एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
दोस्तो ! उर्दू ग़ज़ल की एक खूबसूरत सुदीर्घ रवायत है, जिसे किसी एक सूत्र में समेट पाना कठिन है, लेकिन मैं इस सूत्र में कोशिश कर रहा हूं कि इसके कुछ नूर-आफरीं कतरों से आपको रू-ब-रू करा सकूं ! सूत्र में मेरा प्रयास रहेगा कि आप कलाम के साथ शोअरा से भी आशना हो सकें और कठिन अल्फ़ाज़ के भावार्थ भी आपको मिल सकें ! यहां अर्थ मैंने इसलिए नहीं लिखा कि शायर ने जो कहा है, उसे सब अपने-अपने नज़रिए से देखते हैं यानी हम उसके भाव के नजदीक ही पहुंच पाते हैं ! अर्थ तक तभी पहुंचा जा सकता है, जब पाठक का जुड़ाव, मानसिक स्तर और स्थिति शायर से तालमेल बिठा ले, जो निश्चय ही आसान नहीं है ! खैर, आपको कोई अतिरिक्त लफ्ज़ कठिन प्रतीत हो, तो निसंकोच मुझे कहें, भावार्थ में प्रस्तुत कर दूंगा ! तो चलिए, आपको ले चलता हूं, ग़ज़ल के इस खूबसूरत सफ़र पर !
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मीर तक़ी 'मीर'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321395845 शायर को खुदा का शिष्य भी कहा गया है और शायरी को पैगम्बरी का हिस्सा, लेकिन 'मीर' अकेले शायर हैं, जिन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है ! वर्तमान उत्तर प्रदेश के आगरा ( तत्कालीन अकबराबाद ) में 1722 के किसी रोज़ जन्मे 'मीर' हिन्दुस्तानी काव्य-जगत के उन चन्द नामों में शुमार हैं, जिन्होंने सदियों बाद भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग में स्थान बनाया हुआ है ! उनकी शायरी उर्दू-हिंदी की साझा सांस्कृतिक विरासत का ऐसा विरल उदाहरण है, जिसे लोकोन्मुख कथ्य और गंगा-जमुनी अंदाज़ के साथ पूरी कलात्मक ऊंचाई का आईना भी कहा जा सकता है ! 'मुझे गुफ्तगू अवाम से है' - कहते हैं 'मीर' और यही है वह सचाई, जिसकी बदौलत उनका कलाम दरियाओं में जाने कितना पानी बह जाने के बावजूद आज भी वही असर रखता है ! लुत्फ़ लें उनकी एक बेइंतहा पुरअसर ग़ज़ल का- देख तो दिल कि जां से उठता है ये धुंआ सा कहां से उठता है गोर किस दिलजले की है ये फलक शोला इक सुब्ह यां से उठता है खानः-ए-दिल से जीनहार न जा कोई ऐसे मकां से उठता है बैठने कौन दे है फिर उन को जो तिरे आस्तां से उठता है यूं उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहां से उठता है ____________________ गोर - कब्र, फलक - आकाश, खानः-ए-दिल - ह्रदय का घर, जीनहार - हरगिज़, कतई; आस्तां - चौखट, दरवाज़ा ! |
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मिर्ज़ा ग़ालिब
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396009 'हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे / कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और' - मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शे'र में कोई अतिशयोक्ति नहीं की, बल्कि हकीकत बयान की है ! उर्दू काव्य-गगन में छोटे-बड़े लाखों सितारे चमक बिखेर रहे हैं, लेकिन इनमें से अक्सर की रौशनी को मंद कर देने वाला माहताब सिर्फ एक है और वह हैं 'ग़ालिब' ! मिर्ज़ा का जन्म 1796 में आगरा में हुआ ! मिर्ज़ा असदुल्लाह खां से 'असद' और फिर 'ग़ालिब' बनने तक मिर्ज़ा नौशा ने तमाम उतार-चढाव देखे थे और वही सब उनकी शायरी का असल रंग है ! देखिए उनके कलाम का एक अनूठा रंग - आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक हमने माना कि तगाफ़ुल न करोगे, लेकिन खाक़ हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक परतव-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सत-ए-हस्ती गाफ़िल गर्मी-ए-बज़्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक गम-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़ शमअ हर रंग में जलती है सहर होने तक _________________________________ माहताब : चन्द्रमा, दाम हर मौज : प्रत्येक तरंग का जाल, हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग : सौ जबड़ों वाले मगरमच्छ का घेरा, क़तरे : बूँद, आशिक़ी : प्रेम, सब्र-तलब : जिसके लिए धैर्य आवश्यक हो, तगाफ़ुल : उपेक्षा, परतव-ए-खुर : सूर्य का प्रतिबिम्ब, बेश : अधिक, फुर्सत-ए-हस्ती : जीने की अवधि, रक्स-ए-शरर : चिनगारी का नृत्य, गम-ए-हस्ती : जीवन के दुःख, जुज़ : सिवाय, मर्ग : मृत्यु, सहर : भोर |
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मोमिन खां 'मोमिन'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396088 मुग़ल साम्राज्य के आखिरी दिनों में कश्मीर से दिल्ली आकर शाही हकीम बने नामदार खां के पौत्र 'मोमिन' (पिता का नाम हकीम गुलाम नबी) स्वयं एक कुशल चिकित्सक और मशहूर ज्योतिषी भी थे ! दिल्ली में 1800 में जन्मे मोमिन का उर्दू काव्य जगत में विशेष महत्त्व है ! उनका क्षेत्र मुख्यतः प्रेम-वर्णन होते हुए भी, इसमें जो तड़प उन्होंने पैदा की, वह सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है ! अभिव्यक्ति की मौलिकता और भाव पक्ष की प्रबलता की वज़ह से उर्दू अदब की तबारीख (इतिहास) में वे एक अमर शायर के रूप में दर्ज हैं ! वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेश्तर, वो करम जो था मेरे हाल पर मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो वो नए गिले वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो कि न याद हो कोई बात ऐसी अगर हुई, कि तुम्हारे जी को बुरी लगी तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो कि न याद हो जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा मैं वही हूं 'मोमिन'-ए-मुब्तिला, तुम्हें याद हो कि न याद हो _____________________________________________ पेश्तर : पूर्व में, पहले; हिकायतें : कहानियां, आशना : परिचित, बावफा : निष्ठावान, मुब्तिला : डूबा हुआ |
