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rajnish manga
22-08-2013, 02:42 PM
हमारे तीर्थस्थान

बदरीनाथ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29766&stc=1&d=1377164338

बदरीनाथ
आलेख: श्री विष्णु प्रभाकर

गांव की चौपाल पर सब लोग बैठ गये तो रामनाथ ने बदरीनाथ की तीरथ-यात्रा की कहानी शुरू की:

वहां जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते रूद्वप्रयाग में मिल जाते है। रूद्रप्रयाग में मन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम है। जहां दो नदियां मिलती है, उस जगह को प्रयाग कहते है। बदरी-केदार की राह में कई प्रयाग आते है। रूद्रप्रयाग से जो लोग केदारनाथ जाना चाहतें है, वे उधर चले जाते है।

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, लेकिन अब तो सड़क बन जाने के कारण यात्री मोटर-लारियों से ठेठ बदरीनाथ पहुंच जाते है। हफ्ते-भर से कम में ही यात्रा हो जाती है। पर हम लोग जब गये थे तब बात और ही थी। रास्ते में हमें भेंड़-बकरियों पर नमक लादे भोठ लोग मिले। ये तिब्बत और भारत के बीच तिजारत करते है।

रूद्रप्रयाग से नौ मील पर पीपल कोठी आती। पीपल कोटी में जानवरों की खालें, दवाइयां और कस्तूरी अच्छी मिलती है। बस की सड़क बनने से पहले रास्तें में चट्टियां थीं।

"चट्टियां! ये क्या होती थी?" चौधरी ने पूछा।

रास्तें में ठहरने के लिए जो पड़ाव बने थे, उन्हीं को चट्टी कहते थे। कहीं कच्चे मकान, कहीं पक्के। सब चट्टियों पर खाने-पीने का सामान मिलता था। बरतन भी मिल जाते थे। दूध, दही, मावा, पेड़े सब-कुछ मिलता था, जूते-कपड़े तक। जगह-जगह काली कमली वाले बाबा ने धर्मशालाएं बनवा दी थी। दवाइयां भी मिलती थीं। डाकखाने भी थे।

rajnish manga
22-08-2013, 02:47 PM
बदरीनाथ




http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29767&d=1377164333 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29767&d=1377164333)

आगे रास्तें में गरूड़-गंगा आकर अलकनन्दा में मिलती है। यहां गरूडजी का मन्दिर है। कहते है, लौटती बार तो गरूड़-गंगा में नहाकर पत्थर का एक टुकड़ा पूजा करने के लिए घर ले जाता है, उसे सांपों का डर नहीं रहता। यहां से पाताल गंगा की चढ़ाई शुरू होती है। सारे रास्ते में चीड़ और देवदार के पेड़ है। उन्हें देखकर मन खिल उठता है। पातालगंगा सचमुच पाताल में है। नीचे देखों तो डर लगता है। पानी मटमैला। कम है, पर बहाव बड़ा तेज है। किनारे का पहाड़ हमेशा टूटता रहता है। दो मील तक ऐसा ही रास्ता चला गया है। पातालगंगा पर नीचे उतरे, फिर ऊपर चढ़े। गुलाबकोटी पहुंचे। कहते है, सतयुग में यहीं पर पार्वती ने तप किया था। वे शिवजी से विवाह करना चाहती थीं। इसके लिए सालों पत्ते खाके रहीं। इसीसे आज इस वन का नाम 'पैखण्ड' यानी 'पर्ण खण्ड़ है। वहां जाने वाले सब लोग उस पुरानी कहानी को याद करते है और फिर 'जोषीमठ' पहुंच जाते है। जोषीमठ एक विशेष नगर है। सारे गढ़वाल में शायद यहीं पर फल होते है। फूलों को तो पूछों मत। जोषीमठ का नाम स्वामी शंकराचार्य के साथ ही जुड़ा हुआ है। यह शंकराचार्य दो हजार साल पहले हुए है। जब हिन्दू धर्म मिट रहा था तब ये हुए। कुल बत्तीस साल जीवित रहें। इस छोटी सी उमर में वे इतने काम कर गये कि अचरज होता है। बड़े-बड़े पोथे लिखे। सारे देश में धर्म का प्रचार किया। फिर देश के चारों कोनो पर चार मठ बनाये। पूरब में पुरी, पश्चिम में द्वारिका, दक्खिन में श्रृंगेरी और उत्तर में जोशीमठ। इन चारों मठों के गुरू शंकराचार्य कहलाते है। यही शंकराचार्य थे, जिन्होनें बदरीनाथ का मन्दिर फिर से बनवाया था।

rajnish manga
22-08-2013, 02:51 PM
बदरीनाथ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29768&d=1377164333 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29768&d=1377164333)

सर्दी के दिनों में जब बदरीनाथ बरफ से ढक जाता है तो वहां के रावल मूर्ति यहीं आकर रहते है। बदरीनाथ के मन्दिर में जो मालाएं काम आती है, वे यहीं से जाती है। यहां के मन्दिर में पैसा नहीं चढ़ाया जाता। किसी बुरी बात को छोड़ने की कसम खाई जाती है। यहां पर कीमू (शहतूत) का एक पेड़ है। कहते है, इसके नीचे बैठकर स्वामीजी ने पुस्तकें लिखी थीं। नीचे नगर में कई मन्दिर है। उनमें से एक में नृसिंह भगवान की मूर्ति है। काले पत्थर की उस सुन्दर मूर्ति का बांया हाथ बड़ा पतला है। पूछने पर पता लगा कि वह हाथ बराबर पतला होता जा रहा है। जब वह गिर जायगा तब यहां से कोई आगे न बढ़ सकेगा। सब रास्ते टूट जायंगें।

यहां से आगें बढ़े तो जैसे पाताल में उतरते चले गये। दो मील की खड़ी उतराई है। पर बीच-बीच में मिलने वाले सुन्दर झरने सब थकान दूर कर देते है। नीचे विष्णु प्रयाग है, जहां विष्णु गंगा और धौली गंगा का मिलन होता है।

इन नदियों का पुल लोहे का बना हुआ है। इस तरह रास्ते की शोभा देखते-देखते पाण्डुकेश्वर पहुंच गये।

पाण्डुकेश्वर के पास फूलों की घाटी है, जिसे देखने दुनिया भर के लोग आते है। यहीं पर लोकपाल है, जहां सिक्खों के गुरू गोविंदसिंह ने अपने पिछले जन्म में तप किया था। कहते है, पाण्डुकेश्वर को पाण्डवों के पिता पाण्डु ने बसाया था। पांडव यहीं पैदा हुए थे। स्वर्ग भी यहीं होकर गये थे। वह वे यहां कई बार आये थे। शिवजी महाराज से धनुष लेने अर्जुन यहीं से गये थे। भीम कमल लेने यही के वनों में आये थे। नदी के बांय किनारे के पहाड़ को 'पाण्डु चौकी कहते है। इसकी चोटी पर चौपड़ बनी हुई है। यहां बैठकर उन लोगों ने आखिरी बार चौपड़ खेली थीं कहते है, यहां का 'योगबदरी का मन्दिर' उन लोगों ने ही बनवाया था। आगे का पहाड़ कहीं काला, कहीं नीला, कहीं कच्चा है। बीच में कहीं निरी मिट्टी, कहीं जमा हुआ बरफ। यहां भोल-पत्र बहुत है। जब कागज नहीं थे तब भोज-पत्र पर किताबें लिखी जाती थीं। यहां गंगा कई बार पार करनी पड़ती है।"

rajnish manga
22-08-2013, 02:53 PM
रास्तें बहुत से मन्दिर और तीर्थ है। यहां हनुमान चट्टी में हनुमान मन्दिर है। यहां पांडवो को हनुमान मिले थे। चढ़ते-चढ़ते कंचनगंगा को पार करके 'कुवेर शिला' आई। आंख उठाकर जो देखा, सामने विशालपुरी थी, जिसके लिए धर्मशास्त्र में लिखा है कि तीनों लोंको में बहुत से तीर्थ है, पर बदरी के समान न था, न होगा।

