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-   -   एक सफ़र ग़ज़ल के साए में (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=3553)

rajivdas 02-01-2012 04:04 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
great work..... :fantastic::fantastic:

guru 02-01-2012 07:31 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
bahot khooob

Dark Saint Alaick 03-01-2012 06:20 AM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
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'हसन' कमाल

http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1325557194

लखनवी सरजमीं पर 1943 में जन्मे 'हसन' कमाल एक शायर के रूप में जितने जाने जाते हैं, उतनी ही बड़ी पहचान उन्हें फ़िल्मी गीतकार और टीवी शख्सियत के रूप में हासिल है ! 'हसन' अपनी शायरी में अपने दौर की बात करते हैं, लेकिन उसमें आप गुज़रे ज़माने की झलक और आने वाले कल की आहटें भी साफ़ महसूस कर सकते हैं ! मशहूर लखनवी नज़ाकत का असर उनकी शख्सियत में भले हो, उनकी शायरी कटु यथार्थ से भी दिल खोल कर रू-ब-रू होती है ! इसके बावजूद इस मुठभेड़ का 'हसन' का अपना अंदाज़ है, निहायत ही निजी अंदाज़ ! आइए, हम भी शिरकत करें 'हसन' कमाल के इस निहायत निजी, लेकिन सर्वकालिक और सार्वजनीन संसार में -



किरनों का जाल फेंका, उठा ले गई मुझे
इक धूप रूप की थी, उड़ा ले गई मुझे

पत्थर बना तो ज़द पे रहा ठोकरों की मैं
जब खाक़ हो गया, तो हवा ले गई मुझे

मैं शोरो-गुल से शहर के घबरा चला था कुछ
खामोशियों की एक सदा ले गई मुझे

यूं भी पड़ा हुआ था मैं बिखरी किताब सा
फिर क्या हवा का दोष, उड़ा ले गई मुझे

साहिल पे दर्द के मैं उसे ढूंढता रहा
वो मौज बन के आई बहा ले गई मुझे

कल तक मैं अपने आप में मौजूद था मगर
उसकी निगाह मुझसे चुरा ले गई मुझे

आवारगी लिखी थी मुक़द्दर में जब 'हसन'
मैं भी गया जिधर ये सबा ले गई मुझे

__________________________

ज़द : निशाना, लक्ष्य; सदा : ध्वनि, आवाज़; मौज : लहर, सबा : प्रातःकालीन शीतल हवा !

Dark Saint Alaick 03-01-2012 06:23 AM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
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शीन काफ़ निज़ाम

http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1325557383

जोधपुर (राजस्थान) में 26 नवम्बर 1947 को जन्मे शीन काफ़ निज़ाम एक दर्द आशना दिल के मालिक हैं ! बहुत कम उम्र में एहसास की विशाल दौलत से मालामाल हुए कवि के रूप में उर्दू जगत में उन्हें एक उच्च और सम्मानित स्थान हासिल है ! 'लम्हों की सलीब', साया कोई लंबा न था', 'दश्त में दरिया', 'सायों के साये में' देवनागरी में और 'नाद', 'बयाजें खो गई हैं' (कविता), 'लफ्ज़ दर लफ्ज़' (आलोचनात्मक लेखों का संग्रह) उर्दू में शाया हुए ! उर्दू के बहुचर्चित काव्य संकलनों 'शीराज़ा' और 'मेयार' में शामिल किए गए ! मंटो की कहानियों पर विशेष अध्ययन उर्दू में शाया हुआ ! राजस्थान उर्दू अकादमी के सर्वोच्च सम्मान 'महमूद शीरानी पुरस्कार' से नवाजे गए ! यहां पढ़ें उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल -


मौजे-हवा से फूलों के चेहरे उतर गए
गुल हो गए चिराग़ घरौंदे बिखर गए

पेड़ों को छोड़कर जो उड़े उनका जिक्र क्या
पाले हुए भी ग़ैरों की छत पर उतर गए

यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख्म भर गए

हम जा रहे हैं टूटते रिश्तों को जोड़ने
दीवारो-दर की फ़िक्र में कुछ लोग घर गए

चलते हुओं को राह में क्या याद आ गया
किसकी तलब में क़ाफ़िले वाले ठहर गए

जो हो सके तो अबके भी सागर को लौट आ
साहिल के सीप स्वाति की बूंदों से भर गए

इक एक से ये पूछते फिरते हैं अब 'निज़ाम'
वो ख्वाब क्या हुए, वो मनाज़िर किधर गए

____________________________________

मौजे-हवा : हवा की लहर, रुत : ऋतु, मौसम; दीवारो-दर : दीवार और दरवाज़ा, तलब : इच्छा, साहिल : किनारा, तट; मनाज़िर : मंज़र का बहुवचन, दृश्य !

