!! कुछ मशहूर गजलें !!
किसी मुज्जमे की सीढियों पे एक बुज़ुर्ग को तन्हा बैठे देखा (मुज्जमे- शोपिंग काम्प्लेक्स)खामोश लब थरथाराते हाथ माथे से पसीना टपकते देखा
सोच रहे होगे कैसे गुज़रे सरे आज़-इखलास ज़िन्दगी के (आज़-desire ) हर भूली बिसरी याद को उस एक बसर मे स्मिटते देखा बचपना फिर जवानी फिर बुढ़ापा कोह्नाह-मशक हालत ( कोह्नाह-मशक-- experienced )हर असबाब को एक गहरी साँस मे टटुलते देखा एक अबरो एक हया एक अदगी एक दुआ बे परवाह गुज़रते नोजवानो से अपनी सादगी छुपाते देखा सोचा जाके पूछों की क्योँ बैठे है यूँ तन्हा एकेले पर हर रहगुज़र के बरीके से नाश-ओ-नसीर समझते देखा क्या अच्छा किया क्या बुरा किया कोन से रिश्ते निभाए पूरे हर एक अधूरे पूरे फ़र्ज़ इम्तिहान उम्मीद का इसबात जुटाते देखा (इसबात-proof ) कभी लगा आसूदाह सा कभी लगा आशुफ्तः सा (आसूदाह-satisfied आशुफ्तः-confused) मुब्तादा इबारत के इबर्के-उबाल को बेकाम-ओ-कास्ते देखा (मुब्तादा--principle, इबारत-[experience,इबर्के- perception बेकाम-ओ-कास्ते--expresing) किसी मुज्जमे की सीढियों पे एक बुज़ुर्ग को तन्हा बैठे देखा -------------------------------------------------------------------------- |
Re: !! कुछ गजलें !!
गुज़र रहा है वक़्त गुज़र रही है ज़िन्दगी
क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले पिघल रहे है लम्हात बदल रहे है हालत क्यूँ न इस ज़माने को बदल दे एक ऐसी खबर छोड़ चले कोई शक्स कंही रुका सा कोई शक्स कंही थमा सा क्यूँ न एन बेजान बुतों में एक पैकर छोड़ चले हर तरफ अँधेरा , ख़ामोशी , तन्हाई , बेरुखी , रुसवाई क्यूँ न नूरे मुजस्सिम का एक सितायिश्गर छोड़ चले इन बेईज्ज़त बे परवाह ताजरी-तोश ज़माने में क्यूँ न कह दे रेत से ये अन्ल्बहर छोड़ चले हर तरफ धोखा, झूट, फरेब, नाइंसाफी , बेमानी क्यूँ न बुझती अतिशे-सचाई पर एक शरर छोड़ चले कैसे लाये वोह अबरू हया दिलके-हर दोशे में क्यूँ न हर किसी की मोजे शरोदगी पर एक नज़र छोड़ चले मची है नोच खसोट एक होड़ हर तरफ पाने की क्यूँ न पाकर अपनी मंजिल को यह लम्बा सफ़र छोड़ चले करके अपने ख्वाबों को पूरा क्यूँ न अपनी ताबीर को मु'यासर' छोड़ चले क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले |
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कभी कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती हे
चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती है आसूं तो बहते नहीं आँखों से मगर रूह अन्दर ही रोती जाती है हर पल कुछ कर दिखने की चाह सताती है सख्त हालातों की हवाँ ताब-औ-तन्वा हिला जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है रहती है दवाम जिबस उस मंजिल को पाने मे फिर भी 'यासिर' की तरह एक बाज़ी हार जाती है रह जाती है एक जुस्तुजू सी और एक नया इम्तेहान दे जाती है जुड़ जाती है सारी कामयाबियां एक ऐसी नाकामयाबी पाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है होता नहीं जिस पर यकीं किसीको एक ऐसा मुज़मर खोल जाती है फिर भी ह़र बात के नाश-औ-नुमा को नहीं जान पाती है मुश्किल हो जाता है फैसला करना एक ऐसा असबाब बनाती है नहीं पा सकते है साहिल एक ऐसे मझधार मे फस जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है कोई रास्ता नज़र नहीं आता ह़र मंजिल सियाह हो जाती है ह़र तालाब-झील मिराज हो जाते है और ज़िंदगी प्यासी रह जाती है ह़र चोखट पर शोर तो होता है मगर ज़िन्दगी खामोश रह जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है