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View Full Version : पता ही नहीं था जाति क्या होती है - राहुल


dipu
27-08-2013, 07:34 PM
कांग्रेस के उपाध्यक्ष और नेहरू-गांधी परिवार की राजनैतिक विरासत को संभालने की कोशिश में जुटे राहुल गांधी ने मंगलवार को पार्टी के दलित नेताओं से बात की. इस दौरान पार्टी सांसद और एससी कमीशन के मुखिया पीएल पुनिया भी थे. राहुल ने बात की सियासत की, दलितों की, यूपी की और इस दौरान भइया और सिस्टैमेटिकली शब्दों पर जोर देकर पूरे सिस्टम को बदलने की बात कही. उन्होंने कहा कि मुझे तो पता ही नहीं था कि जाति क्या होती है. उन्होंने कहा कि हर पार्टी में मुट्ठी भर लोग टिकट तय करते हैं, सिस्टम चलाते हैं, जबकि इसकी जगह लाखों होने चाहिए. टिप्पणी और विश्लेषण बाद में, आप फिलहाल पढ़ें क्या कहा राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में दिए इस भाषण में
सबसे पहले सुनाया एक किस्सा

जब भी मैं यूपी जाता हूं, मुझे कोई स्कूल दिखता है, तो मैं कोशिश करता हूं कि बच्चों से, टीचर से बात करूं. उस वक्त मायावती जी की सरकार थी. तो मेरे तीन सवाल हुआ करते थे. स्कूल में जाता था. जो आगे वाली लाइन होती थी. उनके बच्चों के नाम पूछता था मैं. जो पीछे वाली लाइन होती थी, उनके बच्चों के नाम पूछता था. और जो टीचर होती थी उनसे दो सवाल पूछता था. आपका टॉपर कौन है, सबसे वीक स्टूडेंट कौन हैं. नब्बे फीसदी स्कूल में मैं आपको जवाब बता देता हूं. अगली लाइऩ में दलित बच्चा कभी नहीं दिखा, जो पीछे वाली लाइन होती थी, इसमें ज्यादा से ज्यादा दलित बच्चे दिखते थे. ये रिएलिटी है. टीचर से पूछता टॉपर कौन है, तो आगे की लाइन. अच्छा काम कौन नहीं कर रहा है, तो पीछे की लाइन. फिर मैं पूछता कि भइया एक बात बताइए कि अगर दलित बच्चे पिछली लाइन में हैं और आप मुझे कह रही हैं कि पिछली लाइऩ से कोई ब्राइट स्टूडेंट नहीं निकल रहा है, तो इसमें आपमें कोई कमी तो नहीं है, शायद आपने कैटिगरी बना ली कि इनको आगे बिठाऊंगी. इनको पीछे. जो आगे बैठ रहे हैं, उन्हें ज्यादा सुनाई देगा. पुनिया जी का कहना है कि दो तरह के स्कूल हैं. मेरा कहना है कि स्कूल के अंदर भी दो तरीके हैं. ये दलितों की नहीं भेदभाव की बात है.

200 लोग तय करते हैं पूरे देश की राजनीति

आठ साल से नौ साल से मैं राजनीति में हूं. हर स्टेट में जाता हूं, चुनाव देखता हूं. जब हमारा लोकसभा का, विधानसभा का चुनाव होता है, कितने लोग फैसला लेते हैं.कितने लोग तय करते हैं कि भइया लोकसभा में कौन जाएगा, विधानसभा में कौन जाएगा, पीएम कौन बनेगा. हिंदुस्तान की आबादी कितनी है. उनमें से 60-70 फीसदी लोग वोट करते हैं, तकरीबन 10 करोड़ लोग डिसाइड करते हैं. मुझे टिकट डिसीजन भी दिखते है, कैंडिडेट चुनने का डिसीजन भी दिखता है. अब आप बताइए कि हुंदुस्तान में सब पार्टियों को जोड़ दें तो कितने लोग होंगे. आपने कहा कि 10 करोड़ वोट देते हैं, तो कैंडिडेट चुनने का फैसला कितने लोग करते हैं, बोलिए बोलिए.हिंदुस्तान में, मेरी पार्टी में भी, अगर आपने बहुत घोलकर बोला, तो 100 लोग. बीजेपी में 70-80 लोग, बीएसपी में एक व्यक्ति, सपा में तीन लोग, बीजेडी में दो लोग. कुल सिस्टम में दो सौ लोग, तीन सौ लोग, अगर आपने खोलकर बोला तो 500 लोग इस देश के राजनैतिक भविष्य का फैसला लेते हैं. मैं आपको सीधा बता देता हूं कि जब तक ये 500 लोग फैसला लेंगे तब तक दलितों की आवाज सही ढंग से न लोकसभा में पहुंचेगी, न विधानसभा में.मेरे दिमाग में सवाल आता है कि यूपी में बीएसपी की सरकार है, मगर तब भी वहां एक व्यक्ति चार सौ लोगों को चुनता है. तो मूवमेंट दलितों की हुई. संघर्ष कांशीराम जी ने किया. और फिर ढांचा बंद हो गया.

