Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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बिमल कृष्ण 'अश्क'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397578 जिला गुडगाँव की छोटी सी जगह भान्गरोला में 1924 के किसी रोज़ पैदा हुए बिमल कृष्ण 'अश्क' उर्दू साहित्य संसार में एक जाना-पहचाना नाम हैं ! नए बिम्ब विधान और नए प्रतीकों की बदौलत 'अश्क' ने ग़ज़ल को नई ऊंचाइयां तो अता की हीं, यथार्थ चित्रण के कई प्रयोग भी किए ! दरअसल उनकी समूची शायरी में वर्तमान की धडकनें हैं, तिस पर भी वह सार्वजनीन और सर्वकालिक भी है ! यही 'अश्क के सृजन की वह बड़ी खूबी है, जो उन्हें एक महान शायर बनाती है ! डूब गए हो देख के जिनमें ठहरा, गहरा, नीला पानी आंख झपकते मर जाएगा 'अश्क' उन्हीं आंखों का पानी तू, मैं, फूल, सितारा, मोती सब उस दरिया की मौजें जैसा - जैसा बर्तन, वैसा - वैसा भेष बदलता पानी बारह मास हरी टहनी पर पीले फूल खिला करते हैं दुख के पौदे को लगता है जाने किस दरिया का पानी बीती उम्र सरहाना सींचे, आंखें रोती हैं कन्नियों को दुख का सूरज पीकर डूबा दोनों दरियाओं का पानी चौखट-चौखट आंगन-आंगन, खट्टी छाछ, कसैला मक्खन गांव के हर घर में दर आया बस्ती का मटमैला पानी तन का लोभी क्या जाने, तन-मन का दुख दोनों तीरथ हैं पाक-बदन काशी की मिट्टी, आंसू गंगा मां का पानी __________________________________ अश्क : आंसू, किन्तु यहां यह इस शे'र की विशेषता है कि शायर ने अपने तखल्लुस का इस प्रकार उपयोग किया है, मौजें : लहरें, दर आया : आ गया, पाक-बदन : पवित्र शरीर |
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'रिफ़अत' सरोश
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397795 बिजनौर के पास स्थित एक छोटे से स्थान नगीना में 1926 के किसी रोज जन्मे 'रिफ़अत' सरोश का वास्तविक नाम है सैयद शौकत अली, जिसे उन्होंने शायरी के लिए बदल लिया ! 'रिफ़अत' की शायरी उर्दू ग़ज़ल के रिवायती (पारम्परिक) खाके की दहलीज़ पर खड़े होकर नए ज़माने को देखती है, उसकी बात करती है ! यही कारण है कि 'रिफ़अत' कठिन शब्दों से बचते हैं और आम जन की बात आमफ़हम अल्फाज़ में ही करते हैं ! यही उनकी शायरी की एक बड़ी ताकत भी है ! अपने घर, अपनी धरती की आस लिए, बू-बास लिए जंगल-जंगल घूम रहा हूं, जनम-जनम की प्यास लिए जितने मोती, कंकर और खज़फ़ थे अपने पास लिए मैं अनजान सफ़र पर निकला, मधुर मिलन की आस लिए कच्ची गागर फूट न जाए, नाज़ुक शीशा टूट न जाए जीवन की पगडंडी पर चलता हूं ये एहसास लिए वो नन्ही सी ख़्वाहिश अब भी दिल को जलाए रखती है जिसके त्याग की खातिर मैंने कितने ही बनबास लिए सोच रही है कैसे आशाओं का निशेमन बनता है मन की चिड़िया, तन के द्वारे बैठी चोंच में घास लिए जब परबत पर बर्फ गिरेगी सब पंछी उड़ जाएंगे झील किनारे जा बैठेंगे, इक अनजानी प्यास लिए छोड़ के संघर्षों के झंझट, तोड़ के आशा के रिश्ते गौतम बरगद के साये में बैठा है संन्यास लिए _____________________________ खज़फ़ : कंकरिया, निशेमन : घोंसला |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बहुत ही उम्दा ग़ज़लें है, बार बार पढने और सहेज कर रखने वाली गजलें प्रस्तुत करने के लिए सूत्रधार को बहुत बहुत धन्यवाद.
