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View Full Version : ईद से पहले हाज़िरी


Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:52 AM
ईद से पहले हाज़िरी
पहचानें उसे जो हमें इंसान नहीं बने रहने देना चाहता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29147&stc=1&d=1375732301

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:53 AM
हिजरी कलेण्डर का नवां महीना और कुरआन मजीद के नाजिल होने अर्थात उसके जन्म का महीना भी है, रमजान मुबारक। अल्लाह के नेक बन्दे इस मुबारक महीने में खूब इबादत कर रहे हैं और रोजा रख कर अपनी आत्मा की अच्छाइयों और सद्भावनाओं की बयार बहा रहे हैं। सहरी और इफ्तार की गहमा-गहमी के साथ बाजार गुलजार है तो तरह-तरह के पकवानों की सौंधी बहार है, क्योंकि ईद-उल-फितर के खैर मकदम का महीना भी है यह महीना। वास्तव में यह महीना भारतीय समाज के मुस्लिम समुदाय का ही नहीं बल्कि सभी कौमों, वर्गों, समुदायों यहां तक कि एक-एक व्यक्ति को मन, वचन, कर्म से खुद को अनुशासित रहने एवं सद्भावनाओं के साथ एक-दूसरे की इमदाद में आगे आने का पैगाम देता है। यह बात सही है कि रमजान, रोजे और ईद ये सभी नेमतें ईश्वर ने बख्शी हैं जो हमें अच्छे इन्सान बनने की राह दिखाती है। मगर आज यह विचार करने की जरूरत भी है कि हम सब खुदा के नेक बन्दे हैं, इन्सान है तो वे कौन हैं, जो हमें इन्सान नहीं बने नहीं रहना देना चाहते हैं?

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:54 AM
परदे के पीछे से डोर

महान परम्पराओं और समन्वय वाली संस्कृति वाले हमारे देश की मिट्टी सदैव ही प्यार, मोहब्बत और भाईचारे की सौंधी महक फैलाती रही है और खून, एवं वैरभाव की प्यासी कभी नहीं रही। वह गहन, गंभीर और उच्च कोटि की आदर्श रही हैं। यहां डग-डग पर प्रेम, सहयोग और सद्भाव का नीर और रोटी बहुतायत से पाई जाती रही है। मगर यदा-कदा आभास होता है कि ऐसी महान मिट्टी वाली धरती पर घृणा, वैमनस्य, रक्तपात एवं हिंसा की आग का जन्म भी हो जाता है। वह आग प्रेम-सरोवर में जल कुम्भी और उर्वरा भूमि में बेशर्म झाड़ की तरह उगती है। विचार करना होगा कि अगर हिंसा है तो बीज भी कोई लाता होगा, बीज बोता होगा और पौधे पालता भी होगा। वैसे भावुक जन मानस के चलते कमोबेश पूरे भू-भाग में इसके बीज मौजूद हैं मगर जहां जमीन अधिक भावुक, मासूम और संवेदनशील है, वह उन्हें असमझी में ही अपना लेती है। नतीजन झगड़े, धधकन, घायल और कराह के दृश्य उत्पन्न हो जाते हैं। लोग जूनून में आकर समझने लगते हैं कि वे मर रहे हैं, मार रहे हैं और अपने-अपने उन्माद में मशगूल हो जाते हैं। मगर वे जो परदे के पीछे से डोर हिलाते हैं,वे अपने-अपने फायदे का गणित लगाते रहते हैं और प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि उनके लिए जो लड़ते हैं, वे तो उनकी कठपुतली, मोहरे और गेंद हैं, खेलने-खिलाने की हर चीज है मगर इन्सान नहीं। आप-हम भी समझते हैं कि खिलौने की हार-जीत क्या? मृत्यु और जीवन क्या? हां अगर हम समझ लें कि हम खिलौने हैं, कठपुतली हैं और मोहरे हैं तो शायद हमारा आत्मज्ञान जागे और हम अपने अकृत्यों के कृत्य पहचान जाएं और शायद उनको भी पहचान जाए जो हमें इन्सान से मोहरा बनाते हैं और हमें घृणा, हिंसा ओर विद्वेश की शतरंज पर पैदल दौड़ाते हैं।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:54 AM
समाज में सभी समान