विशालपुरी अलकनन्दा के दाहिने किनारे पर बसी हुई है। छोटा-सा बाजार है। धर्मधालाएं है। घर है। थाना-डाकघर सबकुछ है। नारायण पर्वत के चरणो में बदरीनाथ का मन्दिर है, जिसके सुनहरे कलश पर सूरज की किरणें पड़ रही थीं। बरफ से ढके हुए आकाश को छूने वाले पहाड़ों के बीच वह छोटी नगरी बड़ी अच्छी लगती थी।

"क्योंजी, बदरीनाथ कितना ऊंचा होगा?" किसी ने पूछा।

१०४८० फुट, यानी कोई दो मील। एक समय था जब पथ और भी बीहड़ थे। तुमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश का नाम बदरी विशाल के मन्दिर का कलश तो सुना होगा।

गोपाल पंड़ित एकदम बोले, क्या बात करते हो, रामनाथ! भारत में रहनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नहीं जानेगा! ब्रह्मा ठहरे दुनिया को बनाने वाले, विष्णु उसे पालते है और जब दुनिया का काम पूरा हो जाता है तो महेश उसे निपटा देते है।"

ठीक कहा, 'पंड़ितजी! ब्रह्माजी के बेटे थे। उनमें से एक का नाम था दक्ष। दक्ष की सोलह बेटियां थी। उनमें से तेरह का विवाह धर्मराज से हुआ था। उनमें एक का नाम था श्रीमूर्ति। उनके दो बेटे थे, नर और नारायण। दोनों बहुत ही भले, एक-दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे। नर छोटे थे। वे एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी मां को भी बहुत प्यार करते थे। एक बार दोनों ने अपनी मां की बड़ी सेवा की। मॉँ खुशी से फूल उठी। बोली, "मेरे प्यारे बेटा, मैं तुमसे बहुत खुश हूं। बोलो, क्या चाहते हो? जो मांगोगे वही दूंगी।"

rajnish manga
22-08-2013, 02:55 PM
दोनों ने कहा, "मां, हम वन में जाकर तप करना चाहतें है। आप अगर सचमुच कुछ देना चाहती हो, तो यह वर दो कि हम सदा तप करते रहे।"

बेटों की बात सुनकर मां को बहुत दुख हुआ। अब उसके बेटे उससे बिछुड़ जायंगें। पर वे वचन दे चुकी थीं। उनको रोक नहीं सकती थीं। इसलिए वर देना पड़ा। वर पाकर दोनों भाई तप करने चले गये। वे सारे देश के वनों में घूमने लगे। घूमते-घूमते हिमालय पहाड़ के वनों में पहुंचे।

इसी वन में अलकनन्दा के दोनों किनारों पर दों पहाड़ हैं। दाहिनी ओर वाले पहाड़ पर नारायण तप करने लगे। बाई और वाले पर नर। आज भी इन दोनों पहाड़ों के यही नाम है। यहां बैठकर दोनों ने भारी तप किया, इतना कि देवलोक का राजा डर गया। उसने उनके तप को भंग करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब उसे याद आया कि नर-नारायण साधारण मुनि नहीं है, भगवान का अवतार है। कहते है, कलियुग के आने तक वे वहीं तप करते रहें। आखिर कलियुग के आने का समय हुआ। तब वे अर्जुन और कृष्ण का अवतार लेने के लिए बदरी-वन से चले। उस समय भगवान ने दूसरे मुनियों से कहा, "मैं अब इस रूप में यहां नहीं रहूंगा। नारद शिला के नीचे मेरी एक मूर्ति है, उसे निकाल लो और यहां एक मन्दिर बनाओं आज से उसी की पूजा करना।

गोपाल पंड़ित बोले, "तो यह है बदरीनाथ के मन्दिर की कहानी।"

rajnish manga
22-08-2013, 03:05 PM
"जी हां, यह कहानी पुराणों में आती है। यह कथा सच हो या झूठ, इससे एक बात साफ हो जाती है, यानी यह मन्दिर बहुत पुराना है। लिखा हैं मुनियों ने मूर्ति को निकाला। वह सांवली है। उसमें भगवान बदरीनारायण पद्मासन लगाये तप कर रहे है। आज भी मन्दिर में यही मूर्ति है। इसको रेशमी कपड़े और हीरे-जड़े गहने पहनाये जाते है। मन्दिर बहुत सुन्दर है। पैड़ियां चढ़कर जो दरवाजा आता है, उसमें बहुत बढ़ियरा जालियां बनी है। ऊपर तीन सुनहरे कलश है। अन्दर चारो ओर गरुड़, हनुमान, लक्ष्मी और घण्टाकर्ण आदि की मूर्तिया है। फिर भीतर का दरवाजा है। अन्दर मूर्ति वाले कमरे का दरवाजा चांदी का बना है। उनके पास गणेश, कुबेर, लक्ष्मी, नर-नारायण उद्वव, नारद और गरूड की मूर्तिया है। यहां बराबर मंत्रों का पाठ, घंटों का शोर और भजनों की आवाज गूंजती रहती है। अखंड़ ज्योति भी जलती रहती है और चढावा! चढ़ावे की बात मत पूछो। अटका आदि बहुत से चढ़ावे है। वैसे अब सब सरकार के हाथ में है। यहां के सभी पुजारी, जो 'रावल' कहलाते है, दक्षिण के है। इससे पता लगता है कि भारत के रहनेवाले सब एक है। वहां सात कुण्ड है। पांच शिलाएं है। ब्रह्म कपाली है। अनेक धाराएं है। बहुत सी गंगाएं है। जो मुनि, ऋषि या अवतार यहां रहते थे या आये थे, उनकी याद में यहां कुछ-न-कुछ बना है। जैसे नर-नारायण यहां से न लौटे तो उनके माता-पिता भी यहीं आ बसे।

नारद ने भगवान की बहुत सेवा की थी। उनके नाम पर शिला और कुण्ड़ दोनों है। प्रह्राद की कहानी तो आप लोग ही है। उनके पिता को मारकर जब नृसिंह भगवान क्रोध से भरे फिर रहे थे तब यहीं आकर उनका आवेश शान्त हुआ था। नृसिंह-शिला भी वहां मौजूद है। ब्रह्म-कपाली पर पिण्डदान किया जाता है। दो मील आगे भारत का आखिरी गांव माना जाता है। ढाई मील पर माता मूर्ति की मढ़ी है। पांच मील पर वसुधारा है। वसुधारा दो सौ फुट से गिरने वाला झरना है। आगे शतपथ, स्वर्ग-द्वार और अलकापुरी है। फिर तिब्बत का देश है। उस वन में तीर्थ-ही-तीर्थ है। सारी भूमि तपोभूमि है। वहां पर गरम पानी का भी एक झरना है। इतना गरम पानी हैकि एकाएक पैर दो तो जल जाय। ठीक अलकनन्दा के किनारे है। अलकनन्दा में हाथ दो तो गल जाय, झरने में दो तो जल जाय।

उस पुरी में हम तीन दिन ठहरें। फिर आराम से पौड़ी, पौड़ी से कोट-द्वार आ गये। कोटद्वार से रेल मिली और दिल्ली पहुंच गए।

(इति)

rajnish manga
22-08-2013, 03:26 PM
जगन्नाथ पुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29769&stc=1&d=1377167109

जगन्नाथ पुरी
आलेख: श्री यशपाल जैन

बाबा के साथ सुबोध हावड़ा स्टेशन से जगन्नाथपुरी के लिए रवाना हुआ। वहां से पुरी को सीधी रेल जाती है। गाड़ी में बड़ी भीड़ थी। बाबा ने देखा कि जानेवालों में देश के सभी भागों के लोग है तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होने सुबोध से कहा, 'बेटा, सबके अलग-अलग धरम होते है, अलग-अलग देवी-देवता होते है, फिर यह क्या बात है कि इतने धर्मो के लोग एक ही तीरथ करने जा रहे है?"

