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View Full Version : टीवी समाचार मीडिया में उत्पात


rajnish manga
01-09-2013, 11:41 AM
टीवी समाचार मीडिया में उत्पात

प्रस्तुति और मुनाफे की प्रतिस्पर्धा ने अमेरिकी समाचार चैनलों को कुछ ऐसा भयानक ढंग से हास्यास्पद बना दिया कि उनके कुछ कार्यक्रमों और एंकरों का मज़ाक उड़ाते कार्यक्रम तक बनने लगे और वे हिट भी रहे. ऐसे ही एक मशहूर टीवी प्रेजेंटर हैं जॉन स्टीवर्ट. कॉमेडी शो करते हैं. उनका कहना है कि टीवी स्टूडियो पत्रकारिता की पेशेवर कुश्तियों के रिंग्स में बदल जाते हैं. उनमें शोर और हमले हैं और मामला साफ करने की होड़. वे एक दूसरे से टकरा टकरा कर लहूलुहान से हुए जाते हैं लेकिन एक विचार आगे नहीं बढ़ाते. यानी दर्शक तक कोई भी स्पष्ट राय नहीं पहुंचती. सोशल एक्टिविस्ट शबनम हाशमी ने एक अंग्रेजी चैनल के लोकप्रिय बताए गए शो में अपने साथ पिछले दिनों हुए दुर्व्यवहार पर तीखी टिप्पणी की थी कि कैसे उन्हें शो में बोलने नहीं दिया गया उनकी बात काटी गई और कैसे वो कार्यक्रम का बॉयकाट कर चली गई और कैसे चैनल के बाइट बटोरिए उनके पीछे ही पड़ गए. इस चैनल के ऐसे और भी कई “विक्टिम” रहे हैं जिनमें अरुंधति रॉय भी एक हैं.

एक लिहाज से ये संकुचित, सतही और साजिश वाली पत्रकारिता का दौर माना जाएगा. संकुचित इसलिए कि कंटेंट बहुत निर्धारित किया हुआ और शर्तों और दबावों से दबा हुआ होता है, सतही इसलिए कि उसमें मौलिकता और वस्तुपरकता और गहरे विश्लेषण का अभाव है और साजिश इसलिए कि लगता है मुनाफा ही आखिरी मकसद है या कोई छिपा हुआ राजनैतिक सांस्कृतिक या आर्थिक एजेंडा. अन्ना आंदोलन में हम ये देख चुके हैं, जब कैमरे के कैमरे क्रेन से रामलीला मैदान पर उतरे हुए थे या मोदी के भाषणों में बहसों लाइव रिपोर्टिंग और विश्लेषणों की सूनामी जैसी आ गई थी. मोदी की “उतावली” की छानबीन के बजाय उनके दिल्ली आगमन पर लहालोट हो जाना- ये दर्शक को खबर की वस्तुपरकता और विश्लेषण और निष्पक्षता से दूर ले जाने की साजिश नहीं तो और क्या है. मुकेश अंबानी क्यों गैस की कीमतों को बढ़ाए जाने पर जोर देते रहे हैं, ये हमें नहीं पता चलता. क्यों हमें एक ही ढंग से खबर देखने को विवश किया जाता है. ऊपर से तुर्रा ये कि नहीं देखना तो कौन कहता है. टीवी बंद कर दीजिए. विनम्रता अब दूर की कौड़ी है.