अब हमें ही सोचना है कि कभी अपने पापों को छुपाने, कभी किसी को नीचे गिराने अथवा उठाने और कभी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए वे जो संहार-यज्ञ या तांडव नृत्य आयोजित करते हैं, उसमें अपनी आहूति हम क्यों दें और क्यों तांडव के घुंघरू बनकर बजते रहें? हां अगर यह आत्म चेतना हम में जाग जाये तो न पारस्परिक सद्भाव भंग हो, न साम्प्रदायिक उन्माद फैले, न मन-भेद हो, न किसी की आस्था पर प्रहार हो और हिंसा तो कभी हमारे द्वार आए ही नहीं। क्या हम बुद्धिमान हैं? अगर हैं तो यह भली भांति समझते होंगे कि क्या हिन्दु, क्या मुसलमान, क्या ईसाई सब भारतीय समाज में समान रूप से सम्मानित भारतीय है और सहिष्णुता संपन्न भारतीय संस्कृति का आदर्श और तपस्या-त्याग और इबादत का महीना रमजान हमें इस पर मंथन का भरपूर मौका देता है।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:54 AM
क्या इस पाक महीने में हम चिंतन-मनन करेंगे ?

क्या इस पाक महीने रमजान के दौरान हम चिन्तन-मनन कर पहचानने की कोशिश करेंगे कि कौन हमें इन्सान नहीं रहने देना चाहता? क्या हम कभी विश्वास कर पाएंगे कि जो हमारे बगल में खड़ा है, या हमसे ऊपर खड़ा है और जिसके चेहरे पर डेढ़ से चार इंच कुटिल मुस्कान और जिसके हाथों से थाम लेने की मुद्रा कभी नहीं हटती, वहीं हमें इन्सान से मोहरा बनाने दे रहा है। अगर समझने की कोशिश करेंगे तो विश्वास भी होगा। दरअसल एक होता है, राजनीतिक जो हमारी आजादी पर सत्ता के जरिये नियंत्रण करता है और दूसरा होता है कोई पंडित, मौलवी या पादरी जो हमारे मन पर संस्कार और धर्म के जरिए नियंत्रण करता है। दरअसल ये दोनों ही अपने-अपने कारणों से चाहते हैं कि हम उनके दास बनें, गुलामी करते रहें और दास बनने की प्रक्रिया का सर्वाधिक हीन, हिंसक, विभित्स अंग होती है, घृणा। जब द्वेषपूर्ण हिंसक वातावरण बनता है तब सत्ता पंडित या मुल्ला की दाढ़ी को सहलाता है। अन्त में राजनीतिक और धर्म ध्वजाधारी एक हो जाते हैं और हिंसा के शिकार होने वाले तन-मन से टूटे, व्यक्ति, बेबश मौत का इन्तजार करते लोग जीवित निशान मात्र रह जाते हैं। इन निशानों के पुंछ जाने के बावजूद न राजनीतिक का मन पिघलता है और न पंडे-पुजारी और मुल्ला-मौलवियों की आंख में आंसू आते हैं।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:56 AM
हकूकल ईबाद उतना ही जरूरी है, जितना हकूकल्लाह

त्याग, तपस्या, संयम, आत्मशुद्धि एवं दान-पुण्य का मुकद्दस महीना रमजान अब समापन की राह पर है और अब कोई भी रात शबेकद्र की रात हो सकती है। इसे बहुत ही कद्र व मंजिलत और खैर बरकत वाली रात माना जाता है। इसी रात को अल्लाह ने हजार महीनों की रात से अफजल करार दिया है। रमजान की समाप्ति पर खुशियां बांटने के लिए जो पर्व मनाया जाता है, उसे ईद कहते हैं और चूंकि ईद की नमाज के पहले निर्धारित मात्रा में सदका-ए-फितर अदा करना अनिवार्य है, सो इसे ईद-उल-फितर भी कहा जाता है। वैसे यह तो सब जानते ही हैं कि रमजान के बाद इस्लामी कलेण्डर के दसवें महीने रव्वाल की पहली तारीख को ईदुलफितर का त्यौहार बहुत ही धूमधाम और आत्मीयता से मनाया जाता है। इस त्यौहार की आत्मा में समता, सहायता एवं समाजवाद के सिद्धांत एवं परस्पर खुशियां तकसीम करने की अनिवार्यता निहित है।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:56 AM
जकात का वर्णन 82 बार

