साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हिंदी ही क्या समस्त भाषाओं में साहित्यकारों के जीवन में बहुत से विनोद प्रसंग जुडे रहते हैं। इन प्रसंगों से गंभीर दिखने वाले रचनाकारों की एक सहज और आत्मीय छवि बनती है। हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में कीर्तिशेष संपादक स्व. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने महान साहित्यकारों के ऐसे रोचक और मनोरंजक संस्मरणों की एक पूरी शृंखला प्रकाशित की थी। उर्दू साहित्य में इसकी पुरानी परंपरा रही है और इसी वजह से उर्दू के महान रचनाकारों के बारे में आम जनता में भी बहुत से लतीफे प्रचलित हैं। मीर, गालिब के शेरों से सामान्य व्यक्ति भी परिचित है और उनके रोचक प्रसंगों से भी। इस सूत्र में प्रस्तुत करूंगा कुछ ऐसे ही रोचक एवं मनोरंजक संस्मरण।
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दरबार में कविता
मलिक मुहम्मद जायसी बेहद कुरूप थे। एक बार वे अमेठी के काव्य-प्रेमी राजा के दरबार में पहुंचे तो राजा समेत दरबार में उपस्थित तमाम लोग उन्हें देखकर बुरी तरह हंसने लगे। जायसी ने अपने सुमधुर कण्ठ से बस एक अर्द्धाली सुनाई और सबको निरुत्तर कर दिया, ‘मोहि कां हंससि कि कोंहरहिं।’ अर्थात् मुझ पर हंस रहे हो या बनाने वाले ईश्वर रूपी कुम्हार पर। कवि और राजा के बीच ऐसे ही एक संवाद का प्रसंग जयपुर के राजा मान सिंह प्रथम के काल का है। महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे भी जयपुर दरबार के कवि थे। चौबेजी को महाराज कहा ही जाता है। तो एक बार चौबेजी गांव गए हुए थे। वहां उन्हें रुपयों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिख कर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिख कर दे दिया। राजा मान सिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा, इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज। हुण्डी करी हजार की नेक ना आई लाज।। |
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आलोचक की व्यंग्योक्ति
एक बार आचार्य रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन बाजार में एक शरबत की दुकान पर पहुंचे। दुकानदार ने वहां नए जमाने के हिसाब से महिलाओं को परिचारिका रखा हुआ था। जब दोनों ने शरबत पी लिया तो लालाजी ने पूछा, ‘कितना दाम हुआ?’ परिचारिका ने मुस्कुराते हुए जब दाम दस आने बताया तो तीन गुना दाम सुनकर लालाजी विचलित हुए। उन्होंने आचार्यजी की ओर प्रश्*नवाचक दृष्टि से देखा तो आचार्य जी अपनी सनातन गंभीर मुद्रा में बने रहे और बोले, ‘दे दीजिए दस आने, इसमें शरबते-दीदार की कीमत भी शामिल है।’ इसी प्रकार एक बार एक अध्यापक शुक्लजी के पास आए और स्कूली पाठ्यक्रम में लगी हुर्ह एक कविता ‘चीरहरण’ को निकालने की मांग करने लगे। उन्होंने कहा, ‘यह कविता एकदम निकाल देनी चाहिए। भला आप ही बतलाइये, इसे बालकों को कैसे पढ़ाया जाएगा?’ शुक्लजी ने शांत भाव से कहा, ‘परेशान क्यों होते हैं? कह दीजिएगा कि कृष्णजी स्काउटिंग करने गए थे।’ |
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राष्ट्रकवि और द्राक्षासव
एक बार राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त अपने दिल्ली आवास से बाहर गए हुए थे। पीछे से राय कृष्णदास आए और साथ में द्राक्षासव की एक बोतल भी ले आए। जब तक राय साहब रहे गुप्तजी बाहर थे। राय साहब जाते वक्त खाली बोतल मेज पर छोड़ गए। गुप्तजी लौटे तो बोतल देखकर मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने बोतल उठाई तो खाली बोतल पाकर निराश हो गए। क्रोध में गुप्तजी ने एक कविता लिख डाली- कृष्णदास! यह करतूत किस क्रूर की? आए थके हारे हम यात्रा कर दूर की। द्राक्षासव तो न मिला, बोतल ही रीती थी! जानते हमीं हैं तब हम पर जो बीती थी! ऐसी घड़ी भी हा! पड़ी उस दिन देखनी- धार बिना जैसे असि, मसि बिना लेखनी! |
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बैरंग डाक का दोहा
डाकघर में बैरंग चिट्ठियों पर आधी गोल मुहर लगाई जाती है और दोगुना डाक-व्यय वसूल किया जाता है। एक अज्ञात कवि ने इस पर एक अद्भुत दोहा लिखा है- आधी मुहर लगाय कें, मांगत दूने दाम। याही सों इन जनन को, पड्यो ‘डाकिया’ नाम।। |
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निराला की मस्ती
