उपन्यास: जीना मरना साथ साथ
उपन्यास: जीना मरना साथ साथ
(इंटरनेट से / लेखक का नाम ज्ञात नहीं) आज से बीस बाइस साल पूर्व जब मैं किशोरावस्था में था तब मुझपर भी प्यार का बुखार हावी था जो आज तक नहीं उतरा। मैं बनबीघा गांव मे अपनी बुआ के यहां रहता था और मेरे कमरे की खिड़की के सामने था रीना का घर। कब हमारा प्यार जवान हो गया पता नहीं चला। गांव में रहते हुए एक आम किसान के बेटे बेटियों की तरह हम लोगों का रहन सहन था और हम लोग साथ साथ पढ़ने स्कूल जाते या फिर साथ साथ खेलते हुए कितने ही साल बिता दिये। लुका-छुपी से लेकर लुडो और कभी कभी कबड्डी भी। प्रेम क्या होता है मैं नहीं जानता था। गांव में उस समय एक आध लोगों के घरों में टेलीविजन था जिसमें रामायण देखने अथवा महाभारत देखने सुबह दो दर्जन से अधिक बच्चे जाते थे जिसमें रीना भी साथ होती थी। रात मे शुक्रबार को एक बजे रात तक जग कर दर्जनों बच्चे सिनेमा देखते और घर जाते। सुबह मार खानी पड़ती पर बदला कुछ नहीं। >>> |
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मेरे घर के आगे एक तलाब था जहां बरगद का एक पुराना पेड़ भी था तथा वहीं गांव के लोग भीषण गर्मी से बचने के लिए दोपहर मे आराम करते थे और मैं भी सुबह शाम दोपहर वहीं खेला करता था। रीना छत पर होती तो मन में एक अजीब सी लहर उठती उसे रिझाने का। कुछ कुछ सिनेमाई। बरगद के पेंड़ पर चढ़ना, कूदना। बरगद के पेड़ की सोरी को पकड़ हाथ के सहारे बीस फिट की उंचाई चढ़ना और झुलना यह सब करते थे। कक्षा आठ से प्रारंभ यह कहानी इंटर की पढ़ाई तक चलती रही । नहीं नहीं मैट्रिक में इसमें कुछ परिवर्तन आया और मैंने पतली थीन पेपर पर कई बार लिख कर फाड़ दिया गया एक प्रेम पत्र आखिरकार एक दिन रीना के साथ साथ स्कूल से आते वक्त रास्ते में गिरा दिया और पलट कर देखा भी नहीं क्या हुआ। कई दिनों तक घर से लाज से निकला नहीं। हमेशा डर लगा रहता की जाने क्या होगा। पर हुआ कुछ नहीं। महीनों बीत गए पर अब रीना के साथ खेलने और स्कूल जाने का सिलसिला थम गया। अब एक लाज सी मन में होने लगी। रीना का भाई घर बुलाता भी तब भी मैं नहीं जाता। वह स्कूल के निकलती तो मैं पीछे पीछे जाता।
कई माह बाद उस पत्र का जबाब मिला जो सकारात्कम था। उसके बाद प्रारंभ हुआ सिलसिला प्रेम पत्र लिखने का। कई दिनों तक अथक मेहनत होती। शब्दों को सजाया जाता। शेर लिखे जाते तब जाकर प्रेम पत्र तैयार होता और जदोजहद शुरू होता उसे रीना तक पहुंचाने की और इस डर के साथ कि कहीं किसी के हाथ नहीं लग जाय। खैर प्रेम पत्र लिखने का सिलसिला चार सालों तक चलता रहा है पर सामने आने पर कभी हम दोनों ने एक दूसरे से प्यार की बात नहीं की। >>> |
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मैं उसके घर के पास ही बने एक कुंए से पानी लाता था। वहीं स्नान भी करता और इसी बहाने कुछ अधिक समय कुंए पर दे आता।
सिलसिला चल निकला और बहुत कुछ बदलने लगा। मन में रीना को पत्नी के रूप में पाने की उत्कण्ठ होने लगी। दसवीं की कक्षा में मैं था और रीना नवमी में। मन्नतें भी मंगता तो रीना को पत्नी के रूप में पाने की। लंबी कहानी है। फिर भी। गांव मे किसान का बेटा था। बुआ को संतान नहीं थी सो मैं ही संतान के रूप में जाना जाता था। फूफा का हाथ बंटाना मेरा काम था। जिसके तहत शाम में भैंस चराना, चारा लाना, चारा काटना सभी शामील था। खेती के समय खेत का सारा काम करना। हल चलाना सभी कुछ ग्रामीण दिनचर्या में शामील था। पर यह सब करते हुए रीना की याद आ जाती या फिर दिख जाती तो काम करने का अंदाज बदल जाता। भैंस चराते वक्त यदि वह कहीं से गुजर जाती तो गाने की धुन मेरे मुंह से निकलने लगती। क्या कुछ नहीं हुआ बहुत कुछ याद नहीं। रीना मेरे घर आती बुआ से बात होती रहती और मैं भी उस बातचीत में शामिल हो जाता। बुआ कहती भी ‘आंय रे छौरा मौगा हो गेलही’। पर मुझे ज्यादा से ज्यादा समय रीना क साथ बिताना अच्छा लगता और जीवन में प्रेम हो तो जीवन सफल होता है। प्रेम की जिस बात को आज समझ पा रहा हूं उसे बचपन में नहीं समझ सका था पर हां एक कमी रहती थी हमेशा। यदि रीना नहीं दिखे तो लगता था कुछ छूट गया। और प्रेम में त्योहारों का आनंद भी बढ़ जाता था और बरबस ही बचपन की याद आ गई। >>> |
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वसंत पंचमी की तैयारी को लेकर बच्चा कमिटि की बैठक हुई। इस बैठक में सरस्वती पूजा के दिन नाटक करने की तैयारी की गई। किसी ने दो रूपया चंदा दिया तो किसी ने पांच, और फिर अभिभावकों से पैसे मांग कर सरस्वती पूजा की तैयारी मे बाल मंडली जुट गई जिसमें रीना भी थी। यह आठवीं कक्षा की बात है। एक दिन में नाटक की रूपरेखा तैयार की गई। नाटक में मैं कृष्ण बना और रीना राधा। इस नाटक में मेरे कई साथियों ने भाग लिया। इस नाटक में मेरा दोस्त गुडडू भी भाग लिया था जो अभी एक फाइव स्टार होटल का मैनेजर है हरीश सागर के नाम से जाना जाता है। खैर पूजा समाप्त हुई हम लोगों ने प्रतिमा विसर्जन के क्रम मे खूब उधम मचाया।
अब आते है प्रेम रोग पर .... इस रोग के मौसम में जब होली आती तो अलग ही उत्साह लेकर। रंग लगाना है तो उसे ही लगाना है और वह बचने का प्रयास करती। हंसी ठीठोली होती और रूठना मनाना भी चलता। होली के दिन अपने साथियों के साथ होली खेलता। पहले कादो मिटटी की होली होती फिर रंग-अबीर चलता। होलैया की टीम ढोलक झाल लेकर गली गली धूमता जिसमें बुढ़े, जवान और बच्चे सभी होते और महिलाऐं छतों पर से कादो-रंग देती और होलैया गाली के रूप फगुआ पढ़ता। >>> |
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यह भी एक दौर था। कुछ गांवों में यह आज भी जीवित है पर ज्यादातर गांवों में समाप्त हो गईं। जिसका मुख्य वजह शराब को माना जा रहा है। एक से एक अश्लील होली के गीते गाये जाते और महिलाओं का नाम ले ले कर अश्लील फगुआ सुनाया जाता। ‘‘ऐ मोहन सिंह ऐ हो तनि मैगी (पत्नी) के दे हो।’’ ‘‘इम साल फगुआ ऐसी गेल पुआ पकैते ..... जर गेल।’’ एक गडा़ड़ी दाल चाउर एक गडा़ड़ी कोदो......... मोहन सिंह ने हुक्म दिया रमेश के बीबी को .....। इससे भी अश्लील फगुआ बिना किसी भेद भाव के होती। दादा, बाप बेटा सब साथ साथ। बंधन टूट जाता। जिनके घर दामाद आये हुए होते उनके यहां स्पेशल होली होती। दामाद को घर से बाहर निकाला जाता और ढोलक की थाप पर होली होती। फगुआ पढ़ा जाता। फगुआ पढ़ने मे एक्सपर्ट माने जाते थे छोटन चाचा। मेहमान को देख शुरू हो जाते।
पर फागुन की यह मादकता मेरे लिए नहीं होती। मैं होलैया के साथ तो होता पर मन हमेशा कहीं और होता। हर छत पर नजर रीना को तलाशती पर वह कहीं नहीं दिखती। वहां तो एक दम नहीं जहां होली हो रही हो। फागुन के अश्लील गीतों के साथ शायद वह मेरा सामना नहीं करना चाहती। यह शर्म थी गांव की उस गोरी का जिसने प्यार से अपना मन रंग लिया था। पर मैं भी कहां बाज आने वाला। कई चक्कर लगाता उसकी गली का। होली गाता हुआ निकलता पर वह नजर नहीं आती। बहुत गुस्सा आता और रात नौ बजे तक मैं उसकी गली के सैकड़ों चक्कर किसी ने किसी बहाने लगा आता। दोस्त पूछ ही लेते कहां गायब हो जाते हो, बहाना कुछ से कुछ बना देता। तीन चार फागुन गुजर गए और रीना को रंग लगाने का मेरे मन मे उठा अरमानों का तूफान घर जा कर ज्वारभाटे की तरह हीलोरे मार मार के थक जाती। फिर शुरू हो जाता रूठने का सिलसिला। >>> |
