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त्वचा कैंसर का कारण बनने वाले जीन की पहचान
लंदन ! एक नए शोध के माध्यम से शोधकर्ताओं ने उस जीन की पहचान करने का दावा किया है जिसके कारण जानलेवा त्वचा कैंसर होता है। ब्रिटेन स्थित ड्यूंडी विश्वविद्यालय, हार्वर्ड और कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से यह शोध किया है। ड्यूंडी विश्वविद्यालय की तरफ से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि कुटेनियस स्क्वामस सेल कार्सिनोमा (सीएससीसी) जानलेवा त्वचा कैंसर का प्रमुख कारक होता है। मेलानोमा और बैसल सेल कार्सिनोमा जैसे अन्य सामान्य त्वचा कैंसर के लिए जिम्मेदार जीन कैसे सीएससीसी में परिवर्तित हो जाते, अभी तक इसका पता नहीं चल सका था, लेकिन वैज्ञानिकों ने इस नए शोध के माध्यम से आपस में संबंधित उन दो जीनों का पता लगा लिया है जो सीएससीसी में परिवर्तित हो जाते हैं। जिन जीनों की पहचान की गई है उन्हें ‘एनओटीसीएच (नोच)’ के नाम से जाना जाता है। इस शोध का विस्तृत ब्यौरा प्रोसिडिंग्स ऑफ़ द नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज (पीएनएएस) नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। ड्यूंडी विश्वविद्यालय की ओर से इस शोध का नेतृत्व करने वाली प्रोफेसर इरीन लेह ने कहा, ‘‘जीनों का यह परिवर्तन त्वचा कैंसर का सामान्य कारक है और इससे जान का खतरा होता है।’’ |
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‘आक्यूपाय’ बना 2011 में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द
लॉस एंजिलिस ! भाषा के इस्तेमाल पर नजर रखने वाले एक समूह ने ‘आक्यूपाय’ को 2011 का सबसे ज्यादा प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द और ‘अरब स्प्रिंग’ को सबसे ज्यादा इस्तेमाल में लाया जाने वाला शब्दांश घोषित किया है । इसके अलावा ‘स्टीव जॉब’ को सबसे ज्यादा बोला जाने वाला नाम घोषित किया गया है । ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर (जीएलएम) ने अंग्रेजी भाषा के अपने वार्षिक सर्वेक्षण में कहा है कि ‘आॅक्यूपाय’ शब्द ‘आक्यूपाय मूवमेंट’ के चलते इतना ज्यादा लोकप्रिय हुआ है । इसके बाद ‘डैफिसिट’, ‘ड्रोन’ और ‘नॉन-वेज’ जैसे शब्दों को जगह मिली है । जीएलएम के अध्यक्ष पॉल जे जे पेबैक ने कहा, ‘‘हमारे चयन से दुनिया में इन दिनों चल रही राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता के बारे मे पता चलता है, जो विकसित देशों को खासा प्रभावित कर रही है ।’’ सबसे ज्यादा प्रयोग में लाए जाने वाले शब्दांशों की सूची में ‘अरब स्प्रिंग’ के बाद ‘रॉयल वेडिंग’, ‘क्लाइमेट चेंज’, ‘द ग्रेट रिसेशन’ और ‘तहरीर स्क्वायर’ को जगह मिली है । ‘स्टीव जॉब’ के बाद सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए गए नामों की सूची में ‘ओसामा बिन लादेन’, ‘सील टीम’, ‘फुकुशिमा’, ‘हू जिंताओ’, ‘केट मिडलटन’, ‘मुअम्मर कज्जाफी’ और ‘बराक ओबामा’ को जगह मिली है। |
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चीन में हर दिन 10,000 साथी छोड़ते हैं एक-दूसरे का साथ
