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dipu 01-07-2013 08:55 AM

झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
बांदा बुन्देलखण्ड झांसी १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और बाद के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में देश के अनेक वीरो और वीरांगनाओं ने अपनी कु र्बानी दी है। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का नाम तो स्वर्णक्षरों में अकित है किन्तु बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाये है जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं है। तो बहुत से ऐसे भी वीर और वीरांगनाएं है जो इतिहास कारों की नजर में तो नहीं आ पाये जिससे वे इतिहास के स्वार्णिम पृष्टों में तो दर्ज होने से वंचित रह गये किन्तु उन्हें लोक मान्यता इतनी अधिक मिली कि उनकी शहादत बहुत दिनों तक गुमनाम नहीं रह सकी । ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का स्वतन्त्रता संग्राम में दिया गया योगदान धीरे – धीरे समाज के सामने आ रहा है। और अपने शासक झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के प्राण बचाने के लिए स्वयं वीरांगना बलिदान हो जाने वाली वीरांगना झलकारी बाई ऐसी ही एक अमर शहीद वीरांगना है जिनके योगदान को जानकार लोग बहुत दिन बाद रेखाकित क र पाये है। झलकारी जैसे हजारों बलिदानी अब भी गुमनामी के अधेरे में खोये है जिनकी खोजकर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की भी वृद्धि करने की पहली आवश्यकता है। वीरांगना झलकारी बाई झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में महिला सेना की सेनापति थी जिसकी शक्ल रानी लक्ष्मी बाई से हुबहू मिलती थी। झलकारी के पति पूरनलाल रानी झांसी की सेना में तोपची थे। सन् १८५७ के प्रभम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझ बुझ स्वामिभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था। निर्णायक समय में झलकारी बाई ने हम शक्ल होने का फायदा उठाते हुए स्वयं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गयी थी और असली रानी लक्ष्मी बाई को सकुशल झांसी की सीमा से बाहर निकाल दिया था और रानी झांसी के रूप में अग्रेंजी सेना से लड़ते – लड़ते शहीद हो गयी थी।

वीरांगना झलकारी बाई के इस प्रकार झांसी की रानी के प्राण बचाने अपनी मातृ भाूमि झांसी और राष्ट्र की रक्षा के लिए दिये गये बलिदान को स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भले ही अपनी स्वार्णिम पृष्टों में न समेट सका हो किन्तु झांसी के लोक इतिहासकारो , कवियों , लेखकों , ने वीरांगना झलकारी बाई के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान को श्रृद्धा के साथ स्वीकार किया है। वीरांगना झलकारी बाई का जन्म २२ नवम्बर १८३० ई० को झांसी के समीप भोजला नामक गांव में एक सामान्य कोरी परिवार में हुआ था जिसके पिता का नाम सदोवा था। सामान्य परिवार में पैदा होने के कारण झलकारी बाई को औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर तो नहीं मिला किन्तु वीरता और साहस झलकारी में बचपन से विद्यमान था। थोड़ी बड़ी होने पर झलकारी की शादी झांसी के पूरनलाल से हो गयी जो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में तोपची था। प्रारम्भ में झलकारी बाई विशुद्ध घेरलू महिला थी किन्तु सैनिक पति का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा धीरे – धीरे उसने अपने पति से से सारी सैन्य विद्याएं सीख ली और एक कुशल सैनिक बन गयी। इस बीच झलकारी बाई के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिनमें उसने अपनी वीरता साहस और एक सैनिक की कुशलता का परिचय दिया। इनकी भनक धीरे – धीरे रानी लक्ष्मीबाई को भी मालूम हुई जिसके फलस्वरूप रानी ने उन्हें महिला सेना में शामिल कर लिया और बाद से उसकी वीरता साहस को देखते हुए उसे महिला सेना का सेनापति बना दिया। झांसी के अनेक राजनैतिक घटना क्ररमों के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई का अग्रेंजों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध हुआ उस समय रानी की ही सेना का एक विश्वासघाती दूल्हा जू अग्रेंजी सेना से मिल गया था और झांसी के किले का ओरछा गेट का फाटक खोल दिया जब अग्रेंजी सेना झांसी के किले में कब्जा करने के लिए घुस पड़ी थी। उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अग्रेंजी सेना से घिरता हुआ देख महिला सेना की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी। झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी ही उसी सूझ बुझ और रण कौशल का परिचय देते हुए वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई बन गयी और असली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सकुशल बाहर निकाल दिया और अग्रेंजी सेना से स्वयं संघर्ष करती रही।

बाद में दूल्हा जी के बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अग्रेंजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है। बाद में वह शहीद हो गयी। वीरांगना झलकारी बाई के इस बलिदान को बुन्देलखण्ड तो क्या भारत का स्वतन्त्रता संग्राम कभी भुला नहीं सकता