किया राजीव को फोन और पीसीओ के बहाने याद

एक समय हुआ करता था जब एमपी और एमएलए टेलिफोन का फैसला लेते थे. आपको याद होगा कि भइया कोटा होता था. एक एमपी कहता था 500 लोगों को ये टेलिफोन दूंगा. परमार जी (साथ में मंच पर बैठे एक नेता) उस समय मोबाइल नहीं खऱीद सकते थे. विधायक के पास हाथ जोड़कर जाना होता था. क्या बदला, आज ये इनकी मेज पर पड़ा है मोबाइल फोन.ये कहां से आया. इसको यहां पीसीओ लाया. जो पहले एमपी एमलए के हाथ में होता था, उसको राजीव गांधी ने पीसीओ के माध्यम से गांव में पहुंचाया. जब पीसीओ आया, तब मैं कहता हूं कि हिंदुस्तान को कम्युनिकेशन राइट्स मिले. पहले ये सिर्फ सांसद और विधायक के पास था.

यही अब राजनैतिक सिस्टम में हो रहा है. 200-400 लोग तय करते हैं कैंडिडेट कौन बनेगा. सच्ची पॉलिटिकल राइट्स न आम आदमी को मिलती है, न दलित को मिलती है. चुने हुए कुछ लोगों को मिलती है.इसको चैलेंज करने का तरीका 73वें और 74वें संशोधन में है, जवाब यहां से निकलेगा.

बंद कमरे में हुए चुनावी फैसले नहीं चलेंगे

हम भोजन के अधिकार की बात करते हैं, बड़ी चीज है. रोजगार योजना बड़ी चीज है. आरटीआई दे दिया. सब राजनैतिक दलों से पूछ लीजिए. आप अपनी पार्टी में राजनीतिक हक किसको देते हो. आप टिकट का फैसला लेते हो, किस किस के पास राइट्स हैं. कोई भी पार्टी आपको इसका जवाब नहीं दे सकती. एक पार्टी नहीं हिंदुस्तान में, अगर हमें राजनीति को 21वीं सदी में ले जाना है, तो ये 200 को 500, 1000 और फिर एक लाख तक ले जाना है. बंद कमरे जहां टिकट डिसीजन हो रहे हैं, इन्हें खोलना है. ये मेन बात है, बाकी सब पेरिफरी पर है. जब तक ये दरवाजे नहीं खुलेंगे, तब तक सचमुच राजनीतिक हक नहीं मिलेगा. दलित पर मैं थोड़ा फोकस करना चाहता हूं, जब सिस्टम बंद होता है, तो सबसे ज्यादा दबाव सबसे कमजोर पर पड़ता है. जो ताकतवर है वो बंद सिस्टम में घुसकर भी अपना रास्ता निकाल सकता है, मगर जो ऐसा नहीं है, उसके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है.

मेरे परिवार में जाति की बात नहीं होती थी

मैं जाति में यकीन नहीं करता. क्योंकि मेरी सोच है कि व्यक्ति एक होते हैं. मेरे परिवार में जाति की बात पहले होती ही नहीं थी. मालूम ही नहीं था मुझे. क्योंकि मेरी दादी के लिए, मेरे पापा के लिए, मेरे परदादा के लिए सब लोग एक जैसे थे. उनकी सोच ये थी कि भाई व्यक्ति होता है, उसकी क्षमता होती है, दलितों में ये होती है, बाकी लोगों में होती है, कोई फर्क नहीं पड़ता. रिएलिटी ये है कि दलित में, ओबीसी में, क्षमता में कोई फर्क नहीं है. इसलिए कहानी बताई वो स्कूल की. उसमें आप बच्चे को अनफेयर ट्रीटमेंट दे रहे हैं. पीछे बैठा दिया है. फिर बाद में कह रहे हैं कि ये ठीक से पढ़ नहीं पा रहा है.फिर कह रहे कि रिजल्ट ठीक नहीं आ रहा. तो मेरा कहना है कि कमी क्या दिखती है मुझे.