सुबोध ने कहा, "बाबा, हमारे तीरथों की यही तो महिमा है। वे दूरी नहीं जानते, न धरमों का फरक मानते है। फिर पुरी तो हमारे चार धामों में से एक है। पुराने लोग बड़े होशियार थे। वे चाहते थे कि हमारे देश का हर आदमी अपने देश को देखें, देश के लोगों को देखें, उन्हें जाने और प्यार करें। सो उन्होनें तीरथ बनायें। वे जानते थे कि हमारे देश में धरमवाले लोग है। तीरथ के नाम पर कहीं से कहीं पहुंच जायंगें। लोग सारे देश में घूम ले, इसलिए उन्होंने चार छोरों पर बड़े तीरथ बनाये। उत्तर में बदरीनाथ (ज्योतिपीठ) दक्षिण में रामेश्वर (श्रृंगेरी पीठ) पश्चिम में द्वारका और पूरब में जगन्नाथ पुरी (गोवर्धन पीठ)"

बातचीत करते रात हो गई तो लोग ऊंघने लगे और इधर-उधर सिर टिकाकर सो गये। घने अंधेरे को चीरती, शोर मचाती, रेल आगे बढ़ती रही।

rajnish manga
22-08-2013, 03:30 PM
जगन्नाथ पुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29770&d=1377167103 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29770&d=1377167103)


बड़े तड़के लोगों की आंख खुली तो देखते क्या है कि रेल किसी लम्बे पुल पर से गुजर रही है। सुबोध ने कहा, "उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी महानदी का पुल हम पार कर रहे है।" नदी का पाट काफी चौड़ा था और उसकी धारा बड़ी तेज थी।

आगे गाडी किसी बड़े स्टेशन पर रूकी तो सुबोध ने कहा, "यह कटक है। पहले उड़ीसा की राजधानी यही थी। अब भुवनेश्वर है।"

बाबा बोले, "भुवनेश्वर भी तो बड़ा तीरथ है?"

सुबोध ने कहा, "हां, बाबा, वहां तो मंदिरों की भरमार है। इसीसे लोग उसे 'मंदिरों की नगरी' कहते है। वहां का सबसे बड़ा मंदिर लिंगराज का है।"

किसी ने पूछा, "अब पुरी कितनी दूर रह गई है।"

सूबोध ने कहा, " यहां से खुरदा रोड़ स्टेशन है 29 मील। वहां से पुरी 28 मील रह जाती है। कोई 57 मील समझों। यहां से पुरी की बसें भी जाती है। हमारे पास रेल का टिकट न होता तो बस से चलते। सड़क के रास्ते पुरी कुल 53 मील है।"

दोपहर की गाड़ी पुरी स्टेशन पर पहुंची। स्टेशन से शहर मील-भर है। सुबोध और बाबा ने एक तांगा किया और उसमें बैठकर बस्ती में गये। उन्होंनें पता लगा लिया था कि बस्ती में दूधवालों की धरमशाला खुली और साफ-सुथरी है। सीधे वहीं गयें। भीड़ काफी थी, फिर भी उन्हें एक कमरा मिल गया।

कमरे में सामान जमाकर बाबा और पोते समुद्र में स्नान करने चले। बाजार में घूमते, बड़े मन्दिरो को दूर से देखते, मील भर का रास्ता तय करके वे समुद्र पर पहुंचे। किसी ने बताया, इस स्थान को 'स्वर्गद्वार' कहते हैं।

rajnish manga
22-08-2013, 03:34 PM
जगन्नाथ पुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29771&d=1377167103 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29771&d=1377167103)


बालू का किनारा दूर-दूर तक फैला था और किनारे-किनारे छोटी-बडी बहुत सी इमारतें बनी थीं। वहींके एक आदमी ने कहा, "यह नगर दो भागों में बंटा हुआ है। एक तो शहर की बस्ती है, जिसके उत्तर में माटिया नदी बहती है, पश्चिम में परगना चौबीस कूद है, पूरब में परगना है और दक्खिन मे यह समुद्र है। दूसरा भाग जिस पर हम खड़े है, बालूखण्ड़ कहलाता है। यह पूरब में चक्रतीरथ से शुरू होकर पश्चिम में यहां स्वर्गद्वार तक फैला हुआ है। यहां की अच्छी आबोहवा के कारण बहुत-से लोगों ने समुद्र के किनारे-किनारे अपने मकान बनवा लिए है। राजभवन भी इसी भाग में बना हुआ है।"

दोनों ने स्नान किया। फिर धरमशाला में लौटने पर वे अपने भीगे कपड़े सूखने डाल रहे थे कि एक पंडा आकर उनके पीछे पड गया। बोला, "मैं आपको यहां के सब मन्दिर दिखा दूंगा और पूजा करा दूंगा।"

थोड़ी देर बाद वे लोग सबसे जगन्नाथजी का मन्दिर देखने चले। पंडे ने कहा, "बाबाली, जिनके मन्दिर में हम जा रहे है। इनकी कहानी आपने सुनी है? किसी जमाने में यहां पुरी में जंगल ही जंगल था। बीच में नीलाचल नाम का एक पहाड़ था। उसके ऊवपर कल्पद्रुम था। उसके पश्चिम में रोहिणी कुंड था, जिसके किनारे विष्णु की मूरत थी। वह नीले रंग की थी। इससे उसे नील-माधव कहते थे। एक बार सूर्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न को उस मूरत की खबर मिली। यह राजा मालव प्रदेश के अवंती नामक नगर में राज्य करते थे। राजा ने उस मूरत की खोज में चारों और ब्रह्मण भेजे; लेकिन दैवयोग से किसी को भी उसका पता न लगा। उनमें एक ब्रह्मण था विद्यापति। वह पूरब को गया और तीन महीने तक बराबर चलता रहा। चलते-चलते वह शबरो के देश में पहुचा। शबर वहां के मूल निवासी थे। भील समझो। वहां वह विश्व बसु नाम के एक भील के घर में ठहरा।"

rajnish manga
22-08-2013, 03:39 PM
जगन्नाथ पुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29772&d=1377167103 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29772&d=1377167103)


"वह भील रोज जंगल में जाया करता था और कुछ फूल और फल इकट्ठे करके चुपचाप कहीं चढ़ा आता था। एक दिन की बात कि उसकी लड़की ने कहा, अपने मेहमान को भी साथ ले आओ। विश्व बासु ने इनकार कर दिया, लेकिन जब लड़की बहुत पीधे पड़ी तो वह इस शर्त पर राजी हो गया कि ब्रह्मण की आंखों पर पट्टी बांधकर ले जायगा, जिससे वह वहां पहुंचकर भगवान के दर्शन तो कर ले, लेकिन उसे यह पता न लगे कि किस रास्ते आया है।

"पर ब्राह्मण बड़ा चतुर था। उसने एक थैली में अपने साथ सरसों ले ली और रास्ते का निशान करने के लिए उसे बिखेरता गया। नीलाचल पर पहुंचकर भील तो फल-फूल इकट्ठे करने चला गया, ब्राह्मण ने नील-माधव के दर्शन किये। उसी समय उसने देखा कि एक कौवा पेड़ पर से गिरा और सीधा स्वर्ग को चला गया ब्राह्मण के मन में आया कि वह ऐसी ही गति प्राप्त करे। यह सोचे जैसे ही उसने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की कि आकाशवाणी हुई, ओ ब्राह्मण तू यह क्या कर रहा है? अपने काम को भूल गया! जा, पहले अपने राजा को खबर दे कि तूने मूरती का पता लगा लिया है।