rajnish manga
01-09-2013, 11:43 AM
क्रिकेट हो या पाकिस्तान या कुछ सनसनी और संवेदनात्मक उभार वाला मामला आप पाएंगे कि टीवी समाचार कक्षों और स्टूडियो में कयामत सी आ जाती है. युद्ध के मैदान सज जाते हैं और दुंदुभियां सरीखी बजने लगती हैं, अट्टाहस, ललकार, हुंकार और हाथों को रगड़ना, फटकारना, गर्दन का झटकना तो जो है सो है. हिंदी और अंग्रेज़ी के चैनलों के स्वनामधन्य एंकरों को आप सेनापतियों की तरह देखने लगें तो क्या अचरज. और फिर समूचे टीवी स्क्रीन पर बड़े बड़े टाइप साइज़ में कुछ शब्द- अपनी गरिमा, सामर्थ्य और आत्मा से वंचित और चीखते हुए वॉयसओवर, लुढकते हुए बहुत सारे भारी पत्थर, बोल्डर. दर्शकों को और विचलित और असहाय और स्तब्ध करते हुए.

इस तरह रात आठ बजे से दस बजे के दरम्यान आप देखते हैं कि ये कुश्ती स्पर्धा इतनी रेगुलर हो गई है कि कई बार स्टूडियो गेस्ट की राय से ऑडियंस पहले ही वाकिफ रहती है. ऐंकर का भी लक्ष्य यही जान पड़ता है कि उसे मेहमानों को लड़ाना है और अंततः सबको धूल धूसरित करते हुए सब पर और सारे तर्कों पर विजय पानी है. इससे होता क्या है. कोई गंभीर मुद्दा इस अतिनाटकीयता और इस करीब करीब हिंसा के हवाले हो जाता है. बहसें दर्शकों को आखिरकार ठगा सा बनाकर अगले कार्यक्रम को रवाना होने के लिए ब्रेक ले लेती हैं.

rajnish manga
01-09-2013, 11:45 AM
टीवी ने लगता है अपना मजाक बना दिया है. लोग अपना मनोरंजन करते हैं और क्रिकेट की तरह इन प्रस्तुतियों का लुत्फ उठाते जान पड़ते हैं, वाह क्या शॉट मारा क्या कैच पकड़ा क्या गेंद डाली की तर्ज पर वाह क्या बोला क्या डांटा क्या घेरा क्या बोलती बंद कर दी. इन बहसों का काम था कि समाचार का विश्लेषण करना उसके कई पहलुओं पर गंभीर परिचर्चा कराना लेकिन ये तो उसकी जगह ही लेने पर आमादा हैं. आज आप प्राइम टाइम में विस्तृत गहन शोधपरक रिपोर्टे नहीं देखते, इंवेस्टीगेशन नहीं देखते. आप देखते हैं कि एक “अखंड कीर्तन” सा वहां चल रहा है जिसे वे न जाने किन किन नामों से अलंकृत करते हैं. कम खर्च में ज्यादा इस्तेमाल. खबरें जुटाने में खर्च लगता है तो जुटाना ही रोक दो या जुटाने के लिए जुगाड़ करो-स्ट्रिंगर रखो. फुलटाइम स्किल्ड रिपोर्टर की क्या जरूरत. ऐसे स्ट्रिंगर आपको छोटे बड़े शहरो में मिल जाएंगें जिनका होटल कारोबार है, टैक्सी सर्विस है, बिल्डर, प्रॉपर्टी डीलर हैं यानी दबदबे वाले लोग और पत्रकारिता तो जैसे एक दोयम काम है जो कुछ और करते हुए भी किया जा सकता है. होलटाइमर आप मुनाफे का बनिए.

देश के अधिकांश चैनलों के और भी काम कारोबार हैं. रिटेल और थोक से लेकर रियल इस्टेट और चिट फंड तक. इस तरह की मीडिया ओनरशिप्स और हिस्सेदारियों में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो ऑब्जेक्टिविटी कैसे हासिल होगी जो पत्रकारिता का बुनियादी मूल्य है और पहरेदारी यानी गेटकीपिंग का क्या हश्र होगा जो एक पत्रकार का बुनियादी दायित्व समझा जाता है. आखिर में सवाल ये बचता है जो असल में एक बड़ी चिंता का ही एक्सटेंशन है कि इस किस्म की टीवी पत्रकारिता क्यों. क्या दर्शक हंसी और हैरानी में ही रहेंगे. जब सब कुछ असहनीय हो जाएगा तो वे कैसे रिएक्ट करेंगे. क्या वे मानेंगे कि उनके साथ बहुत धोखा हुआ है.

