एक शाम .. तुम्हारे नाम
वो शाम बहुत ख़ास थी...आज उस शाम को बीते कई साल हो चुके हैं लेकिन अभी भी याद ऐसे ताज़ा है की लगता है वो बस जैसे कल की ही बात थी.उस शाम मैं बहुत खुश था, सुबह से ही मैं खुश था और काफी उत्साहित भी...वो डेढ़ साल बाद शहर वापस आई थी और ठीक अगले दिन मेरा जन्मदिन था.वो अक्सर जुलाई के आखिरी दिनों में आती थी, लेकिन ये पहला मौका था जब वो मेरे जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले मेरे शहर आ रही थी.मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरे जन्मदिन पर मेरे साथ रहेगी मेरे लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी.
मैं बार बार घडी देख रहा थ, उसने मुझे दोपहर तीन बजे बुलाया था.दिन भर का इंतजार करना मेरे लिए पहाड़ सा काम लग रहा था.तय समय से बहुत पहले ही मैं घर से निकल गया.रात भर बारिश हुई थी और मौसम बहुत सुहावना हो गया था..सुबह से आसमान में बादल छाये हुए थे. मैं काफी देर तक सड़कों पर युहीं गाड़ी दौड़ाते रहा...उससे क्या क्या बातें करूँगा, कहाँ उसे घुमाने ले जाऊँगा, कौन कौन सी नयी बातें उसे बतानी है...इन्ही सब ख्यालों के बीच मैं गाड़ी चला रहा था. ठीक तीन बजते ही मैं उसके अपार्टमेंट के गेट के सामने पहुँच गया. |
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मुझे उसे ढूँढना या उसका इंतजार करना नहीं पड़ा..मैंने देखा की वो अपनी नानी के साथ अपने अपार्टमेंट के कम्पाउंड में टहल रही थी.वो शायद मेरा इंतजार ही कर रही थी.उसने मुझे देख लिया था और मुझे देखते ही उसने वहीँ से हाथ हिलाकर मुझे हेल्लो कहा.मैं अपार्टमेंट के तरफ बढ़ना चाहा तो उसने इशारा कर के मुझे वहीँ पर ठहरने के लिए कहा.
वो अपनी नानी से कुछ बातें करने लगी और मेरी तरफ इशारा कर के वो उन्हें कुछ बताने लगी. दोनों मुझे देखकर मुस्कुराने लगे...मुझे कुछ समझ में नहीं आया.उन्हें मुस्कुराता देख मैं भी बेवकूफों की तरह बिना बात जाने समझे मुस्कुराने लगा था. वो बिलकुल बदली हुई सी लग रही थी.हमेशा सजी-संवारी रहने वाली लड़की बिलकुल साधारण आसमानी सलवार समीज में थी..उसने माथे पर एक बड़ी सी गोल बिंदी लगा रखी थी..और उस दिन उस सादगी में वो पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत लग रही थी.मैंने गौर किया की उसके हाथों में कांच की हरी चुरियाँ थी.उसने पहले कभी कांच की चुरियाँ पहनी हो मुझे याद नहीं आता.वो मेरे पास आई तो मैंने उसे छेड़ने के इरादे से कहा ""आज तो तुम पुराने ज़माने की हीरोइन सी लग रही हो".लेकिन उसने मेरी बात का कुछ जवाब नहीं दिया और बस मुस्कुरा के रह गयी. |
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"पुरे एक साल बाद तुमसे मिल रही हूँ, ना हाल चाल पूछा न कुछ खबर ली, बस ये बोरिंग सा कमेन्ट कर के रह गए..." उसने मुस्कुराते हुए ही कहा, लेकिन जाने क्यों उस समय उसकी आवाज़ में वो शरारत या चंचलता नहीं थी..बल्कि वो बेहद शांत और गंभीर दिख रही थी.उसने आगे कुछ भी नहीं कहा और सीधा गाडी में बैठ गयी.
