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Dark Saint Alaick 05-12-2012 03:15 AM

Re: कुतुबनुमा
 
Quote:

Originally Posted by abhisays (Post 184640)
पहली बात तो मैं यह कहना चाहूँगा की क्या बड़ा निर्माता देश इसको कितने मिलियन डॉलर के निर्यात हुआ उससे मापा जाना चाहिए या कितने टन स्टील का निर्यात हुआ। ... तो इस इस्पात वाले डाटा में भी यही लग रहा है मुझे। कौन सबसे बड़ा निर्यातक है इसका फैसला इससे होने चाहिए की किसने कितने टन इस्पात निर्यात किया।

अभिषेकजी, टन में अगर देखें, तो इस्पात मंत्रालय के अनुसार भारत का इस्पात निर्यात 2007-08 में 5077000, 2008-09 में 4437000, 2009-10 में 3251000, 2010-11 में 3637000, 2011-12 में (अनुमान/संभावना) 4241000 टन है। अगर यह अनुमान सत्य सिद्ध हो जाता है, तो आप दूसरे स्थान पर आ जाएंगे, नहीं तो 2008 से 2010 तक का चौथा स्थान सुरक्षित है ही।

Dark Saint Alaick 14-12-2012 12:37 AM

Re: कुतुबनुमा
 
इस विकास के कोई मायने नहीं

पू रे देश में इस समय कहा जा रहा है कि देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बिहार प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। बिहार से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर यात्रा करने पर आपको कुछ ऐसा आभास हो भी सकता है। जो राजमार्ग दस वर्ष पूर्व तक गड्ढों का पर्याय बने रहते थे, आज उसी जगह पर ऊंची, चौड़ी, मजबूत व सुरक्षित काली चमकती हुई 4 लेन सडकें दिखाई दे रही हैं। कमोबेश यही हाल अंतर जिला सड़कों का भी है। शहरों में भी मजबूत सीमेंटड सड़कें व गलियां बन चुकी हैं। बिजली आपूर्ति भी पहले से बेहतर दिखाई दे रही है। आम लोगों का रहन-सहन, खान-पान, पहनावा तथा खरीदारी की क्षमता भी बेहतर दिखाई दे रही है। लड़कियां अब पहले से ज्यादा संख्या में स्कूल जाने लगी हैं, परंतु इसी बिहार के कथित विकास का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अब भी बिहार में गंदगी का वह साम्राज्य फैला हुआ है, जिसकी शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के किसी भी जिले में यहां तक कि राजधानी पटना में भी आप कहीं चले जाएं तो चारों ओर नालों व नालियों में कूड़े का ढेर देखने को मिलेगा। नालों व नालियों में गंदा पानी ठहरा रहता है। पान व खैनी-सुरती आदि खाने के शौकीन लोग वहां की सड़कों, इमारतों यहां तक कि सरकारी दफ्तरों, कोर्ट-कचहरी, पोस्ट आफिस जैसे भवनों की दीवारों को मुफ्त में रंगते रहते हैं। अफसोस की बात तो यह है कि जिन गंदे, बदबूदार व जाम पड़े नालों के पास आप एक पल के लिए खड़े भी नहीं होना चाहेंगे, उसी जगह पर बैठकर तमाम दुकानदार खुले हुए बर्तनों में खाने-पीने का सामान रखकर बेचते दिखाई दे जाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि गोया वहां का आम आदमी भी गंदगी से या तो परहेज से कतराता है या फिर उसे इस विषय पर पूरी तरह जागरूक नहीं किया गया है। पिछले दिनों मुझे दरभंगा जाने का अवसर मिला। वहां एक बीमार मित्र के लिए रक्तदान को मशहूर ललितनारायण मिश्रा मेडिकल कॉलेज पहुंचा। गंदगी, लापरवाही, कुप्रबंधन का जो खुला नजारा इस मेडिकल कॉलेज में देखने को मिला, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हॉस्पिटल के ओपीडी के मुख्य प्रवेश द्वार पर टोकरी में रखकर सामान बेचते औरतें व पुरुष दिखाई दिए। पूरे अस्पताल के चारों ओर ड्रेनेज सिस्टम बंद पड़ा हुआ था। जिस समय मेरा रक्त लिया जा रहा था, उस समय एक कर्मचारी अपने हाथों से ब्लड बैग को खुद अपने हाथ से हिला रहा था। मेरे पूछने पर पता लगा कि ब्लड बैग शेकिंग मशीन खराब है, इसलिए वह हाथ से ऐसा कर रहा है। बिहार के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज के अपने परिसर में गंदगी का यह आलम देख वहां के स्वास्थ्य विभाग से मेरा विश्वास ही उठ गया है। यहां बिहार के विकास को लेकर किसी बहस में पड़ने से कुछ हासिल नहीं कि वहां दिखाई दे रहे विकास का सेहरा केंद्र सरकार के सिर पर रखा जाए या फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसका श्रेय दिया जाए, परंतु जिस प्रकार नीतीश बिहार के विकास का सेहरा अपने सिर पर रखने के लिए लालायित दिखाई देते हैं तथा जिस प्रकार उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपए अपनी पीठ थपथपाने वाले पोस्टरों, बोर्डों, विज्ञापनों व अन्य प्रचार माध्यमों पर खर्च कर रखे हैं उन्हें देखकर विकास बाबू को यह सलाह तो देनी ही पड़ेगी कि आसमान की ओर देखने से पहले अपने नाकों तले फैली उस बेतहताशा जानलेवा गंदगी को साफ कराने की कोशिश तो कीजिए, जिस पर विकास की बुनियाद खड़ी होती है। लोगों को गंदगी से होने वाले खतरों से आगाह कराने की कोशिश करें। जब तक बिहार से गंदगी का खात्मा नहीं हो जाता, तब तक बिहार की विकास गाथा लिखे जाने का कोई महत्व नहीं।

