकी तह में जाने के लिए फिर अपने अन्धा होने का बहाना किया और साँप को मछली मानकर उसमें कलछी घुमाने लगा।
इसी समय कुबड़ा बाहर से आया। उसने राजकुमारी को चूमना और उससे लिपटना शुरू कर दिया। और फिर इसके बाद तो कुछ बाकी रहना नहीं था।
अन्धे को आया क्रोध। वह उठा और टटोलता हुआ उस चारपाई पर पहुँच गया। आसपास कोई हथियार नहीं मिला तो उसने कुबड़े को टाँग से पकड़ा और पूरी ताकत लगाकर घुमाकर राजकुमारी की छाती पर दे मारा। इस चोट के साथ ही राजकुमारी का तीसरा स्तन उसकी छाती में घुस गया। इस तरह घुमाये जाने के कारण जो झटका लगा उससे कुबड़े का कुबड़ापन भी ठीक हो गया।
अब यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है। भाग्य साथ दे तो उलटे काम के भी सीधे नतीजे निकलते हैं।

VARSHNEY.009
13-07-2013, 12:46 PM
वणिक-पुत्र की पत्नी
हितोपदेश’ भारतीय नीति-कथाओं का संग्रह है। इसका रचनाकाल 850 वर्ष ई. पू. माना गया है। ‘हितोपदेश’ की नीतिपरकता और सोद्देश्यता का प्रभाव परवर्ती विदेशी कथा साहित्य पर भी पड़ा है। इन कथाओं का मूल आधार बुद्धि और शक्ति का कम-से-कम व्यय और लक्ष्य की अधिक-से-अधिक प्राप्ति है। यह बात बुद्धिमत्ता और नीतिनिपुणता से ही सम्भव है। यहाँ एक ऐसे ही चातुर्य की कहानी प्रस्तुत है।

कन्नौज में वीरसेन का राज्य था। वीरसेन ने अपने पुत्र को अपने प्रतिनिधि के रूप में वीरपुर भेजा। राजकुमार धनी था, सुन्दर था और अभी युवक था। एक दिन जब वह अपने नगर की गलियों में से गुजर रहा था कि उसे एक बेहद सुन्दर युवती दिखाई दी, जिसका नाम लावण्यवती था। लावण्यवती एक सौदागर के बेटे की पत्नी थी। राजकुमार महल में पहुँचा, तब तक लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसके हृदय में स्थायी जगह बना ली थी। उसने एक दासी के हाथ लावण्यवती को एक पत्र भेजा। इस पत्र में राजकुमार ने लिखा था कि लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसे बिद्ध कर डाला है।
अब, दूसरी ओर लावण्यवती का भी वही हाल था, जो राजकुमार का था, लेकिन जब राजकुमार की दासी ने उसे पत्र देना चाहा, तो उसने उसे लेने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे डर था कि पत्र लेने से उसका अपमान होगा।
‘‘मैं तो अपने पति की हूँ।’’ वह बोली, ‘‘मेरे पति ही मेरा मान हैं। पत्नी का मान भी तभी तक है, जब तक उसके मन में अपने पति का आधार है। मेरे जीवनाधार जो कहेंगे, मैं वही करूँगी।’’
‘‘क्या मैं जाकर यही उत्तर दूँ?’’ दासी ने पूछा।
‘‘हाँ,’’ लावण्यवती ने कहा।
दासी ने जब जाकर राजकुमार से वैसा ही कहा, तो वह उदास हो गया।
‘‘पंचशर देव ने मुझे बिद्ध कर दिया है,’’ वह बोला, ‘‘केवल लावण्यवती की उपस्थिति ही मेरे घावों को मिटा सकती है।’’
‘‘तब हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि उसका पति ही उसे यहाँ ले आए,’’ दासी ने कहा।
‘‘वह कभी हो ही नहीं सकता,’’ राजकुमार बोला।
‘‘हो सकता है,’’ दासी ने जवाब दिया। ‘‘जो पराक्रम से नहीं होता, वह उपाय से हो जाता है। शृगाल ने कीचड़ वाले मार्ग से चलकर हाथी को मार डाला था।’’
‘‘सो कैसे?’’ राजकुमार ने पूछा।
दासी बोली -
‘‘ब्रह्म जंगल में कर्पूरतिलक नामक एक हाथी रहता था। शृगाल उसे जानते थे। एक दिन वे आपस में कहने लगे, ‘‘अगर यह बड़ा जानवर किसी तरह मार डाला जाए, तो हम लोग चार महीने तक उसे खा सकेंगे।’’ तब एक बूढ़ा शृगाल उठ खड़ा हुआ और उसने वादा किया कि वह अपनी बुद्धि के बल पर इस हाथी को मार डालेगा। तदनुसार, वह कर्पूरतिलक की खोज में निकल पड़ा। उसके पास पहुँचकर उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘हे दैवी प्राणी! एक बार अपनी कृपादृष्टि मुझ पर भी डालिए।’’
‘‘तुम कौन हो?’’ हाथी चिंघाड़ा, ‘‘यहाँ क्या लेने आए हो?’’
‘‘मैं एक शृगाल हूँ,’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘जंगल के जीवों का खयाल है कि वे राजा के बिना जिन्दा नहीं रह सकते। उन्होंने एक सभा करके मुझे आपके पास यह सन्देश देने के लिए भेजा है कि वे आपको अपना राजा बनाना चाहते हैं। अतः मेरा आपसे अनुरोध है कि आप तुरन्त वहाँ चलिए ताकि सौभाग्य का यह क्षण टल न जाए।’’ इतना कहकर वह आगे-आगे चलने लगा। पीछे-पीछे कर्पूरतिलक चल रहा था। वह जल्दी ही अपना शासन शुरू कर देना चाहता था।
अन्ततः शृगाल उसे एक गहरे गड्ढे के पास ले आया और ऊपर से ढँका होने के कारण हाथी उसमें गिर पड़ा।
‘‘प्यारे भाई शृगाल,’’ हाथी चिल्लाया, ‘‘अब क्या होगा? मैं तो बुरी तरह कीचड़ में धँस गया हूँ।’’
‘‘महाराज!’’ शृगाल ने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘आप मेरी पूँछ पकड़कर बाहर आ जाइए।’’
तभी कर्पूरतिलक को अन्दाज मिला कि उसे फाँसा गया है। वह कीचड़ में डूब गया। शृगालों ने मिलकर उसे खा लिया। यही कारण है कि मैंने आपसे उपाय द्वारा काम करने की बात कही है।
दासी के कहने पर राजकुमार ने शीघ्र ही सौदागर के बेटे चारुदत्त को बुलावा भेजा। राजकुमार ने उसे अपने साथ रख लिया। एक दिन स्नान के बाद उसने चारुदत्त से कहा, ‘‘मैंने गौरी की मन्नत मना रखी है, जो मुझे पूरी करनी है-तुम्हें एक काम करना होगा। एक महीने तक हर शाम तुम किसी अच्छे परिवार की कोई स्त्री मेरे पास लाओगे ताकि मैं उसका सत्कार कर सकूँ। यह काम आज से ही शुरू होना है।’’
चारुदत्त शाम के वक्त एक स्त्री को ले आया और उसे राजकुमार के पास छोड़कर एक ओर चला गया और छुपकर देखने लगा कि राजकुमार क्या करता है। राजकुमार ने स्त्री के पास गये बिना ही उसे नमस्कार किया और फिर आभूषण, वस्त्र, चन्दन, इत्र आदि की भेंट देकर एक सिपाही के साथ विदा कर दिया। इससे चारुदत्त को बड़ी सन्तुष्टि हुई। उसका जी ललचा आया। इसलिए इतनी सारी भेंट पाने के लालच में दूसरी शाम अपनी पत्नी को ही ले आया। जब राजकुमार ने अपनी जिन्दगी, लावण्यवती को सामने पाया, तो यह कूदकर उसके पास चला आया। उसने उसे आलिंगन में बाँधकर लगातार चूमना शुरू कर दिया। यह दृश्य देखकर बेचारा चारुदत्त वहीं जड़ हो गया - जैसे वह बेचारगी की मूर्ति बन गया था।
वणिक्-पुत्र ने लालच में पड़ एक जाल फैलाया,
लेकिन बदले में पत्नी को चुम्बित होते पाया।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 12:59 PM
2012 का सच / मनोहर चमोली 'मनु'

चूहे ने आवाज लगाई-”मीकू खरगोश। बिल से बाहर निकलो। धरती खत्म होने वाली है। चलो भागो।” मीकू बिल से बाहर निकला। चूहे से कहने लगा-”भाग कर जाएंगे कहां?” चूहे ने जवाब दिया-” तुमने नहीं सुना? सन् 2012 में धरती समाप्त हो जाएगी। चलो, जहाँ सब भाग रहे हैं।”
“वहाँ कहाँ ? धरती तो गोल है। रहेंगे तो धरती पर ही न। उड़ने वाले पक्षी भी कहां जाएंगे? पानी में रहने वाले जीव भी कहां जाएंगे? कभी सोचा भी है? सुनी-सुनाई बातों में ध्यान नहीं देते। कुछ समझे?” मीकू ने चूहे को डांटते हुए कहा।
“मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मैं तो इतना जानता हूं कि धरती सन् 2012 में खत्म होने वाली है। आकाश से बमबारी होने वाली है। भयानक धमाका होगा और फिर सब कुछ खत्म हो जाएगा। यही कारण है कि हर कोई जान बचाने के लिए भाग रहा है।” चूहे ने सिर खुजाते हुए बोला।
मीकू को हंसी आ गई। वह बोला-”तुम बहुत भोले हो। आकाश में धमाके होते ही रहते हैं। इन धमाको को अंतरिक्ष की खगोलीय घटना कहते हंै। धरती जैसे कई हजारों ग्रह अंतरिक्ष का भाग हैं। अंतरिक्ष में एक क्षुद्र ग्रह पट्टी है। जिसे ‘एस्ट्रायड बेल्ट’ कहते हैं। इस बेल्ट से कई बार विशालकाय चट्टान निकल कर छिटक जाती है। वातावरण के दबाव की वजह से यह चट्टानें धरती की सतह पर टकराने से पहले ही वायुमंडल में नष्ट हो जाती है।”
चूहे ने पूछा-”तो क्या आसमान से बारिश के साथ-साथ बड़े-बड़े पत्थर भी गिर सकते हैं?”
“और नहीं तो क्या। वे तो गिरते ही रहते हैं। आसमान से विशालकाय चट्टानें औसतन दस-बारह साल में एक बार धरती पर गिरती ही हैं। धरती पर हर रोज कुछ न कुछ तो गिरता ही रहता है। पर वह धरती की सतह पर आने से पहले ही कई किलोमीटर उपर ही भस्म हो जाता है। धरती पर धूल के कण ही गिर पाते हैं।” मीकू ने आसमान की ओर देखते हुए बताया।
“अरे ! ये तो वाकई बहुत खतरनाक है।” चूंचू ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा। “इससे खतरनाक तो आग के गोले हैं।” मीकू ने कहा।
“क्या? आग के गोले! अब ये मत कहना कि आसमान से आग के गोले भी धरती पर गिर सकते हैं?” चूंचू उछल पड़ा।
मीकू ने समझाया-” गिरते हैं भाई। सूरज भी तो आग का गोला है। धरती अरबों साल पहले सूरज से ही तो छिटक कर दूर जा गिरी थी। सालों बाद वह ठंडी हुई। समझे। क्षुद्र ग्रह पट्टी से निकली चट्टानें कई बार वायुमंडल की रगड़ से आग के गोले में बदल जाती है। जरा सोचो, यदि ये आग के गोले बारिश की तरह धरती पर गिरने लगें तो क्या होगा?”
चूंचू डरते हुए कहने लगा-”मुझे तो डर लग रहा है।”
मीकू ने हंसते हुए कहा-”डरो नहीं। देखो। अभी अंतरिक्ष के कई रहस्य हैं, जिनके बारे में विज्ञान भी मौन है। अंतरिक्ष की कई घटनाएं ऐसी हैं, जिनके कारणों का जवाब किसी के पास अभी तक नहीं है। लेकिन खोज जारी हैं। वैज्ञानिक लगातार अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाने में लगे हुए हैं। तुम हो कि भागने की सोच रहे हो।”
चूंचू ने पूछा-”तुम अंतरिक्ष के बारे में इतना कैसे जानते हो?”
मीकू ने गर्व से कहा-”मैं पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता हूं। विज्ञान और अंतरिक्ष से जुड़े चैनलों के कार्यक्रम देखता हूं। और हां। मैं सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करता। प्राकृतिक आपदाओं को टाला नहीं जा सकता है। हां। उनसे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हमें जागरुक रहना चाहिए। तो क्या अब भी तुम दौड़ोगे?”
चूहे ने कान खुजाते हुए कहा-”नहीं। नहीं। मैं यहीं हूं। आज तक तो मैं कार्टून ही देखा करता था। लेकिन अब मैं भी विज्ञान और अंतरिक्ष से जुड़े कार्यक्रमों को भी देखूंगा। मैं चला।” यह कहकर चूंचू अपने बिल में घुस गया और टी.वी. में विज्ञान चैनलों को खोजने लग गया।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:15 AM
अंतिम ग़रीब / जगदीश कश्यप

दरबान ने आकर बताया कि कोई फरियादी उनसे जरूर मिलना चाहता है। उन्होंने मेहरबानी करके भीतर बुलवा लिया। फरियादी झिझकता-झिझकता उनके दरबार में पेश हुआ तो वे चौंक पड़े। उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह वहाँ कैसे आ गया! फिर यह सोचकर कि उन्हें भ्रम हुआ है, उन्होंने पूछ लिया—“कौन हो?”
“मैं गरीबदास हूँ सरकार।”
“गरीबदास! तुम? तुम्हें तो मैंने दफन कर दिया था!!”
“भूखे पेट रहा नहीं गया माई-बाप। इसलिए उठकर चला आया।”
“अब क्या चाहते हो?”
“कुछ खाने को मिल जाए हुजूर्।”
“अभी देता हूँ।” उसे आश्वासन देकर उन्होंने सामने दीवार पर टँगी अपनी दुनाली उतार ली,“यह लो खाओ…!”
दुनाली ने दो बार आग उगल दी। गरीबदास वहीं ढेर हो गया।
“दरबान, इसे ले जाकर दफना दो। इस कमीने ने तो तंग ही कर दिया है…।”

दूसरे दिन जब वह गरीबी-उन्मूलन के प्रारूप को अंतिम रूप दे रहे थे तो दरबान हड़बड़ाया हुआ-सा उनके कमरे में जा घुसा। उसकी घिग्घी बँधी हुई थी।
“मरे क्यों जा रहे हो?” उन्होंने डाँटा।
“हुजूर-हुजूर…” दरबान ने भयभीत आँखों से बाहर द्वार की ओर संकेत करते हुए कहा, “वही फरियादी फिर आ पहुँचा है…!!!”

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:15 AM
अंततोगत्वा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक अमीर था। अपने भंडार और उसमें रखी पुरानी शराब पर उसे बड़ा घमंड था। उसके पास पुरातन किस्म का एक सागर(शराब सुरक्षित रखने व कप में डालने वाला ढक्कनदार बर्तन) भी था जिसे खास मौकों पर वह अपने लिए इस्तेमाल करता था।
एक बार राज्य का गवर्नर उससे मिलने आया। अमीर ने उसके बारे में अनुमान लगाया और तय किया, "इस दो कौड़ी के गवर्नर के सामने सागर को निकलने की जरूरत नहीं है।"
फिर एक रोमन कैथोलिक बिशप उससे मिलने आया। तब उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, मैं सागर को नहीं निकालूँगा। यह न तो उसका ही महत्व समझ पाएगा; और न ही उसमें रखी शराब की गंध की कीमत को इसके नथुने जान पाएँगे।"
राज्य का राजा आया और उसने उसके साथ शराब पी। लेकिन अमीर ने सोचा, "मेरे भंडार की शराब इस तुच्छ राजा से कहीं ज्यादा रुतबे वाली है।"
यहाँ तक कि उस दिन, जब उसके भतीजे की शादी थी, उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, इन मेहमानों के सामने उस सागर को नहीं लाया जा सकता।"
साल बीतते गए और वह मर गया। उसे और एक बूढ़े को वैसे ही एक साथ दफनाया गया जैसे बरगद का बीज और किसी छोटे पौधे का बीज साथ-साथ जमीन में दफन होते हैं।
और उस दिन, जब उसे दफनाया गया था, रिवाज़ के मुताबिक सभी सागरों को बाहर निकाला गया। तब वह पुराना सागर भी दूसरे सागरों के साथ रख दिया गया। उसकी शराब को भी गरीब पड़ोसियों में बाँट दिया गया। किसी को भी उसके बेशकीमती होने का पता न चला।
उनके लिए, कप में डाली जाने वाली शराब सिर्फ शराब थी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:15 AM
अंतरयामी / अन्तरा करवड़े

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:15 AM
मेरी दादी¸ पूजा पाठ¸ जप तप में दिन रात लगी रहती है। हमारे घर ठाकुरजी के स्नान प्रसादी के बगैर कोई भी अन्न मुँह में नहीं डालता। दादी फिर ठाकुरजी का श्रृंगार करती है¸ उनकी बलाएँ लेती है¸ लड्*डू गोपाल को मनुहार से प्रसाद खिलाती है। उनके एक प्रभुजी महाराज है। बड़े तपस्वी¸ ज्ञानी संत है। ठाकुरजी के परम्* भक्त । ठाकुरजी उनसे स्वप्न में आकर बातें करते है। ऐसा दादी हमें बताती है। कभी - कभी हमें भी अपने साथ मंदिर में ले जाकर उनसे आशीष दिलवाती है। वहाँ बड़े अच्छे - अच्छे पकवान मिलते है खाने को। लेकिन वो कितना ही जिद करो¸ रोज ले ही नहीं जाती।
दादी कहती है¸ प्रभुजी महाराज अंतरयामी है। मेरे पूछने पर उन्होंने हँसते हुए यह बताया भी था कि जो सामने वाले के मन की बातें जान ले¸ उसे अंतरयामी कहते है। बड़ी कठिन तपस्या से ये बल मिलता है। मैं आँखें फाड़े सुनती रही थी उनकी ये बातें।
फिर कुछ दिनों के बाद दादी ने बड़ा ही कठिन व्रत रखना शुरू किया। दिन भर बस फल और दूध और रात में नमक का फरियाल। ऐसा वे लगातार दो महीने तक करने वाली थी। उनकी तबीयत खराब होती¸ उपवास सहन नहीं होते लेकिन डॉक्टर के स्पष्ट मना करने के बावजूद वे किसी का भी कहा नहीं माना करती।
मैंने उनसे काफी पहले यह पूछा था कि कठिन व्रत उपवास आखिर क्यों किये जाते है? तब उन्होंने मुझे बताया था कि किसी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही ऐसा किया जाता है। मुझे समझ में नहीं आया कि इस उम्र में उनकी ऐसी क्या मनोकामना हो सकती है जो वे इतना कठिन व्रत कर रही है।
मैंने माँ से पूछा। मां ने मुस्कुराकर जवाब दिया¸ "तेरी दादी को इस घर में एक कुलदीपक चाहिये है। तेरा छोटा भाई! तभी तो ये सब कर रही है वे।" मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। फिर व्रत की पूर्णाहूति पर मैंने उन्हें भोग लगाते समय ठाकुरजी से कहते सुना¸ "एक कुलदीपक की कृपा करो प्रभु। तुम्हारे लिये सोन की बंसरी बनवा दूँगी।"
यानी माँ की बात सही थी। लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई। यही कि प्रभुजी महाराज के जैसे माँ ने भी तो दादी के मन की बात जान ली थी। फिर दादी उसे अंतरयामी क्यों नहीं कहती?

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:16 AM
अंतिम यात्रा / अरुण कुमार

अर्थी उठने में देरी हो रही है। अन्तिम यात्रा में शामिल होने वालों की भीड़ घर के बाहर जमा है। वर्मा को बीड़ी की तलब उठी तो वह शर्मा की बाँह पकड़कर एक तरफ को ले चला। थोड़ी दूर जाकर वर्मा ने बंडल निकाला-- “यही जीवन का सबसे बड़ा सच है जी! यही सच है…!”
शर्मा ने एक बीड़ी पकड़ते हुए कहा-- “हाँ भाई साहब, एक दिन सभी को जाना है।”
“अब देर किस बात की हो रही है?” --वर्मा ने वर्मा ने बंडल वापस जेब के हवाले किया।
“बड़ा लड़का आ रहा है बंगलोर से। हवाई जहाज से आ रहा है। सुना है कि उसका फोन आ गया है, बस पाँच-सात मिनट में पहुँचने ही वाला है।” --शर्मा ने अपनी बीड़ी के दोनों छोर मुँह में डालकर हल्की-हल्की फूँक मारीं।
“लो जी, अब इसके बालकों को तो सुख ही सुख है…सात पीढ़ियों के लिए जोड़कर जा रहा है अगला।” --वर्मा ने माचिस में से एक सींक निकालकर जलाई।
“और क्या जी, इसे कहते हैं जोड़े कोई और खाए कोई। साले ऐश करेंगे... ऐश!” --वर्मा द्वारा जलाई सींक से शर्मा की बीड़ी भी जल उठी।
“भाई साहब, अब उन सब घोटालों और इंक्वारियों का क्या होगा जो इनके खिलाफ चल रही हैं?” --वर्मा ने गहरा काला धुँआ बाहर उगला।
“अजी होना क्या है। जीवन की फ़ाइल बन्द होते ही सब घोटालों-इंक्वारियों की फ़ाइलें भी बन्द हो जानी हैं। आखिर मुर्दे से तो वसूलने से रहे…” --शर्मा ने जो धुँआ उगला, वह वर्मा द्वारा उगले गये धुँए में मिलकर एक हो गया।
“वैसे भाई साहब, नौकरी करने का असली मजा भी ऐसे ही महकमों में है…क्यों?” --वर्मा ने गहरे असन्तोष-भरा धुँआ अपने फेफड़ों से बाहर उगला।
“और क्या जी, असली जिन्दगी ही लाखों कमाने वालों की है। अब, ये भी कोई जिन्दगी है कि सुबह से शाम तक माथा-पच्ची करके भी केवल पचास-सौ रुपए ही बना पाते हैं। हम तो अपना ईमान भी गँवाते हैं और मजे वाली बात भी नहीं...” --शर्मा ने भी अपना सारा असन्तोष धुँए के साथ बाहर उगल दिया।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:16 AM
अंतिम संस्कार / बलराम अग्रवाल

पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:17 AM
अंधे : ख़ुदा के बंदे / रमेश बतरा