मुझे संकेत मिल गया था की आज वो गंभीर मूड में.उसके गाड़ी में बैठते ही हम वहां से निकल गए. मैं पता नहीं किस संकोच में था, मैं उससे खुलकर पूछना चाह रहा था की तुमने नानी से क्या कहा की वो मेरी तरफ देखकर मुस्कुराने लगी, वह जो मैं समझ रहा हूँ या कोई दूसरी बात...लेकिन मैंने कुछ भी नहीं पूछा. दो तीन ट्रैफिक सिग्नल हम पार कर गए थे और हमारे बीच बस फोर्मली बातें हो रही थी."कैसा रहा फ्लाईट", "घर में सब कैसे हैं?" "कल जन्मदिन पर क्या कर रहे हो?" वैगरह वैगरह...कुछ देर में हम दोनों ही इन फॉर्मल सवाल जवाब से बोर हो गए थे और दोनों के बीच एक अन्कम्फर्टबल ख़ामोशी आ गयी..वो चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी और मैं उसे देखकर ये समझने की कोशिश कर रहा था की वो इतनी चुपचाप सी क्यों है. |
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उस अन्कम्फर्टबल ख़ामोशी को आख़िरकार मैंने ही तोड़ा..
"सुनो एक बात कहूँ तुमसे?" "हाँ कहो..." "कभी कभी दो बेतकल्लुफ दोस्तोँ के बीच भी / खामुशी इतनी अजीयतनाक होती है कि बस"... वो मुस्कुराने लगी..."ये किसने कहा है साहब? क्या आपने?" "नहीं...किसी बड़े शायर ने...लेकिन ये शेर अभी के माहौल पर फिट है, क्यों? है न?" "अरे नहीं साहब...ऐसी कोई बात नहीं है...मैं तो बस युहीं थोड़ी थक सी गयी हूँ...." "ह्म्म्म...जेट लैग्ड? " "हाह.....हाँ कह सकते को...." वो मुस्कुराने लगी..लेकिन खुलकर वो अब भी नहीं मुस्कुरा रही थी...मुझे जाने क्यों लग रहा था उसके मन में कुछ ऐसा है जिससे वो परेसान सी है...कुछ ऐसा जो वो कहना चाह रही है लेकिन कह नहीं पा रही है. "कहाँ चलें, किसी रेस्टुरेंट में चलें? एक नया रेस्टुरेंट खुला है, बिलकुल अर्बन टाईप..तुम्हे पसंद आएगा...वहां चलें?"... मैंने पूछा उससे. वो कुछ देर खामोश रही.. |
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"सुनो, पार्क में ले चलोगे आज मुझे...वहां गए एक अरसा हो गया...चिल्ड्रेन्स पार्क में?" उसने इतने भारी आवाज़ में कहा की मैं एक पल के लिए घबरा सा गया.
"हाँ क्यों नहीं...चालो वहीँ चलते हैं..." मैंने जल्दी से गाड़ी पार्क के रास्ते के तरफ मोड़ दी.. मैं उसके प्रति थोड़ा चिंतित सा हो गया था....वो अपसेट सी दिख रही थी और जब भी वो ऐसे अपसेट या डिप्रेस्ड हो जाती थी तो मुझे हमेशा घबराहट होने लगती थी.शायद घर की कोई बात होगी जिससे वो इतनी परेसान सी है या किसी ने कुछ कह दिया होगा....मैं इसी उधेरबन में था की आखिर वो इतनी चुप सी क्यों है, की तभी मुझे लगा उसने कुछ पूछा है मुझसे...लेकिन उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी की पहले तो मुझे भ्रम हुआ वो खुद से बातें कर रही है, और मैंने उसे अनसुना कर दिया. "कहो न, तुम्हे वो फिल्म याद है? "उसने जब दोबारा पूछा और हलके से मेरे कंधे को झकझोरा तब मुझे अहसास हुआ की वो ये सवाल मुझसे ही पूछ रही थी.. "क्या, कुछ पूछा तुमने?.." "हाँ, उस फिल्म का वो सीन याद है तुम्हे जब प्रेम निशा से कहता है की आज पहली बार कोई लड़की मेरे गाड़ी के फ्रंट सीट पर बैठी है..." "हाँ...याद है" "ह्म्म्म....मैं तो सोच रही थी की तुम्हारे गाड़ी के फ्रंट सीट पर पहली बार बैठ रही हूँ, मुझे लगा था तुम वैसा ही कुछ प्यारा सा डायलोग कहोगे जिसमे थोडा इनोसेंट फ्लर्टिंग भी शामिल होगा, गेस आई वाज रोंग...." वो मुस्कुराने लगी थी.उसकी आवाज़ में पहली बार मुझे शरारत की एक झलक मिली थी.मेरे लिए ये एक राहत की बात थी. |
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"क्यों तुम्हे ऐसा क्यों लगा की तुम पहली लड़की हो जो मेरे गाड़ी के फ्रंट सीट पर बैठी हो?"