Dark Saint Alaick 24-01-2012 10:25 AM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
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'शाहिद' मीर

http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1327386314

रियासत टोंक में 1949 की 10 फरवरी को जन्मे शाहिद मीर खां उर्दू अदब में 'शाहिद' मीर के नाम से पहचाने जाते हैं ! हिंदी-उर्दू में समान दक्षता से ग़ज़ल कहने वाले 'शाहिद' का लहज़ा सूफ़ियाना और तर्ज़ सादा है, यही वज़ह है कि उनका क़लाम पहले परिचय में ही पाठक को अपना बना लेता है ! 'मौसम ज़र्द गुलाबों का' और 'कल्पवृक्ष' उनके बहुचर्चित काव्य संकलन हैं ! पहले संग्रह के लिए वे राजस्थान एवं बिहार उर्दू अकादमी तथा ग़ालिब अकादमी, बंगलौर से सम्मानित हो चुके हैं ! आइए, रू-ब-रू हों उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल से -


पढ़-लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए

घिर आई शाम हम भी चलें अपने घर की ओर
पंछी भी अपने-अपने ठिकाने निकल गए

बरसात गुज़री सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलन के सारे बहाने निकल गए

पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए

खुद मछलियां पुकार रही हैं कहां है जाल
तीरों की आरज़ू में निशाने निकल गए

किन साहिलों पे नींद की परियां उतर गईं
किन जंगलों में ख्वाब सुहाने निकल गए

'शाहिद' हमारी आंखों का आया उसे ख्याल
जब सारे मोतियों के खजाने निकल गए

________________________________
आरज़ू : आकांक्षा, साहिल : तट, किनारा

Kumar Anil 28-01-2012 05:02 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
ख़ूबसूरत , बेमिसाल , बेनज़ीर है यह सूत्र । साहित्य अनुभाग ऐसे सूत्रोँ से ही समृद्ध होकर फोरम का परचम लहरायेगा । इस लाजबाब संकलन की जितनी तारीफ की जाये , कम है ।

Kalyan Das 02-04-2012 08:33 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
Quote:

Originally Posted by anoop (Post 115150)
गजल अच्छी हैं पर मुझे आपकी सिगरेट वाली दलील पसंद नहीं आई। इसीलिए मैं आपको धन्यवाद नहीं दुँगा।

??? :thinking:

rajnish manga 24-12-2012 11:24 AM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
Quote:

Originally Posted by dark saint alaick (Post 113699)
दोस्तो ! उर्दू ग़ज़ल की एक खूबसूरत सुदीर्घ रवायत है, जिसे किसी एक सूत्र में समेट पाना कठिन है, लेकिन मैं इस सूत्र में कोशिश कर रहा हूं कि इसके कुछ नूर-आफरीं कतरों से आपको रू-ब-रू करा सकूं ! सूत्र में मेरा प्रयास रहेगा कि आप कलाम के साथ शोअरा से भी आशना हो सकें और कठिन अल्फ़ाज़ के भावार्थ भी आपको मिल सकें ! यहां अर्थ मैंने इसलिए नहीं लिखा कि शायर ने जो कहा है, उसे सब अपने-अपने नज़रिए से देखते हैं यानी हम उसके भाव के नजदीक ही पहुंच पाते हैं ! अर्थ तक तभी पहुंचा जा सकता है, जब पाठक का जुड़ाव, मानसिक स्तर और स्थिति शायर से तालमेल बिठा ले, जो निश्चय ही आसान नहीं है ! खैर, आपको कोई अतिरिक्त लफ्ज़ कठिन प्रतीत हो, तो निसंकोच मुझे कहें, भावार्थ में प्रस्तुत कर दूंगा ! तो चलिए, आपको ले चलता हूं, ग़ज़ल के इस खूबसूरत सफ़र पर !