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बड़ा सिम्पल सा तरीका था। उसके घर की ओर खुलने वाली मेरी खिड़की खुलती ही नहीं। कुंए से पानी लाना बंद। स्कूल जाना बंद। घर से बाहर निकलने का रास्ता बदल जाता। मैं भरसक प्रयास यह करता की उसे दिखाई न दूं और चुपके चुपके मैं छत पर टहलते उस विरहनी को देख देख इतरा रहा होता जिसे उसके प्रेमी ने शायद ठुकरा दिया हो। अंत में प्यार का ज्वाराभाटा फूट पड़ता और वह मेरे घर धमक जाती।
बुआ से पुछती। ‘‘बबलुआ नै हो की मामा।’’ बुआ तो भोली ठहरी, कह देती हां रीना बउआ यहैं हो की । तब कुछ देर बाद इधर उधर की बात कर वह मेरे कमरे मे झांकती और उसके उदास चेहरे को नजदीक से देख मैं समझ जाता कि वह दो-तीन दिनो से खाना तक नहीं खाई है। हां उसका प्रेम पत्र जरूर मिला , जिसे पढ़ कर मैं उसके दर्द को देख लेता और उसमें रीना के रोने की आवाज और उसके आंसू मुझे दिखाई दे जाते। कैसा प्यार था। तीन चार साल बीत गए पर प्यार का इजहार का माध्यम महज प्रेम पत्र था। उसमें भी शब्द भी वैसे ही जैसा एक गांव का लड़का लिख सकता हो। हजारो गलतियां पर भाव जो उसमें होते वह हम दोनो के लिए किसी साहित्यिक प्रेम पत्र से कम कतई नहीं। >>> |
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‘‘बगलुआ’’ यह मेरा नाम था जो मेरी फूआ की सास जैतपुरवली पुकारती थी। गांव के जीवन में भी बहुत सीखने और देखने को मिला। ऐसी ही एक घटना थी भूत की कहानी। आज रात को अचानक फूआ की सास जैतपुरवली के पेट में दर्द उठा और वह बेचैन हो गई। पहले घर में, फिर बाहर यह हल्ला मच गया कि जैतपुरवली को किचिन ने धर लिया।
‘‘की होलाई हो’’ ‘‘किचिनिया पेटा में बच्चबा दे देलकै’’ मरकट्टी बाग में किचिनिया जैतपुरवली के पेटा में बच्चबा घुंसा देलकै, बेचारी छटपटा रहलखिन है’’ ‘‘कखने होलई ई’’ ‘‘संझिया, जानो हलखिन की मरकटी बगैचा में किचिन रहो है तभियो उधरे गेलखिन अब कने से भगत अइतै’’ मरकट्टी बागीचा गांव के बगल में ही आम का बागीचा था जिसके बारे में यह प्रसिद्धि थी कि शाम को वहां किचिन अर्थात भूत रहता है जो वहां से गुजरने वालों के पेट में बच्चा डाल देता है। गांव में एक गर्भवती महिला का निधन हुआ था जिसे वहीं जलाया गया था और लोग मानते थे की मरने के बाद वह किचिन बन गई है। >>> |
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गांव में जब भी लोगों का पेट फूल जाता तो लोग इसे किचिन का प्रकोप ही मानते थे और आज भी ऐसा ही हुआ। गांव में ही एक भगत जी रहते थे उनको बुलाया गया झाड़-फूंक हुई तब कहीं जा कर यह मामला शांत हुआ। आज तक यह पहेली पहेली ही है कि दर्द कैसे ठीक हो गया। खैर, बचपन से ही इन चीजों मे मेरा विश्वास नहीं था और मैं रात में भी आम का बगीचा मरकटटी बाग चला जाता था।
संयोग से एक शाम मैं साईकिल से बरबीघा से लौट रहा था। झोला-झोली का समय था और सड़क पर एक भी आदमी नजर नहीं आ रहे थे। जैतपुरवली के साथ किचिन प्रकरण अभी परसों ही घटा था और मैं वहां से गुजर रहा था। मरकटी बाग के जैसे जैसे नजदीक आता गया वैसे वैसे कलेजे की धड़कन बढ़ने लगी। चांदनी रात भी बिल्कुल सिनेमाई थी। बाग से अभी थोड़ी दूर ही था कि एक सफेद सी चीज के सड़क पार करने का बहम हुआ। बहम इसलिए कि मैं दाबे से नहीं कह सकता कि किसी चीज को देखा। बस लगा कि जैसे किसी ने सड़क पार किया हो। कलेजे की धड़कन और तेज हो गई। साईकिल की घंटी जोर जोर से बजाने लगा। >>> |
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आम तौर पर इस समय सड़क पर शाम में टहलने वाले लोग रहते थे पर आज क्या हो गया। कुछ मामला है कि कोई नजर नहीं आ रहा। कुछ ही क्षणों में कई सवाल मन में गुजर गए और साईकिल के पैंडिल पर पांव की रफ्तार तेज होने लगी। जैसे ही मरकटटी बाग के पास पहूंचा लगा कि कोई साईकिल के पिछले पहिये को जकड़ लिया हो और वह बढ़ ही नहीं रहा था। वह गर्मी और सर्दी के बीच का मौसम था पर मेरे चेहरे से पसीने की बूंद टपकने लगे और पूरा शरीर पसीने से लथ पथ हो गया। ऐसा लगा कि जैसे सांस थम ही जाएगी और आज मैं जिंदा यहां से नहीं जाउंगा। मेरा ध्यान भी पेट की ओर गया कहीं यह फूल तो नहीं रहा। गांव में एक मान्यता यह भी थी कि लोहा के संपर्क में रहने से किचिन या भूत नही पकड़ता सो मेरी पकड़ साईकिल पर और मजबूत हो गई। मुझे मन ही मन लग रहा था कि किचिन साईकिल छिनना चाहती है पर मैंने पूरी ताकत से साईकिल को पकड़ रखा था। जोर जोर से हनुमान चालीसा का पाठ भी प्रारंभ कर दिया। जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। साईकिल पर मेरे पांव का दबाब बढ़ता गया और मेरे शरीर में जितनी ताकत थी वह मैं साईकिल के पैडल को घूमाने में लगा रहा था और साईकिल बढ़ ही नहीं रही थी। किसी ने साईकिल को जकड़ लिया था। पर मैंने भी हार नहीं मानी और पैडल पर दबाब बनाता रहा, धीरे धीरे साईकिल बढ़ती गयी और मैं एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। घर तक पहूंचने में बहुत समय लगा, पर पहुंच गया। जान में जान आई, पर साईकिल का पहीया अभी भी नहीं घूम रहा था। >>> |
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पसीने से तर-बतर जब घर पहुंचा तो फूआ ने पूछ लिया:
‘‘कि होलउ रे, पसीने पसीने होल ही’’ मैं कुछ नहीं बोला, मेरे सीने की धड़कन बढ़ी हुई थी। मैं जाकर खटिये पर लेट गया। फूआ ने लाकर पानी दिया। पानी पीने के बाद मैंने बताया, ‘‘आज किचिनिया पकड़ रहलौ हल पर हमभी साईकिलिया छोड़बे नै कलिए।’’ खैर सुबह हुई और जब मैं साईकिल को जाकर देखा तो किचिन और भूत का सारा बाकया समझ में आ गया। साइकिल के पिछले पहिये में कपड़ा फंसा हुआ था जिसकी वजह से वह घूमने में दिक्कत कर रही थी। सारा मामला समझ में आ गया पर मन में उस बागीचे के बगल से गुजरते वक्त आज भी डर लगता। भूत के इस प्रकरण पर एक छोटी सी घटना याद आ गई। वह बचपन के दिन थे। मैं, गुडडू, बब्लू सहित कई दोस्त बरगद पेड़ के नीचे बैठे थे। झोला-झोली हो गई थी। तभी मेरे मन में एक खुराफात सूझी और मैं भूत भरने का नाटक करने लगा। मैं मूंह से अजीब अजीब आवाज निकालने लगा। आठ दस साथी वहां थे। पहले सभी ने इसे हल्के में लिया। किसी ने कहा देख यार यह सब मजाक ठीक नै हाउ। तो किसी ने कहा कि मैं डरने वाला नहीं पर मैं भूत भरने का नाटक करता रहा। झूमता रहा और आवाज निकालता रहा। एक एक कर सभी वहां से भाग गए पर गुडडू साहसी था उसने कहा कि हम डरे वाला नै हिअउ। नै भागबै। पर जब सभी भाग गए तो वह भी डरने लगा और जैसे ही वह भागने की कोशीश करने लगा तो मैं हंस पड़ा तब वह समझ गया कि मैं नाटक कर रहा था। >>> |
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देह में एक सनसनी सी दौर गई थी, बात ही कुछ ऐसी हुई। शाम का समय था और मैं हमेशा की तरह शाम में रीना के घर के बगल में स्थित कुंआं से पानी लेने के लिए गया हुआ था। इसी बीच कहीं से रीना आ रही थी। सूरज अपने घर जा चुके थे जिसकी वजह से अंधेरा होने के लक्षण दिखने लगे थे। अभी पानी लेने के लिए कुंयें में बाल्टी डाली ही थी कि रीना पास आ गई और हमेशा की तरह उसकी चुहलबाजी शुरू हो गई।