प्रस्तुति: शिवप्रसाद जोशी / निखिल रंजन

internetpremi
01-09-2013, 04:10 PM
भाईसाहब, हम तो आजकल टी वी देखते ही नहीं।
ऊब चुका हूँ।
My Hindi Forum और अन्य मंचों से मनोरंजन/समाचार/ज्ञान की सभी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं।
देर शाम प्रसारित टी वी सीरियल बहुत उपयोगी साबित हो रहे है!
वह इसलिए कि पत्नि इन सीरियलों को देखती हैं और हमे घंटे दो घंटे का समय मिल जाता है, बिना ब्रेक का, अपना इंटर्नेट भ्रमण का शौक पूरा करने के लिए।

dipu
01-09-2013, 07:03 PM
बढ़िया आर्टिकल है

rajnish manga
01-09-2013, 09:46 PM
भाईसाहब, हम तो आजकल टी वी देखते ही नहीं।
ऊब चुका हूँ।
my hindi forum और अन्य मंचों से मनोरंजन/समाचार/ज्ञान की सभी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं।
देर शाम प्रसारित टी वी सीरियल बहुत उपयोगी साबित हो रहे है!
वह इसलिए कि पत्नि इन सीरियलों को देखती हैं और हमे घंटे दो घंटे का समय मिल जाता है, बिना ब्रेक का, अपना इंटर्नेट भ्रमण का शौक पूरा करने के लिए।


टी वी कार्यक्रमों में आपकी विरक्ति और आपकी श्रीमती जी की अनुरक्ति का आप दोनों को परस्पर लाभ प्राप्त हो रहा है, यह जान कर बहुत प्रसन्नता हुई. आप भाग्यशाली हैं कि इस माध्यम से आप इंटरनेट भ्रमण हेतु अवसर भी निकाल लेते हैं.



बढ़िया आर्टिकल है



आलेख पसंद करने के लिए धन्यवाद, दीपू जी.

ndhebar
01-09-2013, 11:24 PM
मैं तो समाचार चैनल को मनोरंजन की तरह ही देखता हूँ
they're best for entertainment......

internetpremi
02-09-2013, 10:55 AM
एक जमाना था जब घर में एक ही टी वी सेट होता था, और वह भी ब्लैक & व्हाईट और दूरदर्शन का एक ही चैनल प्रसारित होता था और परिवार के सभी सदस्य एक साथ ड्रॉइन्ग रूम में बैठे उसका आनन्द लेते थे. कभी कभी पडोसी भी शामिल होते थे, जब उनके घर टी वी सेट नहीं होता था। टी वी चलाने के लिए रिमोट भी नहीं होता था। रविवर को सुबह नौ से दस तक सडकें खाली रहती थीं, जब रामायण का प्रसारण चलता था।

कहाँ गए वो दिन? पुराने टी वी सीरियल हम लोग, बुनियाद, आज भी याद आती हैं। पर आज टी वी को सचमुच idiot box मानने लगा हूँ। आजकल अखबार भी पढा नहीं जाता। बस सुबह सुबह औपचारिकता पूरी करने के लिए, चाय पीते वक्त, उस पर झाँकता हूँ।
समाचार से पहले ही परिचित हूँ। पाँच या दस मिनट में अखबार के सभी पन्नों को निपटा लेता हूँ।
एक लैपटॉप ही है, जिस के साथ यदि सारा दिन भी बैठूँ तो बोर नहीं होता।

Dr.Shree Vijay
17-09-2013, 07:20 PM
पैसा बोलता हें.........

everdeenkatniss257
19-11-2015, 12:08 PM
Thats all reply are great. I really read all this.