(2)संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण(अयोध्याकांड)
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Re: (2) संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण (अयोध्याकाण्
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Re: (2) संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण (अयोध्याकाण्
कैकेय पहुँच कर भरत अपने भाई शत्रुघ्न के साथ आनन्दपूर्वक अपने दिन व्यतीत करने लगे। भरत के मामा अश्वपति उनसे उतना ही प्रेम करते थे जितना कि उनके पिता राजा दशरथ। मामा के इस स्नेह के कारण उन्हें यही लगता था मानो वे ननिहाल में न होकर अयोध्या में हों। इतने पर भी उन्हें समय-समय पर अपने पिता का स्मरण हो आता था और वे उनके दर्शनों के लिये आतुर हो उठते थे। राजा दशरथ की भी यही दशा थी। यद्यपि राम और लक्ष्मण उनके पास रहते हुये सदैव उनकी सेवा में संलग्न रहते थे, फिर भी वे भरत और शत्रुघ्न से मिलने के लिये अनेक बार व्याकुल हो उठते थे।
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समय व्यतीत होने के साथ राम के सद्बुणों का निरन्तर विस्तार होते जा रहा था। राजकाज से समय निकाल कर आध्यात्मिक स्वाध्याय करते थे। वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना और सूत्रों के रहस्यों का समझ कर उन पर मनन करना उनका स्वभाव बन गया था। दुखियों पर दया और दुष्टों का दमन करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। वे जितने दयालु थे, उससे भी कई गुना कठोर वे दुष्टों को दण्ड देने में थे। वे न केवल मन्त्रियों की नीतियुक्त बातें ही सुनते थे बल्कि अपनी ओर से भी उन्हें तर्क सम्मत अकाट्य युक्तियाँ प्रस्तुत करके परामर्श भी दिया करते थे। अनेक युद्धों में उन्होंने सेनापति का दायित्व संभालकर दुर्द्धुर्ष शत्रुओं को अपने पराक्रम से परास्त किया था। जिस स्थान में भी वे भ्रमण और देशाटन के लिये गये वहाँ के प्रचलित रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक धारणाओं का अध्ययन किया, उन्हें समझा और उनको यथोचित सम्मान दिया।
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उनके क्रिया कलापों ऐसे थे कि लोगों को विश्वास हो गया कि रामचन्द्र क्षमा में पृथ्वी के समान, बुद्धि-विवेक में बृहस्पति के समान और शक्ति में साक्षात् देवताओं के अधिपति इन्द्र के समान हैं। न केवल प्रजा वरन स्वयं राजा दशरथ के मस्तिष्क में यह बात स्थापित हो गई थी कि जब भी राम अयोध्या के सिंहासन को सुशोभित करेंगे, उनका राज्य अपूर्व सुखदायक होगा और वे अपने समय के सर्वाधिक योग्य एवं आदर्श नरेश सिद्ध होंगे।
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राजा दशरथ अब शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषेक कर देना चाहते थे। उन्होंने मन्त्रियों को बुला कर कहा, "हे मन्त्रिगण! अब मैं वृद्ध हो चला हूँ और रामचन्द्र राजसिंहासन पर बैठने के योग्य हो गये हैं। मेरी प्रबल इच्छा है कि शीघ्रातिशीघ्र राम का अभिषेक कर दूँ। अपने इस विचार पर आप लोगों की सम्मति लेने के लिये ही मैंने आप लोगों को यहाँ पर बुलाया है, कृपया आप सभी अपनी सम्मति दीजिये।" राजा दशरथ के इस प्रस्ताव को सभी मन्त्रियों ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। शीघ्र ही राज्य भर में राजतिलक की तिथि की घोषणा कर दी गई और देश-देशान्तर के राजाओं को इस शुभ उत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भिजवा दिये गये। थोड़े ही दिनों में देश-देश के राजा महाराजा, वनवासी ऋषि-मुनि, अनेक प्रदेश के विद्वान तथा दर्शगण इस अनुपम उत्सव में भाग लेने के लिये अयोध्या में आकर एकत्रित हो गये। आये हुये सभी अतिथियों का यथोचित स्वागत सत्कार हुआ तथा समस्त सुविधाओं के साथ उनके ठहरने की व्यस्था कर दी गई।
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निमन्त्रण भेजने का कार्य की उतावली में मन्त्रीगण मिथिला पुरी और महाराज कैकेय के पास निमन्त्रण भेजना ही भूल गये। राजतिलक के केवल दो दिवस पूर्व ही मन्त्रियों को इसका ध्यान आया। वे अत्यन्त चिन्तित हो गये और डरते-डरते अपनी भूल के विषय में महाराज दशरथ को बताया। यह सुनकर महाराज को बहुत दुःख हुआ किन्तु अब कर ही क्या सकते थे? सभी अतिथि आ चुके थे इसलिये राजतिलक की तिथि को टाला भी नहीं जा सकता था। अतएव वे बोले, "अब जो हुआ सो हुआ, परन्तु बात बड़ी अनुचित हुई है। अस्तु वे लोग घर के ही आदमी हैं, उन्हें बाद में सारी स्थिति समझाकर मना लिया जायेगा।"
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दूसरे दिन राजा दशरथ के दरबार में सभी देशों के राजा लोग उपस्थित थे। सभी को सम्बोधत करते हुये दशरथ ने कहा, "हे नृपगण! मैं अपनी और अयोध्यावासियों की ओर से आप सभी का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आपको ज्ञात ही है कि अयोध्या नगरी में अनेक पीढ़ियों से इक्ष्वाकु वंश का शासन चलता आ रहा है। इस परम्परा को निर्वाह करते हुए मैं अब अयोध्या का शासन-भार अपने सभी प्रकार से योग्य, वीर, पराक्रमी, मेधावी, धर्मपरायण और नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंपना चाहता हूँ। अपने शासन काल में मैंने अपनी प्रजा को हर प्रकार से सुखी और सम्पन्न बनाने का प्रयास किया है। अब मैं वृद्ध हो गया हूँ और इसी कारण से मैं प्रजा के कल्याण के लिये अधिक सक्रिय रूप से कार्य करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। मुझे विश्*वास है कि राम अपने कौशल और बुद्धिमत्ता से प्रजा को मुझसे भी अधिक सुखी रख सकेगा। अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये मैंने राज्य के ब्राह्मणों, विद्वानों एवं नीतिज्ञों से अनुमति ले ली है। वे सभी मेरे इस विचार से सहमत हैं और उन्हे विश्वास है कि राम शत्रुओं के आक्रमणों से भी देश की रक्षा करने में सक्षम है। राम में राजत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। उनकी द*ृष्टि में राम अयोध्या का ही नहीं वरन तीनों लोकों का राजा होने की भी योग्यता रखता है। इस राज्य के लिये आप लोगों की सम्मति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः आप लोग इस विषय में अपनी सम्मति प्रदान करें।"
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महाराज दशरथ के इस प्रकार कहने पर वहाँ पर उपस्थित सभी राजाओं ने प्रसन्नतापूर्वक राम के राजतिलक के लिये अपनी सम्मति दे दी।
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राजा दशरथ ने कहा, "आप लोगों की सम्मति पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। क्योंकि चैत्र मास - जो सब मासों में श्रेष्ठ मधुमास कहलाता है - चल रहा है, कल ही राम के राजतिलक के उत्सव का आयोजन किया जाय। मैं मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से प्रार्थना करता हूँ कि वे राम के राजतिलक की तैयारी का प्रबन्ध करें।"
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