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मै पिंजर का तोता
उड़ता था मै नील गगन में अपने पंख पसारे मधुर गीत मै गाता था अपने प्रीतम के द्वारे जाने कौन घडी में किसने कैसा जाल बिछाया पल भर में न देर लगी खुदको पिंजर में पाया अब ...........मै पिंजर का तोता लोग देखकर मुझको कहते कितना प्यारा गाता है सोने के पिंजर में देखो सारे सुख पाता है पथिक मगर तुम अपने अंतर के अंतरपट को खोलो मेरे इन मधु गीतों को तुम विरह बात से तोलो क्यूंकि .......मै पिंजर का तोता . सोने के यह दर दरवाजे मेरे खातिर धेला है शान-ओ-शौकत, रिश्ते नाते मेरे खातिर मेला है "अंजना" कब कौन मुसाफिर मुझको ले जायेगा न जाने कब पिंजर तोता नील गगन पायेगा अब तो हूँ.........मै पिंजर का तोता |
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’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
चिर अतीत में ’आज’ समाया, उस दिन का सब साज समाया, किंतु प्रतिक्षण गूँज रहे हैं नभ में वे कुछ शब्द तुम्हारे! ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ लहरों में मचला यौवन था, तुम थीं, मैं था, जग निर्जन था, सागर में हम कूद पड़े थे भूल जगत के कूल किनारे! ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ साँसों में अटका जीवन है, जीवन में एकाकीपन है, ’सागर की बस याद दिलाते नयनों में दो जल-कण खारे!’ ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ हरिवंशराय बच्चन |
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अच्छी किताब
एक अच्छी किताब अन्धेरी रात में नदी के उस पार किसी दहलीज़ पर टिमटिमाते दीपक की ज्योति है दिल के उदास काग़ज़ पर भावनाओं का झिलमिलाता मोती है जहाँ लफ़्ज़ों में चाहत के सुर बजते है ये वो साज़ है इसे तनहाइयों में पढ़ो ये खामोशी की आवाज़ है एक बेहतर किताब हमारे जज़्बात में उम्मीद की तरह घुलकर कभी हँसाती, कभी रुलाती है रिश्तों के मेलों में बरसों पहले बिछड़े मासूम बचपन से मिलाती है एक संजीदा किताब हमारे सब्र को आज़माती है किताब को ग़ौर से पढ़ो इसके हर पन्ने पर ज़िन्दगी मुस्कराती है देवमणि पांडेय |
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अजनबी
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें कुछ न कहें अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए सवालों के दायरों से निकलकर रिवाज़ों की सरहदों के परे हम यूँ ही साथ चलते रहें कुछ न कहें चलो दूर तक तुम अपने माजी का कोई ज़िक्र न छेड़ो मैं भूली हुई कोई नज़्म न दोहराऊँ तुम कौन हो मैं क्या हूँ इन सब बातों को बस, रहने दें चलो दूर तक अजनबी रास्तों पर पैदल चलें। दीप्ति नवल (Actress) |
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जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है| अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है, एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है, यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है, क्यों करूँ आकाश की मनुहार , अब तो पथ यही है | क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए, एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए, एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए, आज हर नक्षत्र है अनुदार, अब तो पथ यही है| यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है, यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है, यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है, कल दरीचे ही बनेंगे द्वार, अब तो पथ यही है | ~dushyant kumar |
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आँखों की ख़ुशबू
आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है दिल को बहलावा नहीं दर्द दिया जाता है दर्द जो है इश्क़ में वह ही ख़ुदा है सबका दर्द के पहलू में यार को सजदा किया जाता है आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… तुम याद आ रहे हो और तन्हाई के सन्नाटे हैं किन-किन दर्दों के बीच ये लम्हे काटे हैं अब साँसें बिखरी हुई उधड़ी हुई रहती हैं हमने साँसों के धागे रफ़्ता-रफ़्ता यादों में बाटे हैं आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… इस जनम में हम मिले हैं क्योंकि हमें मिलना है तुम्हारे प्यार का फूल मेरे दिल में खिलना है दूरियाँ तेरे-मेरे बीच कुछ ज़रूर हैं सनम मगर यह फ़ासला भी एक रोज़ ज़रूर मिटना है आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… विनय प्रजापति 'नज़र' |
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अधर मधु किसने किया सृजन?
अधर मधु किसने किया सृजन? तरल गरल! रची क्यों नारी चिर निरुपम? रूप अनल! अगर इनसे रहना वंचित यही विधान, दिए विधि ने तप संयम हित न क्यों दृढ़ प्राण ? सुमित्रानंदन पंत |
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अधूरा मकान
उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर दिखाई दे जाता था वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान वह अधूरा था और बिरादरी से अलग कर दिए आदमी की तरह दिखता था उस पर छत नहीं डाली गई थी कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाईं थी हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की गूँज होती है कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बांझ उस अधूरे बने पड़े मकान में एक सपने के पूरा होते -होते उसके धूल में मिल जाने की आह थी अभाव का रुदन था उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का मर्सिया था एक ऐसी ज़मीन जिसे आंगन बनना था जिसमें धूप आनी थी जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये कपड़ों को सूखना था सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से गौरवान्वित होना था अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी डरा देता है उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर उस रास्ते से गुज़रती हूँ पर जानती हूँ अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का इतिहास दफ़्न होता है । संध्या गुप्ता |
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प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब, मैं समय के शाप से डरता नहीं अब, आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो । रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा, आज आधे विश्व से अभिसार मेरा, तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो। वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या, वह सुधा के स्वाद से जा*ए छला क्या, जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो। मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही, पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी, मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो। हरिवंशराय बच्चन |
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आज फिर से
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । है कंहा वह आग जो मुझको जलाए, है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए, रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ; आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी, नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी, आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ; आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको, है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको, स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ; आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा, कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा, किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ; आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । हरिवंशराय बच्चन |
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आज मुझसे बोल, बादल!
तम भरा तू, तम भरा मैं, ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं, आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल आज मुझसे बोल, बादल! आग तुझमें, आग मुझमें, राग तुझमें, राग मुझमें, आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल आज मुझसे बोल, बादल! भेद यह मत देख दो पल- क्षार जल मैं, तू मधुर जल, व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल आज मुझसे बोल, बादल! हरिवंशराय बच्चन |
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आज़ादी का गीत
चांदी, सोने, हीरे मोती से सजती गुड़िया इनसे आतंकित करने की घडियां बीत गई इनसे सज धज कर बैठा करते हैं जो कठपुतले हमने तोड़ अभी फेंकी हैं हथकडियां परम्परागत पुरखो की जागृति की फिर से उठा शीश पर रक्खा हमने हिम-किरीट उजव्व्ल हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल चांदी, सोने, हीरे, मोती से सजवा छाते जो अपने सिर धरवाते थे अब शरमाते फूल कली बरसाने वाली टूट गई दुनिया वज्रों के वाहन अम्बर में निर्भय गहराते इन्द्रायुध भी एक बार जो हिम्मत से ओटे छत्र हमारा निर्मित करते साठ-कोटी करतल हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल हरिवंशराय बच्चन |
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आत्मदीप / हरिवंशराय बच्चन
मुझे न अपने से कुछ प्यार, मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक, ज्योति चाहती, दुनिया जब तक, मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार| पर यदि मेरी लौ के द्वार, दुनिया की आँखों को निद्रित, चकाचौध करते हों छिद्रित मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार| केवल इतना ले वह जान मिट्टी के दीपों के अंतर मुझमें दिया प्रकृति ने है कर मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान| पहले कर ले खूब विचार तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए कहीं न पीछे से पछताए बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार| |
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आत्मपरिचय / हरिवंशराय बच्चन
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ! मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ, जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते, मैं अपने मन का गान किया करता हूँ! मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ, मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ; है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ! मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ, सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ; जग भ्व-सागर तरने को नाव बनाए, मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ! मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ, उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ, जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर, मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ! कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना? नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना! फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे? मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना! मैं और, और जग और, कहाँ का नाता, मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता; जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव, मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता! मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ, शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ, हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर, मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ! मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना, मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना; क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए, मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना! मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ, मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ; जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ! |
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आदर्श प्रेम / हरिवंशराय बच्चन
प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या गुण का ग्राहक बनना लेकिन गा कर उसे सुनाना क्या मन के कल्पित भावों से औरों को भ्रम में लाना क्या ले लेना सुगंध सुमनों की तोड उन्हे मुरझाना क्या प्रेम हार पहनाना लेकिन प्रेम पाश फैलाना क्या त्याग अंक में पले प्रेम शिशु उनमें स्वार्थ बताना क्या दे कर हृदय हृदय पाने की आशा व्यर्थ लगाना क्या |
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आ रही रवि की सवारी / हरिवंशराय बच्चन
आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रही है कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह- रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी। आ रही रवि की सवारी। |
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इतने मत उन्मत्त बनो / हरिवंशराय बच्चन
इतने मत उन्मत्त बनो! जीवन मधुशाला से मधु पी बनकर तन-मन-मतवाला, गीत सुनाने लगा झुमकर चुम-चुमकर मैं प्याला- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतने मत उन्मत्त बनो। इतने मत संतप्त बनो। जीवन मरघट पर अपने सब आमानों की कर होली, चला राह में रोदन करता चिता-राख से भर झोली- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतने मत संतप्त बनो। इतने मत उत्तप्त बनो। मेरे प्रति अन्याय हुआ है ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण, करने लगा अग्नि-आनन हो गुरू-गर्जन, गुरूतर गर्जन- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतने मत उत्तप्त बनो। |
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इस पार उस पार / हरिवंशराय बच्चन
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है, जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है, स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है! ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा*एँगे, तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको, इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको, कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा, करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको? कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं, उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये, वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए, महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा! उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए! अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके, उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी, जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी, जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी, तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी! जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा, तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी, बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी, अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जाएँगे, अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी, जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा, तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन, निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन, वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा! मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण! संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे, तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने, वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने, दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने! जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी, तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है, फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है! मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी, दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है। मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से! जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! |
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एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो / हरिवंशराय बच्चन
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए, कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए, इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े, और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए! किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया, जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया, जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली, और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया, घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने, “जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।” एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना, कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना, ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें, किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना, बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं, बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ, किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ, आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में, उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ। हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी, उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। |
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एक नया अनुभव / हरिवंशराय बच्चन
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक कविता लिखना चाहता हूँ। चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में मेरे परों की रंगीनी है?' मैंने कहा, 'नहीं'। 'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?' 'नहीं।' 'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?' 'नहीं।' 'जान है?' 'नहीं।' 'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?' मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है' चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?' एक अनुभव हुआ नया। मैं मौन हो गया! |
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एकांत-संगीत (कविता) / हरिवंशराय बच्चन
तट पर है तरुवर एकाकी, नौका है, सागर में, अंतरिक्ष में खग एकाकी, तारा है, अंबर में, भू पर वन, वारिधि पर बेड़े, नभ में उडु खग मेला, नर नारी से भरे जगत में कवि का हृदय अकेला! |
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ऐसे मैं मन बहलाता हूँ / हरिवंशराय बच्चन
सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! आह निकल मुख से जाती है, मानव की ही तो छाती है, लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! |
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कवि की वासना / हरिवंशराय बच्चन
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! १ सृष्टि के प्रारंभ में मैने उषा के गाल चूमे, बाल रवि के भाग्य वाले दीप्त भाल विशाल चूमे, प्रथम संध्या के अरुण दृग चूम कर मैने सुला*ए, तारिका-कलि से सुसज्जित नव निशा के बाल चूमे, वायु के रसमय अधर पहले सके छू होठ मेरे मृत्तिका की पुतलियो से आज क्या अभिसार मेरा? कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! २ विगत-बाल्य वसुंधरा के उच्च तुंग-उरोज उभरे, तरु उगे हरिताभ पट धर काम के धव्ज मत्त फहरे, चपल उच्छृंखल करों ने जो किया उत्पात उस दिन, है हथेली पर लिखा वह, पढ़ भले ही विश्व हहरे; प्यास वारिधि से बुझाकर भी रहा अतृप्त हूँ मैं, कामिनी के कंच-कलश से आज कैसा प्यार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ३ इन्द्रधनु पर शीश धरकर बादलों की सेज सुखकर सो चुका हूँ नींद भर मैं चंचला को बाहों में भर, दीप रवि-शशि-तारकों ने बाहरी कुछ केलि देखी, देख, पर, पाया न को*ई स्वप्न वे सुकुमार सुंदर जो पलक पर कर निछावर थी ग*ई मधु यामिनी वह; यह समाधि बनी हु*ई है यह न शयनागार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ४ आज मिट्टी से घिरा हूँ पर उमंगें हैं पुरानी, सोमरस जो पी चुका है आज उसके हाथ पानी, होठ प्यालों पर टिके तो थे विवश इसके लिये वे, प्यास का व्रत धार बैठा; आज है मन, किन्तु मानी; मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से बिधा, जग, जान ले तू, तन विकृत हो जाये लेकिन मन सदा अविकार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ५ निष्परिश्रम छोड़ जिनको मोह लेता विशॿन भर को, मानवों को, सुर-असुर को, वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को, भंग कर देता तपस्या सिदॿध, ऋषि, मुनि सत्तमों की वे सुमन के बाण मैंने, ही दिये थे पंचशर को; शक्ति रख कुछ पास अपने ही दिया यह दान मैंने, जीत पा*एगा इन्हीं से आज क्या मन मार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ६ प्राण प्राणों से सकें मिल किस तरह, दीवार है तन, काल है घड़ियां न गिनता, बेड़ियों का शब्द झन-झन वेद-लोकाचार प्रहरी ताकते हर चाल मेरी, बद्ध इस वातावरण में क्या करे अभिलाष यौवन! अल्पतम इच्छा यहां मेरी बनी बंदी पड़ी है, विश्व क्रीडास्थल नहीं रे विश्व कारागार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ७ थी तृषा जब शीत जल की खा लिये अंगार मैंने, चीथड़ों से उस दिवस था कर लिया श्रृंगार मैंने राजसी पट पहनने को जब हु*ई इच्छा प्रबल थी, चाह-संचय में लुटाया था भरा भंडार मैंने; वासना जब तीव्रतम थी बन गया था संयमी मैं, है रही मेरी क्षुधा ही सर्वदा आहार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! ८ कल छिड़ी, होगी ख़तम कल प्रेम की मेरी कहानी, कौन हूं मैं, जो रहेगी विश्व में मेरी निशानी? क्या किया मैंने नही जो कर चुका संसार अबतक? वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी? मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! |
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कहते हैं तारे गाते हैं / हरिवंशराय बच्चन
सन्नाटा वसुधा पर छाया, नभ में हमनें कान लगाया, फ़िर भी अगणित कंठो का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं कहते हैं तारे गाते हैं स्वर्ग सुना करता यह गाना, पृथ्वी ने तो बस यह जाना, अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आंसू आते हैं कहते हैं तारे गाते हैं उपर देव तले मानवगण, नभ में दोनों गायन-रोदन, राग सदा उपर को उठता, आंसू नीचे झर जाते हैं कहते हैं तारे गाते हैं |
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क़दम बढाने वाले: कलम चलाने वाले / हरिवंशराय बच्चन
अगर तुम्हारा मुकाबला दीवार से है, पहाड़ से है, खाई-खंदक से, झाड़-झंकाड़ से है तो दो ही रास्ते हैं- दीवार को गिराओ, पहाड़ को काटो, खाई-खंदक को पाटो, झाड़-झंकाड़ को छांटो, दूर हटाओ और एसा नहीं कर सकते- सीमाएँ सब की हैं- तो उनकी तरफ पीठ करो, वापस आओ। प्रगति एक ही राह से नहीं चलती है, लौटने वालों के साथ भी रहती है। तुम कदम बढाने वालों में हो कलम चलाने वालो में नहीं कि वहीं बैठ रहो और गर्यवरोध पर लेख-पर-लेख लिखते जाओ। |
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किस कर में यह वीणा धर दूँ / हरिवंशराय बच्चन
देवों ने था जिसे बनाया, देवों ने था जिसे बजाया, मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ? किस कर में यह वीणा धर दूँ? इसने स्वर्ग रिझाना सीखा, स्वर्गिक तान सुनाना सीखा, जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ? किस कर में यह वीणा धर दूँ? क्यों बाकी अभिलाषा मन में, विकृत हो यह फिर जीवन में? क्यों न हृदय निर्मम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दूँ? किस कर में यह वीणा धर दूँ? |
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Pushp ki Abhilasha ------------------------------------------------------- Chaah nahin main surbala ke gehano mein gootha jaun Chaah nahin premi maala mein bindh pyaari ko lalchaun Chaah nahin samraaton ke shav par he hari daala jaun Chaah nahin devon ke sir par chadhun bhaagya par ithlaun Mujhe thod lena ban-mali, us path par dena tum phenk Matra-bhoomi par sheesh chadhane, jis path jayen veer anek. Written By: Makhanlal Chaturvedi |
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कोई पार नदी के गाता / हरिवंशराय बच्चन
कोई पार नदी के गाता! भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता! होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता! आज न जाने क्यों होता मन, सुन कर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता! |
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कोशिश करने वालों की / हरिवंशराय बच्चन लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। |
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कोई गाता मैं सो जाता / हरिवंशराय बच्चन
संस्रिति के विस्तृत सागर में सपनो की नौका के अंदर दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर बहता जाता, मैं सो जाता । आँखों में भरकर प्यार अमर आशीष हथेली में भरकर कोई मेरा सिर गोदी में रख सहलाता, मैं सो जाता । मेरे जीवन का खाराजल मेरे जीवन का हालाहल कोई अपने स्वर में मधुमय कर बरसाता मैं सो जाता । कोई गाता मैं सो जाता मैं सो जाता मैं सो जाता |
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- कैफी आजमी (Kaifi Azmi)
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी । सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी । ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने । इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने । हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने । कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद, बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने । आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने । बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये । अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये । दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये । आज की रात बहुत गरम हवा चलती है आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी । सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी । |
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छ्न्द प्रसंग नहीं हैं
हम जीवन के महाकाव्य हैं केवल छ्न्द प्रसंग नहीं हैं। कंकड़-पत्थर की धरती है अपने तो पाँवों के नीचे हम कब कहते बन्धु! बिछाओ स्वागत में मखमली गलीचे रेती पर जो चित्र बनाती ऐसी रंग-तरंग नहीं है। तुमको रास नहीं आ पायी क्यों अजातशत्रुता हमारी छिप-छिपकर जो करते रहते शीतयुद्ध की तुम तैयारी हम भाड़े के सैनिक लेकर लड़ते कोई जंग नहीं हैं। कहते-कहते हमें मसीहा तुम लटका देते सलीब पर हंसें तुम्हारी कूटनीति पर कुढ़ें या कि अपने नसीब पर भीतर-भीतर से जो पोले हम वे ढोल-मृदंग नहीं है। तुम सामुहिक बहिष्कार की मित्र! भले योजना बनाओ जहाँ-जहाँ पर लिखा हुआ है नाम हमारा, उसे मिटाओ जिसकी डोर हाथ तुम्हारे हम वह कटी पतंग नहीं है। - देवेन्द्र शर्मा इन्द्र -------------------------------------------------------------------------------- |
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मधुशाला
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ - 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६। चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! 'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७। मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८। मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९। सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०। जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला, वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला, डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है, मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११। मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला, अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला, पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले, इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२। हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला, अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला, बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले, पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३। लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं, पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४। जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५। बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला, देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला, 'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले' ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६। धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७। लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला, हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा, व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८। बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला, रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला' 'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे' मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९। बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०। |
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बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला, राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए, जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१। सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला, सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला, धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें, झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२। भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला, छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला, पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं, जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३। बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला, दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की, विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४। हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला, वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला, स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने, पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५। एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला, दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६। नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला, कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला, जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही, जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७। बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला, बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला, बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने, बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८। सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला, मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला, मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की, कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९। सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला, बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला, झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर, बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०। तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला, मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए, फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१। अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला, हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२। पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला, माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं, झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३। प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला, छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला, छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४। मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला, हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ, छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५। साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला, तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला, अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते, प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६। उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला, बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला, जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७। अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला, पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८। किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला, किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९। साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला, जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला, योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए, देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०। |
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वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला, जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला, मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते, चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२। घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला, अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला, लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं, हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३। हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला, चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला, कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं, पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४। धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता, स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५। दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला, कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को? शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६। पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता, मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७। सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला, शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८। बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला, शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९। मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०। कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१। और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला, इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला, कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२। आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला, आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला, होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३। यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला, ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ, किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४। सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला, द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला, वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों, युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५। वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला, रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला', देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे! किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६। कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला', कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला', सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं, सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७। श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला, सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला, व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे, ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८। एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला, अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला, रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में, साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९। बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला, समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को, मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०। |
Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है, कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१। आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला, छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ, एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२। आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला, भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला, और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ, अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३। सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला, मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४। दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला, भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला, नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ, अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५। छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला, आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला', स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६। क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला, क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला, खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे, मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७। मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला! मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला! इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ, सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८। क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला, क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला, थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को, प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९। लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला, लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला, लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का, लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०। कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला, मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी, जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१। ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला, गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला, साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा, दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२। क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला, मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला, काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३। प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला, नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला, जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से, जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४। अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला, क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला, तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई, हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५। यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला, पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला, क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६। यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला, यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला, हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर, मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७। याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला, जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला, शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है, पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८। गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला, रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९। यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला, पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला, यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है, पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०। |
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ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला, हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१। मेरे अधरों पर हो अंितम वस्तु न तुलसीदल प्याला मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला, मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२। मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला, दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३। और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला, प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना पीने वालांे को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४। नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला, जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५। ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, पंिडत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला, और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला, किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६। यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला, चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला, स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल, ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७। पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला, नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला, साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है, कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८। शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला, 'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला, कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता! कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९। जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला, जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला, जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी, जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०। देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, 'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१। कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला, छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला, कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती, आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२। 'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला, होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला, नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी, बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३। हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला, अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला, दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो, रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मधुशाला।।९४। प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला, दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ, व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५। मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला, मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला, हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई 'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६। मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला, यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला, मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में, 'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७। किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला, किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया, किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८। उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला, उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला, प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में! पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९। साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला, सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला, रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते, जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००। |