-इस आदमी को क्यों नहीं चढ़ने दे रहे आप…इसे भी तो जाना है।
-यह तो कहीं भी चढ़ जायेगा। रह भी गया तो अगली गाड़ी से आ जायेगा। मगर तुम्हें तकलीफ होगी।
-मुझ पर इतना तरस क्यों खा रहे हैं आप?
-तुम अंधे जो हो…अपाहिज।
-मैं ही क्यों, आप भी तो अपाहिज हैं।
-सूरदास, भगवान ने आँखें नहीं दीं, कम-से-कम जुबान का तो सही इस्तेमाल कर… मीठा बोलना सीख।
-आपको तो भगवान ने सब-कुछ दिया है; पर क्या दुनिया का कोई भी काम ऐसा नहीं जो आप नहीं कर सकते?
-बहुत-से काम हैं।
-फिर उन कामों को लेकर तो आप भी अपाहिज ही हुए। और तो और, भगवान ने आपको आँखें दी हैं और आप उनका भी सही इस्तेमाल नहीं कर रहे।
-यह तो फिलोसफर लगता है।
-कैसे भई कैसे?
-आपकी आँखें यह नहीं देख रहीं कि दो आदमी हैं और आपका इंसानी फर्ज है कि आपकी तरह वे भी अपनी मंजिल पर पहुँच जायें, बल्कि आपकी आँखें अंधे और सुजाखे को देख रही हैं। जो आदमी होकर आदमी को नहीं पहचानता, उससे ज्यादा अपाहिज कोई नहीं होता।
-अच्छा-अच्छा, भाषण मत दे। चढ़ना है तो चढ़ गाड़ी में, वरना भाड़ में जा…हमें क्या पड़ी है!
-मुझे मालूम था, आप यही कहेंगे। आपकी तकलीफ मैं समझता हूँ…आप एक अंधे को गाड़ी पर चढ़ाकर पुण्य कमाना चाहते थे, किन्तु धर्मराज की बही में आपके नाम एक पुण्य चढ़ता-चढ़ता रह गया।
-पुण्य कमाने के लिए एक तू ही रह गया है बे?…मैं तो इसलिए कह रहा था कि अंधे बेचारों की हालत तो दो-तीन साल के बच्चों से भी बुरी हुई रहती है।
-वाह! दो-तीन साल का बच्चा इस तरह गाड़ी पकड़ सकता है क्या?
-बच्चा भला क्या गाड़ी पकड़ेगा अपने आप!
-मैं अकेला आया हूँ स्टेशन पर…कोई लाया नहीं मुझे।
-पुलिस से बचकर भाग रहा होगा…आजकल खूब ठुकाई कर रही है तुम्हारी।
-अजी, अपना हक माँगने गये थे, भीख माँगने नहीं…लाठी पड़ गयी तो क्या हुआ। आप जाइए तो आप पर भी पड़ सकती हैं लाठियाँ तो।
-हम तो कैसे भी बचाव कर सकते हैं अपना…मगर तुम…!
-देख लीजिए, जीता-जागता खड़ा है यह अविनाश कुमार आपके सामने।
उस आदमी के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ा। गाड़ी, जो सीटी दे चुकी थी, अब चल पड़ी। अविनाश कुमार ने लपककर डंडा पकड़ते हुए अपने पाँव फुटबोर्ड पर जमा दिए। लोग उसका हाथ थामकर उसे डब्बे के अंदर लेने की कोशिश करने लगे…और अविनाश कुमार बड़ी मजबूती-से डंडा थामे कहता रहा—इंसान को संभालना इंसान का फर्ज है…इस नाते मैं आपकी तारीफ करता हूँ…पर मुझे अंधा समझकर मुझ पर दया मत कीजिए…मुझे अपने लायक बनने दीजिए…अंधा हो चुका…मोहताज नहीं होना चाहता…!
गाड़ी तेज होती चली जा रही थी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:17 AM
अकेला कब तक लड़ेगा जटायु / बलराम अग्रवाल

लगभग चौथे स्टेशन तक कम्पार्टमेंट से सभी यात्री उतर गये। रह गया मैं और बढ़ती जा रही ठंड के कारण रह-रह क़र सिहरती, सहमी आँखों वाली वह लड़की। कम्पार्टमेंट में अनायास उपजे इस एकांत ने अनेक कल्पनाएँ मेरे मन में भर दीं—काश! पत्नी इन दिनों मायके में रह रही होती…बीमार…अस्पताल में होती…या फिर…। कल्पनाओं के इस उन्माद में अपनी सीट से उठकर मैं उसके समीप जा बैठा।
गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी। एक…दो…तीन नये यात्रियों ने प्रवेश किया, पूरे कम्पार्टमेंट का एक चक्कर लगाया और एक-एक कर उनमें से दो हमारे सामने वाली बर्थ पर आ टिके।
“कहाँ जाओगे?” गाड़ी चलते ही एक ने पूछा।
“शामली।” मैं बोला।
“यह?” सभ्यता का अपना लबादा उतारकर दूसरे ने पूछा।
“येयि…यह…।” मैं हकलाया।
“मैं पत्नी हूँ इनकी।” स्थिति को भाँपकर लड़की बोल उठी। अपनी दायीं बाँह से उसने मेरी बाँह को जकड़ लिया।
“ऐसी की तैसी…तेरी…और तेरे इस शौहर की।” दूसरे ने झड़ाक से एक झापड़ मुझे मारकर लड़की को पकड़ लिया।
“बचा लो…बचा लो…यों चुप न बैठो…!” मेरी बाँह को कुछ और जकड़कर लड़की भयंकर भय और विषाद से डकरा उठी। दुर्धर्ष नजर आ रहे उन गुण्डों ने बलपूर्वक उसे मेरी बाँह से छुड़ा लिया। मेरे देखते-देखते छटपटाती-चिंघाड़ती उस लड़की को कम्पार्टमेंट में वे दूसरी ओर को ले गये।
“लड़की को छोड़ दो!” उधर से अचानक चेतावनी-भरा स्वर उभरा।
यह निश्चय ही उस ओर बैठ गया तीसरा यात्री था। उस गहन रात को दनादन चीरती जा रही गाड़ी के गर्भ में उसकी चेतावनी के साथ ही हाथापाई और मारपीट प्रारम्भ हो जाने का आभास हुआ। काफी देर तक वह दौर चलता रहा। कई स्टेशन आये और गुजर गये। डिब्बे में अन्तत: नीरवता महसूस कर मैंने पेशाब के बहाने उठने की हिम्मत की। जाकर संडास का दरवाजा खोला—तीसरे का नंगा बदन वहाँ पड़ा था…लहूलुहान…जगह-जगह फटा चेहरा! आहट पाकर पल-भर को उसकी आँखें खुलीं…नजर मिलते ही आँखों के पार निकलती आँखें। ‘मर-मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने भीतर सँजोते तो लड़की बच जाती…और गुण्डे…!’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती…थू-थू करती आँखें। उफ्फ!

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:17 AM
अकेले भी जरूर घुलते होंगे पिताजी / बलराम अग्रवाल

पाँच सौ…पाँच सौ रुपए सिर्फ…यह कोई बड़ी रकम तो नहीं है, बशर्ते कि मेरे पास होती—अँधेरे में बिस्तर पर पड़ा बिज्जू करवटें बदलता सोचता है—दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नजर नहीं आता है जो इतने रुपए जुटा सके…सभी तो मेरे जैसे हैं, अंतहीन जिम्मेदारियों वाले…लेकिन यह सब माँ को, रज्जू को या किसी और को कैसे समझाऊँ?…समझाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है…रज्जू अपने ऊपर उड़ाने-बिगाड़ने के लिए तो माँग नहीं रहा है रुपए…फाइनल का फार्म नहीं भरेगा तो प्रीवियस भी बेकार हो जाएगा उसका और कम्पटीशन्स में बैठने के चान्सेज़ भी कम रह जाएँगे…हे पिता! मैं क्या करूँ…तमसो मा ज्योतिर्गमय…तमसो मा…।
“सुनो!” अचानक पत्नी की आवाज सुनकर वह चौंका।
“हाँ!” उसके गले से निकला।
“दिनभर बुझे-बुझे नजर आते हो और रातभर करवटें बदलते…।” पत्नी अँधेरे में ही बोली, “हफ्तेभर से देख रही हूँ…क्या बात है?”
“कुछ नहीं।” वह धीरे-से बोला।
“पिताजी के गुजर जाने का इतना अफसोस अच्छा नहीं।” वह फिर बोली,“हिम्मत से काम लोगे तभी नैय्या पार लगेगी परिवार की। पगड़ी सिर पर रखवाई है तो…।”
“उसी का बोझ तो नहीं उठा पा रहा हूँ शालिनी।” पत्नी की बात पर बिज्जू भावुक स्वर में बोला,“रज्जू ने पाँच सौ रुपए माँगे हैं फाइनल का फॉर्म भरने के लिए। कहाँ से लाऊँ?…न ला पाऊँ तो मना कैसे करूँ?…पिताजी पता नहीं कैसे मैनेज कर लेते थे यह सब!”
“तुम्हारी तरह अकेले नहीं घुलते थे पिताजी…बैठकर अम्माजी के साथ सोचते थे।” शालिनी बोली,“चार सौ के करीब तो मेरे पास निकल आएँगे। इतने से काम बन सलता हो तो सवेरे निकाल दूँगी, दे देना।”
“ठीक है, सौ-एक का जुगाड़ तो इधर-उधर से मैं कर ही लूँगा।” हल्का हो जाने के अहसास के साथ वह बोला।
“अब घुलना बन्द करो और चुपचाप सो जाओ।” पत्नी हिदायती अन्दाज में बोली।
बात-बात पर तो अम्माजी के साथ नहीं बैठ पाते होंगे पिताजी। कितनी ही बार चुपचाप अँधेरे में ऐसे भी अवश्य ही घुलना पड़ता होगा उन्हें। शालिनी! तूने अँधेरे में भी मुझे देख लिया और मैं…मैं उजाले में भी तुझे न जान पाया! भाव-विह्वल बिज्जू की आँखों के कोरों से निकलकर दो आँसू उसके कानों की ओर सरक गए। भरे गले से बोल नहीं पा रहा था, इसलिए कृतज्ञता प्रकट करने को अपना दायाँ हाथ उसने शालिनी के कन्धे पर रख दिया।
“दिन निकलने को है। रातभर के जागे हो, पागल मत बनो।” स्पर्श पाकर वह धीरे-से फुसफुसाई और उसका हाथ अपने सिर के नीचे दबाकर निश्चेष्ट पड़ी रही।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:19 AM
अफ़सोस / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक दार्शनिक सफाईकर्मी से बोला - "तुम्हारा पेशा वाकई बहुत घिनौना और गंदा है। मुझे दया आती है तुम-जैसे लोगों पर।"
"दया दिखाने का शुक्रिया श्रीमान जी।" सफाईकर्मी बोला - "आपका पेशा क्या है?"
"मैं लोगों के कर्तव्यों, कामनाओं और लालसाओं का अध्ययन करता हूँ।" दार्शनिक सीना फुलाकर बोला।
उसकी इस बात पर वह गरीब हल्के-से मुस्कराया और बोला - "आप भी रहम के काबिल हैं महाशय। सच।"

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:19 AM
अघोरी का मोह / जयशंकर प्रसाद

आज तो भैया, मूँग की बरफी खाने को जी नहीं चाहता, यह साग तो बड़ा ही चटकीला है। मैं तो....”
“नहीं-नहीं जगन्नाथ, उसे दो बरफी तो जरूर ही दे दो।”
“न-न-न। क्या करते हो, मैं गंगा जी में फेंक दूँगा।”
“लो, तब मैं तुम्ही को उलटे देता हूँ।” ललित ने कह कर किशोर की गर्दन पकड़ ली। दीनता से भोली और प्रेम-भरी आँखों से चन्द्रमा की ज्योति में किशोर ने ललित की ओर देखा। ललित ने दो बरफी उसके खुले मुख में डाल दी। उसने भरे हुए मुख से कहा,-भैया, अगर ज्यादा खाकर मैं बीमार हो गया।” ललित ने उसके बर्फ के समान गालों पर चपत लगाकर कहा-”तो मैं सुधाविन्दु का नाम गरलधारा रख दूँगा। उसके एक बूँद में सत्रह बरफी पचाने की ताकत है। निर्भय होकर भोजन और भजन करना चाहिए।”
शरद की नदी अपने करारों में दबकर चली जा रही है। छोटा-सा बजरा भी उसी में अपनी इच्छा से बहता हुआ जा रहा है, कोई रोक-टोक नहीं है। चाँदनी निखर रही थी, नाव की सैर करने के लिए ललित अपने अतिथि किशोर के साथ चला आया है। दोनों में पवित्र सौहाद्र्र है। जाह्नवी की धवलता आ दोनों की स्वच्छ हँसी में चन्द्रिका के साथ मिलकर एक कुतूहलपूर्ण जगत् को देखने के लिए आवाहन कर रही है। धनी सन्तान ललित अपने वैभव में भी किशोर के साथ दीनता का अनुभव करने में बड़ा उत्सुक है। वह सानन्द अपनी दुर्बलताओं को, अपने अभाव को, अपनी करुणा को, उस किशोर बालक से व्यक्त कर रहा है। इसमें उसे सुख भी है, क्योंकि वह एक न समझने वाले हिरन के समान बड़ी-बड़ी भोली आँखों से देखते हुए केवल सुन लेने वाले व्यक्ति से अपनी समस्त कथा कहकर अपना बोझ हलका कर लेता है। और उसका दु:ख कोई समझने वाला व्यक्ति न सुन सका, जिससे उसे लज्जित होना पड़ता, यह उसे बड़ा सुयोग मिला है।
ललित को कौन दु:ख है? उसकी आत्मा क्यों इतनी गम्भीर है? यह कोई नहीं जानता। क्योंकि उसे सब वस्तु की पूर्णता है, जितनी संसार में साधारणत: चाहिए; फिर भी उसकी नील नीरद-माला-सी गम्भीर मुखाकृति में कभी-कभी उदासीनता बिजली की तरह चमक जाती है।
ललित और किशोर बात करते-करते हँसते-हँसते अब थक गये हैं। विनोद के बाद अवसाद का आगमन हुआ। पान चबाते-चबाते ललित ने कहा-”चलो जी, अब घर की ओर।”
माँझियों ने डाँड़ लगाना आरम्भ किया। किशोर ने कहा-”भैया, कल दिन में इधर देखने की बड़ी इच्छा है। बोलो, कल आओगे?” ललित चुप था। किशोर ने कान में चिल्ला कर कहा-”भैया! कल आओगे न?” ललित ने चुप्पी साध ली। किशोर ने फिर कहा-”बोलो भैया, नहीं तो मैं तुम्हारा पैर दबाने लगूँगा।”
ललित पैर छूने से घबरा कर बोला-”अच्छा, तुम कहो कि हमको किसी दिन अपनी सूखी रोटी खिलाओगे?...”
किशोर ने कहा-”मैं तुमको खीरमोहन, दिलखुश..” ललित ने कहा-”न-न-न.. मैं तुम्हारे हाथ से सूखी रोटी खाऊँगा-बोलो, स्वीकार है? नहीं तो मैं कल नहीं आऊँगा।”
किशोर ने धीरे से स्वीकार कर लिया। ललित ने चन्द्रमा की ओर देखकर आँख बंद कर लिया। बरौनियों की जाली से इन्दु की किरणें घुसकर फिर कोर में से मोती बन-बन कर निकल भागने लगीं। यह कैसी लीला थी!
2
25 वर्ष के बाद
कोई उसे अघोरी कहते हैं, कोई योगी। मुर्दा खाते हुए किसी ने नहीं देखा है, किन्तु खोपड़ियों से खेलते हुए, उसके जोड़ की लिपियों को पढ़ते हुए, फिर हँसते हुए, कई व्यक्तियों ने देखा है। गाँव की स्त्रियाँ जब नहाने आती हैं, तब कुछ रोटी, दूध, बचा हुआ चावल लेती आती हैं। पञ्चवटी के बीच में झोंपड़ी में रख जाती हैं। कोई उससे यह भी नहीं पूछता कि वह खाता है या नहीं। किसी स्त्री के पूछने पर-”बाबा, आज कुछ खाओगे-, अघोरी बालकों की-सी सफेद आँखों से देख कर बोल उठता-”माँ।” युवतियाँ लजा जातीं। वृद्धाएँ करुणा से गद्-गद हो जातीं और बालिकाएँ खिलखिला कर हँस पड़तीं तब अघोरी गंगा के किनारे उतर कर चला जाता और तीर पर से गंगा के साथ दौड़ लगाते हुए कोसों चला जाता, तब लोग उसे पागल कहते थे। किन्तु कभी-कभी सन्ध्या को सन्तरे के रंग से जब जाह्नवी का जल रँग जाता है और पूरे नगर की अट्टालिकाओं का प्रतिबिम्ब छाया-चित्र का दृश्य बनाने लगता, तब भाव-विभोर होकर कल्पनाशील भावुक की तरह वही पागल निर्निमेष दृष्टि से प्रकृति के अदृश्य हाथों से बनाये हुए कोमल कारीगरी के कमनीय कुसुम को-नन्हें-से फूल को-बिना तोड़े हुए उन्हीं घासों में हिलाकर छोड़ देता और स्नेह से उसी ओर देखने लगता, जैसे वह उस फूल से कोई सन्देश सुन रहा हो।
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शीत-काल है। मध्याह्न है। सवेरे से अच्छा कुहरा पड़ चुका है। नौ बजने के बाद सूर्य का उदय हुआ है। छोटा-सा बजरा अपनी मस्तानी चाल से जाह्नवी के शीतल जल में सन्तरण कर रहा है। बजरे की छत पर तकिये के सहारे कई बच्चे और स्त्री-पुरुष बैठे हुए जल-विहार कर रहे हैं।
कमला ने कहा-”भोजन कर लीजिए, समय हो गया है।” किशोर ने कहा-”बच्चों को खिला दो, अभी और दूर चलने पर हम खाएँगे।” बजरा जल से कल्लोल करता हुआ चला जा रहा है। किशोर शीतकाल के सूर्य की किरणों से चमकती हुई जल-लहरियों को उदासीन अथवा स्थिर दृष्टि से देखता हुआ न जाने कब की और कहाँ की बातें सोच रहा है। लहरें क्यों उठती हैं और विलीन होती हैं, बुदबुद और जल-राशि का क्या सम्बन्ध है? मानव-जीवन बुदबुद है कि तरंग? बुदबुद है, तो विलीन होकर फिर क्यों प्रकट होता है? मलिन अंश फेन कुछ जलबिन्दु से मिलकर बुदबुद का अस्तित्व क्यों बना देता है? क्या वासना और शरीर का भी यही सम्बन्ध है? वासना की शक्ति? कहाँ-कहाँ किस रूप में अपनी इच्छा चरितार्थ करती हुई जीवन को अमृत-गरल का संगम बनाती हुई अनन्त काल तक दौड़ लगायेगी? कभी अवसान होगा, कभी अनन्त जल-राशि में विलीन होकर वह अपनी अखण्ड समाधि लेगी? ..... हैं, क्या सोचने लगा? व्यर्थ की चिन्ता। उहँ।”
नवल ने कहा-”बाबा, ऊपर देखो। उस वृक्ष की जड़ें कैसी अद्*भुत फैली हुई हैं।”
किशोर ने चौंक कर देखा। वह जीर्ण वृक्ष, कुछ अनोखा था। और भी कई वृक्ष ऊपर के करारे को उसी तरह घेरे हुए हैं, यहाँ अघोरी की पञ्चवटी है। किशोर ने कहा-”नाव रोक दे। हम यहीं ऊपर चलकर ठहरेंगे। वहीं जलपान करेंगे।” थोड़ी देर में बच्चों के साथ किशोर और कमला उतरकर पञ्चवटी के करारे पर चढऩे लगे।
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सब लोग खा-पी चुके। अब विश्राम करके नाव की ओर पलटने की तैयारी है। मलिन अंग, किन्तु पवित्रता की चमक, मुख पर रुक्षकेश, कौपीनधारी एक व्यक्ति आकर उन लोगों के सामने खड़ा हो गया।
“मुझे कुछ खाने को दो।” दूर खड़ा हुआ गाँव का एक बालक उसे माँगते देखकर चकित हो गया। वह बोला, “बाबू जी, यह पञ्चवटी के अघोरी हैं।”
किशोर ने एक बार उसकी ओर देखा, फिर कमला से कहा-”कुछ बचा हो, तो इसे दे दो।”
कमला ने देखा, तो कुछ परावठे बचे थे। उसने निकालकर दे दिया।
किशोर ने पूछा-”और कुछ नहीं है?” उसने कहा-”नहीं।”
अघोरी उस सूखे परावठे को लेकर हँसने लगा। बोला-”हमको और कुछ न चाहिए।” फिर एक खेलते हुए बच्चे को गोद में उठा कर चूमने लगा। किशोर को बुरा लगा। उसने कहा-”उसे छोड़ दो, तुम चले जाओ।”
अघोरी ने हताश दृष्टि से एक बार किशोर की ओर देखा और बच्चे को रख दिया। उसकी आँखें भरी थीं, किशोर को कुतूहल हुआ। उसने कुछ पूछना चाहा, किन्तु वह अघोरी धीरे-धीरे चला गया। किशोर कुछ अव्यवस्थित हो गये। वह शीघ्र नाव पर सब को लेकर चले आये।
नाव नगर की ओर चली। किन्तु किशोर का हृदय भारी हो गया था। वह बहुत विचारते थे, कोई बात स्मरण करना चाहते थे, किन्तु वह ध्यान में नहीं आती थी-उनके हृदय में कोई भूली हुई बात चिकोटी काटती थी, किन्तु वह विवश थे। उन्हें स्मरण नहीं होता था। मातृ-स्नेह से भरी हुई कमला ने सोचा कि हमारे बच्चों को देखकर अघोरी को मोह हो गया।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:19 AM
अच्छा स्कूल / दीपक मशाल

वह एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक था। भलीभांति जानता था कि अपने बच्चे का भविष्य कैसे सुनिश्चित करना है, कैसे संवारना है? तभी तो उसके पैदा होते ही उसने उसके नाम से एक मुश्त रकम जमा कर दी, जिससे कि जब तक बच्चा स्कूल जाने योग्य हो तब तक किसी 'अच्छे स्कूल' में दाखिले लायक धन जमा हो सके।
पर बढ़ती महंगाई का क्या करें कि उसके बेटे की उम्र तो शिक्षा पाने की हो गई लेकिन जमा धन शिक्षा दिलाने लायक ना हुआ। इन चंद सालों में मंहगाई उसकी सोच से दोगुनी रफ़्तार से बढ़ चुकी थी। जो पैसे उसके हाथ आये थे उतने तो मनवांछित स्कूल की एडमिशन फीस देने के लिए भी नाकाफी थे, फिर उसकी आसमान छूती ट्यूशन फीस की बात ही कौन करे। एक बारगी सोचा तो कि “एक-दो साल के लिए अपने ही सरकारी स्कूल में दाखिला दिला दूँ”, लेकिन यह उसकी पत्नी को गंवारा ना हुआ। जब कुछ इंतजाम ना बन पड़ा तो अपने मोहल्ले के ही एक शिशुमंदिर में प्रवेश दिला दिया। यह सोचकर कि, “एक साल यहाँ रहकर अनुशासन तो सीखेगा।। तब तक 'अच्छे स्कूल' के लिए कहीं से बंदोबस्त कर ही लूँगा”।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:20 AM
अज्ञात-गमन / बलराम अग्रवाल

चौराहे के घंटाघर से दो बजने की आवाज़ घनघनाती है। बंद कोठरी में लिहाफ के बीच लिपटे दिवाकर आँखेंखोलकर जैसे अँधेरे में ही सब-कुछ देख लेना चाहते हैं—दो जवान बेटों में से एक, बड़ा, अपनी शादी के तुरंत बाद हीबहू को लेकर नौकरी पर चला गया था। राजी-खुशी के दो-चार पत्रों के बाद तीसरे ही महीने—पूज्य पिताजी, बाहररहकर इतने कम वेतन में निर्वाह करना कितना मुश्किल है! इस पर भी, पिछले माह वेतन मिला नहीं। हो सके तो, कुछ रुपए खर्च के लिए भेज दें। अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे लौटा दूँगा…लिखा पत्र मिला।
रुपए तो दिवाकर क्या भेज पाते। बड़े की चतुराई भाँप उससे मदद की उम्मीद छोड़ बैठे। छोटा उस समय कितनाबिगड़ा था बड़े पर—हद कर दी भैया ने, बीवी मिलते ही बाप को छोड़ बैठे!
इस घटना के बाद एकदम बदल गया था वह। एक-दो ट्यूशन के जरिए अपना जेब-खर्च उसने खुद सँभाल लिया थाऔर आवारगी छोड़ आश्चर्यजनक रूप से पढ़ाई में जुट गया था। प्रभावित होकर मकान गिरवी रखकर भी दिवाकरने उसे उच्च-शिक्षा दिलाई और सौभाग्यवश ब्रिटेन के एक कालेज में वह प्राध्यापक नियुक्त हो गया। वहाँ पहुँचकरवह अपनी राजी-खुशी और ऐशो-आराम की खबर से लेकर दिवाकर ‘ससुर’ और फिर ‘दादाजी’ बन जाने तक कीहर खबर भेजता रहा है। लेकिन वह, यहाँ भारत में, क्या खा-पीकर जिन्दा हैं—छोटे ने कभी नहीं पूछा।
…कल सुबह, जब गिरवी रखे इस मकान से वह बेदखल कर दिए जाएँगे—घने अंधकार में डबडबाई आँखें खोलेदिवाकर कठोरतापूर्वक सोचते हैं…अपने बेटों के पास दो पत्र लिखेंगे…यह कि अपने मकान से बेदखल हो जाने औरउसके बाद कोई निश्चित पता-ठिकाना न होने के कारण आगे से उनके पत्रों को वह प्राप्त नहीं कर पाएँगे।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:20 AM
अतिथि / सतीश दुबे