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'जोश' मलीहाबादी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396192 'शायर-ए-इंक़लाब' कहलाने वाले 'जोश' 1894 में मलीहाबाद के एक जागीरदार घराने में पैदा हुए ! शबीर हसन खां से 'जोश' बनने का उनका सफ़र सिर्फ नौ बरस की उम्र में शुरू हो गया था ! 'अर्श-ओ-फर्श', 'शोला-ओ-शबनम', 'सुम्बल-ओ-सलासिल' आदि अनेक दीवान (काव्य संकलन) से उर्दू अदब को मालामाल (समृद्ध) करने वाले 'जोश' अपनी जीवनी 'यादों की बरात' की साफगोई के लिए पाकिस्तान में 'भारत का एजेंट' जैसे अनेक आक्षेपों का शिकार हुए ! लेफ्टिस्ट-तरक्कीपसंद (वामपंथी-प्रगतिशील) उर्दू शायरी के प्रवर्तकों में उनका इस्म-ए-शरीफ (नाम) और कलाम (सृजन) बहुत ऊंचा दर्ज़ा रखते हैं ! लुत्फ़ लीजिए उनकी एक ग़ज़ल का - बला से कोई हाथ मलता रहे तिरा हुस्न सांचे में ढलता रहे हर इक दिल में चमके मोहब्बत का राग ये सिक्का ज़माने में चलता रहे वो हमदर्द क्या जिसकी हर बात में शिकायत का पहलू निकलता रहे बदल जाए खुद भी तो हैरत है क्या जो हर रोज़ वादे बदलता रहे ये तूल-ए-सफ़र, ये नशेब-ओ-फ़राज़ मुसाफिर कहां तक संभलता रहे कोई जौहरी 'जोश' हो या न हो सुखनवर जवाहर उगलता रहे __________________________________ हैरत : आश्चर्य, तूल-ए-सफ़र : लंबा सफ़र, नशेब-ओ-फ़राज़ : ऊंच-नीच, खाइयां और घाटियां, सुखनवर : कवि, जवाहर : जवाहरात |
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'फ़िराक' गोरखपुरी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396311 गोरखपुर में 1896 के अगस्त की 28वीं तारीख को जन्मे रघुपति सहाय को उर्दू अदब में 'फ़िराक' गोरखपुरी के रूप में एक आला मुकाम (उच्च स्थान) हासिल है ! 'शायर-ए-जमाल' (सौन्दर्य का कवि) कहलाने वाले 'फ़िराक' ने 1918 से शायरी शुरू की ! उनके अनेक दीवान शाया (काव्य संकलन प्रकाशित) हुए, जिनमें तकरीबन बीस हज़ार अशआर शामिल हैं ! बहुत ज्यादा अशआर में ग़ज़ल कहने के लिए नामवर (विख्यात) 'फ़िराक' ने तकरीबन सात सौ गज़लें, एक हज़ार रुबाइयां और अस्सी से ज्यादा नज्में कही हैं ! अपने दीवान 'गुल-ए-नग्मा' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया और बाद में ज्ञानपीठ सम्मान से भी ! लुत्फ़ उठाइए 'फ़िराक' की एक रसभीनी ग़ज़ल का - शाम-ए-गम कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बेखुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो नकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशां, दास्तान-ए-शाम-ए-गम सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-यास, ये दिल की रगों का टूटना खामशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे, दुखती रहे यूं ही उसके जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो कुछ कफस की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो जिसकी फुरकत ने पलट दी इश्क की काया 'फ़िराक' आज उसी ईसा-नफस दमसाज़ की बातें करो _______________________________________________ शाम-ए-गम : शोकपूर्ण संध्या, निगाह-ए-नाज़ : भंगिमायुक्त दृष्टि, बेखुदी : आत्म-विस्मृति, नकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशां : उलझे हुए सुगन्धित केश, दास्तान-ए-शाम-ए-गम : शोकपूर्ण संध्या (यहाँ अर्थ रात से है) की कहानी,सुकूत-ए-यास : नैराश्य की चुप्पी, खामशी : खामोशी, शिकस्त-ए-साज़ : साज़ का टूटना, रग-ए-दिल : दिल की रग, वज्द : उन्माद, जा-ओ-बेजा : उचित और अनुचित, नाज़ : भंगिमा, अदा, कफस : पिंजरा, नूर : प्रकाश,हसरत-ए-परवाज़ : उड़ने की अभिलाषा, फुरकत : बिछोह, ईसा-नफस : पवित्र हृदय, दमसाज़ : मित्र |
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396430 सियालकोट में 1911 में जन्मे फ़ैज़ ने 1928 में पहली ग़ज़ल और 1929 में पहली नज़्म कही ! यह थी उपलब्धियों भरी उस दास्तान की शुरुआत, जो आज 'नक्श-फरियादी', 'दस्ते-सबा', 'जिन्दांनामा', 'सरे-वादिए-सीना', 'शामे-शहरे-यारां', 'मेरे दिल मेरे मुसाफिर' आदि अनेक किताबों के रूप में हमारे सामने है ! उर्दू की प्रगतिशील धारा के आधार स्तंभों में से एक फ़ैज़ की खासियत है 'रोमानी तेवर में भी खालिस इन्किलाबी बात' कह जाना ! लीजिए फ़ैज़ की एक ऐसी ही ग़ज़ल का आनंद - रंग पैराहन का, खुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम मौसमे-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम फिर नज़र में फूल महके, दिल में फिर शमएं जलीं फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम अब किसी लैला को भी इकरारे-महबूबी नहीं इन दिनों बदनाम है हर एक दीवाने का नाम हम से कहते हैं चमन वाले गरीबाने-वतन तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम 'फ़ैज़' उनको है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से जिन्हें आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम _______________________________________ पैराहन : वस्त्र, मौसमे-गुल : बहार का मौसम, बाम : छत, अटारी; शमएं : दीपक, तसव्वुर : कल्पना, बज़्म : महफ़िल, सभा; इकरारे-महबूबी : प्रेम की स्वीकृति, गरीबाने-वतन : बाग़ से बाहर रहने वाले, तक़ाज़ा-ए-वफ़ा : निष्ठा की आकांक्षा, आशना : पहचाना हुआ, अपना; बेगाने : गैर, अन्य ! |
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गुलाम जीलानी 'असगर'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321396667 अटक के छोटे से स्थान तगानक में 1918 में जन्मे गुलाम जीलानी उर्दू अदब में 'असगर' तखल्लुस (उपनाम) से पहचाने जाते हैं ! उनका ज्यादातर कलाम पढ़ कर इस कथन पर सहज विश्वास कर लेने को जी चाहता है कि 'शायरी पैगम्बरी का हिस्सा होती है' ! 'असगर' की शायरी में आने वाले कल की आहटें साफ़ सुनाई देती हैं ! दरअस्ल वे अपने समय की बात करते हुए भी अपनी नज़र बहुत आगे तक रखते हैं, इसीलिए वे अब भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहेंगे ! लुत्फ़ उठाइए उनकी एक नायाब ग़ज़ल का - कितने दरिया इस नगर से बह गए दिल के सहरा खुश्क फिर भी रह गए आज तक गुमसुम खड़ी हैं शहर में जाने दीवारों से तुम क्या कह गए एक तू है, बात भी सहता नहीं एक हम हैं तेरा गम भी सह गए तुझसे जगबीती की सब बातें कहीं कुछ सुखन नागुफ्तनी भी रह गए तेरी मेरी चाहतों के नाम पर लोग कहने को बहुत कुछ कह गए _____________________________________ सहरा : मरुस्थल, सुखन : बातें, बोल; नागुफ्तनी : अनकहा ! |