"इसी बीच भील फल-फूल देकर लौट आया। पर जब उसने उन्हें चढ़ाया तो रोज की भॉँति भगवान ने उन्हें ग्रहण नहीं किया। भील बड़ी हैरानी में पड़ा। वह क्या करे! उसी समय उसने एक आवाज सुनी, मैं तुम्हारे फल फूल खाते-खाते तंग आ गया हूं। मुझे पके हुए चावल और मिठाई खिलाओं। आगे से अब मैं तुम्हें नील-माधव के रूप में नहीं, बल्कि जगन्नाथ के रूप में दिखाई दूंगा।

rajnish manga
22-08-2013, 03:41 PM
भील ने घर लौटकर ब्राह्मण को अपने घर बहुत दिन तक कैदी बना कर रखा, जिससे वह किसी को भेद न बता दें; लेकिन एक दिन जब उसकी लड़की ने कहा सुना तो उसने जाने की छूट दे दी।

ब्राह्मण अपने राजा के पास आया और उन्हें सारा हाल कह-सुनाया। राजा को बड़ी खुशी हुई और वह अपने साथ बहुत से लोगों को लेकर बड़े अभिमान से नीलाचन की और चला। उसके अहंकार को देखकर भगवान को बड़ा क्रोध आया। उसी समय आकाशवाणी हृई, हे राजा, तू मेरा मन्दिर तो बना देगा, पर उसमें तुझे मेरे दर्शन नहीं होगे। इसके बाद नील-माधव की मूरती वहां से गायब हो गई। राजा बड़ा निराश हुआ। उससे भगवान को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। तब एक दिन आकाशवाणी हुई, मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न हूं। तू किसी दिन विष्णु के दर्शन करेगा, मूरती के रूप में नहीं, काठ के रूप में।

"राजा इन्द्रद्युम्न दर्शनों की आशा में वहीं नीलाचल पर बस गया। अचानक वह देखता क्या है कि समुद्र मे एक बहुत बड़ा काठ बहा आ रहा है। राजा ने उसे निकलवाकर उसकी विष्णुमूर्ति बनवाने का निश्चय किया। उसी समय बूढ़े बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा प्रकट हुए। वह मूर्ति बनाने के लिए राजी हो गये, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी और वह यह कि जिस घर में वह मूर्ति बनवेंगे, उसका दरवाजा जब तक वह कहें नहीं तब तक न खोला जाय।

इसके बाद काठ को लेकर वह गुंडीचा-मंदिर के स्थान पर एक भवन में बन्द हो गये। काफी दिन निकल गये। एक दिन महारानी ने राजा से कहा, स्वामी, वह बूढ़ा भूख-प्यास से मर गया होगा। जरा दरवाजा खोलकर उसकी हालत देख लेनी चाहिए। राजा नपे रानी की बात मानकर द्वार खुलवाया। बढ़ई वहां नहीं था। जगन्नाथ, सुभद्रा की बलराम की अधूरी मूर्तिया थीं। राजा को यह देखकर बड़ा दु:ख हुआ कि वे मूर्तिया पूरी न हो सकी। उसी समय आकाशवाणी हुई, हे राजन, आप चिंता न करें, हम इसी रूप में रहना चाहते है। मूर्तियों पर रंग- रोगन कराके मंदिर में प्रतिष्ठित करा दो। मूर्तियां गुंडीच-मंदिर के पास बनाई गई थीं, इसलिए गुडीचा मंदिर को ब्राह्म-लोक या जनकपुर कहते है। यह है जगन्नाथजी की कहानी।"

rajnish manga
22-08-2013, 03:42 PM
इतने में मंदिर आ गया। पंडे ने कहा, "यही यहां का सबसे बड़ा मंदिर है। यह दो परकोटों के भीतर है और इसके चारों और चार बड़े-बड़े द्वार है।"

जिस द्वार से वे लोग मंदिर में घुस रहे थे, उसके सामने एक ऊंचा स्तंभ दिखाकर पंडे पने बताया, "यह अरूण स्तंभ है, जोकोणार्क से लाकर यहां स्थापित किया गया है।"

सिंहद्वार से प्रवेश करके तीनों जने पहले परकोट में पहुंचे। द्वार से ही उन्हें जगन्नाथजी की छवि दिखाई दी। पंडे ने कहा, "जो लोग मंदिर में नहीं जा सकते, वे यहीं से जगन्नाथजी के दर्शन कर लेते है।"

आगे उन्हें एक छोटा-सा मंदिर दिखाई दिया। पंडे ने कहा, "इसमें विश्यवनाथ लिंग है। इसकी कहानी यह है कि एक ब्रह्माण काशी जाना चाहता था। जगन्नाथजी ने सपने में उससे कहा कि इस लिंग की पूजा करें। उसे विश्वनाथ के पूजन का फल मिल जायगा।"

इसके बाद उन्हें पच्चीस सीढ़िया चढ़नी पड़ीं। पंडा ने कहा, "ये सीढ़िप्रकृति के पच्चीस विभागों की सूचक मानी जाती है।"

दूसरे परकोटे के दरवाजे में घुसने से पहले दोनों ओर को बाजार-सा लगा था। पंडे ने बताया, "ये भगवान के प्रसाद की दूकानें है। इनपर उबला चावल मिलता है।"

अब वे दूसरे परकोटे के भीतर आये। कितना विशाल था वह मंदिर! कितना सुन्दर। नीचे से ऊपर तक शिखर तक देखकर ऐसा लगता था कि देखते ही रहो! पंडे ने तीन स्थान दिखायें। उनमें पहला अजारनाथ गणेश का था, दूसरा बटेरा महादेव का और तीसरा पटमंगादेवी का। उनके पास ही सत्यनारायण थे। पंडे ने कहा, "इनकी पूजा सारे धर्मो के लोग करते है।"

rajnish manga
22-08-2013, 03:43 PM
थोड़ा आगे एक वटबृक्ष मिला, जिले कल्पद्रुम कहते है। तीनों ने उनकी परिक्रमा की ओर उसके नीचे बालमुकंद के दर्शन किये। फिर सिद्वगणेश-मन्दिर देखा। उसके पास ही सर्वमंगला तथा दूसरी देवियों के मंदिर है।

इस परकोटे के भीतर और भी कई स्थान है। जगन्नाथजी के मंदिर के सामने मुक्ति मंडप है, जिसे ब्रह्मासन कहते है। पंडे ने बताया, " किसी समय में यज्ञ के चप्रधान आचार्य स्वंय ब्रह्मा यहां बैठे थे। पर अब विद्वान् ब्राह्माण बैठते है।"

मुक्ति मंडप के पीछे मुक्तिनृसिंह का मंदिर है। उसके पास रोहिणी कुण्ड और विमलादेवी का मंदिर है। यह यहां का शक्तिपीठ है

आगे सरस्वती तथा लक्ष्मी के मंदिर है, जिनके बीच नील-माधव का मंदिर है। उन्हीं के निकट जगन्नाथ जी का छोटा सा मंदिर है। उसके पास भुवनेश्वरी देवी का। पंडे ने कहा, "इन देवी की पूजा इस प्रदेश के शाक्त लोग किया करते है।"

थोड़ा आगे बढ़ते ही एक मंदिर में लक्ष्मी, शंकराचार्य तथा लक्ष्मीनारायण की मूर्तिया है। इस मंदिर में जगमोहन में कथा होती है और शास्त्र पढ़े जाते है।

पंडे ने कहा, "मैं एक बात बताना भूल गया। हमारे देश में सैकड़ों

साल पहले एक ऋषि हुए थे। उनका नाम शंकराचार्य। उन्होने देश के चारों कोनों पर चार मठ बनाये। एण्क मठ यहां भी बनाया जों गोवर्धन मठ कहलाता है। इसीलिए यहां मन्दिर में शंकराचार्य की मूर्ति है।"