महाकवि निराला को अक्सर किसी चीज की धुन चढ़ जाती तो वे उसी में डूबे रहते। मृत्यु से पूर्व एक बार उन्हें अंग्रेजी काव्य की धुन सवार हो गई तो उन्होंने तमाम अंग्रेज कवियों को पढ़ डाला। मिल्टन और शेक्सपीयर उन्हें खास तौर पर पसंद थे और अक्सर कहते थे कि कविता में इन दोनों को कौन पछाड़ सकता है। एक बार होली के दिन सुबह से ही निराला जी विजया के रंग में थे और मौन धारण कर रखा था। आने वाले लोग उनका मौन देखकर चले गए। बस गिनती के लोग रह गए। किसी ने निराला जी से कहा कि होली का दिन है पंडितजी, इस वक्त तो कोई होली होनी चाहिए। निराला जी को होली गाने की धुन सवार हो गई तो लगे होली गाने। उस दिन करीब ढाई-तीन घण्टे तक निराला जी होली गाते रहे। जब गाते-गाते मन भर गया तो कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, ‘बस यहीं-हिंदी की इन होलियों में -मिल्टन और शेक्सपीयर हिंदी से मात खा जाते हैं!’ |
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हिंदी से हिंदी अनुवाद
बहुत से लेखकों की भाषा अत्यंत क्लिष्ट होती है। सौंदर्यशास्त्र के विद्वान लेखक रमेश कुंतल मेघ भी ऐसे ही रचनाकारों में हैं। एक किस्सा उनके बारे में प्रचलित है। हुआ यह कि एक बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रमेश कुंतल मेघ का आमना-सामना हो गया। औपचारिक बातचीत के बाद मस्तमौला द्विवेदी जी ने कहा, ‘डॉ. साहब अब तो आपकी किताबों का भी हिंदी अनुवाद आ जाना चाहिए।’ |
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हिंदी के पितामह का एक चुटकुला
भारतेंदु हरिश्चंद्र अपनी पत्रिका ‘श्रीहरिश्चंद्र चंद्रिका’ में चुटकुले प्रकाशित किया करते थे। प्रस्तुत है उस जमाने की भाषा में एक चुटकुला- एक नवयौवना सुंदरी चतुर चरफरी वसंत ऋतु में अपनी बहनेली के यहां गई और कुछ इधर उधर की मन लगन की बातें कर रही थी कि प्यासी हुई और पानी मांगा। इसकी उस मुंहबोली बहन ने कोरे कुल्हड़े में पानी भरकर ला दिया जो इसने मुह लगाकर पिया तो कुल्हड़ा होठों से लग रहा। वह खिलखिला कर हंसी और इस दोहे को पढ़ने लगीः रे माटी के कुल्हड़ा, तोहे डारों पटकाय। होंठ रखे हैं पीउ, तू क्यों चूसे जाय।। यह सुन उसकी बहनेली ने कुल्हड़े की ओर से उत्तर दियाः लात सही मूंकी सही उलटे सहे कुदार। इन होठन के कारने सिर पर धरे अंगार।। |
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कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं-1
हिंदी साहित्य में एक समय ‘धर्मयुग’ ने साहित्यकारों के बारे में कुछ चुटकुलानुमा प्रहसन प्रकाशित किए थे। उनमें से एक महान आलोचक डॉ. नामवर सिंह के बारे में था। दिल्ली में सड़कों पर नई-नई ट्रेफिक लाइटें लगी ही थीं। एक व्यक्ति लाईट के साथ अपनी दिशा बदल लेता था। कभी दांए तो कभी बांए मुड़ जाता था। ट्रेफिक पुलिस के सिपाही ने उसकी गतिविधि को देखकर कहा, ‘ऐ धोती वाले बाबा, तुम कभी दांए तो कभी बांए क्यों जाते हो?’ वहीं दो लेखक भी पास में खड़े थे। दोनों ने एक साथ कहा, ‘यह पुलिसवाला नामवर जी की आलोचना को कितनी अच्छी तरह से समझता है।’ |
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कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं-2
एक समय हिंदी में लेखकों को लेकर बहुत सी जातक कथाओं की रचना की गई थी। प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने ऐसी ही कुछ जातक कथाएं सुनाई। एक गरीब किसान को खेत में खुदाई करते हुए एक बड़ा-सा टब मिला। उसने माथा पीट लिया कि निकलना ही था तो कोई खजाना निकलना चाहिए था। उसने झल्लाइट में एक गाजर टब में फेंक दी। टब में गिरते ही गाजर एक से दो हो गई। किसान ने दो गाजर फेंकी तो चार हो गईं। वह जो भी चीज टब में डालता वो दोगुनी हो जाती। जमींदार को इसका पता चला तो उसने टब अपने घर मंगवा लिया, क्योंकि जमीन तो उसी की थी, जिसमें टब निकला। इसके कुछ ही दिन बाद देश में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। सरकार ने लोगों का ध्यान बंटाने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति महोत्सव जैसे आयोजन शुरु करने का फैसला किया। संस्कृति से जुड़े लोगों की खोज की जाने लगी, लेकिन सरकार के पास ऐसे लोगों की बहुत कमी थी। ऐसे में सरकार को किसी ने उस टब को उपयोग में लेने की सलाह दी। सरकार ने उस टब की मदद से एक अशोक वाजपेयी जैसे कई अशोक वाजपेयी बना डाले और सबको विभिन्न सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में नियुक्तियां दे दीं। |