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बिमल कृष्ण 'अश्क'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397578 जिला गुडगाँव की छोटी सी जगह भान्गरोला में 1924 के किसी रोज़ पैदा हुए बिमल कृष्ण 'अश्क' उर्दू साहित्य संसार में एक जाना-पहचाना नाम हैं ! नए बिम्ब विधान और नए प्रतीकों की बदौलत 'अश्क' ने ग़ज़ल को नई ऊंचाइयां तो अता की हीं, यथार्थ चित्रण के कई प्रयोग भी किए ! दरअसल उनकी समूची शायरी में वर्तमान की धडकनें हैं, तिस पर भी वह सार्वजनीन और सर्वकालिक भी है ! यही 'अश्क के सृजन की वह बड़ी खूबी है, जो उन्हें एक महान शायर बनाती है ! डूब गए हो देख के जिनमें ठहरा, गहरा, नीला पानी आंख झपकते मर जाएगा 'अश्क' उन्हीं आंखों का पानी तू, मैं, फूल, सितारा, मोती सब उस दरिया की मौजें जैसा - जैसा बर्तन, वैसा - वैसा भेष बदलता पानी बारह मास हरी टहनी पर पीले फूल खिला करते हैं दुख के पौदे को लगता है जाने किस दरिया का पानी बीती उम्र सरहाना सींचे, आंखें रोती हैं कन्नियों को दुख का सूरज पीकर डूबा दोनों दरियाओं का पानी चौखट-चौखट आंगन-आंगन, खट्टी छाछ, कसैला मक्खन गांव के हर घर में दर आया बस्ती का मटमैला पानी तन का लोभी क्या जाने, तन-मन का दुख दोनों तीरथ हैं पाक-बदन काशी की मिट्टी, आंसू गंगा मां का पानी __________________________________ अश्क : आंसू, किन्तु यहां यह इस शे'र की विशेषता है कि शायर ने अपने तखल्लुस का इस प्रकार उपयोग किया है, मौजें : लहरें, दर आया : आ गया, पाक-बदन : पवित्र शरीर |
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'रिफ़अत' सरोश
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397795 बिजनौर के पास स्थित एक छोटे से स्थान नगीना में 1926 के किसी रोज जन्मे 'रिफ़अत' सरोश का वास्तविक नाम है सैयद शौकत अली, जिसे उन्होंने शायरी के लिए बदल लिया ! 'रिफ़अत' की शायरी उर्दू ग़ज़ल के रिवायती (पारम्परिक) खाके की दहलीज़ पर खड़े होकर नए ज़माने को देखती है, उसकी बात करती है ! यही कारण है कि 'रिफ़अत' कठिन शब्दों से बचते हैं और आम जन की बात आमफ़हम अल्फाज़ में ही करते हैं ! यही उनकी शायरी की एक बड़ी ताकत भी है ! अपने घर, अपनी धरती की आस लिए, बू-बास लिए जंगल-जंगल घूम रहा हूं, जनम-जनम की प्यास लिए जितने मोती, कंकर और खज़फ़ थे अपने पास लिए मैं अनजान सफ़र पर निकला, मधुर मिलन की आस लिए कच्ची गागर फूट न जाए, नाज़ुक शीशा टूट न जाए जीवन की पगडंडी पर चलता हूं ये एहसास लिए वो नन्ही सी ख़्वाहिश अब भी दिल को जलाए रखती है जिसके त्याग की खातिर मैंने कितने ही बनबास लिए सोच रही है कैसे आशाओं का निशेमन बनता है मन की चिड़िया, तन के द्वारे बैठी चोंच में घास लिए जब परबत पर बर्फ गिरेगी सब पंछी उड़ जाएंगे झील किनारे जा बैठेंगे, इक अनजानी प्यास लिए छोड़ के संघर्षों के झंझट, तोड़ के आशा के रिश्ते गौतम बरगद के साये में बैठा है संन्यास लिए _____________________________ खज़फ़ : कंकरिया, निशेमन : घोंसला |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बहुत ही उम्दा ग़ज़लें है, बार बार पढने और सहेज कर रखने वाली गजलें प्रस्तुत करने के लिए सूत्रधार को बहुत बहुत धन्यवाद.
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गजल अच्छी हैं पर मुझे आपकी सिगरेट वाली दलील पसंद नहीं आई। इसीलिए मैं आपको धन्यवाद नहीं दुँगा।
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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'कैफ़ी' आज़मी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397883 आजमगढ़ की छोटी सी जगह निजवान में 1926 में पैदा हुए 'कैफ़ी' उर्दू अदब और हिंदी फिल्म जगत की एक बहुचर्चित हस्ती हैं ! उर्दू की प्रगतिवादी काव्य-धारा के अगुआ शोअरा में से एक 'कैफ़ी' का रचना संसार बहुत विस्तृत, किन्तु आडम्बरविहीन है ! सादा अल्फाज़ में आलंकारिक गहराई लाने में उन्हें कमाल हासिल है ! उनके अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं और देश-विदेश के अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया है ! सुना करो मिरी जान, इनसे उनसे अफ़साने सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने यहां से जल्द गुज़र जाओ काफ़िले वालो हैं मेरी प्यास के फूंके हुए ये वीराने मिरे जुनूने-परस्तिश से तंग आ गए लोग सुना है बंद किए जा रहे हैं बुतखाने जहां से पिछले पहर कोई तश्नाकाम उट्ठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने हुआ है हुक्म कि 'कैफ़ी' को संगसार करो मसीह बैठे हैं छुप के कहां खुदा जाने _____________________________ जुनूने-परस्तिश : उपासना का उन्माद, बुतखाने : मंदिर, तश्नाकाम : प्यासा, सहरा : रेगिस्तान, संगसार : अरब की एक परम्परा, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु-दंड दिया जाता है, मसीह : मृतकों को जीवित करने वाले पैगम्बर हज़रत मसीह ! |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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कैसर-उल-जाफ़री