देखते है अवसर वादी नेताओ को इनकी याद आती है के नहीं

dipu 01-07-2013 08:56 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बलिवेदी पर कुर्बान होने वाली और भारत की संपूर्ण आजादी के सपने को पूरा करने के लिए प्राणों का बलिदान करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का नाम अब इतिहास के काले पन्नों से बाहर आकर पूर्ण चाँद के समान चारों ओर अपनी आभा बिखेरने लगा है। इसमें संदेह नही कि वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा लिखे गए इतिहास में बार बार उनकी अपनी जाति व वर्ग के लोगों की विद्वता, बहादुरी और हिम्मत भरे कारनामों का ही बखान पढने को मिलता है। पर यह बात भी सत्य है कि किसी की प्रतिभा, क्षमता को कितना भी दबाया जाएं पर वक्त आने पर ये दमित प्रतिभाएं व अस्मिताएं ठीक उसी प्रकार अपनी चमक से संसार को चकाचौध कर विस्मित कर देती है जिस प्रकार किसी हीरे पर पडी वक्त की धूल हट जाने से हीरा जगमगाने लगता है। आज भारत से लेकर विश्व तक के इतिहास मे दबे कुचले गरीब वर्गो मे लाखों लोग ऐसे मिल जायेगे जिन्होंने विपरित व क्रूर परिस्थितियों मे भी मनुष्य की आजादी से लेकर देश की आजादी तक के लिए अपने सुख सुविधाओं व प्राणों की परवाह ना करते हुए समता, समानता और बंधुत्व की मानवीय लौ को जगाए रखा है। ऐसी ही महान विभूतियों में से एक नाम वीरांगना झलकारी बाई का भी है। इसमें कोई शक नही कि जातीय पूर्वाग्रहों के चलते भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वीर सेनानी, दोस्ती व वचन निभाने के खातिर अपने प्राण उत्सर्ग करने वाली, साहस, वीरता, स्वाभिमान, औज, उत्साह, की अनोखी मिसाल वीरांगना झलकारी बाई की कीर्ति इतिहास के क्रूर पृष्ठो में अनेक वर्षों तक कैद रही, पर ऐसा कब तक संभव था आखिर एक ना एक दिन तो उनका नाम और वीरता देश के सामने प्रकट ही होनी थी।

