मेरी पसंद : गीत गजल कविता
वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ ,
वो शब् -ओ -रोज़ -ओ -माह -ओ -साल कहाँ . थी वो एक शक्स के तसव्वुर सी , अब वो रानाई -इ -ख़याल कहाँ . इतना आसान नहीं लहू रोना , दिल में ताक़त , जिगर में हाल कहाँ . फ़िक्र -इ -दुनिया में सर खपत हूँ , मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ . वो शब् -ओ -रोज़ -ओ -माह -ओ -साल कहाँ . |
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किसी रंजिश को हवा दो , की मैं जिंदा हूँ अभी ,
मुझको एहसास दिल दो , की मैं जिंदा हूँ अभी . ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालों , अब कोई और दवा दो , की मैं जिंदा हूँ अभी . मेरे रुकने से मेरी सांसें भी रुक जायेंगी , फासले और बढ़ा दो , की मैं जिंदा हूँ अभी . चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है फ़क़ीर , भीड़ लोगों की हटा दो , की मैं जिंदा हूँ अभी |
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कभी यूँ भी तो हो
कभी यूँ भी तो हो दरिया का साहिल हो पूरे चाँद की रात हो और तुम आओ कभी यूँ भी तो हो परियों की महफ़िल हो कोई तुम्हारी बात हो और तुम आओ कभी यूँ भी तो हो ये नर्म मुलायम ठंडी हवायें जब घर से तुम्हारे गुज़रें तुम्हारी ख़ुश्बू चुरायें मेरे घर ले आयें कभी यूँ भी तो हो सूनी हर मंज़िल हो कोई न मेरे साथ हो और तुम आओ कभी यूँ भी तो हो ये बादल ऐसा टूट के बरसे मेरे दिल की तरह मिलने को तुम्हारा दिल भी तरसे तुम निकलो घर से कभी यूँ भी तो हो तनहाई हो दिल हो बूँदें हो बरसात हो और तुम आओ |
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परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता . |
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ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे,कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे,अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे हँसो आज इतना कि इस शोर में,सदा सिसकियों की सुनाई न दे अभी तो बदन में लहू है बहुत,कलम छीन ले रोशनाई न दे मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो,ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे ग़ुलामी को बरकत समझने लगें,असीरों को ऐसी रिहाई न दे मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए ,जहाँ से मदीना दिखाई न दे मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ,क़लम छीन ले रोशनाई न दे ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है,रहे सामने और दिखाई न दे |
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किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं अहमद नदीम क़ासमी |
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कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’ बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा अहमद नदीम क़ासमी |
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कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है । इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं, हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है। ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा, मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है । जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर, अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है । हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया, लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है । अकबर इलाहाबादी |
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हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़[1] की ये बातें हैं इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना मक़सूद[2] है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है वां[3] दिल में कि दो सदमे,यां[4] जी में कि सब सह लो उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही[5] से हर साँस ये कहती है, कि हम हैं तो ख़ुदा भी है सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत[6] के करिश्मे हैं बुत हम को कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है अकबर इलाहाबादी शब्दार्थ: ↑ धर्मोपदेशक ↑ मनोरथ ↑ वहाँ ↑ यहाँ ↑ दैवी प्रकाश ↑ प्रकृति |
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कुछ ऐसे भी होते हैं
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता) कुछ ऐसे भी होते हैं जो, गुणहीन हुआ करते हैं; पर तिकड़मबाजी के कारण गुणवान दिखा करते हैं। असलियत छिपाने को अपनी, ये व्यूह रचा करते हैं; पद लोलुपता में माहिर ये, कुर्सी पर पग धरते हैं। टांग अड़ाते कदम कदम पर, काम-धाम में अलसाये, बस यही चाहते हैं झटपट, माला कोई पहनाये। तड़क-भड़क में डूबे रहते, गला फाड़ कर चिल्लाते हैं; कीड़े जैसे काव्य कुतरते, गिद्ध बने मँडराते हैं। ऐसों में कोई कवि हो तो, कविता चोरी करता है; अपनी रचना कह कर उसको, झूम झूम कर पढ़ता है। जब जब ऐसी कविता सुनते, याद उसी की आती है; चोरी की कविता का संग्रह, जिसकी अनुपम थाती है। और अगर ऐसा पद लोलुप, निर्लज्ज कहीं होता है; तो अच्छे अच्छों को अपने, तिकड़म जल से धोता है। सभी जगह मिलते हैं ऐसे, गुणहीनों की बस्ती है; मँहगा है गुण पाना जग में, तिकड़मबाजी सस्ती है। नाम डूबता ऐसों से ही, राष्ट्रों का, संस्थाओं का; जो योग्य हुआ करते हैं उन- पुरुषों का महिलाओं का। |
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