इस बेहद खूबसूरत इब्तदा के लिए हमारी ओर से हज़ार बार शुक्रिया क़ुबूल करें. उर्दू एक ऐसी जुबां है जो न सिर्फ सुनने और बोलने में ही शीरीं है बल्कि (लिखने और) पढ़ने में भी वही मिठास और खुशबू पढ़ने वाले के दिल-ओ-दिमाग़ को तारो ताज़ा और मुअत्तर कर देती है. यह हिंदी के इतना करीब है कि उर्दू न जानने वाले पाठक भी हिंदी रूपांतरण के माध्यम से उर्दू शायरी का भरपूर आनंद उठा सकते हैं. बहुत सुन्दर आयोजन है.

rajnish manga 24-12-2012 12:08 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
[QUOTE=Dark Saint Alaick;114315]गुलाम जीलानी 'असगर'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396667

आज तक गुमसुम खड़ी हैं शहर में
जाने दीवारों से तुम क्या कह गए

:gm:

मेरी बदकिस्मती रही कि जनाबे असग़र का कलाम अब तक मेरी नज़रों से ओझल ही रहा. इनका ऊपर लिखा एक अश'आर कई शेरी मजमुओं से बढ़ कर है. धन्यवाद.

rajnish manga 26-01-2013 09:26 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
ग़ ज़ ल
(शायर: डा. अल्लामा मोहम्मद इक़बाल)

गुलज़ारे-हस्त-ओ-बूद न बेगाना वार देख
है दे ख ने की चीज़, इसे बार बार देख

आया है तू जहाँ में,मिसाले- शरार देख
दम दे न जाए हस्ति-ए-नापायेदार देख

माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख, मेरा इज़्तरार देख

खोली हैं ज़ौके-दीद ने आँखें तेरी अगर
हर रह-गुज़र में नक्शे-कफ़े-पा-ए-यार देख.

rajnish manga 26-01-2013 09:27 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
ग़ ज़ ल
(शायर इक़बाल)

अनोखी वज़्अ है सारे ज़ मा ने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के यारब रहने वाले हैं

इलाजे-दर्द में भी दर्द की लज्ज़त पे मरता है
जो थे छालों में कांटे, नोके-सोज़न से निकाले हैं

फला फूला रहे यारब चमन मेरी उमीदों का
जिगर का खून दे दे कर ये बूटे मैंने पाले हैं

न पूछो मुझ से लज्ज़त, खानुमां-बरबाद रहने की
नशेमन सैंकड़ों मैंने बना कर फूंक डाले हैं

उमीदे-हूर ने सब कुछ सिखा रखा है वाइज़ को
ये हज़रत देखने में सीधे - सादे, भोले-भाले हैं.

नोके-सोज़न = कांटे की नोक
*****

rajnish manga 26-01-2013 09:30 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
ग़ ज़ ल
(शायर इक़बाल)

तेरे इश्क़ की इन्तिहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वाद-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आपका सामना चाहता हूँ

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ.
*****

rajnish manga 26-01-2013 09:31 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
चंद अशआर
(शायर: इक़बाल)

मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या ग़र्क होने से
कि जिनको डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में.

मुहब्बत के लिए दिल ढूं ढ कोई टूटने वा ला
ये वो मय है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में.

बु रा समझूं उन्हें ऐसा तो हरगिज़ हो नहीं सकता
कि मैं खुद भी तो हूँ ‘इक़बाल’ अपने नुक्ताचीनों में.

ढूँढता फिरता हूँ अय इक़बाल अपने आपको
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूँ मैं.

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने-अक्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे.

मैं उनकी महफिले-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं.

ताइरे-लाहूती, उस रिज़्क से मौत अच्छी
जिस रिज़्क से आती है परवाज़ में कोताही.

ज़िन्दगी इन्सां की है मानिन्दे-मुर्गे-खुशनवां
शाख पर बैठा,कोई दम चहचहाया, उड़ गया.

तू ही नादां चंद कलियों पर कनाअत कर गया
वरना गुलशन में इलाजे- तंगिए- दामां भी था.