dipu 01-07-2013 08:57 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
सांवले रंग की गुलाबी खूबसूरती लिए, सुंदर-सुडौल-मजबूत देहयष्टि वाली वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास भोजल गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम सदोवा तथा माता का नाम जमुना था। इनके माता-पिता बेहद गरीब थे। इसलिए इनका जीवन कष्टों में बीत रहा था। गरीबी में जीवन जीते हुए भी परिवार के लोगों में कठिन परिस्थितियों से लडने की हिम्मत और ताकत की कोई कमी नही थी। जब झलकारी बहुत छोटी थी तभी इनकी माताजी का देहांत हो गया था। झलकारी बाई का लालन-पालन पिता ने बड़े लाड़-प्यार से किया। झलकारी को वे अपने बेटा-बेटी दोनों मानते थे। झलकारी बाई कोरी जाति की थी तथा उनके पिता बुनकर समुदाय के थे। वे कपड़े बुनने का काम करते थे। झलकारी बाई में बचपन से ही मानसिक और शारीरिक ताकत की कमी नही थी। इसकी गवाह कुछ घटनाएं है जो उनकी बहादुरी और हिम्मत को बयां करती है। वह बेहद निडर थी। घर के ईंधन के इंतजाम के लिए वह बेखौफ बिना किसी संकोच के बियाबान बीहड जंगलों में अकेली ही चली जाती थी। जब झलकारी मात्र तेरह-चैदह वर्ष की ही थी तब वह एक बार वह जंगल मे लकड़ियाँ लेने गई। शाम को लौटते समय बाघ ने अचानक उस पर हमला कर दिया। उस समय झलकारी बिल्कुल निहत्थी थी। उसके पास केवल दिन भर की बटोरी गई लकडियां ही थी। अपने ऊपर अचानक आई विपदा से लडने की हर किसी के पास क्षमता नही होती पर झलकारी बाई में यह क्षमता कूट-कूट कर भरी हुई थी। कठिन परिस्थिति में भी धैर्य विवेक ना खोते हुए उस परिस्थिति का हिम्मत और साहस से डटकर मुकाबला उसके चरित्र की विशेषता थी। इसलिए बाघ के अचानक हमला करने पर भी झलकारी तनिक नही घबराई और एक मोटी सी लाठी नुमा लकडी लेकर बाघ से भिड गई और बाघ को मार ड़ाला। शाम को लहुलुहान अवस्था में जब झलकारी घर पहुँची तो पिता उस की हालत देखकर घबरा गए और रोने लगे। झलकारी के पूरे शरीर पर चोट और खरोंचो के निशान थे व जगह-जगह से खून रिस रहा था। झलकारी उनकी एकमात्र पुत्री थी, जिसे वह बडे कष्ट उठाकर पाल रहे थे। जंगल मे झलकारी ने अकेले बाघ को मार गिराया यह खबर पूरे गाँव मे जंगल की आग की तरह फैल गई। लोग दूर-दूर से आकर उस बहादुर, निडर कन्या से मिलने आने लगे। ऐसी ही एक और घटना है जब झलकारी ने अकेले गांव के जमींदार के घर में घुसे डाकुओं को ललकारते हुए उनपर हमला कर भागने पर विवश कर दिया। यह 1950 की बात है। एक रात झलकारी अपने घर में सोने की तैयारी कर रही थी। चारों तरफ भयंकर अंधकार छाया हुआ था। अचानक कही से जोर जोर से ‘मारो मारों...’ की आवाजे आने लगी। फिर कुछ रोने और कराहने की आवाजे भी आने लगी। झलकारी बाई से रुका नही गया और वह दौड कर आवाज आने वाली दिशा में गई। उसके हाथ में केवल एक मोटा डंडा था। यह आवाजे गांव के मुखिया के घर से आ रही थी। उनके घर को डाकुओं ने घेर लिया था। झलकारी बाई ने अपने वस्त्र कसकर बांधते हुए मुखिया के आंगन में कूद गई। उसने अपने मोटे डंडे से उन डाकुओं पर वार किया। उसने कुछ डाकुओं को धर दबोचा। डाकू उसके इस भयानक रुप से इतना डर गए कि वह मैदान छोडकर भाग निकले। गांव के मुखिया झलकारी की वीरता, साहस, हिम्मत के आगे नतमस्तक हो गए। मुखिया ने झलकारी को अपनी बेटी मान लिया। ऐसी ही एक और घटना है जब झलकारी ने अपनी हिम्मत नही हारी और डाकुओं को भागने पर मजबूर कर दिया। बात सन् अक्तूबर 1952 की है। गांव के पास ही एक मेला लगा था। शाम के समय जब जब झलकारी अपनी सहेलियों के साथ मेला देखने जा रही थी उसी समय डाकुओं ने उनके समुह को घेर लिया और उनसे उनके पहने गहने मांगने लगे। सब लडकियां बिना किसी विरोध के अपने गहने आदि उतार-उतार कर देने लगी। डाकुओं के विरोध करने का मतलब था अपनी जान असमय खोना। असमय और बिना वजह जान देने की हिम्मत हर किसी में नही होती। ऐसे ही जब झलकारी की बारी आई तो उसने गले में पडी हंसली को उतारने का अभिनय करते हुए कहा यह बहुत छोटी है इसे काटकर उतारना पडेगा। इसलिए उनको काटने के लिए डाकुओं से उनकी कटार मांगी। कटार हाथ में आते ही झलकारी ने डाकुओं के बीच मार काट मचाते हुए उसे एक तरह से रणक्षेत्र में बदल दिया। झलकारी के रौद्र रुप को देखते हुए डाकू जान बचाकर भागने लगे। झलकारी की वीरता के चर्चे पूरी झांसी में फैल गए। झलकारी की वीरता के चर्चे “पूरनमल कोरी” ने भी सुने। पूरन कोरी झांसी के राजा “गंगाधर राव अर्थात रानी लक्ष्मीबाई के पति” की सेना में सिपाही था तथा तोपची के पद पर तैनात था। पूरन स्वयं बहुत बहादुर सिपाही तथा एक जाना-माना पहलवान था। वह शरीर ह्रष्ठ-पुष्ठ, बलिष्ठ तथा देखने में बहुत सुंदर था। वह स्वयं बहादुर होने के कारण बहादुर लोगों की बहुत कद्र करता था।अपनी जीवन संगिनी के रुप में वह मन ही मन निडरता और साहस की मूर्ति झलकारी बाई की कामना करने लगा। इसलिए उसने झलकारी बाई की बहादुरी के कारनामों से मुग्ध होकर उसके पास विवाह का प्रस्ताव भिजवाया। झलकारी बाई के पिता ने ऐसे सुयोग्य वर के रिश्ते को सहर्ष मंजूर कर लिया। झलकारी बाई और पूरन कोरी का वैवाहिक जीवन सुख से बीतने लगा। पूरनमल ने झलकारी बाई को तीर, तलवार, भाला, बरछी, बंदूक और घुडसवारी सिखाई। झलकारी बाई देखते देखते इन कलाओं में इतनी प्रवीण हो गई जैसे की प्रशिक्षण प्राप्त कुशल योद्धा होते है। झलकारी बाई को बहादुरी के किस्से जब रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने सुने। वह भी झलकारी बाई से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थी। रानी लक्ष्मीबाई हिम्मती और बहादुर लोगों की बहुत मान करती थी और बहादुर औरतो की तो और भी ज्यादा । रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी के अन्दर ही स्त्रियों की सेना ‘दुर्गा सेना’ बनाई थी। दुर्गा सेना की महिला सैनिक एक योद्धा की तरह युद्ध की एक- एक कला में पारंगत थी। एक बार वसंत पंचमी के दिन गौरी पूजन के हल्दी-कुंकुम के त्यौहार मनाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने महल में झांसी की सभी महिलाओं को आमंत्रित किया। जिसमे रानी ने आमंत्रित सभी औरतों का स्वागत रोली और हल्दी से किया, इस त्यौहार का उद्देश्य महिलाओ में आपसी प्यार व सदभाव जगाना तथा एक दूसरे से परिचय प्राप्त करना होता था। महाराष्ट्र में यह त्यौहार अभी भी मनाया जाता है। लेकिन इस बार इस त्यौहार को मनाने का एक अलग उद्देश्य था। अंग्रेजों की वक्र दृष्टि झांसी पर पढ चुकी था। इसका कारण था राजा गंगाधर राव का बे औलाद रह जाना। राजा गंगाधर विलाली प्रवृति के राजा थे। एरनी अधिक समय नाच-गाने और भोग विलास में बिताया करते थे। अंग्रेजों की झासी पर टेढी दृष्टि देख रानी चिंतित हो उठी। वह इस समारोह के माध्यम से झांसी की वीर स्त्रियों की खोज करके उन्हे अपनी सेना में भर्ती करना चाहती थी जो अंग्रेजों से लडने की हिम्मत भी रखती हो। महल में रानी ने झलकारी बाई को भी आमन्त्रित किया। हल्दी कुकुंम के समय जब रानी ने झलकारी बाई का घुंघट उठाकर देखा तो रानी लक्ष्मीबाई हैरान हो गई।झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई दोनो की सूरतें एक जैसी थी। जैसे दोनों सगी बहनें हो। सभी महिलाओं के मुँह से यही निकला कि “अरे यह तुम्हारी सगी बहन लगती है”। झलकारी बाई का परिचय पाते ही रानी समझ गई कि यह वही प्रसिद्ध झलकारी है जिसके बहादुरी के किस्से पूरी झांसी में जगह-जगह प्रसिद्ध है तथा जिसने निहत्थे अकेले ही बाध को मार गिराया था। रानी लक्ष्मीबाई झलकारीबाई से मिलकर फूली नही समाई और उसी समय रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी समझदारी तथा विशालता का परिचय देते हुए झलकारी बाई को सचमुच अपनी सगी बहन मानकर उसे सेना की महिला टुकडी दुर्गा वाहिनी का सेनापति बना दिया। महिला सेना दुर्गा दल का कार्य था कि वह रानी को झांसी के राजपाठ की देखभाल में उनकी विश्वासपात्र बनकर झांसी की सुरक्षा में अपना योगदान दें। रानी लक्ष्मीबाई किसी भी क्षेत्र में महिलाओं को कमतर नही मानती थी। स्त्रियां सबल हो, मजबूत हो, बहादुर हों, घर के चूल्हे चौके के अलावा वे देश व लोगों के हित के लिए भी कुछ काम करे रानी की इस सोच को आगे बढ-चढकर बढाया झलकारी बाई ने।

