ये रास्ता कोई और है!!
ये रास्ता कोई और है ...
साभार: आलोक पढ़ारकर (इन्टरनेट से) पिछले कुछ दिनों से यह शेर बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है- कभी लौट आएं तो पूछना ज़रा देखना उन्हें गौर से जिन्हें रास्ते में खबर हुई, के ये रास्ता कोई और है एक कहानी भी याद आ रही है, बहुत पहले विख्यात संगीतकार हेमन्त कुमार की एक कहानी पढ़ी थी धर्मयुग में, शायद उनके निधन पर पत्रिका ने श्रद्धांजलि स्वरूप प्रकाशित की थी। कहानी का सार कुछ यूं था कि हेमन्त दा की कामवाली एक बार उनके पास अपने बेटे को लेकर आती है और उनसे अनुरोध करती है कि वे उसका गाना सुनकर उसे फिल्म नगरी में पांव जमाने के कुछ गुर बता दें। दादा उसका गाना सुनते हैं और फिर उसे फटकारते हुए भगा देते हैं। कामवाली हक्काबक्का रह जाती है, उसे भरोसा है कि उसका बेटा बहुत अच्छा नहीं तो भी ठीक-ठाक तो गाता ही है। दादा की फटकार का राज आखिर में खुलता है जब वह एक रोज यह बताते हैं कि वह नहीं चाहते थे कि उसका लड़का फिल्म नगरी के दलदल में आकर अपनी प्रतिभा और भविष्य का कबाड़ा करे। दादा आने वाले समय को देख रहे थे और नहीं चाहते थे कि कोई युवा केवल अपनी प्रतिभा के बल पर फिल्म नगरी में संगीतकार बनने के संघर्ष से गुजरे। उन्होंने देखा था कि तमाम प्रतिभाशाली लोगों के साथ फिल्म नगरी में कैसा बर्ताव हुआ है। |
Re: ये रास्ता कोई और है!!
जो मीडिया से जुड़ी साइटें नियमित तौर पर देखते हैं, वे जानते हैं कि किस प्रकार एक पत्रकार जो बड़ी मेहनत से आज अपना काम निपटाकर रात में घर लौटता है, उसे दूसरे दिन कार्यालय जाने पर पता चलता है कि उसके संस्थान पर ताला लग गया है या उसको निकाल दिया गया है। कहीं संस्थान बन्द हो जाते हैं, कहीं छंटनी हो जाती है, कहीं तीन-तीन महीने का वेतन बकाया कर पत्रकारों को संस्थान छोड़ने को बाध्य किया जाता है! ज्यादातर छोटे और मंझोले समाचार पत्रों के बारे में तो अक्सर ये खबरें आती हैं, बड़े संस्थानों में भी पिछले कुछ वर्षों में जो बाहर हुए हैं वे आज भी नौकरी ढूंढ रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो यह आम बात है!
कुछ मित्र कह सकते हैं कि ये तो बड़ी निराशाजनक और पलायनवादी बातें हैं। आखिर तमाम बड़े संस्थान अखबार निकाल रहे हैं और वहां बड़ी संख्या में पत्रकार काम कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में मुझे एक वरिष्ठ पत्रकार,जो ‘जनसत्ता’ और ‘हिन्दुस्तान’ जैसे बड़े संस्थानों में काम कर चुके हैं, के एक वाक्य को उद्धृत करना चाहूंगा। वे अक्सर कहा करते हैं कि आज वे लोग पत्रकारिता में सर्वेसर्वा बने बैठे हैं, जिन्हें पत्रकारिता की नाक पोंछने तक की तमीज नहीं है! बनारस-लखनऊ से लेकर दिल्ली-मुम्बई तक नजर दौ़ड़ाता हूं, तो उनकी बात बार-बार याद आती है। मित्रों पत्रकारिता की यात्रा में 24 वर्षों तक लगातार चलते हुए आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो एक द्ंवद्ंव और दुविधा में ही पाता हूं, क्या यह रास्ता कोई और है..! |
Re: ये रास्ता कोई और है!!
महंगाई के ज़माने में इस तरह से अचानक नौकरी का चले जाना इंसान को बहुत दुखद परिस्थिति में डाल देता है... धन्यवाद रजनीश जी सेर करने के लिए
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