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321397955 इलाहाबाद में 1926 में जन्मे जुबैर अहमद ग़ज़लों की दुनिया में कैसर-उल-जाफ़री के नाम से विख्यात हैं ! ज़िन्दगी की कड़वी सचाई को भी बड़े सहज अंदाज़ में कह जाने की खूबी उन्हें एक मीठा और बड़ा शायर बनाती है ! उर्दू के पारंपरिक शब्दों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग उनकी शायरी में अधिक अवश्य है, फिर भी उनकी ग़ज़लों में सहज रवानी कहीं भी देखी जा सकती है ! लुत्फ़ लीजिए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल का - दिल में चुभ जाएंगे जब अपनी ज़बां खोलेंगे हम भी अब शहर में कांटों की दुकां खोलेंगे शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज धूप आएगी तो हम अपना मकां खोलेंगे आबले पाओं के चलने नहीं देते हमको हमसफ़र रख्ते - सफ़र जाने कहां खोलेंगे इतना भीगे हैं कि उड़ते हुए यूं लगता है टूट जाएंगे परो - बाल जहां खोलेंगे एक दिन आपकी गज़लें भी बिकेंगी 'कैसर' लोग बोसीदा किताबों की दुकां खोलेंगे ______________________________ ध्यानार्थ : 'शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज' में कई जगह शोर की जगह रक्स (नृत्य) भी मिलता है यानी 'रक्स करते रहें गलियों में हजारों सूरज ...' ! ______________________________ आबले : छाले, हमसफ़र : सहयात्री, सफ़र के साथी, रख्ते-सफ़र : सफ़र में साथ लाया हुआ सामान, परो-बाल : पंख और बाल, बोसीदा : पुरानी, जर्जर |
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जमीलुद्दीन 'आली'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398083 लोहारू के नवाब अमीरुद्दीन के पुत्र जमीलुद्दीन का जन्म 1926 के जनवरी माह की पहली तारीख को दिल्ली में हुआ ! इब्ने इंशा की तरह 'आली' भी कबीर, मीर और नजीर अकबराबादी की परम्परा के शायर हैं ! 1947 में पाकिस्तानी बन जाने का दर्द झेलते 'आली' अपने दोहों में 'दिल्ली के यमुना तट पर बैठ कर भारतीय सभ्यता के दीपक जलाते' नज़र आते हैं ! पाकिस्तान में जो हों 'आली' दिल्ली में थे नवाब - उनके एक दोहे की यह पंक्ति उनके जीवन का निचोड़ है ! 'गज़लें दोहे गीत' और 'लाहासिल' उनके प्रसिद्ध काव्य संकलन हैं ! 'आली' जी अब आप चलो तुम अपने बोझ उठाए साथ भी दे तो आखिर हमारे कोई कहां तक जाए जिस सूरज की आस लगी है, शायद वो भी आए तुम ये कहो, खुद तुमने अब तक कितने दीये जलाए अपना काम है सिर्फ मोहब्बत, बाक़ी उसका काम जब चाहे वो रूठे हमसे, जब चाहे मन जाए क्या-क्या रोग लगे हैं दिल को, क्या-क्या उनके भेद हम सबको समझाने वाले, कौन हमें समझाए एक इसी उम्मीद पे हैं सब दुश्मन दोस्त क़बूल क्या जाने इस सादा-रवी में कौन कहां मिल जाए दुनिया वाले सब सच्चे पर जीना है उसको भी एक गरीब अकेला पापी किस किस से शर्माए इतना भी मजबूर न करना वर्ना हम कह देंगे ओ 'आली' पे हंसने वाले तू 'आली' बन जाए _________________________ सादा-रवी : धीमी चाल |
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इब्ने इंशा
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398203 लुधियाना में 1927 में जन्मे शेर मोहम्मद खां ने कमसिनी में ही स्वयं को इब्ने इंशा कहलाना पसंद किया ! लहज़े के सूफ़ियाना अंदाज़ और मन की सादामिजाज़ी ने उनके कलाम को वह ख़स्तगी और फ़कीरी बख्शी कि वे हिंदी में कबीर तथा निराला और उर्दू में 'मीर' एवं 'नज़ीर' की परंपरा के वाहक बने ! 'उर्दू' की आखिरी किताब' ने उन्हें एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार के रूप में उर्दू अदब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया है ! 'चांद नगर' और 'इस बस्ती के इस कूचे में' उनके उल्लेखनीय और जनप्रिय काव्य-संकलन हैं ! यहां लुत्फ़ उठाइए उनकी एक सूफ़ियाना अंदाज़ की ग़ज़ल का - इंशाजी उठो अब कूच करो, इस शहर में जी का लगाना क्या वहशी को सुकूं से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या इस दिल के दरीदा दामन को, देखो तो सही, सोचो तो सही जिस झोली में सौ छेद हुए, उस झोली का फैलाना क्या शब बीती, चांद भी डूब चला, ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में क्यों देर गए घर आए हो, सजनी से करोगे बहाना क्या फिर हिज्र की लम्बी रात मियां, संजोग की तो यही एक घड़ी जो दिल में है लब पर आने दो, शरमाना क्या, घबराना क्या उस रोज़ जो उनको देखा है, अब ख़्वाब का आलम लगता है उस रोज़ जो उनसे बात हुई, वह बात भी थी अफ़साना क्या उस हुस्न के सच्चे मोती को, हम देख सकें पर छू न सकें जिसे देख सकें पर छू न सकें, वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या उसको भी जला दुखते हुए मन, इक शोला लाल भभूका बन यूं आंसू बन बह जाना क्या, यूं माटी में मिल जाना क्या जब शहर के लोग न रस्ता दें, क्यों बन में न जा बिसराम करें दीवानों की सी न बात करे, तो और करे दीवाना क्या ____________________________________ दरीदा : बेहया, लज्जाहीन, शब : रात, हिज्र : वियोग, लब : होंठ, अफ़साना : कहानी, बिसराम : विश्राम, दीवाना : पागल |
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शान-उल-हक़ 'हक्की'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398488 दिल्ली में 1927 में जन्मे शान-उल-हक़ की शायरी कटु यथार्थ से रू-ब-रू होकर भी एक सुखद संसार का सृजन करती है ! दुखों के बरअक्स उनकी उम्मीद बड़ी है ! वे दुनियावी झंझटों का वर्णन करते हैं, लेकिन आशा का दामन नहीं छोड़ते ! अनेक दौर अपनी शायरी में समेटते हुए और वर्तमान पर नज़र करते हुए भी आने वाला कल उनके तईं धुंधला नहीं है ! वे गर्मजोशी से उसकी बात करते हैं और अपनी शायरी को किसी भी समय में पढ़े जाने लायक बना जाते हैं ! यहां पढ़िए उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल ! दुनिया की ही राह पे आख़िर रफ़्ता-रफ़्ता आना होगा दर्द भी देगा साथ कहां तक, बेदिल ही बन जाना होगा हैरत क्या है, हम से बढ़ कर कौन भला बेगाना होगा खुद अपने को भूल चुके हैं, तुमने क्या पहचाना होगा दिल का ठिकाना ढूंड लिया है और कहां अब जाना होगा हम होंगे और वहशत होगी, और यही वीराना होगा बीत गया जो याद में तेरी, इक इक लम्हे का है ध्यान उल्फ़त में जी हारना कैसा, जो खोया सब पाना होगा और तो सब दुख बंट जाते हैं, दिल के दर्द को कौन बटाए दुनिया के ग़म बरहक़ लेकिन, अपना भी ग़म खाना होगा दिल में हुज़ूमे-दर्द लेकिन, आह के भी औसान नहीं इस बदली को यूं ही आख़िर बिन बरसे छट जाना होगा हम तो फ़साना कह कर अपने दिल का बोझ उतार चले तुम जो कहोगे अपने दिल से वो कैसा अफ़साना होगा _____________________________________ रफ़्ता-रफ़्ता : धीरे-धीरे, वहशत : दीवानगी, लम्हे : पल, क्षण, उल्फ़त : प्रेम, बरहक़ : अपनी जगह उचित, हुज़ूमे-दर्द : पीड़ा का समूह, औसान : होश-हवास, फ़साना : अफ़साना, कहानी |