dipu 01-07-2013 08:58 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई दोनों हमउम्र थी। केवल दोनों हमशक्ल ही नही बल्कि दोनों के अंदर गुण भी एक समान थे। दोनों बहुत बहादुर और साहसी थी। दोनों बचपन से ही मुसीबते झेलती आई थी। दोनों ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया था। दोनों को ही झांसी से बहुत प्रेम था। दोनों को जुल्मी अंग्रेजो उनके कार्यों से बेहद घृणा थी। दोनों महल और झांसी के लोगों को कैसे सुरक्षित रखा जाए इसपर घंटों बातें तथा सलाह मशवरा करती। झलकारी बाई बहादुर होने के साथ-साथ आदमी को परखने पर में कभी मात नही खाती थी। अपने लूट-पाट के कारनामों से सन्नाम हो चुके सागर सिंह को अपनी दूरदृष्टि के कारण ही झांसी की सेना में जोड पाई । झलकारी बाई के चरित्र के इस महत्वपूर्ण गुण को दर्शाने वाली घटना का वर्णन भारत सरकार द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक झलकारी बाई (लेखिका अनसूया अनु) में पढने को मिलता है। इस पुस्तक में वर्णित घटना के अनुसार एक बार महारानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को बताया कि झांसी की सेना का एक वीर और महत्वपूर्ण योद्धा खुदाबख्श नही लौटा है जबकि उसे वापिस झांसी में दो दिन पहले ही आ जाना चाहिए था। रानी ने झलकारी बाई को अपनी चिंता से अवगत कराते हुए कहा कि ऐसे बुरे समय में झलकारी को उसके विशेष सेवाकर्मी योद्धा को कहीं से भी ढूंढकर लाना होगा। रानी की आज्ञा पाकर झलकारीबाई अपने दुर्गा दल की कुछ वीरांगनाओं को साथ लेकर खुदाबख्श को ढूंढने निकल पढी। झलकारी और दुर्गादल की सैनिक चारों तरफ सावधानी हिम्मत और बहादुरी से खुदाबख्श को ढूंढ रही थी। उन्हे खुदाबख्श बीहड जंगलों में घायल अवस्था में पडा मिला। झलकारी बाई ने घायल खुदाबख्श को कुछ स्त्री सैनिकों के साथ शीघ्र महल की ओर रवाना कर दिया। उन दिनों डाकू सागर सिंह का आतंक उस इलाके में चारों ओर फैला हुआ था। डर था कि कही अचानक सागर सिंह उनपर हमला ना कर दे। डाकू सागर सिंह डाकू होते हुए भी बहुत बहुत बहादुर था। झलकारी ने सोचा ऐसे कठिन समय में झांसी की रक्षा के लिए सागर सिंह जैसे बहादुरों की बहुत आवश्यकता है। इसलिए झलकारी ने मन ही मन उसका ह्रदय परिवर्तन कर उसको झांसी की सेना में शामिल करने की योजना बनाई। झलकारी सागर सिंह और अन्य डाकुओं की खोज में अपने कुछ सैनिको के साथ उसकी गुफा की तरफ चल पडी। नदी नाले और बीहड जंगल पार करते हुए आखिरकार वह सागर सिंह की गुफा तक पहुँच ही गई। गुफा के मुहाने पर जाकर उसने डाकुओं के सरदार सागर सिंह को ललकार कर बाहर आने के लिए विवश कर दिया । दोनों तरफ से खूब गोलीबारी हुई जिसमें डाकू सागर सिंह घायल हो गया और अंतत पकड लिया गया। झलकारी ने सागर सिंह को अपना निश्चय सुनाते हुए कहा कि वह उस जैसे बहादुर योद्धा की बहुत कद्र करती है। एक बहादुर के रहने की जगह कभी यह अंधरी गंदी गुफाएं नही हो सकती। एक बहादुर का काम लोगों को लूटकर भयभीत करना नही बल्कि बहादुरों का फर्ज कमजोर, असहाय, सताएं हुए लोगों की रक्षा करना होता है। इसलिए उसकी जगह यहां नही झांसी में है । हमारी प्यारी झांसी पर अंग्रेजी साम्राजय की विनाशकारी नीतियों के काले बादल झाए हुए है, इसलिए झांसी की धरती को तुम्हारे जैसे वीरों की बहुत जरुरत है। झलकारी की बातों का डाकू सागर सिंह पर बेहद सकारात्मक असर हुआ। झलकारी बाई से प्रेरणा पाकर सागर सिंह ने अपना डाकू का बाना हमेशा के लिए छोडकर झांसी की सेना में शामिल हो गया। बाद में जब झांसी में युद्ध हुआ तो उस युद्ध के दौरान सागरसिंह ने झांसी के किले के एक फाटक खाण्डेराव गेट की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से निभाई।
इधर महाराज गंगाधर राय लगातार बीमार रहने के बाद 21 नवम्बर 1853 को चल बसे। पर अपने राज-पाट अर्थात झांसी को संभालने के लिए उन्होने अपने भतीजे के बेटे दामोदर राव को ठीक अपनी मृ्त्यु से एक दिन पहले अर्थात 20 नवंबर को अपना तथा अपने राज्य का वारिस घोषित कर गए । उनकी मृ्त्यु उपरांत पूरे राज्य का भार रानी लक्ष्मीबाई पर आ गया। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की बागडोर बडी बहादुरी और हिम्मत से संभाल ली। रानी लक्ष्मीबाई अपने राज्य की सुरक्षा करने के लिए अपनी प्रिय मित्र झलकारी और अन्य विश्वासपात्रों के साथ व्यस्त हो गई। झांसी की सुरक्षा के लिए रानी और झलकारी बाई दोनों कई-कई घंटे घुडसवारी,कलाबाजी,आखेट, बंदूक का अभ्यास करती तथा उसके उपरान्त दोनों घोडों पर सवार होकर जंगलों की ओर निकल जाती।

