aakashmaheshpuri@gmail.comकुण्डलिया - आकाश महेशपुरी
करते कर्म ग़रीब हैँ, सुबह-शाम, दिन-रात ।
फिर भी दुख हैँ भोगते, समझ न आती बात ।
समझ न आती बात भला वे ही क्योँ रोते ।
जो करते हैँ काम नहीँ जी भर के सोते ।
घर भी देते बेँच कर्ज ही भरते भरते ।
रहते है बेहाल काम ही करते करते ।।
रचना - आकाश महेशपुरी