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बलराज कोमल
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321398868 सियालकोट के उद्दूर में 1928 के किसी रोज जन्मे बलराज कोमल ने अपनी शायरी में अनुभवों की भीड़ से गुज़रते हुए क़दम-क़दम पर एक नई अभिव्यक्ति और एहसास का साक्षात् कराया है ! अपने इर्द-गिर्द को अपने सृजन में समेटने का परिणाम है कि बलराज कोमल आज उर्दू अदब के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! सात काव्य-संग्रहों के अलावा अन्य विधाओं पर भी उनकी किताबें शाया हुई हैं ! उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, दिल्ली उर्दू अकादमी, शिक्षा मंत्रालय (भारत सरकार); और मीर अकादमी, लखनऊ उन्हें सम्मानित कर चुकी है ! अपनी कृति 'परिंदों भरा आसमान' पर उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज पेड़ धूप में बनते - संवरते सब्ज़ पेड़ किस कद्र तश्हीरे-गम से दूर थे चुप्के-चुप्के आह भरते सब्ज़ पेड़ दूर तक रोती हुई खामोशियां रात के मंज़र से डरते सब्ज़ पेड़ दश्त में वो राहरौ का ख्वाब थे घर में कैसे पांव धरते सब्ज़ पेड़ दोस्तों की सल्तनत से दूर तक दुश्मनों के ढोर चरते सब्ज़ पेड़ कर गए बे-मेहर मौसम के सुपुर्द रफ्ता-रफ्ता आज मरते सब्ज़ पेड़ _______________________________ ग़ुस्ल : स्नान, तश्हीरे-गम : पीड़ा के विज्ञापन से, मंज़र : दृश्य, दश्त : जंगल, राहरौ : यात्री, सल्तनत : साम्राज्य, बे-मेहर : निर्दय, रफ्ता-रफ्ता : शनैः - शनैः |
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अमीक़ 'हन्फी'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321399038 महो छावनी में 1928 में जन्मे अमीक़ 'हन्फी' उन कुछ शोअरा में हैं, जो पुरानी पीढ़ी के प्रतिनिधि होते हुए भी आधुनिक उर्दू शायरी की रहनुमाई भी उसी कौशल से करते हैं ! उनके सृजन में उर्दू अदब की पारंपरिक धड़कनें मौजूद हैं, तो आधुनिक उर्दू जगत भी उन्हें अपनी जमात में खड़ा पाता है ! अपनी ग़ज़लों में हिंदी के विशिष्ठ शब्दों के खूबसूरत प्रयोग उन्हें उर्दू काव्य जगत के प्रयोगवादी रचनाकारों की पांत में ला खड़ा करते हैं ! यहां प्रस्तुत है उनकी एक छोटी, लेकिन साहित्य जगत की कसौटियों की दृष्टि से बड़ी ग़ज़ल ! आनंद उठाएं ! मैं भी कब से चुप बैठा हूं, वो भी कब से चुप बैठी है है ये विसाल की रस्म अनोखी, ये मिलने की रीत नई है वो जब मुझको देख रही थी, मैंने उसको देख लिया था बस इतनी सी बात थी लेकिन बढ़ते-बढ़ते कितनी बढ़ी है बेसूरत बेज़िस्म आवाज़ें अन्दर भेज रही हैं हवाएं बंद हैं कमरे के दरवाज़े लेकिन खिड़की खुली हुई है मेरे घर की छत के ऊपर सूरज आया, चांद भी उतरा छत के नीचे के कमरों की जैसी थी, औक़ात वही है ________________________________________ शोअरा : शायर का बहुवचन, विसाल : मिलन, बेसूरत : जिसका कोई चेहरा न हो, अनजान, बेजिस्म : जिसका कोई शरीर न हो, औक़ात : स्थिति |
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'मुनीर' नियाज़ी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321399157 होशियारपुर में 1928 में जन्मे मोहम्मद मुनीर खां उर्दू काव्य जगत में 'मुनीर' नियाज़ी के नाम से विख्यात हैं ! इश्क-ओ-हुस्न (प्रेम और सौंदर्य) 'मुनीर' की शायरी के केन्द्रीय विषय अवश्य हैं, लेकिन इन पर भी नज़र उनकी अपनी है और इसके साथ-साथ वे अपने इर्द-गिर्द से बेखबर भी नहीं हैं ! ग़ज़ल के रिवायती अल्फाज़ और प्रचलित तरकीबों के बल पर ही उन्होंने अपना रचना - संसार खड़ा किया है, लेकिन ज़मीन बिलकुल नई और खुद अपनी तलाशी है ! आइए, बिताएं इस अनूठी साहित्यिक ज़मीन पर कुछ नायाब लम्हे ! बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना छलकाए हुए फिरना खुशबू लबे-लाली की इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना उस हुस्न का शेवा है जब इश्क नज़र आए परदे में चले जाना, शरमाए हुए रहना इक शाम सी कर रखना, काजल के करिश्मे से इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना आदत ही बना ली है तुमने तो 'मुनीर' अपनी जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना ____________________________________ जज्बा : भावना, लबे-लाली : लाल होंठ, शेवा : ढंग |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
ऐसी अजीम शख्सियतोँ से रू-ब-रू कराने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया |
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माजिद-उल-बाकरी 'माजिद'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321399405 आगरा के निकटवर्ती मोहम्मदाबाद में 1928 में जन्मे 'माजिद' उर्दू काव्य जगत में एक चर्चित और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनके सृजन में लोक, इर्द-गिर्द के बिम्ब और यथार्थ मुखर हैं, किन्तु उनका अपना मुहावरा और बात करने का अपना अलग ढंग उर्दू अदब में उन्हें जुदा मुकाम अता करता है ! ऐसा नहीं है कि 'माजिद' की शायरी उर्दू काव्य परंपरा की इश्किया धारा से सर्वथा दूर है और उसके तमाम प्रतीक जुदा हैं, लेकिन उनका अपना अंदाज़े-बयां और अल्फ़ाज़ के चयन में हिंदी-उर्दू के झगड़े को दूर का सलाम कहना उनके कलाम को एक ऐसी अनोखी रवानी देता है कि पढने-सुनने वाला उन्हें सलाम करता है ! आइए, पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल और सलाम करें उनके अनोखे अंदाज़ को ! वो ज़र्द चेहरा मुअत्तर निगाह जैसा था हवा का रूप था, बोलो तो आह जैसा था अलील वक्त की पोशाक था बुखार उसका वो एक जिस्म था, लेकिन कराह जैसा था भटक रहा था अंधेरों में दर्द का दरिया वो एक रात का जुगनू था, राह जैसा था गली के मोड़ पर ठहरा हुआ था इक साया लिबास चुप का बदन पर निबाह जैसा था चला तो साए की मानिंद साथ-साथ चला रुका तो मेरे लिए मेहरो - माह जैसा था क़रीब देख के उसको ये बात किससे कहूं ख़याल दिल में जो आया, गुनाह जैसा था बहुत सी बातों पे मजबूर था वो हम से भी तकल्लुफात में आलम निबाह जैसा था खबर के उड़ते ही यूं ही मर गया 'माजिद' पुराने घर का समा, जश्ने-निगाह जैसा था ________________________________ मुअत्तर : सुगन्धित, अलील : बीमार, मेहरो - माह : सूर्य और चन्द्र, तकल्लुफात : औपचारिकताएं, आलम : स्थिति, समा : दृश्य, जश्ने-निगाह : दृष्टि का उत्सव |
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राजनारायन 'राज'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321399519 अविभाजित भारत के बिलोचिस्तान के लोरालाई में 1930 में जन्मे राजनारायन 'राज' उर्दू काव्य जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनकी शायरी, विशेषकर ग़ज़लों में रिवायती धड़कनों अर्थात फ़ारसीयत की छाप को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है ! इसके बावजूद अपने इर्द-गिर्द और समाजी हलचलों पर वे पैनी नज़र करते चलते हैं ! वक़्त की जरूरतें और बदलाव के स्वर भी उनकी शायरी में पूरी तरह मुखर हैं ! आइए, आनन्द लें राजनारायन 'राज' की एक ऐसी ही ग़ज़ल का - जाने किस ख्वाब का सय्याल नशा हूं मैं भी उजले मौसम की तरह एक फ़ज़ा हूं मैं भी राह पामाल थी, छोड़ आया हूं साथी सोते कोरी मिट्टी का गुनहगार हुआ हूं मैं भी कैसी बस्ती है, मकीं जिसके हैं बच्चे बूढ़े क्या मुकद्दर था, कहां आके रुका हूं मैं भी एक बेचेहरा सी मख्लूक है चारों जानिब आईनो, देखो मुझे, मस्ख़ हुआ हूं मैं भी हाथ शमशीर पे है, ज़ेहन पसो-पेश में है 'राज' किन यारों के माबैन खड़ा हूं मैं भी _______________________________ सय्याल : तरल, फ़ज़ा : वातावरण, पामाल : दलित, दबी-कुचली; मकीं : निवासी, रहने वाले; मख्लूक : प्राणी वर्ग, जानिब : ओर, मस्ख़ : विकृत, टूटा; शमशीर : तलवार, ज़ेहन : मस्तिष्क, पसो-पेश : असमंजस, माबैन : दरवाज़े पर ! |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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मुस्तफा ज़ैदी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321399786 इलाहाबाद में 1930 में पैदा हुए मुस्तफा ज़ैदी शुरुआत में 'तेग़' इलाहाबादी के तख़ल्लुस से शायरी किया करते थे, लेकिन विभाजन के वक़्त पाकिस्तान जाने के लिए इलाहाबाद छूटा, तो यहां का नाम यहीं छोड़ गए और नए मुल्क में नया इस्मे-शरीफ 'मुस्तफा ज़ैदी' अपनाया ! किन्तु उन्हें न नया मुल्क रास आया, न नया नाम ! बाद की चालीस साला काव्य-यात्रा इसी बात की गवाह है कि उनकी रग-रग में इलाहाबाद बसा हुआ था, जिससे वे मरते-मरते भी पीछा नहीं छुड़ा पाए ! उन्होंने कहा भी था - इन्हीं पत्थरों प' चलकर अगर आ सको तो आओ मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है पढ़ें उनकी इसी स्थिति का अफसोस और दर्दनाक बयान करती यह ग़ज़ल - नगर-नगर मेले को गए, कौन सुनेगा तेरी पुकार ऐ दिल, ऐ दीवाने दिल, दीवारों से सर दे मार रूह के इस वीराने में, तेरी याद ही सब कुछ थी आज तो वो भी यूं गुज़री, जैसे गरीबों का त्योहार पल-पल सद्दियां बीत गईं, जाने किस दिन बदलेगी एक तिरी आहिस्ता-रवी, एक ज़माने की रफ़्तार पिछली फ़स्ल में जितने भी अहले-जुनूं थे काम आए कौन सजाएगा तेरी मश्क़ का सामां अबकी बार सुबह के निकले दीवाने अब क्या लौट के आएंगे डूब चला है शहर में दिन, फैल चला है सायादार ______________________________ तख़ल्लुस : उपनाम, इस्मे-शरीफ : शुभनाम, कहकशां : आकाशगंगा, छायापथ; प' : पर, दर्दनाक : पीड़ाजनक, रूह : आत्मा, सद्दियां : सदी का बहुवचन, सदियां; आहिस्ता-रवी : धीमी गति, फ़स्ल : ऋतु, अहले-जुनूं : जुनून वाले, उन्मादी लोग; मश्क़ : अभ्यास, सायादार : वृक्ष की छाया |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
रचनाकारों के इन चित्रों के साथ तो सूत्र और अभी दर्शनीय हो गया है. :bravo:
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बिलकुल मैं भी यही कहना चाहता हूँ
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
अब काफी अच्छा लग रहा है।
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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'मख्मूर' सईदी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321510713 राजस्थान की तत्कालीन टोंक रियासत में 1934 के दिसंबर की इकतीसवीं तारीख को पैदा हुए सुलतान मुहम्मद खां उर्दू अदब में 'मख्मूर' सईदी के रूप में बड़ी पहचान रखते हैं ! अंग्रेजी, कन्नड़ और फ़ारसी रचनाओं से उर्दू पाठकों का परिचय कराने वाले 'मख्मूर' के 'गुफ्तनी', 'सियाह बर सफ़ेद', 'आवाज़ का जिस्म', 'सबरंग', 'पेड़ गिरता हुआ' आदि शायरी के नौ संकलन तथा अनेक अन्य संपादित ग्रन्थ प्रकाशित हुए ! साहित्यिक पत्रिका 'तहरीक़' का भी उन्होंने लम्बे समय तक सम्पादन किया ! उन्हें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकादमियों ने उनकी रचना-धर्मिता के लिए सम्मानित किया ! यहां पढ़ें उनकी एक ग़ज़ल - आंखों के सब ख़्वाब कहीं खो जाते हैं आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर' चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं ------------------------------------------------------------------ ख्वाब : स्वप्न, सपना; दरमां : चिकित्सा, वाबस्ता : जुड़े हुए, सम्बंधित, सम्बद्ध; मंज़र : दृश्य, ख्वाबे-सफ़र : यात्रा का स्वप्न, तसव्वुर : कल्पना, ज़ेहन : मस्तिष्क, मर्क़द : समाधि-भवन |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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बशीर बद्र
