My Hindi Forum

My Hindi Forum (http://myhindiforum.com/index.php)
-   Hindi Literature (http://myhindiforum.com/forumdisplay.php?f=2)
-   -   !! मेरी कहानियाँ > रजनीश मंगा !! (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=10121)

rajnish manga 21-02-2013 08:58 PM

!! मेरी कहानियाँ > रजनीश मंगा !!
 
आख़िरी दिन तक
(रचना: रजनीश मंगा)

धर्मार्थ औषधालय से दवा की पुड़ियाँ ले कर उसने अपने कुरते की जेब में डालीं और भारी क़दमों से घर की ओर चल दिया. तनाव के चिन्ह चेहरे पर लिए वह अपनी बस्ती की कीचड़ भरी सड़क पर आ गया. गंदे और गलीज़ बच्चे झुग्गियों के बाहर खेलने में व्यस्त थे. औरतें गली में ही कपड़े और बर्तन वगैरह साफ कर रहीं थीं. कुछ छिछोरे लड़के मेज की चार टांगों पर खड़ी चाय की दुकान के आस पास अश्लील मजाक कर रहे थे. रामधन को देख कर भी उन्होंने शायद कुछ फ़िकरे कसे, किन्तु उसने उनकी ओर कोई ध्यान न दिया और अपनी झुग्गी में आ गया.

झुग्गी का अँधेरा उसके मन को अच्छा लगा यद्यपि इस अँधेरे और घुटन को अब तक बीसियों बार शाप दिए थे उसने. एक ओर खटिया पड़ी थी जिस पर उसकी प्रिय पत्नि लक्ष्मी अपनी भीषण बीमारी से जूझ रही थी. अपने पांच वर्षीय पुत्र किशन से वह माँ के पास रहने को कह गया था, वह अब वहां नहीं था. लक्ष्मी शायद सो रही थी. रामधन यंत्र-चालित सा लक्ष्मी की खाट के पास आया और उसके क्षीण-आभा मुख को एक टक देखते हुए वहीं भूमि पर बैठ गया. उसका कंठ भरा हुआ था, वाणी जैसे अवरुद्ध हो गई थी. विव्हलता में उसने लक्ष्मी के नाम का उच्चारण किया. लक्ष्मी जग रही थी. उसने आँखें खोले बिना अपने कमजोर हाथ को सरकाते हुए अपने पति के हाथ पर रख दिया. रामधन ने प्यार और करुणा से लक्ष्मी के हाथ को अपने होंठों से लगा लिया. रोकते रोकते भी उसकी आँखों से दो बूँदें टपक ही तो पडीं लक्ष्मी के हाथ पर. उन अश्रु-कणों की उष्णता की संवेदना से लक्ष्मी ने आँख खोल दी. मुख पर उभर आने वाले चिन्ह बता रहे थे कि उसे कितना कष्ट था. टुकड़े टुकड़े शब्दों में विव्हल हो कर पति से पूछा –
“क्या हा...ल ...क.र .. लि...या ...है अ...प..ना, तु...म...ने.?
प्रश्न पूछ कर उत्तर सुने बिना उसने अपने आँखें फिर बंद कर लीं. शायद उसे मालूम था कि रामधन क्या उत्तर देगा. रामधन ने भी उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया.

rajnish manga 21-02-2013 09:05 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
दिन पर दिन रामधन का मन डूबता जा रहा था. पहले जहाँ लक्ष्मी पहले जहाँ लक्ष्मी का इलाज करवा रहा था उस डॉक्टर की बात उसे सत्य प्रतीत होने लगी थी. उसने सलाह दी थी कि वह अपनी पत्नी को किसी सेनेटेरियम में भिजवा दे और अच्छे डोक्टरों से इलाज करवाये. लेकिन इस सब के लिए रूपए कहाँ थे? जितने थे वह अब तक के इलाज में खर्च हो चुके थे. कुछ उधार भी मांग टांग कर ले लिया. अब तो मरे हुए मन से जो मजदूरी कर लेता है उससे किसी तरह दो चुल्हा ही जलाया जा सकता था, बाकी कुछ नहीं. दवा भी धर्मार्थ औषधालय से लेनी शुरू कर दी थी. अपनी परिस्थितियों के हाथ में वह बुरी तरह जकड़ गया था. बचपन से गरीबी के आँचल से खेलते हुए वह बड़ा हुआ किन्तु पहली बार गरीबी ने उसके अस्तित्व पर इतना जोर का तमाचा मारा था. पिछले एक-डेढ़ माह में उसके हँसते खेलते व्यक्तित्व पर एक आवरण सा छा गया था और उसके ऊपर बरसाती बनस्पति की तरह कोई दूसरा व्यक्तित्व उग आया था.

जाने कितनी देर तक वह उसी प्रकार बैठा रहा. किशन के आने की आहात से उसकी तन्मयता भंग हुयी. अँधेरा छितराने लगा था, उसने उठ कर लालटेन जला दिया. उसकी बीमार रोशनी में रामधन ने आशा की किरण ढूँढने की एक असफल कोशिश की और चूल्हे के निकट आ कर भोजन बनाने की तैयारी करने लगा.

भोजन का मन न करता. किन्तु पुत्र को कोई आघात न पहुंचे इस लिए उसके साथ थोडा बहुत खा लिया. शरीर धर्म भी तो पूरा करना होता है. किश्न की नन्हीं बातों से उसके मन को किंचित सनोश प्राप्त हुआ. इस छोटी सी गृहस्थी में वही केंद्र बिन्दु हो गया था. उसी से घर में रौनक थी. वही था माँ-बाप की आँखों का तारा और उनके भविष्य का सपना. माँ- बाप का जीवन जैसे उसी के लिए था.

rajnish manga 21-02-2013 09:07 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
पुत्र को सुला कर रामधन वापिस पत्नि के पास आ बैठा. पीड़ा से लक्ष्मी कभी कभी कराह उठती. पत्नि की कराह सुन कर उसके शरीर में भी दर्दीली झनझनाहट फ़ैल जाती. हथोड़े से पड़ने लगते .लक्ष्मी की पैदा आज अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक थी. रामधन व्याकुल था.
“लक्ष्मी!”
“हाँ..”
“कैसी तबीयत है?”
“ठीक .. ही... है... आ ...ह..” लक्ष्मी कराह दी.
रामधन कुछ न बोला. वह लक्ष्मी का सिर दबाने लग गया.
“सुनो...”
“हूँ..”
“ल..लग..ता.. है.. अब...”
“क्या..??”
जिस विचार को रामधन अपने म से बलपूर्वक दूर किये हुए था, उसे लक्ष्मी ने इतनी सहजता से प्रकट कर दिया था. अर्थात लक्ष्मी को भी अपनी आसन्न मृत्यु का आभास हो गया है.
“..आ..ह!..अब...मैं...जी...न ..सकूंगी...दम...घु..ट..ता...जा .. रहा...है...”
“न लक्ष्मी, ऐसा न कह! मैं तुझे मरने नहीं दूंगा. मुझे ...किशन को छोड़ कर तू कहीं नहीं जायेगी. मेरी कसम खा! ऐसी अशुभ बातें फिर न कहेगी.” रामधन तड़प कर बोला.
अत नहीं यह लक्ष्मी ने सुना या नहीं. वह अपनी धुन में बोले जा रही थी –
“ अ..प..ना..ध्या..न....र..ख़..ना....कि..श..न....का... .भी....”
“बस करो लक्ष्मी, और कुछ मत बोल...”
“...उसको...अ..प..ने...क..ले...जे....से..ल..गा...कर ...र..ख़..ना....आ..खिरी....दि..न...तक..., आ..खि..री....दि..न...तक.., आ..खि..री....दि..न...तक ....कि..श..न.. को अ..प..ने... क.ले..जे...से... ल...गा....कर ...र..ख़..ना.... आ..खिरी....दि..न...तक.. ओह..!”