Dark Saint Alaick 22-12-2012 11:13 PM

Re: कुतुबनुमा
 
भाषा सुधारने पर गौर करना ही होगा

मीडिया इन दिनों किस तरह बाजार के चंगुल में है, इसे वर्तमान पत्रों और चैनल्स की भाषा से समझा जा सकता है। अस्सी के दशक में देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। हिन्दी माध्यम के विद्यालयों ने भी अपने बोर्ड बदल कर उन पर अंग्रेजी माध्यम लिखवा दिया। आज 25 वर्ष बाद एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ गई है, जो न ठीक से हिन्दी जानती है, न अंग्रेज़ी। हिन्दी अंकावली तो प्राय: पूरी तरह से ही गायब हो गई है। इसी का नतीजा है कि इस पीढ़ी तक पहुंचने के लिए कई अखबारों ने अपनी भाषा में जबरन अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ करा दी है। कई तो शीर्षक में ही अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं। एक समय था, जब इन अखबारों के माध्यम से लोग अपनी भाषा सुधारते थे, पर अब वही मीडिया भाषा बिगाड़ने में लगा है। कई चैनल्स पर समाचारों तथा नीचे आने वाली लिखित पट्टी में हिन्दी के साथ जैसा दुर्व्यवहार होता है, उसे देखकर सिर पीटने की इच्छा होती है। स्पष्ट है कि मीडिया का उद्देश्य इस समय केवल पैसे कमाना हो गया है। पत्र-पत्रिकाओं से लेखक व साहित्यकारों को एक पहचान मिलती है। पहले कई अखबार नए और युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे, पर अब देखते हैं कि ये अखबार खास किस्म के लेखकों को ही स्थान देते हैं। अंग्रेजी लेखकों के अनुवादित लेख परोसने में भी अब हिन्दी के अखबार पीछे नहीं रहते । वे भूल जाते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले कम नहीं हैं, पर जब उद्देश्य केवल पैसा हो, तो इस ओर ध्यान कैसे जा सकता है ? इस बाजारवाद ने ही पेड न्यूज (विज्ञापन को समाचार की तरह छापने) के चलन को बढ़ाया है। चुनाव के समय यह प्रवृत्ति खास कर क्षेत्रीय चैनल्स व अखबारों में बहुत तीव्र हो जाती है। 100 लोगों की बैठक को विराट सभा बताना तथा विशाल सभा के समाचार को गायब कर देना, इसी कुप्रवृत्ति का अंग है। यद्यपि कुछ पत्रकारों और संस्थाओं ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई है, जो एक शुभ लक्षण है। मीडिया में समाचार और विचार दो अलग धारणाएं हैं। अखबारों में यदि संवाददाता या संपादक किसी समाचार के पक्ष या विपक्ष में कोई विचार देना चाहे, तो उसके लिए सम्पादकीय पृष्ठ का उपयोग होता है। कुछ पत्र इस नीति का पालन करते हैं, पर कई में इसका अभाव है। चैनल्स पर भी हम देखते हैं कि एंकर या संवाददाता अपने विचारों के अनुसार समाचार को तोड़-मरोड़ देता है। कई एंकर तो जानकारी देते समय वक्ताओं से सवाल पूछ-पूछ कर यहां तक हालत पैदा कर देते हैं कि वक्ता को कहना पड़ता है कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देंगे। इससे पत्रकारिता के तय सिद्धान्तों की विश्वसनीयता तो कम होती ही है, मीडिया की प्रतिष्ठा पर भी आंच आती है। खबरों को तोड़ मरोड़ कर पेश करना अथवा उसमें अपने विचारों का समावेश कर देना, तो लोकतंत्र और जनाकांक्षा दोनों के लिए ही हानिकारक हैं। मीडिया को इससे बचना चाहिए, साथ ही भाषा की प्रस्तुति में सुधार पर पूरा ध्यान देना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी में भाषागत ग़लतियां नहीं रहें।

Dark Saint Alaick 02-01-2013 03:10 AM

Re: कुतुबनुमा
 
बेहतर तकनीक से उपभोक्ता को फायदा

इंटरनेट के जरिए इन दिनो घर बैठे जरूरत का सारा सामान खरीदने का चलन जिस तरह से जोर पकड़ रहा है उससे यह लगने लगा है कि भारत के लोग भी तकनीक के बेहतर और हर सुलभ उपायों का बखूबी इस्तेमाल करने लगे हैं। जो जानकारियां सामने आ रही हैं उसके मुताबिक 2012 में ई-कॉमर्स कंपनियों ने भारत के घरेलू बाजार में इस कारोबार में जमकर व्यापार किया और उनकी आय 14 अरब डॉलर पहुंच गई। इससे एक बात यह भी साफ हो गई कि लगातार बढ़ती महंगाई का ई-कॉमर्स पोर्टल के कारोबार पर कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि इंटरनेट के जरिए सामान बेचने वाली कंपनियों ने विशेष छूट और पेशकश के जरिए ग्राहकों को लुभाए रखा। दरअसल देश में इंटरनेट का तेजी से बढ़ता दायरा एवं भुगतान के विकल्प बढ़ने से ई-कॉमर्स उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। ग्राहक भी इलेक्ट्रॉनिक सामानों के अलावा फैशन एवं जूलरी, रसोई के सामान और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में रुचि दिखा रहे हैं जिससे ई-कॉमर्स कारोबार में तेजी देखने को मिली। यह कारोबार हालांकि तेजी से अपने पांव पसार रहा है लेकिन उपभोक्ताओं को बेहद सावचेती के साथ उत्पाद की खरीददारी करनी चाहिए क्योंकि कुछ ऐसी कम्पनियां भी इस दौड़ में शामिल हो जाती हैं जो उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी कर सकती हैं। ऐसे में उपभोक्ता को पहले यह पता लगा लेना चाहिए कि वह जो उत्पाद ई-कॉमर्स कंपनियों से खरीद रहा है उसकी गुणवत्ता कितनी है और जिन कम्पनियों से वे उत्पाद करीद रहे हैं उनकी विश्वसनीयता कितनी है। वैसे जिस तरह से यह कारोबार अपने पांव पसार रहा है उसमें उतनी ही तेजी से प्रतिस्पर्धा भी बढ़ रही है और जहां प्रतिस्पर्धा बढ़ती है वहां फायदा उपभोक्ता को ही होता है। इसलिए ई-कॉमर्स कंपनियों के फर्जीवाड़े के अवसर भी कम हो जाते हैं। यही कारण है कि देश में ई-कॉमर्स के प्रति लोगों का रुझान लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

Dark Saint Alaick 03-01-2013 12:17 AM

Re: कुतुबनुमा
 
एक फैसले की ज़द में अनेक चेहरे

गुजरात की राज्यपाल द्वारा लोकायुक्त की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कांग्रेसी खेमे की ओर से आनन-फानन में अनेक पारंपरिक प्रतिक्रियाएं आ गईं, लेकिन तब तक शायद उन्हें यह पता नहीं था कि इस निर्णय ने भले ही मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाए हों, लेकिन खुद उनका दामन कुछ ज्यादा ही दागदार होकर उभरा है। उच्चतम न्यायालय ने लोकायुक्त के तौर पर न्यायाधीश (सेवानिवृत) आर.ए. मेहता की नियुक्ति को बरकरार रखा और उसके पीछे कारण यह बताया कि ‘इस मामले के तथ्यों से गुजरात राज्य की चिंताजनक स्थिति का पता चलता है, जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त था।’ साथ ही राज्यपाल कमला बेनीवाल की भूमिका पर भी यह कहते हुए अंगुली उठाई, राज्य सरकार से परामर्श के बगैर ही इस पद पर नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल ने ‘अपनी भूमिका का गलत आकलन’ किया। न्यायाधीशों ने कहा, ‘वर्तमान राज्यपाल ने अपनी भूमिका का गलत आकलन किया और उनकी दलील थी कि कानून के तहत लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मंत्री परिषद की कोई भूमिका नहीं है और इसलिए वह गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से परामर्श करके नियुक्ति कर सकती हैं। इस तरह का रवैया हमारे संविधान में परिकल्पित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नही है।’ न्यायाधीशों ने कहा, ‘राज्यपाल ने कानूनी राय के लिए अटार्नी जनरल से परामर्श किया और मंत्री परिषद को विश्वास में लिए बगैर ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सीधे पत्राचार किया। इस संबंध में उन्हें यह गलत सलाह दी गई थी कि वह राज्य के मुखिया के रूप में नहीं, बल्कि सांविधिक प्राधिकारी के रूप में काम कर सकती हैं।’ न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में तथ्यों से स्पष्ट है कि परामर्श की प्रक्रिया पूरी हो गई थी, क्योंकि मुख्यमंत्री को मुख्य न्यायाधीश के सारे पत्र मिल गए थे और ऐसी स्थिति में नियुक्ति को गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है। साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका को गलत माना, लेकिन नियुक्ति इसलिए रद्द नहीं की कि राज्य सरकार की ओर से नियुक्ति में रूचि नहीं दिखाई गई। साफ़ है कि कांग्रेस के लिए यह खुशी मनाने का अवसर तो कतई नही है, वह भी उस स्थिति में जब राजस्थान जैसे उसके द्वारा शासित अनेक राज्यों में भी अब तक लोकायुक्त नियुक्त नहीं किए गए हैं, जबकि वहां दोबारा चुनाव सर पर हैं यानी वहां कांग्रेस लोकायुक्त के बिना लगभग पूरा शासन काल गुज़ार चुकी है। (गौरतलब यह भी है कि गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल राजस्थान की ही हैं और भाजपा के नेता सौमय्या दो बार राजधानी जयपुर जाकर उन पर भूमि खरीद में धांधली के आरोप लगा चुके हैं और यह दावा कर चुके हैं कि लोकायुक्त नहीं होने के कारण ही मामले की जांच की मांग रद्दी की टोकरी के हवाले कर दी गई है।) ऎसी स्थिति में देर सवेर उसके भी कुछ मुख्यमंत्री ऎसी ही स्थिति में फंस सकते हैं, तब शायद कांग्रेस का मासूम जवाब उसकी परंपरा के अनुसार यह होगा- हम अदालतों का सम्मान करते हैं, अतः उनके निर्णयों पर कोई टिप्पणी नहीं करते।

Dark Saint Alaick 04-01-2013 09:25 PM

Re: कुतुबनुमा
 
जरदारी के कदम को लेकर अटकलें

पाकिस्तानी के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने से गृह मंत्री रहमान मलिक को क्यों रोक दिया इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। पाकिस्तान के उर्दू अखबार ‘डेली एक्सप्रेस’ ने जो जानकारी हाल ही में दी है उसके अनुसार जरदारी ने बेनजीर की पांचवीं पुण्यतिथि पर पिछले सप्ताह सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की केंद्रीय कार्यकारी समिति की बैठक में मलिक को रिपोर्ट जारी करने से रोक दिया। जरदारी के इस कदम पर शंका और बढ़ जाती है क्योंकि यह घटनाक्रम ऐसे समय हुआ है जब जरदारी और मलिक के बीच मतभेद बढ़ने की खबरें भी पिछले काफी दिनो से मिल रही हैं। उल्लेखनीय है कि मलिक ने इससे पहले मीडिया को रिपोर्ट जारी करने के अपने इरादे से अवगत कराया था। बेनजीर की एक आत्मघाती हमलावर ने रावलपिंडी में 27 दिसम्बर 2007 को उस समय हत्या कर दी थी, जब वह एक चुनावी रैली को संबोधित करने के बाद जा रही थीं। खबर तो यह भी है कि पिछले दिनों से मलिक ने संघीय जांच एजेंसी दल के उन सदस्यों एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की थी जो भुट्टो की हत्या की जांच कर रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों पृष्ठों वाली रिपोर्ट के प्रकाशन के कार्य की स्वयं समीक्षा भी की ती। लेकिन अब जरदारी ने यह रिपोर्ट जारी करने से मलिक को क्यों रोका इसको लेकर अटकलें काफी बढ़ गई हैं। दरअसर पाकिस्तान में अंदरूनी सत्ता संघर्ष कोई नई बात नहीं है और वाद विवाद की खबरें भी अकसर सामने आती रहती हैं। ऐसे में जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से रोकने का जरदारी का कदम कई सवाल पैदा कर रहा है। आखिर ऐसे कौन से कारण या तथ्य हैं जिन्हे जरदारी लोगों के सामने लाने से कतरा रहे हैं। मलिक ने तो रिपोर्ट की प्रतियां पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं और पत्रकारों के बीच बांटने की भी योजना बनाई थी। हो सकता है आने वाले समय में इस कदम का खुलासा हो।

Dark Saint Alaick 08-01-2013 12:02 AM

Re: कुतुबनुमा
 
अपराधों पर लगाम के नायाब सुझाव

बढ़ते अपराधों पर लगाम के लिए हाल ही में दो नायाब सुझाव सामने आए हैं जिस पर अमल हो तो ना केवल अपराध कम होंगे बल्कि अपराधियों के मन में भी खौफ पैदा होगा। एक सुझाव केन्द्रीय गृह सचिव आर.के.सिंह ने दिया है जिसमें उन्होने कहा है कि अगर कोई पुलिसकर्मी शिकायत दर्ज करने से इन्कार करता है, तो उसे तत्काल निलंबित किया जाना चाहिए। इसमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। शिकायत दर्ज नहीं करना कानून का उल्लंघन है। दरअसल सिंह ने यह सुझाव इसलिए दिया है कि लोगों को थाने में शिकायत दर्ज कराने से लेकर अपनी शिकायत पर हुई कार्रवाई का पता लगाने तक कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस व्यवस्था को यदि हम बदल दें तो लोगों को थाने तक जाने में होने वाली हिचकिचाहट दूर हो जाए। ऐसा माहौल होना चाहिए जिसमें महिलाएं एवं कमजोर तबकों के लोग बिना किसी कठिनाई के अपनी शिकायत थाने में दर्ज करा सकें। छेड़छाड़ जैसी घटनाओं की जानकारी पुलिस तक पहुंचाने में आने वाली मुश्किलों के कारण ही कई लोग थाने जाने से हिचकते हैं और अगर पहुंच भी जाते हैं तो रिपोर्ट दर्ज करवाने में उन्हे टालमटोल का सामना करना पड़ता है। इसलिए गृह सचिव का यह सुझाव सटीक है कि जो पुलिसकर्मी शिकायत दर्ज करने से इन्कार करता है तो उसे निलंबित किया जाना चाहिए। ऐसा ही एक अन्य सुझाव पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया ने दिया है और कहा है कि जरूरी नहीं कि अपराध रोकने के लिए अपराधी को कठोर सजा ही हो। होना यह चाहिए कि अपराधी को सजा निश्चित तौर पर हो इसका प्रावधान होना चाहिए तभी अपराधियों में नैतिक भय पैदा होगा। छूट की भावना के कारण छेड़छाड़ करने वाला दुष्कर्म की वारदात तक पहुंच जाता है। सरकार को इन दोनो सुझावों पर गौर करना चाहिए ताकि देश में अपराधों में कमी हो सके।

Dark Saint Alaick 13-01-2013 12:53 AM

Re: कुतुबनुमा
 
मध्य प्रदेश में रसूख वालों का बढ़ता दबदबा

मध्य प्रदेश में नियमो को ताक पर रख कर सरकारी काम किस तरह से किए जा रहे हैं, इसका एक नमूना हाल ही में सामने आया है। जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार तमाम नियमों को दरकिनार कर महज एक चिट्ठी पर सरकार के एक विभाग ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के असेसमेंट का कार्य एक एनजीओ को दे दिया गया। वह भी तब जबकि राज्य योजना आयोग इस एनजीओ को असेसमेंट काम के लिए अयोग्य करार दे चुका था। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि महिला चेतना मंच नामक जिस एनजीओ को यह काम दिया गया है वह राज्य की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच का है। मंच ने 11 मार्च 2010 को ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन अपर मुख्य सचिव आर.परशुराम को एक चिठ्ठी लिखकर मनरेगा में इम्पैक्ट असेसमेंट स्टडी करने का प्रस्ताव दिया था। इसके बाद वित्तीय नियमों की अनदेखी करके 10 दिसंबर 2010 को राज्य रोजगार गारंटी परिषद की कार्यकारिणी ने असेसमेंट का काम महिला चेतना मंच को दे दिया। इसके लिए करीब 25 लाख रूपए देना तय हुआ। यह काम देने में न कोई विज्ञापन हुआ और न कोई टेंडर किए गए। यह भी नहीं देखा गया कि महिला चेतना मंच असेसमेंट की क्षमता रखता है या नहीं। पंचायत एवं ग्रामीण विकास की विजिलेंस एंड मानीटरिंग कमेटी के सदस्य तथा संस्था प्रयत्न के अजय दुबे ने इस मामले में 29 जून 2011 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर शिकायत भी की थी। इसके बावजूद कुछ नहीं हुआ तो गत वर्ष फरवरी में लोकायुक्त को भी इसकी शिकायत की गई। इस पर राज्य रोजगार गारंटी परिषद ने मामले में लीपापोती कर दी। मुख्य सचिव ने मामले में जांच कराने के लिखा तो परिषद ने अब सब कुछ नियमानुसार होने की रिपोर्ट बनाकर मुख्य सचिव को भेज दी। याने कहा जा सकता है कि राज्य में रसूख वाले लोगों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और राज्य सरकार मौन है।

