Re: राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास : एक परिचय
बोलियों के लिए जिस प्रकार यह कहा जाता है कि यहां हर बारह कोस पर बोली बदली हुई मिलती हैं - बारां कोसां बोली बदले, उसी प्रकार हर दस कोस पर गढ़ मिलने की बात सुनी जाती है। छोट-बड़ा कोई गढ़-गढ़ैया ऐसा नही मिलेगा जिसने अपने आंगन में युद्ध की तलवार न तानी हो। खून की छोटी-मोटी होली न खेली हो और दुश्मनों के मस्तक को मैदानी जंग में गेंद की तरह न घुमाया हो। इन किलों का एक-एक पत्थर अपने में अनेक-अनेक दास्तान लिये हुए है। उस दास्तान को सुनते ही इतिहास आँखों पर चढञ आता है और रोम-रोम तीर-तलवार की भांति अपना शौर्य लिये फड़क उठता है।
शुक नीतिकारों ने दुर्ग के जिन नौ भेदों का उल्लेख किया है वे सभी प्रकार के दुर्ग यहां देखने को मिलते हैं। इनमें जिस दुर्ग के चारों ओर खाई, कांटों तथा पत्थरों से दुर्गम मार्ग बने हों वह एरण दुर्ग कहलाता है। चारों ओर जिसके बहुत बड़ी खाई हो उसे पारिख दुर्ग की संज्ञा दी गई हैं। एक दुर्ग पारिख दुर्ग कहता है जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर और मिट्टी की बड़ी-बड़ी दिवारों का विशाल परकोटा बना हुआ होता है। जो दुर्ग चारों ओर बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों से घिरा हुआ होता है वह वन दुर्ग ओर जिसके चारों ओर मरुभूमि का फैलाव हो वह धन्व दुर्ग कहलाता है। |
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इसी प्रकार जो दुर्ग चारों ओर जल से घिरा हो वह जल दुर्ग की कोटि में आता है। सैन्य दुर्ग अपने में विपुल सैनिक लिये होता है जबकि सहाय दुर्ग में रहने वाले शूर एवं अनुकूल आचरण करने वाले लोग निवास करते हैं। इन सब दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ दुर्ग कहा गया है।
""श्रेष्ठं तु सर्व दुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतं बुद:।'' राजस्थान का चित्तौड़ का किला तो सभी किलों का सिरमौर कहा गया है। कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, माण्डलगढ़ आदि के किले देखने से पता चलता है कि इनकी रचना के पीछे इतिहास, पुरातत्व, जीवनधर्म और संस्कृति के कितने विपुल सरोकार सचेतन तत्व अन्तर्निहित हैं। यही स्थिति राजप्रासादों और हवेलियों की रही है। इनके निर्माण पर बाहर से आने वाले राजपूतों तथा मुगलों की संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्टता: देखने को मिलता है। बूंदी, कोटा तथा जैसलमेर के प्रासाद मुगलसैली से प्रभावित हैं, जबकि उदयपुर का जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर का फूलमहल, आमेर व जयपुर का दीवानेखास व दीनानेआम, बीकानेर का रंगमहल, शीशमहल आदि राजपूत व मुगल पद्धति का समन्व्य लिये हैं। मन्दिरों के स्थापत्य के साथ भी यही स्थिति रही। इन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम और मुगल शैली का प्रभाव देखकर उस समय की संस्कृति, जनजीवन, इतिहास और शासन प्रणाली का अध्ययन किया जा सकता है। |
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आबू पर्वत पर ४००० फुच की ऊँचाई पर बसे देलवाड़ा गाँव के समीप बने दो जैन मन्दिर संगमरमर के प्रस्तरकला की विलक्षण जालियों, पुतलियों, बेलबूटों और नक्काशियों के कारण सारे वि के महान आश्चर्य बने हुए हैं। प्रख्यात कला-पारखी रायकृष्ण दास इनके सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं -
संगमरमर ऐसी बारीकी से तराशा गया है कि मानो किसी कुशल सुनार ने रेती से रेत-रेत कर आभूषण बनाये हो। यहां पहुंचने पर ऐसा मालूम होता है कि स्वप्न के अद्भूत लोक में आ गये हैं। इनकी सुन्दरता ताज से भी कहीं अधिक है। (भारतीय मूर्तिकार / पृष्ठ १३३-१३४) |