बम फूटने और बोतलें फेंकने की आवाजें, चीखें, हो–हल्ला, खून–खराबा। हर कोई भाग–दौड़ रहा था। ऐसी ही भीड़ को चीरता हुआ वह बालक ओट ले परे जाकर खड़ा हो गया।
अपने सिर की गोल टोपी व्यवस्थित करते हुए भयाक्रान्त नजरों से जुलूस की खूनी हरकतें देखने लगा। अचानक उसे लगा, उसके बाजू को किसी ने तेजी से दबोचकर उसकी टोपी निकाल ली है।
उसने देखा–वह एक आदमी की गिरफ्त में है।
‘‘हाँ, बोल....’’
‘‘या अब्बा!’’ मौत सिर पर मँडराने के डर से वह चीख पड़ा।
वह आदमी उसे अंदर खींचकर ले गया तथा दोनों कंधों को दबाकर उसे एक पार पर बिठा दिया।
‘‘क्या आप मुझे हलाल करेंगे?’’
‘‘हाँ, तू ऐसे भीड़भाड़–भरे जुलूस में आया क्यों?
‘‘अब्बा ने तो मना किया था, पर मुहल्ले के सभी लड़के तो आ रहे थे।’’ त्यौहार का उल्लास उसके मन में हिलोरे ले रहा था। ‘‘कब से निकला था घर से?’’
‘‘सुबु से। चाचाजान, आप मुझे हलाल मत करिए ना! मेरे अब्बा!’’ वह रोने लगा था।
‘‘अच्छा,चुप हो जा।’’ इशारा पाकर खाने की थाली पत्नी ने उसके सामने रख दी। डर और आतंक से सहमते हुए उसने उस आदमी की ओर देखा।
‘‘खा ले!’’
‘‘मुझे भूख नहीं है।’’ वह डर से काँप रहा था।
‘‘नहीं खाएगा?’’ आदमी का स्वर कुछ तेज था।
बालक को लगा, गंडासा उसकी गर्दन पर ये पड़ा, वो पड़ा।
‘‘अच्छा, खाता हूँ।’’
वह खाने में जुट जाता गया।
‘‘चाचाजान! मेरे अब्बा अकेले हैं, मुझे हलाल मत करो, मुझे जाने दे।’’
‘‘अकेला जाएगा तो मर जाएगा। हम तुझे पहुँचा देंगे।’’
‘‘नहीं....नहीं मरूँगा, अब्बा ने कहा था कि अल्ला तेरे साथ है।’’ वह शकालु डर से लगातार काँपता जा रहा था।
‘‘अच्छा चल, पाजामा में जेब तो है न? इसमें ये टोपी रख ले। तेरा पता क्या है?’’
डसने कागज की चिट पर पता लिखा तथा उसकी अंगुली थामे, कमरे से बाहर निकला।
बाहर रोड पर, वही हो–हल्ला, चीख–पुकार, भाग–दौड़, खून–खराबा।
ुस आदमी ने उसे एक पुलिस को सौंपा, ‘‘इसे इसके घर तक पहुँचा दीजिए, ये रहा पता।...पहुँचा देंगे या इसके लिए भी ऊपर से आर्डर लगेगा।’’ उसका स्वर कुछ ऊँचा हो गया था।
पुलिसमैन ने अचकचाकर उसकी तरफ देखा तथा बच्चे को पुलिस–वैन की ओर ले गया।
बच्चा कृतज्ञता–भरी नजरों से उसकी ओर देखता हुआ आगे बढ़ गया। उसे लगा, उमस–भरी तपन के बीच आया शीतल झोंका उससे दूर हो गया है

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:20 AM
अथ ध्यानम् / बलराम अग्रवाल

आलीशान बंगला। गाड़ी। नौकर-चाकर। ऐशो-आराम। एअरकंडीशंड कमरा। ऊँची, अलमारीनुमा तिजौरी। करीने से सजा रखी करेंसी नोटों की गड्डियाँ। माँ लक्ष्मी की हीरे-जटित स्वर्ण-प्रतिमा।
दायें हाथ में सुगन्धित धूप। बायें में घंटिका। चेहरे पर अभिमान। नेत्रों में कुटिलता। होंठ शान्त लेकिन मन में भयमिश्रित बुदबुदाहट।
“नौकरों-चाकरों के आगे महनत को ही सब-कुछ कह-बताकर अपनी शेखी आप बघारने की मेरी बदतमीजी का बुरा न मानना माँ, जुबान पर मत जाना। दिल से तो मैं आपकी कृपा को ही आदमी की उन्नति का आधार मानता हूँ, महनत को नहीं। आपकी कृपा न होती तो मुझ-जैसे कंगले और कामचोर आदमी को ये ऐशो-आराम कहाँ नसीब था माँ। आपकी जय हो…आपकी जय हो।”

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:21 AM
अदला-बदली / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक गरीब कवि की एक बार शहर के एक चौराहे पर एक धनी मूर्ख से मुलाकात हो गई। उन्होंने बहुत-सी बातें कीं लेकिन सबकी सब बेमतलब।
तभी उस सड़क का फरिश्ता उधर से गुजरा। उसने उन दोनों के कन्धों पर अपने हाथ रखे। एक चमत्कार हुआ : दोनों के विचार आपस में बदल गए।
इसके बाद वे अपने-अपने रास्ते चले गए।
चमत्कार हुआ।
कवि ने रेत देखी। उसे मुठ्ठी में उठाया और धार बनकर उसमें से उसे रिसते देखता रहा।
और मूर्ख! अपनी आँखें बन्दकर बैठ गया; लेकिन अनुभव कुछ न कर सका हृदय में घुमड़ते बादलों के सिवा।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:21 AM
अधर / अन्तरा करवड़े

आज रितेश और प्रियंका बड़े खुश थे। खुद की मेहनत के बल पर उन्होने शहर के सबसे महँगे और पॉश कहे जाने वाले इलाके में एक अत्याधुनिक फ्लैट खरीद लिया था। बीसवीं मंजिल पर बसा उनका ये नया आशियाना सचमुच बड़ा खूबसूरत था। चौबीसों घण्टे की वीडियो कैमरा और वॉईस फैसिलिटी से सुसज्जित सिक्युरिटी¸ एक पावर स्टेशन¸ प्राईवेट बस स्टॉप¸ पार्क¸ जिम¸ पूल¸ प्ले जोन¸ क्या नहीं था वहाँ!
रितेश को सबसे ज्यादा पसंद आई थी उसके फ्लॅट की सी व्यू गैलेरी। कितना मनमोहक दृश्य दिखाई देता था वहाँ से ! आज तक वे ग्राऊण्ड फ्लोर की इस छोटी सी पुरानी जगह पर रहते आए थे।
प्रियंका को तो जैसे पर लग गये थे। नये घर की सजावट¸ बुक शैल्फ¸ कर्टन्स¸ फर्नीचर और बी न जाने क्या क्या था उसक लिस्ट में।
अनमना सा कोई था तो उनका पाँच वर्ष का प्रशांत। उसे बिल्कुल भी समझ में नहीं आ रहा था कि इस जगह को छोड़कर वे आखिर उस इतनी ऊँची इमारत में क्यों रहने जाएँगे? उसकी चिंता भी वाजिब थी। उसकी सबसे अच्छी साथी यानी उसकी दहलीज पर दाना चुगने आती चिड़िया अब भूखी रहा करेंगी।
उसने एक बार नये घर में जाकर देखा था। कोई भी पेड उसके घर की बराबरी नहीं कर पा रहा था। तो क्या ये सब भूल जाना होगा उसे?
"क्या बात है प्रशांत? देखो मैं तुम्हारी मनपसंद कार्टून सी डी लाया हूँ।" रितेश ने उसे मनाते हुए कहा। प्रशांत ने कोई जवाब नहीं दिया।
तभी जोर जोर से खाँसती प्रियंका अंदर आई। "पिछली गली में कचरे के नाम पर क्या क्या जलाते है? दम घुटने लगता है कभी - कभी।"
"कुछ ही दिनों की तो बात है डियर! फिर तो हम इतने ऊँचे चले जाएँगे कि तुम बस देखती रहना।" प्रशांत ने सपनीली आँखों से उसे देखा।
"सचमुच! मुझे तो ऐसा लग रहा है कि कब ये कबाड़खाना छोडकर वहाँ शिफ्ट होंगे हम। कितना साफ¸ पोल्यूशन फ्री¸ एकदम हाई सोसाईटी फील के जैसा।" प्रियंका को अपना प्रिय विषय मिल गया था।
दोनों ने देखा कि इस नये घर को लेकर प्रशांत उतना उत्साहित नहीं है जितना कि उसे होना चाहिये।
"प्रशांत! बेटा हम थोड़े ही दिनों के बाद अपने नये घर में शिफ्ट होने वाले है। क्यों न हम तुम्हारे यहाँ वाले दोस्तों के लिये एक पार्टी अरेंज करें?" प्रियंका ने उसे टटोलते हुए पूछा।
"और फिर प्रशांत¸ नया घर तो बड़ी ऊँचाई पर है वहाँ से सब कुछ कितना अच्छा लगेगा है ना?" रितेश ने उसे मनाते हुए कहा। दोनों ही उसकी प्रतिक्रिया देखना चाह रहे थे।
"लेकिन पापा!"
"बोलो बेटा!"
"वहाँ पर न तो कोई पेड़ पौधे रहेंगे¸ न पंछी। ये सब बहुत नीचे होगा। और न ही हम चाँद तारों को छू सकते है¸ ये बहुत ऊपर होगा। ऐसी बीच वाली स्टेज को तो अधर में लटकना कहते है ना?"
दोनों के पास कोई उत्तर नहीं था।
उधर आँगन में¸ चावल के दानों पर अपना हक जताती एक चिया चहचहा रही थी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:21 AM
अनमोल ख़ज़ाना /श्याम सुन्दर अग्रवाल

अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुंदर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, “इसमें मेरा अनमोल ख़ज़ाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी।” एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बंद करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैने डिबिया बाहर निकाली। मैने उसे हिला कर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्त्व के सोने अथवा चाँदी के कुछ सिक्के संभाल कर रखे हुए हैं। मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को। जब सास मृत्युशय्या पर थी और हम उससे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं–‘ले बेटी ! तेरी माँ के पास तो बस यही है देने को।’ मैने थैली खोल कर पलटी तो पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे– तीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिला कर दस रुपये। मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:22 AM
अनहोनी / दीपक मशाल

बड़ी अनहोनी हो गई। नेता जी को हमलावरों ने घायल कर दिया। सुना है वो सुबह सुबह मंदिर जा रहे थे लेकिन रास्ते में ही मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात हमलावरों ने अचानक उनपर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा दीं। उनके बहते खून ने समर्थकों का खून खौला दिया। देखते ही देखते उनके चाहने वालों का हुजूम जमा हो गया।
थोड़ी देर में ही नेता ओपरेशन थियेटर में थे और बाहर समर्थकों के सब्र का बाँध टूट रहा था। किसी ने कहा- 'इस सब में पुलिस की मिलीभगत है।'
फिर क्या था। २०० लोगों की भीड़ थाने की तरफ बढ़ चली। लाठी, बल्लम, हॉकी स्टिक, मिट्टी का तेल, पेट्रोल सब जाने कहाँ से प्रकट होते चले गए। रास्ते में जो भी वाहन मिलता उसमे आग लगा दी जाती। दुकानें बंद करा दी गयीं। जो नहीं हुईं वो लूट ली गईं।
इस सब से बेखबर वो आज भी थाने के पास वाले चौराहेपर अपना रिक्शा लिए खड़ा था, जो उसके पास तो था पर उसका नहीं था। हाँ किराए पर रिक्शा लिया था उसने। आज साप्ताहिक बाज़ार का दिन था, उसे उम्मीद थी कि कम से कम आज तो रिक्शे के किराए के अलावा कुछ पैसे बचेंगे जिससे उसके तीनों बच्चे भर पेट खाना खा सकेंगे और कुछ और बच गए तो बुखार में तपती बीवी को दवा भी ला देगा।
दूर से आती भीड़ को उसने देखा तो लेकिन उसके मूड का अंदाजा ना लगा पाया। या शायद सोचा होगा कि उस गरीब से उनकी क्या दुश्मनी?
पर जब तक वो कुछ समझ सकता रिक्शा पेट्रोल से भीग चुका था। एक जलती तीली ने पल भर में बच्चों के निवाले और उसकी बीवी की दवा जला डाली।
अगले दिन नेता जी की हालत खतरे से बाहर थी। हमलावर पकड़े गए। नेता जी ने समर्थकों का उनके प्रति अगाध प्रेम दर्शाने के लिए आभार प्रकट किया।
रिक्शावाले के घर का दरवाज़ा सूरज के आसमान चढ़ने तक नहीं खुला। अनहोनी की आशंका से पड़ोसियों ने अभी-अभी पुलिस को फोन किया है।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:22 AM
अनुताप / सुकेश साहनी

“बाबूजी आइए---मैं पहुँचाए देता हूँ।”एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा।
“असलम अब नहीं आएगा।” “क्या हुआ उसको ?” रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।
“बाबूजी, असलम नहीं रहा---”
“क्या?” उसे शाक-सा लगा, “कल तो भला चंगा था।”
“उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डाक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था,” उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, “कल आपको दफ्तर पहुँचा कर लौटा तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था---।”
आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया---कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टाकीज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था।बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी।एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-‘रोज का मामला है---कब तक उतरता रहेगा---ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी--- अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें दिखाई देने लगी थीं---।
किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था।
“रुको!” एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा। रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:22 AM
अनुत्तरित प्रश्न / गणेश जी बागी

"चल कल्लुआ जल्दी से दारु पिला, आज मैं बहुत खुश हूँ।"
"अरे वाह, पर ऐसी क्या विशेष बात हो गई बिल्लू दादा ?
"यार, कल शाम जिस गुप्ता के घर में हम लोगो ने चोरी की थी न, उसने थाने में रपट दर्ज करा दी है।"
"तो दादा इसमें कौन सी ख़ुशी की बात है ?"
"ख़ुशी की बात तो यह है कल्लुआ, हम लोगों ने उसके घर से करीब २० लाख का माल उड़ाया और गुप्ता ने महज ३ लाख चोरी की ही रपट लिखाई है"
"वाह यह तो सचमुच ख़ुशी की बात है, दरोगा को हिस्सा भी कम देना पड़ा होगा"
"अरे नहीं रे, ऊ ससुरा दरोगा बहुत काइयां है, वो पहले ही भांप गया था कि हम लोगों ने लम्बा हाथ साफ़ किया है सो अपना हिस्सा पूरा ले लिया"
"पर दादा एक बात समझ में नहीं आई कि गुप्ता ने केवल तीन लाख की चोरी की ही रपट क्यों लिखाई ?"
"कल्लुआ तू समझता नहीं है, वो गुप्ता इनकम टैक्स चुराने के लिए ये सब नाटक कर रहा है "
"ओह तो यह बात है"
"तो दादा, लोग चोर हमें ही क्यों कहते हैं ?"

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:23 AM
अन्तर्दृष्टा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

मैंने और मेरे दोस्त ने देखा कि मन्दिर के साए में एक अन्धा अकेला बैठा था। मेरा दोस्त बोला, "देश के सबसे बुद्धिमान आदमी से मिलो।"
मैंने दोस्त को छोड़ा और अन्धे के पास जाकर उसका अभिवादन किया। फिर बातचीत शुरू हुई।
कुछ देर बाद मैंने कहा, "मेरे पूछने का बुरा न मानना; आप अन्धे कब हुए?"
"जन्म से अन्धा हूँ।" उसने कहा।
"और आप विशेषज्ञ किस विषय के है?" मैंने पूछा।
"खगोलविद हूँ।" उसने कहा।
फिर अपना हाथ अपनी छाती पर रखकर उसने कहा, "ये सारे सूर्य, चन्द्र और तारे मुझे दिखाई देते हैं।"

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:24 AM
अन्धेर नगरी / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

राजमहल में एक रात भोज दिया गया।
एक आदमी वहाँ आया और राजा के आगे दण्डवत लेट गया। सब लोग उसे देखने लगे। उन्होंने पाया कि उसकी एक आँख निकली हुई थी और खखोड़ से खून बह रहा था।
राजा ने उससे पूछा, "तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?"
आदमी ने कहा, "महाराज! पेशे से मैं एक चोर हूँ। अमावस्या होने की वजह से आज रात मैं धनी को लूटने उसकी दुकान पर गया। खिड़की के रास्ते अन्दर जाते हुए मुझसे गलती हो गई और मैं जुलाहे की दुकान में घुस गया। अँधेरे में मैं उसके करघे से टकरा गया और मेरी आँख बाहर आ गई। अब, हे महाराज! उस जुलाहे से मुझे न्याय दिलवाइए।"
राजा ने जुलाहे को बुलवाया। वह आया। निर्णय सुनाया गया कि उसकी एक आँख निकाल ली जाय।
"हे महाराज!" जुलाहे ने कहा, "आपने उचित न्याय सुनाया है। वाकई मेरी एक आँख निकाल ली जानी चाहिए। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि कपड़ा बुनते हुए दोनों ओर देखना पड़ता है इसलिए मुझे दोनों ही आँखों की जरूरत है। लेकिन मेरे पड़ोस में एक मोची रहता है, उसके भी दो ही आँखें हैं। उसके पेशे में दो आँखों की जरूरत नहीं पड़ती है।"
राजा ने तब मोची को बुलवा लिया। वह आया। उन्होंने उसकी एक आँख निकाल ली।
न्याय सम्पन्न हुआ।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:24 AM
अपना देश / दीपक मशाल

जब से ब्रिटेन आया उसे अपने देश की हर बात नकली, झूठी और बेमानी लगती। यहाँ के साफ़ और चमकदार बाज़ार, गली, घर, कारें और बगीचों के अलावा यहाँ के लोगों की ईमानदारी, खान-पान, चिकित्सा-व्यवस्था, तनख्वाह हर बात की तो वो भारत से तुलना करने लगता और फिर स्वयं को बेहतर हालात में ही पाता।
जो घर उसने किराए पर ले रखा था उसमे टी।वी।, डीवीडी से लेकर माइक्रोवेव, वाशिंग मशीन सब मकान मालिक का दिया हुआ था वो तो सिर्फ उसमें आकर टिक गया था। सारे खर्चे का हिसाब लगाने पर पता चला कि जितना वह भारत में कमाता था उससे ६ गुना ज्यादा की तो हर महीने सीधी-सीधी बचत है। पहले महीने ही उसने एक नया लैपटॉप खरीद लिया।
एक दिन दोपहर को अचानक एक जाँच अधिकारी उसके घर आ धमका। घर में टी।वी।, डीवीडी, इंटरनेट कनेक्शन, लैपटॉप सब अपने साथ लाये एक फॉर्म में दर्ज कर लिये और अंततः उसे टी।वी। लाइसेंस ना लेने का दोषी बताया।
वह लाख रिरियाता रहा कि ना तो वह टी।वी। देखने का शौक़ीन है ना ही इंटरनेट पर लाइव समाचार ही सुनता है। पर अधिकारी को ना एक सुनना था ना उसने सुनी। एक हज़ार पाउंड का जुर्माना सुनकर आज उसे अपना देश सबसे प्यारा लग रहा था।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:31 AM
अपना-अपना दर्द / श्याम सुन्दर अग्रवाल

मिस्टर खन्ना अपनी पत्नी के साथ बैठे जनवरी की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे। छत पर पति-पत्नी दोनों अकेले थे, इसलिए मिसेज खन्ना ने अपनी टाँगों को धूप लगाने के लिए साड़ी को घुटनों तक ऊपर उठा लिया। मिस्टर खन्ना की निगाह पत्नी की गोरी-गोरी पिंडलियों पर पड़ी तो वह बोले, "तुम्हारी पिंडलियों का मांस काफी नर्म हो गया है। कितनी सुंदर हुआ करती थीं ये! " "अब तो घुटनों में भी दर्द रहने लगा है, कुछ इलाज करवाओ न! " मिसेज खन्ना ने अपने घुटनों को हाथ से दबाते हुए कहा। "धूप में बैठकर तेल की मालिश किया करो, इससे तुम्हारी टाँगें और सुंदर हो जाएँगी।" पति ने निगाह कुछ और ऊपर उठाते हुए कहा, "तुम्हारे पेट की चमड़ी कितनी ढलक गई है! " "अब तो पेट में गैस बनने लगी है। कई बार तो सीने में बहुत जलन होती है।" पत्नी ने डकार लेते हुए कहा। "खाने-पीने में कुछ परहेज रखा करो और थोड़ी-बहुत कसरत किया करो। देखो न, तुम्हारा सीना कितना लटक गया है! " पति की निगाह ऊपर उठती हुई पत्नी के चेहरे पर पहुँची, "तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं।" "हां जी, अब तो मेरी नज़र भी बहुत कमजोर हो गई है, पर तुम्हें मेरी कोई फिक्र नहीं है! " पत्नी ने शिकायत-भरे लहज़े में कहा। "अजी फिक्र क्यों नहीं, मेरी जान ! मैं जल्दी ही किसी बड़े अस्पताल में ले जाऊँगा और तुम्हारी प्लास्टिक सर्जरी करवाऊँगा। फिर देखना तुम कितनी सुन्दर और जवान लगोगी।" कहकर मिस्टर खन्ना ने पत्नी को बाँहों में भर लिया।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:44 AM
अपना-पराया / हरिशंकर परसाई

'आप किस स्*कूल में शिक्षक हैं?'
'मैं लोकहितकारी विद्यालय में हूं। क्*यों, कुछ काम है क्*या?'
'हाँ, मेरे लड़के को स्*कूल में भरती करना है।'
'तो हमारे स्*कूल में ही भरती करा दीजिए।'
'पढ़ाई-*वढ़ाई कैसी है?
'नंबर वन! बहुत अच्*छे शिक्षक हैं। बहुत अच्*छा वातावरण है। बहुत अच्*छा स्*कूल है।'
'आपका बच्*चा भी वहाँ पढ़ता होगा?'
'जी नहीं, मेरा बच्*चा तो 'आदर्श विद्यालय' में पढ़ता है।'

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:45 AM
अपना–अपना नशा / सुभाष नीरव