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कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं-3
अशोक वाजपेयी को लेकर एक और जातक कथा प्रचलित है। हुआ यह कि एक बार एक संन्यासी भारत भवन नामक गुफा में अपने शिष्यों सहित आकर ठहरा। उसने देखा कि खूंटी पर टंगे थैले से रोज रोटियां गायब हो जाती हैं। एक दिन संन्यासी नींद का बहाना कर जागता रहा। उसने देखा कि एक चूहा अपने बिल से निकल कर सीधा छलांग लगा कर खूंटी पर टंगे थैले से रोटियां निकाल कर वापस बिल में चला जाता है। अगले दिन संन्यासी ने शिष्यों को बुलाकर बिल खुदवाया तो वहां राष्ट्रीय खजाना गड़ा हुआ था। संन्यासी ने वहां से खजाना खाली करा दिया। अबकी बार चूहा आया, तो संन्यासी ने देखा कि वह छलांग नहीं लगा पा रहा है और सिर्फ एक-आध इंच ही उछल पा रहा है। संन्यासी ने अपने शिष्यों को बुलाकर समझाया कि चूहा राष्ट्रीय खजाने के प्रताप से ही लंबी छलांगें लगा रहा था। |
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ये दोनों वाक्ये बहुत अच्छे लगे ...........:bravo::bravo: |
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सुसंस्कृत
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहा है। संयोग से कोई अंग्रेज ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं- मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कुछ कमी नहीं है। अंग्रेज अबुतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेजी, फिर फ्रांसिसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछ-ताछ करने लगा। अबु तालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेजगीन, दार्गिन और कुमीन भाषाओं में अपनी बात समझाने की कोशिश की। आखिर में एक दूसरे को समझे बिना वो दोंनो अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दागिस्तानी ने जो अंग्रेजी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा- "देखा, संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत हाते, तो अंग्रेज से बात कर पाते। समझे न ?" "समझ रहा हूँ," अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए ? वह भी तो उनमें से एक भी जबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की ? -रसूल हमजातोव (मेरा दागिस्तान) |
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कवि और सुनहरी मछली का किस्सा
कहते है कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक सुनहरी मछली पकड़ ली। कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़ दो, सुनहरी मछली ने मिन्नत की। तो इसके बदले में तुम मुझे क्या दोगी ? "तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएंगी।" कवि ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया। अब कवि की किस्मत का सितारा बुलन्द होने लगा। एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे। शहर में उसका घर बन गया और शहर के बाहर बढ़िया बंगला भी। पदक और श्रम-वीरता के लिए तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे। कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और सभी की जबान पर उसका नाम सुनाई देने लगा। ऊँचे से ऊँचे ओहदे उसे मिले और सारी दुनिया उसके सामने भुने हुए,प्याज और नींबू से कजेदार बने हुए सीख कबाब के समान थी। हाथ बढ़ाओ, लो और मजे से खाओ। जब वह अकादमीशियन तथा संसद-सदस्य बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा- “आह, इन सब चीजों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से कुछ प्रतिभा भी क्यों नहीं मांग ली ?” - रसूल हमजातोव (मेरा दागिस्तान) |
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रुपए ख़र्च करने का शौक़