‘‘ की रे बरहिला, बढ़ीया से पानी भरहीं नै तो खाना नै मिलताउ’’ उसकी यह बात सुनते ही सटाक से पानी से भरी हुई बाल्टी निकाली और चबुतरा पर पटकते हुए रीना का हाथ पकड़ कर उमेठ दिया। ‘‘तोंय जब गोबरा ठोकों ही तब नौरी होबोहीं की..अपन काम करोहीए बराहीलगीरी नै, जादे मामा नै बनहीं’’ वह छटपटाने लगी पर उसकी उस छटपटाहट में एक अलग सा एहसास था जैसे वह वांहों में आ जाना चाहती है। ‘‘छोड़ हाथा, नै तो ठीक नै हो ताउव, हल्ला करे लगबै’’ और वह छटक कर भागने की कोशिश की और इस हाथापाई में मेरा हाथ उसके सीने से सरकता हुआ गुजर गया। इस छुअन ने सनसनी पैदा कर दी। यह पहला एहसास था, इस तरह से उसको छूने का। धड़कने तेज हो गई। जोर जोर से सांस चलने लगी और रगों में खून का बहाव ही तेज हो गया। >>> |
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सनसनी का यह सिलसिला दूसरी तरफ भी थी और वह हिरणी की तरह कुलांचे भरती हुई छटक कर भाग गई। इस एक छोटे से एहसास ने मुझे तर-बतर कर दिया। किशोरवस्था का यह दौर भटकाव का होता है, ऐसा सुन रखा था पर आज मन काबू में नहीं था। घर आया, लैम्प जलाकर पढ़ने के लिए बैठ गया पर किताबों में मन ही नहीं रमता। जाने क्या हो गया। कुछ कुछ अजीब सा होने लगा था। उस रात बेचैनी में कट गई। सारी रात जागता रहा और मन कल्पनाओं की उंची उड़ान भरता रहा।
इस घटना का असर काफी गहरा हुआ। रीना अब कई दिनों से नजर नहीं आ रही थी। मेरे मन में भी कई तरह के ख्याल आने लगे और सबसे बुरा ख्याल यह कि शायद वह बुरा मान गई। पर मन को मैं समझाता कि मैंने जान बूझ कर ऐसा तो नहीं किया। कभी कभी यह भी सोंचता कि वह क्या सोंच रही होगी। कितना नीच हूं मैं। खैर भविष्य संवारने के जज्बे में सारी कल्पनाओं को समुंद्र में जा कर दूसरे दिन डुबो दिया और मैट्रिक की परीक्षा अच्छी गई। मैं प्रथम श्रेणी से उतीर्ण हुआ। गांव में सबसे अधिक अंक गुडडू के आये उसके बाद मेरा नंबर था। लोग पूछने लगे ‘‘कखने पढ़ो हलही रे।’’ >>> |
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पर इसमें मेरे स्वाध्याय का हाथ तो था ही साथ ही साथ बिहारी डिग्री का भी बड़ा योगदान था। परीक्षा केन्द्र सामस में बनाया गया था जहां परीक्षा देने के लिए सब साथी पैदल करीब आठ किलोमीटर प्रति दिन जाते थे। मैट्रिक की परीक्षा मेरे यहां किसी पर्व त्योहार के कम नहीं होती । घरों में पकवान बनते, कुटुम-नाता सब दूर दूर से यह जान कर आते कि परीक्षा होने वाली है। सालियों के नये नये जीजा जी नहीं आये तो हंगामा हो जाता बड़ा खत्म आदमी है। और परीक्षा केन्द्र का नजारा भी मेले की तरह रहता। पच्चीस हजार से अधिक लोग केन्द्र के आस पास होते और नकल करने को लेकर तरह तरह की योजनाऐं बनती। परीक्षा केन्द्र पर विषयों के जानकारों की काफी पूछ होती और उनके आस पास ट्रेसिंग पेपर और कार्बन लेकर पुर्जा बनाने वालों का जमाबड़ा लगा रहता और इसकी कीमत बसूली जाती।
अपने अपने परीक्षार्थियों को पर्चा पहुंचाने का काम भी एक कला की श्रेणी में आता और इसके लिए एक्सपर्ट को बुलाया जाता जो तेज दौड़ सके अथवा दीवाल बगैरह फांद सके। मेरा पर्चा पहुंचाने के लिए नन्दनामा से रिश्तेदार मुकेश दा को बुलाया गया। एक परीक्षार्थी पर आठ-दस लोग। पर्चा लेकर केन्द्र की ओर बढ़ने से पहले हाथ में आठ दस रूपये का रेजगारी रखना पड़ता और यदि सामने पुलिस का कोई जवान दिख जाए तो डरने की जरूरत नहीं होती बस आप के हाथ में रखे रेजगरी को कुर्बान होना पड़ता। पुलिस वाला दौड़ दौड़ कर पुर्जा पहुंचाने वालों को पकड़ता और उससे बसूली करने लगता और इसी बीच जो तेज होता वह झट से पुर्जा पहूंचा देता। >>> |
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और इस तरह मैंने प्रथम श्रेणी प्राप्त किया। हां परीक्षा केन्द्र पर ही पहली बार मैं मोटर साईकिल चलाना सीखा। वह हीरो मजेस्टीक मोपेड थी जिसपर सवार होकर बरबीघा का पवन माहुरी आता था। उस मोपेड को बब्लू ने स्कूल से बाहर लुढ़काते हुए किया और झट से मैं उस पर बैठ गया, मोपेड जब सड़क पर आई तो गुडडू और बब्लू ने उसे धक्का दे दिया और वह स्टार्ट हो गई। फिर क्या था मोपेड लेकर मैं नौ दो ग्यारह। चलाना जानता नहीं था पर चला रहा था और कई किलोमीटर जाकर लौट आया। यहां आया तो हंगामा मचा हुआ था। पवन चिल्ला रहा था यह ठीक नहीं है। बस।
इस बीच कई दिनों तक रीना से उस घटना के बाद बातचीत हीं हो पाई कभी कभी दिख भी गई पर जैसे ही नजर मिली वह शर्मा कर कुलांचे भरती भाग जाती। जाने कैसी शर्म थी जो इतने दिनों तक साथ निभा रही थी और मुझे भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो पाई। पर मैट्रीक का रिजल्ट आने के बाद वह मेरे घर आई- आंय शेरपरवाली बबलूआ फस्ट लइलको मिठाईया नै खिलाभे’’ मेरे फूआ से वह बोली और उसने झट से मुझ पर टाल दिया। ‘‘आउ हको जाके पुछो’’ वह मेरे कमरे में आई। ‘‘तब की इरादा है मिठाई चलतै।’’ ‘‘हां चलतई नै जरूरी खिलइबई’’ बस इतनी ही बात हुई और फिर पढ़ाई की बातें होने लगी। ‘‘कहां इंटर में नाम लिखैइमही।’’ ‘‘देखीं, पटना जायके तो पैसा नै हई, यहीं एसकेआर कॉलेज में लिखाइबै’’ >>> |
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जुवां से हमदोनों की बातें हो रही थी जिसे हर कोई सुन रहा था पर नजरों की भाषा नजरें समझ रही थी। दोनों की नजर रह रह कर उठ जाती और उसमें एक अजीब सा शुरूर की झलक मिलती। दोनों एक दूसरे से अपने दिल की बात कह जाते।
जाते जाते रीना ने हाथ में थाम रखा प्रेम पत्र मुझे दे दिया। प्रेम पत्र कम भविष्य की चिंता इसमें अधिक थी। आगे क्या करना है। आदि इत्यादी.... सिलसिला चल रहा था घीरे घीरे और इस सब के बीच हमदोनों के प्रेम प्रसंग को अभी तक कोई नहीं जान सका था पर अब लोगों को इसकी भनक लगने लगी थी पर शक ही था सिर्फ। पर कुछ घटनाऐं ऐसी घटने लगी की मैं भी नहीं समझ सका और पूरा गांव भी जान गया। इस बीच मैं कॉलेज जाने लगा था। कॉलेज का पहला दिन भी यादगार ही रहा। यादगार इस मायने में कि पहला ही दिन गुडडू बिना एडमीशन के ही मेरे साथ क्लास चला गया। फीजिक्स का क्लास था और कड़क माने जोने वाले गुप्ता जी क्लास लेने आये। पहला दिन सा, सो सभी लड़के से नाम और रौल नंबर पूछ रहे थे। जब मेरी बारी आई तो मैंने बता दिया पर वहीं बगल में बैठा गुडडू से जब पूछा गया तो उसने बताया कि वह एडमीशन नहीं कराया है। यह जानकर गुप्ताजी भड़क गये। >>> |
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‘‘कॉलेज है कि दलान बना दिया, पढ़ना लिखना है नहीं आ जाते हो कॉलेज, तुम्हारे जैसे ही लोग कॉलेज मंे आकर उधम मचाते है। निकलो क्लास से’’