"जरा ठहरो ..." कहकर मैं रिक्शे से नीचे उतरा। सामने की दुकान पर जाकर डिप्लोमेट की एक बोतल खरीदी, उसे कोट की भीतरी जेब में ठूँसा और वापस रिक्शे पर आ बैठा। मेरे बैठते ही रिक्शा फिर धीमे–धीमे आगे बढ़ा। रिक्शा खींचने का उसका अंदाज देख लग रहा था, जैसे वह बीमार हो। अकेली सवारी भी उससे खिंच नहीं पा रही थी। मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी। मैंने सोचा, खरामा–खरामा ही सही, जब तक मैं घर पहुँचूँगा, वर्मा और गुप्ता पहुँच चुके होंगे।
परसों रात कुलकर्णी के घर तो मजा ही नहीं आया। अच्छा हुआ, आज मेहता और नारंग को नहीं बुलाया। साले पीकर ड्रामा खड़ा कर देते हैं।... मेहता तो दो पैग में ही ‘टुल्ल’ हो जाता है और शुरू कर देता है अपनी रामायण। और नारंग?... उसे तो होश ही नहीं रहता, कहाँ बैठा है, कहाँ नहीं।... अक्सर उसे घर तक भी छोड़कर आना पड़ता है।
"अरे–अरे, क्या कर रहा है?" एकाएक मैं चिल्लाया, "रिक्शा चला रहा है या सो रहा है?... अभी पेल दिया होता ठेले में।"..
रिक्शावाले ने नीचे उतरकर रिक्शा ठीक किया और फिर चुपचाप खींचने लगा। मैं फिर बैठा–बैठा सोचने लगा– गुप्ता भी अजीब आदमी है। पीछे ही पड़ गया, वर्मा के सामने। बोला, पे–डे को सोमेश के घर पर रही। पता भी है उसे, एक कमरे का मकान है मेरा। बीवी–बच्चे हैं, बूढ़े माँ–बाप हैं। छोटी–सी जगह में पीना–पिलाना।... उसे भी ‘हाँ’ करनी ही पड़ी, वर्मा के आगे। पत्नी को समझा दिया था सुबह ही– वर्मा अपना बॉस है।.. आगे प्रमोशन भी लेना है उससे।... कभी–कभार से क्या जाता है अपना।... पर, माँ–बाऊजी की चारपाइयाँ खुले बरामदे में करनी होंगी। बच्चे भी उनके पास डालने होंगे। कई बार सोचा- एक तिरपाल ही लाकर डाल दूँ, बरामदे में। ठंडी हवा से कुछ तो बचाव होगा। पर जुगाड़ ही नहीं बन पाया आज तक।
सहसा, मुझे याद आया– सुबह बाऊजी ने खाँसी का सीरप लाने को कहा था। रोज रात भर खाँसते रहते हैं। उनकी खाँसी से अपनी नींद भी खराब होती है। पर सौ का नोट तो आज ... चलो, कह दूँगा, दुकानें बन्द हो गयी थीं।
एकाएक, रिक्शा किसी से टकराकर उलटा और मैं ज़मीन पर जा गिरा। कुछेक पल तो मालूम ही नहीं पड़ा कि क्या हुआ !... थोड़ी देर बाद, मैं उठा तो घुटना दर्द से चीख उठा। मुझे रिक्शावाले पर बेहद गुस्सा आया। परन्तु, मैंने पाया कि वह खड़ा होने की कोशिश में गिर–गिर पड़ रहा था। मैंने सोचा, शायद उसे अधिक चोट लगी है।... मैं आगे बढ़कर उसे सहारा देने लगा तो शराब की तीखी गन्ध मेरे नथुनों में जबरन घुस गयी। वह नशे में धुत्त था।
मैं उसे मारने–पीटने लगा। इकट्ठा हो आये लोगों के बीच–बचाव करने पर मैं चिल्लाने लगा, "शराब पी रखी है हरामी ने।.. अभी पहुँचा देता ऊपर।... साला शराबी !... कोई पैसे–वैसे नहीं दूँगा तुझे।... जा, चला जा यहाँ से... नहीं तो सारा नशा हिरन कर दूँगा।...शराबी कहीं का !"
वह खामोश खड़ा उलटे हुये रिक्शा को देख रहा था जिसका अगला पहिया टक्कर लगने से तिरछा हो गया था। मैंने जलती आँखों से उसकी ओर देखा और फिर पैदल ही घर की ओर चल दिया।
रास्ते में कोट की भीतरी जेब को टटोला। मै खुश था– बोतल सही–सलामत थी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:45 AM
अपनी-अपनी ज़मीन / बलराम अग्रवाल

“बुरा तो मानोगे…मुझे भी बुरा लग रहा है, लेकिन…कई दिनों तक देख-भाल लेने के बाद हिम्मत कर रही हूँ बताने की…सुनकर नाराज न हो जाना एकदम-से…।” नीता ने अखबार के पन्ने उलट रहे नवीन के आगे चाय का प्याला रखते हुए कहा और खुद भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
“कहो।” अखबार पढ़ते-पढ़ते ही नवीन बोला।
“पिछले कुछ दिनों से काफी बदले-बदले लग रहे हैं पिताजी…” वह चाय सिप करती हुई बोली, “शुरू-शुरू में तो नॉर्मल ही रहते थे—सुबह-सवेरे घूमने को निकल जाना, लौटने के बाद नहा-धोकर मन्दिर को निकल जाना और फिर खाना खाने के बाद दो-चार पराँठे बँधवाकर दिल्ली की सैर को निकल जाना। लेकिन…”
“लेकिन क्या?” नवीन ने पूछा।
“अब वह कहीं जाते ही नहीं हैं!…जाते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए।” वह बोली।
“इसमें अजीब क्या है?” अखबार को एक ओर रखकर नवीन ने इस बार चाय के प्याले को उठाया और लम्बा-सा सिप लेकर बोला, “दिल्ली में गिनती की जगहें हैं घूमने के लिए…और पिताजी-जैसे ग्रामीण घुमक्कड़ को उन्हें देखने के लिए वर्षों की तो जरूरत है नहीं…वैसे भी, लीडो या अशोका देखने को तो पिताजी जाने से रहे…मन्दिर…या ज्यादा से ज्यादा पुरानी इमारतें,बस। सो देख ही डाली होंगी उन्होंने।”
“सो बात नहीं।” नीता उसकी ओर तनिक झुककर किंचित संकोच के साथ बोली,“मैंने महसूस किया है…कि…अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी नजरें…मेरा…पीछा करती हैं…जिधर भी मैं जाऊँ!”
“क्या बकती हो!”
“मैंने पहले ही कहा था—नाराज न होना।” वह तुरन्त बोली,“आज और कल, दो दिन तुम्हारी छुट्टी है…खुद ही देख लो, जैसा भी महसूस करो।”
यों भी, छुट्टी के दिनों में नवीन कहीं जाता-आता नहीं था। स्टडी-रूम, किताबें और वह्। पिछले कई महीनों से पिताजी उसके पास ही रह रहे हैं। गाँव में सुनील है, जो नौकरी भी करता है और खेती भी। माँ के बाद पिताजी कुछ अनमने-से रहने लगे थे, सो सुनील की चिट्ठी मिलते ही नीता और वह गाँव से उन्हें दिल्ली ले आये थे। यहाँ आकर पिताजी ने अपनी ग्रामीण दिनचर्या जारी रखी, सो नीता को या उसको भला क्या एतराज होता। जैसा पिताजी चाहते, वे करते। लेकिन अब! नीता जो कुछ कह रही है…वह बेहद अजीब है। अविश्वसनीय। वह पिताजी को अच्छी तरह जानता है।
आदमी कितना भी चतुर क्यों न हो, मन में छिपे सन्देह उसके शरीर से फूटने लगते हैं। इन दोनों ही दिन नीता ने अन्य दिनों की अपेक्षा पिताजी के आगे-पीछे कुछ ज्यादा ही चक्कर लगाए; लेकिन कुछ नहीं। उसके हाव-भाव से ही वह शायद उसके सन्देहों को भाँप गए थे। अपने स्थान पर उन्होंने आँखें मूँदकर बैठे या लेटे रहना शुरू कर दिया।…लेकिन इस सबसे उत्पन्न मानसिक तनाव के कारण रविवार की रात को ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। सन्निपात की हालत में उसी समय उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी हो गया। डॉक्टरों और नर्सों ने तेजी-से उनका उपचार किया—इंजेक्शन्स दिये, ग्लूकोज़ चढ़ाया और नवीन को उनके माथे पर ठण्डी पट्टियाँ रखते रहने की सलाह दी…तब तक, जब तक कि टेम्प्रेचर नॉर्मल न आ जाए।
करीब-करीब सारी रात नवीन उनके माथे पर बर्फीले पानी की पट्टियाँ रखता-उठाता रहा। सवेरे के करीब पाँच बजे उन्होंने आँखें खोलीं। सबसे पहले उन्होंने नवीन को देखा, फिर शेष साजो-सामान और माहौल को। सब-कुछ समझकर उन्होंने पुन: आँखें मूँद लीं। फिर धीमे-से बुदबुदाये,“कहीं कुछ खनकता है…तो लगता है कि…पकी बालियों के भीतर गेहूँ खिलखिला रहे हैं…वैसी आवाज सुनकर अपना गाँव, अपने खेत याद आ जाते हैं बेटे…।”
यानी कि नीता की पाजेबों में लगे घुँघरुओं की छनकार ने पिताजी के मन को यहाँ से उखाड़ दिया! उनकी बात सुनकर नवीन का गला भर आया।
“आप ठीक हो जाइए पिताजी…” वह बोला,“फिर मैं आपको सुनील के पास ही छोड़ आऊँगा…गेहूँ की बालें आपको बुला रही हैं न…मैं खुद आपको गाँव में छोड़कर आऊँगा…आपकी खुशी, आपकी जिन्दगी की खातिर मैं यह आरोप भी सह लूँगा कि…छह महीने भी आपको अपने साथ न रख सका…।” कहते-कहते एक के बाद एक मोटे-मोटे कई जोड़ी आँसू उसकी आँखों से गिरकर पिताजी के बिस्तर में समा गए।
पिताजी आँखें मूँदे लेटे रहे। कुछ न बोले।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:46 AM
अपने–अपने स्वार्थ / तारिक असलम तस्नीम

दिन के आठ बज चुके थे और जमात दूसरे शहर जाने के लिए तैयार थी। मस्जिद में बैठे लोग आपस में कुछ मशविरा कर रहे थे।
अचानक एक नौजवान कुछ पैकेट लेकर हाजिर हुआ। सबके हाथों में एक-एक दे दिया गया। मेरी समझ में कुछ आया। इससे पहले अमीर-ए-जमात ने हँसते हुए बताया-- आप लोगों को पता नहीं क्या? कल असगर साहब की बेटी का रिश्ता शमशाद माहब के बेटे से पक्का हो गया। कल ही उन दोनों का निकाह था न। रस्म की यह मिठाई है। आप सभी भी नाश्ता कर लें। फिर यहाँ से निकलते हैं।
यह जानकर मेरा चौंकना स्वाभाविक था। मैंने पास बैठे एक साहब से जानना चाहा-- करीम साहब, इन दो खानदानों के बीच रिश्ता कैसे पक्का हो गया। असगर साहब तो जात के सैयद हैं और शमशाद साहब अंसारी?
-- तब कैसे हो सकता है? आपको कॉलोनी में रहते हुए अभी हुए भी कितने दिन हैं? मैं बताता हूँ आपको। यह दोनों ही सैयद ही हैं।
-- यह कैसे हो सकता है? शमशाद साहब तो अपने नाम के साथ भी अंसारी लिखते हैं? फिर वे सैयद कैसे हो सकते हैं?
-- बिल्कुल हो सकते हैं, चूंकि आपको मालूम नहीं है। शमशाद साहब को सैयद जात के कारण नौकरी मिलने में कठिनाई हो रही थी, इसलिए उन्होंने न केवल अपने नाम के साथ अंसारी लिखना शुरू किया बल्कि अत्यन्त पिछड़ी जाति का प्रमाण-पत्र बनवा कर नौकरी भी हासिल कर ली। वही है असलियत, समझे आप।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:46 AM
अपराध का ग्राफ़ / दीपक मशाल

“मारो स्सारे खों। हाँथ-गोड़े तोड़ देओ। अगाऊं सें ऐसी हिम्मत ना परे जाकी। एकई दिना में भूखो मरो जा रओ थो कमीन। हमायेई खलिहान सें दाल चुरान चलो.. जौन थार में खात हेगो उअई में छेद कर रओ। जासें कई हती के दो रोज बाद मजूरी दे देहें लेकिन रत्तीभर सबर नईयां..” कहते हुए मुखिया ने दो किलो दाल चुराते पकड़े गए अपने खेतिहर मजदूर पर लात-घूंसे चलाने शुरू कर दिए।
“हाय मर जेँ मालिक, खाली पेट हें, पेट में लातें ना मारो। हाय दद्दा मर जेहें” वो गरीब रोये जा रहा था।
“औकात तो देखो जाकी अब्नों खें जुबान लड़ा रओ। मट्टी को तेल डारो ससुरे पे फूंक तो देओ जाए” नशे में धुत मुखिया का बेटा गुर्राया।
रात बीती तो मुखिया और उसके बेटे का नशा उतर चुका था, दरवाज़े पर पुलिस थी। मजदूर ७० प्रतिशत जली हुई हालत में सरकारी हस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था।
पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाया। मजदूर के सारे इलाज़ कराने की जिम्मेवारी लेने की बात पर दोनों पक्षों में तपशिया करा दिया गया।
बेचारी पुलिस भी क्या करती, राज्य सरकार का दबाव था कि राज्य में अपराध का ग्राफ नीचे जाना चाहिए।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 11:47 AM
अपराधी / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

शरीर से मजबूत एक नौजवान को भूख ने कमजोर कर डाला। सड़क किनारे के फुटपाथ पर बैठा वह हर आने-जाने वाले के आगे हाथ फैला रहा था। वह सभी के सामने अपनी भुखमरी और बर्बादी का गीत गा रहा था।
रात हुई। उसका गला सूख गया। जुबान ऐंठ गई। लेकिन आगे पसरे हुए उसके हाथ उसके पेट की तरह अभी भी खाली थे।
वह किसी तरह उठा और शहर से बाहर चला गया। वहाँ एक पेड़ के नीचे बैठकर वह दहाड़ें मारकर रो पड़ा। भूख उसकी आँतों को चबा रही थी। उसने अपनी सूजी हुई आँखें आसमान की ओर उठाईं और बोला - "हे ईश्वर! मैंने अमीरों के पास जाकर काम माँगा। लेकिन मेरी बदहाली को देखकर उन्होंने मुझे बाहर धकेल दिया। मैंने स्कूलों के दरवाजे खटखटाए, लेकिन खाली हाथ देखकर उन्होंने भी मुझसे माफी माँग ली। पेट भरने के लिए मैंने अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन कुछ नहीं कमा पाया। हताश होकर मैं अनाथालय जा पहुँचा। लेकिन मुझे देखते ही तेरे पुजारी बोले, 'यह मोटा कामचोर है। इसे भीख मत देना।'
"हे ईश्वर! तेरी ही इच्छा से माँ ने मुझे जन्म दिया। और तेरी ही इच्छा से यह धरती खत्म होने से पहले मुझे तुझे सौंप देना चाहती है।"
एकाएक वह चुप हो गया। वह उठा। उसकी आँखें दृढ़ निश्चय से दमक उठीं। एक पेड़ से उसने एक मोटी शाख तोड़ी और शहर की ओर चल पड़ा। वह चीखा - "मैंने अपनी पूरी ताकत से रोटी माँगी लेकिन दुत्कार दिया गया। अब मैं इसे अपने बाजुओं की ताकत से छीनूँगा। मैंने दया और प्रेम के नाम पर रोटी माँगी, लेकिन मानवता ने सिर नहीं उठाया। अब मैं से जबरन छीनूँगा।"
आने वाले वर्षों ने उस नौजवान को लुटेरा और हत्यारा बना दिया। उसकी आत्मा मर गई। जो भी सामने आया, उसने क्रूरतापूर्वक उसे कुचल दिया। उसने अकूत संपत्ति इकट्ठी की और अपने समय के धन्ना-सेठों पर राज करने लगा। उसके साथी उसकी प्रशंसा करते न थकते। चोर उससे ईर्ष्या करते और लोग उसे देखकर डरते।
उसकी संपत्ति और झूठी शान से प्रभावित हो राज्य के अमीर ने उसे शहर का डिप्टी बना दिया। यह एक मूर्ख शासक का बेहूदा कदम था। उसके बाद तो चोरियों को वैधानिक मान्यता मिल गई। प्रशासक लोग जनता की गुलामी का समर्थन करने लगे। कमजोरों पर जुल्म करना आम बात हो गई। जनता जिनसे पिसती थी, उन्हीं का गुणगान करने को मजबूर थी।
मनुष्यों की स्वार्थपरता का पहला ही स्पर्श इस तरह सीधे-सादे इंसान को अपराधी बना डालता है। उसे शान्ति के पुजारियों का हत्यारा बना देता है। बड़ा बनने के छोटे-छोटे स्वार्थपरक लालच पनप जाते हैं और हजार गुनी ताकत से मानवता की पीठ पर वार करते हैं।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:11 PM
अफ़सोस / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक दार्शनिक सफाईकर्मी से बोला - "तुम्हारा पेशा वाकई बहुत घिनौना और गंदा है। मुझे दया आती है तुम-जैसे लोगों पर।"
"दया दिखाने का शुक्रिया श्रीमान जी।" सफाईकर्मी बोला - "आपका पेशा क्या है?"
"मैं लोगों के कर्तव्यों, कामनाओं और लालसाओं का अध्ययन करता हूँ।" दार्शनिक सीना फुलाकर बोला।
उसकी इस बात पर वह गरीब हल्के-से मुस्कराया और बोला - "आप भी रहम के काबिल हैं महाशय। सच।"

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:12 PM
अभागी का स्वर्ग (कहानी) / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

सात दिनों तक ज्वरग्रस्त रहने के बाद ठाकुरदास मुखर्जी की वृद्धा पत्नी की मृत्यु हो गई। मुखोपाध्याय महाशय अपने धान के व्यापार से काफी समृद्ध थे। उन्हें चार पुत्र, चार पुत्रियां और पुत्र-पुत्रियों के भी बच्चे, दामाद, पड़ोसियों का समूह, नौकर-चाकर थे-मानो यहां कोई उत्सव हो रहा हो।
धूमधाम से निकलने वाली शव-यात्रा को देखने के लिए गांव वालों की काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। लड़कियों ने रोते-रोते माता के दोनों पांवों में गहरा आलता और मस्तक पर बहुत-सा सिन्दूर लगा दिया। बहुओं ने ललाट पर चन्दन लगाकर बहुमूल्य वस्त्रों से सास की देह को ढंक दिया, और अपने आंचल के कोने से उनकी पद-धूलि झाड़ दी। पत्र, पुष्प, गन्ध, माला और कलरव से मन को यह लगा ही नहीं कि यहां कोई शोक की घटना हुई है-ऐसा लगा जैसे बड़े घर की गृहिणी, पचास वर्षों बाद पुन: एक बार, नयी तरह से अपने पति के घर जा रही हो।
शान्त मुख से वृद्ध मुखोपाध्याय अपनी चिर-संगिनी को अन्तिम विदा देकर, छिपे-छिपे दोनों आंखों के आंसू पोंछकर, शोकार्त कन्या और बहुओं को सान्त्वना देने लगे। प्रबल हरि-ध्वनि (राम नाम सत्य है) से प्रात:कालीन आकाश को गुंजित कर सारा गांव साथ-साथ चल दिया।
एक दूसरा प्राणी भी थोड़ी दूर से इस दल का साथी बन गया-वह थी कंगाली की मां। वह अपनी झोंपड़ी के आंगन में पैदा हुए बैंगन तोड़कर, इस रास्ते से हाट जा रही थी। इस दृश्य को देखकर उसके पग हाट की ओर नहीं बढ़े। उसका हाट जाना रुक गया, और उसके आंचल में बैंगन बंधे रह गए। आंखों से आंसू बहाती हुई-वह सबसे पीछे श्मशान में आ उपस्थित हुई। श्मशान गांव के एकान्त कोने में गरुड़ नदी के तट पर था। वहां पहले से ही लकड़ियों का ढेर, चन्दन के टुकड़े, घी, धूप, धूनी आदि उपकरण एकत्र कर दिए गए थे। कंगाली की मां को निकट जाने का साहस नहीं हुआ। अत: वह एक ऊंचे टीले पर खड़ी होकर शुरू से अन्त तक सारी अन्त्येष्टि क्रिया को उत्सुक नेत्रों से देखने लगी।
चौड़ी और बड़ी चिता पर जब शव रखा गया, उस समय शव के दोनों रंगे हुए पांव देखकर उसके दोनों नेत्र शीतल हो गए। उसकी इच्छा होने लगी कि दौड़कर मृतक के पांवों से एक बूंद आलता लेकर वह अपने मस्तक पर लगा ले। अनेक कण्ठों की हरिध्वनि के साथ पुत्र के हाथों में जब मन्त्रपूत अग्नि जलाई गई, उस समय उसके नेत्रों से झर-झर पानी बरसने लगा। वह मन-ही-मन बारम्बार कहने लगी-
‘सौभाग्यवती मां, तुम स्वर्ग जा रही हो-मुझे भी आशीर्वाद देती जाओ कि मैं भी इसी तरह कंगाली के हाथों अग्नि प्राप्त करूं।’
लड़के के हाथ की अग्नि ! यह कोई साधारण बात नहीं। पति, पुत्र, कन्या, नाती, नातिन, दास, दासी, परिजन-सम्पूर्ण गृहस्थी को उज्जवल करते हुए यह स्वर्गारोहण देखकर उसकी छाती फूलने लगी- जैसे इस सौभाग्य की वह फिर गणना ही नहीं कर सकी। सद्य प्रज्वलित चिता का अजस्र धुआं नीले रंग की छाया फेंकता हुआ घूम-घूमकर आकाश में उठ रहा था। कंगाली की मां को उसके बीच एक छोटे-से रथ की आकृति जैसे स्पष्ट दिखाई दे गई। उस रथ के चारों ओर कितने ही चित्र अंकित थे। उसके शिखर पर बहुत से लता-पत्र जड़े हुए थे। भीतर जैसे कोई बैठा हुआ था-उसका मुँह पहचान में नहीं आता, परन्तु उसकी मांग में सिंदूर की रेखा थी और दोनों पदतल आलता (महावर) से रंगे हुए थे। ऊपर देखती हुई कंगाली की मां की दोनों आंखों से आंसुओं की धारा वह रही थी। इसी बीच एक पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र के बालक ने उसके आंचल को खींचते हुए कहा-
‘तू यहां आकर खडी है, मां, भात नहीं रांधेगी ?’
चौंकते हुए पीछे मुड़कर मां ने कहा-
‘राधूंगी रे ! अचानक ऊपर की ओर अंगुली उठाकर व्यग्र स्वर में कहा-
‘देख-देख बेटा ब्राह्मणी मां उस रथ पर चढ़कर स्वर्ग जा रही हैं !’
लड़के ने आश्चर्य से मुंह उठाकर कहा-
‘कहां ?’
फिर क्षणभर निरीक्षण करने के बाद बोला-
‘तू पागल हो गई है मां ! वह तो धुआं है।’
फिर गुस्सा होकर बोला-
‘दोपहर का समय हो गया, मुझे भूख नहीं लगती है क्या ?’
पर मां की आंखों में आंसू देखकर बोला-
‘ब्राह्मणों की बहू मर गई है, तो तू क्यों रो रही है, मां ?’
कंगाली की मां को अब होश आया। दूसरे के लिए-श्मशान में खड़े होकर इस प्रकार आंसू बहाने पर वह मन-ही-मन लज्जित हो उठी। यही नहीं, बालक के अकल्याण की आशंका से तुरन्त ही आंखें पोंछकर तनिक सावधान-संयत होकर बोली-
‘रोऊंगी किसके लिए रे-आंखों में धुआं लग गया; यही तो !
‘हां, धुआं तो लग ही गया था ! तू रो रही थी।’
मां ने और प्रतिवाद नहीं किया। लड़के का हाथ पकड़कर घाट पर पहुंची; स्वयं भी स्नान किया और कंगाली को भी स्नान कराकर घर लौट आई-श्मशान पर होने वाले संस्कार के अन्तिम भाग को देखना उसके भाग्य में नहीं बदा था।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:12 PM
अभाव से अति / संतोष भाऊवाला