मुन्तज़िर सी एक कशमोकश रहती है हर तस्वीर एक धुंदली परछाई बन जाती है होसला तो देते है सब मगर ज़िन्दगी मायूस रह जाती है हर मुमकिन कोशिश करती है अफ्ज़लिना बन्ने के लिए मगर ज़िन्दगी बेबस रह जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है धड़कने रुक जाती है साँस रुक जाती है मगर एक सुनी सी रात कटती नहीं मज्लिसो मे नाम तो होता है बहुत मगर ज़िन्दगी 'यासिर' की तरह तनहा रह जाती है बेबस लाचार सी लगने लगती है, ज़िन्दगी हार के कंही रुक जाती है फिर उट्ठ के चलने की कोशिश तो करती है मगर कुछ सोच के थम जाती है एक नए खुबसूरत लम्हे के इंतज़ार मे पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है |
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गधे ज़ाफ़रान में कूद रहे है
चारगाह में घोडों के लिये घास नहीं, लेकिन गधे ज़ाफ़रान में कूद रहे है कैसे कैसे दोस्त हैं कैसे कैसे धोखे चबा रहे हैं अंगूर बता अमरूद रहे हैं ना जाने खो गया है किस अज़ब अन्धेरे में आंख बन्द करके तलाश अपना वज़ूद रहे हैं उधार लिये थे चंद लम्हे पिछ्ले जनम में अभी तक चुका उनका सूद रहे हैं मकान बेच कर खरीदी थी तोप कोमल ने ज़मीन बेच के खरीद उसका बारूद रहे हैं |
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हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है
जो रहते है सादगी से उनके लब्ज़ों से आतिशे-ताब भी पिघलते रहते है कुछ कर गुज़रते है वोह शक्स जो गिर के सही वक़्त पर सम्भलते रहते है गड़ा के ज़मीन पे पाऊँ फलक पे चलने वाले बड़े बड़ो का गुरुर कुचलते रहते है सब्र की चख-दमानी को फैय्लाये कितना यंहा हर क्वाहिश पर दिल मचलते रहते है ताकता रहता हूँ क्यूँ इन खुले रास्तों को तंग गलियों से भी रहनुमा निकलते रहते है नहीं रही राजा तेरी अदाए-ज़ात से हमरे दिल तो इस टूटी फूटी शयरी से ही बहलते रहते है थोड़ी सियासी पहुच तो हो ऐ 'यासिर' यंहा तो कत्ले-आम के बाद फंसी के फैसले टलते रहते है हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है |
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हर बयानी खलिशे-खार की तरह बयां होती
खल्वत मे सफे-मिज़गा के मोअजे -शरोदगी है खोलती हनोज़ न मिल सका जवाब उन आँखों को मेरी रुकाशी मे न जाने कैसे -कैसे मुज़मर के साथ है डोलती मुश्ताक है सारी बातों को जानने के लिए हर नाश-औ-नुमा बात के शर-हे को जिबस हे तोलती महवे रहती हे दवाम मोअजे-ज़ार की कुल्फत मे ऐ-'यासिर' खामोश होकर भी ये तेरी ऑंखें हे बोलती इसमे कुछ फारसी शब्द भी हैं जिनको मै लिख देता हूँ खार -- कांटे खल्वत-- तन्हाई मिज़गा -- जूनून शर-हे -- मतलब जिबस -- बहुत ज्यादा दवाम -- लीन |
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कैलैंडर की तरह मह्बूब बदलते क्युं हैं
झूठे वादों से ये दिल बहलते क्युं हैं ? अपनी मरज़ी से हार जाते हैं जुए में सल्तनत, फ़िर दुर्योध्नो के आगे हाथ मलते क्युं हैं ? औरों के तोड डालते हैं अरमान भरे दिल, तो फ़िर खुद के अरमान मचलते क्युं हैं ? दम भरते हैं हवाओं का रुख मोड देने का , फ़क़्त पत्तों के लरज़ने से ही दहलते क्युं हैं ? खोल लेते हैं बटन कुर्ते के, फ़िर पूछ्ते हैं, न जाने आस्तीनों मे सांप पलते क्युं हैं ? नन्हा था इस लिए मां से ही पूछा , अम्मा ! ये सूरज शाम को ढलते क्युं हैं ? वो कहते हैं नाखूनो ने ज़खम "दीया", नाखूनों से ही ज़खम सहलते क्युं हैं ? |
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कभी कभी आईना भी झूठ कहता है
अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो पलडा अकल का ही भारी रहता है अपनी खूबसूरती पे ना इतरा मेरे मह्बूब कभी कभी आईना भी झूठ कहता है जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है मुर्दा है जो खामोश हो के जुल्म सहता है काट देता है टुकडों मे संग-ए-मर्मर को पानी भी जब रफ़्तार से बहता है. ईशक़ में चोट खा के दीवाने हो जाते हैं जो नशा उनपे ता उमर मोहब्बत का तारी रहता है अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो पलडा अकल का ही भारी रहता है |
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सुनाते क्या हो वक़्त बदलने वाला है
देखते आये हैं सूरज निकलने वाला है ... जो नहीं है अपना उस पर ध्यान क्यों है जो है पास में वो कब तक रहने वाला है ... बाज़ार में शौहरत का खिलौना लेकर घूमने वाले यह नहीं जानते कब वह टूटके बिखरने वाला है ... शहर के घरों की दीवारें बाहर से अच्छी लगती है इसमे रहने वाले जानते है कांच बिखरने वाला है ... मैनेँ बदलते दौर में यह रंग भी देखा है मुसीबत में हर ख़ास रिश्ता चाल बदलने वाला है ... |
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सिकंदर भाई आप शायर भी हो पता ना था
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चला इक दिन जो घर से पान खा कर तो थूका रेल की खिड़की से आकर मगर जोशे हवा से चाँद छींटे परे रुखसार पे इक नाजनीन के रुखसार ..... गाल हुई आपे से वो फ़ौरन ही बाहर लगी कहने अबे ओ खुश्क बन्दर ज़बान को रख तू मुंह के दाएरे में हमेशा ही रहे गा फायदे में बहाने पान के मत छेड़ ऐसे यही अच्छा है मुझ से दूर रह ले तेरी सूरत तो है शोराफा के जैसी तबियत है मगर मक्कार वहशी shorafaa .... shareefon ,,,,, wahshi ... darindah कहा मैं ने कहानी कुछ भी बुन लें मगर मोहतरमा मेरी बात सुन लें खुदा के वास्ते कुछ खोफ खाएं ज़रा सी बात इतनी न बढ़ाएं नहीं अच्छा है इतना पछताना मुझे बस एक मौका देदो जाना ज़बान को अपनी खुद से काट लूँ गा जहां थूका है उस को चाट लूंगा |
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Quote:
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इश्क के गुलशन को गुल गुज़ार न कर!
ऐ नादान इंसान कभी किसी से प्यार न कर! बहुत धोखा देते हैं मोहब्बत में हुस्न वाले, इन हसीनो पर भूल कर भी ऐतबार न कर! दिल से आपका ख्याल जाता नहीं! आपके सिवा कोई और याद आता नहीं! हसरत है रोज़ आपको देखूं, वरना आप बिन जिंदा रह पाता नहीं! वे चले तो उन्हें घुमाने चल दिए! उनसे मिलने-जुलने के बहाने चल दिए! चाँद तारों ने छेड़ा तन्हाई में ऐसी राग, वे रूठे नहीं की उन्हें मानाने चल दिए! वो मिलते हैं पर दिल से नहीं! वो बात करते हैं पर मन से नहीं! कौन कहता है वो प्यार नहीं करते, वो प्यार तो करते हैं पर हमसे नहीं! नाबिक निराश हो तो साहिल ज़रूरी है! ज़न्नत की तलाश में हो तो इशारा ज़रूरी है! मरने को तो कोई कहीं मर सकता है, लेकिन ज़ीने के लिए सहारा ज़रूरी है! |
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घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की जगह रखना! जिस्म में फैलने लगा है शहर अपनी तनहाइयाँ बचा रखना! मस्जिदें हैं नमाजियों के लिए अपने दिल में कहीं खुदा रखना! मिलना-जुलना जहाँ जरुरी हो मिलने-जुलने का हौसला रखना! उम्र करने को है पचास को पार कौन है किस पता रखना! |
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एक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है!
