सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
गुलज़ार जी के 'ईब्ने बतुता' गीत के साथ जो कोन्ट्रोवर्सी हुई थी, कहा जाता था की वह गाना गुलज़ार जी ने सर्वेश्वरदयाल जी की रचना से उठाया था। खैर यह कोन्ट्रोवर्सी बहुत जल्द खत्म हो गई क्यूं की सिर्फ एक ही शब्द 'बतुता' के मिल जाने से पुरी गज़ल कीसी ओर की नहीं हो जाती।
लेकिन उस के बाद सर्वेश्वरदयाल की कविताएं पढने का मन किया, जो बहुत बहुत सुंदर और अद्भुत है। आईए उनके बारें में थोडा सा जानें, उसके बाद उनकी कुछ रचनाएं पढें। https://upload.wikimedia.org/wikiped...ayalsaxena.jpg सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जन्म: 15 सितम्बर 1927 निधन: 24 सितम्बर 1983 जन्म स्थानः जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश, भारत कुछ प्रमुख कृतियाँःकाठ की घंटियाँ, बांस का पुल, गर्म हवाएँ, एक सूनी नाव, कुआनो नदी विविध कविता संग्रह खूँटियों पर टँगे लोग के लिये 1983 का साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।। |
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आपके बारे में (सोर्स sahityashilpi)
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिन्दी साहित्य जगत के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिनकी लेखनी से कोई विधा अछूती नहीं रही। चाहे वह कविता हो, गीत हो, नाटक हो अथवा आलेख हों। जितनी कठोरता से उन्होंने व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों पर आक्रमण किया, उतनी ही सहजता से वे बाल साहित्य के लिये भी लेखनी चलाते रहे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर 1927 को बस्ती (उ.प्र) में हुआ। उन्होंने एंग्लो संस्कृत उच्च विद्यालय बस्ती से हाईस्कूल की परीक्षा पास कर के क्वींस कॉलेज वाराणसी में प्रवेश लिया। एम.ए की परीक्षा उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। एक छोटे से कस्बे से अपना जीवन आरम्भ करने वाले सर्वेश्वर जी ने जिन साहित्यिक ऊचाइयों को छुआ, वो इतिहास और उदाहरण दोनो हैं। उनके काव्य सन्ग्रह "खूंटियॊं पर टंगे हुए लोग" के लिये उन्हें १९८३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। काठ की घंटियाँ, बांस का पुल, गर्म हवाएँ, एक सूनी नाव, कुआनो नदी आदि उनकी प्रमुख क्रतियां हैं। आपने पत्रकारिता जगत में भी उसी जिम्मेदारी से काम किया और आपका समय हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्णिम अध्याय माना जाता है। |
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प्यार
इस पेड में कल जहाँ पत्तियाँ थीं आज वहाँ फूल हैं जहाँ फूल थे वहाँ फल हैं जहाँ फल थे वहाँ संगीत के तमाम निर्झर झर रहे हैं उन निर्झरों में जहाँ शिला खंड थे वहाँ चाँद तारे हैं उन चाँद तारों में जहाँ तुम थीं वहाँ आज मैं हूँ और मुझमें जहाँ अँधेरा था वहाँ अनंत आलोक फैला हुआ है लेकिन उस आलोक में हर क्षण उन पत्तियों को ही मैं खोज रहा हूँ जहाँ से मैंने- तुम्हें पाना शुरु किया था! |
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खाली समय में
खाली समय में, बैठ कर ब्लेड से नाखून काटें, बढी हुई दाढी में बालों के बीच की खाली जगह छांटे, सर खुजलाएं, जम्हुआए, कभी धूप में आए, कभी छांह में जाए, इधर-उधर लेटें, हाथ-पैर फैलाएं, करवटें बदलें दाएं-बाएं, खाली कागज पर कलम से भोंडी नाक, गोल आंख, टेढे मुंह की तसवीरें खींचें बार-बार आंखें खोले बार-बार मींचें, खांसें, खंखारें, थोडा बहुत गुनगुनाएं, भोंडी आवाज में, अखबार की खबरें गाए, तरह-तरह की आवाज गले से निकालें, अपनी हथेली की रेखाएं देखें-भालें, गालियां दे-दे कर मक्खियां उडाएं, आंगन के कौओं को भाषण पिलाए, कुत्ते के पिल्ले से हाल-चाल पूछें, चित्रों में लडकियों की बनाएं मूंछे, धूप पर राय दें, हवा की वकालत करें, दुमड-दुमड तकिए की जो कहिए हालत करें, खाली समय में भी बहुत से काम है किस्मत में भला कहां लिखा आराम है! |
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जब भी
जब भी भूख से लड़ने कोई खड़ा हो जाता है सुन्दर दीखने लगता है। झपटता बाज, फन उठाए सांप, दो पैरों पर खड़ी कांटों से नन्ही पत्तियां खाती बकरी, दबे पांव झाड़ियों में चलता चीता, डाल पर उलटा लटक फल कुतरता तोता, या इन सबकी जगह आदमी होता। . |
Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
अंत में
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता, सुनना चाहता हूँ एक समर्थ सच्ची आवाज़ यदि कहीं हो। अन्यथा इससे पूर्व कि मेरा हर कथन हर मंथन हर अभिव्यक्ति शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए, उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ जो मृत्यु है। 'वह बिना कहे मर गया' यह अधिक गौरवशाली है यह कहे जाने से -- 'कि वह मरने के पहले कुछ कह रहा था जिसे किसी ने सुना नहीं।' --- |
Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना और उस संगीत को सुनना जो धमनियों में बजता है, उन रंगों में नहा जाना जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं । शब्दों की खोज शुरु होते ही हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं और उनके पकड़ में आते ही एक-दूसरे के हाथों से मछली की तरह फिसल जाते हैं । हर जानकारी में बहुत गहरे ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है, कुछ भी ठीक से जान लेना खुद से दुश्मनी ठान लेना है । कितना अच्छा होता है एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना, और अपने ही भीतर दूसरे को पा लेना । -- |
Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
प्यार:एक छाता
विपदाएँ आते ही, खुलकर तन जाता है हटते ही चुपचाप सिमट ढीला होता है; वर्षा से बचकर कोने में कहीं टिका दो, प्यार एक छाता है आश्रय देता है गीला होता है। |
Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
व्यंग्य मत बोलो।
व्यंग्य मत बोलो। काटता है जूता तो क्या हुआ पैर में न सही सिर पर रख डोलो। व्यंग्य मत बोलो। अंधों का साथ हो जाये तो खुद भी आँखें बंद कर लो जैसे सब टटोलते हैं राह तुम भी टटोलो। व्यंग्य मत बोलो। क्या रखा है कुरेदने में हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में सत्य के लिए निरस्त्र टूटा पहिया ले लड़ने से बेहतर है जैसी है दुनिया उसके साथ होलो व्यंग्य मत बोलो। भीतर कौन देखता है बाहर रहो चिकने यह मत भूलो यह बाज़ार है सभी आए हैं बिकने राम राम कहो और माखन मिश्री घोलो। व्यंग्य मत बोलो। |
Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
दिल्ली
कच्चे रंगों में नफ़ीस चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया जिसमें नकली हीरे की अंगूठी असली दामों के कैश्मेम्प में लिपटी हुई रखी है । लखनऊ श्रृंगारदान में पड़ी एक पुरानी खाली इत्र की शीशी जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है । बनारस बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ , जो एक तरफ़ से खोलकर भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है । इलाहाबाद एक छूछी गंगाजली जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर और रात में कला के नाम पर उठायी जाती है । बस्ती गाँव के मेले में किसी पनवाड़ी की दुकान का शीशा जिस पर अब इतनी धूल जम गई है कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता । ( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । ) |
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