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321511001 कानपुर में 1935 में जन्मे बशीर बद्र का ग़ज़लगोई में अपना अलग और विशिष्ठ स्थान है ! वे उन इने-गिने शोअरा में शुमार हैं, जिनके अशआर जन्मते ही मुहावरों और उक्तियों की तरह लोगों की ज़ुबान पर कब्ज़ा जमा लेते हैं ! ग़ज़ल को हिंदी-उर्दू के खानों में बांटने के घोर विरोधी डॉ. बद्र की ग़ज़लों की अपनी भाषा है, खालिस ग़ज़ल की भाषा ! उन्हें ग़ज़ल कहते हुए अंग्रेजी शब्दों से भी कोई परहेज़ नहीं है, अगर वह भावाभिव्यक्ति की जरूरत हो - वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे दरअसल उनकी ग़ज़लों को 'कल की ग़ज़ल के पैगम्बर' कहना ही उचित है ! लुत्फ़ उठाएं ऐसी ही एक सादा अल्फ़ाज़ में बहुत गहरे ख़यालात पेश करने वाली ग़ज़ल का- न जी भर के देखा, न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की उजालों की परियां नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख़यालात की मैं चुप था तो चलती नदी रुक गई ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की मुक़द्दर मिरी चश्मे-पुरआब का बरसती हुई रात, बरसात की कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं कहां दिन गुज़ारा, कहां रात की __________________________ आरज़ू : इच्छा, तमन्ना; मुलाक़ात : भेंट, ख़यालात : विचार, ज़ुबां : भाषा, यहां आशय बोली से है; जज़्बात : मनोभाव, चश्म : नेत्र, आंख; पुरआब : जलपूर्ण, ख़बर : समाचार, यहां आशय सूचना से है |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
Sutr ko bade hi sundar dhang se pesh kiya gaya hai .... gazlon or samandhit rachkaron ke saath....! En logon me se kuch ki gazlen ghulam ali aur jagjit singh ki awazon me maujud hain...jinhe mai aksar suna karta hun......vistar se in logon ke bare me jankari dene ke liye alaick ji ka dhnywad...
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
Quote:
आपने सही कहा, बन्धु ! उदाहरण के लिए आपकी प्रविष्ठि के ठीक ऊपर विराजमान बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल को चन्दन दासजी की आवाज़ मिली है ! प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया ! |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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बशर नवाज़
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1321987112 औरंगाबाद में 1935 में पैदा हुए बशारत नवाज़ खां उर्दू काव्य जगत में 'बशर नवाज़' तखल्लुस से एक बड़ी पहचान रखते हैं ! 'बशर' की शायरी एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें ज़ाहिराना तौर पर रंग-बिरंगे फूल हैं, तो कटु यथार्थ रुपी कांटों से भी नहीं बचा गया है ! वस्तुतः 'बशर' की तमाम शायरी अपने समय से काफी आगे जाकर भविष्य की नब्ज़ पर हाथ रख कर उसे संवारने का सन्देश देती है ! दरअसल 'बशर' का सोच और कलाम का फलक इतना विस्तृत है कि आप उनकी ग़ज़लों में आने वाले समय की धड़कनों को साफ़ सुन सकते हैं ! आइए पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल - पत्थर का मेरी सम्त तो आना जरूर था मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था सचाई आग ठहरी तो लब जल के रह गए हक़गोई पर हमें भी कभी क्या ग़रूर था शबनम पहन के निकले थे शोलों के क़ाफिले देखे तहे-लिबास ये किसको शऊर था बैठा हुआ था कोई सरे - राहे - आरज़ू इक उम्र की थकन से बदन चूर-चूर था ठहरा हुआ है एक ही मंज़र निगाह में इक नीम-बा दरीचा था, सैलाबे-नूर था बन कर ज़बान बोल रहा था बदन तमाम समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़सूर था देखा क़रीब से तो वो मौज़े - सराब थी जिस आब-जू का चर्चा 'बशर' दूर-दूर था ______________________________ सम्त : ओर, दिशा; मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था : संकेत अरब देशों में प्रचलित संगशारी की प्रथा की तरफ है, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु दंड दिया जाता है, हक़गोई : सच बोलना, शबनम : ओस, तहे-लिबास : पोशाक के नीचे, शऊर : बोध, सरे-राहे-आरज़ू : इच्छा रुपी मार्ग में, मंज़र : दृश्य (प्रसंगवश - मंज़र का बहुवचन 'मनाज़िर' होता है ), नीम-बा : आधा खुला (अर्थात नीम - आधा, बा - खुला), दरीचा : खिड़की, सैलाबे-नूर : प्रकाश की बाढ़, फ़हम : बुद्धि, मौज़े-सराब : मरीचिका की लहर, आब-जू : नदी |
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शहरयार
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1322983784 ग़ज़ल और नज़्म दोनों ही समान रूचि और वैशिष्ठ्य से कहने वाले प्रो. अखलाक मोहम्मद खां को 'शहरयार' के रूप में उर्दू अदब में शायर और फिल्म जगत में गीतकार के रूप एक बहुत ऊंचा दर्ज़ा हासिल है ! 1936 में जन्मे 'शहरयार' ने उर्दू अदब को 'इस्मे-आज़म', 'सातवां दर', 'हिज्र के मौसम' और 'काफिले यादों के' जैसे कई अनुपम काव्य संकलन भेंट किए ! 'ख्वाब का दर बंद है' काव्य संग्रह पर उन्हें 1987 में साहित्य अकादमी ने अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा ! पढ़ें उनके इसी दीवान से एक बेहतरीन ग़ज़ल - ज़ख्मों को रफू कर लें, दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया, आबाद करें फिर से मुद्दत हुई, जीने का, एहसास नहीं होता दिल उनसे तकाज़ा कर, बेदाद करें फिर से मुजरिम के कटहरे में, फिर हमको खड़ा कर दो हो रस्मे - कुहन ताज़ा, फ़रयाद करें फिर से ऐ अहल -ए - जुनूं देखो, जंजीर हुए साये हम कैसे उन्हें, सोचो, आज़ाद करें फिर से अब जी के बहलने की, है एक यही सूरत बीती हुई कुछ बातें, हम याद करें फिर से ______________________________ शाद : प्रसन्न, बेदाद : जाग्रत, यहां आशय 'अत्याचार' से है; रस्मे-कुहन : प्राचीन परम्परा, फ़रयाद : फ़रियाद, प्रार्थना; अहल-ए-जुनूं : उन्मादग्रस्त व्यक्ति |
