इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
मित्रो, संसार में अनेक लोग हैं, जो अपनी अभिनव ... सबसे जुदा सोच, नए आइडियाज़ और उद्यमशीलता से कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो देख सुन कर आप दांतों में अंगुली दबा लेने को विवश हो सकते हैं। मेरा यह सूत्र ऐसे ही इंसानों को समर्पित है अर्थात मैं इस सूत्र में आपको ऐसे जांबाज़ लोगों से मिलवाऊंगा, जो कुछ अनूठा काम या उद्यम कर रहे हैं। उम्मीद है, मेरा यह नया सूत्र आप सभी का मनोरंजन तो करेगा ही, कुछ नया करने की प्रेरणा भी देगा। धन्यवाद। |
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टॉम स्जाकी, न्यू जर्सी http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360092168 अब तक सिगरेट की ठुड्डियों या सिगेरट बट को समस्या पैदा करने वाला कचरा माना जाता था, लेकिन अब पढ़ाई-लिखाई से जी चुराने वाला एक युवक सिगरेट बट से प्लास्टिक बनाकर कारोबार चमका रहा है। |
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सिगरेट की बट से बनता प्लास्टिक
प्रिंस्टन कॉलेज से पढ़ाई छोड़ कर कचरे की रिसाइक्लिंग से सामान बनाने का बिजनेस शुरू करने वाले टॉम स्जाकी के पास ऐसा एक तरीका है जिससे सिगरेट का फायदा उठाया जा सकता है। 30 वर्षीय सैकी ने पढ़ाई छोड़ कर न्यू जर्सी के ट्रेंटन में अपनी कम्पनी ‘टेरासाइकिल’ की शुरुआत की है। वह कहते हैं दुनिया में कचरे जैसी कोई चीज नहीं होती, हर चीज का इस्तेमाल है, यहां तक कि सिगरेट पीने के बाद बचे बट यानी ठुड्डी का भी। उनकी कम्पनी लोगों से सिगरेट के बचे हुए बट जमा करती है और फिर उससे प्लास्टिक बना देती हैं, जिसका इस्तेमाल प्लास्टिक का सामान बनाने में किया जाता है। कई बार वह उसी से प्लास्टिक की ऐशट्रे भी बना देते हैं। सबसे पहले वह बुझी हुई सिगरेट पर बचा तम्बाकू और कागज अलग करते हैं। इसके बाद बट का वह हिस्सा जिसमें फिल्टर हेता है, उसे पिघलाया जाता है। फिल्टर वाला यह हिस्सा सेलुलोस एसिटेट का बना होता है। पिघले हुए इस हिस्से से प्लास्टिक बनता है। उन्होंने बताया कि एक ऐशट्रे बनाने में लगभग 100 से 200 बट लगते हैं जबकि करीब दो लाख बट से एक कुर्सी बन जाती है। उन्हें कच्चे माल यानि बट की कमी की भी कोई संभावना नहीं दिख रही है। टेरासाइकिल को इस काम के लिए तम्बाकू बनाने वाली कम्पनी से आर्थिक मदद भी मिल रही है क्योंकि इसके जरिए उन्हें प्रचार मिल रहा है। सिगरेट बट जमा करने वालों को कम्पनी की तरफ से हर बट पर एक प्वाइंट मिलता है जिसका फायदा चैरिटी को जाता है। सड़कों पर बिखरी रहने वाले सिगरेट बट भी अब कम दिखते हैं। टेरासाइकिल इस प्लास्टिक से बने उत्पादों को वॉलमार्ट और होलफूड जैसी कम्पनियों को बेचकर और बिजनेस बढ़ा रही है। जूस के खाली पैकेट, खाली बोतलें, पेन, चाय और कॉफी के यूज एंड थ्रो प्लास्टिक कप, कैंडी के रैपर और टूथब्रश से लेकर कम्प्यूटर की बोर्ड तक हर चीज टेरासाइकिल के काम की है। कई बार इनको पिघलाकर बिल्कुल ही नया उत्पाद बन जाता है और कई बार थोड़े ही फेर बदल के बाद उनका किसी और काम में इस्तेमाल हो जाता है, जैसे कैंडी के रैपर का किताबों की जिल्द में इस्तेमाल। सिगरेटट बट से रिसाइक्लिंग का यह प्रोजेक्ट स्जाकी ने कनाडा में शुरू किया था। उन्होंने बताया कि यह प्रोजेक्ट इतना कामयाब हुआ कि कुछ ही समय में 10 लाख से ज्यादा ठुड्डियां इक टठा हो गई। इस प्रोजेक्ट ने तम्बाकू कम्पनियों को भी इतना चौंका दिया कि उन्होंने इसे अमेरिका और स्पेन में भी शुरू करने की मांग की और इस तरह बात आगे बढ़ी। उनको उम्मीद है कि आने वाले चार महीनों में वह इस कारोबार को यूरोप में भी बढ़ा पाएंगे। |
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अप्पन समाचार, बिहार http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360093736 मध्यम वर्ग को केंद्रित कर जहां रोज नए-नए चैनल खुलते जा रहे हैं, वहीं चार गांव की चार लड़कियों द्वारा शुरू किए गए ‘अप्पन समाचार’ ने गांव की आवाज बन कर देश के सामने नजीर पेश की है। इसके कद्रदान देश ही नहीं, विदेशों में भी हैं। |
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साइकिल पर घूमती लड़कियों का ‘अप्पन समाचार’
शहर केंद्रित खबरों की होड़ और विज्ञापन के शोर में गांव की आवाज दबकर रह जाती है। पर भारत के बिहार प्रांत स्थित मुजफ्फरपुर के पारू प्रखंड में ग्रामीण परिवेश से आई लड़कियों ने अपने दम पर ‘अप्पन समाचार’ नाम का एक समाचार पत्र चला दिया है। सुमैरा खान, खुशबू, नगमा व श्वेता अप्पन समाचार द्वारा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए दिन-रात मेहनत करती हैं। लोगों के सामने अपने समाज की वास्तविक तस्वीर पेश कर ये उनके मन में अपना स्थान बना रही हैं। ये चारों युवतियां अपने गांव के आस पास से जुड़ी खबरों और महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में साइकिल पर घूम-घूम कर हैंडीकैम की मदद से जानकारी एवं साक्षात्कार इकट्ठा करती हैं। फिर उस क्षेत्र में लगने वाले साप्ताहिक पेंठियां (हाट) में पोर्टेबल वीडियो पर समाचार प्रसारित करती हैं। बज्जिका, भोजपुरी एवं स्थानीय हिंदी में किया जाने वाला यह अनूठा प्रयास इस क्षेत्र की ग्रामीण जनता में इतना लोकिप्रय हो चुका है कि अब इसकी खासी मांग बढ़ गई है। अप्पन समाचार 6 दिसम्बर, 2007 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्दकेवारी) में शुरू हुआ था। यह आॅल वूमन चैनल के रूप में चर्चित हुआ। एक गांव से शुरू हुआ यह आल वूमन न्यूज नेटवर्क आज जिले के पांच प्रखंडों के तकरीबन दो दर्जन से अधिक गांवों को कवर करता है। इसमें समाचार बुलेटिन 45 मिनट का होता है और प्रोजेक्टर या डीवीडी के जरिए गांव के हाट-बाजारों में दिखाया जाता है। समाचार के लिए लगभग बीस लड़कियां एंकरिंग, रिपोर्टिंग, कैमरा चलाने का काम, एडिटिंग आदि का काम देखती हैं। मीडिया वर्कशॉप के द्वारा भी इन महिला पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है। इस इलाके में बिजली नहीं रहने के कारण जेनरेटर पर लोगों को अप्पन समाचार दिखाया जाता है। पर इस समस्या से निजात के लिए टीम ने एक तरीका निकाला और वे टेलीविजन के लिए तैयार कि गई स्क्रिप्ट से चार पत्रों की मासिक पत्रिका निकालने लगी। इस समाचार की चर्चित शख्सियत खुशबू ग्रामीण लड़कियों के लिए एंकरिंग व रिपोर्टिंग करती हैं। सत्रह वर्षीया खुशबू दूरस्थ दियारा क्षेत्र की उन ग्रामीण लड़कियों में एक हैं, जिसने घर की दहलीज को लांघ कर कैमरा थामा है। गांव की गरीबी, अशिक्षा, किसानों का दर्द, कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त रिश्वतखोरी को अपने कैमरे में कैद कर समुदाय के सामने उसे उजागर करती है। अप्पन समाचार को टीवी नेटवर्क 18 द्वारा अक्टूबर, 2008 में सिटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड मिल चुका है। इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि क्षेत्र के लोग किसी भी हालत में इसे बंद नहीं होने देना चाहते। चार लड़कियों द्वारा शुरू किया गया यह सामुदायिक प्रयास आज गांव के लोगों की हिम्मत बन चुका है। |