सिमटे तो दिले-आशिक, फैले तो ज़माना है! हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है! रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है! वो और वफ़ा-दुश्मन, मानेंगे न माना है! सब दिल की शरारत है, आँखों का बहाना है! क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है! हम ख़ाक-नशीनो की ठोकर में ज़माना है! ऐ इश्के-जुनूं-पेशा! हाँ इश्के-जुनूं पेशा, आज एक सितमगर को हंस-हंस के रुलाना है! ये इश्क नहीं आशां,बस इतना समझ लीजे एक आग का दरिया है, और डूब के जाना है! आंसूं तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है! |
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किस तरफ का रास्ता लूंगा मैं रुका नहीं तो मंजिल पा लूंगा मैं ... तजुर्बे की हरारत को नहीं समझा तो कहीं बे -वज़ह ज़मीर जला लूंगा मैं ... कभी खींच कर लकीर काग़ज़ पर बिना रक़म का मकान बना लूंगा मैं ... कितने मासूम होते है मौसम के फूल गर छू लिया तोह मुस्कुरा लूंगा मैं ... अगर वहशत की आंधी और चली देखना नफ़रत का पत्थर उठा लूंगा मैं ... |
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अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको मैं हूं तेरा नसीब अपना बना ले मुझको मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी ये तेरी सदादिली मार न डाले मुझको मैं समंदर भी हूं मोती भी हूं गोतज़ान भी कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको |
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ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन-दामन कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको मैं जो कांटा हूं तो चल मुझसे बचाकर दामन मैं हूं अगर फूल तो जूड़े में सजाले मुझको मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यार तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको |
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सिकंदर भाई बहुत ही सुन्दर गजलों का संग्रह !!
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Re: !! कुछ गजलें !!
Quote:
सुंदर , अति सुंदर ! दिल को छूने वाली रचना को हमारे लिए प्रस्तुत करने पर निःसन्देह बधाई के पात्र हैँ । |
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गुज़र रहा है वक़्त गुज़र रही है ज़िन्दगी क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले पिघल रहे है लम्हात बदल रहे है हालत क्यूँ न इस ज़माने को बदल दे एक ऐसी खबर छोड़ चले कोई शक्स कंही रुका सा कोई शक्स कंही थमा सा क्यूँ न एन बेजान बुतों में एक पैकर छोड़ चले हर तरफ अँधेरा , ख़ामोशी , तन्हाई , बेरुखी , रुसवाई क्यूँ न नूरे मुजस्सिम का एक सितायिश्गर छोड़ चले इन बेईज्ज़त बे परवाह ताजरी-तोश ज़माने में क्यूँ न कह दे रेत से ये अन्ल्बहर छोड़ चले हर तरफ धोखा, झूट, फरेब, नाइंसाफी , बेमानी क्यूँ न बुझती अतिशे-सचाई पर एक शरर छोड़ चले कैसे लाये वोह अबरू हया दिलके-हर दोशे में क्यूँ न हर किसी की मोजे शरोदगी पर एक नज़र छोड़ चले मची है नोच खसोट एक होड़ हर तरफ पाने की क्यूँ न पाकर अपनी मंजिल को यह लम्बा सफ़र छोड़ चले करके अपने ख्वाबों को पूरा क्यूँ न अपनी ताबीर को मु'यासर' छोड़ चले क्यूँ न इन राहों पर एक असर छोड़ चले |
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हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है जो रहते है सादगी से उनके लब्ज़ों से आतिशे-ताब भी पिघलते रहते है कुछ कर गुज़रते है वोह शक्स जो गिर के सही वक़्त पर सम्भलते रहते है गड़ा के ज़मीन पे पाऊँ फलक पे चलने वाले बड़े बड़ो का गुरुर कुचलते रहते है सब्र की चख-दमानी को फैय्लाये कितना यंहा हर क्वाहिश पर दिल मचलते रहते है ताकता रहता हूँ क्यूँ इन खुले रास्तों को तंग गलियों से भी रहनुमा निकलते रहते है नहीं रही राजा तेरी अदाए-ज़ात से हमरे दिल तो इस टूटी फूटी शयरी से ही बहलते रहते है थोड़ी सियासी पहुच तो हो ऐ 'यासिर' यंहा तो कत्ले-आम के बाद फंसी के फैसले टलते रहते है हर पूरी होती ख्वाहिश के हाशिये बदलते रहते है ताजरी-तोश ज़िन्दगी के मायने बदलते रहते है |