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'निदा' फ़ाज़ली
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1322983965 1938 में दिल्ली में जन्मे मुक़तदा हसन का बचपन ग्वालियर में बीता ! देश के बंटवारे के बाद परिवार-विभाजन का ज़ख्म खाया और 'निदा' फ़ाज़ली बन गए ! साठोत्तरी पीढ़ी के चर्चित कवि और सफल फ़िल्मी गीतकार हैं ! उनके 'लफ़्ज़ों का पुल', 'मोरनाच', 'खोया हुआ सा कुछ' आदि काव्य संकलन शाया (प्रकाशित) हुए ! 'निदा' की शायरी एक ऐसे कोलाज की तरह है, जिसके कई रूप हैं ! उनके अनेक अशआर और दोहे वर्तमान में ही बोलचाल के मुहावरे बन चुके हैं ! यह एक ऐसी विशेषता है, जो इने-गिने शोअरा का हिस्सा है ! नई-नई आंखें हों, तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं जिससे अब तक मिले नहीं, वो अक्सर अच्छा लगता है मेरे आंगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने सांचे हैं जो मूरत में ढल जाए, वो पैकर अच्छा लगता है हमने भी सोकर देखा है नए-पुराने शहरों में जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है _________________________________ मंज़र : दृश्य, पैकर : आकृति |
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उबैदुल्ला 'अलीम'
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1323561651 भोपाल में 1939 में जन्मे उबैदुल्ला 'अलीम' आधुनिक उर्दू शायरी के प्रतिनिधि कवि हैं ! सादा लहज़े में बड़ी गहरी बात कह जाने का कमाल उनकी क़लम को हासिल है ! इसी वज़ह से उनका ज्यादातर रचना-कर्म सदा चर्चा का विषय बनता रहा है ! ग़ज़ल की कोई नई भाषा नहीं गढ़ते हुए भी 'अलीम' ने अपने लिए नए ज़मीन-ओ-आसमान तलाशे हैं और यही एक कारण उन्हें शायरों की भीड़ में भी अलग और अकेली शख्सियत का रूतबा अता करता है ! आइए, पढ़ें 'अलीम' की एक ऐसी ही सादा अल्फ़ाज़ से बुनी, लेकिन पुरअसर ग़ज़ल - जवानी क्या हुई, इक रात की कहानी हुई बदन पुराना हुआ, रूह भी पुरानी हुई कोई अज़ीज़ नहीं मासवा-ए-जात हमें अगर हुआ है, तो यूं जिंदगानी हुई न होगी खुश्क कि शायद वो लौट आए फिर ये किश्त गुज़ारे हुए अब्र की निशानी हुई तुम अपने रंग नहाओ मैं अपनी मौज उडूं वो बात भूल भी जाओ, जो आनी-जानी हुई मैं उसको भूल गया हूं, वो मुझको भूल गया तो फिर ये दिल पे क्यों दस्तक़ सी नागहानी हुई कहां तक और भला जां का हम ज़ियां करते बिछड़ गया है तो, ये उसकी मेहरबानी हुई _______________________ अज़ीज़ : प्रिय, मासवा-ए-जात : निज के सिवा, किश्त : खेती, अब्र : बादल, नागहानी : अकस्मात, अचानक; ज़ियां : हानि, नुकसान ! |
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अलैक जी, बेहद खुबसूरत । ज्ञानवर्धक सूत्र । धन्यवाद ।
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'होश' तिर्मज़ी
http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1323919591 अम्बाला के साढोहरा में 1941 में जन्मे सैयद सिब्ते हसन उर्दू काव्य संसार में 'होश' तिर्मज़ी के नाम से मशहूर हैं ! 'होश' की शायरी एक ओर जहां ठेठ रिवायती ख़ाके में ढली नज़र आती है, वहीं दूसरी ओर वे उर्दू अदब की ताज़ा मौज़ों पर सवार भी दिखाई देते हैं ! यही वज़ह है कि वे शायरी में परम्परागत अल्फ़ाज़, बिंब और प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत से करते हैं, लेकिन इसके बावजूद अपने क़लाम को कठिन चीज़ों से बड़े कौशल से बरी भी रखते हैं यानी उनके क़लाम में आमफहम बनाए रखने के मंसूबे साफ़ देखे जा सकते हैं ! कहा जा सकता है कि 'होश' की शायरी में, विशेषकर ग़ज़लों में एक पूरी रिवायत सांस लेती महसूस की जा सकती है ! आइए, महसूस करें ऐसी ही एक खूबसूरत और सादालफ्ज़ ग़ज़ल की पुरअसर खुशबू - देखे हैं जो ग़म दिल से भुलाए नहीं जाते इक उम्र हुई याद के साए नहीं जाते अश्कों से खबरदार कि आंखों से न निकलें गिर जाएं ये मोती तो उठाए नहीं जाते हर जुम्बिशे-दामाने-जुनूं जाने-अदब है इस राह में आदाब सिखाए नहीं जाते हम भी शबे - गेसू के उजालों में रहे हैं क्या कीजिए दिन फेर के लाए नहीं जाते शिकवा नहीं, समझाए कोई चारागरों को कुछ ज़ख्म हैं ऐसे कि दिखाए नहीं जाते ऐ 'होश', ग़मे-दिल के चिराग़ों की है क्या बात इक बार जला दो, तो बुझाए नहीं जाते _____________________________________ रिवायत : परम्परा, किसी के मुंह से सुनी बात ज्यों की त्यों किसी से कहना, इस्लामी परिभाषा में हज़रत पैग़म्बर (हज़रत मोहम्मद सल.) के मुख से सुनी हुई बात अन्य को उन्हीं के अल्फ़ाज़ में सुनाना, हदीस बयान करना; सादालफ्ज़ : सरल शब्दों में, जुम्बिशे-दामाने-जुनूं : उन्मादग्रस्त के दामन का हिलना, जाने-अदब : शिष्टाचार की जान, आदाब : शिष्टाचार, शबे-गेसू : बालों की रात, यहां संकेत प्रेयसी की जुल्फों के सान्निध्य में रात गुज़ारने से है; चारागर : चिकित्सक, ग़मे-दिल : हृदय की पीड़ा ! |
Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गझल,शेर,शायरी से पहले से ही लगाव कम था इस लिये यहाँ जिन महानुभावो के लिये जानकारी दी है उनमे बहुत सारे नामो से भी परिचित नहीं हूँ...लेकिन आज आपकी वजह से वो अनजाना पण भी कुछ हद तक कम हुआ और आगे भी कम होता रहेगा...आपका कार्य सराहनीय है.
धन्यवाद. |
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