सफ़ीनों = नाव / आबगीनों = प्याला / नुक्ताचीनों = आलोचक / पासबाने-अक्ल = बुद्धि रुपी रक्षक / महफिले-इशरत = चमक दमक वाली महफ़िल / ताइरे-लाहूती = आत्माओं के लोक के पक्षी / कनाअत = सब्र / इलाजे- तंगिए- दामां = छोटे दामन का इलाज

*****

rajnish manga 26-01-2013 09:55 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
राम (शायर: इक़बाल)

लबरेज़ है शराबे-हकीक़त से जामे-हिन्द
सब फ़लसफ़ी हैं खित्त-ए-मगरिब रामे-हिन्द

यह हिंदियों के फ़िक्रे-फ़लक-रस का है असर
रिफअत में आसमाँ से भी उंचा है बामे-हिन्द

इस देह में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द

है राम के वुजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द

एजाज़ इस चिरागे-हिदायत का है यही
रौशन-तर-अज़ सहर है ज़माने में शामे-हिन्द

तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकीज़गी में, जोशे - मुहब्बत में फ़र्द था.
*****

rajnish manga 26-01-2013 10:05 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर:जिगर मुरादाबादी)

वो अदा-ए-दिलबरी हो, के नवा-ए-आशिकाना
जो दिलों को फ़तह कर दे वही फ़ातहे ज़माना

वो तेरा जवाल-ए-कामिल वो शबाब का ज़माना
दिले दुश्मना सलामत दिले दोस्तां निशाना

मेरे हमसफ़ीर बुलबुल तेरा मेरा साथ ही क्या
मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया, तू असीरे आशियाना

वो मैं साफ़ क्यों न कह दूँ जो है फ़र्क तुझमे-मुझमे
तेरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मेरा ग़म ग़म-ए-ज़माना

तेरे दिल के टूटने पर, है किसी को नाज़ क्या-क्या
तुझे ए ‘जिगर’ मुबारक ये शिकस्त-ए-फातिहाना.

*****

rajnish manga 26-01-2013 10:07 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

बहुत रहा है कभी लुत्फे यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फसले बहार हम पर भी

उरुस-ए-दह्र को आया था प्यार हम पर भी
ये बेसुवा थी किसी शब् निसार हम पर भी

बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर
हुआ किये हैं जवाहर निसार हम पर भी

उदू को भी जो बनाया है तुमने महरमे-राज़
तो फख्र क्या जो हुआ ऐतबार हम पर भी

ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उनकी जुबां
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी

हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो गज़ब
कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी

हमें बी आतिश-ए-उल्फत जला चुकी ‘अकबर’
हराम हो गई दोज़ख की मार हम पर भी

rajnish manga 26-01-2013 10:10 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

खातिर से तेरी याद को ट लने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हमको जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरां हूँ किस तरह करूं अर्जे तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुंह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मुहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते.

rajnish manga 26-01-2013 10:12 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

उम्र कब तक वफ़ा करेगी, ज़माना कब तक जफ़ा करेगा
मुझे क़यामत की हैं उम्मीदें, जो कुछ करेगा ख़ुदा करेगा

फ़लक जो बर्बाद भी करेगा, बुलंद इरादे मेरे रहेंगे
जो ख़ाक हूँगा तो ख़ाक से भी सदा बगूला उठा करेगा

ख़ुदा की पाक़ी पुकारता हूँ, हुआ करे नाखुशी बुतों को
मेरी ग़रज़ कुछ नहीं किसी से, तो फिर मेरा कोई क्या करेगा

जहाँ-ए-फ़ानी का हश्र ही को ख़याल कर मुस्तकिल नतीजा
यहाँ तो पैहम यही तरद्दुद यही तगैय्युर हुआ करेगा

अगरचे है दर्द-ओ-ग़म से मुज़तर यही है दर्द-ए-ज़बान-ए-‘अकबर’
ये दर्द जिसने दिया है हमको वही हमारी दवा करेगा
*****

rajnish manga 26-01-2013 10:13 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बा ज़ा र से गुज़रा हूँ ख री दा र नहीं हूँ

ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में हु शि या र नहीं हूँ

इस खाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूँ फ़ क त नक्श बे-दीवार नहीं हूँ

अफसुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़ म का मुझे ये जोअफ़ है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ खिज़ां ने जिसे बर्बाद किया है
उलझूं किसी दामन से में वो ख़ार नहीं हूँ

