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Sikandar_Khan 22-01-2011 05:42 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
गुज़र रहा है वक़्त गुज़र रही है ज़िन्दगी
क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले

पिघल रहे है लम्हात बदल रहे है हालत
क्यूँ न इस ज़माने को बदल दे एक ऐसी खबर छोड़ चले

कोई शक्स कंही रुका सा कोई शक्स कंही थमा सा
क्यूँ न एन बेजान बुतों में एक पैकर छोड़ चले

हर तरफ अँधेरा , ख़ामोशी , तन्हाई , बेरुखी , रुसवाई
क्यूँ न नूरे मुजस्सिम का एक सितायिश्गर छोड़ चले

इन बेईज्ज़त बे परवाह ताजरी-तोश ज़माने में
क्यूँ न कह दे रेत से ये अन्ल्बहर छोड़ चले

हर तरफ धोखा, झूट, फरेब, नाइंसाफी , बेमानी
क्यूँ न बुझती अतिशे-सचाई पर एक शरर छोड़ चले

कैसे लाये वोह अबरू हया दिलके-हर दोशे में
क्यूँ न हर किसी की मोजे शरोदगी पर एक नज़र छोड़ चले

मची है नोच खसोट एक होड़ हर तरफ पाने की
क्यूँ न पाकर अपनी मंजिल को यह लम्बा सफ़र छोड़ चले

करके अपने ख्वाबों को पूरा
क्यूँ न अपनी ताबीर को मु'यासर' छोड़ चले

क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले

Sikandar_Khan 22-01-2011 05:44 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है
जो रहते है सादगी से उनके लब्ज़ों से आतिशे-ताब भी पिघलते रहते है
कुछ कर गुज़रते है वोह शक्स जो गिर के सही वक़्त पर सम्भलते रहते है
गड़ा के ज़मीन पे पाऊँ फलक पे चलने वाले बड़े बड़ो का गुरुर कुचलते रहते है
सब्र की चख-दमानी को फैय्लाये कितना यंहा हर क्वाहिश पर दिल मचलते रहते है
ताकता रहता हूँ क्यूँ इन खुले रास्तों को तंग गलियों से भी रहनुमा निकलते रहते है
नहीं रही राजा तेरी अदाए-ज़ात से हमरे दिल तो इस टूटी फूटी शयरी से ही बहलते रहते है
थोड़ी सियासी पहुच तो हो ऐ 'यासिर' यंहा तो कत्ले-आम के बाद फंसी के फैसले टलते रहते है
हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है

Sikandar_Khan 22-01-2011 06:00 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
कभी कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती हे
चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती है
आसूं तो बहते नहीं आँखों से मगर रूह अन्दर ही रोती जाती है
हर पल कुछ कर दिखने की चाह सताती है
सख्त हालातों की हवाँ ताब-औ-तन्वा हिला जाती है

कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है
रहती है दवाम जिबस उस मंजिल को पाने मे
फिर भी यासिर की तरह एक बाज़ी हार जाती है
रह जाती है एक जुस्तुजू सी और एक नया इम्तेहान दे जाती है
जुड़ जाती है सारी कामयाबियां एक ऐसी नाकामयाबी पाती है

कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है
होता नहीं जिस पर यकीं किसीको एक ऐसा मुज़मर खोल जाती है
फिर भी ह़र बात के नाश-औ-नुमा को नहीं जान पाती है
मुश्किल हो जाता है फैसला करना एक ऐसा असबाब बनाती है
नहीं पा सकते है साहिल एक ऐसे मझधार मे फस जाती है

कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है
कोई रास्ता नज़र नहीं आता ह़र मंजिल सियाह हो जाती है
ह़र तालाब-झील मिराज हो जाते है और ज़िंदगी प्यासी रह जाती है
ह़र चोखट पर शोर तो होता है मगर ज़िन्दगी खामोश रह जाती है

कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है
मुन्तज़िर सी एक कशमोकश रहती है हर तस्वीर एक धुंदली परछाई बन जाती है
होसला तो देते है सब मगर ज़िन्दगी मायूस रह जाती है
हर मुमकिन कोशिश करती है अफ्ज़लिना बन्ने के लिए मगर ज़िन्दगी बेबस रह जाती है


कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है
धड़कने रुक जाती है साँस रुक जाती है मगर एक सुनी सी रात कटती नहीं
मज्लिसो मे नाम तो होता है बहुत मगर ज़िन्दगी यासिर की तरह तनहा रह जाती है
बेबस लाचार सी लगने लगती है, ज़िन्दगी हार के कंही रुक जाती है
फिर उट्ठ के चलने की कोशिश तो करती है मगर कुछ सोच के थम जाती है
एक नए खुबसूरत लम्हे के इंतज़ार मे पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है
कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है

Sikandar_Khan 01-02-2011 06:28 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
मेरी नब्ज़ छू के सुकून दे, वही एक मेरा हबीब है
है उसीके पास मेरी शफ़ा वही बेमिसाल तबीब है


हुआ संगदिल है ये आदमी कि रगों में ख़ून ही जम गया
चला राहे-हक़ पे जो आदमी, तो उसीके सर पे सलीब है


ये समय का दरिया है दोस्तो, नहीं पीछे मुड़के जो देखता
सदा मौज बनके चला करे, यही आदमी का नसीब है


यूँ तो आदमी है दबा हुआ यहाँ एक दूजे के कर्ज़ में
कोई उनसे माँगे भी क्या भला, यहाँ हर कोई ही ग़रीब है


न तमीज़ अच्छे-बुरे की है, न तो फ़र्क ऐबो-हुनर में ही
बड़ी मुश्किलों का है सामना कि ज़माना ‘देवी’ अजीब है.





