Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
Some for the Glories of This World; and some
Sigh for the Prophet's Paradise to come; Ah, take the Cash, and let the Credit go, Nor heed the rumble of a distant Drum! शौक जन्नत का न कुछ शेफ्तगी-ए-हूर भली. मैं ये कहता हूँ कि बस दुख्तर-ए-अंगूर भली. नक़द को छोड़ के किस वास्ते सौदा हो उधार, कहते हैं ढोल की आवाज़ तो बस दूर भली. (प्रो. वाकिफ़) शेफ्तगी-ए-हूर = परियों का मोह / दुख्तर-ए-अंगूर = अंगूर की बेटी अर्थात् शराब कुछ तो इस दुनिया में जीने का तसव्वुर पालते हैं. और कुछ परलोक, हूर-ओ-अंगूर में ग़ म ढालते हैं. बात वो जो आज, अब की, नक़द की, आनन्द की, ये ढोल दूर के लगें सुहाने कल के सारे मुग़ालते है. (रजनीश मंगा) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
The Worldly Hope men set their Hearts upon
Turns Ashes--or it prospers; and anon, Like Snow upon the Desert's dusty Face, Lighting a little hour or two--is gone. दुनियां में हज़ारों अशिया हैं किस किस की ख्वाहिश में मरना. जो पूरी हुयी सो पूरी हुयी बाक़ी का मगर दुःख क्या करना. जीवन तो हमारा है इक दरिया, मकसद है समंदर में मिलना, जो कुछ है यहीं रह जाना है अब इनकी तरफ रूख क्या करना. (रजनीश मंगा) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
The Moving Finger writes; and, having writ,
Moves on: nor all your Piety nor Wit Shall lure it back to cancel half a Line, Nor all your Tears wash out a Word of it. किस्मत का लिखा लेख भला कैसे मिटेगा. कितनी भी हो फरियाद, मगर हो के रहेगा. इक लफ्ज़ न तहरीर का तदबीर बदल पाये, आंसुओं की भले बरसात करो, ये न हटेगा. (रजनीश मंगा) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
nice thread
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Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
A Book of Verses underneath the Bough,
A Jug of Wine, a Loaf of Bread--and Thou Beside me singing in the Wilderness— Oh, Wilderness were Paradise enow! सरस कविता की पुस्तक हाथ, और सब के ऊपर तुम प्राण, गा रही छेड़ सुरीली तान, मुझे अब मधु नंदन उद्यान. घनी सिर पर तरुवर की डाल, हरी पांवों के नीचे घास, बगल में मधु मदिरा का पात्र, सामने रोटी के दो ग्रास. (रूपांतर / डा. हरिवंश राय बच्चन) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
चलो चल कर बैठे उस ठौर,
बिछी जिस थल मखमल की घास जहाँ जा शस्य श्यामला भूमि, धवल मरू के बैठी है पास. सुना मैंने कहते कुछ लोग, मधुर जग पर मानव का राज, और कुछ कहते जग से दूर, स्वर्ग में ही सब सुख का साज! (रूपांतर / डॉ. हरिवंश राय बच्चन) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
दूर का छोड़ प्रलोभन मोह,
करो जो पास उसी का मोल, सुहाने बस लगते है प्राण, अरे ये दूर - दूर के ढोल! जगत की आशाये जाज्वल्य, लगाता मानव जिन पर आँख, न जाने सब की सब किस ओर, हाय! उड़ जाती बन कर राख. (रूपांतर / डॉ. हरिवंश राय बच्चन) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
किसी की यदि कोई अभिलाष,
फली भी तो कितनी देर, धूसरित मरू पर हिमकन राशि, चमक पाती है कितनी देर! समेटा जिन कृपणों ने स्वर्ण, सुरक्षित रखा उस को मूँद, लुटाया और जिन्होंने खूब, लुटाते जैसे बादल बूँद. (रूपांतर/ डॉ. हरिवंश राय बच्चन) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
गड़े दोनों ही एक समान,
हुए मिट्टी के दोनों हाड़, न कोई हो पाया वह स्वर्ण, जिसे देंगे फिर लोग उखाड़. यहाँ आ बड़े बड़े सुलतान, बड़ी थी जिनकी शौकत शान, न जाने कर किस ओर प्रयाण, गए बस दो दिन रह मेहमान. (रूपांतर/डॉ. हरिवंश राय बच्चन) |
Re: उमर खैय्याम की रुबाइयां
और अब जो कुछ भी है शेष,
भोग वह सकते हम स्वच्छंद, राख में मिल जाने के पूर्व, न क्यों कर लें जी भर आनंद. गड़ेंगे हो कर हम जब राख, राख में तब फिर कहाँ बसंत, कहाँ स्वरकार, सुरा, संगीत, कहाँ इस सूनेपन का अंत. (रूपांतर/डॉ. हरिवंश राय बच्चन) |
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