"ओह अच्छा, तो क्या कोई और बैठ चुकी है? देखो साहब तुम मुझसे कह सकते हो...मैं किसी से नहीं कहूँगी" "पागल हो क्या, ऐसा कुछ भी नहीं है..." "अच्छा तो सुनो न, एक बार एक बार वो डायलोग कह तो दो ज़रा...मुझे अच्छा लगेगा..." उसकी आवाज़ में कोई जबरदस्ती या जिद नहीं थी बल्कि उसने इतने विनम्रता से कहा था की मुझसे आगे कुछ भी न कहा जा सका..ना तो मैंने उसे इस जिद के लिए डांटा और नाही चिढाया....मैंने उसका मन रखने के लिए वो डायलोग दोहरा दिया.इस बार उसके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कराहट फ़ैल आई थी.. "तुम सच में बहुत अच्छे हो..." उसने कहा और मेरे कंधे पर अपना सर रख दिया..I missed you so much". उसने आँखें बंद करते हुए कहा. हम पार्क के मेन गेट के पास पहुँच चुके थे.. |
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मैंने जैसे ही गाड़ी पार्क की, उसका ध्यान अचानक कोने वाली दूकान की तरफ गया...
"अरे वो पकौड़ियों की दूकान कहाँ गयी? "उसने पुरे आश्चर्य में मुझसे पूछा.मैंने उसे बताया की वो दूकान बंद हो गयी.उसे जैसे मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ..एक समय पकौड़ियों वाली दूकान उसकी फेवरिट दुकानों में से एक थी..और मैं जानता था की वो उस दूकान को वहां नहीं देखकर दुखी होगी.हुआ भी वैसा ही...उसे बुरा लग रहा था की दूकान अब यहाँ से हट गयी है...वो याद करने लगी की हम कैसे कितनी देर देर तक यहाँ बैठे सर्दियों की शाम पकौड़ियाँ और समोसे खाते थे.हम कुछ देर वहीँ पर खड़े रहे जहाँ पहले दूकान हुआ करती थी और फिर पार्क के अन्दर चले आये.पार्क के अन्दर प्रवेश करते ही वो खिल उठी...पार्क का नया रूप उसे बहुत पसंद आया था. उसके पांव खुदबखुद उसी पेड़ की तरफ बढ़ चले थे जिसके पास लगी बेंच पर कभी हम शामों में बैठा करते थे...और जहाँ से अब बेंच नदारद था.वो पेड़ के पास घास पर ही बैठ गयी.मैं भी उसके पास वहीँ घास पर बैठ गया. |
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"अच्छा याद है तुम्हे एक बारिशों वाले दिन हम यहाँ आये थे...तुमने चंदू के दूकान की पकौड़ियाँ खाने की जिद की थी और फिर हम यहाँ बेंच पर बहुत देर तक बैठे थे...बारिश में भींगते हुए.." मैंने उससे पूछा.