लक्ष्मीजी के मन्दिर के पास ही सूर्य-मन्दिर है। उसमें सूर्य, चन्द्र और चन्द्र की छोटी-छोटी मूर्तिया है। उन्हें दिखाते हुए पंडे ने कहा, "कोणार्क के मंदिर से सूर्य की मूर्ति लाकर यहीं छिपाकर रखी गई है। कोणार्क इस प्रदेश का एक बहुत बड तीर्थ है।

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22-08-2013, 03:47 PM
गोवर्धन-मठ

वहां सूर्य भगवान का बहुत पुराना मंदिर है। पैदल समुद्र के किनारे-किनारे जाओ तो वह १८-१९ मील होगा। बस से जाओ तो पचास मील से कुछ ऊपर पड़ता है।"

आगे पातालेश्वर महादेव का मंदिर और उत्तरामणिदेवी की मूरती है। उनके पास ही ईशानेश्वर का मंदिर है। इनको जगन्नाथजी का मामा कहा जाता है। फिर नंदी की मूर्ति है, जिससे 'गुप्तगंगा' की धारा निकलती है।

यहां एक द्वार के सामने खड़े होकर पंडा ने कहा, "लो बाबा, अब हम जगन्नाथजी के मंदिर के सामने आ गये। इस द्वार को बैकुण्ठ-द्वार कहते है। इसके पास वैकुण्ठेश्वर का मंदिर है।"

जय-विजयद्वार में जय-विजय की मूर्तियां है पंड़े ने कहा, "इनके दर्शन करके और इनकी आज्ञा लेकर भीतर जाते है।" इस द्वार के पास जगन्नथजी का भण्डार-घर है।

वे जगमोहन में पहुंचे। वहां उन्हें गरूड़-स्तंभ मिला। पंडा ने बताया कि चैतन्य महाप्रभु यही से जगन्नाथजी के दर्शन करते थे।

अब वे सोलह फुट ऊंची और चार फूट चौड़ी के सामने खड़े थे। पंडे ने कहा, "यह जो सामने आप तीन मूर्तियां देखते है, ये जगन्नाथजी, सुभद्रा तथा बलरामजी है। श्यामवर्ण मूर्ति जगन्नाथजी की है, बीच में सुभद्रा है और इधर बलराम। वेदी पर का छ: फुट लम्बा चक्र सुदर्शन-चक्र है। उसके पास छोटी-छोटी मूर्तियां नील-माधवन, लक्ष्मी और सरस्वती की हैं।"

बाबा ने कहा, "तुमने कहानी में सुनाया था कि बूढ़ा बढ़ई गायब हो गया था और मूर्तियां अधूरी रह गई थीं। यही वे मूर्तियां है क्या?"

पंडा ने जबाब दिया, "हां, बाबा, ये वही मूर्तियां है। इनके हाथ पूरे नहीं है और मुख-मंडल भी अधूरा है।"

वेदी के तीन ओर परिक्रमा करने के लिए तीन-तीन फुट चौड़ी जगह थी।

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22-08-2013, 03:49 PM
बाहर आकर बाबा ने मुड़कर एक निगाह मंदिर पर डाली तो ठिठक कर रह गये। मंदिर पर बड़ी-छोटी, कई नंगी मूर्तिया थीं। -नंगी ही नहीं, ऐसी कि जिन्हें देखने में शरम आये। बाबा ने पंडी की ओर देखा। पंडा ने कहा, "बाबा, यह नहीं कहा जा सकता कि ये मूर्तिया किसने और कब बनवाई, लेकिन यह बहुत दिनों से है। यहां ही नहीं, और भी बहुत-सी जगहों पर है। कोर्णाक के मंदिर में भी ऐसी सैकड़ों नहीं, हजारों मूर्तिया है। अग्निपुराण और बतसंहिता में लिखा है कि ये मूर्तियां मंदिरों को बिजली, तूफान आदि से बचाने के लिए गई थीं। बहुत से विद्वान भी यही बात कहते ह। बच्चों को नजर लगाने से बचाने के लिए माताएं उनके माथे पर दिठौदा लगा देती है न! ऐसा ही कुछ यह किया गया है।"

बाबा ने सुबोध ने उनकी बात सुन तो ली पर जचीं नहीं। पंडा बोला, "जरा मंदिर की सजावट को तो देखो। नीचे से ऊपर तक कैसी कारीगरी की चज बनाई है! यह कोई मामूली बात नहीं है।

बात करते-करते वे लोग मंदिर के घर के बाहर आ गये।

सुबोध बाजार से एक किताब खरीद लाया था। धरमशाला में लौटकर उसने उसे पड़ा और बाबा से बोला, "बाबा, हमारे पुराणो में इस जगह की बड़ी महिमा बताई गई है। इसके कई नाम है। पुरी, नीलाचल, पुरूषोत्तम, श्रीक्षेत्र, शंखक्षेत्र आदि-आदि। अंग्रेजो के जमाने में इसे जगन्नथपुरी कहते थे और यहां के कलक्टर जगन्नाथ के कलक्टर कहलाते थे। स्कन्दपुराण के उत्कल खण्ड में इसका नाम पुरूषोत्तम-क्षेत्र दिया हुआ है। उसमें लिखा है कि बहुत से देवताओं को बिठाकर नैमिषारण्य में विष्णु भगवान ले इस जगह की महिमा का वखान किया था। पांचवी सदी में यहां बोद्धर्म का जोर हुआ; लेकिन बुद्व भगवान के कोई हजार बरस बाद फिर हिंदुओं का भाग्य चेत गया। सातवीं सदी तक क्या हुआ, इसका कोई खास पता नहीं चलता। लेकिन केसरी-वंश का खात्मा होने पर जब गंग-वंश के राजा राज करने लगे तो इस स्थान की बड़ी उन्नति हुई। गंग-वंश भीमदेव ने जो किया, वह भूला नहीं जा सकता।"

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22-08-2013, 03:51 PM
बाबा ने पूछा, "क्या किया था उसने भैया?"

सुबोध बोला, "बाबा, उसके हाथो एक ब्राह्मण की हत्या हो गई थी। उसका प्रायश्चित करने के लिए उसने बहुत से मंदिर बनवाये। जगन्नाथजी का यह मंदिर भी उसी के राज में बना। सन् ११९८ में यह पूरा हुआ। पिछले दिनों तक ताम्रपत्र मिला है, तो मंदिर की प्रतिष्ठा में भाग लेनेवाले एक ब्राह्मण को दिया गया था। उसपर जो तारीख दी गई है, उससे मंदिर के बनने की तारीख पक्की होती है।

"बाद के सालो में कई मुसलमान बादशाहों ने इस मंदिर पर हमले किये; पर उनकी जड़ नहीं जम सकीं। फिर जब मराठो का राज हुआ तो उन्होने इसके लिए कुछ आमदनी बांध दी। अंग्रेजो के जमाने में मंदिर के मामले में किसी तरह का दखल न देने की दखल की नीति रखी गई; लेकिन सरकार की यह इच्छा रही कि उसका प्रबंधए अपने हाथ में रखे। इसके लिए मुकदमें-बाजी हुई पर अंत में समझौता हो गया और यहां के प्रबंध की जिम्मेदारी गैर-सरकारी लोगों के हाथी में रही।"

अगले दिन सबेरे ही पंडा आ गया। वह पहले तो उन्हें जगन्नाथजी के मंदिर में ले गया। वहां दर्शन और पूजा करके वे दूसरे तीर्थो को देखने चले। बड़े मंदिर के सामने रास्ते पर कोई मील-डेढ़ चलने पर वे गुंड़ीचा-मंदिर पहुंचे।

रास्तें में मार्कण्डेय-सरोवर, गुंडीचा का मंदिर उसके पास मार्कण्डेश्वर का मंदिर और चंदन तालाब भी देख लिये। गुंडीचा मंदिर पर जाकर पंडा ने कहा, "यहीं पर विश्वकर्मा ने जगन्नाथजी आदि की मूर्तिया बनाई थी। अब इस मंदिर में रथ-यात्रा के समय जगन्नाथजी विराजमान होते है। बाकी समय में कोई मूर्ति नहीं रहती।"