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गजल अच्छी हैं पर मुझे आपकी सिगरेट वाली दलील पसंद नहीं आई। इसीलिए मैं आपको धन्यवाद नहीं दुँगा।
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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'कैफ़ी' आज़मी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397883 आजमगढ़ की छोटी सी जगह निजवान में 1926 में पैदा हुए 'कैफ़ी' उर्दू अदब और हिंदी फिल्म जगत की एक बहुचर्चित हस्ती हैं ! उर्दू की प्रगतिवादी काव्य-धारा के अगुआ शोअरा में से एक 'कैफ़ी' का रचना संसार बहुत विस्तृत, किन्तु आडम्बरविहीन है ! सादा अल्फाज़ में आलंकारिक गहराई लाने में उन्हें कमाल हासिल है ! उनके अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं और देश-विदेश के अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया है ! सुना करो मिरी जान, इनसे उनसे अफ़साने सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने यहां से जल्द गुज़र जाओ काफ़िले वालो हैं मेरी प्यास के फूंके हुए ये वीराने मिरे जुनूने-परस्तिश से तंग आ गए लोग सुना है बंद किए जा रहे हैं बुतखाने जहां से पिछले पहर कोई तश्नाकाम उट्ठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने हुआ है हुक्म कि 'कैफ़ी' को संगसार करो मसीह बैठे हैं छुप के कहां खुदा जाने _____________________________ जुनूने-परस्तिश : उपासना का उन्माद, बुतखाने : मंदिर, तश्नाकाम : प्यासा, सहरा : रेगिस्तान, संगसार : अरब की एक परम्परा, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु-दंड दिया जाता है, मसीह : मृतकों को जीवित करने वाले पैगम्बर हज़रत मसीह ! |
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कैसर-उल-जाफ़री
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397955 इलाहाबाद में 1926 में जन्मे जुबैर अहमद ग़ज़लों की दुनिया में कैसर-उल-जाफ़री के नाम से विख्यात हैं ! ज़िन्दगी की कड़वी सचाई को भी बड़े सहज अंदाज़ में कह जाने की खूबी उन्हें एक मीठा और बड़ा शायर बनाती है ! उर्दू के पारंपरिक शब्दों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग उनकी शायरी में अधिक अवश्य है, फिर भी उनकी ग़ज़लों में सहज रवानी कहीं भी देखी जा सकती है ! लुत्फ़ लीजिए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल का - दिल में चुभ जाएंगे जब अपनी ज़बां खोलेंगे हम भी अब शहर में कांटों की दुकां खोलेंगे शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज धूप आएगी तो हम अपना मकां खोलेंगे आबले पाओं के चलने नहीं देते हमको हमसफ़र रख्ते - सफ़र जाने कहां खोलेंगे इतना भीगे हैं कि उड़ते हुए यूं लगता है टूट जाएंगे परो - बाल जहां खोलेंगे एक दिन आपकी गज़लें भी बिकेंगी 'कैसर' लोग बोसीदा किताबों की दुकां खोलेंगे ______________________________ ध्यानार्थ : 'शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज' में कई जगह शोर की जगह रक्स (नृत्य) भी मिलता है यानी 'रक्स करते रहें गलियों में हजारों सूरज ...' ! ______________________________ आबले : छाले, हमसफ़र : सहयात्री, सफ़र के साथी, रख्ते-सफ़र : सफ़र में साथ लाया हुआ सामान, परो-बाल : पंख और बाल, बोसीदा : पुरानी, जर्जर |