कुरआन शरीफ में नमाज के साथ-साथ जकात का वर्णन 82 बार किया गया है। जकात का शाब्दिक अर्थ है पाकी (पवित्रता), सफाई यानी गुनाह से पाक होना। कुरआन शरीफ में जो वर्णित है, उसका अनुवाद है ‘मुराद पाया वह जिसमें अपने नफ्स को पाक व साफ किया और नामुराद हुआ वह,जिसने उसको मैला व गंदा किया।’ इससे साबित होता है कि अपने प्रिय माल असबाब, दौलत में से कुछ न कुछ अल्लाह की राह में देते रहने से दौलत की मोहब्बत दिल से दूर हो जाती है और हमदर्दी का जज्बा उभरता है। खुदगर्जी के बजाय सामाजिक सरोकारों के लिए व्यक्ति त्याग करना सीखता है। जकात का मतलब है कि जिस मुसलमान के पास मुकर्रर मिकदार में माल व दौलत है, वह हर साल स्वयं हिसाब लगाकर अपनी दौलत का चालीसवां हिस्सा मोहताजों, गरीबों, मिसकीनों पर खर्च करे। कोई जरूरत से ज्यादा पेट भर ले और दूसरा भूखा रहे, कोई ज्यादा हासिल कर ले और दूसरा जरूरी चीजों से महरूम रहे, इससे समाज में विषमता बढ़ती है। समतावादी समाज के हित में इससे बड़ा कोई सिद्धांत नहीं हो सकता। आज की सरकारों की नीतियां भी इसी के आधार पर बनती है और चलती हैं, भले ही कुरआन शरीफ की हिदायतों का कोई जक्र भर तक नहीं करता हो।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:57 AM
जकात जिन पर फर्ज है

उसूलों के मुताबिक वह व्यक्ति जिसके पास साढ़े सात तोला सोना (आज के हिसाब से ग्राम में विभक्त किया जा सकता है।) अथवा बावन तोला चांदी है या इसकी कीमत (बाजार दर से) का सामान है (दैनिक जरूरतों के अलावा)। व्यापारिक सामान, फैक्ट्री का उत्पादन, खाद्यान्न या नकदी जो एक वर्ष में उसके स्वामित्व में है, उनकी प्रचलित दर पर कुल मूल्य का ढाई प्र्रतिशत जकात देना अनिवार्य है। इसी प्रकार अनाज की पैदावार का दसवां हिस्सा (बारानी फसल) व सिंचाई वाली जिन्स पर बीसवां हिस्सा जकात देय होती है। सोना-चांदी की कसौटी इसलिए है कि सोना-चांदी पर मानक मुद्रा आधारित होती है और अन्तर्राष्ट्रीय दरें भी निर्धारित होती है। जकात के हकदार भी आठ श्रेणी के लोगों को बताया गया है। जिनका वर्णन कुरआन शरीफ में आया है,इनमें मोहताज, गरीब, मिसकीन, मुसाफिर, कर्जदार, गुलाम और वे गरीब जो लोकलाज से मांगते नहीं, शामिल हैं। इस्लाम ने समाज के वंचित लोगों की देखभाल और जरूरतों की पूर्ति के लिए समृद्ध-संपन्न लोगों को जिम्मेदारी सौंपी है। इसको हकूकल ईबाद (जकात फितरा) कहते हैं अर्थात अल्लाह के बंदों का हक अदा करना जिस पर उतना ही जोर दिया गया है, जितना हकूकल्लाह पर (अर्थात रोजा नमाज व हज) पर। यदि सही अर्थों में विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाता है कि फितरा एवं जकात का उद्देश्य विषमता सहित, समता, समरसता, न्याय संगत, बंधुत्व भाव वाले समाज का निर्माण ही रहा है।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:57 AM
फितरा देना अनिवार्य