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22-08-2013, 03:53 PM
मंदिर के उत्तर पूर्व में इन्द्रद्युम्न-सरोवर है पंडा ने बताया कि यह उन राजा के नाम है, जिन्होने विश्वकर्मा से मूर्ति बनवायी थीं।

जगन्नाथजी के मंदिर के दक्खिन-पश्चिम में कपाल मोचन तीर्थ देखते हुए वे एमारमठ पहुंचे, तो जगन्नाथ के मंदिर के बड़े द्वार के सामने है। पंडा ने कहा, "शंकराचार्य की तरह एक और बड़े संत हमारे देश में हुए है। उनका नाम था रामानुजाचार्य। उनका एक नाम 'एम्बाडीयम्' था। इसी नाम पर इस मठ का नाम पड़ा है। रामानुज यहां आये थे और कुछ दिन इसी जगह पर रहे थे।"

वहां से तीनो की टोली गंभीर-मठ पहुंची। यह मठ बड़े मंदिर से स्वर्ग-द्वार यानी समुद्र जानेवाले रास्ते पर एक गली में पड़ता है। चैतन्य महाप्रभु यहां अठारह साल रहे थे। पहले यह काशी मिश्र का भवन था। चैतन्य के रहने पर गंभीर मठ कहा जाने लगा और अब उसे राधाकांत-मठ कहते है। उसमें घुसते ही राधाकांत-मंदिर है, जिसमें राधा-कृष्ण की बड़ी सुन्दर मूर्ति है। अंदर जाकर गंभीरा मंदिर है। वह कोठरी भी है, जिसमें चैतन्य महाप्रभु अठारह साल रहे थे। उनका चित्र, चरणपादुका, कमण्डलु, गुदड़ी, माला आदि देखकर बाबा का दिल भर आया।

कुछ आगे ले जाकर पंडा ने कहा, "यह सिद्धबकुल है। यहां पहले छाया नहीं थी। चैतन्य महाप्रभु ने यह देखकर यहां बकुल (मौलिश्री) की दातौन गाड़ दी। उसी से यह पेड़ बन गया।"

फिर श्वेत-गंगा-सरोवर और श्वेत केशव मंदिर देखकर वे गोवर्धनपीठ पहुंचे। पंडा ने कहा।, "आपको मैंने बताया था कि शंकराचार्य ने भारत के चार छोरो पर चार मठ बनाये थे। यह उन्हीं में से एक है। देखिये, वह मूर्ति शंकराचार्य की है।"

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22-08-2013, 03:54 PM
फिर वे समुद्र की ओर बढे। स्वर्ग द्वार के पास पहुंचकर पंडा ने कहा, "तीरथ संतों को बड़े प्यारे होते है। देखियें, यह पाताल-गंगा नाम का कूप है। यहां आकर कुछ दिन कबीर रहे थे।"

गंभीरा-मठ में चैतन्य प्रभु के खड़ाऊँ, कमण्डल और गूदड़ी

दाहिनी ओर आध मील पर हरिदास की समाधि दिखाते हुए पंडा ने कहा, "यह सब जगह है, जहा चैतन्य महाप्रभु ने स्वामी हरिदास के शरीर को समाधि दी थी।"

फिर वे तीनों मील-भर चलकर तोटा गोपीनाथ पहुंचे। पंडा ने कहा, "यह जो रेत का टीला है, इसे चटकगिरि कहते है। इसी में चैतन्य महाप्रभु को गिरिराज गोवर्धन के और समुद्र में कालिंदी के दर्शन हुए थे। इस गिरि की रेती में ही चैतन्य को गोपीनाथ की मूर्ति मिली थी। कहते है, यह मूर्ति पहले खड़ी थी। वह इतनी ऊंची थी कि उसके सिर पर पाग नहीं बांधी जा सकती थी। इससे पूजा करनेवालों को बड़ा दु:ख होता था। यह देखकर गोपीनाथ जी बैठ गये। भक्तो का कहना है कि चैतन्य महाप्रभु इसी मूर्ति में लीन हो गये। मूर्ति में सोने की रेखा दिखाई देती है, वहीं चैतन्य के लीन होने की निशानी बताई जाती है।"

वहा से आधा मील पर लोकनाथ महादेव का मंदिर और उसके पास शिव-गंगा सरोवर देखते हुए वे माधवेंद्रपुरी के कूप पर पहुंचे। पंडे ने कहा, "इस जगह ही श्री माधवेन्द्रपुरी तथा चैतन्य महाप्रभु करा सत्संग हुआ था।"

रेल के स्टेशन से कोई आधा मील पर उन्होने हनुमानजी के मंदिर के दर्शन किये। हनुमानके पैरो मे बेड़िया पड़ी हुई थी। उनकी और इशारा करते हुए पंडे ने कहा, "कहते है कि समुद्र पुरी के भीतर न बढ़ आये, इसलिए भगवान ने हनुमान को यहां नियुक्त किया था। लेकिन एक बार हनुमानजी रामनौमी का उत्सव देखने अयोध्या चले गये। इस पर भगवान ने उनके पैरों में बेड़िया डाल दीं, जिससे वह फिर कभी नजा सकें।"

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22-08-2013, 03:56 PM
बेड़ी हनुमान के मंदिर के सामने ही समुद्र के किनारे पर चक्रनारायण का मंदिर है। कुछ सीढ़िया चढ़कर भगवान के दर्शन होते है। यह मंदिर पुराना लगता है, अब टूट-फूट रहा है। वहीं समुद्र के किनारे चक्रतीर्थ है। पंडे ने कहा, "जगन्नाथ की कहानी सुनकर मैंने आपको बताया था कि एक बड़ा काठ समुद्र में बहकर आया था और उसे निकलवाकर राजा इंद्रधुम्न ने जगन्नाथली की मूर्ति बनवाई थी। यह वही जगह है, जहां वह काठ किनारे आकर लगा था।"

बेड़ी हनुमान मंदिर के पास ही सोनार गोरांग है। इस मंदिर में चैतन्य महाप्रभु की सोने की बड़ी सुन्दर मूरती है।

जगन्नाथजी के मंदिर से कोई आधा मील की दूरी पर हनुमानजी का मंदिर है। पंडे ने कहा, "छोटे-बड़े हर तीर्थ की कोई-न-कोई कहानी है। कहते है, समुद्र के गर्जन से सुभद्रा की नींद भंग होती थी। इसलिए भगवान ने यहां हनुमानजी को नियुक्त किया कि कान लगाकर सुनते रहो कि यहां तक समुद्र की आवाज तो नहीं आती है।"

इसके बाद उन्होंने और कई स्थान देखें। फिर वे महाप्रभु की बैठक पर पहुंचे। पंडे ने कहा, "यहां स्वामी वल्लभाचार्य आये थे।" इसके उपरांत उन्होने नानक-मठ देखा। वहां गुरूनानक पधारे थे।

वे तीन दिन वहां रहे। रोज समुद्र में स्नान करते, बड़े मंदिर में दर्शन और पूजन करते और दिन में वहां के तीर्थ और मंदिर देखते। फिर वे लोग खुश-खुश अपने नगर को लौट आये।

(इति)

rajnish manga
22-08-2013, 04:07 PM
रामेश्वरम

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रामेश्वरम
आलेख: श्री पूर्ण सोमसुन्दरम्

रामेश्वरम् हिंदुओं का पवित्र तीर्थ है। उत्तर मे काशी की जो मानता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। धार्मिक हिंदुओं के लिए वहां की यात्रा उतना की महत्व रखती है, जितना कि काशी को।

रामेश्वरम् मद्रास से कोई सवा चार सौ मील दक्षिण-पूरब में है। मद्रास से रेल-गाड़ी यात्रियों को करीब बाईस घंटे में रामेश्वरम् पहुंचा देती है। रास्ते में पामबन स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ती है।