बीजिंग ! चीन की उभरती हुई अर्थव्यवस्था ने भले ही दुनिया की नजरें अपनी ओर खीचीं हों, पर इसने देश के सामाजिक ताने-बाने पर अपना बुरा असर डालना शुरू कर दिया है । देश में लगभग 10,000 दंपति हर दिन अपने साथी का साथ छोड़ रहे हैं । ताजा आधिकारिक आंकड़ों में कहा गया है कि चीन में तलाक की दर चेतावनी देने की स्थिति में पहुंच गई है । देश में इस साल अब तक लगभग दो करोड़ 80 लाख लोग तलाक के लिए आवेदन दे चुके हैं । चीन के गृह मामलों के मंत्रालय के इस आंकड़े के मुताबिक, देश में रोज लगभग 10,000 लोग अपने जीवनसाथी से अलग हो रहे हैं । चीन में पिछले पांच साल में तलाक की दर हर साल लगभग सात फीसदी की दर से बढी है । इनमें भी सबसे ज्यादा मामले बीजिंग और शंघाई जैसे शहरों में सामने आ रहे हैं । चाइना डेली ने पेकिंग विश्वविद्यालय के विधि प्राध्यापक मा यिनान के हवाले से कहा है कि चीन के बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और आधुनिक रूप में बदलाव के कारण लोगों के जीने का तरीका बदला है, जिसमें शादी से जुड़े पहलू भी शामिल हैं । |
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मधुमेह मोजा डिफोप्रेव घटाएगा पैर काटने का खतरा
लंदन ! ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने मधुमेह के मरीजों के लिए एक विशेष प्रकार का मोजा डिजाइन करने का दावा किया है जिससे मरीज के पैर काटने का खतरा कम हो सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि डिफोप्रेव नामक यह मोजा पहनने से मधुमेह के मरीजों के पैरों की क्षतिग्रस्त त्वचा की मरम्मत और अल्सर की रोकथाम तेजी से होती है। आम तौर पर मधुमेह के मरीजों में यह समस्या इतनी अधिक बढ जाती है कि उनका पैर काटने का खतरा 60 फीसदी बढ जाता है। डिफोप्रेव की कीमत करीब 1.50 पाउंड है और नमी बढाने वाले प्रोटीन से तैयार किया गया है। यह प्रोटीन अंटार्कटिका के कीचड़ में खोजा गया था। डेली मेल में प्रकाशित खबर में कहा गया है कि मोजे के लिए प्रयुक्त धागों में जलीय गुण वाले इस प्रोटीन को मिलाया गया है। यह प्रोटीन बाद में पैर के उतकों में धीरे धीरे प्रविष्ट हो जाता है। डिफोप्रेव की यह संरचना सुनिश्चित करती है कि पैरों में 12 घंटे तक नमी बनी रहे। एक मोजा तीन दिन तक चलता है। इसे आपूर्ति के लिए विशेष प्रकार के ऐसे तत्वों वाले कैप्सूल में रखा जाएगा जो नमी बढाते हैं। |
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कुंवारों से ज्यादा शादीशुदा कह रहे हैं जिंदगी को अलविदा
इंदौर। इसे भारतीय परिवारों में लगातार घटती व्यक्तिगत सहनशीलता की डरावनी नजीर कह लीजिए या ‘सात जन्मों के बंधन’ में भावनात्मक गरमाहट के टोटे का जीता-जागता सबूत, लेकिन देश में कुंवारों की तुलना में शादीशुदा लोगों में जिंदगी से हार मानकर खुदकुशी की प्रवृत्ति ज्यादा बनी हुई है। वर्ष 2010 के दौरान आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों पर वैवाहिक स्थिति के हिसाब से नजर डाली जाए तो पता चलता है कि पिछले साल अपनी जीवन लीला का खुद अंत करने वालों में 69.2 फीसद विवाहित थे, जबकि 22.8 प्रतिशत शादी के बंधन में नहीं बंधे थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2010 में देश में आत्महत्या के कुल 1,34,599 मामले दर्ज किए गए थे। पिछले साल 61,453 शादीशुदा पुरूषों ने जान दी, जबकि 31,754 विवाहिताओं ने आत्महत्या का कदम उठाया। 2010 में खुदकुशी करने वाले कुंवारे पुरूषों की संख्या 19,702 थी। वहीं शादी के बंधन में नहीं बंधने वाली 11,108 महिलाओं ने मौत को गले लगाया। इस साल आत्महत्या का कदम उठाने वाले लोगों में 3.8 प्रतिशत विधुर या विधवा के दर्जे वाले थे। खुदकुशी करने वालों में चार प्रतिशत लोग या तो तलाकशुदा थे या किसी वजह से अपने जीवन साथी से अलग रह रहे थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल खुदकुशी के मामलो में पुरूष-स्त्री अनुपात 65:35 था, यानी जान देने वाले हर सौ लोगों में 65 पुरूष और 35 महिलाएं थी। आंखें खोलने वाले आंकड़े आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2010 में आत्महत्या करने वाले हर पांच लोगों में से एक गृहिणी थी। नामी