एक लकडहारा नित्य जंगल से लकड़ी काट कर व् उसे बेच कर, किसी तरह कष्ट सह कर, अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। किसी दिन भर पेट खाना मिलता तो किसी दिन फांके करने पड़ते।
उसकी पत्नी हर रोज उसे ताना मारती थी “क्यों रोज रोज पतली पतली लकड़ियाँ काट कर लाते हो? उनको बेच कर इतना कम पैसा मिलता है कि निर्वाह बहुत मुश्किल से हो पाता है” लेकिन लकडहारा ध्यान न देता था। एक दिन उसकी पत्नी ने कहा कि वह भी जाएगी उसके साथ, जंगल में। दोनों जन लकड़ी काट ही रहे थे कि अचानक पत्नी को थोड़ी दूर पर मोटी मोटी लकड़ियों का पेड़ दिखाई दिया। उसने उस ओर इशारा किया और आगे बढ़ गयी। लगे काटने दोनों जन, खूब मोटी मोटी लकडियाँ। जब उन्हें बेचा बाजार में, ढेर सारा पैसा मिला, जिससे पूरे परिवार का गुजारा आराम से होने लगा। अब यह नित्य का क्रम बन गया।
"जो अपनी सहायता करते है भगवान् भी उनकी सहायता करते है"
अब प्रतिदिन लकडहारा मोटी-मोटी लकडियाँ लाने लगा और उनके हालात सुधरने लगे। धीरे धीरे लकडहारे का लालच दिन पर दिन बढ़ने लगा। जंगल में मोटी-मोटी लकड़ियों के लालच में थोड़ी दूर और थोड़ी दूर, करते करते, वो बहुत आगे जाने लगा। अबकी बार उसे चन्दन की लकड़ी मिली, ख़ुशी से फुला न समाया। घर सम्पति से भरने लगा।
लेकिन इधर पत्नी की रातों की नींद उड़ने लगी और वो दिन पर दिन दुबली होने लगी और दुखी भी रहने लगी। लकडहारे ने पूछा “अब तो हमारे दिन फिर गये है, फिर तुम्हे किस बात की चिंता है? पहले कम कमाता था तो तुम दुखी थी, अब ज्यादा कमाता हूँ तो दुखी हो” तब पत्नी ने कहा कि न तो अति अच्छी है और न ही अभाव। अगर आप ज्यादा और ज्यादा के चक्कर में और आगे जाते जायेंगे तो, किसी दिन जंगली जानवर आपको अपना शिकार न बना ले। यही चिंता मुझे दिन रात खाए जाती है। भगवान् का दिया, अब हमारे पास सब कुछ है। आप ज्यादा आगे ना जाएँ। ये सुन कर लकडहारा हंस दिया और कहा कि बेवकूफ हो तुम, ऐसा कुछ भी नहीं होगा और उसने पत्नी की बात न मानी, हंसी में उड़ा दी।
और फिर एक दिन....... वही हुआ जिसका पत्नी को डर था।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:12 PM
अरेखित त्रिकोण / उदय प्रकाश

-कुत्ते, कमीने… बाप से मुँह बड़ाता है! इसी दिन के लिए क्या तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया था?
-चुप रह तू, बाप होने का हक जताता है, पर बाप की जिम्मेदारियाँ निभानी आती हैं तुझे? जितना तूने मुझ पर खर्च किया है, उससे दुगुना तुझे कमा-कमा कर खिला चुका हूँ मैं, समझा!
-क्यों बे बूढ़े, मौत आयी है क्या तेरी, जो अपने बेटे से जबान लड़ा रहा है।--–पुत्र का एक हितैषी बोला।
-स्साले, कमीने, हमको उपदेश देता है! हरामी की औलाद!!---कहते हुए अगले ही क्षण पिता-पुत्र दोनों उसकी छाती पर सवार थे।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:13 PM
अलमस्त / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

रेगिस्तान से एक गरीब आदमी एक बार शेरिया नगर में आया। वह स्वप्नद्रष्टा था। उसके तन पर पूरे कपड़े नहीं थे और हाथ में सिर्फ एक लाठी थामे था।
शेरिया नगर असीम सुन्दर था। वह जिस गली से भी गुजरता - मन्दिरों, मीनारों और महलों को आँखें फाड़कर देखता रह जाता। बगल से गुजरने वालों से वह अक्सर कुछ बोलता, शहर के बारे में उनसे सवाल करता - लेकिन वे उसकी भाषा नहीं समझते थे और न वह ही उनकी भाषा समझता था।
दोपहर के समय वह पीले संगमरमर की बनी एक विशाल सराय के सामने जा खड़ा हुआ। लोग बेरोक-टोक उसमें जा-आ रहे थे।
"यह कोई तीर्थस्थल होना चाहिए।" उसने सोचा और अन्दर दाखिल हो गया। जब वह हॉल में पहुँचा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने बहुत-से स्त्री-पुरुषों को एक मेज के चारों ओर बैठे देखा। वे खा-पी रहे थे और संगीत सुन रहे थे।
"नहीं," गरीब आदमी ने मन में कहा, "यह कोई पूजास्थल नहीं है। यह तो खुशी के मौके पर राजा की ओर से जनता को दिया जाने वाला भोज है।"
उसी समय एक आदमी, जिसे उसने राजा का गुलाम समझा था, उसके पास आया। उसने उससे बैठ जाने का अनुरोध किया। बैठ जाने पर माँस, शराब और कीमती मिठाइयाँ उसके सामने रख दी गईं।
खा-पीकर वह गरीब जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। दरवाजे पर उसे शानदार तरीके से सजे-धजे एक कद्दावर आदमी द्वारा रोक लिया गया।
"निश्चय ही यह राजकुमार है।" उसने अपने-आप से कहा। इसलिए उसने झुककर उसका अभिवादन किया और मेहमाननवाजी का शुक्रिया अदा किया।
तब कद्दावर आदमी ने अपने शहर की भाषा में उससे कहा, "सर, आपने अपने खाने का भुगतान नहीं किया।"
गरीब आदमी की समझ में कुछ न आ सका और उसने पुन: उसे धन्यवाद दिया। तब कद्दावर कुछ सोचने लगा। उसने ध्यान से उसको देखा और पाया कि यह तो अजनबी है! उसके कपड़े गंदे हैं और निश्चय ही उसके पास खाने का भुगतान करने को कुछ नहीं होगा। उसने ताली बजाकर किसी को पुकारा। शहर के चार पहरेदार वहाँ चले आए। उन्होंने कद्दावर की बात सुनी। फिर दो आदमियों ने आगे और दो ने पीछे खड़े होकर गरीब को घेर लिया। उनकी बेहतरीन पोशाक और शिष्टाचार के मद्देनजर गरीब ने उन्हें सभ्य समझा और मुस्कराकर उनकी ओर देखा।
"ये," वह खुद से बोला, "महाराज के आदमी हैं।"
न्यायालय में पहुँचने तक वे सब साथ-साथ चलते रहे।
वहाँ गरीब ने लहराती दाढ़ी वाले एक सौम्य पुरुष को सिंहासन पर बैठे देखा। उसने सोचा कि यह महाराज हैं। खुद को उनके सामने पेश किये जाने पर वह आत्माभिमान और आनन्द से भर उठा।
फिर, न्यायाधीश, जो कि वह सौम्य पुरुष था, से सम्बन्धित दरबान ने गरीब पर आरोप सुनाया। न्यायाधीश ने दो अधिवक्ता नियुक्त किए - एक आरोप पुष्ट करने के लिए और दूसरा अजनबी के बचाव के लिए। अधिवक्ता उठे। एक के बाद एक, दोनों ने तर्क-वितर्क किया। गरीब इस सबको अपने आगमन के स्वागत की कार्यवाही समझता रहा। उसका हृदय महाराज और राजकुमार, जिन्होंने उसके लिए इतना सब किया, के प्रति आभार से भर उठा।
फिर उस गरीब के खिलाफ निर्णय सुना दिया गया। यह कि एक तख्ती पर उसका अपराध लिखकर उसके गले में लटका दी जाय। उसे एक घोड़े की नंगी पीठ पर बैठाकर पूरे शहर में घुमाया जाय। एक तुरही वाला और एक ढोल वाला उसके आगे-आगे चलें।
निर्णय का पालन किया गया।
गरीब को घोड़े की नंगी पीठ पर बैठाया गया। तुरही वाला और ढोल वाला उसके आगे-आगे चले। उनकी आवाज सुनकर शहर के लोग उनकी ओर भागे। वे उसे देखते और हँसते। बच्चे तो झुंड-के-झुंड इस गली से उस गली तक उसके पीछे-पीछे घूमते रहे। गरीब का हृदय आनन्दातिरेक से भर उठा। उसकी आँखों में उनके लिए चमक उमड़ आई। वह समझता रहा कि स्लेट पर लिखी इबारत महाराज द्वारा लिखी गयी प्रशस्ति है तथा यह जलसा उसके सम्मान में चल रहा है।
चलते-चलते उसे एक आदमी दिखाई दिया जो उसी के समान रेगिस्तान का निवासी था। उसका हृदय खुशी से भर उठा। वह जोर से चीखकर उसे पुकार उठा :
"दोस्त! दोस्त!! हम कहाँ हैं? हमारी तमन्नाओं का यह कैसा शहर है? मेजबानी का कितना सुन्दर तरीका है कि यहाँ के लोग मेहमानों को अपने घरों में खाने पर बुलाते हैं। स्वयं राजकुमार स्वागत करता है। राजा प्रशस्ति गले में लटकाता है; और सारे शहर में उसे ऐसे घुमाया जाता है जैसे वह स्वर्ग से उतरकर आया हो।"
रेगिस्तान के दूसरे निवासी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने केवल मुस्कराकर अपना सिर हिला दिया।
तुरही वाला, ढोल वाला और नाचते-गाते बच्चे आगे बढ़ते गए।
गरीब स्वप्नद्रष्टा की गरदन तनी हुई थी। उसकी आँखों की चमक देखने लायक थी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:13 PM
अलाव के इर्द-गिर्द / बलराम अग्रवाल

टखनों तक खेत में धँसे मिसरी ने सीधे खड़े होकर पानी से भरे अपने पूरे खेत पर निगाह डाली। नलकूप की नाली में बहते पानी में उसने हाथ-पाँव और फावड़े को धोया और श्यामा के बाद अपना खेत सींचने के इन्तजार में अलाव ताप रहे बदरू के पास जा बैठा।
“बोल भाई मिसरी, के रह्या थारे मामले में?” बदरू ने पूछा।
“सब ससुर धोखा।” अलाव के पास ही रखी बीड़ियों में से एक को सुलगाकर खेत भर जाने के प्रति कश-ब-कश आश्वस्त होता मिसरी बोला,“ई ससुर सुराज तो फिस्स हुई गया रे बदरू।”
“कउन सुराज…इस स्यामा का छोरा?”
“स्यामा का नहीं, गाँधी का छोरा…पिर्जातन्त!”
“मैंने तो पहले ही कह दिया था थारे को। ई कोर्ट-कचहरी का न्याय तो भैया पैसे वालों के हाथों में जा पहुँचा। सब बेकार।”
“गलती हुई रे बदरू। थारी जमीन हारने के बाद मैं कित्ता रोया था उसमें बैठकर।… और यही बात मैंने कही थी उस बखत, कि एका नहीं होगा तो थोड़ा-थोड़ा करके हर किसान का खेत चबा जाएगा चौधरी।” अलाव की आग को पतली-सी एक डण्डी से कुरेदते हुए बदरू बोला,“और आज ही बताए देता हूँ, थारे से निबटते ही इस स्यामा की जमीन पर गड़ेंगे उसके दाँत!”
बदरू की बात के साथ ही मिसरी की नजरें खेत सींचने में मस्त श्यामा पर जा पड़ीं। बित्ता-बित्ता भर जमीन अपनी होने के अहसास ने उन्हें आजाद-हैसियत का गर्व दे रखा है। इस गर्व को कायम रखने की ललक ने मिसरी के अन्दर से भय की सिहरन को बाहर निकाल फेंका।
“मुझे दे!” चिंगारी कुरेद रहे बदरू के हाथ से डण्डी को लेकर मिसरी ने जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार-छ: लम्बी फूँक अलाव की जड़ में झोंकीं। झरी हुई राख के सैंकड़ों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली।
कुहासे-भरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने श्यामवर्ण मिसरी के ताँबई पड़ गए चेहरे को देखा और इर्द-गिर्द बिखरी पड़ी डंडियों-तीलियों को बीन-बीन कर अलाव में झोंकने लगा।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:14 PM
अवसाद / आलोक कुमार सातपुते

“और क्या कर रहे हो भई आजकल...?” प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया
‘जी बेरोज़गार हूँ अंकल अभी तो...।’ उसने सर झुकाये अपनी टूटी चप्पलों की ओर देखते हुए अपराधबोध से कहा।
“मेरा लड़का तो अपने धंधे से लग गया है...अच्छा कमा खा रहा है...।” प्रश्नकर्ता ने बताया।
‘तो...? तो मैं क्या करूं...? आप जानबूझकर मेरे जख़्मों पर नमक़ छिड़कते हंै...।’ उसने अवसाद भरे स्वरों में कहा।
“मेरा ऐसा तो उद्देश्य नहीं था। “ कहते हुए प्रश्नकर्ता के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहट आ गयी।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:14 PM
अश्लीलता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

रामलाल की अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी, देवमणि की दुश्चिन्ता व खिन्नता कम न हो सकी थी। क्या करे वह? क्या पार्क से इस खूबसूरत मूर्ति को हटवा दे? रात–रात भर जागकर उसने अपनी आत्मा का सारा सौन्दर्य, अपनी कल्पनाओं की एक–एक तराश इस मूर्ति के गढ़ने में लगा दिए। चाँद कब का निकल आया था। चाँदनी में नहाई मूर्ति को वह मुग्ध भाव से निहार रहा था। एक–एक करके सभी लोग जा चुके थे। उसका मन उठने को न हुआ। आज का सन्नाटा उसे और दिनों की तरह नहीं खल रहा था। वह अपने हाथों को अविश्वास से देखने लगा–क्या इन्हीं हाथों ने इतनी मोहक मूर्ति गढ़ी है।

उसे लगा जैसे मूर्ति उसकी ओर देखकर आत्मीय भाव से मुस्करा रही है।

सामने वाली सड़क भी सुनसान हो चुकी थी। वह भारी मन से उठने को हुआ कि सामने से एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। देवमणि वहाँ से हटकर एक पेड़ की ओट में बैठ गया। निकट आने पर पता चला–वह व्यक्ति रामलाल था। देवमणि आशंकित हो उठा–लगता है यह इस समय मूर्ति तोड़ने आया है, लेकिन....यह तो खाली हाथ है!

वह मूर्ति के पास आ चुका था। देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गुँथ चुका था और उसके हाथ....मूर्ति के सुडौल अंगों पर केंचुए की तरह रेंगने लगे थे।

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:14 PM
असहमति / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

प्रत्येक सौ साल में एक बार नजारथ का जीसस और क्रिश्चियनों का जीसस लेबनान की पहाड़ियों के बीच एक चमन में मिलते हैं।
वहाँ वे लम्बे समय तक बातें करते हैं।
और नजारथ का जीसस क्रिश्चियनों के जीसस से हर बार यह कहते हुए विदा लेता है - "मेरे दोस्त! मुझे लगता है कि हममें कभी भी, कभी भी सहमति नहीं बनेगी।"

VARSHNEY.009
01-08-2013, 12:15 PM
अहं-विखण्डन / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

बाइबल्स का राजा नफ्सीबाल राज्याभिषेक के बाद अपने शयनकक्ष में जा पहुँचा। उस कक्ष को तीन सिद्ध पहाड़ी तांत्रिकों ने खास उसके लिए बनाया था। उसने अपना ताज और शाही पोशाक उतार दी। कमरे के बीचो-बीच खड़ा हो वह अपने यानी बाइबलस के सर्वाधिक ताकतवर इन्सान के बारे में सोचने लगा।
अचानक वह पलटा। अपनी माँ द्वारा दिए चाँदी के दर्पण से उसने एक नंगे आदमी को बाहर आते देखा।
राजा चकित रह गया। वह उस व्यक्ति पर चिल्लाया, "कौन हो तुम?"
नंगा आदमी बोला, "सवाल मत करो। यह बताओ कि उन्होंने तुम्हे राजा क्यों चुना?"
"इसलिए कि देश में मैं ही आदर्श पुरुष हूँ।" राजा ने कहा।
नंगा आदमी इस पर बोला, "अगर तुम आदर्श पुरुष होते तो राजा न बनते।"
राजा ने कहा, "मुझे राजा बनाया गया क्योंकि मैं देश का सबसे ताकतवर इन्सान हूँ।"
नंगे आदमी ने कहा, "अगर तुम इतने ताकतवर होते तो राजा न बनते।"
राजा बोला, "मैं सबसे अधिक बुद्धिमान हूँ, इसलिए उन्होंने मुझे राजा चुना।"
नंगे ने कहा, "अगर तुम बुद्धिमान होते तो राजा बनने को बिल्कुल तैयार न होते।"
इस पर राजा फर्श पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रो पड़ा।
नंगे आदमी ने उसे देखा। फिर उसने ताज को उठाया और आराम से राजा के झुके सिर पर रख दिया।
ऐसा करके नंगा आदमी प्यारभरी दृष्टि से राजा को निहारता हुआ दर्पण में चला गया।
राजा चौंक उठा। वह अपलक दर्पण में निहारता रहा। उसमें कोई और नहीं, अकेला वही ताज पहने खड़ा था।

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:22 AM
सैंया भये कोतवाल / नूतन प्रसाद शर्मा

बाबा भारती अपने घोड़े सुलतान को दाना खिला रहे थे कि खड्गसिंह उनके पास आया.बाबा ने उससे पूछा-कहो इधर आना कैसे हुआ?
खड्गसिंह बोला-तुम्हारे सुलतान की बहुत कीर्ति सुनी थी,उसी की चाह खींच लायी.
- देखना चाहते हो जी भर कर देख लो.इसके समान दूसरा घोड़ा ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा.
- जानता हूं तभी इसे अपने अधिकार में लेने आया हूं .
बाबा जी डर गये फिर हिम्मत कर बोले-मैं स्वीकृति दूंगा,तब तो ले जाओगे .
खड्गसिंह ने घोड़े का लगाम अपने हाथ में ले लिया.कहा – बुड्ढे, मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं.जो वस्तु मुझे पसंद आ जाती है,उसे बलपूवर्क अपने कब्*जे में कर लेता हूं.गड़बड़ करोगे तो तुम्हें भी साथ ले जाऊंगा.
- मुझे ले जाने से तुम्हें क्*या मिलेगा?
- तुम्हारे परिवार वालों से फिरौती वसूल करूंगा.मेरे पास अभी भी छब्*बीस पकड़े हैं.रूपये मिल जाने पर ही वे मुक्*त होंगे.
- और रूपये न मिले तो?
- उन्हें मौत के घाट उतार दूंगा.
बाबा भारती को सहसा विश्वास नहीं हुआ.उन्होंने पूछा-तुम तो ऐसे बात कर रहे हो,मानो तुम्हीं सर्वेसर्वा हो.दूसरों की जान लोगे तो पुलिस पकड़ेगी नहीं.
खड्गसिंह ने मूंछे ऐंठ कर कहा -कई व्यक्तियों को कतार में खड़ा करके भून दिया,गांव के गांव जला कर राख कर दिये.लेकिन पुलिस मेरा कुछ न बिगाड़ सकी समझे?
- अभी तक बचते रहे इसका मतलब यह नहीं कि सदैव बचते रहोगे.बी.एस.एफ.एस.ए.एफ. के जवान तुम्हें खोज रहें हैं.जिस दिन उसके हत्थे चढ़ जाओगे तो तुम्हारी पूजा नहीं करेगें.
- उन्हें मेरा छाया भी नहीं मिलेगा. क्*योंकि उनके बीच के ही आदमी मेरे मुखबीर जो हैं.वे अपने कार्यक्रमों की सूचना मुझ तक पहले ही पहुंचा देते हैं.मैं सुरक्षित स्थान पर चला जाता हूं. आश्चर्य में मत पड़ जाना हमारे पास जितने हथियार है,वे शासकीय शास्*त्रागार के हैं.
बाबा की आंखें फैल गई.संय त होने पर बोले-समझ नहीं आता तुम्हारी बात मानूं या इंस्*पेक्*टर दीनासिंह की.वह तुम्हें ढ़ूंढ़ने यहां तक आया था.कह रहा था कि खड्गसिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ कर रहूंगा.
खड्गसिंह ने गरज कर कहा-वह स्साला क्*या पकड़ेगा.मैंने उसके क्षेत्र में कई स्थानों पर डाके डाले उसे पता था पर पास तक नहीं आया.
- अरे,जब अवसर आया था तो अपने कतर्व्य का पालन करना ही था.
- जो मेरे जी हूजुरी करता है,वह भूलकर भी ऐसी गलती नहीं कर सकता.
- क्*या वह तुम्हारा खरीदा हुआ गुलाम है जो जी-हूजुरी करेगा?
- हां, लूट का हिस्सा जो देता हूं.रूपयों में मंत्री,सांसद मिल जाते हैं तो थानेदार की बात कर रहे हो.अगर प्रमाण चाहते हो तो देख लो,ये बंदूक उसने ही दी है.
बाबा भारती ने देखा-वास्तव में यह वही बंदूक थी जिसे लेकर इंस्*पेक्*टर गस्त देने आया था.बाबा ने कहा-मान लिया कि दीनासिंह को तुमने खरीद लिया है लेकिन पुलिस अधीक्षक श्यामदेव तुमसे खार खाये बैठे हैं.
खड्गसिंह को हंसी आ गई .बोला-वे तो मेरे संरक्षक है.उनकी पत्नी अनामिका ने मुझे भाई बनाया है.मेरे हाथ में जो राखी बंधी है, उसे अनामिका ने ही बांधी है.
बाबा ने देखा वास्तव में खड्गसिंह के हाथ राखी से जगमगा रहा था.बाबा ने पूछा-इससे तो यही प्रतीत होता है कि तुम पुलिस अधीक्षक से मिल चुके हो.
खड्गसिंह ने स्वीकार किया-अवश्य, वे खुद बीहड़ मुझसे मिलने कई बार आकर मुलाकांत कर चुके हैं.
- क्*यों?
- मुख्यमंत्री शिवलाल का संदेशा लेकर.
- उनसे भी तुम्हारा संबंध है.
- हां, उनका मेरा मित्रवत व्यवहार है.चुनाव के समय मैंने उनकी मदद की थी.जनता में दहशत फैला कर उन्हें वोट दिलवाया था.
खड्गसिंह बताने में तथा कि बाबा भारती ने टोका-तुमने यह नहीं बताया कि मुख्यमंत्री ने कैसी खबर भिजवायी.वे तुमसे कि स प्रकार की अपेक्षा रखते हैं.
खड्गंसिंह बोला-वे मुझसे आत्मसमपर्ण कराना चाहते हैं.
- मुझे विश्वास नहीं होता कि इसके लिए सरकार स्वयं प्रयत्नशील होगी.ऐसे में वह खुद झूक रही है.
- यह कोई नई बात नहीं है.कई गिरोह सरकार की प्रार्थना पर आत्मसमपर्ण कर ठसके की जिन्दगी जी रहे हैं.
- जिन्होंने हत्या-लूट-बलात्कार किये ऐसे अपराधियों को कुछ दण्*ड भी नहीं मिला?
- नहीं तभी तो डाकुओं के हौसले बुलंद रहते हैं.
बाबा में बोलने की शiक्ति नहीं रह गयी थी.वे सिर पकड़ कर बैठ गये.तभी एक व्*यक्ति आया.वह खड्गसिंह के गैंग का आदमी कालिया था.उसने कहा-सरदार, थानेदार साहब ने खबर भिजवायी है कि पुलिस की टुकड़ी इधर ही आ रही है.इसलिए दूसरे स्थान चले जाओ.
खड्गसिंह ने आदेश दिया-तुम लोग पकड़ो को लेकर चलो मैं आ रहा हूं.
कालिया के लौटने के बाद खड्गसिंह ने बाबा से कहा- बुड्ढे मैं चल रहा हूं, साथ में तुम्हारा घोड़ा ले जा रहा हूं.अगर दम है तो रोक ले.
बाबा भारती ने बोला-जब पुलिस कानून और सरकार तुम्हारे मददगार हैं तो मुझमें क्*या, किसी में इतनी शक्ति नहीं कि तुमसे लोहा ले सके.लेकिन यह तो बता दो कि यह क्रूर कर्म करते क्*यों हो?
खड्गसिंह सुल्तान की पीठ पर बैठ गया और जाते जाते कहा -धनवान बनने ऐश करने प्रसिद्धी पाने,जो जितना अपराधिक कर्म करता है,उसका उतना ही नाम रौशन होता हैं लोग उससे भय खाते हैं कभी तुम्हें भी बहादूर बनने का खिताब लेने की ललक हो तो आकर मेरे गिरोह में सम्मिलत हो जाना.