रामेश्वरम् एक सुन्दर टापू है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी इसको चारों ओर से घेरे हुए है। इस हरे-भरे टापू की शकल शंख जैसी है।

कहते हैं, पुराने जमाने में यह टापू भारत के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों और पानी से घिरकर टापू बन गया।

जिस स्थान पर वह जुडा हुआ था, वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बाद में आज से लगभग चार सौ बरसय पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक छोटे से राजा ने उसे पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया।

अंग्रेजो के आने के बाद उसपुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चूका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से जोड़ता है।

rajnish manga
22-08-2013, 04:15 PM
रामेश्वरम



इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों।

रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का मशहूर मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो पुल या सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे। अब यह स्थान बहकर समाप्त हो गया है।

रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूरब में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। कहते है, हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है।

रामेश्वरम् की यात्रा करनेवालों को हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू को चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। अमुक जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था। अमुक जगह पर उन्होनें सेनानायकों से सलाह की थी। अमुक जगह पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था। किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से छुट्टी ली थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है।

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22-08-2013, 04:21 PM
रामेश्वरम

रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कहानी कही जाती है। सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। उन्होने लड़ाई के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर जब सफलता न मिली तो विवश होकर उन्होने युद्ध किया। इस युद्ध में रावण और उसके सब साथी राक्षस मारे गये। रावण मारा तो गया; लेकिन उसका भी प्रभाव कम नहीं था।

वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था। चारों वेदों का जाननेवाला था और था शिवजी का बड़ा भक्त। इस कारण राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया। इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया।

यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहां से एक शिवलिंग ले आओ। हनुमान पवन-सुत थे। बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े।

लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। हनुमान का कहीं पता न था। जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया। यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया।

rajnish manga
22-08-2013, 04:25 PM
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रामेश्वरम

रामेश्वर के मंदिर में जिस प्रकार शिवजी की दो मूर्तियां है, उसी प्रकार देवी पार्वती की भी मूर्तिया अलग-अलग स्थापित की गई है। देवी की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मंदिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान की एक विशाल मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है।

रामेश्वरम् का मंदिर है तो शिवजी का, परन्तु उसके अंदर कई अन्य मंदिर भी है। सेतुमाधव का कहलानेवाले भगवान विष्णु का मंदिर इनमें प्रमुख है

रामनाथ के मंदिर के अंदर और बाहर अनेक पवित्र तीर्थ है। इनमें प्रधान तीर्थो की संख्यां बाईस बताई जाती है। ये वास्तव में मीठे जल के अलग-अलग कुंए है।'कोटि तीर्थ' जैसे एक दो तालाब भी है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है। वैज्ञानिक का कहना है कि इन तीर्थो में अलग-अलग धातुएं मिली हुई है। इस कारण उनमें नहाने से शरीर के रोग दूर हो जाते है और नई ताकत आ जाती है।

रामेश्वरम् के मंदिर के बाहर भी दूर-दूर तक कई तीर्थ है। प्रत्येक तीर्थ के बारें में अलग-अलग कथाएं है। ऐसे तीर्थो में 'विल्लूरणि तीर्थ' नामक कुआं दर्शनीय है।

रामेश्वरम् से करीब तीन मील पूरब में एक गांव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गांव रेल के किनारे हो बसा है। वहां स्टेशन के पास समुद्र में एक तीर्थकुंड है, जो विल्लूरणि तीर्थ कहलाता है। समुद्र के खारे पानी बीच में से मीठा जल निकलता है, यह बड़े ही अचंभे की बात है।

rajnish manga
22-08-2013, 04:27 PM
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रामेश्वरम

कहा जाता है कि एक बार सीताजी को बड़ी प्यास लगी। पास में समुद्र को छोड़केर और कहीं पानी न था, इसलिए राम ने अपने धनुष की नोक से कुंड खोदा था।

तंगचिडम स्टेशन के पास एक जीर्ण मंदिर है। उसे 'एकांत' राम का मंदिर कहते है। इस मंदिर का अब बहुत बुरा हाल है। रामनवमी के पर्व पर यहां कुछ रौनक रहती है। बाकी दिनों में बिलकुल सूना रहता है। मंदिर के अंदर श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान और सीता की बहुत ही सुंदर मूर्तिया है। धुर्नधारी राम की एक मूर्ति ऐसी बनाई गई है, मानो वह हाथ मिलाते हुए कोई गंभीर बात कर रहे हो। दूसरी मूर्ति में राम सीताजी की ओर देखकर मंद मुस्कान के साथ कुछ कह रहे है। ये दोनों मूर्तियां बड़ी मनोरम है।

रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मंदिर है। रमानाथ के मंदिर से करीब पांच मील दूर पर यह मंदिर बना है। यह कोदंड 'स्वामी को मंदिर' कहलाता है। कहा जाता है कि विभीषण ने यहीं पर राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मंदिर में राम, सीता औरलक्ष्मण की मूर्तियां देखने योग्य है। विभीषण की भी मूर्ति अलग स्थापित है।

रामेश्वरम् को घेरे हुए समुद्र में भी कई विषेश स्थान ऐसे बताये जाते है, जहां स्नान करना पाप-मोचक माना जाता है। रामनाथजी के मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने बना हुआ सीताकुंड इनमें मुख्य है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहां सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्ध करने के लिए आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुंड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब 'सीताकुंड' कहलाता है।

यहां पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है। सागर एकदम शांत है। उसमें लहरें बहुत कम उठती है। इस कारण देखने में वह एक तालाब-सा लगता है। यहां पर बिना किसी खतरें के स्नान किया जा सकता है।

rajnish manga
22-08-2013, 04:29 PM
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रामेश्वरम

रामेश्वरम् से दक्षिण में कन्याकुमारी नामक प्रसिद्ध तीर्थ है। रत्नाकर कहलानेवाली बंगाल की खाडी यहीं पर हिंद महासागर से मिलती है। रामेश्वरम् और सेतु बहुत प्राचीन है। परंतु रामनाथ का मंदिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मंदिर डेढ़-दो हजार साल पहले के बने है, जबकि रामनाथ के मंदिर को बने अभी कुल आठ सौ वर्ष से भी कम हुए है। इस मंदिर के बहुत से हिस्से पचास साठ साल पहले के है।

रामनाथ के मंदिर में जो ताम्रपट है, उनसे पता चलता है कि ११७३ ईस्वी में लंका के राजा पराक्रमबाहु ने रामेश्वरम् मे शिवजी का एक मंदिर बनवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रक्खी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मंदिर कहलाया। यही मंदिर आगे चलकर वर्तमान दशा को पहुंचा है।

रामनाथ के मंदिर के साथ सेतुमाधव का जो मंदिर है, वह आज से पांव सो वर्ष पहले रामनाथपुरम् के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था। रामनाथजी के मंदिर का पश्चिमी गोपुर-द्वार भी इन्हीं दोनों महानुभावों ने १४५० ईस्वीं में बनवाया था। मंदिर का तीसरा प्राकार, पूर्वी द्वार और अन्य भाग, बहुत समय बादबने।

रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। प्रवेश-द्वार पर ही चालीस-चालीस फुट ऊंचे दो पत्थरों पर चालीस फुट पत्थर को इस खूबी के साथ लगाया गया है कि देखने वाले दंग रह जाते है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ौ विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है; परंतु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि बेल-बूटै को कारीगरी हर खंभे पर अलग-अलग है।

रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभो की लम्बी कतारे खड़ी है। प्राकार के एक सिरे पर खडे होकर देखने पर ऐसा लगता है मारो सैकड़ौ तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए दंग बनाए गये है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है।

rajnish manga
22-08-2013, 04:32 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29773&stc=1&thumb=1&d=1377169486 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29773&d=1377169486)

रामेश्वरम्
रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। वास्तव में एक टीला और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।