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सिकी और झांग वनिजा, दक्षिणी चीन http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360094548 शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता अपने आप में अनोखा होता है। ऐसा ही नजारा चीन के एक स्कूल में देखने को मिलता है। जहां पढ़ाने वाला एक टीचर है और पढ़ने वाली भी एक बच्ची है, लेकिन फिर भी स्कूल रोज के हिसाब से चलता है। |
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एक विद्यार्थी, एक टीचर वाला स्कूल
स्कूल की घंटी और क्लास की तरफ भागते बच्चे। पढ़ाई के बीच में साथियों के साथ शरारतें, लंच की छुट्टी, मिल बांट कर खाना और खेलना। आखिरी क्लास और स्कूल से घर की ओर दौड़ लगाते बच्चे। लेकिन चीन में एक अनोखा स्कूल है जहां ना बच्चे खेलते नजर आते हैं न हीं पढ़ते और शरारतें करते दिखते हैं। इस स्कूल में एक बच्ची है जो अकेले पढ़ती है और अकेले ही खेलती है। ऐसा नहीं है कि इस बच्ची के दोस्त नहीं बने। दरअसल इतने बड़े स्कूल में बच्ची को पढ़ाने वाला भी एकमात्र शिक्षक है। सात साल की यह बच्ची रोज सवेरे स्कूल आती है और वहां एकमात्र टीचर से पढ़ती है। ठीक समय पर लंच की घंटी बजती है। वह अकेले लंच करती है और फिर क्लास चलती है। स्कूल खत्म होने पर वह अकेली घर को लौट जाती है। यह देखते और सुनने वालों को बड़ा ही आश्चर्य होता है। दक्षिणी चीन के फुजियन प्रांत का नानोउ गांव इस स्कूल और बच्ची के चलते चर्चा में आ गया है। दरअसल इस गांव के लोग काफी समय पहले गांव छोड़कर जा चुके हैं। सात साल की झांग सिकी स्पाइनल डिस्क की बीमारी के चलते गांव छोड़कर नहीं जा सकी। झांग अपनी 76 साल की दादी मां के साथ इस गांव में रहती है। सिकी की बीमारी के चलते और उसके गांव के नजदीक होने के कारण इस स्कूल को दोबारा खोला गया है। यहां के टीचर हैं झांग वनिजा। वनिजा ने बताया कि सिकी स्कूल में पढ़ने वाली एकमात्र विद्यार्थी है लेकिन वो पूरे दिल से उसे पढ़ाते हैं। अकेली होने के कारण सिकी को कोई छूट नहीं मिलती। वनिजा चीन के राष्ट्रीय स्कूल प्रोग्राम का हर नियम पूरा करते हैं। सिकी लंच टाइम में अपने टीचर के साथ बॉस्केट बॉल खेलती है और स्कूल कंपाउंड का एक चक्कर लगाती है। इतना ही नहीं हर सप्ताह होने वाली फ्लैग सेरेमनी में भी सिर्फ सिकी और वनिजा ही होते हैं। पर फिर भी वनिजा को कोई अफसोस नहीं है। उनका कहना है कि इतने बड़े स्कूल में एक बच्चे को पढ़ाना बड़ा अजीब लगता है लेकिन कोई चारा नहीं है। बहुत बुरा लगता है जब वह स्कूल के कार्यालय में बैठते हैं और पूरे स्कूल में कोई नहीं होता। सिकी की दादी का कहना है कि उनकी पोती बहुत मेहनती और समझदार है। वह जानती है कि उसे अकेले ही शिक्षा लेनी है फिर भी वह बहुत मेहनत और लगन के साथ पढ़ाई करती है। दादी के अनुसार सिकी उनका घर के काम में भी हात बंटाती है और उन्हें चाय के बागान में जाने से रोक देती है क्योंकि वह बहुत बुजुर्ग हो गई हैं। |
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डॉ. अच्युत सामंत, उड़ीसा http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360095304 आज हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है गरीबी और बेरोजगारी। इन दोनों समस्याओं के आगे शिक्षा का महत्व लोगों को समझ ही नहीं आता। गरीबी की हालत में भी पढ़ाई को महत्व देने वाले डॉ. सामंत समाज के लिए जीता-जागता उदाहरण हैं। |
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साक्षरता से गरीबी दूर करते ‘सामंत’
कई बार हमारे सामने ऐेसे उदाहरण सामने आते हैं जब हमे पता चलता है कि ऊंचे पद पर पहुंचे अमूक शख्स का बचपन बेहद गरीबी में गुजरा है। आर्थिक तंगी होने के बावजूद उन्होंने शिक्षा ग्रहण की और अपने लक्ष्य की और आगे बढ़ते चले गए। इसका एक और सबसे बड़ा जीता जागता उदाहरण हैं डॉ. अच्युत सामंत जिनका बचपन गरीबी में बीता लेकिन अपनी आर्थिक व्यवस्था खराब होने के बावजूद भी वे हिम्मत नहीं हारे और शिक्षा ग्रहण की और आज वह केआईटीटी और केआईएसएस जैसी संस्थाओं के संस्थापक हैं। अत्यंत गरीबी के कारण इनके बचपन का अनुभव काफी कड़वा रहा ,फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और आज वह विश्व के सबसे बड़े निशुल्क आदिवासी आवासीय संस्थान के संस्थापक हैं, जो कलिंगा इंस्टिट्यूट आफ सोशल साइंसेज के नाम से प्रचलित है। डॉ. सामंत को पूर्ण विश्वास है की गरीबी से निरक्षरता पनपती है और साक्षरता से गरीबी दूर होती है। इसी विश्वास को कायम रखते हुए वह अनेक संघर्षों से पार पाते गए और अपने नेक इरादे और निरंतर प्रयास की बदौलत हर लक्ष्य को हासिल करते गए। उस दौर में जब उनके लिए दो वक्त की रोटी की कल्पना एक सुंदर स्वप्न था वहीं से आज एक महान विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले सामंत की कहानी सुनने वालों को उनकी मेहनत पर गर्व होता है। उन्हें देखकर यह अहसास होता है की अगर मन में किसी भी काम को करने का दृढ़ संकल्प है तो किसी साधन की जरुरत नहीं रह जाती। रास्ते अपने आप निकलते जाते हैं। रोजाना 16 घंटे और साल में 365 दिन काम कर आज वो खुद असमंजस में पड़ जाते हैं और भगवान को इतने नेक काम में अपनी सहायता के लिए धन्यवाद देते हैं। केवल 5000 रुपए से दो कमरों में छोटे से आईटीआई से शुरुआत करते हुए केआईआईटी ने आज विश्व में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में मिसाल कायम की है। आईटीआई की स्थापना इस उद्देश्य के साथ बिलकुल नहीं की थी की उसे एक विश्वस्तरीय विद्यालय बना कर पैसे कमाए जाएं। उसका उद्देश्य था की जिस भुखमरी में उनका बचपन बीता वह समाज के गरीब और पिछड़ी जाति के लोगों को न देखना पड़े और इसी सोच के साथ उन्होंने वर्ष 1993 में केवल 125 बेसहारा आदिवासी बच्चों से केआईएसएस की शुरुआत की और आज यह संस्थान 20 हजार आदिवासी बच्चों के साथ विश्व मंच पर दूसरा शान्ति निकेतन बन गया है। आज उनके चेहरे पर जो खुशी झलकती है उससे कोई भी व्यक्ति उनके वयक्तित्व का अनुमान लगा सकता है। ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. सामंत का सबसे बड़ा पुरस्कार है दूसरों के जीवन में खुशी लाना। समाज में ऐसे लोगों की आज बहुत जरुरत है जो नि:स्वार्थ भाव से समाज के लिए अपने आपको समर्पित करें और देश को आगे बढाने की जिम्मेदारी लें। |
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सुभाष गयाली, झारखंड http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360237331 (चित्र में सुभाष गयाली एकदम बाएं।) पर्यावरण और लोगों के हित के लिए आरटीआई के तहत जानकारी लेकर लोगों तक पहुंचाने का काम करने वाले सुभाष गयाली का मानना है कि भले ही हमारा पेट भरा है, लेकिन दिल में दर्द भी है, इसलिए हम संघर्ष कर रहे हैं। |
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पर्यावरण को बचाने का जुनून
