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-   -   जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=4231)

DevRaj80 31-03-2012 07:03 PM

जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ

यहाँ संस्कृत के कुछ खास श्लोक तथा उनके अर्थ दिए जायेंगे .........

आशा है मित्रों को पसंद आयेंगे ........रेपो ++++ दे कर उत्साह बढ़ाये .........

DevRaj80 31-03-2012 07:03 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय नम:
</b>


भगवान वासुदेव को मैं नमस्कार करता हूं ।

DevRaj80 31-03-2012 07:04 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।




जो विद्या के लिये प्रयत्न नहीं करते, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न ज्ञान के लिये यत्न करते हैं, न शील हैं और न ही जिनमें और कोई गुण हैं, न धर्म है (सही आचरण है), ऍसे लोग मृत्युलोक में इस धरती पर बोझ ही हैं, मनुष्य रुप में वे वास्तव में जानवर ही हैं ।

</b>

DevRaj80 31-03-2012 07:04 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
पिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी ।
शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यात्, फलं भाग्यानुसारतः ।।



पिता जिसका सागर है, और लक्ष्मी जिसकी बहन है (यहाँ शंख की बात हो रही है, जो सागर से उत्पन्न होता है, और क्योंकि लक्ष्मी जी सागर मंथन में जल से प्रकट हुईं थीं, इसलिये वो उसकी बहन हैं) । वह शंख भिक्षा माँगता सडकों पर भटक रहा है । देखिये! फल भाग्य के अनुसार ही मिलते हैं ।

</b>

DevRaj80 31-03-2012 07:07 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् ।
विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।


उदार मुनुष्य के लिये धन घास के बराबर है । शूर के लिये मृत्यु घार बराबर है । जो विरक्त हो चुका हो (स्नेह हीन हो चुका हो) उसके लिये उसकी पत्नी का कोई महत्व नहीं रहता (घास बराबर) । और जो इच्छा और स्पृह से दूर है, उसके लिये तो यह संपूर्ण जगत ही घास बराबर, मूल्यहीन है ।

</b>

DevRaj80 31-03-2012 07:09 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै: प्रारभ्य विघ्नविहता विरमंति मध्या: विघ्नै:
पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना: प्रारभ्य चोत्तमजना: न परित्यजंति


विघ्न (रस्ते की रुकावटों) के भय से जो कर्म को आरम्भ ही नहीं करते हैं, वे नीचे हैं । लेकिन जो आरम्भ करने पर विघ्नों के आने पर उसे बीच में छोड देते हैं, वे मध्य में हैं (थोडे बेहतर हैं) । बार बार विघ्नों की मार सहते हुए भी, जो आरम्भ किये काम को नहीं त्यागते, वे जन उत्तम हैं ।

</b>

DevRaj80 31-03-2012 07:11 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
<b>
सहसा विदधीत न क्रियां अविवेक: परमापदां पदम् वृणुते हि विमृशकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव संपद:


एकदम से (बिना सोचे समझे) कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि अविवेक (विवेक हिनता) परम आपदा (मुसीबत) का पद है । जो सोचते समझते हैं, गुणों की ही तरह, संपत्ति भी उनके पास अपने आप आ जाती है ।

</b>

DevRaj80 14-12-2014 10:08 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
Thanking You Very Much


for Giving me Status of


Diligent Member


मेहनती


and


* * * * *



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DevRaj80 14-12-2014 10:58 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 1 :

अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् |

अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||

अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |

DevRaj80 14-12-2014 10:59 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 2 :

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||


अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |

DevRaj80 14-12-2014 10:59 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 3 :

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

DevRaj80 14-12-2014 10:59 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 4 :

बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |

श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||

अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |

DevRaj80 14-12-2014 10:59 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 5 :

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं ,

मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति |

चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं ,

सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ||

अर्थात्: अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है ,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है |(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती |

DevRaj80 14-12-2014 10:59 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 6 :

चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः |

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ||

अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |

DevRaj80 14-12-2014 11:00 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 7 :

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |

अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |

DevRaj80 14-12-2014 11:00 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 8 :

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||

अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |

DevRaj80 14-12-2014 11:00 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 9 :

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन ,

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां ,

परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

अर्थात् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |

DevRaj80 14-12-2014 11:01 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 10 :

पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |

DevRaj80 14-12-2014 11:01 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 11 :

विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च |

व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

अर्थात् : ज्ञान यात्रा में ,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |

DevRaj80 14-12-2014 11:01 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 12 :

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ||

अर्थात् : अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है ; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है |

DevRaj80 14-12-2014 11:01 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 13 :

( अर्जुन उवाच )

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||

अर्थात् : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ |

DevRaj80 14-12-2014 11:02 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्लोक 14 :

(श्री भगवानुवाच )

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||

अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

DevRaj80 14-12-2014 11:28 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
न चौर हार्यम न च राज हार्यम, न भ्रात्रभाज्यम न च भारकारी
व्यये कृते वर्धते नित्यं, विद्या धनं सर्वधनं प्रधानम् ।१।

DevRaj80 14-12-2014 11:28 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
काक चेष्टा बकोध्यानम, स्वान निंद्रा तथैव च
स्वल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्च लक्षणं । २।

DevRaj80 14-12-2014 11:29 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
विद्या ददाति विनयम, विनयात याति पात्रत्वाम
पात्र्त्वात धनमाप्नोति, धनात धर्मः ततः सुखं । ३।

DevRaj80 14-12-2014 11:29 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
नैनं छिदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः,
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः। ४।

DevRaj80 14-12-2014 11:29 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
कर्मनेवाधिकरास्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भुर्मा, ते सन्गोत्सवकर्मनि। ५।

DevRaj80 14-12-2014 11:29 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भावती भारतः,
अभुथानाम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्हम।६।

DevRaj80 14-12-2014 11:29 AM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चित् दुःख भाग्भावेत । ७।

rajnish manga 14-12-2014 12:59 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
संस्कृत की बहुत प्रेरणादायक सूक्तियाँ. यह हर कदम पर व्यक्ति को राह दिखने वाली हैं.

DevRaj80 14-12-2014 02:08 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
dhanywaad rajneesh ji

DevRaj80 16-12-2014 07:18 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
:banalama::banalama::banalama:
मैं आया हूँ घोड़े पे सवार ...तेज ...तेज ...


:banalama::banalama::banalama:


:thinking::thinking::thinking:
सोच रहा हूँ १००० पोस्ट पूरे होने पर एक भी बधाई नहीं दी किसी ने अभी तक



:cry::cry::cry::cry:


:thinking::thinking::thinking:
अच्छा भाई ...लोग काम पर बीजी हैं



:egyptian::egyptian::egyptian:

मैं खुद ही बधाई ...दे लेता हूँ खुद को ....सबकी और से ....

१००० पोस्ट

वो भी इतनी जल्दी

पूरे होने पर

देवराज जी को

हार्दिक बधाइयां

DevRaj80 07-01-2015 05:33 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् |

अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||

अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |

DevRaj80 07-01-2015 05:34 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||

अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |

DevRaj80 07-01-2015 05:34 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः |

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ||

अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |

DevRaj80 07-01-2015 05:34 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |

अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |

DevRaj80 07-01-2015 05:35 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||

अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |

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DevRaj80 07-01-2015 05:35 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन ,

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां ,

परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

अर्थात् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |

DevRaj80 07-01-2015 05:35 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |

DevRaj80 07-01-2015 05:35 PM

Re: जीवनोपयोगी संस्कृत के श्लोक - अर्थ
 
विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च |

व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

अर्थात् : ज्ञान यात्रा में ,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |


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