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ABHAY 09-12-2010 02:44 PM

सप्तम सोपान श्लोक(श्रीरामचरितमानस)
 
श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीरामचरितमानस


सप्तम सोपान
उत्तरकाण्ड
श्लोक


केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्ढयं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।

मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमलनेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किये हुए वानरसमूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित स्तुति किये जाने योग्य, श्रीजानकीजी के पति रघुकुल श्रेष्ठ पुष्पक-विमान पर सवार श्रीरामचन्द्रजी को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ।।1।।

ABHAY 09-12-2010 07:53 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
कोसलेन्द्रपदकंजमजंलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगनौ।।2।।


कोसलपुरी के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर और कोमल दोनों चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं, श्रीजानकीजी के करकमलों से दुलराये हुए हैं और चिन्तन करने वाले मनरूपी भौंरे के नित्य संगी हैं अर्थात् चिन्तन करने वालों का मनरूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता है।।2।।

कुन्दइन्दुरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकंजलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।


कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शंख के समान सुन्दर गौरवर्ण, जगज्जननी श्रीपार्वतीजी के पति, वांछित फलके देनेवाले, [दुखियोंपर सदा] दया करनेवाले, सुन्दर कमलके समान नेत्रवाले, कामदेव से छुड़ानेवाले, [कल्याणकारी] श्रीशंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।3।।

दो.-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।


[श्रीरामजीके लौटने की] अवधिका एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगरके लोग बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं [कि क्या बात है, श्रीरामजी क्यों नहीं आये]।

सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।


इतने में ही सब सुन्दर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गये। नगर भी चारो ओर से रमणीक हो गया। मानो ये सब-के-सब चिह्न प्रभु के [शुभ] आगमन को जना रहे हैं।

ABHAY 09-12-2010 07:55 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोई।।


कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनन्द हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आ गये।।

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।


भरतजी की दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मनमें अत्यन्त हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे-

चौ.-रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।


प्राणों की आधाररूप अवधि का एक दिन शेष रह गया! यह सोचते ही भरत जी के मनमें अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये ? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया ?।।1।।

ABHAY 09-12-2010 07:57 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।


अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं; जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया!।।2।।

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।3।।


[बात भी ठीक ही है, क्योंकि] यदि प्रभु मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़ (असंख्य) कल्पोंतक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता। [परन्तु आशा इतनी ही है कि] प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और अत्यन्त ही कोमल स्वभाव के हैं।।3।।

मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।4।।


अतएव मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि श्रीरामजी अवश्य मिलेंगे [क्योंकि] मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं। किन्तु अवधि बीत जानेपर यदि मेरे प्राण रह गये तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा ?।।4।।

ABHAY 09-12-2010 08:00 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
दो.-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।।1क।।


श्रीरामजी के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था, उसी समय पवन पुत्र हनुमान् जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।

बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात।।1ख।।


हनुमान् जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का मुकुट बनाये, राम ! राम ! रघुपति ! जपते और कमल के समान नेत्रों से [प्रेमाश्रुओंका] जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा।।1(ख)।।

ABHAY 09-12-2010 08:01 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
चौ.-देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।1।।


उन्हें देखते ही हनुमान् जी अत्यन्त हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बरसने लगा। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिये अमृतके समान वाणी बोले-।।1।।

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।
रघुकुल तिलक सुजन सुखादात। आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।2।।


जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण-समूहोंकी पंक्तियोंको आप निरन्तर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्रीरामजी सकुशल आ गये।।2।।

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।3।।


शत्रु को रण में जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुन्दर यश गान कर रहे हैं। ये वचन सुनते ही [भरतजीको] सारे दुःख भूल गये। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यासके दुःख को भूल जाय।।3।।

को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।
मारुत सुत मैं कपि हनूमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।4।


[भरतजीने पूछा-] हे तात ! तुम कौन हो ? और कहाँ से आये हो ? [जो] तुमने मुझको [ये] परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देने वाले वचन सुनाये [हनुमान् जी ने कहा-] हे कृपानिधान ! सुनिये; मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ; मेरा नाम हनुमान् है।।4।।

ABHAY 09-12-2010 08:05 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।
मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता। नयन स्रवत जल पुलकित गाता।।5।।


मैं दीनों के बन्धु श्रीरघुनाथजी का दास हूँ। यह सुनते ही भरत जी उठकर आदरपूर्वक हनुमान् जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से [आनन्द और प्रेमके आँसुओंका] जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया।।5।।

कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।6।।

[भरतजीने कहा-] हे हनुमान् ! तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गये (दुःखों का अन्त हो गया)। [तुम्हारे रूपमें] आज मुझे प्यारे राम जी मिल गये। भरतजी ने बार बार कुशल पूछी [और कहा-] हे भाई ! सुनो; [इस शुभ संवाद के बदले में] तुम्हें क्या दूँ ?।।6।।

एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।7।।


इस सन्देश के समान (इसके बदल में देने लायक पदार्थ) जगत् में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। [इसलिये] हे तात ! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ।।7।।

तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।8।।


तब हनुमान् जी ने भरत जी के चरणों में मस्तक नवाकर श्रीरघुनाथजी की सारी गुणगाथा कही। [भरतजीने पूछा-] हे हनुमान् ! कहो, कृपालु स्वामी श्रीरामचन्द्रजी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं ?।।8।।

छं.-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।


रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों ?

ABHAY 09-12-2010 08:07 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
दो.-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदय समात।।2क।।


[हनुमान् जी ने कहा-] हे नाथ ! आप श्रीरामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात ! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरत जी बार-बार मिलते हैं, हृदय हर्ष समाता नहीं है।।2(क)।।

सो.- भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2ख।।


फिर भरत जी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान् जी तुरंत ही श्रीरामजी के पास [लौट] गये और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढ़कर चले।।2(ख)।।

ABHAY 09-12-2010 08:10 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
चौ.-हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।1।।


इधर भरतजी हर्षित होकर अयोध्यापुरी आये और उन्होंने गुरु जी को सब समाचार सुनाया ! फिर राजमहल में खबर जनायी कि श्रीरघुनाथजी कुशलपूर्वक नगरको आ रहे हैं।।1।।

सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं।।
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।2।।


खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरत जीने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगरवासियों ने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े।।2।।

दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलि सिंधुरगामिनि।।3।।


[श्रीरघुनाथजी के स्वागत के लिये] दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने के थालोंमें भर-भरकर हथिनीकी-सी चालवली सौभाग्यवती स्त्रियाँ] उन्हें लेकर] गाती हुई चलीं।।3।।

जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।4।।


जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशामें हैं)। वे वैसे ही (वहीं उसी दशामें) उठ दौड़ते हैं। [देर हो जाने के डर से] सबालकों और बूढ़ों को कोई साथ नहीं लाते। एक दूसरे से पूछते हैं-भाई ! तुमने दयालु श्रीरघुनाथजीको देखा है?।।4।।

अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल शोभा कै खानी।।
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।5।।


प्रभुको आते जानकर अवधपुरी सम्पूर्ण शोभाओंकी खान हो गयी। तीनों प्रकारकी सुन्दर वायु बहने लगी। सरयूजी अति जलवाली हो गयीं (अर्थात् सरयूजीका जल अत्यन्त निर्मल हो गया)।।5।।

ABHAY 09-12-2010 08:12 PM

Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
 
दो.-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत।।3क।।


गुरु वसिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूहके साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यन्त प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम श्रीरामजीके सामने (अर्थात् अगवानीके लिये) चले।।3(क)।।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान।।3ख।।


बहुत-सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ी आकाशमें विमान देख रही है और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वर से सुन्दर मंगलगीत गा रही हैं।।3(ख)।।

राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखु हरषान।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान।।3ग।।


श्रीरघुनाथजी पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं, तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचन्द्रको देखकर हर्षित हो रहा है और शोक करता हुआ बढ़ रहा है [इधर-उधर दौड़ती हुई] स्त्रियाँ उसी तरंगोंके समान लगती है।।3(ग)।।


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