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View Full Version : नूर मुहम्मद 'नूर': हिंदी में गजल कहता हूं


dipu
28-08-2013, 11:44 AM
'एक जमाने से उर्दू का समझते हैं मुझे/एक मुद्दत से मैं हिंदी में गजल कहता हूं' जैसी पंक्ति लिखने वाले नूर मुहम्मद 'नूर' ने गजल जैसे उर्दू फॉर्म को हिंदी में कामयाबी से आजमाया है। उनकी कविता की ऊंचाई यह बताने के लिए काफी है कि वे एक फर्क भाषा में गजल को कितना गहस्थ बना चुके हैं।
जन्म : 17 अगस्त, 1952

काट कर भूमि से आसमान ले गया
पेट हमको कहां से कहां ले गया

यहां की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहां ईमान फकत बेईमान रखते हैं

हक तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख
ऐब हम में देख पर बंधु! वफादारी भी देख

उजाला यहां से वहां तक परेशां
वही तम इधर भी वही तम उधर भी

बेहयाई, बेवफाई, बेईमानी हर तरफ
धीरे-धीरे मर रहा आंखों का पानी हर तरफ

बात से ही धुआं निकलता है
आदमी, आदमी से जलता है
एक नफरत ही बस नहीं ढलती
जबकि सूरज भी रोज ढलता है

दर्द में दर्द की दवा की तरह
कौन मिलता है अब हवा की तरह

वक्त कितना कठिन बताएं क्या
अश्क तक आंख में नहीं होते
प्याज होता तो छील कर रोते

रखता मैं अपनी प्यास कहां तक संभाल कर
पीता हूं रोज-रोज समंदर उबाल कर

बदल कर चेहरा, अदाएं मुसलसल
जवां हो रही हैं, बलाएं मुसलसल
अभी तिश्नगी, तिश्नगी ही रहेगी
अभी गीत पानी के गाएं मुसलसल
(मुसलसल : लगातार, तिश्नगी : प्यास)

फिर कहीं दहशत न होगी फिर न होंगी आफतें
आदमी की भीड़ में इंसान सुंदर चाहिए

चल नहीं सकती अगर दुनिया खुदाओं के बिना
दोस्तो फिर तो नया भगवान सुंदर चाहिए

मुझे अनजान रहने दे
मुझे बेनाम रहने दे
मुझे ए शायरी यूं ही
जरा गुमनाम रहने दे
बुरे इस वक्त में
शेर गर अच्छे लगें मेरे
तो मेरे शेर ले जा
और मेरा नाम रहने दे

मैं खामख्वाह हथेली पे जान रखता हूं
अजीब शख्स हूं यारो, जुबान रखता हूं

Dr.Shree Vijay
28-08-2013, 07:13 PM
'एक जमाने से उर्दू का समझते हैं मुझे/एक मुद्दत से मैं हिंदी में गजल कहता हूं' जैसी पंक्ति लिखने वाले नूर मुहम्मद 'नूर' ने गजल जैसे उर्दू फॉर्म को हिंदी में कामयाबी से आजमाया है। उनकी कविता की ऊंचाई यह बताने के लिए काफी है कि वे एक फर्क भाषा में गजल को कितना गहस्थ बना चुके हैं।
जन्म : 17 अगस्त, 1952

काट कर भूमि से आसमान ले गया
पेट हमको कहां से कहां ले गया

यहां की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहां ईमान फकत बेईमान रखते हैं

हक तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख
ऐब हम में देख पर बंधु! वफादारी भी देख

उजाला यहां से वहां तक परेशां
वही तम इधर भी वही तम उधर भी

बेहयाई, बेवफाई, बेईमानी हर तरफ
धीरे-धीरे मर रहा आंखों का पानी हर तरफ

बात से ही धुआं निकलता है
आदमी, आदमी से जलता है
एक नफरत ही बस नहीं ढलती
जबकि सूरज भी रोज ढलता है

दर्द में दर्द की दवा की तरह
कौन मिलता है अब हवा की तरह

वक्त कितना कठिन बताएं क्या
अश्क तक आंख में नहीं होते
प्याज होता तो छील कर रोते

रखता मैं अपनी प्यास कहां तक संभाल कर
पीता हूं रोज-रोज समंदर उबाल कर

बदल कर चेहरा, अदाएं मुसलसल
जवां हो रही हैं, बलाएं मुसलसल
अभी तिश्नगी, तिश्नगी ही रहेगी
अभी गीत पानी के गाएं मुसलसल
(मुसलसल : लगातार, तिश्नगी : प्यास)

फिर कहीं दहशत न होगी फिर न होंगी आफतें
आदमी की भीड़ में इंसान सुंदर चाहिए

चल नहीं सकती अगर दुनिया खुदाओं के बिना
दोस्तो फिर तो नया भगवान सुंदर चाहिए

मुझे अनजान रहने दे
मुझे बेनाम रहने दे
मुझे ए शायरी यूं ही
जरा गुमनाम रहने दे
बुरे इस वक्त में
शेर गर अच्छे लगें मेरे
तो मेरे शेर ले जा
और मेरा नाम रहने दे

मैं खामख्वाह हथेली पे जान रखता हूं
अजीब शख्स हूं यारो, जुबान रखता हूं



मैं खामख्वाह हथेली पे जान रखता हूं
अजीब शख्स हूं यारो, जुबान रखता हूं..........
बहतरीन गजल........................................

dipu
28-08-2013, 09:20 PM
मैं खामख्वाह हथेली पे जान रखता हूं
अजीब शख्स हूं यारो, जुबान रखता हूं..........
बहतरीन गजल........................................