Dark Saint Alaick 13-01-2013 12:53 AM

Re: कुतुबनुमा
 
भटकाव पर गौर करना ही होगा

पत्रकारिता की अपनी एक संस्कृति है। खासकर भारत के संदर्भ में पत्रकारिता जन जागरण का मानो एक अनुष्ठान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ और इसके चलते देशभक्ति,जन जागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आए और आज बाजारवादी शक्तियों का प्रभाव इस माध्यम पर इस कदर देखा जा रहा है कि लगता है मीडिया अपने मूल उद्देश्यों से निरन्तर भटकता जा रहा है। प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया में यह बदलाव क्यों आया उस पर तो हमें गौर करना ही चाहिए साथ ही, हमें मौजूदा समय में उसकी भूमिका पर भी विचार करना ही होगा। हमें तय करना होगा कि किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। साहित्य हो या मीडिया दोनों का काम है जन मंगल के लिए काम करना। राजनीति का भी यही काम है। जन मंगल हम सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब जन हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। लोग हमारे संस्कारों का प्रवक्ता होते हैं। वह हमें बताते हैं कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं है। जन मानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल अब जिस ताकत के रूप में उभर रहा है उससे तो लगता है कि वह उच्च वर्ग की वाणी बन रहा है जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। जाहिर तौर पर समय के प्रवाह में समाज के हर क्षेत्र में कुछ गिरावट दिख रही है किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोगों का प्रवक्ता होना चाहिए पर वह इससे भटकता जा रहा है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार करें। लोगों से बेहतर संवाद से ही बेहतर समाज का निर्माण हो सकता है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज खासकर दृश्य मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है उससे लोगों से बेहतर संवाद कायम नहीं होता बल्कि इससे तो लगता है कि वह लोगों से दूर ही हो रहा है और बाजार ही सारे मूल्य तय कर रहा है। ऐसे में तो यही समझ में आता है कि छवि में लगातार हो रही गिरावट पर गौर करने का मीडिया के पास समय ही नहीं है। मीडिया को अब सावचेत हो ही जाना चाहिए। साथ ही समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों,साहित्यकारों को भी आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोगों की उपेक्षा कर केवल बाजार आधारित प्रस्तुति से तो लगता है कि मीडिया अपनी पूर्व की विरासत को ही गंवा रहा है जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। इसे बचाने, संरक्षित करने और इसके विकास के लिए मीडिया को समाज को साथ लेकर आगे आना होगा तभी मीडिया अपनी भूमिका को सही ढंग से निभा पाएगा। मीडिया अगर पत्रकारिता क्षेत्र में महात्मा गांधी के योगदान को याद रखे तो तय है उसका भटकाव हो ही नहीं सकता।