अहमद बशीर अग्रेज़ी में सोचते है, पंजाबी बोलते और उर्दू में लिखते हैं। वह मां बोली का संजीदगी से एहतराम करते हैं। उनका कहना है कि लिखो बेशक जिस ज़बान में, बोलो तो अपनी ज़बान.. देश विभाजन के बाद मैं लाहौर गया, तो माहनामा ‘तख़लीक’ के संपादक अजहर जावेद ने मेरी मुलाकात कहानीकार यूनस जावेद से कराई और फिर यूनस जावेद के माध्यम से मैं अहमद बशीर से मिला। अहमद बशीर अब इस दुनिया में नही हैं। मैं जब-जब भी पाकिस्तान जाता हूं, तो उनकी अफ़सानानिगार बेटी नीलम बशीर से मुलाक़ात होती है। पिछले दिनों मैं लाहौर गया, तो बुशरा को रहमान द्वारा दी गई दावत में यूनस जावेद, नीलम बशीर और अहमद बशीर को नज़दीक से जानने वाले कई लोग मिल गए। बातों का केंद्र अहमद ही थे। और यूनस जावेद बता रहे थे कि मैं और अहमद बशीर कृष्णा नगर (लाहौर) के एक मकान में साथ-साथ रहते थे। बीए करने के बाद अहमद बशीर को पहली नौकरी फ़ौज में मिली, जहां से वह भगौड़ा हो गए। उन्हें दूसरी नौकरी कपड़ा इंसपैक्टर की मिली, जो रास नहीं आई। एक रोज़ मैंने बस यूं ही कह दिया कि तुम पत्रकार क्यों नही बन जाते और उन्होंने संज़ीदगी से पत्रकार बनने का फ़ैसला कर लिया और दैनिक अख़बार ‘इमरोज़’ के संपादक मौलाना चिराग़ हसन हसरत के पास नौकरी के लिए जा पहुंचे। मौलाना ने उनकी बात सुनी, कहा, इस समय कोई जगह ख़ाली नही है, फिर पूछा, कलर्की करोगे? अहमद बशीर ने कहा-‘नहीं’। सवाल हुआ अनुवाद कर सकते हो? जवाब ‘हां’ था। मौलाना ने पूछा-आजकल क्या करते हो? अहमद बशीर ने कहा कुछ भी नहीं। प्रश्न हुआ कि गुज़ारा कैसे होता है? उत्तर मिला कि रोटी एक दोस्त खिला देता है, कपड़े उसकी बीवी धुलवा देती है, सिग्रेट इधर-उधर से पी लेता हूं। चाय की आदत नहीं। मौलाना की भवे सिमटीं, फैलीं और फिर सिमट गईं तथा कुछ सोचते हुए बोले-‘अगर आपको नौकरी पर रख लिया जाए, तो कितने रुपयों की जरूरत होगी?’ अहमद बशीर ने तुरंत उत्तर दिया-‘पांच सौ। मुझे रुपए ख़र्च करने का शौक़ है।’ अहमद बशीर की बात सुनकर मौलाना बोले- ‘पांच सौ रुपए तो मुझे मिलते हैं। आप को कैसे दे सकते हैं। बशीर ने कहा, ‘तो न दें। आपने पूछा, मैंने बता दिया।’ हैरत ने मौलाना का संतुलन हिला दिया। कुछ देर ख़ामोशी और फिर बात आगे बड़ी, आधे घंटे के बाद दोनों ‘स्टेफ़लो’ में बैठे पी रहे थे। मौलाना को अहमद बशीर का अज़ीब होना और बशीर को मौलाना की मासूमियत पंसद आई थी। एक घंटे बाद दोनों खुल गए। मौलाना ने बागेशरी का अलाप सुनाया, बशीर ने फ़हश बोलिया सुनाईं॥ और यूं अहमद बशीर सहाफ़ी बन गए। |
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आचार्य राम चन्द्र शुक्ल और आलोचना
एक बार की बात है कि शुक्ल जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था और डॉक्टर ने कोई चीज़ न खाने की ताकीद की थी. शुक्ल जी अपने कमरे में बैठ कर कुछ लिख रहे थे कि उनकी 6 -7 वर्ष की पौती वहां आई और पूछने लगी, 'दादा जी, आप क्या कर रहे हैं?' शुक्ल जी ने उत्तर दिया, 'हम आलोचना कर रहे हैं.' उनकी पौती भागी भागी बाहर गई और सबसे कहने लगी कि 'दादा जी आलू - चना खा रहे हैं.' |
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महान लेखक शरत चन्द्र और मच्छर
एक डाकिया पत्र वितरण कर रहा था कि एक लिफ़ाफ़े पर पाने वाले का नाम पढ़ कर अचरज में पड़ गया. क्योंकि घर का नंबर नहीं किखा था अतः वह नाम पढ़ कर ही पत्र को सही व्यक्ति तक पहुंचाना चाहता था. लेकिन नाम लिखा था "श्रीमच्छरच्चन्द्र चैटर्जी". कुछ लोगों से असफल पूछताछ करने के बाद वह शरत चन्द्र जी के पास आकर बोला," आजकल लोग भी कैसे कैसे नाम रखने लग पड़े हैं, कि समझ ही नहीं आता. अपने मोहल्ले में कोई मच्छरचन्द्र जी रहने आये हैं क्या?" शरत चन्द्र जी ने कहा कि जरा ख़त मुझको दिखाना! पत्र को गौर से देखने के बाद शरत चन्द्र जी ने हँसते हुए कहा 'अरे! यह पत्र मेरा ही है'. जब डाकिये ने पत्र पर लिखे नाम के बारे में शंका व्यक्त की तो शरत बाबू ने कहा कि तुम नहीं समझोगे. यह समास का मामला है. वास्तव में यह पत्र उनके एक भाषाविद मित्र ने भेजा था जिन्होनें समास का प्रयोग करते हुए श्री+मत्+शरत+चन्द्र को संयुक्त रूप से श्रीमच्छरच्चन्द्र लिख दिया था. |
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एक बार आगरा के एक कवि सम्मेलन में ‘मधुशाला' के रचयिता हरिवंश राय बच्चन आमंत्रित थे. कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रेमचंद जी कर रहे थे. बच्चन जी के लिए पानी आया तो उन्होंने पास बैठे प्रेमचंद जी से पूछा,
“बाबूजी, पानी पियेंगे?” मुंशी प्रेमचंद ने पहले पानी की ओर देखा, फिर बच्चन की ओर देख कर एक शरारती मुस्कान के साथ बोले, “तुम्हारे हाथ से पानी पियेंगे?” फिर दोनों ठहाका लगा कर हंस पड़े. सारा मंच उन्हें देख रहा था. (साभार: नवनीत/ नवम्बर 2009) |