dipu 01-07-2013 08:59 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
रानी के झांसी संभालते ही और रानी के दत्तक पुत्र गोद लेने के फैसले को अंग्रेजों ने मानने से इन्कार कर दिया और झांसी को अपने आधीन करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई की पाँच हजार रूपये महीना की पैंशन बाँध दी। यह रानी और झांसी की आजादी पसंद जनता का अपमान था। इस फैसले का रानी ने कडा विरोध किया और पैंशन को ठुकरा दिया। रानी और झांसी के नागरिकों के ऐसे कडे विरोध को देखकर अंग्रेजों ने झांसी राज्य को अपने कब्जे में लेने की ठान ली, और अपने फैसले पर अटल रहते हुए झांसी को अंग्रेजी इलाके में मिलाने का ऐलान कर दिया। यह सन सत्तावन का समय था। एक तरफ जहाँ रानी ने अपनी झांसी देने से इंकार करते हुए हुंकार भर अंग्रेजों को कहा “मै अपनी झांसी नहीं दूंगी” तो वहीं दूसरी ओर झलकारी बाई के साथ झांसी के लोगों ने कहा ‘हम अपनी झांसी नही देगे’। अपनी झांसी और अपनी रानी को बचाने के लिए झांसी का एक-एक बच्चा मरने मारने को तैयार था और उनमें सबसे आगे थी वीरांगना झलकारी बाई।