हर इंसान की जिंदगी संघर्ष से भरी होती है। कोई उसको जीत लेता है, तो कोई हार जाता है, लेकिन जीवन में वही सच्चा हिम्मत वाला व्यक्ति है जो आखरी दम तक लड़ता है। ऐसे ही झारखंड में रहने वाले एक व्यक्ति हैं सुभाष गयाली, जो पर्यावरण और लोगों के हित के लिए आरटीआई की मदद से सूचना प्राप्त करते हैं और उसे लोगों तक पहुंचाते हैं। गयाली का मानना है कि आरटीआई आवेदनों की बड़ी विशेषता यह है कि वह आम लोगों के हित, पर्यावरण व धरती को बचाने से सम्बंधित होते हैं। पर्यावरण व प्रकृति बचाने को लेकर संकल्पित गयाली कहते हैं कि हमारे पेट में अनाज तो है, लेकिन दिल में दर्द भी है। इस दर्द का प्रतिबिम्ब गयाली के आरटीआई आवेदनों में दिखता है। वह खनन क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न जन संगठनों के साझा मंच झारखंड माइंस एरिया को-आडिर्नेशन कमेटी के क्षेत्रीय सचिव हैं। उन्होंने अपने साथियों के साथ धनबाद के बाघमारा प्रखंड क्षेत्र के खरखरी के भुईयां टोली तथा लेप्रोसी टोला के लगभग एक हजार लोगों का नाम वोटर कार्ड में चढ़वाने के लिए काफी संघर्ष किया था। ग्रामीण विकास संघर्ष समिति, फलारीटांड़ के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई थी। अब यहां के लोगों को विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलवाने के लिए संघर्ष किया जा रहा है। सुभाष गयाली का कहते है कि आज के समय में हर इंसान को अपने हक मालूम होने चाहिए लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें किसी बात की जानकारी नहीं होती। ऐसे ही लोगों की मदद के लिए वह आटीआई का सहारा लेते हैं। वे हर मुमकीन जानकारी प्राप्त कर लोगों तक पहुंचाते हैं। वह इन दिनों झारखंड गठन के बाद राज्य में उद्योग स्थापना और खनन पट्टों के लिए सरकार व निजी कम्पनियों के बीच हुए करार के सम्बंध में विस्तृत जानकारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने पांच हजार से अधिक पेज में उपलब्ध ऐसे दस्तावेज को पाने के लिए पैसे भी जमा कर दिए हैं। वह सवाल उठाते हैं कि आज जिस तरह पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जा रही है, वैसे में हम अपने बच्चों को कैसी दुनिया देकर जाएंगे? उन्हें हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि जिस तरह का पर्यावरण आने वाली पीढ़ी को देखने के लिए मिलेगा यह उनके लिए कल्पना मात्र ही रह जाएंगे। इसके चलते आज वह पर्यावरण को बचाने का हर संघर्ष कर रहें हैं। उन्होंने खनन के बाद खदानों में बालू भराई सहित कई पर्यावरणीय महत्व के विषयों पर आरटीआई आवेदन से जानकारी हासिल की है। उन पर मानो पर्यावरण बचाने का जुनून सार है इसीलिए वे कहते हैं कि जल, जंगल व जमीन के लिए हमारा संघर्ष इसलिए है ताकि हम अपने बच्चों के लिए भी कुछ बचा कर जाए। |
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प्रेरणादायक सूत्र है
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बड़ी अच्छी और सच्ची सोच है
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उपरोक्त चारो उदाहरण प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय हैं। मंच पर प्रस्तुत करने के लिए अलैक जी, आपका आभार बन्धु।
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शरत गायकवाड़, बेंगलूरु http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360351358 एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा। यह साबित उन्होंने तब किया, जब वे पैरालिंपिक खेलों में तैराकी के लिए क्वालीफाई करने वाले पहले भारतीय तैराक बने। |
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हिम्मत ने बनाया पदक विजेता
साथ देने को जब बस एक हाथ हो तो साधारण काम भी असाधारण लगने लगता है। लेकिन साधारणता की हसरत अब बहुत पीछे छूट गई है। आज शरत गायकवाड़ असाधारण उपलब्धियों के पहाड़ पर बैठे हैं। बेंगलूरु में रहने वाले 21 साल के तैराक शरत पिछले सात सालों के दौरान 40 राष्ट्रीय और 30 अंतरराष्ट्रीय पदक अपने नाम कर चुके हैं। उपलब्धियों की इस किताब में एक नया पन्ना जोड़ते हुए शरत ने पैरालिंपिक 2012 के लिए क्वालीफाई किया। इस मुकाम पर पहुंचने वाले वह पहले भारतीय तैराक हैं। उन्होंने पहली बार राष्ट्रीय खेलों में वर्ष 2003 में भाग लिया था तब वह सिर्फ 12 साल के थे। इस आयोजन के दौरान उनकी झोली में चार स्वर्ण पदक आए। आज भी उन्हें याद है कि जैसे-जैसे इस आयोजन का वक्त पास आता जा रहा था तो उन्हें बड़ी घबराहट हो रही थी। पर एक बार पानी में क्या उतरे कि सारी घबराहट छूमंतर हो गई। उनको सहजता से तैरते हुए देखकर कोई भी पल भर के लिए यह भूल सकता है कि तैराकी के लिए पूरी तरह संतुलित एक शरीर बहुत जरूरी है। तैरने के क्रम में दोनों बाजुओं का इस्तेमाल पानी को काटने के लिए और पैरों का उपयोग शरीर को आगे धकेलने में किया जाता है। वर्ष 2010 में हुए एशियाई पैरा खेलों के आयोजन में उन्होने कांस्य पदक जीता और वह पैरालिंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी कर गए। एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा। कंधों, पांव और भीतरी तौर पर खुद को मजबूत बनाना होगा। पिछले सात सालों से उनके कोच 41 वर्षीय जॉन क्रिस्टोफर बताते हैं की उनकी नजर शरत पर पहली बार 2003 में स्कूल के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान पड़ी थी और उन्हें यह लग गया था कि इस लड़के को एक पेशेवर खिलाड़ी के तौर पर तैयार किया जा सकता है। तैराकी सीखने के दौरान आई समस्याओं को याद करते हुए शरत कहते हैं कि एक नौ साल के बच्चे को अक्षम और विशेष रूप से सक्षम लोगों के बीच भेद करना सीखना था लेकिन वह दिन घोर निराशाओं से भरे होते थे। दोस्त मुझ पर कमेंट पास करते थे और हंसते थे। मैं ज्यादातर समय अपने दोनों हाथ होने की दुआ करता था। लेकिन इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता था। वह कहते हैं कि शरीर को प्रशिक्षण देने से पूर्व अपने मन को प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है। आपको अपनी कमियों की ओर देखना बंद करना होता है। उन्होंने ऐसा ही किया और मन में हठ समा कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊंचे से ऊंचे मुकाम तक पहुंचे। |
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योगेश्वर कुमार, दिल्ली http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360352521 लगभग तीन दशकों से ग्रामीण लोगों के हित में काम करते हुए योगेश्वर ने अब तक करीब 15 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर स्टेशन्स बनाए हैं, जिनसे आटा चक्की, ऑयल मिल, आरा मशीन और वेल्डिंग वर्कशॉप्स जैसे उद्योग चलाए जा रहे हैं और इनके प्रबंधन और संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्रामीणों के पास है। |
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रोशनी मिली तो रोजगार भी मिला
