Re: छींटे और बौछार
कौन सा रस ?
अब तुमने सब रसों के बारे में पढ़ लिया, काव्य के नौ रसों के बाद, एक और रस भी सुना, वात्सल्य रस । अब मैं पूछूँगा, तुम बताओगे । सुनो- “नायक की बाँहों में नायिका, नैन से नैन मिलाती, विभिन्न आकर्षक क्रीड़ाएँ करती, नायक को अपने हाथ से लड्डू खिलाती, स्वच्छंद रूप से, अपने प्रेम का इज़हार कर रही है।” बताओ ! यहाँ पर कौन सा रस झलक रहा है ? धन्य हो गुरु जी ! आप तो वास्तव में रसों की खान हैं, वाह ! मुँह में पानी आ गया, लड्डू के नाम से । धन्य हो “साहित्य रसोमणि” ! निःसन्देह, आपने ग्यारहवां रस भी खोज निकाला, सबका मनपसंद रस, मीठा रस । रचनाकार हरीश चन्द्र लोहुमी |
Re: छींटे और बौछार
अरे ! वो निकल गयी !
महँगे म्यूजिक सिस्टमों की धमक, आज मज़ा नहीं दे पा रही थी, बलखाती कमर खुद को, दर्दीला एहसास करा रही थी । हुस्न तो रोज वाला ही था, पर नज़ाकत गायब थी, मेकअप भी पूरा ही था, पर वो बात नहीं आ पा रही थी । खुद के बच्चों की होशियारी और स्मार्टनेस, आज चुभ सी रही थी, उनके तारीफों वाली पुलिया, दरकती सी लग रही थी । पडोसन का दिया हुआ लड्डू, फ़ीका सा लग रहा था, दिखावे को मेन्टेन करना, साफ़ झलक रहा था । अरे ! वो निकल गयी !, वो अन्दर ही अन्दर झेंप सी गयी थी, गरीब पडोसन की बेटी, आई. आई. टी. क्वालीफ़ाइ जो कर गयी थी । |
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झरोखे से कोई नव दुल्हन झाँकती झर-झर झरती फुहारें तीव्रतर बहतीं शीत बयारें | तीर सी चुभतीं गात में मन हो जाता हर्षित पल में | मन मानस में कल-कल करतीं तरंगें ज्यों सागर में शोर मचातीं लहरें आओ सखी गीत मल्हार गायें कुछ अंतर्मन की बात बताएं गरज-गरज कर मेघ झमाझम जल बरसायें हरित श्यामला अवनि को उन्मत्त बनाएं |शुष्क सरिताओं में नव जीवन आये वन उपवन में नव अंकुर उग आये | नव कलिकाएँ घूंघट खोलतीं मंद-मंद हँसी बिखेरतीं जैसे |झरोखे से कोई नव दुल्हन झाँकती मनहुँ वसुधा का सौन्दर्य आँकती | झर-झर झरती फुहारें तीव्रतर बहतीं शीत बयारें |
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एक अरसा हुआ मुस्कुराये हुए
दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह या तो सब कुछ ही इससे चाहिए या कुछ भी नहीं जुदा जब भी हुए दिल को यूँ लगे जैसे के अब कभी गए तो लौट कर नही मिलना एक अरसा हुआ मुस्कुराये हुए देख तेरे अल्फाज़ किस दिन याद आए भुलाये हुए रोएगा इस कदर वो मेरी लाश से लिपट कर अगर इस बात का पता होता तो कब का मर गया होता वो इस आन में रहते हैं कि हम उन्को उंनसे मांगें हम इस गरूर में रहते हैं कि हम अपनी ही चीज़ें माँगा नहीं करते दिल मेरा तुझको इतनी शिद्दत से चाहता क्यों है हर साँस के साथ तेरा ही नाम आता क्यों है मैं तेरा कुछ भी नहीं हूँ, मगर इतना तो बता देख कर मुझको तेरे जेहन में आता क्या है गुज़रता है मेरी हर साँस से तेरा नाम आज भी, ढलती है तेरे इंतज़ार में मेरी हर शाम आज भी, तुझको मुझसे रूठे एक ज़माना हो गया, पर होती है तेरे नाम से मेरी पहचान आज भी आ देख मुझसे रूठने वाले तेरे बगैर दिन भी गुज़र गया मेरी शब् भी गुज़र गई इक उमर हुई मैं तो हँसी भूल चुका हूँ तुम अब भी मेरे दिल को दुखाना नहीं भूले तू अपनी शीशागरी का न कर हुनर जाया आईना हूँ मैं, टूटने की आदत है मुझे मेरे खताओं की फेहरिस्त ले के आया था अजीब शख्स था अपना हिसाब छोड़ गया भोली सी अदा फिर कोई आज इश्क की जिद पर है फिर आग का दरिया है और डूबकर जाना है |
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तुम आओ ना….
स्नेह के अश्रु भर दो नैनों में, ऐसे तो ठुकराओ ना, इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। तुम आओगी जब लेकर बहारे, यादों के किस्से होंगे प्यारे प्यारे, ह्रदय का हर्ष और स्नेह मिलन की, छा जायेंगे राहों में संग तुम्हारे। कही नैन मेरे थक कर देखो, सपनों की नगर में खो जाये ना। इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। तुमको क्या पता दिवानापन, बेचैन है कितना मेरा मन, हँसना तो बस मजबूरी है, रोना ही तो है सारा जीवन। एकांत का गीत मै गाऊँ कब तक, तुम भी आकर संग गाओ ना। इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। आज फिर वैसी ही रात है, मानों तुमसे मेरी मुलाकात है, तुम दूर खड़ी रोती रहती, कुछ दिल ही दिल की बात है। राहों में अभी तक तन्हा हूँ, तुम मेरा साथ निभाओ ना। इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। छुपा लिया मैने तुमसे, वो बातें जो तुमसे कहनी है, दिल ने पूछा दिल से तेरे, दिल में तेरे मुझे रहनी है। देकर थोड़ा सा प्यार मुझे, अपने कल को भूल जाओ ना। इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। है प्यार नहीं तो ये क्या है, मेरे दर्द के किस्सों का मंजर, हर जख्म होगा अब बेगाना, इक बार जो तुम आओगी अगर। मै राह तुम्हारी देखते ही, अपनी राहें सब भूल गया, मँजिल भी तो अब तुम ही हो, तेरे इंतजार के सिवा अब और क्या? अंतिम साँसों की धुन पर, ये मन बेचारा बुला रहा, अब तो बस दिल की थमती धड़कन, को और ना तुम धड़काओ ना। इस राह देखते दिवाने की जिद है, अब कैसे भी तुम आओ ना। |
Re: छींटे और बौछार
कहाँ थे हम ? क्यूँ थे हम ? क्या थे हम ?
इस सोच की राख को कुरेदने का वक़्त आया है, आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है शीशे में श़क्ल नहीं, रूह को तलाशना है, वादे बहुत हो चुके खुद से, अब निभाने का वक़्त आया है, आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/ ज़िन्दगी यूँ ही जीए जा रहे थे, या मर ही चुके थे हम, ज़िन्दगी जिंदा है, इस एहसास को जीने का वक़्त आया है, आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/ अब तक भीड़ का एक भेड़ ही तो थे हम, आज इंसान बन, कुछ कर गुज़रने का वक़्त आया है, आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/ जीत की क्या बात करें ? अंतरिक्ष को कदमों से रौंदा, समंदर की गहराई को नापा, हिमालय की चोटी को चूमा, इसी धरती पे, रावण को मारा, फिर हारने का आज डर क्यूँ ? इस डर को डराने का वक़्त आया है, आज तो हद से गुज़र जाने का वक़्त आया है, आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/ |
Re: छींटे और बौछार
Quote:
अच्छा सूत्र और अच्छी racna निशांत जी |
Re: छींटे और बौछार
हमे एक घर बनाना था ये हम क्या बना बैठे?
कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे.. होती नहीं फिरकापरस्ती परिंदों में क्यूँ?… कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे… |
Re: छींटे और बौछार
राम नाम सत्य है
विचित्र शब्द वाण से, शूल से कृपाण से, हैं तुच्छ तुच्छ बुत बने,मनुज खड़े मसाण से । ये कौन सा विचार है, प्रहार पर प्रहार है, ये ज्ञान दीप के तले, अजीब अन्धकार है । ये कौन सा मुहूर्त है, नाच रहा धूर्त है, वो विद्वता विलुप्त सी, रहा मटक सा मूर्ख है । गुमान पर गुमान है, ये कौन सा प्रयाण है, है कंठ में फँसा हुआ, सदाचरण का प्राण है । ये क्या हुआ है हादसा, सना सा मन्च रक्त से, ये कौन आज भिड़ पड़ा , शारदा के भक्त से । मान मिल गुमान से, कर रहा कुकृत्य है, वो शर्म औ लिहाज का, राम नाम सत्य है । हरीश चन्द्र लोहुमी |
Re: छींटे और बौछार
जय बाबू , यात्रा जारी है न ?
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