झांसी का युद्ध शुरु हो गया। झांसी के किले के ओरछा गेट पर तोपची दुल्हाजू तैनात था। झलकारी और पूरन तथा उनके अन्य साथी उन्नाव भंडेरी गेट पर तैनात थे। खाण्डेराव गेट पर सागरसिंह और दक्षिण में गौरा तन कर खडा था। ।युद्ध में झलकारी की सखियां वीरबाला, सुंदर, काशी, मोती,भक्तिम जूही भी शामिल होकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तैयार थी। अंग्रेजों की सेना जिस ताकत से झांसी पर कब्जा करने के लिए चारों ओर से झपटी थी उससे दुगनी ताकत से झांसी के किले के अंदर से उन्हे जबाब दिया गया था। उन्नाव फाटक का मोर्चा देखकर अंग्रेजों के पैर उखडने लगे, उनकी हिम्मत जबाव देने लगी। झलकारी बाई, पूरनमल तथा उनके साथियों ने धडाधड़ गोलियों की बौछार करके अनेक अंग्रेज सैनिको को धराशायी कर दिया। जिससे अंग्रेज एकदम घबरा गए। अंग्रेजों को समझ में आ गया कि इतनी ताकत से वह झांसी बाल भी बांका नहीं कर पाएंगे। इसलिए उन्होने रानी को हराने और युद्ध जीतने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। अंग्रेजों ने रानी झांसी के सेना के एक विश्वासपात्र दीवान दीवान दुल्हाजू को लालच देकर खरीद लिया। दीवान दुल्हाजू ने झांसी से गद्दारी की तथा वह लालच में पडकर अंग्रेजों से मिल गया। उसने लडाई के निर्णायक समय में ओरछा गेट खोल दिया। अंग्रेजी फौज झांसी नगर में घुस आई औऱ चारों ओर मार-काट मचाने लगी। चारों तरफ तबाही का मंजर नजर आने लगा। जैसे ही किले के अंदर खबर पहुंची कि दुल्हाजू ने गद्दारी कि है इस खबर से झांसी के बहादुर अत्यंत क्रोधित हो उठे। उन्होने मन ही मन अपने प्राण किले और रानी दोनों की सुऱक्षा के लिए न्यौछावर कर दिए। झलकारीबाई अति वीरता का प्रदर्शन करते हुए उन्नाव भंडेरी बुर्ज से द्वंद्व मचा दिया। मारकाट मच गई, भीषण युद्ध हुआ। वीरांगना झलकारी बाई जैसा मौका देखती वैसी ही वार करती। वह भीषण आग उगल रही थी। अंग्रेजी सैनिकों को दनादन गोली से उडा रही थी। उसे अपनी जान की परवाह नही थी। उसे झांसी और रानी दोनों को बचाने की चिन्ता ज्यादा थी। रानी झांसी भी अंग्रेजो से लोहा ले रही थी। पर रानी की फौज छोटी थी और अंग्रेजो की सेना विशाल थी। रानी ने झांसी की दुर्दशा और भीषण ह्त्याकांड देख अपने प्राणों का अंत करन की सोची परन्तु झलकारी बाई ने रानी को झांसी छोडने की सलाह दी गई। इसी बीच झलकारी को खबर मिली की उसके पति पूरन युद्ध में शहिद हो गए। झलकारी एक बार तो अपने पति के शहीद होने की बात सुन स्तब्ध रह गई पर दूसरे ही पल उसने अपने आप को संभाल लिया और क्योंकि यह समय रोने का नही दुश्मनों के हाथों से रानी लक्ष्मीबाई और झांसी के उत्तराधिकारी बालक दामोदर राव की सुरक्षा का था। किले में तेजी से कब्जा करती अंग्रेजी सेना को देख झलकारी बाई और सबकी आपस में यही सलाह बनी की रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को किले से बाहर लेजाकर उसकी रक्षा करे तथा बाहर जाकर झांसी की रक्षा के लिए अन्य लोगों से मदद ले। झलकारी ने तय किया कि जब तक रानी किले से बाहर सुरक्षित ना निकल जाए तब तक झलकारी बाई किले के अंदर रानी लक्ष्मीबाई की वेशभूषा में अंग्रेजों को धोखा देने युद्ध करती रहेगी।

dipu 01-07-2013 09:02 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
4 अप्रैल 1858 की रात को रानी ने दामोदर राव को पीठ से बांधा तथा घोडे पर सवार होकर भांडेरी फाटक पर पहुँच गई। रानी के निकलने के लिए फाटक खोल दिया गया तथा कोरियों ने फाटक तुरंत बंद कर दिया। इस तरह रानी भांडेरी गेट से सुरक्षित बाहर निकल गई। झलकारी ने देखा कि रानी सुरक्षित निकल गई है तो उसने फिर धुआंधार गोलाबारी आरंभ कर दी ताकि अंग्रेज टुकडी रानी का पीछा ना कर सके तथा रानी सुरक्षित कालपी पहुँच जाए। उसी दिन यानि 4 अप्रैल 1858 को झलकारी बाई ने रानी की वेशभूषा पहनी तथा शस्त्रों के साथ घोडे पर चढकर लडने लगी। वह हूबहू रानी लक्ष्मीबाई जैसी लग रही थी। अब अंग्रेज झलकारी को ही रानी समझकर उससे उलझे हुए थे। तथा झलकारी भी उन्हें उलझाए रखना चाहती थी। किले पर अंग्रेजों का बढता अधिपत्य देखकर भी झलकारी बाई ने साहस नही डिगाया और अपना रौद्र रुप धारण किए अंग्रेजी सेना में मार काट मचा दी। कहते है झलकारी बाई ने 12 घंटे तक अनवरत युद्ध किया और अंग्रेज यही समझते रहे कि रानी ही उनसे युद्ध कर रही है। लड़ते-लड़ते जब कई घंटे बीत गए औऱ झलकारी को लगा कि अब रानी जरुर कहीं किसी सुरक्षित जगह पहुँच गई होगी,इसलिए झलकारी बाई किले में अंग्रेजों द्वारा की जा रही भंयकर हिंसा और रक्तपात से किलेवासियों को बचाने के लिए वह किले से बाहर निकल आई। अंग्रेजों ने सोचा रानी बाहर जा रही है। वे भी उसके पीछे- पीछे भागे। अंग्रेजों से लड़ते लड़ते आखिरकार झलकारी बाई पकड़ ली गई। अंग्रेजी कैम्प में खुशिया मनाई जाने लगी। अंग्रेजी राज का सबसे बड़ा कॉटा उनके चंगुल मे आ गया। उन्हें सचमुच लगा कि रानी उनके कब्जे में आ गई है। वीरांगना झलकारी बाई को गिरफ्तार करने के बाद उसे जरनल ह्यूरोज के सामने पेश किया गया। जरनल ह्यूरोज ने उसे देखा और कहा- “कितनी सुंदर यद्यपि श्यामल औऱ भयानक”। रानी को कोई भी अंग्रेज अफसर नही पहचानता था। अंग्रेजों ने रानी को पहचानने के लिए फिर उसी गद्दार दुल्हाजू राव को बुलवाया। दीवान दुल्हाजू राव झलकारी बाई को देखकर हैरत में पड़ गया और चिल्लाकर बोला “अरे यह तो कोरी लड़की झलकारी है रानी लक्ष्मीबाई नही”। दुल्हाजू को सामने पाकर झलकारी गुस्से में बोली – “आस्तीन के साँप” ।झलकारी बाई ने जंजीरों मे जकड़े-जकड़े ही दीवान दुल्हाजू पर गोली चला दी परन्तु गोली एक गोरे सैनिक को लग गई। गोली से वह अंग्रेज सैनिक मर गया पर दुल्हाजू राव बच गया। झलकारी फिर गरज कर बोली –अरे पापी तुने ठाकुर होकर यह का करो? तू पैदा होते ही क्यों नही मर गया? तूने महारानी लक्ष्मीबाई से गद्दारी की है। तभी जरनल ह्यूरोज झलकारी बाई पर गरज उठा – “तूने मुझे धोखा दिया तू रानी लक्ष्मीबाई नही हो, तुम झलकारी कोरिन हो । तुमने मेरे सैनिक को गोली मारी, मैं तुम्हे गोली मारुंगा”। झलकारी बाई चिल्लाकर बोली- “मार दे गोली, मैं मरने से कब डरती झलकारी का वापिस जबाव पाकर ह्यूरोज गुस्से में तमतमा उठा और अंतत उस क्रूर अंग्रेज ने उसे गोलियों से छलनी कर दिया”। लेकिन बाद में जरनल ह्यूरोज ने झलकारी बाई की हिम्मत बहादुरी से प्रभावित होकर कहा था- "यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"।

रानी लक्ष्मीबाई की सुरक्षित बचाने में वफादारी का सबूत पेश करने वाली दलित वीरांगना झलकारी बाई देश के हित में कुर्बान हो गई। अपनी मातृभूमि की रक्षा, वफादारी तथा भारत की आजादी के लिए झलकारीबाई ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा शहीद हो गई। झलकारी बाई की मृ्त्यु किस तारीख को हुई इसके बारे में अलग-अलग जानकारियां मिलती है। कुछ लोग झलकारी बाई के शहीद होने की तिथि 4 अप्रैल मानते है तथा कुछ लोग 5 अप्रैल मानते है। अखिल भारतीय युवा कोहली राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.नरेशचंद्र कोली के अनुसार 4 अप्रैल 1857 को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की थी।

उन्हें वीरगति कैसे प्राप्त हुई इस संदर्भ में भी कई कहानियां प्रचलित है। किसी का मानना है कि उनको अंग्रेजो द्वारा फांसी की सजा दी गई और कुछ का मानना है कि उनका शेष जीवन अंग्रेजो की कैद में बीता। यह भी कहानी पढने को मिलती है कि पकडे़ जाने पर जब झलकारी बाई को न्यायालय में पेश किया गया। तब अंग्रेज न्यायाधीश ने झलकारी बाई को उम्रकैद की सजा सुनाई तो उसने भरी सभा में अंग्रेजी न्याय की खिल्ली उड़ाते हुए उन्हें तुरंत झाँसी से लौट जाने का आदेश दिया। चिढ़े हुए अंग्रेज अफसरों ने बौखलाकर तुरंत उस पर फौजी मानहानि तथा बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारीबाई को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया गया। एक अन्य जगह झलकारी बाई को अंग्रेजों द्वारा तोप से उडा कर मार डालने का भी वर्णन मिलता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से छपी लघु पुस्तक झलकारी बाई की लेखिका अनसूया अनु ने लिखा है कि “झलकारी अंग्रेजी सेना के हाथ पड़ तो गई लेकिन वह उनके हाथ मरना नही चाहती थी। उसने अपनी सखी वीरबाला से अपने सीने में कटार उतार देने को कहा। सखी वीरबाला हिचकिचाई, लेकिन झलकारी के आग्रह ने उन्हे मजबूर कर दिया। वीरबाला के हाथों अपनी जीवन लीला समाप्त कर वह सदा के लिए सो गई”। एक अन्य मत, प्रसिद्ध लेखक वृंदावन लाल वर्मा का है जिन्होंने पहली बार झलकारी बाई का उल्लेख अपने उपन्यास झांसी की रानी में किया था। उनके अनुसार रानी और झलकारी बाई के संभ्रम का खुलासा होने के बाद ह्यूरोज ने झलकारी बाई को मुक्त कर दिया था। उनके अनुसार झलकारी बाई का देहांत एक लंबी उम्र जीने के बाद हुआ था। लेखक श्रीकृष्ण सरल ने भी अपनी पुस्तक Indian revolutionaries: a comprehensive study, 1757-1961, Volume 1 पुस्तक में उनकी मृत्यु लडाई के दौरान हुई ही बताया है। कोरी जाति के लोगों के साथ-साथ दलित साहित्यकारों का भी मानना है कि झलकारी बाई अंग्रजों के खिलाफ लडते-लडते शहीद हो गई थी। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार राजमल ‘राज’( हमारे दलित गौरव, लेखक राजमल राज प्रकाशक दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली) और दलित दस्तावेज के लेखक एम. आर. विद्रोही (सम्यक प्रकाशन दिल्ली) ने भी उनको युद्ध में ही लडते-लडते शहीद होना बताया है।

जन्म और वीरगति की कहानियों से परे झलकारी बाई के शौर्य,पराक्रम,हिम्मत,सूझबूझ की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार के पोस्ट एवं टेलिग्राफ विभाग ने २२ जुलाई २००१ में वीरांगना झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर( राजस्थान)में निर्माणाधीन है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।
कडवी सच्चाई है जिससे मुँह नही छिपाया जा सकता कि मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा, झलकारी बाई के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया गया है, लेकिन आधुनिक स्थानीय लेखकों ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से उभारा है। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल और प्रसिद्ध दलित साहित्यकार श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। प्रसिद्ध जनकवि बिहारी लाल हरित ने वीरांगना झलकारी बाई पर एक प्रबंध काव्य लिखा है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने भी उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है। भवानी शंकर विषारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है। मुंबई के डायरेक्टर एस.एल बाल्मीकि ने भारत सरकार के लिए डाक्यूमेंट्री तैयार करते हुए झलकारी बाई के प्रति बरती गई ऐतिहासिक उपेक्षा को बेहद पैने और सचेत अंदाज में उठाया है। 25 मिनट की इस डाक्यूमेंट्री में उन्होंने झलकारी बाई की वीरगाथा, रानी के साथ युद्ध में उनकी भूमिका सहित उनके जीवन के अन्य पहलुओं पर भी चर्चा की है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गु्प्त ने भी झलकारी की बहादुरी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है-
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।

वीरागंना झलकारी बाई ने भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होकर समाज को बता दिया कि आजादी, बहादुरी, कर्तव्यपरायणता, सूझबूझ, विवेकशीलता, स्वाभिमान,साहस और हिम्मत पर किसी एक कौम का हक ना होकर बल्कि सभी कौमों का एक समान हक होता है। झलकारी बाई में जैसा देश प्रेम था और जैसी उसने अपनी दोस्ती निभाई, वैसे निभाने वाले इस दुनिया में विरले ही होते है क्योंकि ना तो झांसी और ना ही उसके महल पर उनका अधिकार था ना ही वे झांसी की रानी थी, ना ही कभी झांसी की रानी बन सकती थी इसलिए झांसी की इस वीरांगना का नाम निस्वार्थ भाव से देशप्रेम के लिए बलिदान होने वाले शहीदों के साथ स्वर्ण अक्षरो में लिखा जायेगा। भारतीय इतिहास में उनका नाम सदा रानी झांसी के साथ-साथ लिया जाएगा।


अनिता भारती, जानीमानी लेखिका और इतिहास वक्ता

dipu 01-07-2013 09:03 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
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Jhalkari bai park near Akaswani Tiraha Gwalior

dipu 01-07-2013 09:03 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
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dipu 01-07-2013 09:06 AM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
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dipu 02-07-2013 04:13 PM

Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
 
झाँसी की रानी के साथ झलकारी बाई का नाम लेना भी ज़रूरी है। झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई (२२ नवंबर १८३० - ४ अप्रैल १८५७) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।

झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी, और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी, और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था, और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनो के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।


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