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हास्यरस से भरपूर प्रसंग पढ़कर मन प्रसन्न हो गया बन्धुओं। श्री अमृतलाल नागर जी बहुत ही हाजिर जवाब और विनोदप्रिय रहे हैं। क्या श्री नागर जी से सम्बंधित कोई प्रसंग इस सूत्र के लिए है? कृपया इनकी पुस्तक "नाच्यो बहुत गोपाल" एक बार अवश्य पढ़ें। धन्यवाद।
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नागर जी कानपुर गए हैं
यह उन दिनों की बात है जब डॉ. धर्मवीर भारती अभी इलाहाबाद में अभी एक शोध-छात्र ही थे. साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से उनका लेखन हिंदी जगत में अपनी पहचान बना रहा था. उनकी एक-दो पुस्तकें भी छप चुकी थीं. हिंदी के मूर्धन्य लेखक अमृतलाल नागर से उनका व्यक्तिगत परिचय था लेकिन लखनऊ उनके निवास स्थान पर जाने का अवसर न मिला था. एक बार भारती जी किसी काम से लखनऊ गए और श्री केशव चन्द्र वर्मा के साथ हज़रत गंज में घूम रहे थे कि अचानक तय किया कि अमृत लाल नागर जी के यहाँ जाया जाये. आगे का हाल स्वयं भारती जी के शब्दों में सुनिए – शाम ढलने लगी थी. चौक पहुंचे. कई गलियों की ख़ाक छानी. सब उन्हें जानते थे, खोमचे वाले, हलवाई, फूल वाले, पान ज़र्दा वाले. सभी ने इतने उत्साह से रास्ता बताया कि हम गुमराह होते होते बचे. पहुंचे. एक पुराने ढर्रे का मकान (बाद में दूसरे मकान में चले गए थे). वे रहते थे ऊपर वाली मंजिल में, बाहर से ही जीना था. सीढियां चढ़ते दिल धड़क रहा था. क्या बताएँगे कि क्यों आये हैं? क्या बात करेंगे. बात करेंगे भी या नहीं. अगर कहीं न मिले तो? जीने पर खड़ी सीढियां थी और गली के मकान के बंद जीने जैसी सीलन और अँधेरा. ऊपर दरवाजा बंद था. घंटी – वंटी का रिवाज तो तब था नहीं. पहुँच कर कुण्डी खड़काई. क्षण भर बाद दरवाजा खुला और भाभी (स्व. श्रीमती प्रतिभा नागर) की पहली झलक मिली. लम्बी, तन्वंगी, बादामी रंग की साड़ी और अजब सा उजास फैलाता हुआ रंग. “कहिये?” उन्होंने थोड़ी रुखाई से पूछा. “नागर जी हैं क्या?” “नहीं,” वे बोली बड़ी गंभीरता से, “वो तो कानपुर गए हैं.” हम दोनों हतप्रभ! इतनी हिम्मत कर के आये भी और नागर जी हैं ही नहीं. अब क्या करें हम लोग? वे प्रतीक्षा में खड़ी रहीं कि हम लोग या तो जायें या कुछ कहें. मैंने हिम्मत कर के कहा, “नमस्कार, नागर जी कानपुर से आयें तो कह दीजियेगा, इलाहाबाद से भारती और केशव आये थे?” “भारती और केशव ... “ उन्होंने जैसे याद करने के लिए दोहराया ... और सहसा घर के अन्दर से जोर से आवाज आयी .... “अरे चले आओ भैया भारती, केशव आ जाओ, आ जाओ .... मैं यहीं हूँ !” नागर जी अन्दर से पुकार रहे थे. दरवाजा पूरा खुल गया. भाभी कुछ खीज कर झटके से अन्दर चली गयीं. |
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हम दोनों चमत्कृत, अन्दर गए, दूर पर दीवार के सहारे एक ऊंचे से तख़्त पर नागर जी बैठे थे. हाथ में तख्ती थी, जिस पर कागज़ लगे थे, देख कर हंसे जोर से .....
“भैया, ऐसा है कि यही तखत जो है न, हमारा कानपुर है. जब लिखते पढ़ते है यहाँ बैठ कर तो तुम्हारी भाभी से कह देते हैं कि आने-जाजे वालों से कह देना, कानपुर गए हैं. आओ भारती, केशव भी यहीं आ जाओ, कानपुर में !” हम दोनों चौक लखनऊ के उस कानपुर में बैठने की जगह बना ही रहे थे कि भाभी दो गिलास पानी लेकर आयी. बिना किसी को संबोधित किये बुदबुदा रहीं थीं, “बाहर वालों के सामने हमारी हंसी उड़ती है, खुद ही तो .... “ “अरे ये बाहर वाले कहां हैं? नागर जी कुछ मनुहार के से स्वर में बोले, “और तुमने झूठ क्या कहा ... यह कानपुर तो है ही !” “रहने दो.” भाभी की आवाज में मनुहार के प्रभाव से थोड़ी खनक आ गई थी ... “हरदम नाच नचाते रहते हैं !” “अरे खाली पानी?” नागर जी ने टोका. “आ रहा है, आप ये कुर्सी ले लीजिये ...” भाभी ने टीन की कुर्सी मेरी ओर बढ़ाई और चली गयीं. हम लोग बातों में मशगूल हो गए. “सेठ बांकेलाल” (नागर जी की प्रख्यात कृति) का ज़िक्र आया और लो लखनऊ के उस कानपुर में आगरा प्रकट हो गया और किनारी बाजार की रौनक छाने लगी. थोड़ी देर में लखनऊ फिर लौटा, जब भाभी दो तश्तरियों में चौक लखनऊ की मिठाइयाँ रख कर लायीं – हरे चने की बर्फी, पिश्ते का लड्डू, लाल पड़े और मलाई की गिलोरियां. फिर नागर जी की ओर देखा और हंस पड़ीं. पल्ले से मुंह ढंककर हंसी दबायी और चली गयीं. फिर नहीं आयीं. हम लोग लौटे तो हमारे साथ थी नागर जी की निश्छल हंसी, लच्छेदार बातें, लाल पेड़ों का सौंधा सौंधा स्वाद, और भाभी के व्यक्तित्व की दीप्त उजास – जैसे धुंधलके में नाक की लौंग का हीरा छवि मारता है न, कुछ-कुछ वैसा. (यह अंश डॉ. धर्मवीर भारती के एक श्रद्धांजलि संस्मरण में से लिया गया है जो उन्होंने श्रीमती प्रतिभा नागर, जिन्हें आदरपूर्वक ‘बा’ कह कर संबोधित किया जाता था, के निधन -28 मई, 1985- के बाद लिखा था) |