गुप्ता जी का इतना कहना की गुडडू भड़क गया। क्लास से निकलते निकलते दरबाजे से उसने जो किया उसे देख मेरे साथ सभी स्तब्ध रह गये। दरबाजे पर पहंूचते ही गुडडू ने गुप्ता जी को गाली दे दी। ‘‘साला बाबा बनो हीं, निकल बाहर आज तोरा मथबा नै फाड़ देहिऔ त कहियें’’ गुडडू को चूंकी इस कॉलेज में नहीं पढ़ना था सो उसने ऐसा किया। उसकी छानबीन हुई, ‘‘कहां का लड़का था, तुम्हारे बगल में बैठा था बताओं’’ डर से मैं बता दिया और उसका गुस्सा मुझ पर उतारा गया, पिटाई लगी। कॉलेज का दूसरा दिन भी यादगार ही रहा जब जन्तुविज्ञान का क्लास लेने के लिए पहली बार प्रो. रिजमी सर आये तो उनका पहला लेक्चर मेरे जीवन पर गहरी छाप छोड़ गया। उन्होंने छात्रों को समझाते हुए कहा ‘‘कोई विद्यार्थी किसी से कमजोर है तो वह खुद को कमजोर नहीं समझे। नियमित अध्यनन और तेज विद्यार्थी यदि बारह घंटे पढ़ता है तो वह चौदह घंटा पढ़े मैं दाबा करता हूं कि वह उससे आगे रहेगा’’ >>> |
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मैंने उनके इस मंत्र को गुरू मंत्र मान कर अपनाया और स्वाध्याय में जुट गया। आर्थिक तंगी थी पर मन में डाक्टर बनने का सपना पाल लिया। जीवविज्ञान की रूची थी सो उसमें पढ़ई करने लगा। प्रो. रिजमी सर के बातें का असर यह हुआ कि इंटर का परीक्षा आते आते मैं अपने क्लास के अच्छे विद्यार्थी की श्रेणी में आने लगा। यह बाकया भी यादगार है। इंटर का अंतिम दिन था और परीक्षा का फॉर्म भराने लगा था। रिजमी सर जगरूक शिक्षकों में थे सो उन्होंने प्रायौगिक कक्षा में अंतिम दिन क्विज़ प्रतियोगिता का आयोजन किया।
लड़के लड़कियों को दो भागों में बांट दिया। एक भाग में मैं और कुछ कॉलेज के विद्यार्थी थे और दूसरे भाग में रिजमीं सर से ट्युशन में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी। क्विज़ शुरू हुई तो मेरे ग्रुप से एक मैं और एक वहीं छात्रावास में रहने वाला राजू प्रश्नों का जबाब दे रहे थे और दूसरे ग्रुप में सारे लड़के तेज थे पर क्विज के अंत में जब परिणाम आया तो मेरा गु्रप जीत गया और उस जीत का श्रेय मुझे मिला। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई थी। इसी बीच दूसरे दिन मैं बाजार से आ रहा कि कि पान की गुमटी के पास रिजमी सर, देव बाबू सहित करीब आधा दर्जन प्रोफेसर मेरी ओर इशारा करते हुए कुछ बातें कर रहे थे और मैं जैसे ही नजदीक आया मुझे बुला लिया गया। मैं चूँकि संकोची स्वभाव का था इसलिए नर्वस था। जाने क्या कहेगें। रिजमी सर ने सीधे सवाल दागा- >>> |
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‘‘कहां ट्युशन पढ़ते हो’’
‘‘कहीं नहीं सर’’ ‘‘तब इतना अच्छा कैसे जानते हो’’ ‘‘ जी आपने ही पढ़ाया है सर, आपके पहले क्लास का मंत्र को अपना कर घर में ही पढ़ता हूं’’ ‘‘कहां घर है, किसका बेटा हो’’ बताया तो लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। बाजार से वास्ता रखने वाले लगभग सभी लोग मेरे पिताजी को जानते थे, एक शराबी के रूप में। खैर कॉलेज की बातें फिर कभी। अभी तो एक लड़की थी दीवानी सी और वह मुझ पर मरती थी। ऐसी ही एक लड़की का प्रवेश मेरे जीवन मंे हुआ। उसका नाम था उषा जो वहीं अपनी बड़ी बहन के यहां पढ़ने आई और पता नहीं क्यों मुझ पर फिदा हो गई ‘‘बबलु बौउआ, हमर बहिन आइलै हैं पढ़े खातिर जरि मिल के कुछ सलाह नै दे देबहो।’’ ‘‘काहे नै देबई, भईया के साली आधी घरवाली’’ कखने मिलाइभो’’ ‘‘आहो ने अभिये, देखो ने की पढ़तै से ओकरा पते नै है, जरी समझा दहो बउआ।’’ >>> |
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मुझको बबलु बौउआ कहने वाली एक मात्र भौजी थी। पता नहीं कैसे पर कुछ ही महिनों के परिश्रम से गांव में यह खबर फैल गई थी कि मैं भी पढ़ाकू हो गया हूं और इसलिए भौजी ने अपनी बहन को किस विषय से पढ़ाई करे इसके लिए समझाने कह रही थी। गली से गुजरते समय भौजी ने देख लिया और पुकार लगा दी, भला किसकी मजाल जो नहीं जाता, सो मैं भी गया। वहीं ओसारा पर चौकी लगा था और मैं बैठ गया। भौजी ने अपनी बहन को बुलाया, ‘‘यह देखो बाउआ इहे हो हम्मर नकचढ़ी बहिन, समझा दहो।’’ लड़कियों के मामले में मैं बड़ा ही कमजोर रहा हूं और यदि कोई सामने हो तो उसे देखने की हिम्मत नहीं होती और मैं ही शर्मा जाता, हां चोरी चोरी चुपके चुपके अैर बात है। आज भी ऐसा ही हो रहा था। भौजी बोलती तब मैं कुछ पूछता और वह जबाब देती। इस सब के बीच भौजी की बातों से यह समझ गया कि इसके सामने भौजी ने मेरी खूब प्रशन्सा कर दी है जिसकी वजह से यह संकोंच कर रही है। कुछ देर बाद भौजी अंदर चली गई और राधा (पुकारू नाम था) मेरे सामने एक दो हाथ की दूरी पर नजरें झुकाए खड़ी थी। जैसे ही मैने देखा की वह मेरी ओर नहीं देख रही है मैं उसकी ओर अपनी नजरें जमा दी। >>> |
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वह नाटे कद-कठी की खूब डीलडौल वाली लड़की थी। करीब पांच, सवा-पांच फीट की राधा का महज रंग ही सांवला था पर उसके चेहरे पर एक अजीब सा आकर्षण था जो किसी को भी आकर्षित कर सकता था। उसका डीलडौल एक कसाब लिये था। भरा भरा देह, कजरारी आंख, गोल गोल गाल, बड़ी बड़ी आंखें और कमर से बहुत नीचे तक झुमते लंबे बाल। उसने आंखों में काजल लगा रखा था। सबसे बढ़कर जिस चीज पर मेरी नजर ठहर गई वह थी उसका उरोज। दो बड़े बड़े, दोनो प्रतिस्पर्धा कर रही है एक दूसरे से और अंगिया से बाहर आने को बेताब सी दिखती। उसका पल्लू भी थोड़ा सड़का हुआ था। मैं बेचैन हो गया और नजरें झुका ली। इतने पर भी वह नजरे झुकाये रही और मैं उसके रूप-यौवन का रस चोर भंवरे की तरह पीता रहा। खैर, साहस कर मैंने पूछ लिया।
‘‘ कौन विषय पढ़े ले चाहो हो जी, अपन गांव छोड़ कर यहां अइलहो हें कुछ सोंचई के ने’’ ‘‘नै अइसन कुछ सोंच के ता नै अइलिए हें, जे तोरा सब के सलाह होतइ उहे पढ़ लेबै’’ ‘‘तभिओ अपन की विचार है, विदारर्थी के अपने मन से पढ़े के चाही, कम से कम हम तो इहे कहबो, बाकि अपन अपन विचार’’ ‘‘जी नै, दीदी कहलखिन कि अपने से विचार कर लियै तब मन बनाईए इहे से अभी कुछ नै सोंचलिए हें’’ >>> |
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उसके साथ बातचीत तो चल रही थी पर मेरी नजर बार बार उठ जाती और उसकी नजर हमेशा मैं जमीन में गड़ा हुआ पाता। बातचीत का यह सिलसिला घंटों चला, विषय तक बात पहूंचते पहूंचते मैंने अपनी पसंद का विषय उसे जीवविज्ञान बता दिया। साथ ही कुछ सवाल भी दागे जैसे अमीबा का प्रजनन कैसे होता है? परागन क्या है? आदि।
कैरियर को लेकर भी बात हुई जिसमें डाक्टर बनने की बात हुई। बात चलती रही, इस बीच उसने एक बार भी अपने पल्लू को संभालने का प्रयास नहीं किया और अंत में जब उसके चेहरे पर नजर गई तो मैं दंग रह गया, वह पसीने से बोथ थी। चेहरे से पसीना पानी बन कर टपक रहा था, ब्लाउज भींग गए थे और एक खास बात थी कि उसकी सांसे जोर जोर से चल रही थी। मैं वहां अजीब सा महसूस करने लगा। इतने देर तक इस विषम परस्थिति में बात करने का पहला अनुभव था। लगा की रगों में खून का बहाव तेज हो गया है और वह फट पड़ेगा। मैं वहां से जाना चाहता था, सो भौजी को आवाज दी, ‘‘जाहीओ’’ ‘‘काहे बउआ, बैठो ने, कहते हुए वह आ गई और अन्त में इंटर की पढ़ाई जीवविज्ञान के साथ करने का फैसला हुआ। इस बीच शाम में हम लोग तालाब के किनारे बरगद के पेंड़ के नीचे बैठना शुरू कर दिया था। इस बैठकी में गांव से लेकर सिनेमा सभी तरह की बातें होती, और यह भी योजना बनती की आज किसका आम तोड़ना है पर आज उस बैठकी में दूसरी बात ही उठ गई। बात सामदेव ने छेड़ी, वह दूसरे के घरों की खबर लाने वाला खबरीलाल था और कौन लड़की का किसके साथ चक्कर चल रहा है इस विषय का वह विशेषज्ञ था। उसकी उम्र भी हम सबसे अधिक थी। >>> |
