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ग़ज़ल
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जबसे तेरा ये प्यार पाया है
दिल ने असली करार पाया है
जाने कैसा सूरूर है छाया
जबसे तेरा दीदार पाया है
जिन्दगी जैसे खिल गई मेरी
जबसे बाहोँ का हार पाया है
जब भी रहता वो दूर नज़रोँ से
मैनै खुद को बीमार पाया है
पहला कहते हैँ प्यार हम जिसको
बोलो कोई बिसार पाया है
जो था सपना वो आजकल देखो
मैने वो बार बार पाया है
दिल मेँ जबसे "आकाश" रहता वो
मैँने ग़म भी हजार पाया है
ग़ज़ल - आकाश महेशपुरी
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सोना ही महँगा नहीँ,
महँगे आलू प्याज ।
पर सबसे महँगा हुआ,
भाईचारा आज ।।
दोहा - आकाश महेशपुरी
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माँ को गया है भूल
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कहती थी जिसे फूल वो बन गया है शूल
बन गया है अधिकारी माँ को गया है भूल
उदर मे लहू से सीँचा जिसको
कहती थी जीवन का बागीचा जिसको
माँ के बिना चैन वो रहता नहीँ था
अब कितना बदल गया है माँ को माँ नहीँ कहता
बनाया जिसने काबिल उसे समझता है फिजूल-
बन गया है अधिकारी माँ को गया है भूल
सुन्दर है घर उसका कोहिनूँर की तरह
नाचते है घर वाले मस्त मयूर की तरह
चमकीले महल मेँ रोज धुलतीँ हैँ कुर्सियाँ
सुनता नहीँ है कोई बूढ़ी माँ की सिसकियाँ
माँ के सूखे चेहरे पे जम गयी है धूल-
बन गपा है अधिकारी माँ को गया है भूल
माँ के मधुर हृदय मेँ पड़ गये हैँ छाले
आँखोँ पे छा रहे संकट के बादल काले
अपने लाडले को आशीष खुशी का देकर
माँ करती है प्रार्थना ऐ खुदा मुझे उठा ले
माँ देना जानती है करती नहीँ वसूल-
बन गया है अधिकारी माँ को गया है भूल ।
रचना - आकाश महेशपुरी