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कभी कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती हे चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती है आसूं तो बहते नहीं आँखों से मगर रूह अन्दर ही रोती जाती है हर पल कुछ कर दिखने की चाह सताती है सख्त हालातों की हवाँ ताब-औ-तन्वा हिला जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है रहती है दवाम जिबस उस मंजिल को पाने मे फिर भी यासिर की तरह एक बाज़ी हार जाती है रह जाती है एक जुस्तुजू सी और एक नया इम्तेहान दे जाती है जुड़ जाती है सारी कामयाबियां एक ऐसी नाकामयाबी पाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है होता नहीं जिस पर यकीं किसीको एक ऐसा मुज़मर खोल जाती है फिर भी ह़र बात के नाश-औ-नुमा को नहीं जान पाती है मुश्किल हो जाता है फैसला करना एक ऐसा असबाब बनाती है नहीं पा सकते है साहिल एक ऐसे मझधार मे फस जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है कोई रास्ता नज़र नहीं आता ह़र मंजिल सियाह हो जाती है ह़र तालाब-झील मिराज हो जाते है और ज़िंदगी प्यासी रह जाती है ह़र चोखट पर शोर तो होता है मगर ज़िन्दगी खामोश रह जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है मुन्तज़िर सी एक कशमोकश रहती है हर तस्वीर एक धुंदली परछाई बन जाती है होसला तो देते है सब मगर ज़िन्दगी मायूस रह जाती है हर मुमकिन कोशिश करती है अफ्ज़लिना बन्ने के लिए मगर ज़िन्दगी बेबस रह जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है धड़कने रुक जाती है साँस रुक जाती है मगर एक सुनी सी रात कटती नहीं मज्लिसो मे नाम तो होता है बहुत मगर ज़िन्दगी यासिर की तरह तनहा रह जाती है बेबस लाचार सी लगने लगती है, ज़िन्दगी हार के कंही रुक जाती है फिर उट्ठ के चलने की कोशिश तो करती है मगर कुछ सोच के थम जाती है एक नए खुबसूरत लम्हे के इंतज़ार मे पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है कभी-कभी ये ज़िन्दगी ऐसे हालातों मे फंस जाती है |
Re: !! कुछ गजलें !!
मेरी नब्ज़ छू के सुकून दे, वही एक मेरा हबीब है है उसीके पास मेरी शफ़ा वही बेमिसाल तबीब है हुआ संगदिल है ये आदमी कि रगों में ख़ून ही जम गया चला राहे-हक़ पे जो आदमी, तो उसीके सर पे सलीब है ये समय का दरिया है दोस्तो, नहीं पीछे मुड़के जो देखता सदा मौज बनके चला करे, यही आदमी का नसीब है यूँ तो आदमी है दबा हुआ यहाँ एक दूजे के कर्ज़ में कोई उनसे माँगे भी क्या भला, यहाँ हर कोई ही ग़रीब है न तमीज़ अच्छे-बुरे की है, न तो फ़र्क ऐबो-हुनर में ही बड़ी मुश्किलों का है सामना कि ज़माना ‘देवी’ अजीब है. देवी नागरानी |
Re: !! कुछ गजलें !!
प्यार की उम्र फकत हादसों से गुजरी है।
ओस है, जलते हुए पत्थरों से गुजरी है।। दिन तो काटे हैं, तुझे भूलने की कोशिश में शब मगर मेरी, तेरे ही खतों से गुजरी है।। जिंदगी और खुदा का, हमने ही रक्खा है भरम बात तो बारहा, वरना हदों से गुजरी है।। कोई भी ढांक सका न, वफा का नंगा बदन ये भिखारन तो हजारों घरों से गुजरी है।। हादसों से जहां लम्हों के, जिस्म छिल जाएं जिंदगी इतने तंग रास्तों से गुजरी है।। ये सियासत है, भले घर की बहू-बेटी नहीं ये तवायफ तो, कई बिस्तरों से गुजरी है।। जब से ‘सूरज’ की धूप, दोपहर बनी मुझपे मेरी परछाई, मुझसे फासलों से गुजरी है |
Re: !! कुछ गजलें !!
ख्वाहिशें, टूटे गिलासों सी निशानी हो गई। जिदंगी जैसे कि, बेवा की जवानी हो गई।। कुछ नया देता तुझे ए मौत, मैं पर क्या करूं जिंदगी की शक्ल भी, बरसों पुरानी हो गई।। मैं अभी कर्ज-ए-खिलौनों से उबर पाया नहीं लोग कहते हैं, तेरी गुड़िया सयानी हो गई।। आओ हम मिलकर, इसे खाली करें और फिर भरें सोच जेहनो में नए मटके का पानी हो गई।। दुश्मनी हर दिल में जैसे कि किसी बच्चे की जिद दोस्ती दादा के चश्मे की कमानी हो गई।। मई के ‘सूरज’ की तरह, हर रास्तों की फितरतें मंजिलें बचपन की परियों की कहानी हो गई।। |
Re: !! कुछ गजलें !!