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:22 AM
स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन / भारतेंदु हरिश्चंद्र

स्*वामी दयानन्*द सरस्*वती और बाबू केशवचन्*द्रसेन के स्*वर्ग में जाने से वहां एक बहुत बड़ा आंदोलन हो गया। स्*वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनसे घृणा करके धिक्*कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्*छा कहने लगे। स्*वर्ग में भी 'कंसरवेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने जमाने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्*या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पचकर मरके स्*वर्ग गए हैं उनकी आत्*मा का दल 'कंसरवेटिव' है, और जो अपनी आत्*मा ही की उन्*नति से और किसी अन्*य सार्वजनिक उच्*च भाव संपादन करने से या परमेश्*वर की भक्ति से स्*वर्ग में गए हैं वे 'लिबरल' दलभक्*त हैं। वैष्*णव दोनों दल के क्*या दोनों से खारिज थे, क्*योंकि इनके स्*थापकगण तो लिबरल दल के थे किं*तु ये लोग 'रेडिकल्*स' क्*या महा-महा रेडिकल्*स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्*यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे, और व्*यास जी भी अपने प्राचीन अव्*यवस्थित स्*वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्*तृता कर देते थे। कंसरवेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्*य कारण यह था कि स्*वर्ग के जमींदार इन्*द्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे, क्*योंकि बंगाल के जमींदारों की भांति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और मान न मिलने का डर था।
कई स्*थानों पर प्रकाश-सभा हुई। दोनों दल के लोगों ने बड़े आतंक से वक्*तृता दी। 'कंसरवेटिव' लोगों का पक्ष समर्थन करने को देवता भी आ बैठे और अपने-अपने लोकों में भी उस सभा की स्*थापना करने लगे। इधर 'लिबरल' लोगों की सूचना प्रचलित होने पर मुसलमानी-स्*वर्ग और जैन स्*वर्ग तथा क्रिस्*तानी स्*वर्ग से पैगंबर, सिद्ध, मसीह प्रभृति हिंदू-स्*वर्ग में उपस्थित हुए और 'लिबरल' सभा में योग देने लगे। बैकुंठ में चारो ओर इसी की धूम फैल गई। 'कंसरवेटिव' लोग कहते, 'छि:, दयानन्*द कभी स्*वर्ग में आने के योग्*य नहीं; इसने 1. पुराणों का खंडन किया, 2. मूर्तिपूजा की निंदा की, 3. वेदों का अर्थ उलटा-पुलटा कर डाला, 4. दक्ष नियोग करने की विधि निकाली, 5. देवताओं का अस्तित्*व मिटाना चाहा, और 6. अंत में सन्*यासी होकर अपने का जलवा दिया। नारायण! नारायण! ऐसे मनुष्*य की आत्*मा को कभी स्*वर्ग में स्*थान मिल सकता है, जिसने ऐसा धर्म-विप्*लव कर दिया और आर्यावर्त को धर्म-वहिर्मुख किया!'
एक सभा में काशी के विश्*वनाथ जी ने उदयपुर के एकलिंग जी से पूछा, 'भाई! तुम्*हारी क्*या मति मारी गई जो तुमने ऐसे पतित को अपने मुंह लगाया और अब उसके दल के सभापति बने हो, ऐसा ही करना है तो जाओ लिबरल लोगों में योग दो।' एकलिंग जी ने कहा, 'भाई, हमारा मतलब तुम लोग नहीं समझ सकते। हम उसकी बुरी बातों को न मानते न उसका प्रचार करते, केवल अपने यहां के जंगल की सफाई का कुछ दिन उसे ठेका दिया, बीच में वह मर गया। अब उसका माल-मता ठिकाने रखवा दिया तो क्या बुरा किया।'
कोई कहता, 'केशवचन्*द्रसेन! छि छि! इसने सारे भारतवर्ष का सत्*यानाश कर डाला। 1. वेद-पुराण सबको मिटाया, 2. क्रिस्*तान, मुसलमान सबको हिंदू बनाया, 3. खाने-पीने का विचार कुछ न बाकी रखा, 4. मद्य की तो नदी बहा दी। हाय-हाय, ऐसी आत्*मा क्*या कभी बैकुंठ में आ सकती है!'
ऐसे ही दोनों के जीवन की समालोचना चारों ओर होने लगी।
लिबरल लोगों की सभा भी बड़ी धूमधाम से जमती थी। किंतु इस सभा में दो दल हो गए थे, एक जो केशव की विशेष स्*तुति करते, दूसरे वे जो दयानन्*द को विशेष आदर देते थे। कोई कहता, अहा धन्*य दयानन्*द जिसने आर्यावर्त के निंदित आलसी मूर्खों की मोह-निद्रा भंग कर दी। हजारों मूर्खों को ब्राह्मणों के (जो कंसरवेटिवों के पादरी और व्*यर्थ प्रजा का द्रव्*य खाने वाले हैं) फंदे से छुड़ाया। बहुतों को उद्योगी और उत्*साही कर दिया। वेद में रेल, तार, कमेटी, कचहरी दिखाकर आर्यों की कटती हुई नाक बचा ली। कोई कहता, धन्य केशव! तुम साक्षात दूसरे केशव हो। तुमने बंग देश की मनुष्*य नदी के उस वेग को, जो क्रिश्*चन समुद्र में मिल जाने को उच्*छलित हो रहा था, रोक दिया। ज्ञानकर्म का निरादर करके परमेश्*वर का निर्मल भक्ति-मार्ग तुमने प्रचलित किया।
कंसरवेटिव पार्टी में देवताओं के अतिरिक्*त बहुत लोग थे जिनमें याज्ञवल्*क्*य प्रभृति कुछ तो पुराने ऋषि थे और कुछ नारायण भट्ट, रघुनन्*दन भट्टाचार्य, मण्*डन मिश्र प्रभृति स्*मृति ग्रंथकार थे।
लिबरल दल में चैतन्*य प्रभृति आचार्य, दादू, नानक, कबीर प्रभृति भक्*त और ज्ञानी लोग थे। अद्वैतवादी भाष्*यकार आचार्य पंचदशीकार प्रभृति पहले दलमुक्*त नहीं होने पाए। मिस्*टर ब्रैडला की भांति इन लोगों पर कंसरवेटिवों ने बड़ा आक्षेप किया किंतु अंत में लिबरलों की उदारता से उनके समाज में इनका स्*थान मिला था।
दोनों दलों के मेमोरियल तैयार कर स्*वाक्षरित होकर परमेश्*वर के पास भेजे गए। एक में इस बात पर युक्ति और आग्रह प्रकट किया था कि केशव और दयानन्*द कभी स्*वर्ग में स्*थान न पावें और दूसरे में इसका वर्णन था कि स्*वर्ग में इनको सर्वोत्तम स्*थान दिया जाए।
ईश्*वर ने दोनों दलों के डेप्*यूटेशन को बुलाकर कहा, 'बाबा, अब तो तुम लोगों की 'सैल्*फगवर्नमेंट' है। अब कौन हमको पूछता है, जो जिसके जी में आता है करता है। अब चाहे वेद क्*या संस्*कृत का अक्षर भी स्*वप्*न में भी न देखा हो पर धर्म विषय पर वाद करने लगते हैं। हम तो केवल अदालत या व्*यवहार या स्त्रियों के शपथ खाने को ही मिलाए जाते हैं। किसी को हमारा डर है? कोई भी हमारा सच्*चा 'लायक' है? भूत-प्रेत, ताजिया के इतना भी तो हमारा दरजा नहीं बचा। हमको क्*या काम चाहे बैकुंठ में कोई आवे। हम जानते हैं कि चारो लड़कों (सनक आदि) ने पहले ही से चाल बिगाड़ दी है। क्*या हम अपने विचारे जयविजय को फिर राक्षस बनवावें कि किसी का रोकटोक करें। चाहे सगुन मानो चाहे निर्गुन, चाहे द्वैत मानो चाहे अद्वैत, हम अब न बोलेंगे। तुम जानो स्*वर्ग जाने।'
डेप्*यूटेशन वाले परमेश्*वर की ऐसी कुछ खिजलाई हुई बात सुनकर कुछ डर गए। बड़ा निवेदन-सिवेदन किया। किसी प्रकार परमेश्*वर का रोष शांत हुआ। अंत में परमेश्*वर ने इस विषय के विचार के हेतु एक 'सिलेक्*ट कमेटी' की स्*थापना की। इसमें राजा राममोहन राय, व्*यासदेव, टोडरमल, कबीर प्रभृति भिन्*न-भिन्*न मत के लोग चुने गए। मुसलमानी-स्*वर्ग से एक 'इमाम', क्रिस्*तानी से 'लूथर', जैनी से पारसनाथ, बौद्धों से नागार्जुन और अफ्रीका से सिटोवायों के बाप को इस कमेटी का 'एक्*स आफीशियो मेंबर' नियुक्*त किया। रोम के पुराने 'हरकुलिस' प्रभृति देवता तो अब गृह-संन्*यास लेकर स्*वर्ग ही में रहते हैं और पृथ्*वी से अपना संबंध मात्र छोड़ बैठे हैं, तथा पारसियों के 'जरदुश्*तजी' को 'कारेस्*पांडिग आनरेरी मेंबर' नियत किया और आज्ञा दी कि तुम लोग इस सब कागज-पत्र देखकर हमको रिपोर्ट करो। उनकी ऐसी भी गुप्*त आज्ञा थी कि एडिटरों की आत्*मागण को तुम्*हारी किसी 'कारवाई' का समाचार तब तक न मिले जब तक कि रिपोर्ट हम न पढ़ लें, नहीं ये व्*यर्थ चाहे कोई सुने चाहे न सुने अपनी टॉय-टॉय मचा ही देंगे।
सिलेक्*ट कमेटी का कोई अधिवेशन हुआ। सब कागज-पत्र देखे गए। दयानन्*दी और केशवी ग्रंथ तथा उनके अनेक प्रत्युत्तर और बहुत से समाचार पत्रों का मुलाहिजा हुआ। बालशास्*त्री प्रभृति कई कंसरवेटिव और द्वारकानाथ प्रभृति लिबरल नव्*य आत्*मागणों की इसमें साक्षी ली गई। अंत में कमेटी या कमीशन ने जो रिपोर्ट की उसकी मर्म बात यह थी कि :-
'हम लोगों की इच्*छा न रहने पर भी प्रभु की आज्ञानुसार हम लोगों ने इस मुकदमे के सब कागज-पत्र देखे। हम लोगों ने इन दोनों मनुष्*यों के विषय में जहां तक समझा और सोचा है निवेदन करते हैं। हम लोगों की सम्*मति में इन दोनों पुरुषों ने प्रभु की मंगलमयी सृष्टि का कुछ विघ्*न नहीं किया वरंच उसमें सुख और संतति अधिक हो इसी में परिश्रम किया। जिस चंडाल रूपी आग्रह और कुरीति के कारण मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक न पाकर लाखों स्*त्री कुमार्ग गामिनी हो जाती हैं, लाखों विवाह होने पर भी जन्*मभर सुख नहीं भोगने पातीं, लाखों गर्भ नाश होते और लाखों ही बाल-हत्*या होती हैं, उस पापमयी परम नृशंस रीति को इन लोगों ने उठा देने में शक्*यभर परिश्रम किया। जन्*मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्*त्री पुरुष जिएं एक तीर घाट एक मीर घाट रहें, बीच में इस वैमनस्*य और असंतोष के कारण स्*त्री व्*यभिचारिणी, पुरुष विषयी हो जाएं, परस्*पर नित्*य कलह हो, शांति स्*वप्*न में भी न मिले, वंश न चले, यह उपद्रव इन लोगों से नहीं सहे गए। विधवा गर्भ गिरावै, पंडित जी या बाहू साहब यह सह लेंगे, वरंच चुपचाप उपाय भी करवा देंगे, पाप को नित्*य छिपाएंगे, अंततोगत्*वा निकल ही जाएं तो संतोष करेंगे, इस दोष को इन दोनों ने नि:संदेह दूर करना चाहा। सवर्ण पात्र न मिलने से कन्*या को वर मूर्ख अंधा वरंच नपुंसक मिले तथा वर को काली कर्कशा कन्*या मिले जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हों, इस दुराग्रह को इन लोगों ने दूर किया। चाहे पढ़े हों चाहे मूर्ख, सुपात्र हों कि कुपात्र, चाहे प्रत्*यख व्*यभिचार करें या कोई भी बुरा कर्म करें, पर गुरु जी हैं, पंडित जी हैं, इनका दोष मत कहो, कहोगे तो पतित होगे, इनको दो, इनको राजी रखो; इन सत्*यानाशी संस्*कारों को इन्*होंने दूर किया। आर्य जाति दिन-दिन ह्रास हो, लोग स्*त्री के कारण, धन, नौकरी, व्*यापार आदि के लोभ से, मद्यपान के चसके से, बाद में हार कर राजकीय विद्या का अभ्*यास करके मुसलमान या क्रिस्*तान हो जाएं, आमदनी एक मनुष्*य की भी बाहर से न हो केवल नित्*य व्*यय हो, अंत में आर्यों का धर्म और जाति कथाशेष रह जाए, किंतु जो बिगड़ा सो बिगड़ा फिर जाति में कैसे आवेगा, कोई भी दुष्*कर्म किया तो छिपके क्*यों नहीं किया, इसी अपराध पर हजारों मनुष्*य आर्य पंक्ति से हर साल छूटते थे, उसको इन्*होंने रोका। सबसे बढ़ कर इन्*होंने यह कार्य किया, सारा आर्यवर्त जो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता बिचारे तो दूर रहे, भूत-प्रेत-पिचाश-मुरदे, सांप के काटे, बाघ के मारे, आत्*महत्*या करके मरे, जल, दब या डूबकर मरे लोग, यही नहीं, औलिया शहीद और ताजिया गाजीमियां, को मानने और पूजने लग गए थे, विश्*वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था, देखते-सुनते लज्*जा आती थी कि हाय ये कैसे आर्य हैं, किससे उत्*पन्*न हैं, इस दुराचार की ओर से लोगों का अपनी वक्*तृताओं के थपेड़े के बल से मुंह फेरकर सारे आर्यावर्त को शुद्ध 'लायल' कर दिया।
'भीतरी चरित्र में इन दोनों के जो अंतर हैं वह भी निवेदन कर देना उचित है। दयानन्*द की दृष्टि हम लोगों की बुद्धि में अपनी प्रसिद्ध पर विशेष रही। रंग-रूप भी इन्*होंने कई बदले। पहले केवल भागवत का खंडन किया। फिर सब पुराणों का। फिर कई ग्रंथ माने, कई छोड़े। अपने काम के प्रकरण माने, अपने विरुद्ध को क्षेपक कहा। पहले दिगंबर मिट्टी पोते महात्*यागी थे। फिर संग्रह करते-करते सभी वस्*त्र धारण किए। भाष्*य में भी रेल, तार आदि कई अर्थ जबरदस्*ती किए। इसी से संस्*कृत विद्या को भलि-भांति न जानने वाले ही प्राय: इनके अनुयायी हुए। जाल को छुरी से न काटकर दूसरे जाल ही से जिसको काटना चाहा इसी से दोनों आपस में उलझ गए और इसका परिणाम गृह-विच्*छेद उत्*पन्*न हुआ।
'केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्*कृत पथ प्रकट किया। परमेश्*वर से मिलने-मिलाने की आड़ या बहाना नहीं रखा। अपनी शक्ति की उच्*छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया। यद्यपि ब्राह्मण लोगों में सुरा-मांसादि का प्रचार विशेष है किंतु इसमें केशव का दोष नहीं। केशव अपने अटल विश्*वास पर खड़ा रहा। यद्यपि कूचिबिहार के संबंध करने से और यह कहने से कि ईसामसीह आदि उससे मिलते हैं, अंतावस्*था के कुछ पूर्व उनके चित्त की दुर्बलता प्रकट हुई थी, किंतु वह एक प्रकार का उन्*माद होगा या जैसे बहु*तेरे धर्म प्रचारकों ने बहुत बड़ी बातें ईश्*वर की आज्ञा बतला दीं वैसे ही यदि इन बेचारों ने एक-दो बात कही तो क्*या पाप किया। पूर्वोक्*त कारणों से ही केशव का मरने पर जैसा सारे संसार में आदर हुआ वैसा दयानन्*द का नहीं हुआ। इसके अतिरिक्*त इन लोगों के हृदय में भीतर छिपा कोई पुण्*य-पाप रहा हो तो उसको हम लोग नहीं जानते, इसका जानने वाला केवल तू ही है।'
इस रिपोर्ट पर विदेशी मेंबरों ने कुछ क्रुद्ध होकर हस्*ताक्षर नहीं किया।
रिपोर्ट परमेश्*वर के पास भेजी गई। इसको देखकर इस पर क्*या आज्ञा हुई और वे लोग कहां भेजे गए यह जब हम भी वहां जाएंगे और फिर लौटकर आ सकेंगे तो पाठक लोगों को बतलावेंगे या आप लोग कुछ दिन पीछे आप ही जानोगे।

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:22 AM
हमारा प्राचीन साहित्य / रवीन्द्रनाथ त्यागी

अपने प्राचीन साहित्*य से मेरा अभिप्राय अपने उस साहित्*य से है जो कि प्राचीन है। हमारा प्राचीन साहित्*य मुख्*यत: संस्*कृत में है और उसे वैदिक व लौकिक-इन दो खण्*डों में विभाजित किया जाता है। संस्*कृत के अतिरिक्*त और भी भाषाएँ हमारे यहाँ प्रचलित रहीं-जैसे प्राकृत, पालि, अपभ्रंश इत्*यादि-मगर उनमें उतना साहित्*य नहीं रचा गया। वे जनता की भाषा थीं या फिर स्त्रियों की भाषा थीं। स्*त्री को हमेशा जनता ही माना गया और इसी कारण आजादी के बाद भी नयी दिल्*ली में (जहाँ 'किंग्*स वे' को 'राजपथ' नाम से पुकारा गया) 'क्*वींस वे' को 'जनपथ' ही कहकर पुकारा गया। कालिदास की नायिकाएँ भी सारी बातचीत प्राकृत भाषा में ही करती थीं, संस्*कृत में नहीं हालाँकि जैसा कि हम जानते हैं, उनमें से शकुन्*तला जैसी जो कन्*या थीं वे ऋषियों के आश्रमों में नियमित रूप से शिक्षा प्राप्*त करती थीं। इसके अतिरिक्*त वे नायक की-जो सदा शुद्ध संस्*कृत में ही बोलता था-सारी बातें समझती थीं पर फिर भी बतौर शिष्*टाचार के, उत्तर वे प्राकृत में ही देती थीं। संस्*कृत बोलने का अधिकार उन्*हें नहीं था। स्*त्री को हर प्रकार से निचला स्*थान देने के बाद, हमारे शास्*त्रकार कहा करते थे कि जहाँ-जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ-वहाँ देवता निवास करते हैं। नार्यस्*तु यत्र पूज्*यन्*ते, रमन्*ते तत्र देवता:। जहाँ तक प्राकृत या पालि भाषा का प्रश्*न है, वे तो मात्र शिलालेखों पर उत्*कीर्ण करने के लिए ही प्रयुक्*त होती हैं, वैसे कभी नहीं। मेरा विचार है कि पुराने जमाने में यदि कोई व्*यक्ति पालि या प्राकृत में बात करना चाहता था तो आचार्य उससे यही कहते थे कि 'जाओ, एक अदद शिला या स्*तूप ले आओ, बा*की बात बाद में करेंगे।'
अपने इस प्राचीन साहित्*य में जो बात मुझे सबसे पहले आकृष्*ट करती है वह यह है कि जो भी प्रसंग आपके मतानुसार न हो, उसे आप 'क्षेपक' कहकर आसानी से टाल सकते हैं। इस पुराने साहित्*य में 'क्षेपक साहित्*य' जो है वह 'मूल साहित्*य' से कहीं ज्*यादा है। हमारे एक संस्*कृत के प्रोफेसर थे जो जरूरत से ज्*यादा चतुर थे। उन्*हें जो भी स्*थल ऐसा मिलता था जिसका कि वे अर्थ नहीं जानते थे, उसे वे हमेशा यह कहकर टाल जाते थे कि यह 'अश्*लील' है, लड़कियों के सामने इसका अर्थ नहीं बताया जा सकता। उनकी क्*लास समाप्*त होने के बाद, सबसे पहले हम उन्*हीं स्*थलों का अनुवाद खोजते थे और इस दिशा में लड़कियाँ जो थीं, वे भी कम उत्*सुक नहीं रहती थीं। हम लोग प्राय: निराश ही होते थे क्*योंकि उस तथाकथित अश्*लील प्रसंग में हमें ऐसा कोई भाग पढ़ने को कभी नहीं मिला जिसे हम पहले से ही न जानते हों। इस सबके अतिरिक्*त एक और बात जो परेशान करती थी वह यह थी कि यदि वह प्रसंग इतना अशोभनीय था तो फिर पाठ्यक्रम में रखा ही क्*यों गया था?
प्राचीन साहित्*य की एक और उपयोगिता सदा से यह रही कि उस पर डॉक्*टरेट लेना जो था वह सदा से सरल रहा। पहले तो 'पाठ' ही इतने प्रकार के हैं कि यह निश्चित करना कि कौन-सा 'पाठ' सही है, स्*वयं में एक बड़ा काम है। दूसरी बात यह है कि प्राचीन साहित्*यकारों ने अपने बारे में इतना कम लिखा है कि उन पर खोज करने की जो सुविधा है वह अनन्*त है। एक विदेशी विद्वान का कहना है कि महाकवि कालिदास जो थे वे कश्*मीर के निवासी थे क्*योंकि उन्*होंने हाथी की चर्चा अत्*यन्*त कम की है और कश्*मीर ही एक ऐसा देश है जहाँ हाथी उतनी बहुतायत के साथ नहीं पाया जाता। भारवि जरूर समुद्रतट के निवासी थे क्*योंकि वे संस्*कृत के अकेले ऐसे कवि हैं जिन्*होंने समुद्र में सूरज डूबने का चित्र खींचा है। इतनी दूर की कौड़ी लाते देख, पाठक को सूरज के साथ-साथ खुद भी समुद्र में डूब जाने की प्रबल इच्*छा होती है। मेरे विचार में दण्*डी जो था वह जरूर किसी निचली जाति का लेखक था या सरकार का 'घोषित' अपराधी था, नहीं तो कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता कि वह 'दशकुमारचरित' तो लिखता पर अपना 'चरित' न लिखता। उपेन्*द्रनाथ अश्*क हैं जो बेचारे भविष्*य की पीढ़ियों की कठिनाई दूर करने के लिए दो पेज 'चेतन' पर लिखते हैं और तीन पेज अपने ऊपर लिखते हैं। इतने त्*याग की भावना कितने लेखकों में होती है!
प्राचीन साहित्*य के संदर्भ में हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उस समय में राजा लोग तक साहित्*य की रचना करते थे। 'नागानन्*द' नाटक के लेखक वे ही सम्राट हर्ष थे जो सम्*पत्ति-कर से बचने के लिए हर पाँच वर्ष बाद अपनी सारी सम्*पत्ति प्रयाग के पण्डितों को बाँट देते थे। 'मृच्*छकटिक' के लेखक वे ही राजा शूद्रक थे जिनके अस्तित्*व के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है जिसका मुख्*य कारण यह है कि उन्*होंने नाटक की प्रस्*तावना में अपनी मृत्*यु का भी आँखों-देखा उल्*लेख किया है जो कि किसी भी लेखक के लिए कठिन काम है। लेखक जो है वह पाठक (या आलोचक) की मृत्*यु का तो उल्*लेख कर सकता है पर अपनी मृत्*यु का नहीं। और हाँ, तीनों शतकों के रचयिता वही राजा भर्तृहरि थे जिनकी पत्*नी सुन्*दर होने के साथ-साथ चरित्रहीन भी थी। बात भी ठीक थी, यदि सुन्*दर नहीं होती तो चरित्रहीन कैसे होती? क्*या आपने कभी कोई बदसूरत स्*त्री भी चरित्रहीन देखी है? कम-से-कम, मेरे साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं तो जब भी किसी बदसूरत स्*त्री के साथ समय गुजारने का अवसर पाता हूँ, तभी पता नहीं कैसे मेरा चरित्र अपने-आप ऊँचा हो जाता है। मैं तो जानबूझ कर ऐसी स्त्रियों के साथ ज्*यादा समय नहीं गुजारता क्*योंकि कहीं चरित्र जरूरत से ज्*यादा ऊँचा हो गया तो फिर वह नीचे कैसे आएगा?
हमारे प्राचीन साहित्*य में एक विशेष बात यह है कि उसमें संसार की सारी चीजों का वर्णन है। यत् ब्रह्माण्*डे, तत् पिण्*डे। प्रलय, विषकन्*या, युद्ध, बाढ़, भूकम्*प, भ्रष्*टाचार, बलात्*कार, कायस्*थ-मुन्शियों की चतुराई, अदालतों का अन्*धेर, वेश्*या, नगर, नगरवधू, देवता, देवदासियाँ, कंचुकी, ब्राह्मण, शाप, हरिजनों की हत्*या, विश्*वासघात, जालसाजी, नरबलि, गरीबी, उड़नखटोला-क्*या है जो वहाँ नहीं है? और अगर वहाँ नहीं है तो फिर कहीं नहीं है। अगर हमारे यहाँ गुणाढ्य की 'बृहत्*कथा' व विष्*णुशर्मा का 'पंचतन्*त्र' न होता तो संसार के कथा-साहित्*य के स्*थान पर हमें मात्र वह शून्*य ही देखने को मिलता जिसका कि आविष्*कार भी हमने ही किया था।
अपने इस महान प्राचीन साहित्*य की जो विशेषता आपके इस सेवक को सबसे ज्*यादा आकृष्*ट करती है वह है उसकी श्रृंगारप्रधानता, उसका पद-लालित्*य और उसकी विशुद्ध अश्*लीलता। मुझे धिक्*कार देने से पहले आप उन 'काम' की चीजों को पढ़ें। यदि आपने 'श्रृंगार शतक', 'भामिनीविलास' और 'अमरुकशतक' नहीं पढ़े तो आपका यह जीवन व्*यर्थ ही गया। यदि इस जीवन के बाद भी कोई और जीवन होता है तो वह भी व्*यर्थ गया। आप शंकराचार्य द्वारा प्रणीत 'विवेकचूड़ामणि' पढ़ें और 'मूर्ख शिरोमणि' की भाँति जीवन बितायें। मैं क्*या, हरिमोहन झा तक आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। पिछले पैंतीस वर्षों से मैं अपना प्राचीन साहित्*य बराबर पढ़ता आ रहा हूँ और कम-से-कम मैं तो इसी निष्*कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जो साहित्*य श्रृंगार-प्रधान नहीं है वह साहित्*य ही नहीं है और यदि साहित्*य है भी तो प्राचीन तो किसी भी स्थिति में नहीं है। आप फिर भी सन्*त बनना चाहते हों तो बनें। खाकसार तो इन्*सान होकर ही बहुत खुश है और हाँ, कभी मुझे देवता बनने की विवशता आयी भी तो मैं तो सिर्फ 'गुनाहों का देवता' ही बनूँगा, किसी और किस्*म का नहीं।
'गुनाहों का देवता' हिन्*दी की उन विरल पुस्*तकों में से है जिनका एक के बाद एक संस्*करण लगातार हुआ है। आधुनिक हिन्*दी की जो चार सबसे ज्*यादा बिकनेवाली पुस्*तकें हैं, 'गुनाहों का देवता' उनमें से एक है। शेष तीन पुस्*तकें हैं- 'गोदान', 'चित्रलेखा' तथा 'मधुशाला'। 'साकेत' और 'कामायनी' कैसे पीछे छूट गयीं, इसका मुझे पता नहीं। कालिदास खैर इतने तो प्रसिद्ध नहीं हुए जितने कि बच्*चन, धर्मवीर भारती, भगवतीचरण वर्मा व प्रेमचन्*द हुए (जिनकी पुस्*तकों की चर्चा ऊपर की गयी है) पर फिर भी उन्*होंने काफी नाम पाया। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि कालिदास एक नहीं, कम-से-कम तीन थे और उन्*होंने चालीस पुस्*तकें लिखी थीं। भारती जी स्*वयं कभी कालिदास से बहुत ईर्ष्*या करते थे और कहा करते थे कि 'मेघदूत के छन्*द-छन्*द में मैं खुद आग लगाता' मगर वैसा उन्*होंने किया नहीं। लोहा ठण्*डा ही रहा, उतना गरम कभी नहीं हुआ। विश्*वस्*त सूत्रों का कहना है कि भारती जी ने अपनी योजना को तब खलास किया जब उन्*हें पता चला कि कालिदास (वल्*द : मालूम नहीं) एक नहीं बल्कि तीन थे। सबूत के तौर पर सैकड़ों वर्ष पहले लिखा यह श्*लोक प्रस्*तुत करता हूँ :
एकोपि जीयते हन्*त कालिदासो न केनचित्।
श्रृंगारे ललितोद्गारे कालिदासत्रयी किमु।