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‘‘सुनलही ने हो, मल्हूआ के बाबूजी अपन पुतौहुये से फंसल हखीन, सब दलान पर बड़का आदमी इहे चर्चा अभी कर रहलै हें’’
‘‘धत्त साल, इहे सब खबर रखें हें, इहो ने पगला गेलई हे, लंद फंद खिस्सा करते रहतै’’ मैने टोकते हुए कहा पर सामदेवा का समर्थन करते हुए कमलेश ने भी हांमी भर दी। ‘‘ सचे बात है तउ, सब तो कह रहलै हें, तोरा काहे जबूर लगो है’’ बाद में इस बात की छान बीन हुई और अपने अपने स्तर से सभी ने इस बात का पता लगाया और अन्त में उस बरगदी बैठक खाने में इस बात पर फैसला हो गया कि यह बात सही। खास कर सामदेव ने जरूरी जानकारी दी। ‘‘ जानो ही हो कल बाप बेटा में खूब लड़ाई होलइ, मल्हुआ कह रहलै हल कि हम हरियाणा कमाई ले गेलिओ और तों हमर मौगी के फुसला लेला।, अब मल्हुआ हरियाणा पंजाब नै जइतै, इम साल यहीं खेती करतै।’’ मल्हुआ के बाबूजी मास्टर साहब, सरकारी स्कूल में मास्टर थे और इसी नाम से जाने जाते थे। मास्टर के बारे में गांव के लोग अक्सर कहा करते कि जिस मास्टर ने स्कूल में बच्चों को नहीं पढ़ाया उसका बेटा भी अनपढ़ रहता है और इस बात का प्रमाण मास्टर साहब के रूप में मौजूद था। मास्टर साहब कभी समय पर स्कूल नहीं गए और गए भी तो पढ़ाया नहीं और उनका बेटा मल्हूआ गंबार है। तीन साल पहले ही शादी हुुई थी। खूब तिलक दिया गया था। कई बरतुहार आया और अन्त में नवादा जिले के नरहट में उसकी शादी हुई। बारात में खूब स्वागत किया गया और दुल्हन के बारे में गांव भर में चर्चा चली थी कि बुरबकबा मल्हूआ के कन्याय श्रीदेवी मिललै है। शादी के एक साल बाद ही मल्हूआ कमाने के लिए हरियाणा चला गया। >>> |
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इस सब के बीच मैं शकून महसूस कर रहा था, मेरी चर्चा किसी के द्वारा अभी नहीं हो रही थी। शाम को वहीं बरगद के पेंड़ के नीचे बैठा था कि बाहर जाती रीना वहीं से गुजर रही थी अपनी सहेलियों के साथ, मुझे देखा तो दाग लिया गोला,‘‘खूब साली के साथ मटरगस्ती होबो है यार आज कल, पूरा राय-मशबरा देल जा है’’ मैं समझ गया रीना को राधा से मिलने वाली बात का किसी तरह से पता चल गया। हो गया फेरा, चुंकी वह अपनी सहेलियों को सुनाते हुए यह बात कही थी सो मैं चुप रहा पर एक बात समझ गया कि राधा से मिलने में आगे खतरा है। दूसरे दिन फिर से भौजी का बुलाहट आ गया और मैंने जाने से इंकार नहीं किया.....
प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आतीं है बिजलियां अर्श से खुद रास्ता दिखलाती है। रेडियो के इस दौर में गजल की ये पंक्तियां याद हो गई थी और अपने प्यार में कोई बेइमानी नहीं हो ऐसा हमेशा प्रयास करता रहा सो राधा के बारे में मेरे मन मे कोई बुरा ख्याल कभी नहीं आया, हां चूंकी रीना की नजर उस तरफ थी सो मुझे एक ऐसा हथियार मिल गया जिसको सान पर चढ़ा कर मैं इसकी धार को चोखा करता रहता। दूसरे दिन जब राधा के घर गया तो आठवां आशचर्य हुआ, राधा आइने के सामने बन-संवर रही थी तभी मेरी नजर उस तरफ गई, वह सिंदूर कर रही थी। बाद के दिनों में बहुत कुछ जानने का मौका मिला राधा के बारे में और वह एक फिल्मी चरित्र की तरह उभर कर सामने आई। राधा पढ़ना चाहती थी इसलिए नहीं की उसे कुछ करना है बल्कि इसलिए कि उसे अपने पति से छुटकारा चाहिए। राधा की शादी मां बाप में बचपन में गांव के बड़े किसान से कर दी थी। एक दिन बात ही बात में भौजी ने बताया भी - ‘‘ बीस पच्चीस बीधा खेत है बबलू बउआ और सोंचों की चाहि, पर इ मुंहझौंसी के दुल्हा पसंदे नै हो, कहो है गोबर ठोकबा घर में नै जइबै।’’ >>> |
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कुछ दिन से आने जाने से जान सका था कि राधा बहुत गंभीर लड़की है पर उसके चेहरे पर हमेशा हंसी की एक पतली रेखा तैरती रहती था पर आज अपने बहन के मुंह से दुल्हे और ससुराल के बारे में बातें सुन कर उसके चेहरे पर उदासी छा गई और लगा जैसे वह रो देगी और बोल पड़ी...
‘‘देख दीदी हमर ससुराल के बारे में कुछ बात मत कह नै तो हम यहां नै रहबै, हम्मरा इ सब नै सोहाबो है’’ काहे नै सोहाबो है ? सैंया के छोड़ देमहीं कि, की खराबी है उनखा में।’’ ‘‘हां छोड़ देबै, हम कहिनों उ घर में नै जइबै’’ राधा के प्रतिकार की भाषा एकदम कठोर थी और अमूमन अपनी बड़ी बहन से शालीनता से बात करने वाली राधा आज तन कर जबाब दे रही थी। उधर रीना को मेरा राधा के घर आना जाना नहीं सुहा रहा था और वह इस बात से चिढ़ तो पहले से ही रही थी इसका विरोध करने लगी। एक दिन आकर घर में धमक पड़ी। फूआ के सामने किताब और पढ़ाई की बातें हुई और उसके जाते ही बरस पड़ी। ‘‘खूब मस्ती हो रहलै है रधिया के साथ, हमरा ई सब नै सोहाबो है, जादे स्माट बने के कोशीश नै करींह।’’ खूब जनोहिए कि उ छौड़ी कतना मर्दमराय है’’ ‘‘अउसन कोई बात नै है जे तों समझ रहलीं हें, भौजी बोलालें हकखीन त की करिये।’’ >>> |
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खूब बहस हुआ और अन्त में रीना का कारगर हथियार आंसू के रूप में निकल आये और मैंने आत्मसमपर्ण कर दिया। रीना ने राधा के बारे में कई बातों की जानकारी इक्कठा कर ली है और उसने ही बताया कि-
‘‘रधिया तो अपन सांय के कोहबरे दिन भगा देलकै, और ससुराल जइबे नै करो है।’’ खैर मैने माफी मांगी और राधा के पास नहीं जाने का भरोसा दिलाया पर राधा का लगाव बना रहा और बात बेबात वह मेरे घर आने जाने लगी। इतना ही नहीं जब कॉलेज जाना होता तो वह भी पता नहीं कैसे, पीछे लग जाती। धीरे धीरे रास्तों में बातें होने लगी। बहुत ही निष्छल सा वर्तालप। रास्ते से लेकर कॉलेज तक चलता। किताबों और विषयों की ज्यादा बात होती। चुंकि राधा शादीशुदा थी सो कॉलेज में उससे बातचीत करने में कोई खास दिक्कत नहीं होती, वरना ग्रामीण माहौल के कॉलेज में लड़कियों से बात करने का मतलब होता गड़बड़ और जंगल में आग की तरह इसकी चर्चा फैल जाती। एक दिन एक दोस्त ने साथ देख पूछ लिया, ‘‘के है हो’’ मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया.. ‘‘हमर कन्याय है’’ ‘‘हत्त, की कहो हीं, राधा को अपनी पत्नी बताना उसे हजम नहीं हो रहा था तो हमने कहा कि राधा से ही पूछ लो और उसने जब राधा की तरफ नजर धुमाई तो उसका सिर हांमी में हिल गया। मुझे अहसास हुआ कि मैंने गलती कर दी। >>> |
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उधर मैट्रीक के बाद रीना की पढ़ाई परिवार बालों ने बंद करा दी थी। गांव में उस समय चलन ही था की लड़की कॉलेज जाकर बिगड़ जाती है और फिर दशवां पास हो जाने के बाद बरतुहारी में कोई दिक्कत नहीं होती। खैर यह सिलसिला चल ही रहा था कि राधा से मांगी एक पुस्तक में से मेरे नाम लिखा एक प्रेम पत्र मिला जिसमें राधा ने मुझसे अपने प्रेम की बात बेबाकी से लिख दी। पत्र क्या था जैसे किसी चित्रकार ने उसे सजाया हो, दिल की तस्वीर से लेकर गुलाब और कमल के फुलों के बीच बबलू और राधा लिया था साथ ही साथ कई तरह के शेर।