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इसी प्रकार जोधपुर का किराड़ मन्दिर, उदयपुर का नागदा का सास-बहू का मन्दिर, अर्घूणा का जैन मन्दिर, चित्तौड़ का महाराणा कुम्बा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ, रणकपुर का अनेक कलात्मक खम्भों के लिये प्रसिद्ध जैन मन्दिर, बाड़मेर का किराडू मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हवेली स्थापत्य की दृष्टि से रामगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर की हवेलियां देखते ही बनती हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेली तथा नथमल एवं सालमसिंह की हवेली, पत्थर की जाली एवं कटाई के कारण विश्वप्रसिद्ध हो गई। हवेली शैली के आधार पर यहां के वैष्णव मन्दिर भी बड़े प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों के साथ-साथ यहां के हवेली संगीत तथा हवेली-चित्रकला ने बी सांस्कृतिक जगत में अपनी अनूठी पहचान दी है।
चित्रकला की दृष्टि से भी राजस्थान अति समृद्ध है। यहाँ विभिन्न शैलियों के चित्रों का प्रचुर मात्रा में सजृन किया गया। ये चित्र किसी एक स्थान और एक कलाकार द्वारा निर्मित नहीं होकर विभिन्न नगरों, राजधानियों, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की देन हैं। राजाओं, सामन्तों, जागीरदारों, श्रेष्ढीजनों तथा कलाकारों द्वारा चित्रकला के जो रुप उद्घाटित हुए वे अपने समग्र रुप में राजस्थानी चित्रकला के व्यापक परिवेश से जुड़े किन्तु कवियों, चितासे, मुसव्विरों, मूर्तिकारों, शिल्पाचार्यों आदि का जमघट दरबारों में होने के कारण राजस्थानी चित्रकला की अजस्र धारा अनेक रियासती शैलियों, उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई १७वीं-१८वीं शती में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। अधिकांश रियासतों के चित्रकारों ने जिन-जिन तौर-तरीकों के चित्र बनाए, स्थानानुसार अपनी परिवेशगत मौलिकता, राजनैतिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बन्धों के कारण वहां की चित्रशैली कहलाई। |
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पुरालेखा संग्रह का काल
भारत में पुरालेख संग्रह का काल वस्तुत: मुस्लिम शासकों की देन है। केन्द्रीय शासन का प्रान्तों और जिलों से तथा जिला इकाईयों का प्रांतीय प्रशासन और केन्द्र से पत्र व्यवहार, प्रशासनिक रिकॉर्ड, अभिदानों का वर्णन आदि हमें १३वीं शताब्दी से मिलने लगते हैं, किन्तु व्यवस्थित रुप में पुरालेखा सामग्री मुगलकाल और उसके पश्चात प्राप्त होती है। ब्रिटिश काल तो प्रशासनिक कार्यालयों पर आधारित था। अत: इस काल का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। राजस्थान में मुगल शासकों के प्रभाव तथा उनसे प्रशासनिक सम्बन्धों के कारण १६वीं शताब्दी के पश्चात् विभिन्न राज्यों में राजकीय पत्रों और कार्यवाहियों को सुरक्षित रखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। मालदेव, मारवाड़ राज्य का प्रथम प्रशासक था, सम्भवत: जिसने मुगल बादशाह हुमायुं के पुस्तकलाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख को रिका र्ड संग्रह अथवा पुस्तक संग्रह हेतु अपने राज्य में नियुक्त किया था। १५६२ ईं. से आमेर के राजघराने और १५१० ई. तक राजस्थान के अधिकांश शासकों ने मुगल शासक अकबर के समक्ष समपंण कर दिया था। उसके पश्चात वे मुगल प्रशासन में मनसबदार, जागीरदार आदि बनाये गये। इस प्रकार राजस्थान के राजघरानों में उनके और मुगल शासन के मध्य प्रशासनिक कार्यवाहियों का नियमित रिकॉर्ड रखा जाने लगा। ऐसे ही राज्यों और उनके जागीरदारों के मध्य भी रिकॉर्ड जमा हुआ। यह रिकॉर्ड यद्यपि १८-१९वीं शताब्दी में मराठा अतिक्रमणों, पिंडारियी की लूट-खसोट में नष्ट भी हुआ, किन्तु १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से रियासतों के राजस्थान राज्य में विलय होने तक का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसे रियासतों द्वारा राजस्थान सरकार को राज्य अभिलेखागार हेतु समर्पित कर दिया गया, फिर भी जागीरों के रिकॉर्ड तथा अन्य लोकोपयोगी पुरालेखा सामग्री भूतपूर्व राजाओं के पास अभी भी पड़ी हुई है। |
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राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास
देश (भारत) की आजादी के पूर्व राजस्थान १९ देशी रियासतों में बंटा था, जिसमें अजमेर केन्द्रशासित प्रदेश था। इन रियासतों में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा में गुहिल, जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ में राठौड़ कोटा और बूंदी में हाड़ा चौहान, सिरोही में देवड़ा चौहान, जयपुर और अलवर में कछवाहा, जैसलमेर और करौली में यदुवंशी एवं झालावाड़ में झाला राजपूत राज्य करते थे। टोंक में मुसलमानों एवं भरतपुर तथा धौलपुर में जाटों का राज्य था। इनके अलावा कुशलगढ़ और लावा की चीफशिप थी। कुशलगढ़ का क्षेत्रफल ३४० वर्ग मील था। वहां के शासक राठौड़ थे। लावा का क्षेत्रफल केवल २० वर्ग मील था। वहां के शासक नारुका थे। |
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राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहाससार कर्नल टॉड ने अपने ग्रंथ ""अनाल्स एण्ड अन्टीक्कीटीज आॅफ राजस्थान'' में कहा है, ""राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोजन डास पैदा नहीं किया हौ।'' टॉड का यह कथन न केवल प्राचीन और मध्ययुग में वरन् आधुनिक काल में भी इतिहास की कसौटी पर खरा उतरा है। ८वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गहलोत अरब आक्रमण की बाढ़ को न रोकते तो सारे भारत में अरबों की तूती बोलती न आती। मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् १२३४ में दिल्ला के सुल्तान इल्तुतमिश और सन् १२३७ में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षी की। सन् १३०३ में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके हजारों वीर वीरांगनाओं ने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गए। इस हार का बदला सन् १३२६ में राणा हमीर ने चुकाया, जबकि उसने खिलजी के नुमाइन्दे मालदेव चौहान और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़ की पताका फहराई।
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१५वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् १५०८ में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्च स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् १५२६ में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ताही गया। तारीख १७ मार्च, १५२७ को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।
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खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़ दी। यही नहीं वह वर्षो तक ग्रह कलह का शिकार बना रहा। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़ मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् १५५३ में मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया। परन्तु अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। फिर भी मारवाड़ से लौटते हुए यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा - ""खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता।''
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सन् १५५५ में हुमायूं ने दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लिया। पर वह अगले ही वर्ष मर गया। उसके स्थान पर अकबर बादशाह बना। उसने मारवाड़ पर आक्रमण कर अजमेर, जैतारण, मेड़ता आदि इलाके छीन लिए। मालदेव स्वयं १५६२ में मर गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ का सितारा अस्त हो गया। सन् १५८७ में मालदेव के पुत्र मौटा राजा उदयसिंह ने अपनी लड़की मानाबाई का विवाह शहजादे सलीम से कर अपने आपको पूर्णरुप से मुगल साम्राज्य को समर्पित कर दिया। आमेर के कछवाहा, बीकानेर के राठौड़, जैसलमेर के भाटी, बूंदी के हाड़ा, सिरोही के देवड़ा और अन्य छोटे राज्य इससे पूर्व ही मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।
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