सारी रात लक्ष्मी इसी तरह अस्फुट शब्दों में बोलती रही. रामधन उसी प्रकार उसके पास बैठा रहा. दिन चढ़ने के साथ ही लक्ष्मी की हालत और बिगड़ने लगी. रामधन दौड़ कर डॉक्टर को बुला लाया. डॉक्टर ने एक इंजेक्शन दिया और रामधन को एक ओर ले जा कर उसने स्पष्ट किया कि अब लक्ष्मी की इहलीला समाप्ति के निकट आ चुकी है.

rajnish manga 21-02-2013 09:14 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
रामधन की आँखों के आगे अँधेरा छा गया. आसपास की झुग्गियों के कुछ लोग उसके पास आ कर उसे ढाढस बंधा रहे थे. कोई नीति की बातें समझा रहा था, कोई जीवन की कटुता का दुखड़ा सुना रहा था. यह सब देख कर छोटा किशन कुछ न समझ कर रोने लगा.
संध्या होते होते लक्ष्मी ने प्राण त्याग दिये. रामधन पर जैसे दुखों का पहाड़ गिर पड़ा था. वह गुम सुम हो कर बैठ गया. लक्ष्मी के निर्जीव मुख को ऐसे देखता रहा जैसे अभी वह पुकार उठेगी –
“किशन के बापू!! आज फिर तुमने खाना नहीं खाया, क्यों?”
उसको लक्ष्मी जैसे कह रही थी, “किशन को माँ का प्यार भी देना ... कभी ..अलग न ... करना ..कलेजे से...तुम....सुन...रहे...हो ...न...!”

सोचते सोचते रामधन फूट फूट कर रोने लगा. उधर किशन जो अभी तक सब कुछ देख कर सुबक रहा था, अपने पिता का रोना सुन कर बड़े जोर से रोने लगा. उस रुदन सुन कर सभी उपस्थित व्यक्तियों की आँखें छलछला आयीं.सभी लोग रामधन व बालक को धीरज बंधाने में व्यस्त थे.

चिता में आग देने के बाद रामधन किशन के साथ घर वापिस आ गया. उसका कहीं मन न लग रहा था. लक्ष्मी के बिना उसकी झुग्गी का अँधेरा और घना हो गया था. घुटन बढ़ कर उसके मन मस्तिष्क पर छा गई थी. लक्ष्मी के बिना उसे अपना जीवन ही निस्सार लग रहा था. पिछले सात वर्षों की झांकियां एक के बाद एक याद आने लगीं. किशन भी आज चौकड़ी न भर रहा था, एक दम चुप बैठा था. माँ के बिना उसे बड़ा अजीब अजीब लग रहा था. थोड़ी- थोड़ी देर बाद रामधन उसे अपने सीने से लगा लेता और किशन फिर - फिर व्याकुल हो कर रोना शुरू कर देता.

शाम तक जो पड़ौसी और रिश्तेदार आते रहे थे वो धीरे धीरे उठने लग पड़े थे. दो तीन रिश्तेदार रह गए जो उसको सांत्वना दिए जा रहे थे और बीच बीच में देवी देवताओं और भक्तों की कथाएं सुना रहे थे. किशन रोते रोते सो गया था. कुछ देर बाद उसके रिश्तेदार भी सो गए. जागता रह गया केवल रामधन और उसका एकांत. लालटेन की लौ को अपलक देखते हुए घंटों वह भूत और भविष्य के विचारों में डूबा रहा. उसकी झुग्गी के निकट ही जब एक कुत्ता जोर जोर से हूकने लगा तो वह अपने वर्तमान में लौट आया. बेटे के बारे में सोचने लगा. लक्ष्मी की वही तो एक निशानी थी – किशन. उसकी दृष्टि अबोध बेटे के भोले मुख पर पड़ी और वह ममत्व से भर उठा. उसे लक्ष्मी का कहा याद हो आया. आख़िरी दिन तक मैं तुझे अपने सेने से लगाए रखूंगा, किशन, मेरे बेटे. तेरी माँ कह गई है. उसकी आत्मा को कभी क्लेश न पहुँचने दूंगा – कभी नहीं.
(क्रमशः)

agyani 22-02-2013 12:50 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
रजनीश जी , मृत्यु जीवन का अटल सत्य है परन्तु किसी करीबी की अकाल मृत्यू से जो पीडा , वेदना और मानसिक आघात का अनुभव इन्सान अपने ह्रदय मे अनुभव करता है , उसका मार्मिक और सजीव चित्रण किया आपने .................................. आपकी लेखन शैली को सलाम ! आगे...........................?

rajnish manga 22-02-2013 04:33 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
Quote:

Originally Posted by agyani (Post 235483)
रजनीश जी , मृत्यु जीवन का अटल सत्य है परन्तु किसी करीबी की अकाल मृत्यू से जो पीडा , वेदना और मानसिक आघात का अनुभव इन्सान अपने ह्रदय मे अनुभव करता है , उसका मार्मिक और सजीव चित्रण किया आपने .................................. आपकी लेखन शैली को सलाम ! आगे...........................?

:hello:

कहानी पढ़ने और पसंद करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया, ज्ञानी जी. आपकी आत्मीयता से भरी प्रतिक्रिया पढ़ कर मैं बहुत उत्साहित हूँ. आशा करता हूँ कि आप इसी प्रकार मेरे हम कदम रहेंगे. कहानी का आगामी भाग प्रस्तुत है.

rajnish manga 22-02-2013 04:39 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
सारी रात उसे नींद न आयी. भोर होने से पहले वह उठा और किशन के पास आ कर लेट गया. उसकी गर्दन क नीचे अपनी बांह लगा कर उसने उसे अपने निकट खींच लिया. दूसरे हाथ से उसके बालों बालों में उंगलियाँ फिराने लगा.जाने कब उसकी भी आँख लग गई. सुबह चाय के साथ डबल रोटी मंगवा ली.अन्य लोगों और किशन को भी दी. स्वयं रामधन कुच्छ न खा सका. वह अपने को बेजान सा अनुभव कर रहा था जैसे किसी ने उसके शरीर का सारा अक्त निचोड़ लिया हो. रिश्तेदार उन्हें उसी अवस्था में छोड़ कर चले गए. उसके सामने अब एक नयी समस्या आ खड़ी हुयी.

उसने सोचा कि घर में बैठे बैठे तो उसके मस्तिष्क की सारी नसें ही फट जायेंगी. वह पागल हो जाएगा. और अगर वह चाहे बेदिली से ही सही, अपने काम पर चला जाता है तो किशन कहाँ रहेगा. किशन को अकेले छोड़ कर जाना उसे अच्छा नहीं लगा अतः किशन को उसने साथ ही ले लिया.

रामधन दुखद स्मृतियों को अपने मन से दूर रखना चाहता था. किन्तु उसका यह प्रयास सफल न हो सका क्योंकि यादों का चलचित्र मन में ज्यों का त्यों चलता रहा. आदत से साढ़े हुए हाथ ईंटों की चिनाई कर रहे थे. इस बीच दो-तीन बार हाथ और दिमाग़ का संयोजन टूट गया. एक बार तो ईंट उसके हाथ से छूट कर नीचे खड़े हुए एक और कामगार के कंधे को छूती हुयी जमीन पर आ गिरी और दूसरी बार वह स्वयं ऊपर से गिरते गिरते बचा.

rajnish manga 22-02-2013 04:43 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
दुर्घटनाएं होते होते बचीं. उसकी मानसिक दशा का सभी को भान था फिर भी कईयों ने बुरा भला कह सुनाया. कई साथी कामगारों ने उसको आराम करने की सलाह दी तथा सहानुभूति का प्रदर्शन भी किया. रामधन अच्छा कारीगर था किन्तु आज उसके ठेकेदार ने भी ऊंचा नीचा कह सुनाया. एक तो पत्नि की मौत का सदमा, उस पर ऐसे उखड़े हुए व्यवहार का आघात उसे भीतर तक बेध गया. उसका मन कटुता से भर उठा. वह इस माहौल से दूर भाग जाना चाहता था. वहां, जहाँ दो क्षण के लिए उसे शान्ति मिल सके. इस जगह तो वह घुट के मर जायेगा. कुछ सोच में और कुछ काम में समय निकल गया. इस बीच किशन दो-तीन बंद खा चुका था और उसने खेलने के लिए कुछ साथी भी यहाँ ढूंढ लिए थे.

पगार देते समय ठेकेदार ने फिर दो चार कड़वी बातें कह दीं. रामधन खुल उठा, किन्तु वह विवाद से बचाना चाहता था अतः आक्रोश को पी गया. किशन का हाथ पकड़े हुए वह मुर्दा क़दमों से सड़क पर आ गया. चौक पर पहुँच कर उसने पल भर सोचा और एक ढाबे में जा पहुंचा. किशन के लिए उसने भोजन की थाली मंगवा ली. उसकी आंतें भी सिकुड़ रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था.

दिन भर का थका हारा, भूखा, लक्ष्मी के वियोग से टूटा हुआ रामधन अपनी बस्ती में जाते जाते दोसरी और मुड़ गया. किशन ने आश्चर्य से अपने बापू को देखा. रामधन ने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरा जैसे यह उसके मूक प्रश्न का उत्तर हो.

रामधन दारू के अड्डे पर आ पहुँच. यहाँ मजदूरों द्वारा सेवन की जाने वाली सस्ती शराब जिसे यहाँ “कच्ची शराब” के नाम से पुकारा जाता था बिकती थी. काफी देर तक वह बदहवास सा ठेके के सामने खड़ा रहा. किशन भी विस्फारित नेत्रों से वहां का अजीब दृश्य देखने लगा. रामधन सहमा हुआ था, वह स्वयं यहाँ पहली बार आया था. उसे साहस न हुआ अपने बेटे के सामने दारू पीने का.उसने किशन को बाहर ही एक बंद दुकान के पायदान पर बैठा दिया और स्वयं दारू की दुकान में चला गया. एक के बाद एक चार गिलास वह एक ही सांस में पी गया. गले के नीचे उतरती कड़वी शराब उसे इसे लगी जैसे उसकी अपनी घुटन, दुखद स्मृतियाँ, लक्ष्मी की मौत से उपजे खालीपन, ठेकेदार के प्रति रोष, अभाव से पैदा हुयी कुंठा आदि की समस्त पीड़ा उसके गले से नीचे उतर रही हो.

rajnish manga 22-02-2013 04:46 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
किशन को ले कर वह घर आ गया. उसको उसने आते ही सुला दिया. झुक कर उसके माथे को चूमा और लक्ष्मी की चारपाई के पास आ कर सिरहाने की ओर भूमि पर पहले ही की तरह बैठ गया और बारी बारी से सिरहाने, बिस्तर, खाट के पाए आदि का स्पर्श करके जैसे कुछ याद करने लगा. दारू का असर होने लगा था. स्मृतियाँ भी चंचल और अस्थिर होने लगीं. गला भर्राने लगा और शरीर में एक ढीलापन व्याप्त होने लगा. नींद की झपकी आने लगी, क्षण भर को लक्ष्मी और किशन के चेहरे उसके अंतर में कौंध जाते.

“मेरा बेटा ....मेरा..प्यारा बेटा” कहते हुए वह उठा और लड़खड़ाते क़दमों से किशन की खाट तक आया. उसका सिर घूम रहा था. कष्ट से उसने अपनी आँखें खोलते हुए बालक को बड़ी ममता, प्यार व श्रद्धा की मिश्रित भावना से देखा और उसके निकट आकर लेट गया, उसे अपने वक्ष से लगा लिया और उसके मुख और कन्धों को इस प्रकार स्पर्श किया जैसे उसके आरोग्य का मन्त्र सिद्ध कर रहा हो. धीरे ...धीरे...धीरे वह भी गहरी नींद में उतरता चला गया. किशन उसी प्रकार उसकी छाती से लगा हुआ सो रहा था.

और यह नींद रामधन की आख़िरी नींद साबित हुई और यह दिन उसकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन. अगले दिन के समाचार पत्रों में खबर छपी कि विषाक्त शराब पीने से पैतीस व्यक्ति काल कवलित हो गए. उन पैंतीस में से एक रामधन भी था.

--रचना काल : 09/08/1977--
(मित्रो, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि यह कहानी एक ऐसी दुर्घटना की पृष्ठभूमि में लिखी गई है जो जुलाई या अगस्त 1977 में हमारी राजधानी दिल्ली में घटी थी जिसमे ग़ैर कानूनी तौर पर शराब बनाने और बेचने वालों के हाथों लगभग 35 निर्दोष व्यक्तियों को जान से हाथ धोना पड़ा था)
*****

The Hell Lover 24-03-2013 10:31 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
"उसकी आंतें भी सिकुड़
रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे
अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था."

क्या बात कही हैं? बहुत मार्मिक कहानी लिखी हैं।

rajnish manga 25-03-2013 12:37 PM

Re: मेरी कहानियां/ आख़िरी दिन तक
 
Quote:

Originally Posted by The Hell Lover (Post 246355)
"उसकी आंतें भी सिकुड़
रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे
अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था."

क्या बात कही हैं? बहुत मार्मिक कहानी लिखी हैं।

:hello::hello:

बंधु, मैं नहीं जानता कि आपको किस नाम से संबोधित करूं. लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि आप कहानी के मर्म तक पहुँच सके और रामधन की पीड़ा को समझ पाए. आपकी सहृदयतापूर्ण टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.
जय जी, आपको भी यहाँ देख कर अच्छा लगा. हार्दिक धन्यवाद.

rajnish manga 19-07-2013 08:35 PM

मेरी कहानियाँ / कातरा
 
मेरी कहानियाँ / कातरा
माँ-बाप ने बड़े लाड़-प्यार और दुलार से पाला था मुझे. अपने इस दुलार के अनुरूप ही उन्होंने मेरी शादी बड़ी धूम धाम से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर नगर के एक स्वस्थ, सुन्दर और योग्य युवक के साथ की थी. उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी.

मुझे भी जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी. पति का प्यार पा कर मैं धन्य हो गयी थी. दो छोटी ननदें तो खाना तक मेरे हाथ से खाती थीं. सास श्वसुर आशीर्वाद देते न थकते थे. जीवन का हर क्षण आनंद से व्यतीत हो रहा था. चार माह पंख लगा कर कैसे उड़ गए, पता ही नहीं लगा. लेकिन एक दिन अचानक मुझ पर गाज गिर पड़ी. एक ही झटके से मेरा सुन्दर, हँसता, खेलता संसार झुलस गया. सब कुछ लुट गया, समाप्त हो गया. मेरे पति अपनी फैक्टरी की मजदूर यूनियन के नेता थे. अफसरों के साथ उनकी किसी मामले को ले कर तना तनी चल रही थी. मालिकान उससे रुष्ट थे. तनाव का वातावरण उत्पन्न हो गया था.

रोज की तरह उस दिन भी हम लोग अपने घर में सोये हुए थे. वह एक भयानक रात थी जब काली रात के अंधकार में द्वार पर एक दस्तक हुयी. देखा तो एक आदमी था. उसने सूचना दी कि फैक्ट्री में एक कर्मचारी को मशीन से गंभीर चोटे आई है. मैंने इन्हें रोकने की बहुत कोशिश की. वास्तव में मुझे डर लगने लगा था और पता नहीं क्यों मेरे मन में अजीन अजीब तरह की आशंकाएं सिर उठने लगीं थी. वे नहीं माने, उस व्यक्ति के साथ चल दिए. उस रात वह जो घर से बाहर गए, तो लौट कर वह तो नहीं आये; उनका पार्थिव शरीर ही घर वापिस आया. सुबह उनकी लहू लुहान देह शहर के बाहर गन्ने के खेतों में पायी गई.

मैं संज्ञा शून्य हो गई थी. इस अवस्था में रहते हुए मैंने पाया कि मैं अपने लोगों के बीच ही अजनबी होती जा रही हूँ. अब वो पहले सा वात्सल्य न झलकता था सास श्वसुर के व्यवहार में. इसकी जगह एक अजीब सी काटने वाली तटस्थता ने ले ली थी. कहीं आग्रह न था. शनै: शनै: मैंने पाया कि उन लोगों ने जान बूझ कर इस दूरी को बढ़ावा दिया था.मेरे लिए उनका आश्रय भी दूर होता गया. मैं इस अंधकार में अकेली भटकने लगी थी.मेरे हरे भरे जीवन में जैसे कातरा (फसलों को नष्ट कर देने वाला कीड़ा) लग गया था.

rajnish manga 19-07-2013 08:36 PM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
पति के जाने के बाद अधिक समय तक उस घर में रहना मेरे लिए असंभव हो गया क्योंकि मुझे अनुभव हो गया कि मेरी उपस्थिति वहां सभी को खटकने लगी थी. मुझे अशुभ माना जाने लगा और मेरा होना वहां पर अपशकुन की निशानी करार दिया गया. वो लोग जैसे मुझे ही मेरे पति की मौत का कारण मान रहे थे. कुलक्षिणी कही गई. जब यह सब हद से बढ़ गया और मेरे लिए असह्य हो गया, तो मैं अपने माता पिता के यहाँ आ गई. जीवन सूखा ठूंठ सा हो कर रह गया. हाय! फसल पाने से पहले ही उस पर कातरा लग गया. माता पिता मेरे आंसू न देख सकते थे, उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया. मन को बड़ी शांति मिली. लेकिन इस रकार मैं न पर बोझ बन कर न रहना चाहती थी. उनके चरणों में रहने का स्थान मिल गया था, यही कुछ कम न था. मन में निश्चय कर के मैंने बी.एड. करने का फैंसला किया. डिग्री मिलने के बाद, एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी भी मिल गई.

बड़ा सीधा साधा और सरल जीवन और खाना पहनना हो गया था. बोलती मैं पहले भी कम थी, अब तो सीमित बोलना मेरी आदत बन चुकी थी. अपने काम से काम रखना मुझे पसंद था.अन्य लोगों से मिलने जुलने में भी मुझे कोई रूचि नहीं रह गई थी. हाँ, इसके बावजूद मैं अपनी कक्षा की लड़कियों के विकास को सर्वोपरि मानती और कक्षा में पढ़ाये जाने वाले विषय और कक्षा के बाहर की क्रियाओं को पूरा महत्व देती. जब भी स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते, मैं तन्मयता से उसमे जुट जाती एवं उसे अच्छे से अच्छा बनाने के लिए रुचिपूर्वक सारी तैयारी करवाती. वर्ष में एक बार विभिन्न टीमें मंडलीय स्तर के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए जाती थी. मैं भी अपने विद्यालय की टीम को ले कर जाया करती थी. एक टीम उसी प्रकार लड़कों भी होती. इस प्रकार पढ़ाई और अपने विद्यार्थियों के खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी में मैं अपने घावों की पीड़ा को भूल गई थी. दूसरे, समय काटने की समस्या भी जाती रही और मैं खुद को अपने माता पिता पर भार न समझती. मैं इस घर की पुनः एक सामान्य सदस्य हो गई थी.

rajnish manga 19-07-2013 08:37 PM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
छः वर्ष का अंतराल कम नहीं होता. आज सोचती हूँ तो लगता है जैसे छः दिन में ही यह सब कुछ पाया, खोया और फिर पाने की कोशिश कर रही हूँ. मेरे अनुभव ने मुझे बताया कि व्यक्ति में असीम शक्ति का स्रोत छिपा है जो देश काल का मोहताज नहीं होता.

पिछले वर्षों की भाँती इस वर्ष भी मंडलीय प्रतियोगिता में हमारे नगर से दो टीमे गई थीं – एक लड़कों की और एक लड़कियों की. मैं लड़कियों की टीम का नेतृत्व कर रही थी. दूसरी लड़कों की टीम, मुझे पता लगा कि, किन्हीं लोकेश जी के नेतृत्व में जा रही थी.

जाते समय लोकेश जी जितने दूर थे और जितने अजनबी थे, वापसी पर वह उतने ही आत्मीय हो चुके थे. उनका निश्छल सौहार्द्य और स्नेहपूर्ण व्यवहार, गंभीरता और शिष्ट हास्य उनके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष थे जिन्होंने मुझे अभूतपूर्व रूप से उनकी ओर आकृष्ट किया था. उनके लिए मन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी. यूं भी वे मुझसे कम से कम दस वर्ष तो बड़े रहे होंगे. यह लोकेश जी से मेरी पहली भेंट थी. मैंने उनको घर आने का निमंत्रण दिया.

इस के बाद लोकेश जी हमारे घर पर आते रहे. हर बार उनके व्यक्तिव के नए पहलू खुलते, जीवन के कुछ नए रूप दिखाई देते और कई नई बातें उनके बारे में मालूम होतीं. वह लगभग 40 वर्ष के स्वस्थ व्यक्ति थे. शादी अभी तक न की थी. वह तो कहते थे कि शादी का विचार ही न आया. अक्सर उनके शैक्षणिक अनुभव भी मेरे काम आते.

लोकेश जी के प्रति मेरी श्रद्धा ह्रदय में गुदगुदी करने वाली निकटता में तब्दील होने लगी. इस भावना को क्या नाम दूँ? क्या यह प्यार है या यह मेरे ह्रदय की कोई दुर्बलता है? क्या मुझे प्यार करने का कोई हक़ है? क्या मैं किसी पुरुष द्वारा चाहे जाने के योग्य हूँ? अथवा, चेतन होते हुए भी जड़ता का नाटक करना मेरी नियति है? इसी वैचारिक उहापोह के पथरीले रास्तों से होता हुआ लोकेश जी के प्रति मेरा प्यार छटपटाने लगता था. इससे पहले कि पत्थरों से टकराकर मैं अपने व्यक्तित्व के टुकड़े कर लेती, लोकेश जी ने आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लिया और मुझे सम्हाल लिया. हम दोनों ही एक दूसरे के प्रति आकृष्ट थे, हम दोनो जैसे एक दूसरे की तलाश कर रहे थे. उनके एक उद्गार में मेरा जीवन प्रकाशित कर दिया.

वर्षों के अंतराल के बाद वही चंचलता, वही अल्हड़ता, वही बालपन आज जैसे लौट कर आ गया. मेरी प्रसन्नता की आज कोई सीमा नहीं. ह्रदय की गति मेरी पकड़ में नहीं आ रही. ओह ईश्वर! तूने एक साथ ढेरों खुशियाँ मेरी झोली में डाल दीं. मुझे डर है कहीं मैं दीवानी न हो जाऊँ. रह रह कर लोकेश जी का सौम्य मुख-मंडल मेरी कल्पना के झरोखों से सम्मुख आ जाता है और मैं उनके विचार मात्र से लाज से भर जाती हूँ.

“मन्नी, सच कहूं! मुझे आज तक जिस लडकी की तलाश थी वो तुम हो, तुम्हीं हो,” मैं बहुत थक गया हूँ, मुझे तुम्हारा साथ और सहारा चाहिये, हम दोनों के लिए यह भी किसी वरदान से कम नहीं था कि हम दोनों के माता पिता ने भी हमारी नयी ज़िंदगी के लिए आशीर्वाद दिया.

dipu 20-07-2013 03:45 PM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
Great

rajnish manga 21-07-2013 12:30 AM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
Quote:

Originally Posted by dipu (Post 325073)
great

कहानी पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, दीपू जी.

sombirnaamdev 21-07-2013 10:32 AM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
thanks to share manga nice

rajnish manga 21-07-2013 12:46 PM

Re: मेरी कहानियाँ / कातरा
 
Quote:

Originally Posted by sombirnaamdev (Post 325926)
thanks to share manga nice



:hello:
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, सोमबीर जी.

rajnish manga 26-08-2013 11:12 PM

मेरी कहानियाँ / आत्महत्या
 
मेरी कहानियाँ / आत्महत्या

“यह खून? यह खून यहां कैसे आया?” एस.एच.ओ. ने अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मी से फर्श पर दृष्टि गड़ाते हुये पूछा.

“कहाँ साब .... ?”

“अबे ये मेरे पांवों के पास ... है कि नहीं ... ?”

“मुझे तो साहब नजर नहीं आ रहा ... हिच .. “

“हिकमत सिंह, लगता है तूने ज्यादा पी ली है ...”

“हाँ ... सरकार ...हिच ... नहीं ... सरकार .. “

“तो ये खून तुझे दिखाई नहीं देता?”

“हाँ .... सरकार ...हिच ... कुछ दीखता तो है ... “

कांस्टेबल हिकमत सिंह अपने अफसर की हाँ में हाँ मिलाने को ही अपना फ़र्ज़ मानता था. नशे के जोश में उसने कुछ अटपटा बोल दिया था लेकिन जल्द ही उसने स्वयं को सम्हाल लिया.

“हाँ सा’ब बिलकुल है .. हिच ... ”

“जानता है यह खून किसका है?

“मैं तो कांस्टेबल हूँ सरकार .. “

“ताराचंद जाट का ... “ उसे कानाफूसी का स्वर सुनाई दिया. शराब के नशे में एस.एच.ओ. भी खुलने लगा था. कांस्टेबल जानते हुये भी पहल न कर रहा था.

“हाँ सरकार ... उसी का है ... ठीक?”

“उसका खून किसने किया? जानते हो?”

“नहीं सरकार ... हिच .. किसी ने भी नहीं ... उसने तो .. हिच .. आत्महत्या कर ली बताते हैं ... “

“शाबाश, अब तुमने जिम्मेदारी का परिचय दिया है ... हमें यही साबित करना है कि उसने आत्महत्या कर ली है ... “

“यह काम तो ...हिच .. बाए हाथ का है ... बाएं हाथ का ... आप क्या नहीं कर सकते .. हिच ..? विलायती बोतल बहुत.. हिच .. उम्दा थी सा’ब ... “

“ अबे चुप ...”

“भगवान ... हिच ... आपका इकबाल .. हिच .. बुलंद करे ... हिच .. “
**

rajnish manga 26-08-2013 11:19 PM

मेरी कहानियाँ / हितैषी कौन?
 
मेरी कहानियाँ / हितैषी कौन?

ट्रेड यूनियन लीडर भाषण दे रहे थे,

“कुछ स्वार्थी लोग हम पर ये इलज़ाम लगाते हैं कि हमारी मांगें जायज़ नहीं हैं. हमारा यह रिकॉर्ड रहा है कि हम हमेशा जायज़ मांगों के समर्थन में ही आन्दोलन करते हैं, नाजायज़ के लिए नहीं. और लोकतांत्रिक तरीकों से ही हमने अपनी मांगें मनवाई हैं. साथियो, यह समय हमारी परीक्षा की घड़ी है. पिछले कई वर्षों में हमारी एकता ने जो संघर्ष की परम्पराएं कायम की हैं, उनको आगे बढ़ाना है. अपने नोटिस के आधार पर हम कम्पनी में अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा करते हैं.”

इधर मजदूरों ने अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा की, उधर प्रबंधकों ने भी तालाबंदी की घोषणा कर दी. यूनियन ने श्रम-अदालत में तालाबंदी की घोषणा को चुनौती दी. अदालत ने फैंसला दिया कि तालाबंदी अवैध है.

इस फैंसले के बाद आन्दोलन तेज हो गया. इसी बीच यूनियन के दो बड़े लीडर लापता हो गये. सबको सांप सूंघ गया.

दो दिन बाद उन दोनों लीडरों की लाश क्षत-विक्षत हालत में शहर के बाहर, खेतों में मिली. मजदूरों में भयंकर रोष फैल गया, जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा हो. कम्पनी के प्रबंधकों का घर से निकलना दूभर हो गया.

पुलिस भी तहकीकात में सक्रिय हो गई. निरंतर छानबीन के बाद जो तथ्य सामने आये उसने सबके होश उड़ा दिये. जांच में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि यूनियन लीडरों की हत्या में कम्पनी प्रबंधकों का नहीं बल्कि दूसरी यूनियन के लोगों का हाथ था जो कई बरस से इस कम्पनी में अपना झंडा लहराना चाहते थे, किन्तु अब तक सफल नहीं हो पाए थे.

दूसरी यूनियन वालों ने मौके का फायदा उठा कर इन लीडरों को ठिकाने लगवा दिया ताकि हत्या का दोष कम्पनी के प्रबंधकों के सिर मढ़ा जाये. लेकिन सच्चाई छुपी न रह सकी.
**

rajnish manga 26-08-2013 11:25 PM

मेरी कहानियाँ / क्या समझा था क्या निकला?
 
मेरी कहानियाँ / क्या समझा था क्या निकला?

एक सिद्ध पुरुष थे. उनके भक्त उन्हें ईश्वर का अवतार मानते. वे हवा में हाथ उठाते और उनके हाथ में बहुत आश्चर्यजनक रूप से वस्तुएं प्रगट हो जातीं जैसे फूल, फल, हीरे, विदेशी घड़ियाँ और करेंसी नोट इत्यादि.

कुछ लोग ख़ुफ़िया तौर पर सिद्धपुरुष के जीवन की छानबीन सूक्ष्मता से कर रहे थे. उन लोगों को सिद्धपुरुष के बहुत से क्रिया-कलाप रहस्यमय प्रतीत हए.

अन्ततः, ख़ुफ़िया रिपोर्टों के प्रकाश में सिद्धपुरुष के आश्रम पर रेड पड़ गयी. वहां बहुत से तस्कर भाई और उनका तस्करी का कुछ माल बरामद हुआ. भक्तों के साथ सिद्धपुरुष को भी हिरासत में ले लिया गया.

अखबारों में उनके कारनामों के बारे में पढ़ पढ़ कर उनके अधिकतर भक्त और उन्हें अवतार मानने वाले सज्जन बहुत लज्जा का अनुभव करते. सोचते – क्या समझा था, क्या निकला.

पुलिस ने एक सप्ताह का रिमांड ले लिया. सिद्धपुरुष किसी से कुछ नहीं बोले. रात में उन्हें पुलिस लॉक-अप में ही रखा गया.

अगली सुबह तहलका मच गया. सिद्धपुरुष अपने सैल में नहीं थे. गेट पर ज्यों का त्यों ताला लटका हुआ था. कहीं पर सींखचे काटे जाने का भी चिन्ह नहीं था. फिर क्या हुआ? धरती निगल गई या आसमान खा गया? क्या वे वास्तव में सिद्ध पुरुष थे?

उनके भक्त पुनः स्वयं को लज्जित अनुभव कर रहे थे – क्या समझा था, क्या निकला?
**

Dark Saint Alaick 26-08-2013 11:42 PM

Re: मेरी कहानियाँ / क्या समझा था क्या निकला?
 
श्रेष्ठ लघुकथा है, मित्र। यह अनेक सन्देश देती है, लेकिन मैं इससे जो सन्देश ग्रहण कर रहा हूं, वह यह है कि आंखों-देखी, कानों सुनी बात सदैव सच नहीं होती। किसी भी बात अथवा घटना को परखने के बाद ही, उस पर यकीन करें। इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए धन्यवाद। :hello:

rajnish manga 27-08-2013 10:31 PM

मेरी कहानियाँ / गलती की सजा
 
मेरी कहानियाँ / गलती की सजा

विजिलेंस वालों ने रिश्वत लेते आखिर उसे रंगे हाथों पकड़ ही लिया. फ़ौरन चार्जशीट और सस्पेंशन ऑर्डर आ गये. पकडे गये कर्मचारी की सारे विभाग में निंदा हो रही थी.

हैड साहब कह रहे थे – “मुझे सत्रह साल हो गये. मैं भी खाता हूँ, कौन नहीं खाता? लेकिन मजाल है किसी ने आज तक मुझ पर उंगली उठाई हो. एक ये हैं कि ... “

कैशियर ने समर्थन किया, “अरे हैड साहब, वाजिब खायेगा तो पचेगा, गैर-वाजिब खायेगा तो कैसे चलेगा? ऐसे ही लोग डिपार्टमेंट की बदनामी करवाते है.”

किसी ने रोक कर कहा, “यार उस बेचारे की तो नौकरी खतरे में है और तुम उसी को कोस रहे हो.”

इस पर एक मोटे से क्लर्क ने जैसे निंदा प्रस्ताव का उपसंहार करते हए कहा, “जो जैसा करेगा वो वैसा ही भरेगा भाई.”

rajnish manga 27-08-2013 10:41 PM

मेरी कहानियाँ / लक्ष्मी
 
मेरी कहानियाँ / लक्ष्मी

“तीन लाख”

“पांच लाख”

“कुछ तो कम कीजिये .. ”

“पांच से कम नहीं होगा, मदन लाल जी...”

“देखिये, मैं एक से तीन तक आ गया हूँ ... आप भी तो कुछ कम करें, भाई साहब .. “

“किस बात के कम करूं. लड़का इंजीनियर है ... “

“फिर भी, मैं बड़ी आशाएं ले कर आपके पास आया हूँ ... मेरी आपसे विनती है कि ... “

“इस मामले को छोड़ कर मैं अन्य किसी भी विषय में आपकी बात मानने के लिए तैयार हूँ. पुरानी यारी कम थोड़े ही हो सकती है ... ”

“हनुमान प्रसाद जी, मेरी लड़की एक दम लक्ष्मी है लक्ष्मी .. “

“छोड़िये इस बात को, मदन लाल जी ...फिलहाल तो आप धन-लक्ष्मी की बात करो ... ”

मदन लाल जी से अब ज़ब्त न हुआ ... जाने के लिये एक दम उठ खड़े हुये. उन्हें उस जगह पर जले हुये मांस की दुर्गन्ध आने लगी थी.
**

rajnish manga 27-08-2013 10:46 PM

मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य
 
मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य

लोकल बॉडी के चुनाव हुये तो शहर के वार्ड नंबर 13 से सुभाष चंद जी विजयी घोषित किये गये. पिछली बार एक महिला चुनाव में विजयी हुई थी जो अपने पार्षद पति की मृत्यु के बाद उन के स्थान पर चुनाव लड़ी थीं. उनके कार्य काल में कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ था.

नये पार्षद युवक थे और उत्साही थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एम.एल.ए. के भी नज़दीक थे. उन्होंने चुनाव के छः माह बाद ही प्रशासन से प्रोजेक्ट पास करवाया और वार्ड के उन इलाकों में जहां सड़कें टूटी हुई थीं या जहां बरसात का पानी जमा हो जाता था, वहां सीमेंट वाली सड़कों के निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया. दो माह में लगभग सभी पॉकेट्स में सड़कें बन कर तैयार हो गयी जिसका जनता ने स्वागत किया.

वार्ड में एक पॉकेट ऐसी थी जहां सड़कें अभी तक खस्ता हालत में थीं. कारण? कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे. **

Dark Saint Alaick 28-08-2013 03:08 AM

Re: मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य
 
रजनीशजी, कथा कुछ अधूरी प्रतीत होती है, अथवा अंत परिपक्व नहीं लगता। मेरी दृष्टि में, कथा का सबसे बेहतर अंत 'कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे ...' पंक्ति पर ही है। कुछ और छूट लेना चाहें, तो '...पार्षद उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था' ... पर विराम हो जाना चाहिए, बाद की 'सफाई' कथा को बेवज़ह कमजोर करती है। हां, मैं कथा का अंत इस पंक्ति से करना पसंद करूंगा '... और अगला चुनाव वे हार गए।' धन्यवाद।

rajnish manga 28-08-2013 01:48 PM

Re: मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य
 
Quote:

Originally Posted by Dark Saint Alaick (Post 359408)

रजनीशजी, कथा कुछ अधूरी प्रतीत होती है, अथवा अंत परिपक्व नहीं लगता। मेरी दृष्टि में, कथा का सबसे बेहतर अंत 'कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे ...' पंक्ति पर ही है। कुछ और छूट लेना चाहें, तो '...पार्षद उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था' ... पर विराम हो जाना चाहिए, बाद की 'सफाई' कथा को बेवज़ह कमजोर करती है। हां, मैं कथा का अंत इस पंक्ति से करना पसंद करूंगा '... और अगला चुनाव वे हार गए।' धन्यवाद।

अलैक जी, उक्त लघुकथा के विषय में आपकी टिप्पणी बहुत सटीक है. कथा या लघुकथा में कथा के अंतिम बिंदु का महत्व सर्वोपरि है. अतः आपकी बात से सहमत होते हुये इसे irony वाले बिंदु पर लाकर समाप्त कर दिया गया है. आपका हार्दिक धन्यवाद.

dipu 28-08-2013 09:22 PM

Re: मेरी कहानियाँ / लक्ष्मी
 
:bravo:

dipu 28-08-2013 09:23 PM

Re: मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य
 
:bravo:

dipu 28-08-2013 09:27 PM

Re: मेरी कहानियाँ / गलती की सजा
 
:banalama::banalama:

rajnish manga 03-09-2013 12:06 PM

मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
बजरंगी जी का क्रोध बड़ा प्रसिद्ध था. साठ की उम्र में भी ऐसा जोरदार क्रोध कि आस पास के दुकानदार भी उनकी लीला देख देख कर परेशान हो जाते थे.

कभी कोई बच्चा सौदा सुल्फा लेने आता और गलती से कह बैठता, “लाला, धनिया अच्छा वाला देना ...!” सुनते ही बजरंगी लाला का पारा सातवें आसमान पर.

“भेज देवें हैं पैदा होते ही छोरे छोरियों को सौदा लेने के लिये. अबे हमारे पास घटिया सामान का क्या काम? सुसरे कहीं के .. “

अब सौदा लेने कौन आया है? स्त्री है या वृद्ध है? अथवा कोई नौजवान. इसका उनके उनके व्यवहार पर कोई असर नहीं होता था. अभी कल ही की बात है. एक स्त्री का पैर साबुत लाल मिर्चों की बोरी से स्पर्श कर गया. बस फिर क्या था. उन्होंने आव देखा न ताव, फट पड़े,

“टाबर लियां लियां घूमती फिरो. किसी दुकान पर कैसे खड़ा हुआ जावे है, यह भी मालूम नहीं. पावली की चीज लेनी है कोई दूकान तो नां खरीदनी?”

लाला बजरंगी के घर में उनके और ललायिन के अलावा छोटा वीजू भी था. दोनों की कोई संतान जीवित न रह सकी थी. एक लड़का तो जवान उम्र में ही भगवान को प्यारा हुआ था. पूरा अट्ठारह का था जब एक अजीब सी बिमारी का शिकार हो कर दो दिन में ही चल बसा था. दो बच्चे बचपन में ही मृत्यु का शिकार हो गये थे. भाग्य के इस न्यारे खेल का बजरंगी लला और उनकी धर्मपत्नी पर भिन्न भिन्न प्रभाव हुआ. बजरंगी लाला इस सब को शांतिपूर्वक सहन तो कर गये लेकिन मन में एक रिक्तता, तिक्तता व एक कड़वापन स्थाई रूप से व्याप गया था. ढलती उम्र में जिसका एकमात्र जवान बेटा साथ छोड़ कर चला गया हो, वह किससे लड़ेगा, किससे बदला लेगा या इसके वास्ते किसे कोसेगा? बजरंगी लाला ने बदले की किसी भी भावना को मन में ही दमित कर दिया था. कहीं अपना क्षोभ प्रगट नहीं किया. किसी को कोई इलज़ाम नहीं दिया. उन्होंने होनी को ईश्वर प्रदत्त मान कर स्वीकार कर लिया था. किन्तु उनका बदला हुआ कसैला व्यवहार इस बात से इनकार कर रहा था. हर समय गुस्सा, हर समय कुढ़न, हर समय चुभन.

rajnish manga 03-09-2013 12:08 PM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
दूसरी ओर ललाइन का ध्यान भजन पूजन में लगने लगा था. जो स्त्री कभी अपनी मीठी बोलचाल से घर भर और मोहल्ले में मिठास भर देती थी, ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसके चेहरे पर उभरती उम्र की लकीरें अब उसके मन पर भी खिंच आयी थीं. बोलना बतियाना जैसे उससे रूठ गये थे. बजरंगी लाला अपनी पत्नि का यद्यपि बहुत आदर करते थे और उनसे बेहद लगाव भी रखते थे, किन्तु गुस्सा !! तौबा ..... तौबा ... बात बाद में निकलती, गुस्सा पहले प्रगट हो जाता. वो मूर्तिमान क्रोध थे. क्रोध बजरंगी जी के व्यक्तित्व का हिस्सा हो कर उनसे से चिपक गया था जैसे. ललाइन पर भी बिगड़ जाते, किन्तु ललाइन के सहनशील स्वभाव के आगे वे दब जाते.

इन दोनों के अलावा घर में तीसरा प्राणी था वीजू. पुत्र की मृत्यु के बाद सहारे के लिए तथा गहन अकेलेपन को पूरने के लिए बजरंगी लाला ने इष्ट मित्रों से सलाह ले कर अपनी बुआ के पोते वीजू को गोद ले लिया था.

आरम्भ में यह सोचा गया था कि वीजू अधिकतर घर पर ही रहेगा ताकि ललाइन का मन लगा रहे. किन्तु यह क्रम अधिक दिनों तक न चल सका. धीरे धीरे लाला जी ने उसे दूकान पर बिठाना शुरू किया. स्कूल से आने के बाद खाना खाता और सीधे दूकान चला जाता. एक बच्चा तिखुंटे में बंध कर रह गया – घर, स्कूल, दुकान. खेलकूद बंद, हमजोलियों से मिलना बंद और सबसे बढ़ कर पतंगबाजी बंद. उसे पतंग उड़ाने का बहुत शौक था.


rajnish manga 03-09-2013 12:10 PM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
बजरंगी लाला के क्रोध का यदि कोई शख्स बुरी तरह शिकार बना था तो वह वीजू था. वह जितनी देर तक दुकान में लाला जी के साथ रहता उसका मन अस्थिर रहता. शरीर स्वतः कांपता रहता. छोटी से छोटी बात भी बजरंगी लाला को कब कितना क्रोधित कर दे, कोई नहीं जानता था. बेचारा वीजू उनके सामने क्या बोल सकता था? वह तो जैसे शेर के सामने एक मेमना था, अतः हमेशा भयभीत रहता. पिता का प्यार क्या होता है उसने देखा ही न था.

एक दिन की बात है कि एक कटी हुई पतंग सामने वाली छत पर आ गिरी. संध्या समय जब दुकान बढ़ाने से पहले, बजरंगी लाला सामान अन्दर रख रहे थे, और वीजू से भी रखवा रहे थे, वीजू वहां से रफ़ू चक्कर हो गया. लाला बाहर आये तो तो हैरान! कहाँ गया लड़का? दो ही मिनट में वीजू पीछे हाथ बांधे हुये आ पहुंचा. लाला सातवें आसमान से बोले, “कहाँ गया था??”

“ प ..प... प..तंग ..”

अभी बेचारे के मुंह से पूरी बात भी न निकली थी कि लला ने उसको अपने बाएं हाथ से झकझोरते हए अपने निकट खींचा और दाए हाथ से ऐसा झन्नाटेदार तमाचा मारा कि वीजू लड़खड़ाता हुआ सड़क पे आ गिरा. पतंग की डोर उसके हाथ में ही रही.

वीजू को गिरते देख कर आसपास के कई दुकानदार भागकर आये और उसको सड़क से उठा कर बजरंगी लाला को बुरा भला कहने लगे.

“पागल हो गये हो क्या?”

“मार ही डालोगे बेचारे को ....?”

“छोटे बड़े का भी कोई ध्यान नहीं ...?”

“लाला ! अपनी उम्र का ख़याल तो रखो ...!”

“अपना नहीं है न .... अपना होता तो ...!”

rajnish manga 03-09-2013 12:11 PM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
पहले तो लाला गुस्से में बोलते ही बोलते थे, लेकिन पिछले कुछ माह से हाथ भी उठाने लगे थे. कभी कान उमेठना, बांह पकड़ कर खींचना, गाल में चुटकी काटना आदि आम बातें थीं. अब थप्पड़बाजी पर भी आ गये थे. जब जी में आया जड़ दिया. वीजू घर पर आता तो ललाइन के सामने खूब रोता. कहता,

“चाची, देखो चाचा मुझ पर सारा दिन कितना गुस्सा करते हैं. मैं दूकान पर नहीं जाऊँगा चाची. मुझे दूकान पर मत भेजना.” और भी न जाने कितनी बातें कह जाता.

ललाइन उसका पक्ष ले कर बजरंगी लाला से कहा सुनी करती. उन्हें अपना व्यवहार फेरने की बात कहती. लाला जी अंत में यह कह कर बार को विराम लगाने की कोशिश करते, “रमेश की मां, पक्की ठीकरी में अब क्या जोड़ लगेगा. मैं नहीं जानता कि मैं ऐसा क्यों करता हूँ. लेकिन अब यह निश्चित है कि मेरे जीते जी तो अब यह दोष जाने वाला नहीं.”

वीजू परेशानी में चाची से कह देता कि उसे उसके मां बाप के यहां भेज दें. किन्तु बचपन से ही वह यहां आ गया था. अतः अपने मां बाप के प्रति भी वह निरपेक्ष ही रहा था. फिर भी उसे इस विचार से एक आशा की किरण फूटती दिखाई पड़ती.


rajnish manga 03-09-2013 12:13 PM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
बजरंगी लाला का क्रोध एक दिन शांत हो ही गया. उस दिन लाला जैसे मूक हो गये थे. किन्तु उनमे यह परिवर्तन यूं ही नहीं आ गया था बल्कि उन्होंने इसका बड़ा भारी मूल्य चुकाया था. वीजू घर से भाग गया था.

किसी छोटी सी त्रुटि पर वह आपे से बाहर हो गये थे और उन्होंने इतनी बुरी तरह वीजू को पीटा कि उसके मुंह और नाक से खून आने लगा. रात को बजरंगी लाला और ललाइन में खूब विवाद हुआ. बाद में दोनों ने खाना खाने के लिए वीजू की बहुत चिरौरी की. उसने खाना न खाया तो लाला और ललाइन भी निराहार सो रहे.

सुबह तक वीजू काफी दूर जा चुका था.
**

jai_bhardwaj 06-09-2013 06:52 PM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
इतिहास साक्षी है कि क्रोध का परिणाम सदैव विनाश ही हुआ है .. इस सी कथा में भी इसी उक्ति को सार्थक किया गया है। भाषा सरल एवं ग्राह्य होने के कारण सर्वसाधारण को भी क्रोध के परिणाम को समझने और इससे दूर रहने में सहायता मिल सकती है।

साझा करने के लिए आभार बन्धु।

Dark Saint Alaick 07-09-2013 12:00 AM

Re: मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र
 
अद्भुत कथा है, मित्र। आप चाहते, तो कथा को बहुत विस्तार दे सकते थे, किन्तु आपने गागर में ही विचार और ज्ञान का वह सागर भर दिया, जिसके लिए कभी-कभी उपन्यास भी लघु सिद्ध हो जाते हैं। साधुवाद आपको।

rajnish manga 09-09-2013 08:13 PM

मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
 
मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
(1)
“दादा जी ....”

“आओ बेटा अशोक .... यहीं आ जाओ ...” अशोक ने देखा कि दादा जी फुलवारी में पानी लगा रहे हैं.

“अरे दादा जी, ये किन्हें पानी लगा रहे हैं? इन जंगली पौधों को. आप फूलों के पौधे लगाइए न.”

“अब फूल के पौधे नहीं लगाए जाते मुझसे. अब तो जो पेड़ पत्ते अपने अप ही उग आते हैं उन्हीं की देखभाल कर लेता हूँ.”

“आप फूल क्यों नहीं उगाते? मैं लगाऊंगा. मैं माली से आपके लिए बीज लाऊंगा. दादा जी आपकी मुर्गियां कहाँ हैं?”

“बेटा, उन्हें मैंने दड़बे में बंद कर दिया है. परसों बिल्ली ने एक मुर्गी को खा लिया था न इसलिए इनको अब जल्दी बंद कर देता हूँ.”

“दादा जी, ये बिल्लियाँ भी कितनी खराब होती हैं. रोज रोज मुर्गियां खा जाती हैं. दूध भी गिरा जाती हैं ... “

“हाँ, ये बिल्लियाँ बड़ी खराब होती हैं, बेटा. बहुत खराब.” दादा जी ने उसकी बात पर सहमती व्यक्त करते हए कहा.


rajnish manga 09-09-2013 08:15 PM

Re: मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
 
(2)
नन्हें अशोक को दादा जी के स्वर की उदासी ने द्रवित कर दिया.अशोक दादा जी के पड़ोस में रहने वाला लड़का था. आसपास के अन्य बच्चे भी दादा जी को दादा जी कह कर ही सम्बोधित करते थे. दादा जी अपने मकां में अकेले रहते थे. उन्हें रिटायर हए कोई 5-6 बरस हो गये थे. ज्यादातर घर ही में रहते थे. बच्चों से उनको बड़ा स्नेह था. अशोक ने दादा जी को उदास देखा तो वहीँ बैठ गया. कहने लगा,

“दादा जी, मेरे पापा कहते हैं कि मुर्गियां पालने के लिए बैंक वाले भी पैसे देते हैं. आप भी और मुर्गियां ले आओ न ...”

अशोक बेचारा क्या जाने दादा जी के दर्द को. वे उसे समझाते हए बोले,

“ज्यादा मुर्गियां ला कर मैं क्या करूँगा, बेटा. मैंने कोई व्यापार तो करना नहीं. यही पांच छः मुर्गियां बहुत हैं सम्हालने को.”

इस प्रकार अशोक दादा जी से घुलमिल गया था. अक्सर शाम के समय यहीं आ जाता और देर तक बैठा बतियाता रहता. एक दिन बहुत सोच विचार के बाद दादा जी से बोला,

आप अकेले क्यों रहते हैं? यहां कोई भी तो ऐसे नहीं रहता जैसे आप रहते हैं. सब लोग अच्छे अच्छे कपडे पहनते हैं, स्कूटर मोटरों पर घुमते हैं, सिनेमा देखने जाते हैं. और कभी कभी पिकनिक पर भी जाते हैं. सच कितना मजा आता है पिकनिक में ! बताओ न दादा जी?”

दादा जी कुछ सोच कर बोले, “तू बहुत समझदार बच्चा है, अशोक. तू मेरे बारे में कितना सोचता है. कितना ख्याल रखता है मेरा. मैं तुझे सब बताऊंगा. मैं आ रहा हूँ, तू दो मिनट बैठ.”

rajnish manga 09-09-2013 08:17 PM

Re: मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
 
(3)
दादा जी उठ कर दूसरे कमरे से एक पुरानी एल्बम ले आये.उसे खोल कर अशोक को दिखाने लगे. दिखाते हुये बोलते भी जाते, “यह मेरा पोता है- दीपक, और ये हैं इसके मम्मी पापा. ये देख दीपक अपने पापा के कंधे पर बैठा है. और देख तो यहां वो तीन पहिये वाली साइकिल चला रहा है. और देख ... ये ...और .... और ...”

दादा जी का गला भर आया. उनके मुख-मंडल पर उदासी की बदली छा गयी थी. अशोक एकटक दादा जी को देखता रहा. फिर पूछ बैठा, “तो दीपक और उसके मम्मी पापा यहां क्यों नहीं रहते? कुछ लोग कहते हैं कि वो मर गये. लोग ऐसा क्यों बोलते हैं दादा जी?”

दादा जी अपने विचारों में डूब गये थे. अशोक की बात सुन कर उनका मन टीस से भर उठा. उनके दिल पर मानो हथोड़े से चोट की गयी हो. वो बोले, “हाँ वो मर गये बेटा. वो मुझे छोड़ कर चले गये. वो तीनों एक ट्रेन हादसे में मारे गये. काश उस दिन उनकी जगह मैं होता. अरे ... तू जानता है अगर वो जीवित होते तो क्या यह घर यूँही सुनसान पड़ा रहता? नहीं न? बोल?”

अपने विचारों में डूबे हुये और अपनी यादों को टटोलते हुये उन्हें ये भी नहीं मालूम पड़ा कि कब अशोक की मां ने उसे आवाज दी वह उनके पास से उठ कर अपने घर चला गया.

अशोक ने खाली जमीन में फूलों और सब्जियों के बीज बो दिये. कुछ ही दिनों में दादा जी के आँगन में गुलाब की गंध तैरने लगी, सूरजमुखी इतराने लगा और सब्जियों की बेलें लहराने लगीं. दादा जी और अशोक मिल कर पानी डाला करते. अब वहां पर जंगली पौधों के स्थान पर रंग-बिरंगे अति कोमल फूl दिखाई देने लगे. क्यारियों के नित बदलते रंग के साथ साथ दादा जी का मन भी क्रियाशील होने लगा.


All times are GMT +5. The time now is 11:39 AM.

Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.