आईआईटी दिल्ली से निकलकर बहुत कुछ करने के सपनों के साथ योगेश्वर कुमार ने भी अपने काम की शुरुआत की। अपने काम के साथ ही उन्होंने ग्रामीण और आम जनता की बुनियादी सुविधाओं को जुटाने के लिए भी काम करना शुरू किया और विकास के बेसिक और ठोस कदम को तरजीह दी। आज उनके इरादों की बदौलत कई गांव रोशन हो रहे हैं और कई परिवार रोजगार पाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर रहे हैं। उन्होंने कहीं ज्यादा बडेþ नजरिए के साथ उत्तराखंड, कारगिल, लद्दाख, मेघालय तथा ओडीसा के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यावरण हितैषी माइक्रोहाड्रोलिक संयंत्रों की स्थापना की है। इन संयंत्रों से गांवों को बिजली की सप्लाई तो हो ही रही है, साथ ही गांवों के विकास और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने का काम भी किया जा रहा है। वह अपने एनजीओ ‘जनसमर्थ’ के द्वारा बिजली पर आधारित छोटे उद्योग स्थापित कर रहे हैं और उनमें लोगों को रोजगार भी दे पा रहे हैं। लगभग तीन दशकों से ग्रामीण लोगों के हित में काम करते हुए उन्होंने अब तक करीब 15 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर स्टेशन्स बनाए हैं जिसमे आटा चक्की, आॅइन मिल, आरा मशीन और वेल्ंिड वर्कशॉप्स जैसे उद्योग चलाए जा रहे हैं और इनके प्रबंधन और संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्रामीणों के पास है। सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद पहले तो उन्होंने बांस के प्रयोग को अपना लक्ष्य बनाया था लेकिन बाद में पनबिजली ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित कर लिया और इस तरह वह बिजली उत्पादन से जुड़ गए। योगेश्वर ने 1975 में उत्तराखंड में एक लैब के इन्क्यूबेटर्स की विद्युत सप्लाई के लिए पहला माइक्रो-हायड्रल संयंत्र स्थापित किया। इस संयंत्र से उत्पन्न हुई बिजली को फिर तेल निकालने की मशीन को चलाने और आटा पीसने जैसे कामों में भी जाने लगा। यही नहीं, उन्होने भंडार नामक स्कूल भी खोल डाला, जिसमें दिन में मवेशी चराने वाले बच्चे रात में पढ़ा करते थे। इस स्कूल को भी रोशनी उसी संयंत्र से मिलती है। उनका दूसरा प्लांट डोगरी कर्डी गांव में स्थापित हुआ। उन्होंने कई गांव में साधारण तरीकों से विद्युत उत्पादन किया। गौरतलब है कि सत्तर के दशक में वह वृक्षों को बचाने के लिए प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ से भी जुड़े रहे। उनका कहना है कि आज भी हमारी लगभग 85 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या जलावन के लिए लकड़ियों का प्रयोग करती हैं। कुछ साल पहले अगुंडा में जबरदस्त भू-स्खलन हुआ था। अब यदि, ग्रामीणों को खाना पकाने के लिए बिजली मिल जाती तो न तो उन्हें लक ड़ी लाने के लिए क ई किलोमीटर चलना पड़ता न ही वे पेड़ोंं को काटते। इस तरफ से भू-स्खलन जैसी घटनाओं में भी कमी आती। |
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अनुराधा बख्शी, दिल्ली http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1360468918 गरीब बस्तियों में रहने वाले बच्चों और उनके परिवारों की शिक्षा और जीवन सुधार को अपना लक्ष्य बनाने वाली अनुराधा का सपना ‘प्रोजेक्ट व्हाय’ शुरू करके पूरा हुआ। आज उनके इस संगठन ने लम्बा रास्ता तय कर लिया है। |
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संकल्प के सहारे सच हुआ सपना
शिक्षा आज हर किसी के लिए जरूरी बनती जा रही है, पर फुटपाथ पर रहने वाले जिन गरीब बच्चों को तो एक समय का खाना भी नसीब होता वे बच्चे पढ़ाई के लिए क्या कदम उठा पाएंगे। पर इस दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उन बच्चों में भविष्य को देख उनको ऊंचा उठाने की हर कोशिश में लग जाते हैं। इनमें से एक हैं अनुराधा बख्शी जिनका यह सपना 2000 में तब पूरा हुआ जब उन्होंने ‘प्रोजेक्ट व्हाय’ शुरू किया। उनकी इस संस्था ने गरीब बस्तियों में रहने वाले बच्चों और उनके परिवारों की शिक्षा और जीवन सुधार को अपना लक्ष्य बनाया। शुरुआत बहुत थोड़े बच्चों, कुछ वालंटियर्स के साथ हुई और पब्लिक पार्क, फुटपाथ, कचरे के ढेर जैसी जगहों से होते हुए दिल्ली आधारित इस संगठन ने एक लम्बा रास्ता तय किया। तमाम बाधाओं को पार करते हुए वह स्कूल को गरीब बस्तियों तक ले गई। उन्होंने नई दिल्ली के गोविंदपुरी और आसपास की बस्तियों के करीब 8 हजार बच्चों को शिक्षा देने का संकल्प लिया और उन्हें इज्जत के साथ जीना सिखाया। आज यह प्रोजेक्ट गोविंदपुरी की एक साधारण संकरी गलियों में से एक में बड़ी बिल्डिंग से चल रहा है। इस संस्था द्वारा प्राइमरी और सेकेन्डरी लेवल की एजुकेशन, कम्प्यूटर ट्रेनिंग और शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए खास क्लासेस और महिलाओं के लिए वोकेशनल ट्रेनिंग की व्यवस्था की गई है। समाज में जितने भी सवाल खडेþ होते हैं उनके जवाब में अनुराधा का ‘प्रोजेक्ट व्हाय’ हल के रूप में सामने खड़ा मिलता है। जब कुछ लोग उनके प्रयासों को खारिज करते हुए कहते हैं कि यह बच्चे गटर में रहते हैं और कभी पास नहीं हो सकते, उन बच्चों के लिए अनुराधा एक नया एजुकेशन मॉडल लेकर आई है जिसने स्कूल ड्रॉपआउट की संख्या कम की है और इन बच्चों को मेरिट में आने के काबिल बनाया है। उन्होंने एक 30 वर्षीय मानसिक रूप से अस्वस्थ युवा मनु के जीवन को सुधारने के लिए प्रयास किए थे, जो कि कचरे के ढेर पर अपनी जिंदगी गुजार रहे थे और इसी से उन्हें ‘प्रोजेक्ट व्हाय’ की प्रेरणा मिली। मनु ‘प्रोजेक्ट व्हाय’ की पहली सक्सेस स्टोरी थी। इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत उन्होंने बच्चों के दिल के आपरेशन, उन्हें माता-पिता के अत्याचारों से बचाने और एक साल के उत्पल को जो बहुत अधिक जल गया था, मौत के मुंह से खींच लाने जैसे बडे काम भी कर दिखाए हैं। यह प्रोजेक्ट सभी के लिए एक छांव की तरह है लेकिन इस छांव के इंतजाम के लिए फंड जुटाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। वह इस प्रोजेक्ट के जरिए जो कुछ भी फाइनेंशियल मदद जुटा पाती है वह उन पाठकों की मदद से आती है जो उनका ब्लॉग पढ़ते हैं। इसमें ज्यादातर विदेशी ही हैं। |
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इस ज़बरदस्त सूत्र को प्रारम्भ करने के किये आपको धन्यवाद भी देना चाहता हूँ, अलैक जी, और बधाई भी. हमारे आस पास बहुत से ऐसे काम किये जा रहे हैं जो सामान्य दिखने वाले लोगों द्वारा छोटे स्तर पर शुरू किये गए लेकिन जिनमे समाज को बदलने की तीव्र इच्छाशक्ति और क्षमता परिलक्षित होती है. चाहे आप अप्पन समाचार की बात करें, चाहे झारखंड के सुभाष गयाली का ज़िक्र करें, या डॉ.अच्युत सामंत द्वारा जारी काम का विचार करें, इन सभी ने अपने अपने तौर पर समाज को जागरूक करने का और दबे हुए, अशिक्षित तबकों का व अभावग्रस्त लोगों के जीवन में आशा की नयी किरण लाने का महत्वपूर्ण काम किया है. इनके साथ ही, इंजी. योगेश्वर द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के निमित्त तीन दशकों के कार्य तथा अनुराधा बख्शी का 'प्रोजेक्ट व्हाई' निस्संदेह प्रशंसा तथा सामाजिक व सरकारी सपोर्ट के योग्य पात्र हैं. चीन का अनोखा स्कूल (हम एक / हमारा एक ), न्यू जर्सी के टॉम स्ज़ाकी और अपने तैराक शरत गायकवाड़ भी अपने अपने तरीके से नयी ज़मीन खोज रहे है. जैसा आपने कहा, इन सभी व्यक्तियों का कार्य देख कर आश्चर्य से हम दांतों तले उंगली दबाने पर विवश है. इन सभी कार्यों और इनके पीछे की विभूतियों को हमारा ह्रदय से अभिनन्दन व नमन. अखबारों की नकारात्मक ख़बरों में दिखाई देने वाला भारत इन शक्तिशाली विभूतियों की आभा और कृतित्व में आज नहीं तो कल ज़रूर बदलेगा.