यारब मुझे महफूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उसकी इनायत का तलबगार न हीं हूँ

अफ्सुर्दगी-ओ-ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं ‘अकबर’
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ.
*****

rajnish manga 26-01-2013 10:18 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

दिल ज़ीस्त से बेज़ार है मालूम नहीं क्यों
सीने में नफ़स बार है मालूम नहीं क्यों

इकरार-ए-वफ़ा यार ने हर इक से किया है
मुझसे ही बस इंकार है मालूम नहीं क्यों

हंगामा-ए-महशर का तो मक़सूद है मालूम
देहली में ये दरबार है मालूम नहीं क्यों

इफ़्लास में मस्ती तो मुझे खुश नहीं आती
साक़ी को ये इसरार है मालूम नहीं क्यों

अन्दाज़ तो उश्शाक के पाए नहीं जाते
‘अकबर’ जिगर अफ़ग़ार है मालूम नहीं क्यों

जीने पे तो जां अहल-ए—जहां देते हैं ‘अकबर’
फिर भी तुझे दुश्वार है मालूम नहीं क्यों.
शब्दार्थ :-
ज़ीस्त = जीवन / नफ़स = सांस / बार = भार / हंगामा-ए-महशर = प्रलय का हंगामा
मक़सूद = उद्देश्य / इफ़्लास = गरीबी / इसरार = ज़िद उश्शाक = प्रेमी / अफ़ग़ार = घायल

rajnish manga 26-01-2013 10:19 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मा रा, चोरी तो न हीं की है

ना तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये हैं बा तें
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है

इस मय से नहीं मतलब, दिल जिससे है बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिचती है

सूरज में लगे धब्बा, फितरत के करिश्मे हैं
बुत हमसे कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है.

(वाइज़ = धर्म उपदेशक)
*****

rajnish manga 26-01-2013 10:20 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
चंद अशआर
(शायर: अकबर इलाहाबादी)

ख़ुशी बहुत है जहाँ में हमारे घर में न सही
मलूल क्यों रहें दुनिया के इंतज़ाम से हम

गुनाह क्या कि कहें हम भी अस्सलाम अलैक
कि लुत्फ़ उठाते है बुत की राम राम से हम

अगर वो कहते हैं इमली तो हम कहेंगे यही
ज़रूर क्या है करें बहस जा के आम से हम

अब और चाहिए नीटू के वास्ते क्या बात
यही बहुत है मुशर्रफ हुए सलाम से हम

छड़ी उठायी, ख़मोशी से चल दिए ‘अकबर’
सफ़र में रखते नहीं काम टीम टाम से हम.
(मुशर्रफ = स्वीकार करना)

इधर तस्बीह की गर्दिश में पाया शेख़ साहब को
बिरहमन को उधर उलझा हुआ जुन्नार में देखा.

रकीबों ने रपट लि ख वा ई है जा जा के थाने में
कि ‘अकबर’ नाम लेता है खुदा का इस ज़माने में.

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो च र्चा नहीं हो ता .

शे ख़ जी के दो नों बेटे बा हुनर पैदा हुए
एक है ख़ुफ़िया पुलिस में एक फांसी पा गए.

(जुन्नार = जनेऊ)

rajnish manga 26-01-2013 10:28 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
जोश के बाद (शायर: जगन्नाथ आज़ाद)
(जोश मलीहाबादी की मृत्यु पर लिखी गयी रचना से कुछ शे’र)
हमनशीं पूछ न आज़ाद से तू, क्या होगा इस्तफ़सार
आलमे—अंजुमने- -दीदावराँ जोश के बाद .
होगी इस तरह से बरहम के जमेगी न कभी
आज की महफिले साहब नज़रां जोश के बाद.
यह भी कहना नहीं आसान मिलेगा कि नहीं
अदब-ओ-फन का कोई नाम-ओ-निशाँ जोश के बाद.
ज़हन-ओ-अफकार पे छाएगी यकीन की ज़ुल्मत
सर्द हो जायेगी कंदील-ए-गुमाँ जोश के बाद.
तश्ना: ल ब फ़िक्र अँधेरे में भटकता होगा
मुज़्तरिब शौक न पायेगा अमाँ जोश के बाद.
सहने-गुलज़ार से रोती हुयी जायेगी बहार
मुस्कुराती हुयी आएगी खिज़ां जोश के बाद.
हसरते-दीद में आ आ के परेशां होगा
सरे-कुहसार घटाओं का धुआँ जोश के बाद.
कुछ बड़ी बात नहीं है जो शिकस्ता हो जाए
बज़्म में हौसला-ए-पीरे-मुगाँ जोश के बाद.
अपनी तकदीर पे फ़रियाद करेंगे शब्-ओ-रोज़
माये देरीना-ओ-माशूके-जवाँ जोश के बाद.
लिली-ए-शे’र के लैब पर ये सवाल आयेगा
कौन है आज मिरा मरतबा दां जोश के बाद.
दे सका कोई जो तस्कीन तो देगा उसको
फ़क्त आज़ाद का अन्दाज़े-बयाँ जोश के बाद.
(इफ़्तसार = खोद खोद कर पूछना)