रामेश्वरम् के विशाल मंदिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत मद्रास राज्य में शामिल हो गई।

रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रक्खा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथपुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है।

रामेश्वरम् से सात मील दक्षिण में एण्क स्थान है, जिसे 'दर्भशयनम्' कहते है; पर यही राम ने पहले समुद्र में सेतु बांधना शुरू किया था। इस कारण यह स्थान 'आदि सेतु' भी कहलाता है।

रामेश्वरम् के समुद्र में तरह-तरह की कोड़ियां, शंख और सीपें मिलती है। कहीं-कहीं सफेद रंग का बड़ियास मूंगा भी मिलता है। रामेश्वरम् केवल धार्मिक महत्व का तीर्थ ही नहीं, प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भी दर्शनीय है।
(इति)

rajnish manga
22-08-2013, 04:42 PM
द्वारका

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29774&stc=1&d=1377171641

द्वारका
आलेख: वीरेन्द्र

द्वारका हमारे देश के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। आज से हजारों साल पहले भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में पैदा हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे।

आज भी द्वारका की महिमा है। यह चार धामों में एक है। सात पुरियों में एक पुरी है। इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठती है और इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हो

पहले तो मथुरा ही कृष्ण की राजधानी थी। पर मथुरा उन्होने छोड़ दी और द्वारका बसाई।

द्वारका एक छोटा-सा-कस्बा है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है। द्वारका के

दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है।

इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें है।

rajnish manga
22-08-2013, 04:48 PM
द्वारका

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29775&d=1377171635 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29775&d=1377171635)


गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है -कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर।

रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल। सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दावारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है।

रणछोड़जी के मन्दिर के सामने एक बहुत लम्बा-चौड़ा १०० फुट ऊंचा जगमोहन है। इसकी पांच मंजिलें है और इसमें ६० खम्बे है। रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारे भी दोहरी है।

दक्षिण की तरफ बराबर-बराबर दो मंदिर है। एक दुर्वासाजी का और दूसरा मन्दिर त्रिविक्रमजी को टीकमजी कहते है। इनका मन्दिर भी सजा-धजा है। मूर्ति बड़ी लुभावनी है। और कपड़े-गहने कीमती है।

त्रिविक्रमजी के मन्दिर के बाद प्रधुम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री इन कुशेश्वर भगवान के मन्दिर में जाते है। मन्दिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिव का लिंग है और पार्वती की मूर्ति है।

कुशेश्वर शिव के मन्दिर के बराबर-बराबर दक्षिण की ओर छ: मन्दिर और है। इनमें अम्बाजी और देवकी माता के मन्दिर खास हैं।

रणछोड़जी के मन्दिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनके दक्षिण में भगवान का भण्डारा है और भण्डारे के दक्षिण में शारदा-मठ है।

शारदा-मठ को गुरू शंकराचार्य ने बनबाया था। उन्होने पूरे देश के चार कोनों मे चार मठ बनायें थे। उनमें एक यह शारदा-मठ है।

rajnish manga
22-08-2013, 05:07 PM
द्वारका

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29776&d=1377171635 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29776&d=1377171635)


रणछोड़जी के मन्दिर से द्वारका शहर की परिक्रमा शुरू होती है। पहले सीधे गोमती के किनारे जाते है। गोमती के नौ घाटों पर बहुत से मन्दिर है- सांवलियाजी का मन्दिर, गोवर्धननाथजी का मन्दिर, महाप्रभुजी की बैठक।

आगे वासुदेव घाट पर हनुमानजी का मन्दिर है। आखिर में संगम घाट आता है। यहां गोमती समुद्र से मिलती है। इस संगम पर संगम-नारायणजी का बहुत बड़ा मन्दिर है।

संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे 'ज्ञान-कुण्ड' कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है। इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।

इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है।

यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है।

यही असली द्वारका है। इससे बीस मील आगे कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा टापू है। इस पर बेट-द्वारका बसी है। गोमती द्वारका का तीर्थ करने के बाद यात्री बेट-द्वारका जाते है। बेट-द्वारका के दर्शन बिना द्वारका का तीर्थ पूरा नही होता। बेट-द्वारका पानी के रास्ते भी जा सकते है और जमीन के रास्ते भी।

जमीन के रास्ते जाते हुए तेरह मील आगे गोपी-तालाब पड़ता है। यहां की आस-पास की जमीन पीली है। तालाब के अन्दर से भी रंग की ही मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी को वे गोपीचन्दन कहते है। यहां मोर बहुत होते है। गोपी तालाब से तीन-मील आगे नागेश्वर नाम का शिवजी और पार्वती का छोटा सा मन्दिर है। यात्री लोग इसका दर्शन भी जरूर करते है।

rajnish manga
22-08-2013, 05:11 PM
द्वारका

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29777&d=1377171635 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29777&d=1377171635)


कहते है, भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। यह कुल सात मील लम्बा है। यह पथरीला है। यहां कई अच्छे और बड़े मन्दिर है। कितने ही तालाब है। कितने ही भंडारे है। धर्मशालाएं है और सदावर्त्त लगते है। मन्दिरों के सिवा समुद्र के किनारे घूमना बड़ा अच्छा लगता है।

बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है।

आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा मलह श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इल पांचों महलो की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचोंध हो जाती है। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े है। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए है। सच्ची जरी के कपड़ो से उनको सजाया गया है।

रणछोड़जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। यहां भगवान की सेज है। झूलने के लिए झूला है। खेलने के लिए चौपड़ है। दीवारों में बड़े-बड़े शीशे लगे है।

इन पांचों मन्दिरों के अपने-अलग भण्डारे है। मन्दिरों के दरवाजे सुबह ही खुलते है। बारह बजे बन्द हो जाते है। फिर चार बजे खुल जाते है। और रात के नौ बजे तक खुले रहते है।

rajnish manga
22-08-2013, 05:17 PM
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द्वारका

इन पांच विशेष मन्दिरों के सिवा और भी बहुत-से मन्दिर इस चहारदीवारी के अन्दर है। ये प्रद्युम्नजी, टीकमजी, पुरूषोत्तमजी, देवकी माता, माधवजी अम्बाजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी-गोपाल, लक्ष्मीनारायण और गोवर्धननाथजी के मन्दिर है। ये सब मन्दिर भी खूब सजे-सजाये है। इनमें भी सोने-चांदी का काम बहुत है।

बेट-द्वारका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब। इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इसकी सीढ़िया पत्थर की है। जगह-जगह नहाने के लिए घाट बने है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर खास है। लोगा इन तालाबों में नहाते है और मन्दिर में फूल चढ़ाते है।

रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।

rajnish manga
22-08-2013, 05:21 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29775&stc=1&thumb=1&d=1377171635 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29775&d=1377171635)

द्वारका

कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है।

बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है।

हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा था।

सोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमा जायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनवाया था। यह अब भी खड़ा है।
(इति)

Dr.Shree Vijay
22-08-2013, 06:40 PM
आदरणीय मित्र श्री रजनीश जी अतिउत्तम सूत्र के लिये हार्दिक धन्यवाद और बधाई इतने मंदिरों के यात्रा करवा रहे है, आपको पुण्य अवश्य मिलेग्गा, उसके लिये दुबारा हार्दिक धन्यवाद...............

rajnish manga
22-08-2013, 10:32 PM
आदरणीय मित्र श्री रजनीश जी अतिउत्तम सूत्र के लिये हार्दिक धन्यवाद और बधाई इतने मंदिरों के यात्रा करवा रहे है, आपको पुण्य अवश्य मिलेग्गा, उसके लिये दुबारा हार्दिक धन्यवाद...............



सूत्र पर विहंगम दृष्टि डालने एवम् इस पर उदारतापूर्वक उद्गार प्रगट करने के लिए आपका आभारी हूँ. मेरे लिए तो आपके शब्द ही पुण्य प्रदाता हैं, मित्र.