मैं पत्र को लेकर उहापेह में रहा, जबाब दें या नहीं, किसी कोने मे सकारात्कमक जबाब देकर लाभ उठाने की बात भी आती पर रीना का प्यार, यह तो धोखा हो जाएगा और प्यार में धोखा हो तो प्यार नहीं मिलता ऐसी समझ बना ली थी सो इस पत्र का जबाब मैंने नहीं दिया और उससे मिलना जुलना बंद कर दिया। एक दिन पत्र को रीना को पढ़ा दिया और वह आग बबुला हो गई। उसी समय उससे लड़ने जाने लगी पर मैंने यह कह कर रोक लिया कि यह मेरे तरफ से यह नहीं है और इससे हंगामा हो जाएगा। गांव में अभी अपने संबंधों को कोई नहीं जानता सो चुप रहो। एक दिन गर्मी की दोपहर मैं अपने घर चौंकी पर सोया था। दोपहर की उस गहरी नींद से मैं अकबका कर उठ गया। लगा जैसे मेरा दम घुंट जाएगा। मेरी नींद खुली तो देखा कि सोने से पुर्व खिड़की पर रखी किताब को राधा लेने का प्रयास कर रही थी और इस प्रयास में उसके छाती मेरे चेहरे को अपने आगोश में ले रखा था और यह कुछ अधिक समय तक चलता रहा था जिससे मेरी नींद टूट गई पर उसने हटने का प्रयास नहीं किया। अजीब सा लगा। मैं लगभग उसे ढकेलता हुआ हटाया पर वह मुस्कुरा रही थी। अब समझा, उसके प्रेम पत्र का जबाब नहीं देना खतरनाक हुआ और उसने इसे मेरी हामी समझ ली। मेरे घर में आज कोई नहीं था और वह कमरे में आ गई थी >>> |
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इस प्रेम त्रिकोण का अंत करना ही मुझे श्रेष्यकर लगा और मैं मन ही मन सोंच रहा था कि रधिया को रीना के बारे में सब कुछ बता दूं पर उसके चेहरे के हाव-भाव और उसके प्रेमपूर्ण व्यवहार की वजह से मैं ऐसा करने का हिम्मत नहीं जुटा सका पर मैंने उसे इस तरह की हरकत करने से यह कह कर रोक दिया कि यह सब ठीक नहीं है। पर रधिया पर प्रेम की खुमारी थी सो वह थोड़े गुस्से में बोली-
‘‘ की खराबी है, प्रेम करो हियय बुराई की है।’’ ‘‘समाज एकरा ठीक नै मानों है’’ मैं ऐसा कह ही रहा था कि वह वहां से हंसती हुई भाग गई पर जब वह मेरे घर से निकल रही थी तभी रीना आ गई, लगता है किसी तरह से उसने उसे मेरे घर में देख लिया और आते ही घर से निकल रही रधिया को रोक कर उस पर बरस पड़ी। ‘‘आंय गे छौंड़ी, कुछो शरम नै हौ, अपन गांव से दुसरको के गांव आके इहे सब करमहीं।’’ ‘‘की इहे सब करमहीं, की कइलिऐ हें’’ रधिया भी भड़कते हुए जबाब दिया। उसे क्या पता कि रीना सब कुछ जानती है और उसने उसका प्रेम पत्र भी पढ़ लिया है सो वह उससे कड़क कर बोलना चाही पर रीना ने जो जबाब दिया तो वह सकपका कर भाग गई। रीना ने उसे कहा कि जा कर दीदी को तुम्हारा प्रेम पत्र दिखातें है और राधा समझ गई की यह सब कुछ जानती है। खैर मेरे लिए राहत की बात यही थी रीना को मैंने बता दिया था और जब रीना मेरे घर आई तो वह नाराज इस बात से हो गई कि मैं रधिया को अपने संबंध के बारे में क्यों नहीं बताता, तब रीना को मैंने समझाया कि अभी तक तो अपने बारे में गांव में कोई नहीं जानता पर जैसे ही उसे बताउंगा सब जान जाएगे, पर रीना में मुझसे ज्यादा साहस था सो उसने तन कर जबाब दिया, >>> |
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‘‘ तब केकरा परवाह है, डरो हिययै की किकरो से, प्यार किया तो डरना क्या।’’
रीना का यह एक साहसिक अंदाज था जिसने मुझे हिम्मत दिया। मैं रीना को कुछ समझा पाता इससे पहले ही रूठ गई कि कहीं तुम्हारे मन में भी तो पाप नहीं। रीना को मैं यह कैसे समझा पाता कि मन में पाप रहता तो अभी कुछ क्षण पूर्व जहां था वहां जीवन के अलौकीक आनंद में गोंता लगा रहा होता पर मेरे मन में पाप होने की बात जैसे ही रीना ने कही वैसे ही मन के किसी कोने में यह आवाज आने लगी कि कहीं यह बात ही तो सच नहीं। मेरे मन में पाप नहीं होता तो उसे बता ही देता पर छुपाने का यह बहाना, बहाना ही तो है। मैं भी सोंचने लगा शायद ऐसा कुछ है। खैर रीना चली गई थी रूठ कर, पर मैं जानता था कि वह कैसे मानेगी। रीना को मनाने और रिझाने का कई तरीका हमेशा आजमाता रहा और इसी में से एक तरीका आज अहले सुबह चार बजे हाथ आ गया। हुआ यूं कि सुबह सुबह कॉलेज के मैदान में दौड़ने जाता था जिसमें कई दोस्त साथ भी होते थे पर आज सुबह जैसे ही घर से निकला देखा रीना के घर में हंगामा मचा हुआ है। कौतुहलवश चला गया। ‘‘की होलई ?’’ ‘‘सांप है’’ >>> |
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रीना ने जबाब दिया, देखा वह एक कोने मे दुबकी हुई है और घर के लोग लाठी और गड़ासा लाने के लिए गुहार लगा रहे थे। जीवविज्ञान का छात्र होने की वजह से मैंने सांपों के बारे में खूब अध्ययन किया था और कौन सा सांप विषैला है और कौन सा विषहीन मैं बता सकता था और इस वजह से गांव मंे कभी कभी यदि विषहीन सांप दिख जाता तो उसे पकड़ लेता था और दोस्तों को डराता जिसमें हड़होड़ मामू और डोरबा सांप प्रमुख था। आज रीना के घर में उसे प्रभावित करने का एक मौका मिल गया था। सांप चापाकल के बगल में बैठा था और उसके मुंह में मेंढ़क थी। मेंढ़क की आवाज से ही लोग जान सके थे की सांप है। मैं वहां गया और देखने का प्रयास किया कि सांप कहां है पर वहां हल्का अंधेरा था और सांप बहुत बड़ा, लगभग तीन चार-फीट और मोटा भी। मैंने अनुमान लगाया कि धामिन सांप होगा जो कि विषहीन है। बस क्या था मैं रीना और उसके घर वालों को इम्प्रेस करने के लिए जब तक कोई कुछ समझ भी पाता तब तक सांप को गर्दन और पूंछ की तरफ से पकड़ा और लेकर निकल गया।
रीना के घर में कोहराम मच गया। रीना की मां और रीना रोने लगी पर मैं आब देखा न ताब सांप को पकड़कर घर से बाहर चला गया, पर घर से बाहर आने पर मेरा रोंआ रोंआ सिहर गया। बाहर हल्की रौशनी होने की वजह से मैं सांप को पहचान गया। वह गेहूमन सांप था, नाग। एक दम विषैला। मैं कांप गया। डर के मारे शरीर में सच की सिहरन उस गर्मी के मौसम में होने लगा थी पर मैंने साहस नहीं छोड़ा और सांप को पकड़े रहा बल्की उसकी गर्दन पर मेरी पकड़ और कड़ी हो गई। मैं दौड़ता हुआ भागा जा रहा था और थोड़ी दूर पर स्थित एक खेत में सांप को जोर से फेक दिया और दौड़ता हुआ भाग गया। >>> |
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कॉलेज से दौड़ कर आया तो घर में कोहराम मचा हुआ था। फूआ गरम थी और उसके बगल में रीना की मां भी बैठी हुई थी।
‘‘कोढ़ीया, उमता गेलहीं हे। सांपा के पकरो हीं, हीरो बनोहीं’’ फूआ कह रही थीं वहीं रीना की मां भी समझाने लगी, ‘‘हां बबलु बउआ, ई की करो हो, हमर घर में तो देखों कोहराम मच गेलई, कुछ हो जाइते हल तब बोलहो हमहीं ने बदनाम होतिओ हल।’’ मैं चुप रहा। उधर, रीना का गुस्सा भी सांतवें आसमान पर था इस बात की मुझे गारंटी थी पर कई घंटों तक वह जब नजर नहीं आई तो इसकी पुष्टी हो गई। रीना को रिझाने के लिए बचपन से ही कई तरह की हरकत करता रहा हूं। इसी कड़ी में कभी घर के सामने स्थित तलाब, जिसे एक बार तैर कर पार करना अच्छे अच्छे तैराक के लिए मुश्किल होता, मैं तीन चार-बार लगातार तैरता रहता और जब फूआ को इस बात का पता लगता तो वह घर से ही चिल्लाती, ‘‘अरे छौंड़ा उमता गेलहीं रें’’ तब बंद करता। एक दिन ऐसा ही हुआ। शाम की बेला थी और मैं बैल को खेत से लेकर आ रहा था। धान की रोपनी का समय था। फूफा छोटे किसान थे मात्र तीन बीधा खेत थी जिसके उपज के सहारे ही सारा कारोबार जीवन का चलना था। छोटे किसानों के लिए एक जोड़ी बैल रखना मुश्किल था सो एक अन्य छोटे किसान के एक बैल के साथ भांजा करना पड़ता। दोनों की खेती मिलकर चलती। मेरा भांजा ललन राम के बैल के साथ था। हल खोल कर बैल को घर पहूंचने के लिए जा रही रहा था कि रीना के घर के पास बैल भड़क कर भाग गया और वहीं खड़ी रीना हंसते हुए बोल पड़ी, >>> |