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:23 AM
हर शाख पे उल्लू बैठा है / रवीन्द्र प्रभात

“हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था, शौक़ से डूबें जिसे भी डूबना है” दुष्यंत ने आपातकाल के दौरान ये पंक्तियाँ कही थी , तब शायद उन्हें भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि आनेवाले समय में बिना किसी दबाब के लोग स्वर्ग या फिर नरक लोक की यात्रा करेंगे।
वैसे जब काफी संख्या में लोग मरेंगे , तो नरक हाऊसफुल होना लाजमी है, ऐसे में यमराज की ये मजबूरी होगी कि सभी के लिए नरक में जगह की व्यवस्था होने तक स्वर्ग में ही रखा जाये। तो चलिए स्वर्ग में चलने की तैयारी करते हैं। संभव है कि पक्ष और प्रतिपक्ष हमारी मूर्खता पर हँसेंगे, मुस्कुरायेंगे, ठहाका लगायेंगे और हम बिना यमराज की प्रतीक्षा किये खुद अपनी मृत्यु का टिकट कराएँगे।
जी हाँ, हमने मरने की पूरी तैयारी कर ली है, शायद आप भी कर रहे होंगे, आपके रिश्तेदार भी, यानी कि पूरा समाज ! अन्य किसी मुद्दे पर हम एक हों या ना हों मगर वसुधैव कुटुम्बकम की बात पर एक हो सकते हैं, माध्यम होगा न चाहते हुये भी मरने के लिए एक साथ तैयार होना।
तो तैयार हो जाएँ मरने के लिए , मगर एक बार में नहीं , किश्तों में। आप तैयार हैं तो ठीक, नहीं तैयार हैं तो ठीक, मरना तो है हीं, क्योंकि पक्ष- प्रतिपक्ष तो अमूर्त है, वह आपको क्या मारेगी, आपको मारने की व्यवस्था में आपके अपने हीं जुटे हुये हैं।
यह मौत दीर्घकालिक है, अल्पकालिक नहीं। चावल में कंकर की मिलावट , लाल मिर्च में ईंट - गारे का चूरन, दूध में यूरिया, खोया में सिंथेटिक सामग्रियाँ , सब्जियों में विषैले रसायन की मिलावट। और तो और देशी घी में चर्वी, मानव खोपडी, हड्डियों की मिलावट क्या आपकी किश्तों में खुदकुशी के लिए काफी नहीं?
भाई साहब, क्या मुल्ला क्या पंडित इस मिलावट ने सबको मांसाहारी बना दिया। अब अपने देश में कोई शाकाहारी नहीं, यानी कि मिलावट खोरो ने समाजवाद ला दिया हमारे देश में, जो काम सरकार चौंसठ वर्षों में नहीं कर पाई वह व्यापारियों ने चुटकी बजाकर कर दिया, जय बोलो बईमान की।
भाई साहब, अगर आप जीवट वाले निकले और मिलावट ने आपका कुछ भी नही बिगारा तो नकली दवाएं आपको मार डालेगी। यानी कि मरना है, मगर तय आपको करना है कि आप कैसे मरना चाहते हैं एकवार में या किश्तों में?
भूखो मरना चाहते हैं या या फिर विषाक्त और मिलावटी खाद्य खाकर?
बीमारी से मरना चाहते हैं या नकली दवाओं से?
आतंकवादियों के हाथों मरना चाहते हैं या अपनी हीं देशभक्त जनसेवक पुलिस कि लाठियों, गोलियों से?
इस मुगालते में मत रहिए कि पुलिस आपकी दोस्त है। नकली इनकाऊंटर कर दिए जायेंगे, टी आर पी बढाने के लिए मीडियाकर्मी कुछ ऐसे शव्द जाल बूनेंगे कि मरने के बाद भी आपकी आत्मा को शांति न मिले।
अब आप कहेंगे कि यार एक नेता ने रबडी में चारा मिलाया, खाया कुछ हुआ, नही ना? एक नेतईन ने साडी में बांधकर इलेक्ट्रोनिक सामानों को गले के नीचे उतारा, कुछ हुआ नही ना? एक ने पूरे प्रदेश की राशन को डकार गया कुछ हुआ नही ना? एक ने कई लाख वर्ग किलो मीटर धरती मईया को चट कर गया कुछ हुआ नही ना? और तो और अलकतरा यानी तारकोल पीने वाले एक नेता जी आज भी वैसे ही मुस्करा रहे हैं जैसे सुहागरात में मुस्कुराये थे। भैया जब उन्हें कुछ नही हुआ तो छोटे - मोटे गोरखधंधे से हमारा क्या होगा? कुछ नही होगा यार टेंसन - वेंसन नही लेने का। चलने दो जैसे चल रही है दुनिया।
भाई कैसे चलने दें, अब तो यह भी नही कह सकते की अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता। क्योंकि मिलावट खोरो ने कुछ भी ऐसा संकेत नही छोड़ रखा है जिससे पहचान की जा सके की कौन असली है और कौन नकली?
जिन लोगों से ये आशा की जाती थी की वे अच्छे होंगे, उनके भी कारनामे आजकल कभी ऑपरेशन तहलका में, ऑपरेशन दुर्योधन में, ऑपरेशन चक्रव्यूह में , आदि- आदि में उजागर होते रहते हैं। अब तो देशभक्त और गद्दार में कोई अंतर ही नही रहा। हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा?

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:23 AM
हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं / प्रमोद यादव

बचपन में इस गाने का अर्थ समझ नहीं आता था. खासकर ‘हुस्नवाले‘ शब्द का. सोचता था, हुस्नवाले किसी मेवेवाले, ठेलेवाले या पानवाले की तरह कोई होते होंगे पर कालेज ज्वाइन करते और एक अदद कन्या के प्रेम में पड़ते ही इस शब्द का. सही अर्थ समझ में आया.जाना की हुस्न खूबसूरती को कहते हैं और यह भी जाना की हुस्न केवल लड़कियों का होता है, लड़कों का कोई हुस्न नहीं होता. लड़के तो शत-प्रतिशत बौडम होते हैं-मेरी तरह...इन हुस्नवालों की बड़ी मज़बूरी होती है-बोड्मों से एड्जस्ट करना...प्रेम करना..शादी करना लेकिन क्या करे, यही इनकी नियति है. बेचारी..प्यारी..अबला नारी.
लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा को हमने केवल फिल्मों में देखा है.अब फिल्म बनानेवालों को तो सिर्फ पैसा कमाना है, फिल्म चलाना है- वे बेचारे भला मजनू, फरहाद, रांझा को बौडम कैसे दिखाएँ, इसलिए वे इन दीवानों को हैंडसम फार्मेट में पेश करते हैं.सही तथ्य तो ये है कि वो सब भी हमारी तरह बौडम ही रहें होंगे..ज्यादा से ज्यादा हमसे उन्नीस-बीस का ही फर्क रहा होगा..लेकिन लैला, हीर, शीरी के हुस्न पर मुझे कोई शंका नहीं..हाँ, कहीं पढा है कि लैला कुछ काली थी, पर हुस्न का पैमाना गोरा-काला नहीं होता. फेसकट से चार्मिंग रही होगी लैला. जिस लैला से मेरी आँखें चार हुई थी-वह न गोरी थी, न काली..पर उसका चाँद-सा गोल चेहरा मुझे बहुत भाता था..मेरे लिए यही हुस्न था.
हर खत में उसके हुस्न की तारीफ करता. कभी उसे ‘चाँद-सी महबूबा‘ कहता तो कभी ‘चौदहवीं का चाँद‘. हमारे ज़माने में “लाइव-बातचीत“ लगभग वर्जित ही था.पांच साल के प्रेम-प्रसंग में टोटल “लाइव- बातचीत “बामुश्किल पांच घंटों की होगी. हाँ, खत हमने जरुर पच्चीस सौ लिखे ..(साढ़े बारह सौ उसने और साढ़े बारह सौ मैंने) प्रेम-पत्रों को पढकर वह वापस कर देती, कहती-तुम्ही सम्हालो..मुझसे फाड़े नहीं जाते..और घर में रख नहीं सकती. वह डरती कि कहीं भैया के हाथों लगा तो वे बिगड जायेंगे. इस तरह ‘ इन-आउट ‘ दोनों खतों को मैं ही सम्हालता. उस ज़माने में यही प्रेम था...सच्चा-प्रेम.
उन दिनों प्रेम-पत्र लिखनेवालों की बड़ी क़द्र होती थी..उन्हें जीनियस माना जाता. प्रेम-पत्र लिखने के लिए लोग तरसते थे. प्रेम-पत्र लिखने के लिए सबसे बड़ी और पहली अनिवार्यता थी-एक अदद माशूका की. भला हर किसी के नसीब में यह कहाँ होता है? अपने दोस्तों के बीच मैं खुद को काफी गर्वीला महसूसता था (अन्धों में काना राजा जो था) खत लिखता तो सारे दोस्त दांतों तले ऊँगली दबाते ...खुदा की मेहरबानी से मेरी हैंडराईटिंग काफी अच्छी थी...हिंदी टायपिंग से बेहतर और साफ-सुथरी थी मेरी लिखावट. शेरो-शायरी, कविता, गजल पूरे जोश-खरोश से ठेलता था खत में. प्रेम के चलते मैं साहित्यिक-विद्वान- सा हो रहा था और पढाई-लिखाई में दिनों-दिन फिसड्डी . पर प्रेम की ट्रेन द्रुतगति से चल रही हो तो पढाई की कौन परवाह करता है? मैंने भी नहीं की और फेल हो गया, पर प्रेम-प्रसंग के तमाम विधाओं में मेरे मार्क्स हमेशा अच्छे रहे. चारित्रिक-तौर पर मैं एकदम बेदाग रहा. पांच साल की लंबी अवधि में कभी उसे छुआ तक नहीं. इस बात का मुझे कोई दुःख नहीं लेकिन मेरे दोस्तों को आज तलक मलाल है इस बात का...वे चाहकर भी मेरा चारित्रिक पतन नहीं देख पाए.
तो मैं बता रहा था कि उसके हुस्न की तारीफ में मैंने कभी कोताही नहीं की.कभी “ तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को, किसी की नजर न लगे “की दुआंए, कम्प्लिमेंट्स दी, तो कभी “तेरे चहरे से नजर नहीं हटती “ की टेक लगाई. कभी ”छू लेने दो नाजुक होंठों को“ की फरियाद की, तो कभी “तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है“ जैसी गोपनीय बातें भी बताई...लेकिन यह सब खतों तक ही सीमित रहा....सपनों तक ही सीमित रहा और .सपनों की तो नियति ही है टूटना...सो टूट गए..उसकी शादी हो गई, वह ससुराल चली गयी. मैंने भी वो सारे पच्चीस सौ खत एक-एक बार पढके अग्नि के हवाले किये और यथार्थ की पटरी पर आ लगा. आज हम-दोनों खुश हैं.वह खुश है कि बाल-बाल बची और मैं खुश हूँ कि मेरे कुछ तो बाल बचे.
आज के दौर की युवतियों, बालाओं को देखकर बड़ी कोफ़्त होती है.झाँसी की रानी की तरह सर पर कफ़न बांधे, मुंह में दुपट्टा लपेटे स्कूटी में सरपट न जाने कहाँ भागी जाती हैं? बड़ी संदेहास्पद लगती है ये लड़कियां. अब तो ग्रामीण बालाएं भी मुंह में नकाब डाले सायकिल से सरपट भागती हैं- जैसे कहीं ‘ डाके ‘ का प्रोग्राम करने जा रही हो.माना कि धुल धक्कड -, धुआं से बचने का उपक्रम करती हैं, सेहत के प्रति अपनी जागरूकता प्रदर्शित करती हैं...पर भला धुल धक्कड कोई आज की बात तो नहीं है...हमारे ज़माने में तो आज से कहीं ज्यादा ही धुल धक्कड था...हाँ, सेहत के प्रति जागरूकता जरुर कम थी. फिर भी कभी किसी कन्या ने दुपट्टा बांधने की जरुरत नहीं समझी. सेहत को ताक पर रख अपने हुस्न का जलवा सरेआम बिखेरती रही...और औडम- बौडम लोग कृतार्थ होते रहे.उन दिनों भी कहीं आज की तरह नकाब ओढने का चलन होता, तो मैं तो कभी किसी को ‘ प्रपोज ‘ कर ही नहीं पाता. चौबीसों घंटे कोई चहरे पर नकाब चढ़ाये रहे तो भला उसके हुस्न की तारीफ कोई कैसे करे? चेहरा देखे बिना कोई कैसे कहे- “ रूप तेरा मस्ताना.”..या फिर ” तेरे होंठों के दो फूल प्यारे-प्यारे..” समझ नहीं आता आज के युवा सलीम अपनी नकाबपोश अनारकलिओं को पहचानते कैसे है? प्रपोज कैसे करते हैं?खत लेने-देने का तो चलन ही खत्म हो गया है.
सुना है कि आजकल का प्रेम-प्रसंग पूरी तरह और बुरी तरह ‘ मोबाइल-बेस्ड ‘ है. ई-मेल, इंटरनेट, एस.ऍम एस. , एम्.एम्.एस. के जरिये ही सब सम्पादित होता है, पर खत के मुकाबले यह अत्यंत अविश्वश्नीय विधा है. कब आप कवरेज से बाहर हो जाएँ, कब सिग्नल चला जाये, या सेलफोन बंद हो जाये, पता नहीं.बड़ा ही रिस्की माध्यम है यह.समझ नहीं आता इसके सहारे आज के लैला-मजनू किस तरह मुहब्बत करते हैं? खुद को मैं धन्य मानता हूँ कि इस मनहूस मोबाइल-युग के शोर-शराबे में पैदा नहीं हुआ अन्यथा एक अदद पवित्र और ‘ कूल-कूल ‘ प्रेम-प्रसंग से वंचित रह जाता. कामना करता हूँ कि कहीं ‘ऊपरवाले‘ के यहाँ पुनर्जन्म का कोई प्रोग्राम चलता हो तो अगले जनम में भी मुझे वही चाँद-सी गोल चेहरे वाली महबूबा ही बख्शे जिसने हमेशा अपने हुस्न को बे-नकाब रख तारीफ करने का भरपूर मौका दिया...शुक्रगुजार हूँ उसका.. आज के दौर में वह होती ( नकाब डाले ) तो कभी नहीं कह पाता-“ हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं“.

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:26 AM
सावधान, वे सड़कों पर घूम रहे हैं

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:26 AM
सावधान, वे सड़कों पर घूम रहे हैं

फ़िल्में और उनके गीत, हमारे शयन-कक्षों और ड्राइँग रूम्स का हिस्सा बन चुके हैं। मुंबइया हिन्दी हमारी भाषा में छौंक लगाने लगी है (बिंदास, मवाली,काय कू आदि )। देर-सवेर। स्वीकारना पड़ेंगे ही
एक और वर्ग है जो अंदर घुस आने की फ़िराक में सड़कों पर पर घूम रहा है। खीसें निपोरते बार-बार अंदर तक चक्कर लगा भी जाता है , वो तो हमीं लोग हैं जो पैठ बनाने नहीं देते, टरका देते हैं।
इनकी रूप-रचना का काम हमारी कामवालियों ने किया है। घर में झाड़ू-पोंछा, चौका बर्तन, कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं। उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है, रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !
आपने 'फर्बट' शब्द सुना है?
हम तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं।
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं, 'अरे, उसकी मत पूछो, क्या फर्वट है !'
इस युवा पीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !
और फिरंट का मतलब जानते हैं?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है।
'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई है भी कहीं अब?
सलूका, अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है, ब्लाउज, आदि ने।
हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है। एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा।
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ : और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है।
लेडीज़ों भी सही -अकेली स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं अब? दो-तीन साथ में। एक झुण्ड में लेडीज़ और झुण्डों का बहुवचन लेडीज़ों ही तो।
थालियों में कौन खाता हैं सब पलेट में खायेगे, चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट।
अपनी हिन्दी बदलती जा रही है, अब तो।
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी, जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
हमारे यहां एक प्रकार का मिल का कपड़ा होता है (लट्ठा)।
अंग्रेज़ लोग तब लांग्क्लाथ कहते थे, अपने देसी लोग 'लंकलाट' कहने लगे। चल पड़ा शब्द।
इसी प्रकार कैंपों में जब अंग्रेज़ संतरियों को किसी के उधर होने का संदेह होता था तो
ज़ोर की आवाज़ लगाते , 'हू कम्स देअर? '
हमारे चौकीदार ने अपने हिसाब से शब्द पकड़ लिये 'हुकम सदर !'
एक बार मुझसे किसी ने कहा - ये 'फ़ालतू' अफ़लातून' से बना है।'
मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुलने लगे।
अपने बचपन की बातें भी कोई भूल सकता है
हमें भी याद है - सुनते रहते थे उर्दू और हिन्दी में खास अंतर नहीं है। म।प्र। में थे हम। वातावरण में हिन्दी अधिक थी, उर्दू से दूर का वास्ता और संस्कृत पूजा-पाठ और विशेष अवसरों मंत्र पाठ स्तुतियों आदि में सुनने को मिल जाती थी।।तो हमने समझने का आसान तरीका निकाला था।--क,ख,ग,ज फ वगैरा के नीचे बिंदी (नुक़्ता) लगा दो, और गले से ग़रग़रा कर बोलो तो उर्दू होती है।
स्कूल में कोई तर्जनी दिखा कर कह दे आइन्दा...'तो दम खुश्क हो जाता था। कि जाने कितनी खतरनाक बात कही गई।
और संस्कृत! हिन्दी शब्द के अंत में म या न लगा कर उस पर हल लगा दो हो गया काम (सुन्दरम्,आनंदम्, वरम्,निकंदनम् सब हलन्त हैं)।और उन्हें गा-गा कर पढ़ो तो संस्कृत हो गई।
पर ये तो पुरानी बातें है।
अब देखिए, अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं? सफल लिख-बोल कर कोई अपनी हेठी क्यों कराये?
अब मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है।
अभी से सुनना-समझना शुरू कर दीजिए। नहीं तो पिछड़ जाएंगे। कुछ दिनों में ये शब्द साहित्यिक प्रयोगों में आने लगेंगे। क्योंकि पुराने तो विस्थापित होते जा रहे हैं, लोगों को दुरूह लगने लगे हैं, उनकी अर्थवत्ता पर संकट आता जा रहा है। और ये नये टटके शब्द जनभाषा के हैं, साहित्य को जनभाषा में ला कर उसे जनता के लिए अति बोध-गम्य बनाने का प्रगतिशील विचार इन्हीं को सिर-आँखों धरेगा। आपके आस-पास भी कुछ घूम रहे होंगे, ध्यान दीजिये पकड़ में आ जायेंगे। ।
मेरी समझ में एक बात आती है जब तक इस वर्ग की उपस्थिति समाज में बनी रहेगी। भाषा उनके अनुकूल ढलेगी। ढलेगी तो चलेगी, और चलेगी तो इधर-उधऱ पहुँचेगी। घरों में, बाज़ारों में वर्ग के साथ वह भाषा आयेगी ज़रूर।
जनता बोले वही असली भाषा - आगे तो वही चलबे करेगी!