हर लेवल पर दलित लीडरशिप चाहिए. यूपी में आप मुझे पांच दलितों के नाम बता दीजिए जो नेता हैं. मुझे एक ही नाम सुनाई देता है. मायावती जी...दूसरा नाम ही नहीं सुनाई देता. अगर हम यूपी की बात करें तो लाइन लग जाए. इस ब्लॉक में ये नेता है. इस जिले में ये दर्जन नेता हैं. इस गांव में ये हैं. उन्हें हम सिस्टैमेटिक राइट्स दें. अगर आप पंचायत में काम करते हो और कांग्रेस में हो तो आपको ये अधिकार मिलेंगे. ये नहीं कि मुझे लगा कि पुनिया जी अच्छा काम कर रहे हैं, तो आगे बढ़ा दिया. मुझे लगा दिया कि कोई और काम नहीं कर रहा तो पीछे कर दिया. इससे नुकसान होता है, जब तक नीचे से नहीं उठाएंगे, तब तक बात नहीं बनने वाली. जो भी मैं सिस्टम की बात करता हूं, मेरी सोच है कि हम अधिकार की बात करें, पॉलिटिकल नेता है, काम करता है, डिसीजन में इसकी क्या आवाज है.सिस्टैमेटिकली. तो ये मैं आहिस्ते आहिस्ते करने की कोशिश कर रहा हूं.

पहले दलित कांग्रेस को दबाकर सपोर्ट करते थे

आप लोग दलित लीडरशिप हो, केपेबल लोग हो. और मैं अभी कांग्रेस की बात करूं. तो सिस्टैमेटिकली आपकी आवाज कांग्रेस में नहीं आती, एक एक करके आती है, आपने किसी से बात कर ली. काफी सीनियर नेता बैठे हैं, मगर इंस्टीट्यूशनली नहीं आती. मैं चाहता हूं आपकी बात आए तो इंडीविजुएल पर न आए कम्युनिटी के बेसिस पर आए. फिर आपको सचमुच में आपका जो पावर है, उसका फायदा होगा और जो दलित वर्ग है, उनको पता लगेगा कि भइया यहां पर बात सुनी जा रही है, सुनवाई हो रही है.

15-20, 25 साल पहेल कांग्रेस पार्टी को दलित वर्ग दबाकर सपोर्ट करता था. बैकबोन होता था कांग्रेस की, मैं चाहता हूं कि आज से 5-8 साल बाद फिर दलित ये फील करे कि हम कांग्रेस पार्टी की बैकबोन हैं. और ये फील करने के लिए उन्हें नहीं बदलना है, हमें बदलना है. हम उनको ये कभी नहीं समझा पाएंगे कि भइया आप हमारी बैकबोन हो. अगर हमारे फैसले में, संगठन में वो सचमुच में बैकबोन नहीं हैं. ये काम मैं सिर्फ दलितों के लिए नहीं करना चाहता. मैं जो कमजोर कम्युनिटी हैं. देखिए दलितों की बात होती है, यहां एक दलित महिला बैठी है. उनके ऊपर दलित का भेद होता है, फिर महिला का होता है, तो डबल होता है. पचास फीसदी महिलाएं, वो भी वंचित तबके से हैं. तो मेरी सोच है कि जो कमजोर है. उनको हम जोड़कर उनकी आवाज लोकसभा में, विधानसभा में डालें, सिस्टैमेटिकली, ये मेरी कोशिश है.


source: http://aajtak.intoday.in/story/rahul-gandhi-talks-about-dalit-representation-in-politics-1-740279.html

Dr.Shree Vijay
27-08-2013, 09:25 PM
राहुल जी को तो अभी नही पता की जाती क्या होती हैं........................

dipu
28-08-2013, 09:21 AM
राहुल जी को तो अभी नही पता की जाती क्या होती हैं........................

:thinking::thinking::thinking: