~!!आनन्दमठ!!~
Ashutosh Kumar Roy के सहयोग से :
संन्यासी आंदोलन और बंगाल अकाल की पृष्ठभूमि पर लिखी गई बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति आनन्दमठ सन 1882 ई. में छप कर आई। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया। इसी उपन्यास के एक गीत वंदेमातरम को बाद में राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त हुआ। आनन्दमठ में जिस काल खंड का वर्णन किया गया है वह हन्टर की ऐतिहासिक कृति एन्नल ऑफ रूरल बंगाल, ग्लेग की मेम्वाइर ऑफ द लाइफ ऑफ वारेन हेस्टिंग्स और उस समय के ऐतिहासिक दस्तावेज में शामिल तथ्यों में काफी समानता है। |
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आनन्दमठ भाग-1
बहुत विस्तृत जंगल है। इस जंगल में अधिकांश वृक्ष शाल के हैं, इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के हैं। फुनगी-फुनगी, पत्ती-पत्ती से मिले हुए वृक्षों की अनंत श्रेणी दूर तक चली गई है। घने झुरमुट के कारण आलोक प्रवेश का हरेक रास्ता बंद है। इस तरह पल्लवों का आनंद समुद्र कोस-दर-कोस– सैकड़ों-हजारों कोस में फैला हुआ है, वायु की झकझोर झोंके से बह रही हैं। नीचे घना अंधेरा, माध्याह्न के समय भी प्रकाश नहीं आता– भयानक दृश्य! उत्सव जंगल के भीतर मनुष्य प्रवेश तक नहीं कर सकते, केवल पत्ते की मर्मर ध्वनि और पशु-पक्षियों की आवाज के अतिरिक्त वहां और कुछ भी नहीं सुनाई पड़ता। एक तो यह अति विस्तृत, अगम्य, अंधकारमय जंगल, उस पर रात्रि का समय! पतंग उस जंगल में रहते हैं लेकिन कोई चूं तक नहीं बोलता है। शब्दमयी पृथ्वी की निस्तब्धता का अनुमान किया नहीं जा सकता है; लेकिन उस अनंत शून्य जंगल के सूची-भेद्य अंधकार का अनुभव किया जा सकता है। सहसा इस रात के समय की भयानक निस्तब्धता को भेदकर ध्वनि आई– मेरा मनोरथ क्या सिद्ध न होगा ।…… इस तरह तीन बार वह निस्तब्ध-अंधकार अलोडि़त हुआ- तुम्हारा क्या प्रण है? उत्तर मिला- मेरा प्रण ही जीवन-सर्वस्व है? प्रति शब्द हुआ- जीवन तो तुच्छ है, सब इसका त्याग कर सकते हैं! तब और क्या है..और क्या होना चाहिए? उत्तर मिला- भक्ति! |
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बंगाब्द सन् 1176 के गरमी के महीने में एक दिन, पदचिन्ह नामक एक गांव में बड़ी भयानक गरमी थी। गांव घरों से भरा हुआ था, लेकिन मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। बाजार में कतार-पर-कतार दुकानें विस्तृत बाजार में लंबी-चौड़ी सड़कें, गलियों में सैकड़ों मिट्टी के पवित्र गृह, बीच-बीच में ऊंची-नीची अट्टालिकाएं थीं। आज सब नीरव हैं; दुकानदार कहां भागे हुए हैं, कोई पता नहीं। बाजार का दिन है, लेकिन बाजार लगा नहीं है, शून्य है। भिक्षा का दिन है, लेकिन भिक्षुक बाहर दिखाई नहीं पड़ते। जुलाहे अपने करघे बंद कर घर में पड़े रो रहे हैं। व्यवसायी अपना रोजगार भूलकर बच्चों को गोद में लेकर विह्वल हैं। दाताओं ने दान बंद कर दिया है, अध्यापकों ने पाठशाला बंद कर दी है, शायद बच्चे भी साहसपूर्वक रोते नहीं है। राजपथ पर भीड़ नहीं दिखाई देती, सरोवर पर स्नानार्थियों की भीड़ नहीं है, गृह-द्वार पर मनुष्य दिखाई नहीं पड़ते हैं, वृक्षों पर पक्षी दिखाई नहीं पड़ते, चरनेवाली गौओं के दर्शन मिलते नहीं हैं, केवल श्मशान में स्यार और कुत्ते हैं, एक बहुत बड़ी आट्टालिका है, उसकी ऊंची चहारदीवारी और गगन-चुंबी गुंबद दूर से दिखाई पड़ते हैं। वह अट्टालिका उस गृह-जंगल में शैल-शिखर-सी दिखाई पड़ती है। उसकी शोभा का क्या कहना है- लेकिन उसके दरवाजे बंद है, गृह मनुष्य-समागम से शून्य है, वायु-प्रवेश में भी असुविधा है। उस घर के अंदर दिन-दोपहर के समय अंधेरा है; अंधकार में रात के समय एक कमरे में, फू ले हुए दो पुष्पों की तरह एक दंपति बैठे हुए चिंतामगन् हैं। उनके सामने अकाल का भीषण रूप है।
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1174 में फसल अच्छी नहीं हुई, अत: ग्यारह सौ पचहत्तर में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया। लेकिन इस पर भी शासकों ने पैसा-पैसा, कौड़ी-कौड़ी वसूल कर ली। दरिद्र जनता ने कौड़ी-कौड़ी करके मालगुजारी अदा कर दिन में एक ही बार भोजन किया। ग्यारह सौ पचहत्तर बंगाब्द की बरसात में अच्छी वर्षा हुई। लोगों ने समझा कि शायद देवता प्रसन्न हुए। आनंद में फिर मठ-मंदिरों में गाना-बजाना शुरू हुआ, किसान की स्त्री ने अपने पति से चांदी के पाजेब के लिए फिर तकाजा शुरू किया। लेकिन अकस्मात आश्विन मास में फिर देवता विमुख हो गए। क्वार-कार्तिक में एक बूंद भी बरसात न हुई। खेतों में धान के पौधे सूखकर खंखड़ हो गए। जिसके दो-एक बीघे में धान हुआ भी तो राजा ने अपनी सेना के लिए उसे खरीद लिया, जनता भोजन पा न सकी। पहले एक संध्या को उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन उन मिलने लगा, इसका बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुजारी के अफसर मुहम्मद रजा खां ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दश प्रतिशत मालगुजारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया।
पहले लोगों ने भीख मांगना शुरू किया, इसके बाद कौन भिक्षा देता है? उपवास शुरू हो गया। फिर जनता रोगाक्रांत होने लगी। गो, बैल, हल बेचे गए, बीज के लिए संचित अन्न खा गए, घर-बार बेचा, खेती-बारी बेची। इसके बाद लोगों ने लड़कियां बेचना शुरू किया, फिर लड़के बेचे जाने लगे, इसको बाद गृहलक्षि्मयों का विक्रय प्रारंभ हुआ। लेकिन इसके बाद, लड़की, लड़के औरतें कौन खरीदता? बेचना सब चाहते थे लेकिन खरीददार कोई नहीं। खाद्य के अभाव में लोग पेड़ों के पत्ते खाने लगे, घास खाना शुरू किया, नरम टहनियां खाने लगे। छोटी जाति की जनता और जंगली लोग कुत्ते, बिल्ली, चूहे खाने लगे। बहुतेरे लोग भागे, वे लोग विदेश में जाकर अनाहार से मरे। जो नही भागे, वे अखाद्य खाकर, उपवास और रोग से जर्जर हो मरने लगे। |
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महेंद्र चले गए। कल्याणी अकेली बालिका को लिए हुए प्राय: जनशून्य स्थान में, घर के अंदर अंधकार में पड़ी चारों तरफ देखती रही। उसके मन में भय का संचार हो रहा था। कहीं कोई नहीं, मनुष्य मात्र का कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ता है केवल कुत्तों और स्यारों की आवाज सुनाई पड़ जाती है। सोचने लगी-क्यों उन्हें जाने दिया? न होता, थोड़ी और भूख-प्यास बर्दाश्त करती। फिर सोचा–चारों तरफ के दरवाजे बंद कर दूं। लेकिन एक भी दरवाजे में किवाड़ दिखाई न दिया। इस तरह चारों तरफ देखते-देखते सहसा उसे सामने के दरवाजे पर एक छाया दिखाई दी– मनुष्याकृति जैसा, कंकाल मात्र और कोयले की तरह काला, नगन्, विकटाकार मनुष्य जैसा कोई आकार दरवाजे पर खड़ा था। कुछ देर बाद छाया ने मानो अपना एक हाथ उठाया और हाथों की लंबी सूखी उंगलियों से संकेत कर किसी को अपने पास बुलाया। कल्याणी का प्राण सूख गया। इसके बाद वैसी ही एक छाया और- सूखी-काली, दीर्घाकार, नगन्- पहली छाया के पास आकर खड़ी हो गई। इसके बाद ही एक और एक और… इस तरह कितने ही पिशाच आकर घर के अंदर प्रवेश करने लगे। वहां का एकांत श्मशान की तरह भयंकर दिखाई देने लगा। वह सब प्रेत जैसी मूर्तियां कल्याणी और उसकी कन्या को घेरकर खड़ी हो गई- देखकर कल्याणी भय से मूर्छित हो गई। काले नरकंकालों जैसे पुरुष कल्याणी और उसकी कन्या को उठाकर बाहर निकले और बस्ती पार कर एक जंगल में घुस गए।
कुछ देर बाद महेंद्र उस हंडि़या में दूध लिए हुए वहां आए। उन्होंने देखा कि वहां कोई नहीं है। इधर-उधर खोजा; पहले कन्या का नाम और फिर स्त्री का नाम लेकर जोर-जोर से पुकारने लगे। लेकिन न तो कोई उत्तर मिला और न कुछ पता ही लगा। |
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जिस वन में डाकू कल्याणी को लेकर घुसे, वह वन बड़ा ही मनोहर था। यहां रोशनी नहीं कि शोभा दिखाई दे, ऐसी आंखें भी नहीं कि दरिद्र के हृदय के सौंदर्य की तरह उस वन का सौंदर्य भी देख सकें। देश में आहार द्रव्य रहे या न रहे- वन में फूल है; फूलों की सुगंध से मानो उस अंधकार में प्रकाश हो रहा है। बीच की साफ-सुकोमल और पुष्पावृत जमीन पर डाकुओं ने कल्याणी और उसकी कन्या को उतारा और सब उन्हें घेरकर बैठ गए। इसके बाद उन सब में यह बहस चली कि इन लोगों का क्या किया जाए? कल्याणी को जो कुछ गहने थे, उन्हें डाकुओं ने पहले ही हस्तगत कर लिया। एक दल उसके हिस्से-बखरे में व्यस्त हो गया। गहनों के बंट जाने पर एक डाकू ने कहा-हम लोग सोना-चांदी लेकर क्या करेंगे? एक गहना लेकर कोई मुझे भोजन दे, भूख से प्राण जाते हैं-आज सबेरे केवल पत्ते खाए हैं।
एक के यह करने पर सभी इसी तरह हल्ला मचाने लगे- भारत दो, हम भूख से मर रहे हैं, सोना-चांदी नहीं चाहते।.. दलपति उन्हें शांत करने लगा, लेकिन कौन सुनता है; क्रमश: ऊंचे स्वर में बातें शुरू हुई, फिर गाली-गलौच शुरू हुई, मार-पीट की भी तैयारी होने लगी। जिसे-जिसे हिस्से में गहने मिले थे, वे लोग अपने-अपने हिस्से के गहने खींच-खीचकर दलपति के शरीर पर मारने लगे। दलपति ने भी दो-एक को मारा। इस पर सब मिलकर आक्रमण कर दलपति पर आघात करने लगे। दलपति अनाहार से कमजोर और अधमरा तो आप ही था, दो-चार आघार में ही गिरकर मर गया। उन भूखे, पीडि़त, उत्तेजित और दयाशून्य डाकुओं में से एक ने कहा–स्यार का मांस खा चुके हैं, भूख से प्राण जा रहा है, आओ भाई आज इसी साले को खा लें। इस पर सबने मिलकर जयकाली कहकर जयघोष किया–जय काली! आज नर-मांस खाएंगे। यह कहकर वह सब नरकंकाल रूपधारी खिलखिलाकर हंस पड़े और तालियां बजाते हुए नाचने लगे। एक दलपति के शरीर को भूनने के लिए आग जलाने का इंतजाम करने लगा। लता-डालियां और पत्ते संग्रह कर, उसने चकमक पत्थर द्वारा आग पैदा कर उसे धधकाया; धधक कर आग जल उठी। आग की लपट के पास के आम, खजूर, पनस, नींबू आदि के वृक्षों के कोमल हरे पत्ते चमकने लगे। कहीं पत्ते जलने लगे, कहीं घास पर रोशनी से हरियाली हुई तो कहीं अंधेरा और गाढ़ा हो गया। आग जल जाने पर कुछ लोग दलपति के कंकाल को आग में फेंकने के लिए घसीटकर लाने लगे। |
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इसी समय एक बोल उठा-ठहरो, ठहरो! अगर यह मांस ही खाकर आज भूख मिटानी है, तो इस सूखे नरकंकाल को न भूनकर, आओ इस कोमल लड़की को ही भूनकर खाया जाए
एक बोला-जो हो, भैया ! एक को भूनो ! हम तो भूख से मर रहे हैं। इस पर सबने लोलुप दृष्टि से उधर देखा, जिधर अपनी कन्या को लिए हुए कल्याणी पड़ी थी। उस सबने देखा कि वह स्थान सूना था, न कन्या थी और न माता ही। डाकुओं के आपसी विवाद और मारपीट के समय सुयोग पाकर कल्याणी गोद में बच्ची को चिपकाए वन के भीतर भाग गई। शिकार को भागा देखकर वह प्रेत-दल मार-मार करता हुआ चारों तरफ उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ पड़ा। अवस्था विशेष में मनुष्य पशुमात्र रह जाता है। रोग को भी अवसर मिला- ज्वर, हैजा, क्षय, चेचकफैल पड़ा। विशेषत: चेचक का बड़ा प्रसार हुआ। घर-घर लोग महामारी से मरने लगे। कौन किसे जल देता है- कौन किसे छूता? कोई किसी की चिकित्सा नहीं करता, कोई किसी को नहीं देखता था। मर जाने पर शव कोई उठाकर फेंकता नहीं था। अति रमणीय गृह-स्थान आप ही सड़कर बदबू करने लगे। जिस घर में एक बार चेचक हुआ, रोगी को छोड़कर घरवाले भाग गए। महेंद्र सिंह पदचिन्ह के बड़े धनी व्यक्ति हैं– लेकिन आज धनी-गरीब सब बराबर हैं। इस दु:खपूर्ण अकाल के समय रोगी होकर उसके आत्मीय-स्वजन, दासी-दास सभी चले गए हैं। कोई मर गया, कोई भाग गया। उस वृहत परिवार में उनकी स्त्री, वे और गोद में एक शिशु-कन्या मात्र रह गई है। इन्हीं लोगों की बात कह रहा हूं। उनकी भार्या कल्याणी ने चिंता छोड़कर गोशाला में जाकर गाय दुही। इसके बाद दूध गर्म कर कन्या को पिलाया और गऊ को घास खाने के लिए डाल दिया। वह लौटकर जब काई तो महेंद्र ने कहा-इस तरह कितने दिन चलेगा? कल्याणी बोली– ज्यादा दिन नहीं! जितने दिन चले, जितने दिन मैं चला पाती हूं, चला रही हूं। इसके बाद तुम लड़की को लेकर शहर चले जाना। महेंद्र- अगर शहर ही चलना है तो तुम्हें ही इतनी तकलीफ क्यों दी जाय? चलो न, अभी चलें! |
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इसके बाद दोनों अनेक तर्क-वितर्क हुए।
कल्याणी- शहर में जाने से क्या विशेष उपकार होगा? महेंद्र- वह स्थान भी शायद ऐसे ही जन शून्य, प्राणरक्षा के उपाय से रहित है कल्याणी-मुर्शिदाबाद, कासिम बाजार या कलकत्ता जाने से प्राणरक्षा हो सकेगी। इस स्थान से तो त्याग देना हर तरह से उचित है? महेंद्र ने कहा-यह घर बहुत दिनों से वंशानुक्रम से संचित धन से परिपूर्ण है, इन्हें तो चोर लूट ले जाएंगे। कल्याणी-यदि वह लोग लूटने के लिए आएं तो क्या हम दो जन रक्षा कर सकते है? प्राण ही न रहा तो धन कौन भोगेगा? चलो, अभी से ही सब बंद-संद करके चल चलें। अगर जिंदा रह गए तो फिर आकर भोग करेंगे। महेंद्र ने पूछा- क्या तुम राह चल सकोगी? कहार सब मर ही गए हैं। बैल हैं तो गाड़ी नहीं है और गाड़ी है तो बैल नहीं है। कल्याणी -तुम चिंता न करो, मैं पैदल चलूंगी। कल्याणी ने मन-ही-मन निश्चय किया- न होगा, राह में मरकर गिर पड़ूंगी; यह दोनों जन तो बचे रहेंगे। दूसरे दिन सबेरे, साथ में कुछ धन लेकर घर-द्वार में ताला बंद कर, गायों को मुक्त कर और कन्या को गोद में लेकर दोनों जन राजधानी के लिए चल पड़े। यात्रा के समय महेंद्र ने कहा- राह बड़ी भयानक है। कदम-कदम पर डाकू और लुटेरे छिपे हैं; खाली हाथ जाना उचित नहीं है। यह कहकर महेंद्र ने फिर घर में वापस जाकर बंदूक, गोली बारूद साथ में ले ली। यह देखकर कल्याणी ने कहा-अगर अस्त्र की बात याद की है तो जरा लड़की को गोद में सम्हाल लो, मैं भी हथियार ले लूं यह कहकर कल्याणी ने लड़की महेंद्र की गोद में देकर घर के भीतर प्रवेश किया। महेंद्र ने पूछा-तुम कौन-सा हथियार लोगी कल्याणी ने घर में जाकर विष की एक डिबिया अपने कपड़ों के अंदर छिपा ली। |
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जेठ का महीना है। भयानक गर्मी से पृथ्वी अगिन्मय हो रही है; हवा में आग की लपट दौड़ रही है, आकाश गरम तवे की तरह जल रहा है, राह की धूल आग की चिनगारी बन गई है। कल्याणी के शरीर से पसीने की धार बहने लगी; कभी पीपल के नीचे, कभी बड़ के नीचे, कभी खजूर के नीचे छाया देखकर तिलमिलाती हुई बैठ जाती है। सूखे हुए तालाबों का कीचड़ से सना मैला जल पीकर वे लोग राह चलने लगे। लड़की महेंद्र की गोद में है- समय समय पर वे उसे पंखा हांक देते हैं। कभी घने हरे पत्तों से दाएं, सुगंधित फूलों वाले वृक्ष से लिपटी हुई लता की छाया में दोनों जन बैठकर विराम करते हैं। महेंद्र ने कल्याणी को इतना सहनशील देखकर आश्चर्य किया। पास के ही एक जलाशय से वस्त्र को जल से तर कर महेंद्र ने उससे कन्या और पत्**नी का जलता माथा और मुंह धोकर कुछ शांत किया।
इससे कल्याणी कुछ आश्वस्त अवश्य हुई, लेकिन दोनों ही भूख से बड़े विह्वल हुए। वे लोग तो उसे भी सहने लगे, लेकिन बालिका की भूख-प्यास उनसे बर्दाश्त न हुई, अत: वहां अधिक देर न ठहरकर वे लोग फिर चल पड़े। उस आग के सागर को पार कर संध्या से पहले वे एक बस्ती में पहुंचे। महेंद्र के मन में बड़ी आशा थी कि बस्ती में पहुंचकर वे अपनी पत्**नी और कन्या की शीतल जल से तृप्त कर सकेंगे और प्राणरक्षा के निमित्त अपने मुंह में भी कुछ आहार डाल सकेंगे। लेकिन कहां? बसती में तो एक भी मनुष्य दिखाई नहीं पड़ता। बड़े-बड़े घर सूने पड़े हुए हैं, सारे आदमी वहां से भाग गए हैं। इधर-उधर देखकर एक घर के भीतर महेंद्र ने स्त्री-कन्या को बैठा दिया। बाहर आकर उन्होंने जोरों से पुकारना शुरू किया, लेकिन उन्हें कोई भी उत्तर सुनाई न पड़ा। तब महेंद्र ने कल्याणी से कहा-तुम जरा साहसपूर्वक अकेली रहो; देखूं शायद कहीं कोई गाय दिखाई दे जाए। भगवान श्रीकृष्ण दया कर दें तो दूध ले आएं। यह कहकर महेंद्र एक मिट्टी का बरतन हाथ में लेकर निकल पड़े। बहुतेरे बरतन वहीं पड़े हुए थे। |
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आनन्दमठ भाग-2
जंगल के भीतर घनघोर अंधकार है। कल्याणी को उधर राह मिलना मुश्किल हो गया। वृक्ष-लताओं के झुरमुट के कारण एक तो राह कठिन, दूसरे रात का घना अंधेरा। कांटों से विंधती हुई कल्याणी उन आदमखोरों से बचने के लिए भागी जा रही थी। बेचारी कोमल लड़की को भी कांटे लग रहे थे। अबोध बालिका गोद में चीखकर रोने लगी; उसका रोना सुनकर दस्युदल और चीत्कार करने लगा। फिर भी, कल्याणी पागलों की तरह जंगल में तीर की तरह घुसती भागी जा रही थी। थोड़ी ही देर में चंद्रोदय हुआ। अब तक कल्याणी के मन में भरोसा था कि अंधेरे में नर-पिशाच उसे देख न सकेंगे, कुछ देर परेशान होकर पीछा छोड़कर लौट जाएंगे, लेकिन अब चांद का प्रकाश फैलने से वह अधीर हो उठी। चन्द्रमा ने आकाश में ऊंचे उठकर वन पर अपना रुपहला आवरण पैला दिया, जंगल का भीतरी हिस्सा अंधेरे में चांदनी से चमक उठा- अंधकार में भी एक तरह की उ”वलता फैल गई- चांदनी वन के भीतर छिद्रों से घुसकर आंखमिचौनी करने लगी। चंद्रमा जैसे-जैसे ऊपर उठने लगा, वैसे-वैसे प्रकाश फैलने लगा जंग को अंधकार अपने में समेटने लगा। कल्याणी पुत्री को गोद में लिए हुए और गहन वन में जाकर छिपने लगी। उजाला पाकर दस्युदल और अधिक शोर मचाते हुए दौड़-धूप कर खोज करने लगे। कन्या भी शोर सुनकर और जोर से चिल्लाने लगी। अब कल्याणी भी थककर चूर हो गई थी; वह भागना छोड़कर वटवृक्ष के नीचे साफ जगह देखकर कोमल पत्तियों पर बैठ गई और भगवान को बुलाने लगी-कहां हो तुम? जिनकी मैं नित्य पूजा करती थी, नित्य नमस्कार करती थी, जिनके एकमात्र भरोसे पर इस जंगल में घुसने का साहस कर सकी…. ..कहां हो, हे मधुसूदन! इस समय भय और भक्ति की प्रगाढ़ता से, भूख-प्यास से थकावट से कल्याणी धीरे अचेत होने लगी; लेकिन आंतरिक चैतन्य से उसने सुना, अंतरिक्ष में स्वर्गीय गीत हो रहा है- हरे मुरारे! मधुकैटभारे! गोपाल, गोविंद मुकुंद प्यारे! हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. |
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कल्याणी बचपन से पुराणों का वर्णन सुनती आती थी कि देवर्षि नारद हाथों में वीणा लिए हुए आकाश पथ से भुवन-भ्रमण किया करते हैं- उसके हृदय में वही कल्पना जागरित होने लगी। मन-ही-मन वह देखने लगी- शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन महामति महामुनि वीणा लिए हुए, चांदनी से चमकते आकाश की राह पर गाते आ रहे हैं।
हरे मुरारे! मधुकैटभारे!…. क्रमश: गीत निकट आता हुआ, और भी स्पष्ट सुनाई पड़ने लगा- हरे मुरारे! मधुकैटभारे!…. क्रमश: और भी निकट, और भी स्पष्ट- हरे मुरारे! मधुकैटभारे!…. अंत में कल्याणी के मस्तक पर, वनस्थली में प्रतिध्वनित होता हुआ गीत होने लगा- हरे मुरारे! मधुकैटभारे!…. कल्याणी ने अपनी आंखें खोलीं। धुंधले अंधेरे की चांदी में उसने देखा- सामने वही शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन ऋषिमूर्ति खड़ी है। विकृत मस्तिष्क और अर्धचेतन अवस्था में कल्याणी ने मन में सोचा– प्रणाम करूं, लेकिन सिर झुकाने से पहले ही वह फिर अचेत हो गयी और गिर पड़ी। |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
रात काफी बीत चुकी है। चंद्रमा माथे के ऊपर है। पूर्ण चंद्र नहीं है, इसलिए चांदनी भी चटकीली नहीं- फीकी है। जंगल के बहुत बड़े हिस्से पर अंधकार में धुंधली रोशनी पड़ रही है। इस प्रकाश में मठ के इस पार से दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता। मठ मानो एकदम जनशून्य है- देखने से यही मालूम होता है। इस मठ के समीप से मुर्शिदाबाद और कलकत्ते को राह जाती है। राह के किनारे ही एक छोटी पहाड़ी है, जिस पर आम के अनेक पेड़ है। वृक्षों की चोटी चांदनी से चमकती हुई कांप रही है, वृक्षों के नीचे पत्थर पर पड़नेवाली छाया भी कांप रही है। ब्रह्मचारी उसी पहाड़ी के शिखर पर चढ़कर न जाने क्या सुनने लगे। नहीं कहा जा सकता कि वे क्या सुन रहे थे। इस अनंत जंगल में पूर्ण शांति थी- कहीं ऐसे ही पत्तों की मर्मर-ध्वनि सुनाई पड़ जाती थी। पहाड़ की तराई में एक जगह भयानक जंगल है। ऊपर पहाड़ नीचे जंगल बीच में वह राह है। नहीं कह सकते कि उधर कैसी आवाज हुई जिसे सुनकर ब्रह्मचारी उसी ओर चल पड़े। उन्होंने भयानक जंगल में प्रवेश कर देखा कि वहां एक घने स्थान में वृक्षों की छाया में बहुतेरे आदमी बैठे हैं। वे सब मनुष्य लंबे, काले, और सशस्त्र थे पेड़ों की छाया को भेदकर आनेवाली चांदनी उनके शस्त्रों को चमका रही थी। ऐसे ही दो सौ आदमी बैठे हैं और सब शांत, चुप हैं। ब्रह्मचारी उनके बीच में जाकर खड़े हो गए और उन्होंने कुछ इशारा कर दिया, जिससे कोई भी उठकर खड़ा न हुआ। इसके बाद वह तपस्वी महात्मा एक तरफ से लोगों को चेहरा गौर से देखते हुए आगे बढ़ने लगे, जैसे किसी को खोजते हों। खोजते-खोजते अन्त में वह पुरुष मिला और ब्रह्मचारी के उसका अंग स्पर्श कर इशारा करते ही वह उठ खड़ा हुआ। ब्रह्मचारी उसे साथ लेकर दूर आड़ में चले गए। वह पुरुष युवक और बलिष्ठ था- लंबे घुंघराले बाल कंधे पर लहरा रहे थे। पुरुष अतीव सुंदर था। गैरिक वस्त्रधारी तथा चंदनचर्चित अंगवाले ब्रह्मचारी ने उस पुरुष से कहा- भवानंद! महेंद्र सिंह की कुछ खबर मिली है?
इस पर भवानंद ने कहा\स्-आज सबेरे महेंद्रसिंह अपनी पत्**नी और कन्या के साथ गृह त्यागकर बाहर निकलें हैं-बस्ती में….. इतना सुनते ही ब्रह्मचारी ने बात काटकर कहा-बस्ती में जो घटना हुई है, मैं जानता हूं। किसने ऐसा किया? भवानंद-गांव के ही किसान लोग थे। इस समय तो गांवों के किसान भी पेट की ज्वाला से डाकू हो गए हैं। आजकल कौन डाकू नहीं है? हम लोगों ने भी आज लूट की है- दारोगा साहब के लिए दो मन चावल जा रहा था, छीनकर वैष्णवों को भोग लगा दिया है। |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
ब्रह्मचारी ने कहा-चोरों के हाथ से तो हमने स्त्री-कन्या का उद्धार कर लिया है। इस समय उन्हें मठ में बैठा आया हूं। अब यह भार तुम्हारे ऊपर है कि महेंद्र को खोजकर उनकी स्त्री-कन्या उनके हवाले कर दो। यहां जीवानंद के रहने से काम हो जाएगा।
भवानंद ने स्वीकार कर लिया। तब ब्रह्मचारी दूसरी जगह चले गए। इसी वन में एक बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से मिर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। पुरातत्त्**ववेत्ता उसे देखकर कह सकते हैं कि पूर्वकाल में यह बौद्धों का विहार था- इसके बाद हिंदुओं का मठ हो गया है। दो खंडों में अट्टालिकाएं बनी है, उसमें अनेक देव-मंदिर और सामने नाटयमंदिर है। वह समूचा मठ चहारदीवारी से घिरा हुआ है और बाहरी हिस्सा ऊंचे-ऊंचे सघन वृक्षों से इस तरह आच्छादित है कि दिन में समीप जाकर भी कोई यह नहीं जान सकता कि यहां इतना बड़ा मठ है। यों तो प्राचीन होने के कारण मठ की दीवारें अनेक स्थानों से टूट-फूट गई हैं, लेकिन दिन में देखने ने से साफ पता लगेगा कि अभी हाल ही में उसे बनाया गया है। देखने से तो यही जान पड़ेगा कि इस दुर्भेद्य वन के अंदर कोई मनुष्य रहता न होगा। उस अट्टालिका की एक कोठरी में लकड़ी का बहुत बड़ा कुन्दा जल रहा था। आंख खुलने पर कल्याणी ने देखा कि सामने ही वह ऋषि महात्मा बैठे हैं। कल्याणी बड़े आश्चर्य से चारों तरफ देखने लगी। अभी उसकी स्मृति पूरी तरह जागी न थी। यह देखकर महापुरुष ने कहा- बेटी! यह देवताओं का मंदिर है, डरना नहीं। थोड़ा दूध है, उसे पियो; फिर तुमसे बातें होंगी। पहले तो कल्याणी कुछ समझ न सकी, लेकिन धीरे-धीरे उसके हृदय में जब धीरज हुआ तो उसने उठकर अपने गले में आंचल डालकर, जमीन से मस्तक लगाकर प्रणाम किया। महात्माजी ने सुमंगल आशीर्वाद देकर दूसरे कमरे से एक सुगंधित मिट्टी का बरतन लाकर उसमें दूध गरम किया। दूध के गरम हो जने पर उसे कल्याणी को देकर बोले- बेटी! दूध कन्या को भी पिलाओ, स्वयं भी पियो, उसके बाद बातें करना। कल्याणी संतुष्ट हृदय से कन्या को दूध पिलाने लगी। इसके बाद उस महात्मा ने कहा- मैं जब तक न आऊं, कोई चिंता न करना। यह कहकर कमरे के बाहर चले गए। कुछ देर बाद उन्होंने लौटकर देखा कि कल्याणी ने कन्या को तो दूध पिला दिया है, लेकिन स्वयं कुछ नहीं पिया। जो दूध रखा हुआ था, उसमें से बहुत थोड़ा खर्च हुआ था। इस पर महात्मा ने कहा- बेटी! तुमने दूध नहीं पिया? मैं फिर बाहर जाता हूं; जब तक तुम दूध न पियोगी, मैं वापस न आऊंगा। |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
वह ऋषितुल्य महात्मा यह कहकर बाहर जा रहे थे; इसी समय कल्याणी फिर प्रणाम कर हाथ जोड़ खड़ी हो गई।
महात्मा ने पूछा-क्या कहना चाहती हो? कल्याणी ने हाथ जोड़े हुए कहा- मुझे दूध पीने की आज्ञा न दें। उसमें एक बाधा है, मैं पी न सकूंगी।……. इस पर महात्मा ने दु:खी हृदय से कहा- क्या बाधा है? मैं ब्रह्मचारी हूं, तुम मेरी कन्या के समान हो; ऐसी कौन बात हो सकती है जो मुझसे कह न सको? मैं जब तुम्हें वन से उठाकर यहां ले आया, तो तुम अत्यंत भूख प्यास से अवसन्न थी, तुम यदि दूध न पियोगी तो कैसे बचोगी? इस पर कल्याणी ने भरी आंखें और भरे गले से कहा- आप देवता है, आपसे अवश्य निवेदन करूंगी – अभी तक मेरे स्वामी ने कुछ नहीं खाया है, उनसे मुलाकात हुए बिना या संवाद मिले बिना मैं भोजन न कर सकूंगी। मैं कैसे खाऊंगी.. ब्रह्मचारी ने पूछा- तुम्हारे पतिदेव कहां हैं? कल्याणी बोली- यह मुझे मालूम नहीं- दूध की खोज में उनके बाहर निकलने पर ही डाकू मुझे उठा ले गए इस पर ब्रह्मचारी ने एक-एक बात पूछकर कल्याणी से उसके पति का सारा हाल मालूम कर लिया। कल्याणी ने पति का नाम नहीं बताया, बता भी नहीं सकती थी, किंतु अन्याय परिचयों से ब्रह्मचारी समझ गए। उन्होंने पूछा- तुम्हीं महेंद्र की पत्**नी हो? इसका कोई उत्तर न देकर कल्याणी सिर झुका कर, जलती हुई आग में लकड़ी लगाने लगी। ब्रह्मचारी ने समझकर कहा- तुम मेरी बात मानो, मैं तुम्हारे पति की खोज करता हूं। लेकिन जब तक दूध न पिओगी, मैं न जाऊंगा? कल्याणी पूछा- यहां थोड़ा जल मिलेगा? ब्रह्मचारी ने जल का कलश दिखा दिया। कल्याणी ने अंजलि रोपी, ब्रह्मचारी ने जल डाल दिया। कल्याणी ने उस जल की अंजलि को महात्मा के चरणों के पास ले जाकर कहा- इसमें कृपा कर पदरेणु दे दें। महात्मा के अंगूठे द्वारा छू देने पर कल्याणी ने उसे पीकर कहा- मैंने अमृतपान कर लिया है। अब और कुछ खाने-पीने को न कहिए। जब तक पतिदेव का पता न लगेगा मैं कुछ न खाऊंगी। |
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इस पर ब्रह्मचारी ने संतुष्ट होकर कहा- तुम इसी देवस्थान में रहो। मैं तुम्हारे पति की खोज में जाता हूं।
बस्ती में बैठे रहने और सोचते रहने का कोई प्रतिफल न होगा- यह सोचकर महेंद्र वहां से उठे। नगर में जाकर राजपुरुषों की सहायता से स्त्री-कन्या का पता लगवाएं- यह सोचकर महेंद्र उसी तरफ चले। कुछ दूर जाकर राह में उन्होंने देखा कि कितनी ही बैलगाडि़यों को घेरकर बहुतेरे सिपाही चले आ रहे हैं। बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंगरेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंगरेज उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खजाने का रुपया वसूलते थे, लेकिन तब तक बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंगरेजों पर था, और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीरजाफर पर था। मीरजाफर आत्मरक्षा में ही अक्षम था, तो बंगाल प्रदेश की रक्षा कैसे कर सकता था? मीरजाफर सिर्फ अफीम पीता था और सोता था, अंगरेज ही अपने जिम्मे का सारा कार्य करते थे। बंगाली रोते थे और कंगाल हुए जाते थे। अत: बंगाल का कर अंगरेजों को प्राप्य था, लेकिन शासन का भार नवाब पर था। जहां-जहां अंगरेज अपने प्राप्य कर की स्वयं अदायगी कराते थे, वहां-वहां उन्होंने अपनी तरफ से कलेक्टर नियुक्त कर दिए थे। लेकिन मालगुजारी प्राप्त होने पर कलकत्ते जाती थी। जनता भूख से चाहे मर जाए, लेकिन मालगुजारी देनी ही पड़ती थी। फिर भी मालगुजारी पूरी तरह वसूल नहीं हुई थी- कारण, माता-वसुमती के बिना धन-प्रसव किए, जनता अपने पास के कैसे गढ़कर दे सकती थी? जो हो, जो कुछ प्राप्त हुआ था, उसे गाडि़यों पर लादकर सिपाहियों के पहरे में कलकत्ते भेजा जा रहा था- धन कंपनी के खजाने में जमा होता। आजकल डाकुओं का उत्पात बहुत बढ़ गया है, इसीलिए पचास सशस्त्र सिपाही गाड़ी के आगे-पीछे संगीन खड़ी किए, कतार में चल रहे थे : उनका अध्यक्ष एक गोरा था जो सबसे पीछे घोड़े पर था। गरमी की भयानकता के कारण सिपाही दिन में न चलकर रात को सफर करते थे। चलते-चलते उन गाडि़यों और सिपाहियों के कारण महेंद्र की राह रुक गई। इस तरह राह रुकी होने के कारण थोड़ी देर के लिए महेंद्र सड़क के किनारे खड़े हो गए। फिर भी सिपाहियों के शरीर से धक्का लग सकता था, और झगड़ा बचाने के ख्याल से वे कुछ हटकर जंगल के किनारे खड़े हो गए। |
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इसी समय एक सिपाही बोला–यह देखो, एक डाकू भागता है। महेंद्र के हाथ में बंदूक देखकर उसका विश्वास दृढ़ हो गया। वह दौड़कर पहुंचा और एकाएक महेंद्र का गला पकड़कर साले चोर! कहकर उन्हें एक घूंसा जमाया और बंदूक छीन ली। खाली हाथ महेंद्र ने केवल घूंसे का जवाब घूंसे से दिया। महेंद्र को अचानक इस बर्ताव पर क्रोध आ गया था, यह कहना ही व्यर्थ है! घूंसा खाकर सिपाही चक्कर खाकर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। इस पर अन्य चार सिपाहियों ने आकर महेंद्र को पकड़ लिया और उन्हें उस गोरे सेनापति के पास ले गए। अभियोग लगाया कि इसने एक सिपाही का खून किया है। गोरा साहब पाइप से तमाखू पी रहा था, नशे के झोंके में बोला–साले को पकड़कर शादी कर लो। सिपाही हक्का-बक्का हो रहे थे कि बंदूकधारी डाकू से सिपाही कैसे शादी कर लें? लेकिन नशा उतरने पर साहब का मत बदल सकता है कि शादी कैसे होगी- यही विचार कर सिपाहियों ने एक रस्सी लेकर महेंद्र के हाथ-पैर बांध दिए और गाड़ी पर डाल दिया। महेंद्र ने सोचा कि इतने सिपाहियों के रहते जो लगाना व्यर्थ है, इसका कोई फल न होगा; दूसरे स्त्री-कन्या के गायब होने के कारण महेंद्र बहुत दु:खी और निराश थे; सोचा– अच्छा है, मर जाना ही अच्छा है! सिपाहियों ने उन्हें गाड़ी के बल्ले से अच्छी तरह बांध दिया और इसके बाद धीर-गंभीर चाल से वे लोग फिर पहले की तरह चलने लगे।
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आनन्दमठ भाग-3
ब्रह्मचारी की आज्ञा पाकर भवानंद धीरे-धीरे हरिकी*र्त्तन करते हुए उस बस्ती की तरफ चले, जहां महेंद्र का कन्या-पत्**नी से वियोग हुआ था। उन्होंने विवेचन किया कि महेंद्र का पता वहीं से लगना संभव है। उस समय अंग्रेजों की बनवायी हुई आधुनिक राहें न थी। किसी भी नगर से कलकत्ते जाने के लिए मुगल-सम्राटों की बनायी राह से ही जाना पड़ता था। महेंद्र भी पदचिह्न से नगर जाने के लिए दक्षिण से उत्तर जा रहे थे। भवानंद ताल-पहाड़ से जिस बस्ती की तरफ आगे बढ़े, वह भी दक्षिण से उत्तर पड़ती थी। जाते-जाते उनका भी उन धन-रक्षक सिपाहियों से साक्षात हो गया। भवानंद भी सिपाहियों की बगल से निकले। एक तो सिपाहियों का विश्वास था कि इस खजाने को लूटने के लिए डाकू अवश्य कोशिश करेंगे, उस पर राह में एक डाकू- महेंद्र को गिरफ्तार कर चुके थे, अत: भवानंद को भी राह में पाकर उनका विश्वास हो गया कि यह भी डाकू है। अतएव तुरंत उन सबने भवानंद को भी पकड़ लिया। भवननंद ने मुस्करा कर कहा-ऐसा क्यों भाई? सिपाही बोला-तुम साले डाकू हो! भवानंद-देख तो रहे तो, गेरुआ कपड़ा पहने मैं ब्रह्मचारी हूं…. डाकू क्या मेरे जैसे होते हैं? सिपाही-बहुतेरे साले ब्रह्मचारी-संन्यासी डकैत रहते हैं। यह कहते हुए सिपाही भवानंद के गले पर धक्का दे खींच लाए। अंधकार में भवानंद की आंखों से आग निकलने लगी, लेकिन उन्होंने और कुछ न कर विनीत भाव से कहा-हुजूर! आज्ञा करो, क्या करना होगा? भवानंद की वाणी से संतुष्ट होकर सिपाही ने कहा-लो साले! सिर पर यह बोझ लादकर चलो। यह कहकर सिपाही ने भवानंद के सिर पर एक गठरी लाद दी। यह देख एक दूसरा सिपाही बोला-नहीं-नहीं भाग जाएगा। इस साले को भी वहां पहलेवाले की तरह बांधकर गाड़ी पर बैठा दो। इस पर भवानंद को और उत्कंठा हुई कि पहले किसे बांधा है, देखना चाहिए। यह विचार कर भवानंद ने गठरी फेंक दी और पहले सिपाही को एक थप्पड़ जमाया। अत: अब सिपाहियों ने उन्हें भी बांधकर गाड़ी पर महेंद्र की बगल में डाल दिया। भवानंद पहचान गए कि यही महेंद्रसिंह है। |
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सिपाही फिर निश्चिंत हो कोलाहल मचाते हुए आगे बढ़े। गाड़ी का पहिया घड़-घड़ शब्द करता हुआ घूमने लगा। भवानंद ने अतीव धीमे स्वर में, ताकि महेंद्र ही सुन सकें, कहा-महेंद्रसिंह! मैं तुम्हें पहचानता हूं। तुम्हारी सहायता करने के लिए ही यहां आया हूं। मैं कौन हूं यह भी तुम्हें सुनने की जरूरत नहीं। मैं जो कहता हूं, सावधान होकर वही करो! तुम अपने हाथ के बंधन गाड़ी के पहिये के ऊपर रखो।
महेंद्र विस्मित हुए, फिर भी उन्होंने बिना कहे-सुने भवानंद के मतानुसार कार्य किया- अंधकार में गाड़ी के चक्कों की तरफ जरा खिसककर उन्होंने अपने हाथ के बंधनों को पहिये के ऊपर लगाया। थोड़ी ही देर में उनके हाथ के बंधन कटकर खुल गए। इस तरह बंधन से मुक्त होकर वे चुपचाप गाड़ी पर लेट रहे। भवानंद ने भी उसी तरह अपने को बंधनों से मुक्त किया। दोनों ही चुपचाप लेटे रहे। महेंद्र ने देखा दस्यु गाते-गाते रोने लगा। तब महेंद्र ने विस्मय से पूछा- तुमलोग कौन हो? भवानंद ने उत्तर दिया -हमलोग संतान हैं। महेंद्र -संतान क्या? किसकी संतान हैं? भवानंद -माता की संतान! महेंद्र -ठीक ! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं? यह कैसी मातृभक्ति? भवानंद -हम लोग चोरी-डकैती नहीं करते…. महेंद्र -अभी तो गाड़ी लूटी है…? भवानंद -यह क्या चोरी-डकैती है! किसके रुपये लुटे हैं? महेंद्र -क्यों ? राजा के ! भवानंद -राजा के! वह क्यों इन रुपयों को लेगा- इन रुपयों पर उसका क्या अधिकार है? महेंद्र -राजा का राज-भाग। |
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भवानंद-जो राजा राज्य प्रबंध न करे, जनता-जनार्दन की सेवा न करे, वह राजा कैसे हुआ?
महेंद्र-देखता हूं, तुम लोग किसी दिन फौजी की तोपों के मुंह पर उड़ जाओगे। भवानंद -अनेक साले सिपाहियों को देख चुका हूं, अभी आज भी तो देखा है! महेंद्र -अच्छी तरह नहीं देखा, एक दिन देखोगे! भवानंद -सब देख चुका हूं। एक बार से दो बार तो मनुष्य मर नहीं सकता। महेंद्र -जान-बूझकर मरने की क्या जरूरत है? भवानंद -महेंद्र सिंह! मेरा ख्याल था कि तुम मनुष्यों के समान मनुष्य होगे। लेकिन देखा- जैसे सब है, वैसे तुम भी हो- घी-दूध खाकर भी दम नहीं। देखो, सांप मिट्टी में अपने पेट को घसीटता हुआ चलता है- उससे बढ़कर तो शायद हीन कोई न होगा; लेकिन उसके शरीर पर भी पैर रख देने पर वह फन काढ़ लेता है। तुम लोगों का धैर्य क्या किसी तरह भी नष्ट नहीं होता? देखो, कितने देशी शहर है- मगध, मिथिला, काशी, कराची, दिल्ली, काश्मीर- उन जगहों की ऐसी दुर्दशा है? किस देश के मनुष्य भोजन के अभाव में घास खा रहे हैं? किस देश की जनता कांटें खाती है, लता-पत्ता खाती है? किस देश के मनुष्य स्यार, कुत्ते और मुर्दे खाते है? आदमी अपने संदूक में धन रखकर भी निश्चित नहीं है- सिंहासन पर शालिग्राम बैठाकर निश्चित नहीं है- घर में बहू-नौकर-मजदूरनी रखकर निश्चित नहीं है! हर देश का राजा अपनी प्रजा की दशा का, भरण-पोषण का ख्याल रखता है; हमारे देश का मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा कर रहा है? धर्म गया, जाति गई, मन गया- अब तो प्राणों पर बाजी आ गई है। इन नशेबाज दाड़ीवालों को बिना भगाए क्या हिंदू हिंदू रह जाएंगे? |
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महेंद्र- कैसे भगाओगे?
भवानंद -मारकर! महेंद्र-तुम अकेले भगाओगे- एक थप्पड़ मारकर क्या? भवानंद ने फिर गाया- सप्तकोटि कण्ठ कलकल निनादकराले, द्विसप्तकोटिभुजैर्घृत खरकरवाले, अबला केनो मां एतो बले। जिस जगह जंगल के समीप राज-पथ पर खड़े होकर ब्रह्मचारी ने चारों ओर देखा था उसी राह से इन लोगों को गुजरना था। उस पहाड़ी के निकट पहुंचने पर सिपाहियों ने देखा कि एक शिलाखंड पर जंगल के किनारे एक पुरुष खड़ा है। हलकी चांदनी में उस पुरुष का काला शरीर चमकता हुआ देखकर सिपाही बोला–देखो एक साला और यहां खड़ा है। इस पर उसे पकड़ने के लिए एक आदमी दौड़ा, लेकिन वह आदमी वहीं खड़ा रहा, भागा नहीं- पकड़कर हवलदार के पास ले आने पर भी वह व्यक्ति कुछ न बोला। हवलदार ने कहा-इस साले के सिर पर गठरी लादो! सिपाहियों के एक भारी गठरी देने पर उसने भी सिर पर ले ली। तब हवलदार पीछे पलटकर गाड़ी के साथ चला। इसी समय एकाएक पिस्तौल चलने की आवाज हुई- हवलदार माथे में गोली खाकर गिर पड़ा। इसी साले ने हवलदार को मारा है! कहकर एक सिपाही ने उस मोटिया का हाथ पकड़ लिया। मोटिये के हाथ में तब तक पिस्तौल थी। मोटिये ने अपने सिर का बोझ फेंककर और तुरंत पलटकर उस सिपाही के माथे पर आघात किया, सिपाही का माथा फट गया और जमीन पर गिर पड़ा। इसी समय हरि! हरि! हरि! पुकारता दो सौ व्यक्तियों ने आकर सिपाहियों को घेर लिया। सिपाही गोरे साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। साहब भी डाका पड़ा है- विचार कर तुरंत गाड़ी के पास पहुंचा और सिपाहियों को चौकोर खड़े होने की आज्ञा दी। अंग्रेजों का नशा विपद् के समय नहीं रहता। सिपाहियों के उस तरह खड़े होते ही दूसरी आज्ञा से उन्होंने अपनी-अपनी बंदूकें संभाली। इसी समय एकाएक साहब की कमर की तलवार किसी ने छीन ली और फौरन उसने एक बार में साहब का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दिया- साहब का धड़ घोड़े से गिरा। फायर करने का हुक्म वह दे न सका। तब लोगों ने देखा कि एक व्यक्ति गाड़ी पर हाथ में नंगी तलवार लिए हुए ललकार रहा है-मारो, सिपाहियों को मारो…..मारो! साथ ही हरि हरि! का जय नाद भी करता जाता है। वह व्यक्ति और कोई नहीं भवानंद था। |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
एकाएक अपने साहब को मरा हुआ देख और अपनी रक्षा के लिए किसी को आज्ञा देते न देखकर सरकारी सिपाही डटकर भी निश्चेष्ट हो गए। इस अवसर पर तेजस्वी डाकुओं ने अपने सिपाहियों को हताहत कर आगे बढ़, गाड़ी पर रखे हुए खजाने पर अधिकार जमा लिया। सरकारी फौजी टुकड़ी भयभीत होकर भागी।
अंत में वह व्यक्ति सामने आया जो दल का नेतृत्व करता था और पहाड़ी पर खड़ा था। उसने आकर भवानंद को गले लगा लिया। भवानंद ने कहा-भाई जीवानंद! तुम्हारा नाम सार्थक हो? इसके बाद अपहृत धन को यथास्थान भेजने का भार जीवानंद पर रहा। वह अपने अनुचरों के साथ खजाना लेकर शीघ्र ही किसी अन्य स्थान में चले गए। भवानंद अकेले खड़े रह गए। बैलगाड़ी पर से कूदकर एक सिपाही की तलवार छीनकर महेंद्र सिंह ने भी चाहा कि युद्ध में योग दें। लेकिन इसी समय उन्हें प्रत्यक्ष दिखाई दिया कि युद्ध में लगा हुआ दल और कुछ नहीं, डाकुओं का दल है-धन छीनने के लिए इन लोगों ने सिपाहियों पर आक्रमण किया है। यह विचार कर महेंद्र युद्ध से विरत हो दूर जा खड़े हुए। उन्होंने सोचा कि डाकुओं का साथ देने से उन्हें भी दुराचार का भागी बनना पड़ेगा। वे तलवार फेंककर धीरे-धीरे वह स्थान त्यागकर जा रहे थे, इसी समय भवानंद उसके पास आकर खड़े हो गए। महेंद्र ने पूछा-महाशय! आप कौन हैं? भवानंद ने कहा-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन है? महेंद्र-मेरा कुछ प्रयोजन है- आज आपके द्वारा मैं विशेष उपकृत हुआ हूं। भवानन्द-मुझे ऐसा नहीं था कि तुम्हें इतना ज्ञान है। हाथों में हथियार रहते हुए भी तुम युद्ध से विरत रहे… जमींदारों के लड़के घी-दूध का श्राद्ध करना तो जानते है, लेकिन काम के समय बंदर बन जाते हैं! भवानंद की बात समाप्त होते-न-होते महेंद्र घृणा के साथ कहा-यह तो अपराध है, डकैती है भवानंद ने कहा- हां डकैती! हम लोगों के द्वारा तुम्हारा कुछ उपकार हुआ था, साथ ही और भी कुछ उपकार कर देने की इच्छा है! महेंद्र-तुमने मेरा कुछ उपकार अवश्य किया है लेकिन और क्या उपकार करोगे? फिर डाकुओं द्वारा उपकृत होने के बदले अनुपकृत होना ही अच्छा है। |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
भवानंद-उपकार ग्रहण न करो, यह तुम्हारी इच्छा है। यदि इच्छा हो तो मेरे साथ आओ, तुम्हारी स्त्री-कन्या से मुलाकात करा दूंगा!
महेंद्र पलटकर खड़े हो गए, बोले-क्या कहा? भवानंद ने इसका कोई जवाब न देकर पैर बढ़ाया। अंत में महेंद्र भी साथ-साथ आने लगे, साथ ही मन-ही-मन सोचते जाते थे-यह सब कैसे डाकू हैं?…. जिस जगह जंगल के समीप राज-पथ पर खड़े होकर ब्रह्मचारी ने चारों ओर देखा था उसी राह से इन लोगों को गुजरना था। उस पहाड़ी के निकट पहुंचने पर सिपाहियों ने देखा कि एक शिलाखंड पर जंगल के किनारे एक पुरुष खड़ा है। हलकी चांदनी में उस पुरुष का काला शरीर चमकता हुआ देखकर सिपाही बोला–देखो एक साला और यहां खड़ा है। इस पर उसे पकड़ने के लिए एक आदमी दौड़ा, लेकिन वह आदमी वहीं खड़ा रहा, भागा नहीं- पकड़कर हवलदार के पास ले आने पर भी वह व्यक्ति कुछ न बोला। हवलदार ने कहा-इस साले के सिर पर गठरी लादो! सिपाहियों के एक भारी गठरी देने पर उसने भी सिर पर ले ली। तब हवलदार पीछे पलटकर गाड़ी के साथ चला। इसी समय एकाएक पिस्तौल चलने की आवाज हुई- हवलदार माथे में गोली खाकर गिर पड़ा। इसी साले ने हवलदार को मारा है! कहकर एक सिपाही ने उस मोटिया का हाथ पकड़ लिया। मोटिये के हाथ में तब तक पिस्तौल थी। मोटिये ने अपने सिर का बोझ फेंककर और तुरंत पलटकर उस सिपाही के माथे पर आघात किया, सिपाही का माथा फट गया और जमीन पर गिर पड़ा। इसी समय हरि! हरि! हरि! पुकारता दो सौ व्यक्तियों ने आकर सिपाहियों को घेर लिया। सिपाही गोरे साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। साहब भी डाका पड़ा है- विचार कर तुरंत गाड़ी के पास पहुंचा और सिपाहियों को चौकोर खड़े होने की आज्ञा दी। अंग्रेजों का नशा विपद् के समय नहीं रहता। सिपाहियों के उस तरह खड़े होते ही दूसरी आज्ञा से उन्होंने अपनी-अपनी बंदूकें संभाली। इसी समय एकाएक साहब की कमर की तलवार किसी ने छीन ली और फौरन उसने एक बार में साहब का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दिया- साहब का धड़ घोड़े से गिरा। फायर करने का हुक्म वह दे न सका। तब लोगों ने देखा कि एक व्यक्ति गाड़ी पर हाथ में नंगी तलवार लिए हुए ललकार रहा है-मारो, सिपाहियों को मारो…..मारो! साथ ही हरि हरि! का जय नाद भी करता जाता है। वह व्यक्ति और कोई नहीं भवानंद था। |
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एकाएक अपने साहब को मरा हुआ देख और अपनी रक्षा के लिए किसी को आज्ञा देते न देखकर सरकारी सिपाही डटकर भी निश्चेष्ट हो गए। इस अवसर पर तेजस्वी डाकुओं ने अपने सिपाहियों को हताहत कर आगे बढ़, गाड़ी पर रखे हुए खजाने पर अधिकार जमा लिया। सरकारी फौजी टुकड़ी भयभीत होकर भागी।
अंत में वह व्यक्ति सामने आया जो दल का नेतृत्व करता था और पहाड़ी पर खड़ा था। उसने आकर भवानंद को गले लगा लिया। भवानंद ने कहा-भाई जीवानंद! तुम्हारा नाम सार्थक हो? इसके बाद अपहृत धन को यथास्थान भेजने का भार जीवानंद पर रहा। वह अपने अनुचरों के साथ खजाना लेकर शीघ्र ही किसी अन्य स्थान में चले गए। भवानंद अकेले खड़े रह गए। बैलगाड़ी पर से कूदकर एक सिपाही की तलवार छीनकर महेंद्र सिंह ने भी चाहा कि युद्ध में योग दें। लेकिन इसी समय उन्हें प्रत्यक्ष दिखाई दिया कि युद्ध में लगा हुआ दल और कुछ नहीं, डाकुओं का दल है-धन छीनने के लिए इन लोगों ने सिपाहियों पर आक्रमण किया है। यह विचार कर महेंद्र युद्ध से विरत हो दूर जा खड़े हुए। उन्होंने सोचा कि डाकुओं का साथ देने से उन्हें भी दुराचार का भागी बनना पड़ेगा। वे तलवार फेंककर धीरे-धीरे वह स्थान त्यागकर जा रहे थे, इसी समय भवानंद उसके पास आकर खड़े हो गए। महेंद्र ने पूछा-महाशय! आप कौन हैं? भवानंद ने कहा-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन है? महेंद्र-मेरा कुछ प्रयोजन है- आज आपके द्वारा मैं विशेष उपकृत हुआ हूं। भवानन्द-मुझे ऐसा नहीं था कि तुम्हें इतना ज्ञान है। हाथों में हथियार रहते हुए भी तुम युद्ध से विरत रहे… जमींदारों के लड़के घी-दूध का श्राद्ध करना तो जानते है, लेकिन काम के समय बंदर बन जाते हैं! भवानंद की बात समाप्त होते-न-होते महेंद्र घृणा के साथ कहा-यह तो अपराध है, डकैती है भवानंद ने कहा- हां डकैती! हम लोगों के द्वारा तुम्हारा कुछ उपकार हुआ था, साथ ही और भी कुछ उपकार कर देने की इच्छा है! महेंद्र-तुमने मेरा कुछ उपकार अवश्य किया है लेकिन और क्या उपकार करोगे? फिर डाकुओं द्वारा उपकृत होने के बदले अनुपकृत होना ही अच्छा है। भवानंद-उपकार ग्रहण न करो, यह तुम्हारी इच्छा है। यदि इच्छा हो तो मेरे साथ आओ, तुम्हारी स्त्री-कन्या से मुलाकात करा दूंगा! |
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महेंद्र पलटकर खड़े हो गए, बोले-क्या कहा?
भवानंद ने इसका कोई जवाब न देकर पैर बढ़ाया। अंत में महेंद्र भी साथ-साथ आने लगे, साथ ही मन-ही-मन सोचते जाते थे-यह सब कैसे डाकू हैं?…. उस चांदनी रात में दोनों ही जंगल पार करते हुए चले जा रहे थे। महेंद्र चुप, शांत, गर्वित और कुछ कौतूहल में भी थे। सहसा भवानंद ने भिन्न रूप रूप धारण कर लिया। वे अब स्थित-मूर्ति, धीर-प्रवृत्ति सन्यासी न रहे- वह रणनिपुण वीरमूर्ति, अंग्रेज सेनाध्यक्ष का सिर काटने वाला रुद्ररूप अब न रहा। अभी जिस गर्वित भाव से वे महेंद्र का तिरस्कार कर रहे थे, अब भवानंद वह न थे- मानो ज्योत्सनामयी, शांतिमयी पृथिवी की तरु-कानन-नद-नदीमय शोभा निरखकर उसके चित्त में विशेष परिवर्तन हो गया हो। चन्द्रोदय होने पर समुद्र मानों हंस उठा। भवानंद हंसमुख, मुखर, प्रियसंभाषी बन गए और बातचीत के लिए बहुत बेचैन हो उठे। भवानंद ने बातचीत करने के अनेक उपाय रचे, लेकिन महेन्द्र चुप ही रहे। तब निरुपाय होकर भवानंद ने गाना शुरू किया- वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम्……। महेंद्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके- सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामला माता कौन है? उन्होंने पूछा-यह माता कौन है? कोई उत्तर न देकर भवानंद गाते रहे- शुभ्रज्योत्सना पुलकित यामिनीम् फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम् सुखदां वरदां मातरम्। … महेंद्र बोले-यह तो देश है, यह तो मां नहीं है। भवानंद ने कहा -हमलोग दूसरी किसी मां को नहीं मानते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी- हमारी माता, जन्मभूमि ही हमारी जननी है- हमारे न मां है, न पिता है, न भाई है- कुछ नहीं है, स्त्री भी नहीं, घर भी नहीं, मकान भी नहीं, हमारी अगर कोई है तो वही सुजला, सुफला, मलयजसमीरण-शीतला, शस्यश्यामला… अब महेंद्र ने समझकर कहा -तो फिर गाओ! भवानंद फिर गाने लगे- |
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वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम शस्यश्यामलां मातरम्……। शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम् फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम् सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम् सुखदां, वरदां मातरम्।। वन्दे मातरम्….. सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले, द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले, अबला केनो मां तुमि एतो बले! बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम् रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे…. तुमी विद्या, तुमी धर्म, तुमी हरि, तुमी कर्म, त्वं हि प्राण : शरीरे। बाहुते तुमी मां शक्ति, हृदये तुमी मां भक्ति, तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे। त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं, कमला कमल-दल-विहारिणीं, वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम, सुजलां, सुफलां, मातरम् वन्दे मातरम्॥ श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम् धरणी, भरणी मातरम्॥ वन्दे मातरम्.. |
Re: ~!!आनन्दमठ!!~
आनन्दमठ भाग-4
सबेरा हो गया है। वह जनहीन कानन अब तक अंधकारमय और शब्दहीन था। अब आलोकमय प्रात: काल में आनंदमय कानन के आनंद-मठ सत्यानंद स्वामी मृगचर्म पर बैठे हुए संध्या कर रहे है। पास में भी जीवानंद बैठे हैं। ऐसे ही समय महेंद्र को साथ में लिए हुए स्वामी भवानंद वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मचारी चुपचाप संध्या में तल्लीन रहे, किसी को कुछ बोलने का साहस न हुआ। इसके बाद संध्या समाप्त हो जाने पर भवानंद और जीवानंद दोनों ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया, पदधूलि ग्रहण करने के बाद दोनों बैठ गए। सत्यानंद इसी समय भवानंद को इशारे से बाहर बुला ले गए। हम नहीं जानते कि उन लोगों में क्या बातें हुई। कुछ देर बाद उन दोनों के मंदिर में लौट आने पर मंद-मंद मुसकाते हुए ब्रह्मचारी ने महेंद्र से कहा-बेटा! मैं तुम्हारे दु:ख से बहुत दु:खी हूं। केवल उन्हीं दीनबंधु प्रभु की ही कृपा से कल रात तुम्हारी स्त्री और कन्या को किसी तरह बचा सका। यह उन्हीं ब्रह्मचारी ने कल्याणी की रक्षा का सारा वृत्तांत सुना दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-चलो वे लोग जहां हैं वहीं तुम्हें ले चलें! यह कहकर ब्रह्मचारी आगे-आगे और महेंद्र पीछे देवालय के अंदर घुसे। प्रवेश कर महेंद्र ने देखा- बड़ा ही लंबा चौड़ा और ऊंचा कमरा है। इस अरुणोदय काल में जबकि बाहर का जंगल सूर्य के प्रकाश में हीरों के समान चमक रहा है, उस समय भी इस कमरे में प्राय: अंधकार है। घर के अंदर क्या है- पहले तो महेंद्र यह देख न सके, किंतु कुछ देर बाद देखते-देखते उन्हें दिखाई दिया कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र-गदा-पद्यधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किए, सामने घूमता सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है। मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ सी चित्रित सामने पड़ी है। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामण्डिता, भयत्रस्त की तरह खड़ी हैं। दाहिने सरस्वती पुस्तक, वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुंदरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी- अंकित है। गंधर्व, किन्नर, यक्ष, राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेंद्र से पूछा-सब कुछ देख रहे हो? |
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महेंद्र ने उत्तर दिया-देख रहा हूं
ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन हैं, देखते हो? महेंद्र-देखा, कौन हैं वह? ब्रह्मचारी -मां! महेंद्र -यह मां कौन है? ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया -हम जिनकी संतान हैं। महेंद्र -कौन है वह? ब्रह्मचारी -समय पर पहचान जाओगे। बोलो, वंदे मातरम्! अब चलो, आगे चलो! ब्रह्मचारी अब महेंद्र को एक दूसरे कमरे में ले गए। वहां जाकर महेंद्र ने देखा- एक अद्भुत शोभा-संपन्न, सर्वाभरणभूषित जगद्धात्री की मूर्ति विराजमान है। महेंद्र ने पूछा-यह कौन हैं? ब्रह्मचारी-मां, जो वहां थी। महेंद्र-यह कौन हैं? ब्रह्मचारी -इन्होंने यह हाथी, सिंह आदि वन्य पशुओं को पैरों से रौंदकर उनके आवास-स्थान पर अपना पद्यासन स्थापित किया। ये सर्वालंकार-परिभूषिता हास्यमयी सुंदरी है- यही बालसूर्य के स्वर्णिम आलोक आदि ऐश्वर्यो की अधिष्ठात्री हैं- इन्हें प्रणाम करो! महेंद्र ने भक्तिभाव से जगद्धात्री-रुपिणी मातृभूमि-भारतमाता को प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारी ने उन्हें एक अंधेरी सुरंग दिखाकर कहा-इस राह से आओ! ब्रह्मचारी स्वयं आगे-आगे चले। महेंद्र भयभीत चित्त से पीछे-पीछे चल रहे थे। भूगर्भ की अंधेरी कोठरी में न जाने कहां से हलका उजाला आ रहा था। उस क्षीण आलोक में उन्हें एक काली मूर्ति दिखाई दी। ब्रह्मचारी ने कहा-देखो अब मां का कैसा स्वरूप है! महेंद्र ने कहा-काली? |
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ब्रह्मचारी-हां मां काली- अंधकार से घिरी हुई कालिमामयी समय हरनेवाली है इसीलिए नगन् हैं। आज देश चारों तरफ श्मशान हो रहा है, इसलिए मां कंकालमालिनी है- अपने शिव को अपने ही पैरों तले रौंद रही हैं। हाय मां! ब्रह्मचारी की आंखें से आंसू की धारा-बहने लगी।
आनंद-वन से बाहर निकल आने पर कुछ दूर तक राह चलने में तो जंगल उनके एक बाजू रहा। जंगल की बगल से ही शायद वह राह गई है। एक जगह जंगल में से ही एक छोटी नदी कलकल कर बहती है। जल बहुत ही साफ है, लेकिन देखने पर जंगल की छाया से जल भी काला दिखाई देता है। नदी के दोनों बाजू सघन बड़े-बड़े वृक्ष मनोरम छाया किए हुए हैं, विभिन्न पक्षी उन पेड़ों पर बैठे कलरव कर रहे हैं। उनका कलरव-कूजन, नदी की कलकल-ध्वनि से मिलकर अपूर्व श्रुतिमधुर जान पड़ता है। वैसे ही वृक्ष के रंग से नदी-जल का रंग भी वैसा ही झलक रहा है। कल्याणी का मन भी शायद उस रंग में मिल गया। कल्याणी नदी तट के एक वृक्ष से लगकर बैठ गई। उन्होंने अपने पति को भी बैठने को कहा। कल्याणी अपने पति के हाथों को अपने हाथों में लिए बैठी रही। फिर बोली-तुम्हें आज बहुत उदास देखती हूं। विपद जो आयी थी, उससे तो उद्धार मिल गया है, अब इतना दु:ख क्यों? महेंद्र ने एक ठंढी सांस लेकर कहा-मैं अब अपने आपे में नहीं हूं। मैं क्या करूं- कुछ समझ में नहीं आता।… कल्याणी-क्यों? महेंद्र-तुम्हारे खो जाने पर मेरा क्या हाल हुआ, सुनो!… यह कहकर महेंद्र ने अपनी सारी कहानी सविस्तार वर्णन कर दी। |
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कल्याणी ने कहा-मुझे भी बड़ी विपदों का सामना करना पड़ा, बहुत तकलीफ उठाई। तुम उन्हें सुनकर क्या करोगे! इतने दु:खों पर भी मुझे कैसे नींद आई थी, कह नहीं सकती- कल आखिर रात भी मैं सोई थी। नींद में मैंने स्वपन् देखा। देखा- नहीं कह सकती, किस पुण्यबल से मैं एक अपूर्व स्थान में पहुंच गई हूं। वहां मिट्टी नहीं है, केवल प्रकाश- अति शीतल- बादल हट जाने पर जैसा प्रकाश रहता है, वैसा ही प्रकाश! वहां मनुष्य नहीं थे, केवल प्रकाशमय मूर्तियां थी, वहां शब्द नहीं होता था, केवल दूर अपूर्व संगीत जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती थी। सदाबहार मल्लिका-मालती-गंधराज की अपूर्व सुगंध फैली थी। वहां सबसे ऊंचे दर्शनीय स्थान पर कोई बैठा था, मानो आग में तपा हुआ नील-कमल धधकता हुआ बैठा हो। उसके माथे पर सूर्य के प्रकाश जैसा मुकुट था; उसके चार हाथ थे। उसके दोनों बाजू कौन था, मैं पहचान न सकी, लेकिन कोई स्त्री-मूर्ति थी। लेकिन उनमें इतनी ज्योति, इतना रूप, इतना सौरभ था कि मैं उधर देखते ही विह्वल हो गई- उधर ताक न सकी, देख न सकी कि वे कौन है? उन्हीं चतुर्भुज के सामने एक स्त्री और खड़ी थी- वह भी ज्योतिर्मयी थी, लेकिन चारों तरफ मेघ जैसा छाया था, आभा पूरी तरह दिखाई नहीं देती थी। अस्पष्ट रूप में जान पड़ता था कि वह नारीमूर्ति अति दुर्बल, मर्मपीडि़त, अनन्य-सुंदरी, लेकिन रो रही है। वहां के मंद-सुगंध पवन ने मानों मुझे घुमाते-फिराते वहां चतुर्भुज मूर्ति के सामने ला खड़ा किया। उस मेधमंडिता दुर्बल स्त्री ने मुझे देखकर कहा- यही है, इसी के कारण महेंद्र मेरी गोद में आता नहीं है।….
इसके बाद ही एक अपूर्व वंशी जैसी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। वह शब्द उन चतुर्भुज का था, उन्होंने मुझे कहा-तुम अपने पति को छोड़कर मेरे पास चली आओ! यह तुम लोगों की मां है महेंद्र इसकी सेवा करेगा। तुम यदि पति के पास रहोगी तो वह इनकी सेवा न कर सकेगा। तुम चली जाओ। मैंने रोकर कहा-पति को छोड़कर मैं कैसे चली आऊं? इसके बाद ही फिर उसी अपूर्व स्वर में उन्होंने कहा-मैं ही स्वामी, मैं ही पुत्र, मैं ही माता, मैं ही पिता और मैं ही कन्या हूं, मेरे पास आओ! मैंने क्या उत्तर दिया, मुझे याद नहीं, लेकिन इसके बाद ही नींद खुल गई। यह कहकर कल्याणी चुप हो रही। ब्रह्मचारी -हमलोग संतान हैं। अपनी मां के हाथों में अभी केवल अस्त्र रख दिए हैं। बोलो- वन्देमातरम् ! वन्देमातरम्- कहकर महेंद्र ने मां काली को प्रणाम किया। |
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अब ब्रह्मचारी ने कहा-इस राह से आओ! यह कहकर वे दूसरी सुरंग में चले। सहसा उन लोगों के सामने प्रात: सूर्य की किरणें चमक उठीं, चारों तरफ मधुर से पक्षी कूंज उठे। सामने देखा, एक संगमर्मर से निर्मित विशाल मंदिर के बीच सुवर्ण-निर्मित दशभुज-प्रतिमा नव-अरूण की किरणा से ज्योतिर्मयी होकर हंस रही हैं। ब्रह्मचारी ने प्रणाम कर कहा-ये हैं मां, जो भविष्यत में उनका रूप होगा। इनके दशभुज दशों दिशाओं में प्रसारित हैं, उनमें नाना आयुधरूप में नाना शक्तियां शोभित हैं। पैरों के नीचे शत्रु दबे हुए हैं, पैरों के निकट वीर-केशरी भी शत्रु-निपीड़न से मगन् है। दिक्भुजा-कहते-कहते सत्यानंद गद्गद् हो रोने लगे-दिक्भुजा- नानाप्रहरणधारिणी, शत्रुविमर्दिनी, वीरेन्द्रपृष्ठविहारिणी, दाहिने लक्ष्मी भाग्यरूपिणी, बाएं वाणी विद्याविज्ञानदायिनी- साथ में शक्ति के आधार कार्तिकेय, कार्यसिद्विरूपी गणेश- आओ, हम दोनों मां को प्रणाम करें! इस पर दोनों ही हाथ जोड़कर माता का रूप निहारते हुए प्रार्थना करने लगे-
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये ˜यम्बके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥ दोनों के भक्ति-भाव से प्रणाम कर चुकने के बाद, भरे हुए गले से महेंद्र ने पूछा- मां की ऐसी मूर्ति कब देखने को मिलेगी? ब्रह्मचारी ने कहा -जिस दिन मां की सारी सन्तानें एक साथ मां को बुलाएंगी, उसी दिन मां प्रसन्न होंगी। एकाएक महेंद्र ने पूछा -मेरी स्त्री-कन्या कहां हैं? ब्रह्मचारी-चलो, देखोगे? चलो! महेंद्र -उन लोगों से भी एक बार मैं मिलूंगा, इसके बाद उन्हें बिदा कर दूंगा।…. ब्रह्मचारी-क्यों बिदा करोगे? महेंद्र -मैं भी यह महामंत्र ग्रहण करूंगा! ब्रह्मचारी -उन्हें कहां विदा करोगे? महेंद्र ने विचारकर कहा-मेरे धर पर कोई नहीं है, मेरा दूसरा कोई स्थान भी नहीं है। इस महामारी के समय और कहां स्थान मिलेगा। |
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ब्रह्मचारी-जिस राह से यहां आये हो, उसी राह से मंदिर से बाहर जाओ! मंदिर के दरवाजे पर तुम्हें स्त्री-कन्या दिखाई देंगी। कल्याणी अभी तक निराहार है। जहां वे दोनों बैठी हैं वहीं भोजन की सामग्री पाओगे। उसे भोजन कराके तुम्हारी जो इच्छा हो करना। अब हम लोगों में से किसी से कुछ देर मुलाकात न होगी। यदि तुम्हारा मन इधर होगा तो समय पर मैं तुमसे मिलूंगा।
इसके बाद ही किसी तरह से एकाएक ब्रह्मचारी अंतर्हित हो गए। महेंद्र ने पूर्व-परिचित राह से लौटकर देखा- नाटय मंदिर में कल्याणी कन्या को लिए हुए बैठी है। इधर सत्यानंद एक दूसरी सुरंग में जाकर एक अकेली भूगर्भस्थित कोठरी में उतर पड़े। वहां जीवानन्द और भुवानंद बैठे हुए रुपये गिन-गिनकर रख रहे थे। उस कमरे में ढेरों सोना, चांदी, तांबा, हीरे, मोती, मूंगे रखे हुए थे। गत रात खजाने की लूट का माल ये लोग गिन-गिनकर रख रहे थे। सत्यानंद ने कमरे में प्रवेश कर कहा-जीवानंद! महेंद्र हमारे साथ आएगा। उसके आने से संतानों का विशेष कल्याण होगा। कारण आने से उसके पूर्वजों का संचित धन मां की सेवा में अर्पित होगा। लेकिन जब तक वह तन-मन-वचन से मातृभक्त न हो, तब तक उसे ग्रहण न करना। तुम लोगों के हाथ का काम समाप्त होने पर तुम लोग भिन्न-भिन्न समय में उसका अनुसरण करना, उचित समय पर उसे श्रीविष्णुमंडप में उपस्थित करना, और समय हो या कुसमय हो, उन लोगों की रक्षा अवश्य करना। कारण, जैसे दुष्टों का दमन और दलन संतानों का धर्म है, वैसे ही शिष्टों की रक्षा करना भी संतानों का धर्म है! अनेक दु:खों के बाद महेंद्र और कल्याणी में मुलाकात हुई। कल्याणी रोकर पछाड़ खा गिरी। महेंद्र और भी रोए। रोने-गाने के बाद आंखों के पोंछने की धूम मच गई। जितने बार आंखें पोंछी जाती थी, उतनीही बार आंसू आ जाते थे। आंसू बंद करने के लिए कल्याणी ने भोजन की बात उठाई। ब्रह्मचारीजी के अनुचर जो खाना रख गए थे, कल्याणी ने उसे खाने के लिए महेंद्र से कहा। दुर्भिक्ष के दिनों में इधर अन्न भोजन की कोई संभावना नहीं थी, फिर भी आसपास जो कुछ है, संतानों के लिए वह सुलभ है। वह जंगल साधारण मनुष्यों के लिए अगम्य है जहां जिस वृक्ष में जो फल होते हैं, उन्हें भूखे लोग तोड़कर खाते हैं, किंतु इस अगम्य वन के वृक्षों का फल कोई नहीं पाता इसलिए ब्रह्मचारी के अनुचर ढेरों फल और दूध लाकर रख जाने में समर्थ हुए। संन्यासीजी की सम्पत्ति में अनेक गौएं भी हैं। कल्याणी के अनुरोध पर महेंद्र ने पहले कुछ भोजन किया, इसके बाद बचा हुआ भोजन अकेले में बैठकर कल्याणी ने खाया। उन लोगों ने थोड़ा दूध कन्या को पिलाया, बाकी बचा हुआ रख लिया- फिर पिलाने की आशा ही तो माता-पिता का संतान के प्रति धर्म है। इसके बाद थकावट और भोजन के कारण दोनों ने निंद्राभिभूत होकर आराम किया। |
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नींद से उठने के बाद दोनों विचार करने लगे-अब कहां चलना चाहिए? कल्याणी ने कहा-घर पर विपद की संभावना समझकर हमने गृहत्याग किया था, लेकिन अब देखती हूं कि घर से भी अधिक कष्ट बाहर है। न हो तो चलो, घर ही लौट चलें! महेंद्र की भी यही इच्छा थी। महेंद्र की इच्छा है कि कल्याणी को घर पर बैठाकर, कोई एक विश्वासी अभिभावक नियुक्त कर, इस परमरमणीय, अपार्थिव पवित्र मातृसेवा-व्रत को ग्रहण करेंगे। अत: इस बात पर वे सहज ही सहमत हो गए। अब दोनो ही प्राणियों ने थकावट दूर होने पर कन्या को गोद में लेकर फिर पदचिन्ह की तरफ यात्रा की।
किंतु पदचिन्ह जाने के लिए किस राह से जाना होगा- उस दुर्भेद्य वन में वे कुछ भी समझ न सके। उन्होंने समझा था कि जंगल पार होते ही हमें राह मिल जाएगी और पदचिन्ह पहुंच सकेंगे। लेकिन वहां तो बन का ही थाह नहीं लगता है। बहुत देर तक वे लोग वन के अंदर इधर-उधर चक्कर लगाते रहे और बार-बार घूम-फिरकर वे लोग मठ में ही पहुंच जाते थे। उन्हें जंगल से पार होनेवाली राह मिलती ही न थी। यह देखते हुए सामने एक वैष्णव वेशधारी खड़े हंस रहे थे। यह देखकर महेंद्र ने रुष्ट होकर उनसे कहा-गोस्वामी! खड़े-खड़े हंसते क्यों हो? गोस्वामी बोले-तुमलोग इस वन में आए कैसे? महेंद्र बोले-जैसे भी हो आ ही गए हैं! गोस्वामी-प्रवेश कर सके तो बाहर क्यों नहीं निकल पाते हो? यह करकर वैष्णव फिर हंसने लगे। महेंद्र ने वैसे ही रुष्ट स्वर में कहा-हंसते तो हो, लेकिन क्या तुम इसके बाहर निकल सकते हो? वैष्णव ने कहा-मेरे साथ आओ, मैं राह बता देता हूं। अवश्य ही तुम लोग ब्रह्मचारीजी के संग आए होंगे, अन्यथा न तो कोई यहां आ सकता है, न निकल ही सकता है। अपरिचितों के लिए यह भूल-भुलैया है। यह सुनकर महेंद्र ने कहा-आप भी सन्तान हैं? वैष्णव ने कहा-हां, मैं भी सन्तान हूं। मेरे साथ आओ। तुम्हें राह दिखाने के लिए ही मैं यहां खड़ा हूं। महेंद्र ने पूछा -आपका नाम क्या है? वैष्णव ने उत्तर दिया-मेरा नाम धीरानंद स्वामी है। यह कहकर धीरानंद आगे-आगे चले और कल्याणी के साथ महेंद्र पीछे-पीछे। धीरानंद ने एक बड़ी सी दुर्गम राह से उन्हें जंगल के बाहर कर दिया और आगे की राह बता दी। इसके बाद वे फिर जंगल में पलटकर गायब हो गए। बुरी बात ही मां-बाप के मुंह से पहले निकलती है- जहां अधिक प्रेम होता है, वहां भय भी बहुत अधिक होता है। महेंद्र ने यह कभी देखा न था कि टिकिया पहले कितनी बड़ी थी। अब उन्होंने टिकिया अपने हाथ में उठाकर मजे में उसे देखकर कहा-मालूम तो होता है कि कुछ खा गई है। |
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कल्याणी को कुछ ऐसा ही विश्वास हुआ। टिकिया हाथ में लेकर बहुत देर तक वह भी उसकी जांच करती रही। इधर कन्या ने दो-एक घूंट रस जो चूस लिया था, उससे उसकी दशा बिगड़ने लगी- वह छटपटाने लगी, रोने लगी, अंत में कुछ बेहोश सी हो पड़ी। तब कल्याणी ने पति से कहा-अब क्या देखते हो? जिस राह पर भगवान ने बुलाया है, उसी राह पर सुकुमारी चली, मुझे भी वही राह लेनी पड़ेगी।
यह कहकर कल्याणी ने उस टिकिया को उठाकर मुंह में डाल लिया और एक क्षण में निगल गई। महेंद्र रोने लगे-क्या किया, कल्याणी! अरे तुमने यह क्या किया है?…. कल्याणी ने कोई उत्तर न देकर पति के पैरों की धूलि माथे लगाई, फिर बोली-प्रभु! बात बढ़ाने से बात बढ़ेगी…मैं चली। कल्याणी! यह क्या किया?- कहकर महेंद्र चिल्लाकर रोने लगे। बड़े ही धीमे स्वर में कल्याणी बोली-मैंने अच्छा ही किया है, इस नाचीज औरत के पीछे तुम अपनी मातृभूमि की सेवा से वंचित रहते। देखो मैं देववाक्य का उल्लंघन कर रही थी, इसलिए मेरी कन्या गई। थोड़ी और अवहेलना करने से तुम पर विपत्ति आती। महेंद्र ने रोते हुए कहा-अरे, तुम्हें कहीं बैठाकर मैं चला जाता, कल्याणी!- कार्य सिद्ध हो जाने पर फिर हम लोग मिलकर सुखी होते। कल्याणी! मेरी सर्वस्व! तुमने यह क्या!! जिस भुजा के बल पर मैं तलवार पकड़ता, हाय! तुमने वही भुजा काट दी। तुम्हें खोकर मैं क्या रह पाऊंगा।…. कल्याणी-कहां मुझे ले जाते?- कहां स्थान है? मां-बाप, सगे-संबंधी सब इस दुर्दिन में चले गए हैं। किसके घर में जगह है, कहां जाने का विचार है? कहां ले जाओगे? मैं कालग्रह हूं- मैंने मरकर अच्छा ही किया है! मुझे आशीर्वाद दो, मैं उस आलोकमय लोक में जाकर तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूं और फिर तुम्हें पाउं। यह कहकर कल्याणी ने फिर स्वामी का पदरेणु ग्रहण किया। महेंद्र कोई उत्तर न देकर रोते ही रहे। कल्याणी फिर अति मृदु, अति मधुर, अतीव स्नेहमय कंठ से बोली-देखो, देवताओं की इच्छा, किसकी मजाल है कि उसका उल्लंघन कर सके! मुझे जाने की आज्ञा उन्होंने दी है, तो क्या मैं किसी तरह भी रुक सकती हूं? मैं स्वयं न मरती तो कोई मार डालता! मैंने आत्महत्या कर अच्छा ही किया है। तुमने देशोद्धार का जो व्रत लिया है, उसे तन-मन-धन से पूरा करो- इसी में तुम्हें पुण्य होगा- इसी पुण्य से मुझे भी स्वर्गलाभ होगा। हम दोनों ही साथ-साथ अक्षय स्वर्गमुख का उपभोग करेंगे। |
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इधर बालिका एक बार दूध की उल्टी कर सम्भलने लगी। उसके पेट में जिस परिमाण में विष गया था, वह घातक नहीं था। लेकिन महेंद्र का ध्यान उस समय उधर न था। उन्होंने कन्या को कल्याणी की गोद में दे दोनों का प्रगाढ़ अलिंगन कर फूट-फूटकर रोना शुरू किया। उसी समय वन में से मधुर किंतु मेघ-गंभीर शब्द सुनाई पड़ने लगा-
हरे मुरारे मधुकैटभारे! गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे! उस समय कल्याणी पर विष का प्रभाव हो रहा था, चेतना कुछ लुप्त हो चली थी। उन्होंने अवचेतन मन से सुरा, मानो वैकुण्ठ से यह अपूर्व ध्वनि उभरकर गूंज रही है- हरे मुरारे मधुकैटभारे! गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे! तब कल्याणी ने अप्सरानिंदित कंठ से बड़े ही मोहक स्वर में गाया- हरे मुरारे मधुकैटभारे! वह महेंद्र से बोली- कहो हरे मुरारे मधुकैटभारे! वन में गूंजने वाले मधुर स्वर और कल्याणी के मधुर स्वर पर विमुग्ध होकर कातर हृदय से एक मात्र ईश्वर को ही सहाय समझाकर महेंद्र ने भी पुकारा- हरे मुरारे मधुकैटभारे!….. तब मानो चारों तरफ से ध्वनि होने लगी– हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. और मानो वृक्ष के पत्तों से भी आवाज निकलने लगी- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. नदी के कलकल ध्वनि में भी वही शब्द हुआ- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. अब महेंद्र अपना शोक संताप भूल गए, उन्मत्त होकर वे कल्याणी के साथ एक स्वर से गाने लगे- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. |
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जंगल में से भी उसके स्वर से मिली हुई वाणी निकली-
हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. कल्याणी का कंठ क्रमश: क्षीण होने लगा, फिर भी वह पुकार रही थी- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. इसके बाद ही उसका कंठ क्रमश: निस्तब्ध होने लगा, कल्याणी के मुंह से अब शब्द नहीं निकलता- आंखें ढंक गई, अंग शीतल हो गए। महेंद्र समझ गए कि कल्याणी ने हरे मुरारे कहते हुए बैकुंठ प्रयाण किया। इसके बाद ही पागलों की तरह उच्च स्वर से वन को कम्पित करते हुए पशु-पक्षियों को चौंकाते हुए महेंद्र पुकारने लगे- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. इसी समय किसी ने आकर उनका अलिंगन किया और उसी स्वर में वह भी कहने लगा- हरे मुरारे मधुकैटभारे!…. तब उस अनंत ईश्वर की महिमा से, उस अनंत वन में अनंत पथगामी शरीर के सामने दोनों जन अनंत नाम-स्मरण करने लगे। पशु-पक्षाी नीरव थे, पृथ्वी अपूर्व शोभामयी थी- इस परम पावन गीत के उपयुक्त मंदिर था वह। सत्यानंद महेंद्र को बांहों में संभाल कर बैठ गए। महेंद्र विस्मित, स्तम्भित होकर चुप हो रहे। ऊपर पेड़ पर कोई पक्षी बोल उठा, पपीहा अपनी बोली से आकाश गुंजाने लगा, कोकिल सप्त-स्वरों में गाने लगी, भृंगराज की झनकार से जंगल गूंज उठा। पैरों के नीचे तरिणी मृदु कल्लोल कर रही थी। बहुतेरे वन्य पुष्पों के सौरभ से मन हरा हो रहा था। कहीं-कहीं नदी-जल को सूर्य-रश्मि चमका रही थी। कहीं ताड़ के पत्ते हवा के झोंके से मरमरा रहे थे। दूर नीली पर्वत-श्रेणी दिखाई पड़ रही थी। दोनों ही जन मुग्ध-नीरव हो यह सब देखते रहे। बहुत देर बाद कल्याणी ने फिर पूछा-क्या सोच रहे हो? महेंद्र-यही सोचता हूं कि क्या करना चाहिए? यह स्वपन् केवल विभीषिका मात्र है, अपने ही हृदय में पैदा होकर अपने ही में लीन हो जाता है। चलो, घर चलें! कल्याणी-जहां ईश्वर तुम्हें जाने को कहते हैं, तुम वहीं जाओ! यह कहकर कल्याणी ने कन्या अपने पति की गोद में दे दी। महेंद्र ने उसे अपने गोद में लेकर पूछा-और तुम…तुम कहां जाओगी? |
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कल्याणी अपने दोनों हाथों से दोनों आंखों को ढंके हुए, साथ ही मस्तक पकडे़ हुए बोली-मुझे भी भगवान ने जहां जाने को कहा है वहीं जाऊंगी।
महेंद्र चौंक उठे। बोले-वहां कहां? कैसे जाओगी? कल्याणी ने अपने पास की वही जहर की डिबिया दिखाई। महेंद्र ने डरते हुए भौंचक्का होकर कहा-यह क्या? जहर खाओगी? कल्याणी-मन में तो सोचा था, खाऊंगी, लेकिन… कल्याणी चुप होकर विचार में पड़ गई, महेंद्र उसका मुंह ताकते रहे- प्रति निमेश वर्ष-सा प्रतीत होने लगा। उन्होंने देखा कि कल्याणी ने बात पूरी न कही, अत: बोले-लेकिन के बाद आगे क्या कह रही थीं? कल्याणी-मन में था कि खाऊंगी, लेकिन तुम्हें छोड़कर, सुकुमारी कन्या को छोड़कर बैकुंठ जाने की भी मेरी इच्छा नहीं होती। मैं न मरूंगी! यह कहकर कल्याणी ने विष की डिबिया जमीन पर रख दी। इसके बाद दोनों ही पत्**नी-पुरुष भूत-भविष्य की अनेक बातें करने लगे। बातें करते हुए दोनों ही अन्यमनस्क हो उठे। इसी समय खेलते-खेलते सुकुमारी कन्या ने विष की डिबिया उठा ली। उसे किसी ने न देखा। सुकुमारी ने मन में सोचा कि बढि़या खेलने की चीज है। उसने इस डिबिया को एक बार बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ से खींचा। इसके बाद दाहिने हाथ से पकड़कर बाएं हाथ से खींचा। इसके बाद दोनों हाथों से उसे खींचना शुरू किया। फल यह हुआ कि डिबिया खुल गई, उसमें से जहर की टिकिया बाहर गिर पड़ी। बाप के कपड़े के ऊपर वह टिकिया गिरी- सुकुमारी ने उसे देखा, मन में सोचा, कि यह एक दूसरी खेलने की चीज है डिबिया के दोनों ढक्कन उसने छोड़ दिए और उस टिकिया को उठा लिया। डिबिया को सुकुमारी ने मुंह में क्यों नहीं डाला, नहीं कहा जा सकता। लेकिन टिकिया में उसने जरा भी विलम्ब न किया? प्रप्तिमात्रेण भोक्तव्य– सुकुमारी ने उस जहर की टिकिया को मुंह में डाल लिया। क्या खाया? अरे क्या खाया? गजब हो गया!… |
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यह कहती हुई कल्याणी ने कन्या के मुंह में उंगली डाल दी। उसी समय दोनों ने देखा कि विष की डिबिया खाली पड़ी हुई है। सुकुमारी ने सोचा कि यह भी खेल की चीज है, अत: उसने उसे दांतों से दबा लिया और माता का मुंह देखकर मुस्कराने लगी। लेकिन जान पड़ता है, इसी समय जहर का कड़वा स्वाद उसे मालूम पड़ा और उसने मुंह बिगाड़कर खोल दिया- वह टिकिया दांतों में चिपकी हुई थी। माता ने तुरंत निकाल कर उसे जमीन पर फेंक दिया। लड़की रोने लगी।
टिकिया उसी तरह पड़ी रही। कल्याणी तुरंत नदी-तट पर जाकर अपना आंचल भिगो लाई और लड़की के मुंह में जल देकर उसने धुलवा दिया। बड़ी ही कातर वाणी से कल्याणी ने महेंद्र से पूछा-क्या कुछ पेट में गया होगा? |
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आनन्दमठ भाग-5
इधर राजधानी की शाही राहों पर बड़ी हलचल उपस्थित हो गई। शोर मचने लगा कि नवाब के यहां से जो खजाना कलकत्ते आ रहा था, संन्यासियों ने मानकर सब छीन लिया। राजाज्ञा से सिपाही और बल्लमटेर संन्यासियों को पकड़ने के लिए छूटे। उस समय दुर्भिज्ञ-पीडि़त प्रदेश में वास्तविक संन्यासी रह ही न गए थे। कारण, वे लोग भिक्षाजीवी ठहरे, जनता स्वयं खाने को नहीं पाती तो उन्हें वह कैसे दे सकती है? अतएव जो असली संन्यासी भिक्षुक थे, वे लोग पेट की ज्वाला से व्याकुल होकर काशी-प्रयाग चले गए थे। आज ये हलचल देखकर कितनों ने ही अपना संन्यासी वेष त्याग दिया। राज्य के भूखे सैनिक, संन्यासियों को न पाकर घर-घरमें तलाशी लेकर खाने और पेट भरने लगे। केवल सत्यानन्द ने किसी तरह भी अपने गैरिक वस्त्रों का परित्याग न किया। उसी कल्लोलवाहिनी नदी-तट पर, शाही राह के बगल में पही पेड़ के नीचे कल्याणी पड़ी हुई है। महेंद्र और सत्यानंद परस्पर अलिंगनबद्ध होकर आंसू बहाते हुए भगवन्नाम-उच्चारण में लगे हुए हैं। उसी समय एक जमादार सिपाहियों का दल लिए हुए वहां पहुंच गया। संन्यासी के गले पर एक बारगी हाथ ले जाकर जमादार बोला-यह साला संन्यासी है! इसी तरह एक दूसरे ने महेंद्र को पकड़ा। कारण, जो संन्यासी का साथी है वह अवश्य संन्यासी होगा। तीसरा एक सैनिक घास पर पड़े हुए कल्याणी के शरीर की तरफ लपका- उसने देखा की औरत मरी हुई है, संन्यासी न होने पर भी हो सकती है। उसने उसे छोड़ दिया। बालिका को भी यही सोच कर उसने छोड़ दिया। इसके बाद उन सबने और कुछ न कहा, तुरंत बांध लिया और ले चले दोनों जन को। कल्याणी की मृत देह और कन्या बिना रक्षक के पेड़ के नीचे पड़ी रही। पहले तो शोक से अभिभूत और ईश्वर के प्रेम में उन्मत्त हुए महेंद्र प्राय: विचेतन अवस्था में थे- क्या हो रहा था, क्या हुआ- इसे वह कुछ समझ न सके। बंधन में भी उन्होंने कोई आपत्ति न की। लेकिन दो-चार कदम अग्रसर होते ही वे समझ गए कि ये सब मुझे बांध लिए जा रहे है- कल्याणी का शरीर पड़ा हुआ है, उसका अंतिम संस्कार नहीं हुआ- कन्या भी पड़ी हुई है। इस अवस्था में उन्हें हिंस्त्र पशु खा जा सकते हैं। मन में यह भाव आते ही महेंद्र के शरीर में बल आ गया और उन्होंने कलाइयों को मरोड़कर बंधन को तोड़ डाला। फिर पास में चलते जमादार को इस जोर की लात लगायी कि वह लुड़कता हुआ दस हाथ दूर चला गया। तब उन्होंने पास के एक सिपाही को उठाकर फेंका। लेकिन इसी समय पीछे के तीन सिपाहियों ने उन्हें पकड़कर फिर विवश कर दिया। इस पर दु:ख से कातर होकर महेंद्र ने संन्यासी से कहा-आप जरा भी मेरी सहायता करते, तो मैं इन पांचों दुष्टों को यमद्वार भेज देता। |
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सत्यानंद ने कहा-मेरे इस बूढ़े शरीर में बल ही कहां है? मैं तो जिन्हें बुला रहा हूं, उनके सिवा मेरा कोई सहारा नहीं है। जो होना है- वह होकर रहेगा, तुम विरोध न करो। हम इन पांचों को पराजित कर न सकेंगे। देखें, ये हमें कहां ले जाते हैं….. भगवान् हर जगह रक्षा करेंगे!
इसके बाद इन लोगों ने मुक्ति की फिर कोई चेष्टा न की, चुपचाप सिपाहियों के पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर सत्यानंद ने सिपाहियों से पूछा-बाबा! मैं तो हरिनाम कह रहा था, क्या भगवान का नाम लेने में भी कोई बाधा है? जमादार समझ गया कि सत्यानंद भले आदमी हैं। उसने कहा-तुम भगवान का नाम लो, तुम्हें रोकूंगा नहीं। तुम वृद्ध ब्रह्मचारी हो, शायद तुम्हारे छुटकारे का हुक्म हो जाएगा। मगर यह बदमाश फांसी पर चढ़ेगा! इसके बाद ब्रह्मचारी मृदु स्वर से गाने लगे- धीर समीरे तटिनी तीरे बसति बने बनबारी। मा कुरु धनुर्धर गमन विलम्बनमतिविधुरा सुकुमारी॥….. इत्यादि। नगर में पहुंचने पर वे लोग कोतवाल के समीप उपस्थित किए गए। कोतवाल ने नवाब के पास इत्तिला भेजकर संप्रति उन्हें फाटक के पास की हवालात में रखा। वह कारागार अति भयानक था, जो उसमें जाता था, प्राय: बाहर नहीं निकलता था, क्योंकि कोई विचार करने वाला ही न था। वह अंग्रेजों के जेलखाना नहीं था और न उस समय अंग्रेजों के हाथ में न्याय था। आज कानूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे। कानून के युग से जरा तुलना तो करो! रात हो गई। कारागार में कैद सत्यानंद ने महेंद्र से कहा-आज बड़े आनंद का दिन है। कारण, हम लोग कारागार में कैद है। कहो-हरे मुरारे! महेंद्र ने बड़े कातर स्वर में कहा-हरे मुरारे! |
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सत्यानंद-कातर क्यों होते हो, बेटे! तुम्हारे इस महाव्रत को ग्रहण करने पर तुम्हें स्त्री-कन्या का त्याग तो करना ही पड़ता, फिर तो कोई संबंध रह न जाता।…..
महेंद्र-त्याग एक बात है, यमदण्ड दूसरी बात! जिस शक्ति के सहारे मैं यह व्रत ग्रहण करता, वह शक्ति मेरी स्त्री-कन्या के साथ ही चली गई। सत्यानंद-शक्ति आएगी- मैं शक्ति हूं! महामंत्र से दीक्षित होओ, महाव्रत ग्रहण करो। महेंद्र ने विरक्त होकर कहा-मेरी स्त्री और कन्या को स्यार और कुत्ते खाते होंगे- मुझसे किसी व्रत की बात न कहिए! सत्यानंद-इस बारे में चिंता मत करो! संतानों ने तुम्हारी स्त्री की अन्त्येष्टि क्रिया करके तुम्हारी लड़की को उपयुक्त स्थल में रख छोड़ा है। महेंद्र विस्मित हुए, उन्हें इस बात पर जरा भी विश्वास न हुआ। उन्होंने पूछा-आपने कैसे जाना? आप तो बराबर मेरे साथ हैं। सत्यानंद-हम महामंत्र से दीक्षित हैं- देवता हमारे प्रति दया करते हैं। आज रात को तुम यह संवाद सुनोगे और आज ही तुम कैदखाने से छूट भी जाओगे। महेंद्र कुछ न बोला। सत्यानंद ने समझ लिया कि महेंद्र को मेरी बातों का विश्वास नहीं होता। तब सत्यानंद बोले-तुम्हें विश्वास नहीं होता? परीक्षा करके देखो! यह कहकर सत्यानंद कारागार के द्वार तक आए। क्या किया, यह महेंद्र को कुछ मालूम न हुआ, पर यह जान गए कि उन्होंने किसी से बातचीत की है। उनके लौट आने पर महेंद्र ने पूछा-क्या परीक्षा करूं? |
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