"हाँ याद क्यों नहीं है..बहुत अच्छे से याद है मुझे..पांच अगस्त का दिन, आज से पांच साल पहले... .....और....और... ...मैंने बेवजह ही कितना तुम्हे परेसान कर दिया था...कितनी पागल थी मैं उन दिनों...है न?" उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा.. "क्यों, अब तुम वैसी पागल नहीं रही क्या...सुधर गयी?" "हूँ क्यों नहीं...अब भी मैं वही पागल लड़की हूँ...." उसने हंसने की कोशिश भर की...लेकिन खुल कर हँस न सकी. वो बहुत देर तक पुरे पार्क का जायजा लेते रही और पुरानी बातों को याद करते रही. "यु हैव नो आईडिया मैं इस जगह को कितना मिस करती हूँ...ये लैम्प पोस्ट याद है तुम्हे...इसके पास खड़े होकर मैं तुम्हारी और मेरी लम्बाई नापती थी...और मुझे हमेशा चिढ होती थी तुमसे, की तुम मेरे से इतने लम्बे क्यों हो....मैं तो यहाँ तक सोचती थी की इस लैम्पोस्ट पर लटकने से मेरी लम्बाई तुम जैसी हो जायेगी.. |
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और..और तुम्हे वो डस्टबिन याद है, वो जो सामने वाले गेट के पास रखा रहता था, फिश-शेप्ड डस्टबिन..मुझे उस वक्त कितना प्यारा सा लगता था वो...मैंने तुमसे कहा करती थी की उसे अपने साथ घर ले जाउंगी, और तुम हँसते थे मेरी उस बात पर...और एक शाम मैंने तो हद ही कर दी थी...मैंने जाकर उस फिश-शेप्ड डस्टबिन को 'हग' कर लिया था.तुमने कितना डांटा था मुझे...अभी तक याद है.
....उफ्फ्फ...देखो कितना कुछ छुट जाता है पीछे...ये सब की सब बातें यादें मुझे हमेशा याद आती हैं...I miss those days..जानते हो कभी कभी बहुत सी पुरानी बातें मन में आती हैं और मैं घंटों सोचती रह जाती हूँ.मुझे बड़ा संतोष मिलता है जब मैं उन पिछली बातों को याद करती हूँ...इन यादों के अलवा और क्या रह जाता है इंसान के पास....क्यों? है न?" .वो एकाएक बहुत उदास सी हो गयी..और आसमान की तरफ बादलों को ताकने लगी. "सुनो तुम ठीक तो हो आज?" "हाँ मुझे क्या हुआ है...मैं ठीक ही हूँ..." "ऐसी बातें कर रही हो...इतनी चुप सी लग रही हो आज तुम...तुम ऐसे रहती हो तो मुझे चिंता होने लगती है..देखो तुम्हारी यु.एस.पी तुम्हारी नादानी और इललॉजिकल बातें ही है.तुम ऐसे खामोश रहती हो तो अच्छी नहीं लगती...मुझे चिढ़ाती हो, तंग करती हो, जिद करती हो, बक बक किये जाती हो तो अच्छी लगती हो.." |
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"मुझे पता है जब भी मैं ऐसे चुप हो जाती हूँ तो तुम्हे डर लगता है कहीं मेरे आंसू न निकल आयें....लेकिन चिंता न करो...ऐसी कोई बात नहीं...आई नो हाउ तो टेक केअर ऑफ़ मायसेल्फ...तुमने ही तो सिखाया है...
और वैसे कभी तुम भी तो बातें शुरू करो...ये क्या की हमेशा मैं ही बोलती जाऊं...इस बार मैं तुम्हे मौका दे रही हूँ..." एक फीकी मुस्कान के साथ उसने कहा. मुझे लगा कुछ ऐसा है जो वो बताना चाह रही है लेकिन खुल कर कह नहीं पा रही, मुझे उसको देखकर जाने कैसा महसूस होने लगा.वो जब भी ऐसे उदास हो जाती तो मैं बड़ा बेचैन सा हो जाता था. मैंने अपना हाथ उसके हाथों पर रख दिया.मेरी इस हरकत के लिए वो शायद तैयार नहीं थी...वो सिहर सी उठी.नीचे दबी उसकी हथेलियों में थोड़ी हलचल सी हुई...लेकिन उसने अपना हाथ हटाया नहीं...बल्कि उसकी नज़रें हम दोनों की हथेलियों पर आकर ठहर गयी थी और वहीँ जमी रहीं... "सुनो, क्या तुम्हे लगता है हम कभी साथ साथ रह पायेंगे". उसकी आवाज़ में एक भींगा सा कम्पन था..उसकी नज़रें अब भी हथेलियों पर जमी हुई थी. |
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