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साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला, हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो, हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१। साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला, पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला, जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने, भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२। जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला, जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला, मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं, दुखी बनाय जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३। नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला, नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला, साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं, इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४। मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला, क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला, साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा, प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५। क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला, क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला, पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से! मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६। देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला, देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला, समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता, किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७। एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला, भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला, छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था, विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८। बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला, भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला, एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया, जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९। एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला, एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला, एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे, आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०। जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला, छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला, आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते, कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११। कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है, प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२। बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला, कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला, पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना, मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३। छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला, अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है, क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४। यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला, तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला, जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५। कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला, कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए, कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६। कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला, कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला, कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी, कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७। दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला! मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला, मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में, मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८। मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला, प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला, इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया - मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९। किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला, इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला, अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते, एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०। वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंिबत-प्रतिबंिबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला, पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला, साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया, मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२। मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला, गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला, कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया! बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३। कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला, कहँा गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला! पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना? फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४। अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌार पाया - अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५। 'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला' 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला', क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी 'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६। कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला, कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी, फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७। जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला, जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला, जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है, जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८। जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला, जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला, आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो, पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९। हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०। मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा, जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१। यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला, यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला, किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही, नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३। विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५। |
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पिरिशष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला। मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला, मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला, पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर, मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला। बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला, बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला, पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला। पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। - बच्चन |
Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
Mother, I shall weave a chain of pearls for thy neck
with my tears of sorrow. The stars have wrought their anklets of light to deck thy feet, but mine will hang upon thy breast. Wealth and fame come from thee and it is for thee to give or to withhold them. But this my sorrow is absolutely mine own, and when I bring it to thee as my offering thou rewardest me with thy grace. Shree Rabindranath Tagore Ji |
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