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‘‘ हूंह ऐगो बैलो नै समभरो हौ, हमरा की समहारमीं’
फिर क्या था मुझे ताब आ गया और बैल की शामत। दो तीन हाथ का एक डंडा मेरे हाथ में था ही, मैं बैल के पीछे पीछे दौड़ गया। एक हाथ से उसकी पूछ पकड़ी और दूसरे हाथ से डंडा सटाक सटाक देता गया और बैल भागता गया। कभी बगैचा, कभी खेत, कभी तलाब। इस बीच कई बार उसकी पूछ छूट जाती और फिर सारी ताकत लगा कर पकड़ता और उसे पीट देता। अंत में बैल समझ गया और भागत हुआ बथान में जा कर धुंसा गया। मैं थक कर चूर हो गया। थोड़े देर बाद रीना मिली थी और बोल पड़ी – ‘‘पगला जा हीं की कभी कभी’’ ‘‘समझ में आइलौ, तों संहलमीं की नै’’ उसे कैसे बताता कि मेरा पागल पन तो वही है। खैर यह सिलसिला तो चल ही रहा था कि एक दिन अचानक रास्ते में मुझसे आगे जा रही रधिया ने कागज का एक टुकड़ा गिरा दिया। मेरे पीछे कई लोग आ रहे थे और कहीं इन लोगों के हाथ मंे पत्र नहीं लग जाय मैंने उसे उठा लिया। घर आकर जब उसे खोला तो वह प्रेमपत्र कम मेरी स्तुति गान अधिक थी। उसमें कई महान लोगों की सुक्तियों के सहारे मुझे यह समझाने का प्रयास किया गया था कि मैं बहुत महान हूं। धत्त तेरी की, मैंने अपना माथा ठोंक लिया। कमरे वाली प्रसंग का रधिया पर उल्टा असर हुआ और वह मुझे बहुत अच्छा आदमी समझने लगी, उसे क्या पता था कि यह सब मैंने अपनी अच्छाई के लिए कम और रीना के प्यार के लिए अधिक किया था। >>> |
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प्रेम ईश्वर का प्रसाद है जिसे जिया जा सकता है जाना नहीं जा सकता। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हो रहा है। सोना-गाना, हंसना-रोना सब रीना के साथ होता। उसे पाने के जनून में पढ़ाई करता हुआ पाया कि प्रेम जीवन को संबार सकता है। रात में पढ़ाई छत पर होती थी। गर्मी का मौसम हो तो छत पर लालटेन जला कर बैठ जाता पर चेहरा रीना की छत की तरफ रखता, पढ़ते हुए मन में यही एहसास होता कि रीना देख रही है और सुबह जब आंख खुलती की उसी की छत को देखता जहां एक पपीहा की तरह रीना टकटकी लगाये बैठी मिलती। यह सिलसिला महीनों से चलता आ रहा था पर आज जैसे ही आंख खुली तो रीना ने इशारा किया और जब मैं मुड़ कर देखा तो रधिया छत पर अहले सुबह जग कर मेरी तरफ देख रही है। मेरे छत पर मुंडेर नहीं थी इसलिए सोये हुआ मैं दिख जाता। रधिया को बेचैन आंखों से देखता हुआ पाकर मैं विचलित हो गया। मैं नीचे आ गया। अब मैं और रीना थोड़े अधिक सावधान हो गए थे शायद इसलिए कि जवान हो गए थे। सुबह चार बजे का समय प्रेम पत्रों कें आदान प्रदान का सबसे मुफीद समय बन गया। रीना भी छत से नीचे आती, मैं भी, और रास्ते में चलते हुए पत्रों का आदान-प्रदान हो जाता।
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
आज उसी समय रीना ने राह चलते हुए कहा –
‘‘ काहे नै बता दे ही रधिया के सब साफ साफ, छो-पांच, छो-पांच की करो ही’’ ‘‘डर लगो है वह सबके बता नै दे’’ ‘‘ई में डरे की की बात है आज नै कल तो सब जनबे करतै।’’ उसी समस तय हो गया आज रधिया को सबकुछ बता देना है और जब वह मेरे घर आई तो उसे साफ साफ बता दिया कि मैं रीना से प्यार करता हूं। वह कोई दोपहर का समय था। घर के आगे बनी झोपड़ी में रीना बैठी थी, जब तक हम दोनों सो नहीं चले जाते तब तक आमने सामने रहते थे। ‘‘काहे ले हमरा परेशान करो हीं, हम रीनमा से प्रेम करो हिऔअ’’ मेरे मुंह से ऐसा सुनना कि रधिया के देह में जैसे आग लग गई वह गुस्से से तिलमिलाने लगी। ‘‘ की बोलोहो, हमर प्यार के कोई कीमत नै है।’’ ‘‘ है नै, हम आदर करो ही ओकर, मुदा प्रेम तो एकेगो से होबो है ने’’ >>> |
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और साथ ही रीना की ओर ईशार करता हुआ मैंने समझाया कि इसे सब कुछ बता दिया। उस समय तक टीवी का असर कुछ कुछ होने लगा था और मेरे द्वारा ईशारा किये जाने पर रीना ने एक फलांइंग किस मेरी ओर फेंक दिया। रधिया गुस्से से आग बबुला हो कर वहां से चली गई। मैं डर सा गया कहीं यह कुछ उलटा पुलटा न कर दे और मैं एहतियातन उसके प्रेम पत्र को उसके जीजा को दिखा दिया। जिसके जबाब में वे भी यही बोले कि यह लड़की नहीं सुधरेगी।
खैर रधिया के प्रेम को जिस तिरस्कार का सामना करना पड़ा वह इससे विचलित हो गई थी और इसकी सजा के रूप में यह बात सामने आई कि उसने रीना के सहेलियों तक यह बात फैला दी कि रीनमां और बबलुआ एक दूसरा से प्रेम करतें हैं। बात जंगल के आग की तरह फैल तो गई थी पर यह अभी एक उर्म तक के लोगों तक ही सीमित थी। यह जानकारी भी मुझे रीना ने ही दी। अभी तब गांव में प्रेम का पलना संभव नहीं हो सका था। गांव क्या, ईलाके में किसी ने प्रेम विवाह नहीं की थी और यह सब सिनेमाई बातें मानी जाती थी। हां, एक बात थी कि प्रेम को फंसने का एक विकृत नाम दे दिया गया था। पर अपने प्रेम के महिनों हो गए पर किसी ने आज तक नहीं जाना पर रधिया ने यह राज फाश कर दिया। हलांकि गांव में जिसने भी जाना उसे विश्वास नहीं हुआ। होता भी कैसे। >>> |
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यह निश्छल प्रेम की अविरल घारा थी जिसकी निर्मलता ही उसकी प्राण थी।
आज मेरे दोस्त मुतना ने टोक दिया, ‘‘कि हो, की सुन रहलिऔ हों’’ ‘‘कि सुनो हीं’’ ‘‘रीनमां कें बारे में बड़ी चर्चा है गांव में’’ ‘‘तोरा की दिक्कत है।’’ मैं अब और अधिक सावधान हो गया। सारी बात रीना में मुझे प्रेम पत्र के माध्यम से बता दी। मैंने उसे भी बताया कि गांव में अब जब सब लोग जान रहें है तब यह आग धीरे धीरे घर तक आएगी तैयार रहना है। गांव में प्रेम होने का मतलब अभी तक साफ था कि दोनों के बीच शरीर का रिश्ता है, बस। ऐसा रोज हो भी रहा था। अभी कल ही वभनटोली में कहरटोली के लड़का कमलेशबा की जमकर पिटाई कर दी गई। ‘‘साला बाभन के लड़की पर लाइन मारों हीं, काट कें फेंक देबौ।’’ इस बात ने आग पकड़ ली और कहर टोली के लोग भी गुहार बना कर बभनटोली आ गए, >>> |
Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
‘‘आखिर हम सब भी गांव में रहबै की नै’’। पंचायती होने की बात हुई पर इस पंचयती में लड़की पक्ष के लोग को इसकी सूचना कोई नहीं दे सका, कारण एक ही था घर की इज्जत है सड़क पर क्या लाना। कमलेश राम मेरा दोस्त था। मुझसे दो क्लास सीनियर था। पूरे कहरटोली में एक मात्र उसके बाबूजी नौकरी करते थे, रेलवे में। उससे दोस्ती के अभी कुछ ही महीने हुए थे। दोस्ती का कारण भी दुश्मनी बनी थी। हुआ यूं था कि कमलेश राम के घर के पास एक सरकारी चापाकल गाड़ा गया था जो कि मैं जिस कुंए से पानी लाता था उससे थोड़ी दूरी पर था पर चापाकल से पानी लाना ज्यादा आसान था सो मैं भी अपने धर के लिए पानी वहीं से लाने लगा। पर कमलेश राम ने इसका विरोध किया और उसने यह कह कर चापाकल का हैंडल खोल लिया कि बाभन का लड़का इस चापाकल से पानी नहीं लेगा। फिर क्या था हो गया हंगामा। मैं कमलेश से वहीं भिड़ गया। उठा पटक होने लगी, गांव के लोग जुट गए और कहार होकर बाभन से लड़ो है।