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ग्रेस निर्मला, आंध्र प्रदेश http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1361094683 (ग्रेस चित्र में सबसे बाएं) सालों से चली आ रही कुप्रथाओं के खिलाफ खड़ा होने के लिए बहुत साहस और आत्मबल की जरूरत होती है। ऐसे में ग्रेस निर्मला ने लड़कियों को ‘जोगिनी’ बनने पर मजबूर करने वाली कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और जीत भी दर्ज की। |
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कुप्रथा के खिलाफ ‘ग्रेस’ ने जीती जंग
अंजली, तिरूपथम्मा और ऐसी ही कई लड़कियों की अंधेरी जिंदगी में ग्रेस निर्मला एक आशा की किरण बनकर आई। आंध्रप्रदेश की रहने वाली निर्मला तेलंगाना में उन किशोरियों को बचा रही हैं जिनके जीवन में जोगिनी बनना तय था। उन्होंने इन लड़कियों को स्वयं द्वारा वर्ष 1993 में स्थापित एक वॉलिन्टियरी संगठन ‘आश्रय’ में पनाह दी। दरअसल आंध प्रदेश में दलित लड़कियों को जोगिनी बना कर देवता या देवी को समर्पित कर दिया जाता है और फिर गांव के उच्च जाति के या प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा उनका यौन शोषण किया जाता हैं। हालांकि सदियों पुरानी यह पराम्परा कानूनन अपराध है लेकिन फिर भी इसे जड़ से खत्म करने के लिए अभी बहुत प्रयासों की जरूरत है। ग्रेम द्वारा चलाया गया ‘आश्रय’ संगठन आंध्रप्रदेश के नौ जिलों में बेहतरीन काम कर रहा है। ‘आश्रय’ के जरिए दबी-कुचली महिलाओं को इस योग्य बनाया गया कि वह एक साथ इकट्ठा होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कर सक ती हैं। ग्रेस एक गृहिणी थी और वर्ष 1990 में पार्ट-टाइम पढ़ाने का काम करती थी। उन्हें अपने पति निलैय्या से जोगिनियों की दुर्दशा के बारे में पता चला था क्योंकि उनके पति निजामाबाद जिले में जोगिनियों की आर्थिक स्थिति पर रिसर्च कर चुके थे। यह सुन कर ग्रेस ने तुरंत मन बना लिया कि उन्हें इन लड़कियों के उद्धार के लिए कुछ करना है। उन्होंने बताया कि उन्हें जोगिनियों के लिए उत्कोर गांव से काम करना शुरू किया तो देखा कि ईश्वर में उनकी आस्था और अंधविश्वास बहुत पक्का है। उन्होने सबसे पहले उस गांव में एक रहवासी स्कूल चलाने की शुरुआत की। पति के समर्थन से वह परिवार सहित महबूबनगर आ गई और यहां उन्होंने अपने बच्चों को बाकी दलित बच्चों साथ पढ़ाया। उन्होंने अपने बच्चों की तरह बाकी बच्चों को भी पाला-पोसा। जब उन्हें शिक्षित किया तो उनकी काउंसलिंग की और उन्हें प्रेरित किया कि वह जोगिनी बनने से इंकार करें। शुरुआत में यह बहुत ही कठिन था क्योंकि न तो लड़कियां और न ही उनके माता-पिता उनको गम्भीरता से लेते थे। चाहे वह बुरी ही क्यों न हो या अंधविश्वास पर आधारित ही क्यों न हो, लेकिन लम्बे से चली आ रही पराम्परा के विरोध में खड़ा होना पहाड़ को लांघने जितना ही कठिन काम था। फिर भी वह अपने निश्चय पर दृढ़ थी। वह महबूबनगर में दलित महिलाओं की एक वर्कशॉप में जोगिनी हाजम्मा से मिली। इसी के साथ वह जोगिनी लक्ष्म्मा, देवेंद्रम्मा, पापम्मा और क्षितिम्मा के संपर्क में आई और उन्होंने इस सभी का एक कोर ग्रुप बनाया। इस सभी ने आगे आने का साहस इसलिए जुटाया ताकि वह दूसरी लड़कियों को जोगिनी बनने से और उस अपमान को सहने से बचा सकें जिसे अब तक वह सहती आई हैं। उन्होंने आवाज उठाई और वे सफल हुई। |
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डॉ. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, नोएडा http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1361095675 फूल में फिसलन बहुत पर मन बहकता है, शूल में पीड़ा अधिक पर मन महकता है। इन्हीं पंक्तियों से मिलता-जुलता है डॉ. सरोजिनी का जीवन। जिन्होंने वैवाहिक जीवन टूटने के दर्द को जिंदगी जीने का हौसला बना लिया। 90 की उम्र में भी उन्होंने साहित्य सृजन का सिलसिला बरकरार रखा है। |
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निजी दर्द को बनाया नारी सशक्तीकरण का हथियार
जीवन की ऊंची-नीची डगर पर हादसों को हौंसले की तरह इस्तेमाल करने वाले दुनिया में बिरले ही होते हैं। वैसे अगर कुछ ऐसी ही बात यदि किसी महिला के लिए कही जाए तो निश्चय ही कम से कम उस शख्सियत के लिए तो सम्मान और बढ़ जाता है। कुछ ऐसी ही हैं 90 वर्षीय डॉ. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ। उन्होंने अपने वैवाहिक जीवन की टूटन के दर्द को ही नारी सशक्तीकरण का हथियार बना लिया। एक शिक्षिका तौर पर उन्होंने अपनी कई शिष्याओं को जीने का मकसद दिया। नोएडा सेक्टर-40 निवासी डॉ. कुलश्रेष्ठ की कलम इस उम्र में भी बेबाकी से महिलाओं को सशक्त होने का हौंसला भरती है। सरोजिनी बचपन से ही लेखन के प्रति समर्पित रहीं और आठ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने बच्चों के लिए एक कविता लिखी। फिर उन्होंने बच्चों के लिए 11 किताबें लिखी। इनमें कविताओं-कहानियों के साथ ही लोरी और प्रभातियां भी हैं। उनका विचार है कि नारी हमेशा ही स्वीकार करने और झुकने के लिए नहीं है, उसमें गलत का प्रतिकार करने का उद्गार भी है। काव्य शंकुतला इसका प्रमाण है। उनको साहित्य से जुड़ी विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं से 30 पुरस्कार और उपाधियां मिली है। इनमें विदुषी रत्न सम्मान, अखिल भारतीय ब्रज साहित्य संगम से वर्ष 1984, बाल कवियित्री सम्मान, राष्ट्रीय भाषा आचार्य सम्मान, देवपुत्र गौरव जैसे सम्मान मिले हैं। 17 वर्ष की उम्र में उनका विवाह डॉ. धर्मानंद के साथ हो गया था। पति को पढ़ने का शौक था और वह उन्हें भी प्रोत्साहित करते रहे। पति आगरा में मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे और वह मेरठ के डिग्री कॉलेज में स्नातक कर रही थीं। वर्ष 1942 में उन्हें पता चला कि वह गर्भवती है, जीवन में नव अंकुर के आने की आहट से उनका मन प्रफुल्लित हो उठा, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। उनके पति ने आगरा में दूसरी शादी कर ली। इस मुश्किल घड़ी में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। वर्ष 1951 बीए, एमए और पीएचडी के बाद उन्हें रघुनाथ गर्ल्स डिग्री कॉलेज मेरठ में हिंदी प्रवक्ता का पद मिल गया। एकाकी अभिभावक रहकर भी बेटी साधना को सवर्गुण सम्पन्न और सशक्त बनाया। महिला को सबला बनने का सबक मेरठ से उनका स्थानांतरण अजमेर के सावित्री गर्ल्स कॉलेज हिंदी विभागाध्यक्ष के तौर पर हुआ और फिर वह वर्ष 1957 में मथुरा के किशोरी रमण महाविद्यालय में प्राचार्य के पद रहीं। यहां 26 वर्ष तक सेवाएं देने के दौरान उन्होंने अपनी छात्राओं में हिम्मत और हौसले का बीज बोया। उन्हें इस बात की बेहद खुशी है कि उनकी पढ़ाई हुई कई शिष्याएं अच्छे पदों और बड़े मुकाम पर हैं। |