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:27 AM
साहब का बाबा

चपरासी ने अदब से परदा उठा कर गोल कमरे में मेरा प्रवेश करा दिया। मैं सोफे पर बैठ गया तो उस कमरे में पहुँचाने के एहसान का बदला पाने की गरज से बड़ी मित्रता-सी दिखाते हुए उसने पूछा, 'बिजली के छोटे इंजीनियर हो कर आए हैं न आप?'
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और गंभीर बनने की कोशिश की। पर उसकी निराधार मित्रता को जैसे आधार मिलने वाला हो। उसने फिर पूछा, 'बर्टी साहब की जगह आए हैं न?'
मैंने गंभीरता से कहा, 'हाँ।'
उसने फिर प्रेम से पूछा, 'आप तो बाँभन है न?'
डरते हुए, कि कहीं वह पैर न छू ले... मैंने स्वीकार में सिर हिलाया और नाक सिकोड़ कर प्रश्न के अनौचित्य पर प्रकाश डाला।
पर चपरासी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। अदम्य आत्मीयता से उसने कहा, 'बर्टी की जगह आप आ गए, अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश था। सब परेशान थे।'
विषय बड़ा आकर्षक था, फिर भी चीफ के अर्दली से इस पर बात चलाई जाए या नहीं, इसी संदेह में कोई उत्तर न दे सका। धीरे से मुसकरा कर फिर गंभीर हो गया।
चपरासी को जैसे मेरी थाह मिल गई। धीरे से, जैसे कोई घर का आदमी हो, उसने कहा, 'आप बैठें, मैं साहब को इत्तिला दे आऊँ।'
वह चला गया। फिर नहीं लौटा। मैं चुपचाप गोल कमरे में बैठा रहा।
गोल कमरा चौकोर था और सुरुचिपूर्वक सजाया गया था। किसी सौ-सवा-सौ रुपया महीना पाने वाली सुरुचि ने, यानी किसी विभागीय डिजाइनर ने समझदारी से बड़े-बड़े किताबी करिश्मे दिखाए थे। मैं एक संगमरमरी क्यूपिड - कामदेव से ले कर मिट्टी के बुद्ध तक अपनी निगाह नचाता रहा। एक साथ श्रृंगार और शांत रस में निमज्जित होता रहा।
इसी बीच दरवाजे पर आहट हुई। मैंने उठना चाहा, पर उठते-उठते बैठ गया।
लगभग सात-आठ साल का एक लड़का मेरे सामने खड़ा था। गोरा, स्वस्थ, बनियान और हाफ पैंट पहने हुए। बाल मत्थे तक फैले हुए। 'घुँघराली लटैं लटकैं मुख ऊपर...' आदि-आदि वाला मजमून। मन में वात्सल्य भाव उमड़ा मैंने मुस्कराकर कहा, 'हलो।'
वह हँस कर मेरे घुटने के पास आ कर खड़ा हो गया। बोला, 'हलो।' मैंने प्यार से उसका सिर सहलाया। पूछा 'बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?'
उसने कहा, 'नहीं बताते।'
वह मेरी गोद पर चढ़ आया। जैसे वह कोई कुर्सी हो। उसका मुलायम शरीर कुछ देर तक बड़ा भला लगा। वह मेरी जाँघों पर खड़ा हो गया, हाथ से मेरे बाल पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए बोला, 'क्यों नहीं बताते? अपना नाम बताओ?'
अब इस हालत में नाम बताते हुए मुझे सचमुच झेंप लगी। मैंने उसके हाथ से अपने बाल छुड़ाए। बाल बिगड़ जाने पर मन-ही-मन उसे कोसते हुए, नीचे खड़ा कर दिया। फिर, अपने बड़े होने का अनुभव होते ही, यह सर्वकालीन नसीहत दी, 'अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते।'
अब वह बड़ी तीव्रता से दाँत पीसता हुआ मेरी गोद में चढ़ने को दौड़ा और चीखने लगा, 'अच्छे बच्चे? अच्छे बच्चे? नाम बताओ अपना नाम बताओ।'
मुझे डर लगा कि लोग यह न समझे कि मैं उसकी हत्या कर रहा हूँ। अत: चाकर सुलभ सरलता से मैंने कहा, 'मेरा नाम गोपाल है।'
उसने मेरी टाई अपनी ओर खींच कर आनंद से कहा, 'अरे वाह रे गुपल्लू! गुपल्लू! गुपल्लू!'
यह कहने में उसने जैसा मुँह बनाया उसी से मैंने निश्चय किया कि बच्चों को ठीक रखने के लिए छड़ी का महत्व अभी भली-भाँति समझा नहीं गया है।
पर मेरी टाई बिगाड़ कर वह कुछ शांत हो गया। प्रेम से बोला, 'मेरा नाम लीलू है।'
मैंने कहा, 'वेरी गुड।'
वह फिर बोला, 'दीदी का नाम जानते हो?'
मैंने 'नहीं' के लिए सिर हिलाया।
'क्वीनी, उसका यार बोलता है।'
मैंने आश्चर्य से आँखे फैलाई। उसने कहा, 'डैडी का नाम जानते हो?'
मैंने फिर वैसे ही सिर हिलाया। वह बोला, 'भेड़िया; शोफर बोलता है। ...मम्मी का नाम जानते हो?'
मैंने फिर सिर हिलाया तो उसने कहा, 'डार्लिंग। डैडी डार्लिंग बोलते हैं।'
मैं उदास होकर बैठ गया तो उसने कहा, 'वह क्या है।'
मैंने जवाब दिया, 'बुद्धा।'
वह तालियाँ बजाता हुआ उछ्ल पड़ा, बोला, 'बुद्धा नहीं, बुद्धू! बुद्धू! तुम बुद्धू! तुम बुद्धू!'
मेरी हास्यप्रियता का दिवाला बहुत पहले निकल चुका था। मैंने जरा कड़ाई से कहा, 'चुप रहो।'
इस पर वह चीखा, 'चुप रहो नहीं; शटअप, शटअप, शटअप ब्लडीफूल!'
मैंने परेशान हो कर इधर-उधर देखा। तभी यह भी देखा कि बाल और टाई ही नहीं, मेरे कोट और पतलून पर भी उसका असर आ चुका है। वहाँ उसके जूतों के निशान बने हुए हैं। यह मेरी गोद में चढ़ने-उतरने का नतीजा था।
मैं रोया नहीं। धीरे से कहा, 'लीलू, क्या बकते हो?'
वह मुँह मटकाता रहा, 'क्या बकता हूँ? अच्छा।' कुछ देर वह चुप रहा, फिर बोला, 'उस तस्वीर में क्या है?'
'जंगल है।'
'और वह लड़का और लड़की।'
मैंने क्यूपिड की मूर्ति को मन में नमस्कार करके कहा, 'हाँ, वे भी हैं।'
'क्या करते हैं?'
मैं चुप रहा।
'क्या करते हैं?' वह चीखा।
मैंने कहा, 'तुम्हीं बताओ।'
'बताऊँ?' वह कुछ देर चुप रहा। फिर चिल्ला कर बोला, 'किसिंग! किसिंग! बताऊँ?'
मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मुँह से निकला, 'हे भगवान!'
तब उसने आखिरी दाँव लगाया, 'कुत्ते का मुँह काला है, तू हमारा साला है।'
तभी दरवाजे पर एक भूतनी आ कर खड़ी हो गई। यानी, जो आ कर खड़ी हुई तो उसे भूतनी कह कर समझना आसान पड़ेगा। काले शरीर पर सफेद साड़ी फब रही थी। लगता था, पीपल के पेड़ से उतर कर छत पर होती हुई किसी भाँति नीचे आ गई है…।
पर मैं अन्याय कर रहा हूँ। वह मेरी रक्षा करने को आई थी। मैं उसका आदर करता हूँ। आते ही उसने कहा, 'बाबा, बाऽऽ बाऽऽ, अंदर चलो।'
बाबा आनंद से हँसता हुआ अंदर जाने लगा, तभी चीफ ने कमरे में प्रवेश किया। आते ही पूछा, 'बाबा से खेल रहे थे? बड़ा शरारती है... हाँ हँ, हँ।'
वे न जाने क्या-क्या बकते रहे। मैं हारा-सा, पिटा-सा सुनता रहा; सोचता रहा, संसार असार है। कोई किसी का नहीं। कामिनी कंचन का मोह वृथा है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का वचन है कि अनासक्त हो कर रहो, जैसे तुम अपने दफ्तर की संपत्ति को अपनी कह कर भी अपनी नहीं मानते, जैसे तुम्हारी आया तुम्हारे बच्चों को अपना मुन्ना बताते हुए भी उन्हें अपना नहीं जानती...
तभी सहसा विचार आया, जिस बाबा के वचनमात्र ने संसार को असारता समझा दी, और जिस आया के दर्शन मात्र से कामिनी कंचन का मोह छूट गया, उनके साथ निरंतर रहने वाला यह साहब कितना बड़ा परमहंस होगा! साक्षात् बुद्ध!
अस्कमात आदर से फूल कर मैं सोफे पर और भी सिमट आया और साहब के उपदेश को दत्तचित हो कर भंते की भाँति सुनने लगा।

VARSHNEY.009
24-08-2013, 09:27 AM
साहित्य और सफेदी

राजा दशरथ को, एक दिन दर्पण में मुखड़ा देखते समय, जब कानों के पास सफेद बाल दिखाई दिया तो उन्होंने निर्णय लिया कि राम को राजपाट सौंपकर वानप्रस्थ आश्रम की ओर प्रस्थान करेंगे। हमारे आज के दशरथ पहले तो दर्पण में मुखड़ा देखते ही नहीं, देख भी लें तो पहचानते नहीं, पहचान भी लें तो उनके कान में जनता की जूं तक नहीं रेंगती है। सफेद बाल की क्या औकात कि वह रेंगे। उनकी सारी सफेदी पहनावे में होती है और बालों से लेकर शरीर के अंदरूनी तक, सभी तरह की सफेदी, वे काले रंग में रंगते जाते हैं। उनकी सारी वास्तविकता धीरे-धीरे कालिमा के सौदर्य से वैसे ही सुशोभित होती है जैसे पगुरा रही भैंस का सौदर्य।
तो मित्रो, मैंने भी आधुनिक दशरथों से प्रेरणा ग्रहण कर उस एकमात्र सफेद बाल को काला कर दिया। वैसे भी मेरे पास अपने पुत्र को राज पाट देने की बात तो, राजनीति में नैतिकता-सी दूर, एक कंप्यूटर तक खरीद कर देने की औकात नहीं थी। वह निरंतर इसकी माँग उठाता और मैं उसकी माँग आश्वासन की रद्दी टोकरी में डाल देता। दूसरे, एकमात्र बाल को सफेद रहने का मौका देकर मैं अपनी नारी सौंदर्य दृष्टि पर कुठाराघात नहीं करना चाहता था। अब कोई बाल धूप के कारण सफेद हो गया हो तो इसका मतलब यह तो नहीं कि आप सुंदरियों की दृष्टि में केशव बाबा हो जाएं।
जैसे चुनाव में नेता आश्वासन देना नहीं छोड़ता है, मैंने सफेद बालों को नहीं छोड़ा और उन्हें चुन-चुन कर काला करता रहा। सौंदर्य रक्षण के मामले में मेरी पत्नी अति पतिव्रता है। मैं माह में एक बार बाल काले करता तो वह प्रति सप्ताह करती। बाल करते हुए हमारा पूर्ण प्रयत्न होता कि मुंह काला न हो क्योंकि बाल तो अधिकांशतः इस नीयत के साथ ही काले किए जाते हैं कि कहीं मुंह मारने का सुअवसर प्राप्त हो सके और मुहं मारन प्रक्रिया में मुंह के काले होने की संभावनाएं वैसी ही बनी होती हैं जैसे काजल की कोठरी में अथवा पुलिस विभाग में।
पर एक दिन ऐसा आया कि चेहरा तो बुढ़ापे की झुर्रियों से भर गया और काले रंग से रंगी बालों की जवानी वैसे ही लगने लगी जैसे न्यायालय में गीता के सामने सच कहूंगा और सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा जैसा काला सच लगता है। मैं दुविधा या सुविधा, किसी में होऊं , गुरुदेव के पास चला जाता हूं। दशरथ अपने कुलगुरु वसिष्ठ के पास जाते थे, मैं अपने साहित्यिक कुलगुरु के पास इस दुविधा के निराकरण के लिए गया।
मैं गुरुदेव के दरबार में हाजिर हुआ। आप तो जानते ही हैं कि गुरु वह होता है जिसके शिष्य होते हैं और शिष्य वह होता है जिसका गुरु होता है। जितने अधिक शिष्य होते हैं उतना ही गुरु महान होता है। कहते हैं कि जहां गुड़ होता है वहां चीटियां जाती हैं और जहां भ्रष्टाचार होता है भ्रष्टाचारी भी वहीं जाते हैं। जिसके पास भ्रष्टाचार के जितने सुअवसर होते हैं जनता के सेवक उसी के पास जाते हैं। वे मेरे साहित्यिक गुरु हैं और उनके पास पद, पुरस्कार, यश, साहित्य की मुख्य धारा में खेने वाली नाव आदि सब कुछ है। वे खेवनहार हैं इसलिए उनके गले में विभिन्न पुष्पों से युक्त हार सुशोभित होते रहते हैं।
जैसे दशरथ की श्वेतकेश चर्चा सुनकर गुरु वसिष्ठ प्रसन्न हुए थे वैसे ही मेरे गुरु हुए। गुरु सभी एक से होते हैं। आपको कब फंसवा दें, पता नहीं। गुरु वसिष्ठ ने राम के अभिषेक का मुहूर्त निकाल कर दशरथ को ऐसा फँसाया कि बेटा राम तो वनवास गया ही, खुद भी स्वर्ग को चल दिए। गुरु की इस महिमा के बावजूद भी शिष्य तब तक फंसा रहता है जब तक उसे कोई दूसरा गुरु नहीं मिलता। गुरु बिना गत नहीं। वैसे आजकल के चेले भी बड़े गुरु हो गए हैं, द्रोणाचार्य का अंगूठा काटने की फिराक में रहते हैं।
गुरु बोले, हे वत्स, यह अच्छा है कि तू इन काले बालों से छुटकारा लेने की सोच रहा है। तू वयोवृद्ध तो था ही, अब बालवृद्ध भी हो जा। अब तक तेरा शरीर दुर्बल हो चुका है, इंद्रियां शिथिल हो चुकी हैं, पर जानता हूं कि तेरा मन जवान है। तेरी वायवी दृष्टि मद्धम पड़ गई है पर नारी सौंदर्य को परखने वाली तेरी दृष्टि मेरी तरह एक्स-रे दृष्टि है। तू किसी भी दृष्टि से देख, सफेद बाल सुंदर नारी को भ्रमित रखते हैं और वह भी आवश्यक्तानुसार उनका पान करती है। यदि उसने तेरी दृष्टि के सौंदर्य को परख लिया तो वह साहित्य में अपने विकास के लिए तेरे शयनकक्ष की शोभा बढ़ाएगी अन्यथा चरण छूकर आशीर्वाद ले लेगी। काले बाले वाले से आशीर्वाद लेना असंगत लगता है। सफेद बाल साहित्य गोष्ठियों मे अध्यक्ष पद और किसी पुरस्कार समिति की अध्यक्षता सरलता से दिलवाते हैं। तू श्वेतकेश प्रक्रिया में संलग्न हो जा और मैं तुझे इस पथ पर प्रेरित करने के लिए छंगीकुमारी, मंगीकुमारी पुरस्कार समिति की अध्यक्षता प्रदान करता हूं।
- हे गुरुदेव, इस अध्यक्षता का क्या लाभ होगा?
- मुझे खेद है कि तुझे अभी तक साहित्यिक बाजार की समझ नहीं आई ?
- गुरुदेव, इसका मुझे भी खेद है कि बाजार के मामले में मैं अभी भी जड़ मूर्ख हूं। अब मैं श्वेतकेशी होने जा रहा हूं, मुझे ज्ञान दें।
- हे बालक, तू तो जानता ही है कि आज बाजार हर जगह हावी हो गया है, इतना हावी हो गया है कि उसके सामने सभी कुछ हल्का हो गया है। इंसान तक हल्का लगने लगा है। इंसान वस्तु नहीं है, पर इंसानियत वस्तु हो गई है जो मुखौटों के रूप में बिक रही है। चुनाव के दौरान तो इसकी माँग बहुत बढ़ जाती है। अब जिस व्यवस्था में धर्म, नैतिकता और शिक्षा जैसी ‘वस्तुएं’ होल सेल में बिक रही हों। उसमें इंसानियत तो बिकेगी ही। और जब इंसानियत बिकेगी तो उसकी चिंता करने वाला साहित्य क्यों नही बिकेगा। आजकल बाजार अपने यौवन पर है। यौवन जब हावी होता है तो उसके सामने माता-पिता, समाज आदि सभी हल्के हो जाते हैं और यदि भारी कोई होता है तो केवल प्रिय। तू भी साहित्य को ऐसा ही प्रिय जान और उसे बेच-खरीद। अब ये तो हो नहीं सकता कि लेखक जिस समाज की चिंता करता है वह मॉल संस्कृति तथा बॉर बालाओं का आनंद ले रहा हो, काले धन से अपना जीवन उज्ज्वल कर रहा हो और लेखक किसी झोपड़ी में बैठा ढिबरी की रोशनी में साहित्य रचना कर रहा हो। अब तो हे वत्स, हिंदी साहित्य और भाषा डॉलर और पाउंड का ठप्पा लगाए घूम रहे हैं और तू इक्कनी-दवन्नी के युग में जी रहा है।
इतने में एक युवा साहित्यकार ने दरबार में प्रवेश किया, उसके साथ एक सुंदर बाला भी थी। वह सीधे गुरुदेव के पास पहुंचा, स्वयं तो चरण नहीं छुए पर चरणों पर स्कॉच की दो बोतलें रख दीं। गुरुदेव की बांछें खिल गईं और जब बाला ने समीप पहुंच कर हाथ मिलाया तो गुरुदेव के हाथ समेत सभी अंग खिल गए।
जैसी दृष्टि पार्टी की हाई कमांड की होती है वैसी ही तिरछी दृष्टि गुरुदेव ने बाला की ओर एवं मुस्कान युवा साहित्यकार की ओर बिखेरते हुए कहा - तुम पहली बार दरबार में आए हो पर तुम्हारा आत्मविश्वास कह रहा है कि तुम इसके रगो-रेशे से वैसे ही वाकिफ हो जैसे अमेरिका हर देश के रगो-रेशे से वाकिफ है। इसलिए बिना भूमिका के अपना मकसद कहो।
- आप निश्चित ही गुरु होने योग्य हैं। आपके पास उस डॉक्टर की दृष्टि है जो मरीज की जेब को एक नजर में परख लेता है और उसके आधर पर ही इलाज करता है। मैं अमेरिका में पिछले दस वर्ष से रहा हूं और जैसे ईश्वर का दिया होता है वेसे ही अमेरिका का दिया मेरे पास बहुत कुछ है। मैं कविता, कहानी लिखता हूं पर मेरे लिखे को लोग मजाक की तरह लेते हैं। मैं आपके माध्यम से साहित्य की मुख्य धारा में आना चाहता हूं।
- हूँ... गुरुदेव ने बाला की ओर देखते हुए कहा, और ये कौन है तुम्हारे साथ - तुम्हारी पत्नी या प्रेयसी...
- दोनो में से कोई नहीं, यह मेरी प्रशंसिका है। और आप तो जानते ही हैं कि पत्नी और प्रेयसी बहुत डिमांडिंग होती हैं और प्रशंसिका आत्मसर्मपिता होती है। मैं केलिफोर्निया से जब भी भारत आता हूं यह साये की तरह मेरे साथ होती है और इसका पति टूर पर होता है। यह वर्ष में एक बार अमेरिका यात्रा करती है। मैंने पत्नी जैसा रोग नहीं पाला हुआ है।
गुरुदेव की आंखों में वैसी ही चमक थी जैसी धनाढ्य मुवकिल्ल को देखकर वकील की होती है। वे बोले, तुम्हारा वर्णन बहुत रसपूर्ण है, तुम अपनी अन्य योग्यताओं का भी वर्णन करो।
- मैं बहुत शीघ्र ही अमेरिका में हिंदी साहित्य एवं साहित्यकारों को समृद्ध करने के लिए 1000 डॉलर का पुरस्कार आंरभ करने जा रहा हूं। पुरस्कार विजेता एक सप्ताह तक हमारे खर्चे पर अमेरिका यात्रा करेगा। उसके साहित्यक योगदान को रेखांकित करने के लिए यहां से दो विद्वान जाएंगे। इसकी पुरस्कार समिति के अध्यक्ष की तलाश है, और...
-- बस, बस हे प्रतिभावान युवक, मैं तुम्हारी प्रतिभा को पहचान गया हूं। तुम्हारे जैसे युवा का मुख्य धारा में आना हिंदी साहित्य को समृद्ध करेगा। यह कुमार संपादक हैं जो जल्दी ही तुम पर केंद्रित अंक निेकालेंगे, यह कुमार आलोचक हैं जो तुम पर आलेखों का प्रबंध करेंगे, यह कुमार प्रकाशक हैं जो तुम्हारी पुस्तक प्रकाशित करेंगें और यह कुमार आयोजक हैं जो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रंसरंजनपूर्ण साहित्यिक आयोजन में तुम्हारी पुस्तक का लोकार्पण करवाएंगे।
एक मुनीम-से व्यक्ति की ओर संकेत कर गुरुवर ने कहा, ‘यह कुमार हिसाबी-किताबी हैं जिन्हें तुम स्पांसर राशि जमा करवा देना। अब जाओ और अपने समान युवाओं को किसी प्रेस क्लब में ले जाओ और इनके आनंद का प्रबंध करो। ये ही तुम्हारे भविष्य के साथी हैं और तुम्हारी गोष्ठियों को अपनी उपस्थिति से समृद्ध करने वाले।’
दरबार बर्खास्त हो गया।
मैं बाहर आया तो एक युवा मेरे पास आया और बोला, बधाई हो, आप पुरस्कार समिति के अध्यक्ष बन गए हैं। अगला पुरस्कार तो आप मुझे दिलवा ही सकते हैं।’
मैंने उसका नख शिख दर्शन करते हुए पूछा - तुम्हारी मुख्य योग्यता क्या है?’
- मैं विदेश मंत्रालय में हिंदी अधिकारी नियुक्त हुआ हूं। आप विदेशों में हिंदी की सेवा मेरे माध्यम से जितनी चाहें कर सकते है।’
मैंनें पुनः उसका नख शिख दर्शन किया, वह सुदर्शन लग रहा था। मैंने पूछा, तुम्हारा साहित्यिक योगदान?’
- आप पुरस्कार पक्का करें, साहित्यिक योगदान मैं दूं या अपने नाम से किसी से करवाऊं, वह मेरी जिम्मेदारी है।
मैं मुस्कराया, श्वेतकेशी मुकुट का मन ही मन आभार माना और कहा - तथास्तु!

internetpremi
01-11-2013, 08:03 AM
फ़िर कभी वापस आएंगे, इस कडी पर।
लगता है सब पठनीय लेख हैं
आज ही देखा।
बहुत धन्यवाद, वार्ष्णेयजी