मैं उस लड़ाई में जीता तो नही पर जब लोग जमा हो गए तब सभी ने छुड़ा दिया और मैं चापाकल से पानी लेकर ही दम लिया। उसके बाद कमलेश को घेर कर पीटने का प्लान बभनटोली के लड़कों के द्वारा बनायी गयी जिसकी भनक कमलेश को लगी और उसने मेरे क्रिकेट टीम के आलराउंडर खिलाड़ी संजय राम से इसकी खबर मुझको भिजबाई कि गलती हो गई। उसका कॉलेज आना जाना बंद हो गया क्योंकि कॉलेज का रास्ता भी बभनटोली होकर गुजरता था। मेरे मन में भी कुछ नहीं था और फिर संजय मेरा लंगोटिया यार भी था। मेरी आदत भी उस समय अजीब थी और मैं कहरटोली और दुसधटोली के लड़कों के साथ ही ज्यादा समय देता था। मैं जिस फाइव स्टार क्रिकेट टीम का कप्तान था वह इन्हीं सबसे मिल कर बनी हुई थी। तुला फास्टर, टिंकू स्पीनर और अनवर हीटर। >>> |
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इसका कारण भी था। गांव में छोटे किसान के घर से होने की वजह से मैं जात को कम और वर्ग को अधिक समझता था और इसलिए मेरे विचार भी इनके साथ ही ज्यादा मिलते थे।
खैर, संजय के इस प्रस्ताव के बाद से कमलेश के साथ मेरी दोस्ती हो गई और जिन लोगों ने मेरे मुददे को लेकर कमलेश को पीटने की योजना बनाई वह फैल हो गयी। पर आज नेपला सिंह ने उसकी पिटाई देवी स्थान के पास घेर कर कर दिया। बाद मंे जब कमलेश ने इस पिटाई पर से पर्दा उठाया तो मैं हक्का बक्का रह गया। ‘‘काहे ले पिटलकौ हो’’ ‘‘संवरिया के फेरा में हलै, जब उ दुत्कार देलकै तो साला हमरा पर खिसयाल रहो है।’’ मैं उसके साथ ही शाम में टहलने लगा। कमलेश के बारे में काफी लोगों ने मुझे समझाया कि वह ठीक लड़का नहीं पर उस समय कौन अच्छा और कौन बुरा यह कौन समझता था। कमलेश का संवरिया नाम की एक सांवली सी लड़की से संबध था इस बात को उसने मेरे साथ सांझा भी किया था। गांव मंे इसकी चर्चा भी खुब रही पर किसी को कुछ हाथ नहीं लगी थी सो सभी चुप थे पर अब बात बिगड़ गई थी और आज सभी जगह यह चर्चा हो रही थी कि संवरिया पेट से है बचपन से ही यह बात सालती रहती थी की जिसे लोग समाज कहते हैं वह कई चेहरों वाला होता है पर एक बात सबसे गंभीर यह देख रहा था कि छोटी छोटी बातों पर अपनों पर भी कीचड़ उछालने वाला समाज घाव को छुपाने वाला है और संवरिया के साथ भी ऐसा ही हुआ। >>> |
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खैर, आज दोपहर का समय था और मैं चिंतित मुर्दा में अपने चौंकी पर लेटा था। मेरे हाथ में एक छोटी सी किताब थी जिसका नाम मैं नहीं जानता, पर उसे पढ़ रहा था। कुछ गंभीर विषय की किताब थी जिसकी कई बातें सोंचने पर मजबूर कर रही थी। दरअसल यह किताब आज से दो तीन साल पहले हाथ तब लगी थी जब फूआ से झगड़ा कर अपने घर भाग गया था। घर में चाचा के टूटे बक्से से इसे चुराई थी। किताबों को पढ़ने का शौक तो था ही, बक्सा में किताब ढूंढ रहा था तभी नजर गई थी दो छोटी सी किताबों पर जिसमें से एक का नाम था ‘‘किशोरों की सेक्स समस्याऐं’’ और दूसरी शीर्षकहीन थी। कौतूहलवश पहली किताब को पढ़ गया पर उसे घर में छुपा कर रखना बहुत ही मुश्किल होता था इसलिए उसे दोस्तों को दे दिया और वह गांव भर के लड़कों के बीच होती हुयी गायब हो गयी।
पर दूसरी किताब की ढेर सारी बातें समझ में नहीं आती थी पर उसमें छोटी छोटी कहानियों के माध्यम से बहुत बात समझाई गई थी जिसमें समाज और आदमी का चरित्र का चित्रण था। उस किताब का पहला चेप्टर था सत्य की खोज जिसमें एक कहानी थी कि एक राजा को वित्त मंत्री की जरूरत पड़ी और उसने देश के सभी गणीत के विद्वानों को साक्षात्कार के लिए बुलाया। बहुत लोग जमा हुए जिसे राजा ने एक कमरे में यह कह कर बंद कर दिया कि जो गुणा-भाग कर दरवाजे से बाहर आएगा वही मंत्री बनेगा। सभी लोग छोटे से कमरे से निकलने के लिए गुणा-भाग करने लगे पर एक व्यक्ति शांति से बैठ गया। कुछ देर बाद वह उठा और दरवाजा खोल कर बाहर आ गया। सत्य की खोज यही थी। दरवाजा बाहर से बंद नहीं था। >>> |
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आज फिर इस किताब को मैं पढ़ रहा था। कई बातें थी खास पर एक बात मन में बैठ रही थी जो कह रहा था कि आदमी को समाज के हिसाब से अपना चरित्र नहीं गढ़ना चाहिए बल्कि अपने हिसाब से, अपने मन के हिसाब से अच्छा आदमी बनना चाहिए। इस किताब ने गहरी छाप छोड़ी मेरे जीवन पर।
बहुत सालों बाद, लगभग आज से दस साल के बाद यह जान सका था जो किताब मैं पढ़ता था वह ओशो रजनीश की किताब थी ‘‘ मिटटी का दीया’’। कई चीजें आपके जीवन पर गहरी छाप छोड़ जाती है जिसमें एक यह पुस्तक थी जिसे आज पढ़ रहा था और दूसरी यह घटना जो आज घटी थी। आज मेरी उदासी का कारण भी दूसरी घटना थी। गांव में ऐसी ही एक घटना घटी जो मन को विचलित कर गया। बचपन से डायन-कमाइन, भुत-पिचास को नहीं मानता था पर आज सुबह सुबह ही मेरे दोस्त मनोज की मां को डायन के आरोप में घर से केश पकड़, खींच कर लाया गया और सौंकड़ों लोगों ने एक बीमार बच्चा को ठीक करने का दबाब बनाया। गंाव के भीड़ में ही चाची के साथ मार पीट ही नहीं किया गया, गंदी गंदी गालियां भी दी गई। बच्चा के पिता मास्टर साहब कह रहे थे ‘‘ तों डायन हीं तब हमहूं भगत के लाइबै, लंगटे नचाइबै।’’ यदि हमर बेटवा के कुछ हो गेलउ तब तोरा सब बापुत के जिंदा जला देबौ।’’ वहीं मेरे बगल से ही किसी ने कहा ‘‘ ई रंडीया हांकल डायन है हो, कल हमरों घूर घूर के देख रहलौ हल और तुरंत मथवा दुखाई लगलौ।’’ कोई नंगा करने की बात कह रहा था तो कोई गर्म लोहा से दागने की। >>> |
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पता नहीं क्या हुआ पर उस घटना के समय मैं मनोज के बगल में ही खड़ा था, वह रो रहा था और मैं उसे चुप रहने के लिए नहीं कह रहा था। यह हंगामा जब खत्म हुआ तब थोड़ी देर बाद पता चला कि बच्चा ठीक हो गया। गांव का कोई भी आदमी उस रास्ते से नहीं जाता जिस रास्ते में मनोज रहता था। मनोज था तो बाभन ही पर बहुत ही गरीब। एक घूर जमीन नहीं और बाबू जी दिल्ली मे कमाने गए थे पर पांच साल से लौट कर नहीं आये थे। रहने को एक घर भी नहीं था जिसकी वजह से उसका परिवार पुस्तकाल के खंडहरनुमा घर मंे रहता था। पहले वह जुआरियों, गंजेड़ियों और व्याभिचारियों का अड्डा था पर जब से मनोज का परिवार वहां रहने लगा, बैठकी बंद हो गई। उधर से कोई गुजरना नहीं चाहता, कोई अपने बच्चे को मनोज के साथ रहने नहीं देता और उसके घर चले जाने पर पिटाई अवश्य होती। पर मेरी बात अलग थी। मैं प्रति दिन उसके घर जाता। चाची कुछ न कुछ खाने को देती। उनकी बोली इतनी मधुर थी कि मां भी उस लाड़ से कभी नहीं बुलाया? इस घटना के बाद भी मैं मनोज के साथ उसके घर गया था। चाची बहुत रो रही थी जार-जार। रोते हुए अपने दुख भी जता रही थी जिसमें मास्टर साहब के बारे में बता रही थी।
‘‘गरीबका के कोई इज्जत नै है बउआ। इहे भंगलहबा परसूं रतिया हम्मर घारा में घूंस आइलो हल। जब हल्ला कईलिओं तब भगलो और आज डायन कहो हो।’’ >>> |
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