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जमीलुद्दीन 'आली'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398083 लोहारू के नवाब अमीरुद्दीन के पुत्र जमीलुद्दीन का जन्म 1926 के जनवरी माह की पहली तारीख को दिल्ली में हुआ ! इब्ने इंशा की तरह 'आली' भी कबीर, मीर और नजीर अकबराबादी की परम्परा के शायर हैं ! 1947 में पाकिस्तानी बन जाने का दर्द झेलते 'आली' अपने दोहों में 'दिल्ली के यमुना तट पर बैठ कर भारतीय सभ्यता के दीपक जलाते' नज़र आते हैं ! पाकिस्तान में जो हों 'आली' दिल्ली में थे नवाब - उनके एक दोहे की यह पंक्ति उनके जीवन का निचोड़ है ! 'गज़लें दोहे गीत' और 'लाहासिल' उनके प्रसिद्ध काव्य संकलन हैं ! 'आली' जी अब आप चलो तुम अपने बोझ उठाए साथ भी दे तो आखिर हमारे कोई कहां तक जाए जिस सूरज की आस लगी है, शायद वो भी आए तुम ये कहो, खुद तुमने अब तक कितने दीये जलाए अपना काम है सिर्फ मोहब्बत, बाक़ी उसका काम जब चाहे वो रूठे हमसे, जब चाहे मन जाए क्या-क्या रोग लगे हैं दिल को, क्या-क्या उनके भेद हम सबको समझाने वाले, कौन हमें समझाए एक इसी उम्मीद पे हैं सब दुश्मन दोस्त क़बूल क्या जाने इस सादा-रवी में कौन कहां मिल जाए दुनिया वाले सब सच्चे पर जीना है उसको भी एक गरीब अकेला पापी किस किस से शर्माए इतना भी मजबूर न करना वर्ना हम कह देंगे ओ 'आली' पे हंसने वाले तू 'आली' बन जाए _________________________ सादा-रवी : धीमी चाल |
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इब्ने इंशा
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398203 लुधियाना में 1927 में जन्मे शेर मोहम्मद खां ने कमसिनी में ही स्वयं को इब्ने इंशा कहलाना पसंद किया ! लहज़े के सूफ़ियाना अंदाज़ और मन की सादामिजाज़ी ने उनके कलाम को वह ख़स्तगी और फ़कीरी बख्शी कि वे हिंदी में कबीर तथा निराला और उर्दू में 'मीर' एवं 'नज़ीर' की परंपरा के वाहक बने ! 'उर्दू' की आखिरी किताब' ने उन्हें एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार के रूप में उर्दू अदब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया है ! 'चांद नगर' और 'इस बस्ती के इस कूचे में' उनके उल्लेखनीय और जनप्रिय काव्य-संकलन हैं ! यहां लुत्फ़ उठाइए उनकी एक सूफ़ियाना अंदाज़ की ग़ज़ल का - इंशाजी उठो अब कूच करो, इस शहर में जी का लगाना क्या वहशी को सुकूं से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या इस दिल के दरीदा दामन को, देखो तो सही, सोचो तो सही जिस झोली में सौ छेद हुए, उस झोली का फैलाना क्या शब बीती, चांद भी डूब चला, ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में क्यों देर गए घर आए हो, सजनी से करोगे बहाना क्या फिर हिज्र की लम्बी रात मियां, संजोग की तो यही एक घड़ी जो दिल में है लब पर आने दो, शरमाना क्या, घबराना क्या उस रोज़ जो उनको देखा है, अब ख़्वाब का आलम लगता है उस रोज़ जो उनसे बात हुई, वह बात भी थी अफ़साना क्या उस हुस्न के सच्चे मोती को, हम देख सकें पर छू न सकें जिसे देख सकें पर छू न सकें, वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या उसको भी जला दुखते हुए मन, इक शोला लाल भभूका बन यूं आंसू बन बह जाना क्या, यूं माटी में मिल जाना क्या जब शहर के लोग न रस्ता दें, क्यों बन में न जा बिसराम करें दीवानों की सी न बात करे, तो और करे दीवाना क्या ____________________________________ दरीदा : बेहया, लज्जाहीन, शब : रात, हिज्र : वियोग, लब : होंठ, अफ़साना : कहानी, बिसराम : विश्राम, दीवाना : पागल |