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चौक यूनिवर्सिटी के वी.सी. पं. नागर
यहां पं. राम विलास शर्मा का एक संस्मरण दिया जा रहा है – मैंने नागर जी से कहा, “अब तुम पी.एच.डी. कर डालो” नागर जी बोले, “पहले इंटर करना पड़ेगा, फिर बी.ए, फिर एम.ए, बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. अब पी.एच.डी, वी.एच.डी. का मोह नहीं है. पहले था. तुमने पंडित की उपाधि दे दी वह बहुत है. फिर कुछ रुक कर बोले, “चौक हमारी यूनिवर्सिटी, हम उसके वाईस चांसलर हैं.” (डॉ. राम विलास शर्मा की पुस्तक ‘पंचरत्न’ से) |
Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
किसी ने मंटो साहब से पूछा, “मंटो साहब ! पिछली बार जब आप मिले थे, तो आपसे यह जान कर बेहद ख़ुशी हुयी थी कि कि आप ने शराब से तौबा कर ली है, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है कि आज आप फिर पिए हुए हैं.” “ठीक कहा आपने किबला ! फ़र्क सिर्फ इतना है कि उस दिन आप खुश थे और आज मैं खुश हूँ.” |
Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
एक बार जिगर मुरादाबादी लाहौर तशरीफ़ लाये तो तो कुछ स्थानीय लेखक और कवि उनसे मुलाक़ात करने उनके ठहरने की जगह तशरीफ़ लाये. जिगर बहुत आत्मीयता से हर आगंतुक का स्वागत कर रहे थे कि सआदत हसन मंटो ने भी जिगर साहब से हाथ मिलाते हुए कहा, “किबला ! अगर आप मुरादाबाद के जिगर हैं तो यह खाकसार लाहौर का गुर्दा है.” |
Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
एक दिन मंटो साहब बड़ी तेजी से रेडियो-स्टेशन की इमारत में दाखिल हो रहे थे कि वहां बरामदे में मडगार्ड के बिना एक साइकिल देख कर क्षणभर के लिए रूक गए और फिर दूसरे ही क्षण उन्हें कुछ शरारत सूझी और वह चीख चीख कर पुकारने लगे, “राशद साहब ! जनाब राशद साहब ! ज़रा जल्दी से बाहर तशरीफ़ लाइए !” शोर सुन कर नज़र मो. राशिद के अलावा कृशन चंदर, उपेन्द्रनाथ अश्क और रेडियो स्टेशन के अन्य कर्मचारी भी उनके सामने आ खड़े हुए. “राशद साहब ! आप देख रहे हैं इसे !” मंटो ने इशारा करते हुए कहा, “यह बिना मडगार्ड की साइकिल ! खुदा की कसम यह साइकिल नहीं, बल्कि हकीकत मैं आपकी कोई नज़्म मालूम पड़ती है.” |
Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
राजेंद्र सिंह बेदी और आटे की बोरियां
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार राजेंद्र सिंह बेदी बम्बई में रहते थे और फिल्म प्रोडक्शन से जुड़े हए थे. उसी दौरान उनके पास एक लम्बी सी मोटर कार भी थी. उन्हीं दिनों पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक संत सिंह सेखों ‘पंजाबी साहित्य केंद्र’ के बुलावे पर बम्बई पधारे थे. बेदी साहब भी प्रोग्राम में शिरकत कर रहे थे. प्रोग्राम के बाद बहुत से लेखक भी सेखों जी के साथ ही बेदी साहब की कार में बैठ गये. उनको अपने अपने ठिकाने पर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी बेदी साहब की थी. रास्ते में पंजाबी लेखक सुखबीर ने चुटकी लेते हए कहा, “बेदी साहब, यह गाडी आपके प्रोड्यूसर होने की सही निशानी है. “क्यों नहीं,” एक अन्य लेखक बोला, “गाड़ी क्या है, पूरा छकड़ा है.” “और इसमें आटे की बोरियां भी लादी जा सकती हैं!” अब की बार सेखों जी बोले. इस बार बेदी साहब ने भी सेखों जी की ओर मुस्कुरा कर देखा और बोले, “वही तो लाद कर लिए जा रहा हूँ.” |
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मूर्खों जैसी बात प्रसिद्ध हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु से उनके एक मित्र ने कहा, “तुम जब भी नशे में रहते हो तो हमेशा मूर्खों जैसी बातें करते हो.” इस पर रेणु जी ने कहा, “मैं नशे में मूर्खों जैसी बात करता हूँ, यह एक अस्थाई बात है और तुम जो हमेशा मूर्खों जैसी बात करते हो, वह एक स्थाई बात है.” |