Dark Saint Alaick 04-02-2013 12:02 AM

Re: कुतुबनुमा
 
ममता के लिए खड़ी हो रही चुनौती

तृणमूल कांग्रेस के हलकों में विपक्षी वाम मोर्चा के फिर से मजबूत होने को लेकर उतनी चिंता नहीं है, जितनी चिंता अलग प्रदेश की मांग को लेकर गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा द्वारा पेश की चुनौती से है। मोर्चा ने गोरखालैंड की मांग को लेकर फिर से आंदोलन तेज करने की योजना बनाई है। गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेताओं में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी ही छवि देखती हैं। बिमल गुरुंग और रोशन गिरी जैसे गोरखा ममता बनर्जी की तरह ही अड़ियल और जिद्दी हैं, जो अपनी मांगों को मनवा कर ही दम लेते हैं। वे ममता की तरह ही कहते हैं कि उनकी मांगों को बिल्कुल उसी तरह पूरा किया जाए जैसा वे चाहते हैं। आज गठबंधन राजनीति के तहत आम सहमति द्वारा राजनीतिक निर्णय पर आने का माहौल बन रहा है, लेकिन ममता बनर्जी और गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता किसी प्रकार के बीच का रास्ता अपनाने में विश्वास नहीं रखते। ममता बनर्जी के अपनी बात पर अड़े रहने के कारण ही सिंगुर से आखिर टाटा प्रोजेक्ट को हटना पड़ा था। नंदीग्राम में भी उसी तरह का हिंसक आंदोलन चलाया गया था। इन आंदोलनों के बाद तृणमूल कांग्रेस ने 34 साल से सरकार चला रहे वामदलों को पराजित कर सत्ता से बाहर कर दिया। तृणमूल नेताओं ने यह कहने में तनिक भी देर नहीं लगाई कि उन दोनों आंदोलनों के कारण ही उनकी जीत हुई। उनके दावों पर बहस की जा सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि सिंगूर आज भी एक पिछड़ा हुआ ग्रामीण इलाका बना हुआ है और नंदीग्राम तो अभी मध्य युग में पड़ा दिखाई दे रहा है। इससे भी भयानक बात यह है कि इन घटनाओं के कारण पश्चिम बंगाल का निवेश माहौल बुरी तरह खराब हो गया है। इसका एक उदाहरण हल्दिया में 25 करोड़ रुपया खर्च कर किया गया वह सरकारी आयोजन था, जो एक भी निवेश प्रस्ताव को आकर्षित नहीं कर पाया। क्या ममता बनर्जी को इस बात का गम है कि उनकी पार्टी के कारण पश्चिम बंगाल के कारण बुरा हाल हुआ है? बिल्कुल नहीं। टाटा द्वारा सिंगूर छोड़ने के कुछ ही घंटों के अंदर उन्होंने कहा कि हमने जो कुछ भी किया, उस पर हमें गर्व है और यदि ऐसी स्थिति पैदा हुई, तो हम इसे फिर दुहराना चाहेंगे। अब उत्तरी बंगाल का भविष्य दाव पर लगा हुआ है। वहां गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता ममता बनर्जी जैसा ही अड़ियल रुख अपना रहे हैं। दार्जिलिंग में एक दशक से भी ज्यादा समय तक होने वाले हिंसक आंदोलनों के कारण वहां से ट्रैफिक की दिशा को बदलकर सिक्किम की तरफ मोड़ दिया गया है। इस खराब दशा से बेपरवाह गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता कहते हैं कि आजादी की कीमत हमेशा चुकानी पड़ती है और इसके लिए चुकाई गई कोई भी कीमत कम है। उनके इस बयानों से किसी को आश्चर्य नहीं होता। एक बार तो इस मोर्चा के पूर्ववर्ती गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता ने तो एक अलग देश के निर्माण की मांग तक कर दी थी और उसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को चिट्ठी तक लिख डाली थी। कांग्रेस के नेता अरूणवा घोष का कहना है कि ममता बनर्जी की राजनीतिक शैली अपने कमजोर दिख रहे राजनीतिक विरोधियों को समाप्त कर देने की है। यही कारण है कि उन्होंने कमजोर हो रहे एक मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य द्वारा बुलाई गई एक सर्वदलीय बैठक में शामिल होने से मना कर दिया था। दूसरी तरफ उन्होंने गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा और माओवादियों से चुपके से दोस्ती कर ली, क्योंकि वे वाम मोर्चा के खिलाफ थे। गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा ने भी तृणमूल को अच्छी तरह समझ लिया है। जाहिर है आने वाले दिनों में गोरखा समस्या ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।


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