rajnish manga 14-06-2013 11:40 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 

हैरत से तक रहा है जहान--वफ़ा मुझे
(शायर: सागर निज़ामी)

हैरत से तक रहा है जहान--वफ़ा मुझे
तुम ने बना दिया है मुहब्बत में क्या मुझे

हर मंज़िल--हयात से गुम कर गया मुझे
मुड़ मुड़ के राह में वो तेरा देखना मुझे

कैसे ख़ुदी ने मौज को कश्ती बना दिया
होश--ख़ुदा है अब न ग़म--नाख़ुदा मुझे

साक़ी बने हुए हैं वो `साग़र' शब--विसाल
इस वक़्त कोई मेरी क़सम देखता मुझे


rajnish manga 14-06-2013 11:44 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 


यूँ न रह रह कर हमें तरसाये
(शायर: सागर निज़ामी)

यूँ न रह रह कर हमें तरसाइये
आइये, आ जाइये, आ जाइये

फिर वही दानिस्ता ठोकर खाइये
फिर मेरी आग़ोश में गिर जाइये

मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी
अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइये

ये हवा `साग़र' ये हल्की चाँदनी
जी में आता है यहीं मर जाइये


rajnish manga 14-06-2013 11:54 PM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
हादसे क्या क्या तुम्हारी बेखुदी से हो गये
(शायर: सागर निज़ामी)

हादसे क्या क्या तुम्हारी बेखुदी से हो गये
सारी दुनिया के लिए हम अजनबी से हो गये

गर्दिशे दौरां, ज़माने की नज़र, आँखों की नींद
कितने दुश्मन एक रस्मे दोस्ती से हो गये

कुछ तुम्हारे गेसुओं की बरहमीं ने कर दिया
कुछ अँधेरे मेरे घर में रौशनी से हो गये

यूं तो हम आगाह थे सैयाद की तदबीर से
हम असीर-ए-दामे-गुल अपनी खुदी से हो गये

हर कदम ‘सागर’ नज़र आने लगी हैं मंजिलें
मरहले तय मेरी कुछ आवारगी से हो गये


(गर्दिशे दौरां = समय का उतार चढ़ाव)(गेसू = केश / बरहमी = बिखराव) (आगाह = अवगत होना / सैयाद = शिकारी / तदबीर = योजना / असीर = बंदी / खुदी = अहं) (मरहले = मंज़िले / आवारगी = बिना मकसद के घूमना)

rajnish manga 15-06-2013 12:01 AM

Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
 
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूं होती है
(शायर: सागर निज़ामी)

काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूं होती है
हुस्न हिफाज़त करता है और जवानी सोती है

मुझ में तुझ में फ़र्क नहीं तुझमे मुझमे फ़र्क है ये
तू दुनिया पर हँसता है दुनिया मुझ पर हंसती है

सब्रो - सकूं दो दरिया हैं भरते भरते भरते हैं
तस्कीं दिल की बारिश है होते होते होती है

जीने में क्या राहत थी मरने में तकलीफ़ है क्या
तब दुनिया क्यों हंसती थी अब दुनिया क्यों रोती है

दिल को तो तशखीश हुई चारागरों से पूछूँगा
दिल जब धक धक करता है वो हालत क्या होती है

रात के आंसू ऐ ‘सागर’ फूलों से भर जाते हैं
सुबहे चमन इस पानी से कलियों का मुंह धोती है



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