देवी नागरानी

Sikandar_Khan 01-02-2011 06:37 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
प्यार की उम्र फकत हादसों से गुजरी है।
ओस है, जलते हुए पत्थरों से गुजरी है।।
दिन तो काटे हैं, तुझे भूलने की कोशिश में
शब मगर मेरी, तेरे ही खतों से गुजरी है।।
जिंदगी और खुदा का, हमने ही रक्खा है भरम
बात तो बारहा, वरना हदों से गुजरी है।।
कोई भी ढांक सका न, वफा का नंगा बदन
ये भिखारन तो हजारों घरों से गुजरी है।।
हादसों से जहां लम्हों के, जिस्म छिल जाएं
जिंदगी इतने तंग रास्तों से गुजरी है।।
ये सियासत है, भले घर की बहू-बेटी नहीं
ये तवायफ तो, कई बिस्तरों से गुजरी है।।
जब से ‘सूरज’ की धूप, दोपहर बनी मुझपे
मेरी परछाई, मुझसे फासलों से गुजरी है

Sikandar_Khan 01-02-2011 06:46 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
ख्वाहिशें, टूटे गिलासों सी निशानी हो गई।
जिदंगी जैसे कि, बेवा की जवानी हो गई।।
कुछ नया देता तुझे ए मौत, मैं पर क्या करूं
जिंदगी की शक्ल भी, बरसों पुरानी हो गई।।
मैं अभी कर्ज-ए-खिलौनों से उबर पाया नहीं
लोग कहते हैं, तेरी गुड़िया सयानी हो गई।।
आओ हम मिलकर, इसे खाली करें और फिर भरें
सोच जेहनो में नए मटके का पानी हो गई।।
दुश्मनी हर दिल में जैसे कि किसी बच्चे की जिद
दोस्ती दादा के चश्मे की कमानी हो गई।।
मई के ‘सूरज’ की तरह, हर रास्तों की फितरतें
मंजिलें बचपन की परियों की कहानी हो गई।।

Sikandar_Khan 01-02-2011 06:50 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
उसे इश्क क्या है पता नहीं
कभी शम्अ पर जो जला नहीं.


वो जो हार कर भी है जीतता
उसे कहते हैं वो जुआ नहीं.


है अधूरी-सी मेरी जिंदगी
मेरा कुछ तो पूरा हुआ नहीं.


न बुझा सकेंगी ये आंधियां
ये चराग़े दिल है दिया नहीं.


मेरे हाथ आई बुराइयां
मेरी नेकियों को गिला नहीं.


मै जो अक्स दिल में उतार लूं
मुझे आइना वो मिला नहीं.


जो मिटा दे ‘देवी’ उदासियां
कभी साज़े-दिल यूं बजा नहीं.

Sikandar_Khan 01-02-2011 07:30 PM

Re: !! कुछ गजलें !!
 
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले ।

मुहब्बत में नही है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले ।

ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा ना हो यां भी वही काफिर सनम निकले ।

क़हाँ मैखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले।


मिर्ज़ा गालिब

Sikandar_Khan 06-02-2011 08:18 AM

Re: प्रणय रस
 
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

मिर्ज़ा गालिब

Sikandar_Khan 06-02-2011 08:20 AM

Re: प्रणय रस
 

की वफ़ा हम से तो ग़ैर उस को जफ़ा कह्*ते हैं
होती आई है कि अच्*छों को बुरा कह्*ते हैं

आज हम अप्*नी परेशानी-ए ख़ातिर उन से
कह्*ने जाते तो हैं पर देखिये क्*या कह्*ते हैं

अग्*ले वक़्*तों के हैं यह लोग उंहें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़्*मह को अन्*दोह-रुबा कह्*ते हैं

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्*सत ग़श से
और फिर कौन-से नाले को रसा कह्*ते हैं

है परे सर्*हद-ए इद्*राक से अप्*ना मस्*जूद
क़िब्*ले को अह्*ल-ए नज़र क़िब्*लह-नुमा कह्*ते हैं

पा-ए अफ़्*गार पह जब से तुझे रह्*म आया है
ख़ार-ए रह को तिरे हम मिह्*र-गिया कह्*ते हैं

इक शरर दिल में है उस से कोई घब्*राएगा क्*या
आग मत्*लूब है हम को जो हवा कह्*ते हैं

देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्*वत क्*या रन्*ग
उस की हर बात पह हम नाम-ए ख़ुदा कह्*ते हैं

वह्*शत-ओ-शेफ़्*तह अब मर्*सियह कह्*वें शायद
मर गया ग़ालिब-ए आशुफ़्*तह-नवा कह्*ते हैं

मिर्ज़ा ग़ालिब


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