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मोलोय घोष, दिल्ली http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1361096992 बहुत से लोगों के पास गुजरे जमाने के एलपी रिकॉडर्स और कैसेट्स आज भी हैं जिनमें कई महत्वपूर्ण धुनें और गाने हैं। संगीत से प्यार करने वाले मोलोय घोष ने इसी काम को एक बढ़िया प्रोफेशन के तौर पर देखा और अपना लिया। वह जब बीमारी से उठे तो उन्होंने संगीत के प्रति अपने प्यार को ही प्रोफेशन में बदल दिया। |
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पुराने संगीत को सहेजने के प्रयास
लोग अपने पैशन को अपने प्रोफेशन में कैसे बदल सकते है इसका सबसे बड़ा उदाहरण मोलोय घोष हैं। दिल्ली के रहने वाले मोलोय आज एलपी रिकॉडर्स और आडियो कैसेट्स को सीडी और पेन ड्राइव में डिजिटल फॉर्म में सहेजने में संगीत प्रेमियों की मदद कर रहे हैं। वह बताते हैं कि वह अब तक करीब एक हजार एलपी और करीब 1500 आडियो कैसेट्स को सीडी में कन्वर्ट कर चुके हैं। उनकी योजना है कि वह आल इंडिया रेडियो और संगीत संग्रहालय व विश्व भारती कोलकाता जैसी संस्थाओं के साथ काम करें और भारत के प्राचीन संगीत को सहेजने में हाथ बटाएं। वह म्यूजिक क म्पनियों के साथ भी जुड़ना चाहते हैं। वह कहते हैं कि अगर हमें अपने देश का संगीत सहेजना है तो हमें एक अच्छा संग्रह बनाना चाहिए। उनका बचपन कोलकाता में बीता और वहां भक्ति संगीत में गहरी रूचि हो गई लेकिन जब 15 साल के हइए तो उन्हें गले का इंफे शन हुआ और डॉक्टर ने गाने से दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने राह बदली और एमआईटी, मणिपाल में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया। पर यहां आकर भी संगीत से खुद को दूर नहीं किया। जब पिता का ट्रांसफर दिल्ली हुआ तो उन्होंने एक मार्केटिंग का जॉब कर लिया। 2008 में लगातार यात्रा और मेहनत के कारण हेपेटाइटिस बी हो गया और उन्हें छह महीने के लिए बिस्तर पकड़ लिया। डॉक्टर की हिदायत थी कि अब वह फील्ड में नहीं जाएंगे। वह बताते हैं कि उनकी पत्नी चंद्राणी ने उन्हें यह नया काम शुरू करने और म्यूजिक में राह खोजने की सलाह दी। मोलोय ने तब कॉलोनी के बच्चों को रवींद्र संगीत सिखाना शुरू किया। वह छात्रों को बंगाली काव्य गीत भी सिखाने लगे। इस सिलसिले में उन्हें अपने प्रिय कृष्णा चट्टोपाध्याय के एलपी रिकॉर्ड्स सुनना होते थे। एक बार जब ग्रामोफोन खराब हो गया तो वह एक म्यूजिक शॉप पर गए और उन्होंने चट्टोपाध्याय की सीडी मांगी। वह यह सुनकर अचंभित रह गए कि उनकी कोई सीडी बाजार में नहीं थी। और बस यहीं से उनकी संगीत यात्रा की शुरुआत हुई। पहले पहल तो उन्होंने अपने आसपास तलाश किया कि कहीं कोई ऐसी शॉप हो जहां एलपी को सीडी में कन्वर्ट किया जा सके। जब ऐसी कोई जगह नहीं मिली तो यह काम खुद करने का विचार किया। उन्होंने अपनी सारी सेविंग खर्च करके अमेरिका से एक सॉफ्टवेयर खरीदा। वह एलपी को डिजिटल फॉर्म में कन्वर्ट ही नहीं करना चाहते थे बल्कि उससे आने वाली घर्र-घर्र की आवाज को भी दूर करना चाहते थे और साफ ओरिजनल वॉइस पाना चाहते थे और उन्होंने वह कर दिखाया। कुछ ही समय में संगीतप्रेमी उनके काम से खुश हुए और फिर उनके पास दूर-दूर से और भी लोग आने लगे। अब संगीत उनकी पहचान बन चुका है। |
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नैल क्लार्क वारेन, सिडनी http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1364598622 एक ऐसी वेबसाइट जिसमें सॉफ्टवेयर लोगों की पसंद-नापसंद के आंकड़ों का आकलन करके उन्हें उन लोगों की प्रोफाइल ही दिखाता है, जिनकी पसंद आपस में मिलती है। |
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अब जोडियां बना रहा है सॉफ्टवेयर
कहते हैं जोड़ियां तो ऊपर से बनकर आती हैं हम तो एक जरियां होते हैं उन्हें मिलाने का। ऐसे ही कई सारी साइट् हैं जो लोगों के रिश्ते कराती हैं, पर सिडनी में एक ऐसी साइट है जिसमें जोड़ियां सॉफ्टवेयर बनाता है। सॉफ्टवेयर लोगों की पसंद-नापसंद के आंकड़ों का आकलन करके उन्हें उन लोगों की प्रोफाइल ही दिखाता है जिनकी पसंद आपस में मिलती है। इस आनलाइन डेटिंग की दूसरी पीढ़ी की शुरूआत साल 2000 में वैबसाइट ‘ई-हार्मनी’ ने की थी। इसे अल्गोरिदम आधारित या पसंद के अनुसार जोड़ी मिलाने वाली प्रणाली भी कहा जाता है। सिडनी के नैल क्लार्क वारेन ने एक जैसी रुचि या सोच रखने वाले जोड़ों को मिलाने के मकसद से इस वैबसाइट को शुरू किया था। इस वैबसाइट का दावा है कि उसने पिछले 10 सालों में करीब 11 हजार शादियां करवाई हैं। ई-हार्मनी के प्रमुख के अनुसार वे अपने क्लाइंट्स का समय बचाते हैं क्योंकि उन्हें अपनी पसंद से मेल खाते साथी की तलाश करने के लिए हजारों प्रोफाइल्स को खंगालना नहीं पड़ता है। जब 15 साल पहले इंटरनेट डेटिंग की शुरूआत के समय अधिकतर वैबसाइट्स मैरिज ब्रोकर्स के तौर पर काम करती थीं जिन पर अपने प्रोफाइल डालने वाले लोगों में अधिकतर पुरुष होते थे जबकि महिलाओं की गिनती उससे आधी ही थी। पर आज की तारीख में अपनी पसंद के साथी को तलाश करना कहीं आसान है। साथ ही इन पर अब प्राइवेसी तथा सिक्योरिटी सेटिंग्स भी इतनी अत्याधुनिक हैं कि लोग बिना फोन नम्बर दिए अपने सम्भावित साथी से फोन पर बात भी कर सकते हैं। वैसे कई लोग ऐसी वैबसाइट्स के सटीक जोडिय़ां मिलाने के दावों पर अधिक विश्वास नहीं करते हैं। उनके अनुसार केवल दो लोगों की पसंद के मेल खाने का यह मतलब नहीं है कि वे एक साथ खुश रह सकते हैं। आज इंटरनेट पर प्यार की तलाश में जुटे तन्हा लोगों की कोई कमी नहीं है और इन लोगों के लिए दुनिया भर में आॅनलाइन डेटिंग के कारोबार में करीब एक हजार से अधिक वैबसाइट्स काम कर रही हैं। हर देश में कोई न कोई ऐसी वेबसाइट खूब लोकप्रिय है। भारत में ‘शादीडॉटकॉम’ सबसे मशहूर वेबसाइट है तो मध्य-पूर्व एवं अफ्रीका में ‘इंशाल्लाहडॉटकॉम’ दूसरी सबसे लोकप्रिय वेबसाइट है। ब्रिटेन में प्लैंटी आफफिश नम्बर एक पर है, जबकि लातिन अमेरिकी देशों में ओअसिस डेटिंग नेटवर्क को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। दुनिया भर में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में से 10 प्रतिशत लोग आॅनलाइन डेटिंग वेबसाइट्स पर विजिट करते हैं। |