मनोचिकित्सक दीपक मंशारमानी आत्महत्या पर एनसीआरबी के आंकड़ों को ‘आंखें खोल देने वाले’ बताते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज के ताने-बाने में बड़े बदलावों और परवरिश की गलतियों के कारण व्यक्तिगत सहनशीलता लगातार कम होती जा रही है। इससे विवाह नाम की संस्था भी कमजोर हो रही है। कुंवारों के मुकाबले विवाहितों में जान देने की प्रवृत्ति ज्यादा होना स्पष्ट करता है कि वैवाहिक रिश्तों में अब पहले जैसी भावनात्मक उष्मा नहीं रही है और ‘सात जन्मों का बंधन’ मजबूत सहारे के बजाय किसी ‘पेशेवर भागीदारी’ की तासीर अख्तियार करता जा रहा है। ‘शादियां तब ही लम्बे समय तक चल सकती हैं, जब पति-पत्नी एक दूसरे की कमियों को कबूल करते हुए आपस में पूरक बनें।’ एनसीआरबी की रिपोर्ट आत्महत्या के मनोविज्ञान पर रोशनी डालते हुए बताती है कि आमतौर पर सामाजिक और आर्थिक कारण पुरूषों को आत्महत्या के लिए उकसाते हैं, जबकि महिलाएं खासकर भावनात्मक और निजी वजहों से खुद अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती हैं। 2010 में आत्महत्या के कुल 1,34,599 मामलों में सर्वाधिक 23.7 प्रतिशत लोगों ने पारिवारिक कारणों से जान देने का फैसला किया, जबकि बीमारी से तंग आकर 21 प्रतिशत लोगों ने मौत को गले लगाया। |
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कम कपड़े पहनना यानी कम योग्य होने की निशानी ... :giggle:
वाशिंगटन ! अगर अपको लगता है कि बदन पर कम कपड़े आपको आकर्षक बनाते हैं तो इस अध्ययन पर जरा गौर फरमाइए जिसमें दावा किया गया है कि अंग प्रदर्शन करने वाले लोग कपड़ों से ढके लोगों की तुलना में कम योग्य होते हैं। जर्नल आफ पर्सनालिटी एंड सोशल साइकॉलजी में प्रकाशित अध्ययन में हालांकि बताया गया है कि जरूरी नहीं कि अर्द्ध निर्वस्त्र लोग नासमझ ही हों लेकिन उन्हें अलग दिमाग वाला माना जाता है। अध्ययन दल के अगुवा कर्ट ग्रे के हवाले से लाइवसाइंस ने बताया, ‘‘हमारे अध्ययन का एक महत्वपूर्ण आयाम यह था कि पूर्व के अध्ययनों के उलट ये नतीजे पुरूष , स्त्री दोनों पर लागू होते हैं।’’ अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक, लोग मानते हैं कि अन्य व्यक्तियों के पास दिमाग के दो आयाम होते हैं : योजना बनाने, अमल करने और आत्म नियंत्रण की क्षमता जिसे ‘एजेंसी’ कहा जाता है और दूसरा महसूस करने की क्षमता जिसे ‘अनुभव’ कहते हैं। अपने अनुसंधान के लिए ग्रे और उनकी टीम ने महिला और पुरूषों पर छह प्रयोग किये । खोज में पाया गया कि इन लोगों ने माना कि जो व्यक्ति कपड़ों से कम ढके लोगों में ‘एजेंसी’ कम थी। |
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सच हुआ शकीरा का गीत ...:giggle:
नितंब झूठ नहीं बोलते ... लंदन ! आपके होंठ भले ही झूठ बोल दें लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि नितंब कभी झूठ बयां नहीं कर सकते । जी हां, आपके चलने की अदा आपके मिजाज, स्वास्थ्य और यहां तक कि आप झूठ बोल रहे हैं या नहीं, इस सब का भेद खोल सकती है। स्वानसी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसी खोज का दावा किया है कि व्यक्ति के चलने का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर यह बताया जा सकता है कि वह सच बोल रहा है या नहीं और उसकी भावनाओं का भी पता चल सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन सूक्ष्म चालों का उपयोग कर व्यक्ति के गिरने से पहले के आसार को भी भांपा जा सकता है। द संडे टेलीग्राफ के मुताबिक, अध्ययन दल के अगुवा प्रो. रॉरी विल्सन ने एक ऐसा यंत्र विकसित किया है जो हर सेकेंड 100 चालों को रिकॉर्ड कर सकता है । इसे बेल्ट मे लगा सकते हैं या टखने पर पहन सकते है। |