उसे इश्क क्या है पता नहीं कभी शम्अ पर जो जला नहीं. वो जो हार कर भी है जीतता उसे कहते हैं वो जुआ नहीं. है अधूरी-सी मेरी जिंदगी मेरा कुछ तो पूरा हुआ नहीं. न बुझा सकेंगी ये आंधियां ये चराग़े दिल है दिया नहीं. मेरे हाथ आई बुराइयां मेरी नेकियों को गिला नहीं. मै जो अक्स दिल में उतार लूं मुझे आइना वो मिला नहीं. जो मिटा दे ‘देवी’ उदासियां कभी साज़े-दिल यूं बजा नहीं. |
Re: !! कुछ गजलें !!
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले । निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन, बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले । मुहब्बत में नही है फर्क जीने और मरने का, उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले । ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम, कहीं ऐसा ना हो यां भी वही काफिर सनम निकले । क़हाँ मैखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़, पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले। मिर्ज़ा गालिब |
Re: प्रणय रस
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं मिर्ज़ा गालिब |
Re: प्रणय रस
की वफ़ा हम से तो ग़ैर उस को जफ़ा कह्*ते हैं होती आई है कि अच्*छों को बुरा कह्*ते हैं आज हम अप्*नी परेशानी-ए ख़ातिर उन से कह्*ने जाते तो हैं पर देखिये क्*या कह्*ते हैं अग्*ले वक़्*तों के हैं यह लोग उंहें कुछ न कहो जो मै-ओ-नग़्*मह को अन्*दोह-रुबा कह्*ते हैं दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्*सत ग़श से और फिर कौन-से नाले को रसा कह्*ते हैं है परे सर्*हद-ए इद्*राक से अप्*ना मस्*जूद क़िब्*ले को अह्*ल-ए नज़र क़िब्*लह-नुमा कह्*ते हैं पा-ए अफ़्*गार पह जब से तुझे रह्*म आया है ख़ार-ए रह को तिरे हम मिह्*र-गिया कह्*ते हैं इक शरर दिल में है उस से कोई घब्*राएगा क्*या आग मत्*लूब है हम को जो हवा कह्*ते हैं देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्*वत क्*या रन्*ग उस की हर बात पह हम नाम-ए ख़ुदा कह्*ते हैं वह्*शत-ओ-शेफ़्*तह अब मर्*सियह कह्*वें शायद मर गया ग़ालिब-ए आशुफ़्*तह-नवा कह्*ते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब |
Re: !! कुछ गजलें !!
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है तू ने क़सम मैकशी की खाई है "ग़ालिब" तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है मिर्ज़ा ग़ालिब |
Re: !! कुछ गजलें !!
यही तोहफ़ा है यही नज़राना मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ रंग में तेरे मिलाने के लिये क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ ऐ गुलाबों के वतन पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं लेकिन आया था क़सम खाता हूँ फूल तो फूल हैं काँटों पे तेरे अपने होंटों के निशाँ पाता हूँ मेरे ख़्वाबों के वतन चूम लेने दे मुझे हाथ अपने जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे तूने बदला है मशियत का मिज़ाज तूने लिखी हैं नई तक़दीरें इंक़लाबों के वतन फूल के बाद नये फूल खिलें कभी ख़ाली न हो दामन तेरा रोशनी रोशनी तेरी राहें चाँदनी चाँदनी आंगन तेरा माहताबों के वतन kaifi azmi |
Re: !! कुछ गजलें !!
दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
अख़िर इस दर्द की दवा क्या है हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार या इलाही यह माज्रा क्या है मैं भी मुंह में ज़बान रख्ता हूं काश पूछो कि मुद्द`आ क्या है जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद फिर यह हन्गामह अय ख़ुदा क्या है यह परी-चह्रह लोग कैसे हैं ग़म्ज़ह-ओ-`इश्वह-ओ-अदा क्या है शिकन-ए ज़ुल्फ़-ए अन्बरीं क्यूं है निगह-ए चश्म-ए सुर्मह-सा क्या है सब्ज़ह-ओ-गुल कहां से आए हैं अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जान्ते वफ़ा क्या है हां भला कर तिरा भला होगा और दर्वेश की सदा क्या है जान तुम पर निसार कर्ता हूं मैं नहीं जान्ता दु`आ क्या है मैं ने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है ग़ालिब |
Re: !! कुछ गजलें !!
सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है। करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है। ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है। वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है। खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है। है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है। हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है। हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है। दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है। यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है। रामप्रसाद बिस्मिल |
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की वफ़ा हम से तो ग़ैर उस को जफ़ा कह्*ते हैं होती आई है कि अच्*छों को बुरा कह्*ते हैं आज हम अप्*नी परेशानी-ए ख़ातिर उन से कह्*ने जाते तो हैं पर देखिये क्*या कह्*ते हैं अग्*ले वक़्*तों के हैं यह लोग उंहें कुछ न कहो जो मै-ओ-नग़्*मह को अन्*दोह-रुबा कह्*ते हैं दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्*सत ग़श से और फिर कौन-से नाले को रसा कह्*ते हैं है परे सर्*हद-ए इद्*राक से अप्*ना मस्*जूद क़िब्*ले को अह्*ल-ए नज़र क़िब्*लह-नुमा कह्*ते हैं पा-ए अफ़्*गार पह जब से तुझे रह्*म आया है ख़ार-ए रह को तिरे हम मिह्*र-गिया कह्*ते हैं इक शरर दिल में है उस से कोई घब्*राएगा क्*या आग मत्*लूब है हम को जो हवा कह्*ते हैं देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्*वत क्*या रन्*ग उस की हर बात पह हम नाम-ए ख़ुदा कह्*ते हैं वह्*शत-ओ-शेफ़्*तह अब मर्*सियह कह्*वें शायद मर गया ग़ालिब-ए आशुफ़्*तह-नवा कह्*ते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब |
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हम घूम चुके बस्ती-वन में इक आस का फाँस लिए मन में कोई साजन हो, कोई प्यारा हो कोई दीपक हो, कोई तारा हो जब जीवन-रात अंधेरी हो इक बार कहो तुम मेरी हो जब सावन-बादल छाए हों जब फागुन फूल खिलाए हों जब चंदा रूप लुटाता हो जब सूरज धूप नहाता हो या शाम ने बस्ती घेरी हो इक बार कहो तुम मेरी हो हाँ दिल का दामन फैला है क्यों गोरी का दिल मैला है हम कब तक पीत के धोखे में तुम कब तक दूर झरोखे में कब दीद से दिल की सेरी हो इक बार कहो तुम मेरी हो क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का ये काज नहीं बंजारे का सब सोना रूपा ले जाए सब दुनिया, दुनिया ले जाए तुम एक मुझे बहुतेरी हो इक बार कहो तुम मेरी हो इब्ने इंशा |
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न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही मय परस्ताँ ख़ूम-ए-मय मूंह से लगाये ही बने एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह् गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही Mirza galib |
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मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ |
Re: !! कुछ मशहूर गजलें !!
देखा है मैंने इश्क में ज़िन्दगी को संवरते हुए चाँद की आरजू में चांदनी को निखरते हुए इक लम्हे में सिमट सी गई है ज़िन्दगी मेरी महसूस किया है मैंने वक्त को ठहरते हुए डर लगने लगा है अब तो, सपनो को सजाने में भी जब से देखा है हंसी ख्वाबों को बिखरते हुए अब तो सामना भी हो जाये तो वो मुह फिर लेते हैं अपना पहले तो बिछा देते थे नजरो को अपनी, जब हम निकलते थे उनके रविस से गुजरते हुए... |
Re: !! कुछ मशहूर गजलें !!
तू परछाई है मेरी, तो कभी मुझे भी दिखाई दिया कर ऐ जिंदगी ! कभी तो इक जाम फुर्सत में मेरे संग पिया कर मै भी इन्सान हूँ, मेरे भी दिल में बसता है खुदा मेरी नहीं तो न सही, कम से कम उसकी तो क़द्र किया कर इनायत समझ कर तुझको अबतलक जीता रहा हूँ मै मिटा कर क़ज़ा के फासले, मै तुझमे जियूं तू मुझमे जिया कर मेरा क्या है ? मै तो दीवाना हूँ इश्क-ऐ-वतन में फनाह हो जाऊंगा वतन पे मिटने वालों की न जोर आजमाइश लिया कर........... |
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