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बे-अदबों से सीखा है
हकीम लुकमान अपनी तहजीब और अदब के लिए शहर भर में बहुत मशहूर थे और लोग उनकी बड़ी इज्ज़त करते थे.एक दिन हकीम लुकमान से उनके एक मित्र ने उनसे पूछा, “आपने यह अख़लाक़ और तहजीब कहाँ से सीखी?” “बे-अदबों से और बेतहजीबो से.” उत्तर मिला. “हकीम साहब, आप भी खूब मज़ाक करते हैं. भला ऐसे लोगों से भी कोई सीख सकता है?” मित्र ने आश्चर्य से उनकी ओर देखते हुये कहा. मित्र की बात सुन कर हकीम लुकमान मुस्कुराये और बोले, अरे जनाब, इसमें हैरानी की क्या बात है? मैंने इन लोगों में जो बुरी बातें देखीं, अपने आप को उनसे दूर रखा. इस तरह अच्छाइयां मुझमे स्वतः आती गईं.” |
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पादुका पुराण
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पैत्रिक गाँव जोड़ासांको में अक्सर साहित्यिक गोष्ठियां आयोजित होती रहतीं. शरच्चंद्र बाबु भी इनमे भाग लिया करते थे. कहते हैं कि हर बार किसी न किसी का जूता खो जाता था. एक बार शरत बाबु नया जूता पहन कर आये. इस डर से कि कहीं यह चोरी न चला जाये, उन्होंने जूते को अखबार में लपेट कर हाथ में ले लिया. रवि बाबू ने उनसे पूछ लिया, “यह तुम्हारे हाथ में क्या है?” शरद बाबु को कुछ उत्तर देते न बना. वह चुप चाप सिर झुकाए खड़े रहे. रवि बाबु बोले, “लगता है कोई पुस्तक लिये खड़े हो? शायद यह ‘पादुका पुराण’ है?” शरद बाबु हैरान हो गये! तभी सभा में एक ठहाका गूँज उठा. |
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शब्बीर हसन खां ‘जोश’ और मौलाना आज़ाद
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/i...qnCwsqQTUvhXUQ ** https://encrypted-tbn3.gstatic.com/i...sXSSEeD0wmA-dQ यह उन दिनों की बात है जब जोश मलीहाबादी अभी पाकिस्तान जा कर नहीं बसे थे. जोश साहिब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अच्छे दोस्त थे तथा वह प्राय: आज़ाद साहिब से मिलने जाते रहते थे। एक बार जब वह मौलाना से मिलने गए, तो वह अनेक सियासी लोगों में घिरे हुए थे। दस-बीस मिनट इंतज़ार के बाद जोश साहिब ने यह शेर कागज़ पर लिखकर उनके सचिव को दिया और उठकर चल पड़े— नामुनासिब है ख़ून खौलाना फिर किसी और व़क्त मौलाना जोश अभी बाहरी गेट तक भी नहीं पहुंचे थे कि सचिव भागे भागे आए और रुकने को कहा। जोश साहिब ने मुड़कर देखा। मौलाना कमरे के बाहर खड़े मुस्कुरा रहे थे। |
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'ग़ालिब' और 'ज़ौक़' की नोक झोंक
ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच शायराना नोंक-झोंक और हँसी-मज़ाक के कई सारे किस्से मक़बूल हैं। बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । वे सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “मैं तो आपको मीरी समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई हैं ।” यहाँ मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल। |
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जिगर मुरादाबादी, शौकत थानवी और मजरूह सुल्तानपुरी दोपहर के समय कहीं काम से निकले थे तो ख़याल आया कि क्यों न नमाज़ अदा कर ली जाये.शौकत साहब किसी काम से चले गए. जिगर साहब किसी मस्जिद के बजाय एक रेस्टोरेंट में घुस गये. मजरूह साहब ने कहा, “ जिगर साहब यह मस्जिद नहीं यह रेस्टोरेंट है.” जिगर साहब में उत्तर दिया, “मुझे मालूम है. सोचा कि वक़्त कम है.अल्लाह को तो खुश कर नहीं सकता, उसके बन्दों को ही खुश कर लूँ. आइये. |
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जोश मलीहाबादी ने जिगर मुरादाबादी को छेड़ते हुए कहा, “क्या सबक लेने वाली हालत है आपकी. शराब ने आपको एक शराबी से मौलवी बना दिया और आप अपने स्थान को भूल बैठे. मुझे देखिये. मैं रेल के खंबे की तरह आज भी अपनी जगह पर खड़ा हूँ, जहाँ आज से कई साल पहले था.” जिगर साहब ने जवाब दिया, “बिलकुल आप रेल के खम्बे हैं और मेरी ज़िन्दगी रेलगाड़ी की तरह है, जो आप जैसे हर खम्बे को पीछे छोडती हुई हर जगह से आगे अपना मुकाम बनाती जा रही है.” |
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उर्दू के प्रसिद्ध शायर एहसान दानिश से मुशायरे के व्यवस्थापकों ने निवेदन किया कि ‘हम एक मुशायरा करवा रहे हैं. आप उसमें शामिल हो कर मुशायरे की शोभा बढ़ाये.’ एहसान ने पूछ लिया, “कितना पैसा मिलेगा”. व्यवस्थापकों ने नम्रता से जवाब दिया, “आप इस मुशायरे में बिना पैसा लिए आकर हमें धन्यवाद का अवसर प्रदान करें.” एहसान पर उनकी बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. उन्होंने कारोबारी लहजे में जवाब दिया, “हुज़ूर आपको धन्यवाद का अवसर प्रदान करने में मुझे कोई ऐतराज़ नहीं था और बिना पैसे के आपके मुशायरे में आ जाता अगर मैं अपने शेरों से अपने बच्चों का पेट भर सकता. आप खुद ही बताइए कि अगर घोड़ा घास से यारी करेगा तो क्या वह आपके धन्यवाद पर जीवित रह सकता है?” |
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मिश्र बनाम चटर्जी एक बार का किस्सा है। किसी गोष्ठी में अनेक साहित्यकार बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी। विषयों की विविधता थी। इसी गोष्ठी में प्रसिद्ध हिंदी कवि वीरेंद्र मिश्र भी बैठे थे और बंगाल के सुविख्यात कथाकार सुकुमार चटर्जी भी उपस्थित थे। चर्चा के एक दौर में चटर्जी महाशय ने मिश्रजी को छेड़ते हुए कहा, ‘मिश्रजी! पहले के जमाने में जो वेदपाठी ब्राह्मण थे, उन्हें वेदी कहा जाता था। दो वेदों के ज्ञाता द्विवेदी, तीन के त्रिवेदी और चारों वेदों के ज्ञाता चतुर्वेदी जैसे उपनामों का जन्म हुआ। जो पढ़ाने का काम करते थे, वे उपाध्याय कहलाने लगे और जो न ठीक से पढ़ पाते थे और न ही पढ़ा पाते थे, वे ‘मिश्र’ कहलाए अर्थात ये मिला-जुलाकर काम चलाते थे।’ मिश्रजी ने जब चटर्जी महाशय को अपना सार्वजनिक उपहास करते देखा तो इन शब्दों में करारा जवाब दिया, ‘पहले ब्राह्मण अपने इष्टदेव को पत्री या अर्जी लिखते थे, जैसे तुलसीदास ने ‘विनय पत्रिका’ लिखी। इस प्रकार अर्जी लिखने वाले लोग ‘बनर्जी’ कहलाए। जो लिखकर न देते हुए मुख से कह देते थे वे ‘मुखर्जी’ कहलाए और बिना सोचे-विचारे चट से कह देते थे वे ‘चटर्जी’ कहलाए।’ मिश्रजी की बात पर पूरी सभा हंस पड़ी और चटर्जी महाशय खिसिया गए। |
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चाय का बिल अहमद नदीम काज़मी और इब्ने इंशा यह उन दिनों की बात है जब अहमद नदीम काज़मी, इब्ने इंशा समेत कई दोस्त एक रेस्तराँ में मुलाक़ात करते और चाय पीते. वे लोग अपना अपना बिल अदा करते और चल देते. एक दिन इब्ने इंशा ने सुझाव दिया कि इस प्रकार वेटर के सामने हम पैसे इकट्ठे करते हैं, यह अच्छा नहीं लगता. आगे से आप लोग मुझे एक एक आना पहले ही दे दिया करो ताकि बिल का भुगतान एकमुश्त कर दिया जाये. इससे इन्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि हम कंगाल हैं. ऐसा ही किया जाने लगा. सब लोग वहाँ बैठते ही इंशा को एक एक आना दे देते. इससे हुआ यह कि वे चाय का एक सेट मंगवा लेते जिससे सबके लिए चाय भी पूरी हो जाती थी और इंशा को अपनी चाय के पैसे भी नहीं देने पड़ते. इस पर जब सबने ऐतराज़ किया तो इंशा ने कहा, “उन मजदूरों को भुगतान करने के लिए पेसा इकठ्ठा करने में मैंने जो शारीरिक मेहनत की है, क्या उसके लिए एक आना भी मुआवज़ा नहीं बनता??” |
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Quote:
सभी प्रसंग बहुत खुबसुरती से कहे जा रहें है ईसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। यह सुत्र जारि रखिएगा। |
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दिनकर की डायरी से साभार
श्री रामधारी सिंह दिनकर एअर-कंडीशंड पोएट [1969, कानपुर] श्रीमती संतोष महेन्द्रजीत सिंह को लगा मैं आराम से नहीं हूँ. आज वे कह बैठीं -"आप एअर-कंडीशंड पोएट हो गए" मैं ने कहा " हाँ, वहाँ दिल्ली में एअर-कन्डीशन में रहता हूँ, ट्रेन में ए.सी. में चलता हूँ और कविता भी ठंडी लिखने लगा हूँ. आपके मजाक में भी सच्चाई है. |
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हफ़ीज़ जालंधरी और चिराग़ हसन हसरत किसी मुशायरे में हफ़ीज़ जालंधरी अपनी ग़ज़ल सुनाते सुनाते चिराग़ हसन हसरत से बोले, हसरत साहब, मुलाहिजा फरमाइए, मिसरा अर्ज़ किया है.” और मिसरा सुनने से पहले निहायत बेचारगी से हसरत साहब बोले, “फरमाइए हफ़ीज़ साहब, शौक़ से फरमाइए. अपनी तो उम्र ही मिसरा उठाते और मुर्दों को कन्धा देने में कटी है.” |
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