:hello::hello:

rajnish manga
29-08-2013, 01:22 PM
नूर साहब पर जारी सूत्र के लिए आपका आभारी हूँ, दीपू जी. गज़लकार नूर मुहम्मद 'नूर' किसी परिचय के मोहताज नहीं. वे इस वक़्त हिंदी के कुछ चुनिन्दा ग़ज़लकारों में गिने जाते हैं. उनकी एक अखिल भारतीय पहचान है. परंपरा से चली आ रही ग़ज़ल को उन्होंने सर्वथा एक नई ज़मीन मुहैया कराई है. उनकी शैली सहज और अनूठी है जो लोकोन्मुख है. अपनी गजलों में उन्होंने उन वर्गों पर विशेष रूप से आक्रमण किया है जो न्याय और सत्य के शत्रु हैं.

उनकी किताब "दूर तक सहराओं में" से एक चयन:

ये बुत पत्थर के दर इनके मत अपनी नाक रगड़ बाबा
ये लोग नहीं कुछ देने को जा अपनी राह पकड़ बाबा
क्यों शर्मो-हया इस्मत उरियां नगरी नगरी द्वारे द्वारे
जो जिस्म पोशीदा था कल तक वो कैसे उघड गया बाबा.


ये खामख्वाह हथेली पे जान रखते है
अजीब लोग हैं मुंह में ज़बान रखते हैं
ख़ुशी तलाश न कर मुफलिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहां हुक्मरान रखते हैं.

Advo. Ravinder Ravi Sagar'
29-08-2013, 01:31 PM
Bahut Khoob.....

rajnish manga
29-08-2013, 02:12 PM
शायर परिवर्तन का आह्वान करते हए कहता है:
यह नूर कोई दीवाना है मस्ताना है या वहशी है
वह काट रहा है चाकू से बरगद की गहरी जड़ बाबा
या

एक जंगल के अँधेरे में खड़ी है दुनिया -
अब तो मिलजुल के कोई आग जलाओ यारो

क्यों नहीं निकलेगा अमृत का कलश
देव - दानव, हम अगर मंथन करें
शायर वर्तमान युग की सच्चाइयों से भी अनजान नहीं है:
वो हमारे गाँव के दुखड़े सुने तो किस तरह
जब सदी इक्कीसवीं की ठेपियाँ हों कान में

घुट घुट के जान जानी थी लेकिन नहीं गई
बस छटपटा रहे हैं इसे कम नहीं समझ

ज़ुल्म पे ज़ुल्म ढाती गई ज़िन्दगी
नूर फनकार होता गया आदमी
अक्सर शायर हताशा और निराशा को दुतकारता दिखाई देता है और व्यक्तित्व को खंडित होने से बचाने की प्रतिबद्धता भी दिखाता है:

क्या हुआ जो घर नहीं, खुशियाँ नहीं कंगाल हूँ
पर अदब की दौलतो-ज़र से तो मालामाल हूँ.

dipu
29-08-2013, 03:19 PM
नूर साहब पर जारी सूत्र के लिए आपका आभारी हूँ, दीपू जी. गज़लकार नूर मुहम्मद 'नूर' किसी परिचय के मोहताज नहीं. वे इस वक़्त हिंदी के कुछ चुनिन्दा ग़ज़लकारों में गिने जाते हैं. उनकी एक अखिल भारतीय पहचान है. परंपरा से चली आ रही ग़ज़ल को उन्होंने सर्वथा एक नई ज़मीन मुहैया कराई है. उनकी शैली सहज और अनूठी है जो लोकोन्मुख है. अपनी गजलों में उन्होंने उन वर्गों पर विशेष रूप से आक्रमण किया है जो न्याय और सत्य के शत्रु हैं.

उनकी किताब "दूर तक सहराओं में" से एक चयन:

ये बुत पत्थर के दर इनके मत अपनी नाक रगड़ बाबा
ये लोग नहीं कुछ देने को जा अपनी राह पकड़ बाबा
क्यों शर्मो-हया इस्मत उरियां नगरी नगरी द्वारे द्वारे
जो जिस्म पोशीदा था कल तक वो कैसे उघड गया बाबा.


ये खामख्वाह हथेली पे जान रखते है
अजीब लोग हैं मुंह में ज़बान रखते हैं
ख़ुशी तलाश न कर मुफलिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहां हुक्मरान रखते हैं.

:hello::hello::hello:

dipu
29-08-2013, 03:19 PM
Bahut Khoob.....

:banalama::banalama:

dipu
29-08-2013, 03:20 PM
शायर परिवर्तन का आह्वान करते हए कहता है:
यह नूर कोई दीवाना है मस्ताना है या वहशी है
वह काट रहा है चाकू से बरगद की गहरी जड़ बाबा
या

एक जंगल के अँधेरे में खड़ी है दुनिया -
अब तो मिलजुल के कोई आग जलाओ यारो

क्यों नहीं निकलेगा अमृत का कलश
देव - दानव, हम अगर मंथन करें
शायर वर्तमान युग की सच्चाइयों से भी अनजान नहीं है:
वो हमारे गाँव के दुखड़े सुने तो किस तरह
जब सदी इक्कीसवीं की ठेपियाँ हों कान में

घुट घुट के जान जानी थी लेकिन नहीं गई
बस छटपटा रहे हैं इसे कम नहीं समझ

ज़ुल्म पे ज़ुल्म ढाती गई ज़िन्दगी
नूर फनकार होता गया आदमी
अक्सर शायर हताशा और निराशा को दुतकारता दिखाई देता है और व्यक्तित्व को खंडित होने से बचाने की प्रतिबद्धता भी दिखाता है:

क्या हुआ जो घर नहीं, खुशियाँ नहीं कंगाल हूँ
पर अदब की दौलतो-ज़र से तो मालामाल हूँ.



:bravo::bravo::hello::hello: