गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है? तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे! और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग |
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रंग है दिल का मेरे
तुम न आए थे तो हर चीज़ वही थी कि जो है आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय और अब शीशा-ए-मय, राहगुज़र, रंगे-फ़लक रंग है दिल का मेरे "ख़ून-ए-जिगर होने तक" चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग सुरमई रंग की है सा'अते-बेज़ार का रंग ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग सुर्ख़ फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग ज़हर का रंग, लहू-रंग, शबे-तार का रंग आसमाँ, राहगुज़र, शीशा-ए-मय कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत, कोई शै एक जगह पर ठहरे फिर से इक बार हर इक चीज़ वही हो कि जो है आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय |
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अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की बरकतें थीं शराबख़ाने की कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे जान देने की दिल लगाने की बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल उनसे जो बात थी बताने की साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल रह गई आरज़ू सुनाने की चाँद फिर आज भी नहीं निकला कितनी हसरत थी उनके आने की |
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अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है जो भी चल निकली है, वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम अब वही दुश्मने-दीं राहते-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म के फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तगू आज सरे-कू-ए-बुताँ ठहरी है है वही आरिज़े-लैला, वही शीरीं का दहन निगाहे-शौक़ घड़ी भर को जहाँ ठहरी है वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुज़री थी हिज्र की शब है तो क्या सख़्त गराँ ठहरी है बिखरी एक बार तो हाथ आई है कब मौजे-शमीम दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है दस्ते-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुलचीं भी बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है हमने जो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ की है क़फ़स में ईजाद 'फ़ैज़' गुलशन में वो तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है |
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तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है आशना शक्ल हर हसीं की है हुस्न से दिल लगा के हस्ती की हर घड़ी हमने आतशीं की है सुबहे-गुल हो कि शामे-मैख़ाना मदह उस रू-ए-नाज़नीं की है शैख़ से बे-हिरास मिलते हैं हमने तौबा अभी नहीं की है ज़िक्रे-दोज़ख़, बयाने-हूर-ओ-कुसूर बात गोया यहीं कहीं की है अश्क़ तो कुछ भी रंग ला न सके ख़ूँ से तर आज आस्तीं की है कैसे मानें हरम के सहल-पसंद रस्म जो आशिक़ों के दीं की है 'फ़ैज़' औजे-ख़याल से हमने आसमाँ सिंध की ज़मीं की है |
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खुर्शीदे-महशर की लौ
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन खुल के हँसने के दिन, गीत गाने के दिन प्यार करने के दिन, दिल लगाने के दिन आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो ज़ख़्म कितने अभी बख़्ते-बिस्मिल में हैं दश्त कितने अभी राहे-मंज़िल में हैं तीर कितने अभी दस्ते-क़ातिल में हैं आज का दिन जबूँ है मेरे दोस्तो आज का दिन तो यूँ है मेरे दोस्तो जैसे दर्द-ओ-अलम के पुराने निशाँ सब चले सूए-दिल कारवाँ कारवाँ हाथ सीने पे रक्खो तो हर उस्तख़्वाँ से उठे नाला-ए-अलअमाँ अलअमाँ आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो कब तुम्हारे लहू के दरीदा अलम फ़र्क़-ए-ख़ुर्शीदे-महशर पे होंगे रक़म अज़ कराँ ता कराँ कब तुम्हारे क़दम लेके उट्ठेगा वो बहरे-ख़ूँ यम-ब-यम जिसमें धुल जाएगा आज के दिन का ग़म सारे दर्द-ओ-अलम सारे ज़ोर-ओ-सितम दूर कितनी है ख़ुर्शीदे-महशर की लौ आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो |
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ढाका से वापसी पर
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के थीं बहुत बे-मेह्*र सुब्हें मेहरबाँ रातों के बाद दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद उनसे जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़ा किए अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद |
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तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं |
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निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं |
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