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मुस्तफा इस्माइल, मिस्र http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1365223531 रियल लाइफ के पॉपाय मुस्तफा इस्माइल ने अपना नाम गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज करवा लिया है। उनकी बाइसेप्स का साइज 31 इंच है, जो दुनिया की सबसे बड़े बाइसेप्स हैं। |
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रियल लाइफ के पॉपाय हैं मुस्तफा
दुनिया के मशहूर कार्टून कैरेक्टर ‘पॉपाय द सेलर मैन’ की धांसू बाइसेप्स (बांहों की मसल्स) का राज पालक सब्जी में था। दुश्मन का खात्मा करने के लिए पॉपाय अपने जेब में रखा पालक का डिब्बा खाता और फिर दुश्मन पर बिजली बन कर गरजता था। ऐसे ही रियल लाइफ पॉपाय हैं मुस्तफा, जिन्हें पालक खाना पसंद नहीं है। मिस्र के रहने वाले मुस्तफा इस्माइल के पास दुनिया के सबसे बड़े बाइसेप्स हैं। उन्हें गिनीज वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्ड में शामिल किया गया है। उनकी बाइसेप्स का साइज 31 इंच है। यह किसी भी सामान्य आदमी की कमर के बारबर होता है। उनका कहना है कि अगर आने वाले समय में सारे प्लान ठीक रहे तो वह जल्द ही और भी भयानक दिखने लगेंगे। बीते साल ही 30 वर्षीय इस्माइल को उनके भारी भरकम बाइसेप्स के लिए गिनीज वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्ड में शामिल किया गया है। उन्हें असल जिंदगी में पालक से नफरत है पर चिकन खाना बहुत पसंद है। वह एजेक्जेन्ड्रिया के मूल निवासी हैं। वह वर्ष 2007 में अच्छी जिम ट्रैनिंग के लिए अमेरिका चले गए थे। वह बचपन से ही काफी मोटे थे, लेकिन अमेरिका से लौटे तो हल्के हो गए थे। अमेरिका के कैलिफोर्निया रह रहे इस्माइल मिस्र के पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें वर्ल्ड बुक में दर्ज किया गया। वह शानदार बलिष्ठ शरीर के कारण दर्जनभर से ज्यादा देशों में घूम चुके हैं। वह कहीं भी जाते हैं तो महिला-पुरुष उन्हें देखने जुट जाते हैं। कई लोग उनसे जिम में मेहनत की टिप्स लेते हैं। उनके कई आलोचक भी हैं, जो उनकी बॉडी को झूठा करार देते हैं और स्टेरॉयड लेने का आरोप लगाते हैं। उन्हें एक जापानी टीवी पर अल्ट्रा साउंड से भी गुजरना पड़ा, जिससे साबित हो जाए कि उनके बाइसेप्स असली हैं। वह मैसासच्यूट के मिलफोर्ड में गैस स्टेशन में हर सप्ताह 70 घंटे काम करते हैं। जिस दिन वह काम नहीं कर रहे होते हैं, तो वह जिम में पसीना बहाते हैं। तीन घंटे का वर्कआउट सुबह पांच बजे से शुरू होता हैं। सेंटर एराउंड कार्डियो, स्ट्रैन्थ ट्रैनिंग और बॉडी स्कल्पटिंग उनके प्रमुख्य एक्सरसाइज है। वह अपना रोल मॉडल हॉलीवुड जाइन्ट अर्नोल्ड श्वाजर्नेगर को मानते हैं। वे हमेशा लाइट वेट के साथ कसरत करने पसंद करते हैं, साथ ही प्रतिदिन 3.1 किलोग्राम मांस, चार किग्रा कार्बोहाइड्रेट, तीन गैलन पानी लेते हैं। वह बताते हैं कि जब वे मोटे थे, तो वर्कआउट करना शुरू किया था। 31 इंच की बाइसेप्स के साथ वे इसे 40 इंच तक बढ़ाना चाहते हैं। इसके साथ ही बाइसेप्स से ज्यादा कंधे चौड़े करना उनके लिए चुनौती होगी। |
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पेट्स एयरवेज, अमेरिका http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1365570472 एयरलाइंस में परिवार के साथ पेट्स को परमिशन नहीं दी जाती थी। इसलिए एक अमेरिकी दम्पती ने पेट्स एयरवेज की शुरुआत की है। यह एयरवेज खासतौर पर पेट्स के लिए बनाई गई है। जहां हर 15 मिनट में फ्लाइट अटेंडेंट्स पेट्स की मेडिकल जांच भी करते हैं। |
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पालतू जानवर भी उड़ेंगे आसमान में
जब भी कहीं घूमने का प्लान बनाओ सबसे पहले जहन में एक ही सवाल आता है कि पेट्स या पालतू डॉगी का क्या होगा। उन्हें किस के भरोसे छोड़ कर जाएं। किसी रिश्तेदार के यहां या किसी पड़ोसी को दिया जाए क्योंकि हवाई जहाज में आपके साथ आपके पेट्स को यात्रा करने की परमिशन नहीं मिलती है। लेकिन अब यह समस्या लगभग सुलझ चुकी हैक्योंकि न्यूयॉर्क के एक दम्पती एलिसा बाइंडर और डैन वीइजल ने ऐसी एयरवेज की स्थापना की है जो सिर्फ पालतू जानवरों के लिए है। जी हां, अभी तक पालतू जानवर मालिक के साथ हवाई सफर नहीं कर सकते थे, लेकिन अब पेट्स भी हवाई सफर का मजा ले सकते हैं। पालतू जानवरों के लिए शुरू की गई ‘पेट एयरवेज’ में पालतू जानवरों को एक खास हवाई जहाज द्वारा यात्रा करवाई जाती है। इसमें जानवरों को कार्गो में न ले जाकर यात्रियों की तरह ही ले जाया जाता है। मसलन, इस एयरवेज में जानवरों को बैठने के लिए सीट नहीं बल्कि वातानुकुलित और सुरक्षित पिंजरे मिलते हैं। प्लेन में फ्लाइट अटेंडेंट्स भी हैं, जो हर 15 मिनट बाद जानवरों को चेक करते हैं, उनकी मेडिकल जांच करते हैं। कुल मिलाकर ये अटेंडेंट्स आपके पेट्स के स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखते हैं। यह विमान सेवा फिलहाल न्यूयॉर्क, वॉशिंगटन, शिकागो और लॉस एंजिल्स में है। उम्मीद की जा रही है कि धीरे-धीरे इसका नेटवर्क बढ़ेगा। पेट्स के लिए इस तरह की खास एयरलाइन शुरू होने के पीछे भी एक मजेदार किस्सा जुड़ा हुआ है। असल में एक बार अमेरिकी दम्पती एलिसा बाइंडर और डैन वीइजल के पेट्स को एक प्लेन के कार्गो में सफर करना पड़ा। इस वजह से उन्हें काफी परेशानी हुई और इसी घटना के बाद से उन्होंने तय कर लिया कि वह एक ऐसी एयरलाइंस बनाएंगे, जो सिर्फ पेट्स के लिए होगी। एलिसा और डैन की इस एयरलाइंस ने न्यूयॉर्क के फार्मिंगडेल से अपनी पहली उड़ान भरी। एलिसा और डैन का कहना है कि इस एयरलाइन की शुरुआत के बाद लोगों का रिस्पोंस उम्मीद से अच्छा मिल रहा है। पेट्स की इस खास एयरलाइन की वजह से हर एयरपोर्ट पर एक स्पेशल पेट्स लाउंज बनवाया गया है। हालांकि यह उड़ान वक्त बहुत लेती है क्योंकि यह सफर में पड़ने वाले प्रत्येक एयरपोर्ट पर रुकती हुई जाती है। यह एयरलाइन लॉस एंजिल्स से न्यूयॉर्क तक का सफर करीब 24 घंटे में पूरा करती है। |
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Very Interesting.