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पचास के दशक से अब तक पृथ्वी के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढोतरी
लंदन ! एक नए शोध का कहना है कि 1950 के दशक से अभी तक पृथ्वी के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। अपने शोध के लिए शोधकर्ताओं ने 1800 से वर्ष 2009 तक के आंकड़ों का अध्ययन किया है। यह शोध बेरकेली यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया के ‘बेरकेली अर्थ सरफेस टेम्परेचर्स प्रोजेक्ट (बीईएसटी)’ के विवादित भौतिक शास्त्री प्रोफेसर रिचर्ड मुल्लर के नेतृत्व में किया गया है। बीईएसटी का डाटा दुनिया भर के 15 स्रोतों से 19 वीं सदी के शुरू से रिकार्ड तापमान के 1.6 अरब आंकड़ों पर निर्भर हैं । उनके द्वारा धरती के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढोतरी इस मामले में आधिकारिक रिकार्ड रखने वाले दुनिया के सभी संस्थानों से मेल खाती है। डेली मेल की खबर के मुताबिक, इन संस्थानों में यूनिवर्सिटी आफ ईस्ट एंग्लिया, नासा का न्यूयॉर्क स्थित गोडार्ड इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस स्टडिज और अमेरिकी नेशनल ओसेनिक एण्ड एटमोसफियरिक एडमिनिस्ट्रेशन का मौसम विभाग शामिल हैं। |
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सौर प्रणाली में था पांचवा विशाल ग्रह ?
लंदन ! हमारे सौर प्रणाली में चार विशाल ग्रह - बृहस्पति, शनि, नेप्चून और यूरेनस हैं लेकिन खगोलविदों ने ऐसे सबूत मिलने का दावा किया है कि सौर मंडल में पांचवा विशाल ग्रह भी था जो रहस्यपूर्ण ढंग से गहरे अंतरिक्ष में खो गया । टेक्सास के सान अंटोनियो के साउथवेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पाया कि ऐसा लगभग नामूमकिन है कि सौर प्रणाली चार बड़े ग्रहों के साथ आस्तित्व में आई । वैज्ञानिकों ने अपनी गणना में पाया कि चार विशाल ग्रहों के साथ सौर मंडल के मौजूदा संख्या और कक्षीय आकार पाने की संभावना महज 2.5 फीसदी ही थी लेकिन पांचवे विशाल ग्रह होने से वर्तमान अवस्था के विकसित होने की संभावना 10 गुना बढ जाती है। अपनी गणना के लिए डेविड नेसवर्नी की अगुवाई में अनुसंधानकर्ताओं ने सौर मंडल के जन्म और धरती के विकास के 6,000 बनावटों का अध्ययन किया । |
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बृद्ध लोग ग्लोबल वार्मिंग में देते हैं कम योगदान
वाशिंगटन ! आपका बूढा होना पर्यावरण की सेहत के लिए लाभकारी हो सकता है । सेवानिवृत्ति के पड़ाव पर पहुंचे वयक्ति ग्लोबल वार्मिंग में कम योगदान देते हैं । वैज्ञानिकों ने अपनी खोज में पाया कि बुढे लोग अपने स्वास्थ्य पर ज्यादा समय खर्च करते हैं जिस वजह से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है । इसी कारण से ज्यादा उर्जा की खपत वाली वस्तुओं पर उनका खर्चा भी घट जाता है। जर्मनी में मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर डेमोग्राफिक रिसर्च के अनुसंधानकर्ता इमिलियो जाघेनी ने बताया, ‘‘कार्बन डाइ आक्साइड के उत्सर्जन में हम उम्र की संरचना के दीर्षकालिक असर को पाते हैं।’’ जाघेनी के हवाले से लाइवसाइंस ने कहा, ‘‘यह अध्ययन विशेष तौर पर अमेरिका के लिए है लेकिन यह चलन वैश्विक स्तर पर भी होने की संभावना है ।’’ अमेरिकी जनसंख्या की उम्र में बदलाव आ रहा है । पछली चार जनगणना में अमेरिकियों की जनसंख्या 65 साल से ज्यादा उम्र वाली श्रेणी में बढी है और विश्व स्तर पर भी इस श्रेणी की जनसंख्या में वृद्धि हुई है। |
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