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शान-उल-हक़ 'हक्की'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398488 दिल्ली में 1927 में जन्मे शान-उल-हक़ की शायरी कटु यथार्थ से रू-ब-रू होकर भी एक सुखद संसार का सृजन करती है ! दुखों के बरअक्स उनकी उम्मीद बड़ी है ! वे दुनियावी झंझटों का वर्णन करते हैं, लेकिन आशा का दामन नहीं छोड़ते ! अनेक दौर अपनी शायरी में समेटते हुए और वर्तमान पर नज़र करते हुए भी आने वाला कल उनके तईं धुंधला नहीं है ! वे गर्मजोशी से उसकी बात करते हैं और अपनी शायरी को किसी भी समय में पढ़े जाने लायक बना जाते हैं ! यहां पढ़िए उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल ! दुनिया की ही राह पे आख़िर रफ़्ता-रफ़्ता आना होगा दर्द भी देगा साथ कहां तक, बेदिल ही बन जाना होगा हैरत क्या है, हम से बढ़ कर कौन भला बेगाना होगा खुद अपने को भूल चुके हैं, तुमने क्या पहचाना होगा दिल का ठिकाना ढूंड लिया है और कहां अब जाना होगा हम होंगे और वहशत होगी, और यही वीराना होगा बीत गया जो याद में तेरी, इक इक लम्हे का है ध्यान उल्फ़त में जी हारना कैसा, जो खोया सब पाना होगा और तो सब दुख बंट जाते हैं, दिल के दर्द को कौन बटाए दुनिया के ग़म बरहक़ लेकिन, अपना भी ग़म खाना होगा दिल में हुज़ूमे-दर्द लेकिन, आह के भी औसान नहीं इस बदली को यूं ही आख़िर बिन बरसे छट जाना होगा हम तो फ़साना कह कर अपने दिल का बोझ उतार चले तुम जो कहोगे अपने दिल से वो कैसा अफ़साना होगा _____________________________________ रफ़्ता-रफ़्ता : धीरे-धीरे, वहशत : दीवानगी, लम्हे : पल, क्षण, उल्फ़त : प्रेम, बरहक़ : अपनी जगह उचित, हुज़ूमे-दर्द : पीड़ा का समूह, औसान : होश-हवास, फ़साना : अफ़साना, कहानी |
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बलराज कोमल
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398868 सियालकोट के उद्दूर में 1928 के किसी रोज जन्मे बलराज कोमल ने अपनी शायरी में अनुभवों की भीड़ से गुज़रते हुए क़दम-क़दम पर एक नई अभिव्यक्ति और एहसास का साक्षात् कराया है ! अपने इर्द-गिर्द को अपने सृजन में समेटने का परिणाम है कि बलराज कोमल आज उर्दू अदब के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! सात काव्य-संग्रहों के अलावा अन्य विधाओं पर भी उनकी किताबें शाया हुई हैं ! उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, दिल्ली उर्दू अकादमी, शिक्षा मंत्रालय (भारत सरकार); और मीर अकादमी, लखनऊ उन्हें सम्मानित कर चुकी है ! अपनी कृति 'परिंदों भरा आसमान' पर उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज पेड़ धूप में बनते - संवरते सब्ज़ पेड़ किस कद्र तश्हीरे-गम से दूर थे चुप्के-चुप्के आह भरते सब्ज़ पेड़ दूर तक रोती हुई खामोशियां रात के मंज़र से डरते सब्ज़ पेड़ दश्त में वो राहरौ का ख्वाब थे घर में कैसे पांव धरते सब्ज़ पेड़ दोस्तों की सल्तनत से दूर तक दुश्मनों के ढोर चरते सब्ज़ पेड़ कर गए बे-मेहर मौसम के सुपुर्द रफ्ता-रफ्ता आज मरते सब्ज़ पेड़ _______________________________ ग़ुस्ल : स्नान, तश्हीरे-गम : पीड़ा के विज्ञापन से, मंज़र : दृश्य, दश्त : जंगल, राहरौ : यात्री, सल्तनत : साम्राज्य, बे-मेहर : निर्दय, रफ्ता-रफ्ता : शनैः - शनैः |
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