धार्मिक मान्यता के अनुसार हर मुसलमान पर, जिसके पास रोजमर्रा की जरूरतों से ज्यादा सामान है, फितरा देना अनिवार्य है। फितरे की मात्रा निर्धारित करते हुए बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को गेहूं दो किलो चार सौ ग्राम या इसकी कीमत के अन्य अनाज निर्धारित है, जिसका बाजार मूल्य 2500 रुपए होता है। यह अनाज अथवा इसे नकद रुप में भी दिया जा सकता है। फितरे से केवल गरीब और असहाय लोग मुक्त है तथा वे कर्जदार लोग भी मुक्त हैं, जिनके पास कर्ज अदा करने के बाद भी निसाख निर्धारित मात्रा में माल, सामान से कम सामान, माल, दौलत है। सदके का धार्मिक महत्व तो है ही इसके सामाजिक सरोकार भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि सदका ए फितर लेने के हकदार निर्धन, असहाय, मोहताज, मुसाफिर और मदरसों को माना गया है। मुस्लिम समुदाय की खास तौर से नई पीढ़ी को यह समझने की जरूरत है कि इस्लाम के पांच स्तम्भों में सदका की तरह जकात का भी महत्वपूर्ण स्थान है।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:58 AM
ईद-उल-फितर के दो अनिवार्य तत्व

इस्लामी विद्वानों ने ईद-उल-फितर के दो अनिवार्य तत्व माने हैं-एक सदका-ए-फितर और दूसरा जकात। ईद की नमाज से पहले निर्धारित मात्रा में सदका-ए-फितर करना अनिवार्य माना गया है। अल्लाह ने अपने बंदों पर रमजान खत्म होने की खुशी में शुक्रिया के तौर पर सदका मुकर्रर किया है, जिसे सदका-ए-फितर अथवा फितरा भी कहा जाता है, फितरा के मायने रमजान के रोजों का सदका। (खैरात जो अल्लाह के नाम पर दिया जाए)। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि फितरा का मूल उद्देश्य है कि रोजों के दौरान जो दोष, भूल-चूक, त्रुटियां एवं फिजूल काम हो जाते हैं, उनको फितरा ढक देता है तथा एस बहाने से निर्धनों की इमदाद भी हो जाती है। हदीस के मुताबिक सदका-ए-फितर रोजों के दोष, अनियमितताएं एवं फिजूल बाते हो जाती हैं, उनको पाक करता है तथा मसाकीन (असहाय) गरीबों के लिए खाने का सामान मुहैया कराता है। हजरत मोहम्म्द साहब का फरमान है कि मोहताजों को ईद के दिन सवाल (भीख) से मुक्त कर दो। इसलिए अल्लाह ने अपने खुशहाल बंदों पर यह अनिवार्य कर दिया कि जब तक वह अल्लाह के बंदों के आंसू न पौंछ दे, तब तक उनका तन न ढक दे, उनका चूल्हा न गर्म कर दे, उनके बच्चों को मुस्कुराता न देख ले और जब तक गरीबों के लिए सुख से ईद मनाने का इंतजाम न हो जाए, तब तक वे ईद न मनाएं। वस्तुत: पारस्परिक इस हमदर्दी का नाम ही सदका ए फितर है, जो प्रत्येक मुसलमान के लिए ईद की नमाज से पहले निर्धन, असहाय मोहताज, मजलूम को वितरित करना निहायत ही जरूरी है। व्यवस्था यह भी है कि यह ईद से पहले भी दिया जा सकता है।

Dr.Shree Vijay
12-08-2013, 07:27 PM
बेहतरीन जानकारी के लिए शुक्रिया.....................................

Dr.Shree Vijay
12-08-2013, 08:24 PM
सभी अजीजो को ईद मुबारक..................................

Dark Saint Alaick
26-08-2013, 11:58 PM
धन्यवाद, डॉ. श्री विजय साहब। मेरे कई ऐसे सूत्र हैं, जिन पर मैं अधिक आमद की उम्मीद में था, लेकिन उन पर सिर्फ़ आप नमूदार हुए। 'नमूदार' से मेरा आशय टिप्पणी से है, वगरना लोग आते बहुत हैं और अपने निशां छोड़े बगैर अंधेरे में खो जाते हैं। कहा गया है कि 'हर श्रेष्ठ चीज़ लोकप्रिय हो, और हर लोकप्रिय चीज़ श्रेष्ठ हो', यह जरूरी नहीं है; और फ़ोरम्स की दुनिया में मैं इसे एक ध्रुव सत्य मानता हूं। किन्तु दुःख होता है, यह देख कर कि बेहतर पाठ्य सामग्री के कद्रदान बहुत कम हैं। आपका एक बार फिर धन्यवाद।