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‘द डांसिग डॉग’, सांतियागो http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1366085070 जोस फोंटेस को कैरी ‘द डांसिग डॉग’ के साथ डांस करना बहुत अच्छा लगता है। वे दोनो अपने डांस कार्यक्रमों से सारी दुनिया को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। |
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इंसान से अच्छा नाचती है ‘कैरी’
प्रतिभा या मेधा किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं होती है। ईश्वर ने प्रकृति में कुछ ऐसे जीवों को जन्म दिया है जो कि मनुष्य नहीं हैं लेकिन फिर भी किसी काम में उनकी कुशलता किसी आदमी से कम नहीं है। कैरी ‘द डांसिग डॉग’ एक ऐसी ही प्रतिभा है जो कि एक आदमी के साथ हैती और डोमीनिकन डांस में रोज नाच सकती है। गोल्डन रिट्रीवर कैरी केवल नाचती ही नहीं है वरन पूरी वेशभूषा में अपने दो पैरों पर खड़ी होकर और भी बहुत से करतब दिखाती है। कैरी की अन्य विशेषताएं यह हैं कि वह बिजली का बटन चालू और बंद कर सकती है, दरवाजों को खोल सकती है और इन्हें बंद कर सकती है और ऐसा करने के साथ वह निश्चित तौर पर किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं है। कैरी के मालिक और डांस पार्टनर जोस फोंटेस चिली की राजधानी सांतियागो में रहते हैं। कैरी और जोस कई लाइव टीवी शोज में भी आ चुके हैं। उन्होंने सीबीएस के डेविट लेटरमैन लेट नाइट शो में भी हिस्सा लिया है। उल्लेखनीय है कि कैरी के ज्यादातर डांस स्पैनिश में हैं और इनकी वीडियो फिल्में भी बनाई गई हैं। जोस उनकी डांस की पार्टनर कैरी परम्परागत रूप से मेरांज डांस पसंद करती है और उसे इस नाच में महारत हासिल है। अपने मालिक और डांसिंग पार्टनर द्वारा प्रशिक्षित कैरी की नाचते समय टाइमिंग, स्टेज प्रजेंस और असाधारण रूप से परिपूर्ण संतुलन देखने वाले को आश्चर्य में डाल देता है। यू ट्यूब पर उसके पेज व्यूज की संख्या 40 लाख से अधिक है। उसके प्रशंसक चाहते हैं कि कैरी न केवल दुनिया के अन्य प्रसिद्ध टीवी कार्यक्रमों में आए वरन वह हॉलीवुड की फिल्मों भी हिस्सा बने। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरांज हैती और डोमीनिकन रिपब्लिक के संगीत और डांस का मेल है। नाचने वाले एक दूसरे के करीब आकर और एक दूसरे को पकड़कर नाचते हैं। नाच का नेतृत्व करने वाले जोस अपना दाहिना हाथ कैरी की कमर पर रखते हैं। नाच करते करते दोनों एक तरह से दूसरी तरफ या छोटे छोटे कदमों से एक दूसरे का चक्कर लगाते हैं। नाच के दौरान दोनों तरह-तरह की मुद्राओं में होते हैं लेकिन दोनों के हाथ एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं। इस नाच के दौरान अन्य प्रकार के कोरियाग्राफीज की भी सम्भावनाएं हैं। मेरांज डोमीनिकन रिपब्लिक, हैती का राष्ट्रीय संगीत और डांस है जिसे मूल रूप चुकंदर के खेतों में काम करने वाले अश्वेत श्रमिक अपने मनोरंजन के लिए गाकर करते थे हालांकि अब यह लैटिन अमेरिकी देशों के अन्य नृत्यों जैसे चा चा चा, रम्बा, मम्बो और सालसा की तरह लोकप्रिय है। |
Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
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लुडविक, लिंपोपो http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1366281317 एक दोस्त ने तो बस यूं ही पूछ लिया था कि क्या कोई ऐसी चीज नहीं बना सकता, जिससे हम बिना पानी के ही नहा सकें? और लुडविक सचमुच इसकी खोज में जुट गए तथा ड्राइ बाथिंग लोशन बना कर ही दम लिया। |
Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
अब तो पानी के बिना भी नहाना सम्भव
अपने दोस्त के एक प्रश्न पर ड्राइ बाथिंग लोशन बनाने वाले छात्र लुडविक मैरिशेन को वर्ष 2011 में ग्लोबल स्टूडेंट इंटरप्रेन्योर का खिताब दिया गया। वह अभी भले ही 22 वर्ष की उम्र के करीब हों, लेकिन दुनिया भर की क म्पनियां उनके इन अनूठे प्रोडक्ट की मांग कर रही हैं। जब उन्हें ग्लोबल स्टूडेंट एंटरप्रेन्योर का अवॉर्ड मिला, तो वे यूनिवर्सिटी आफ कैपटाउन के बीकॉम के तीसरे वर्ष के छात्र थे। उन्होंने 42 देशों के करीब 1,600 छात्रों को पीछे छोड़ते हुए यह अवॉर्ड अपने नाम किया। उनके प्रोडक्ट को बाजार में आए हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है, फिर भी इसकी मांग काफी है। यह बात इस आंकड़े से साफ होती है कि ब्रिटिश एयरवेज ने दो लाख ड्राइ बाथ लोशन का आर्डर लुडविक को दे दिया है। वह लिंपोपो में पले-बढ़े है जहां पानी और बिजली की आपूर्ति उतनी ही अनिश्चित है, जितना मौसम। एक बार वह सर्दियों के एक दिन अपने दोस्तों के साथ सनबाथ ले रहे थे। उनके करीब बैठे दोस्त ने कहा कि क्या कोई हमारे लिए ऐसी चीज नहीं खोज सकता, जिससे हम बिना पानी के नहा सकें ? उसी समय लुडविक ने घर जाकर इस विषय पर शोध की, तो चौंकाने वाले आंकडे मिले। दुनिया में 2.5 अरब से अधिक लोगों तक पानी और स्वच्छता की पहुंच नहीं है। कई जगहों पर एक जग पीने का पानी लेने के लिए लोग मीलों दूर जाते हैं तो नहाने की बात ही छोड़िए। वह बताते हैं मेरे पास लैपटॉप या इंटरनेट नहीं था। इसके चलते उन्हें अपने मोबाइल के जरिए इंटरनेट पर लोशन, क्रीम, उनके क म्पोजिशन आदि का शोध किया। इसका फॉर्मूला उन्हें कागज पर लिखा। फिर उन्हें लगा कि इसे क्रियान्वित करने की जरूरत है। चार साल बाद उन्होने 40 पेज का बिजनेस प्लान अपने मोबाइल फोन पर लिखा और इसका पेटेंट कराया। वह अपने देश में सबसे युवा पेटेंट होल्डर हैं। उन्हें बाथ सब्सटीट्यूटिंग लोशन द्वारा दुनिया में पहला ड्राई बाथ का तरीका खोजा है। इसे त्वचा पर लगाने के बाद नहाने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें जब इसे बनाया तब वह हाई स्कूल में पढ़ते थे। सीमित संसाधनों के साथ उन्हें इसे तैयार किया। इसके बाद वह यूनिवर्सिटी में गए तो अपने उत्पाद को बाजार में भेजने लायक बना सके। लुडविक बताते हैं, विश्वविद्यालय में आने के बाद वह लोगों से मिले और अपने इस उत्पाद को पूरी तरह से तैयार करने के बाद बाजार में पेश किया। हमने महसूस किया कि इस लोशन के प्रयोग से हम करोड़ों लीटर पानी बचा सकते हैं। ड्राई बाथ अमीर लोगों के लिए एक सुविधा है और गरीब लोगों की जिंदगी बचा सकता है। |
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