बॉलीवुड के 101 वर्ष> महत्वपूर्ण पड़ाव
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साल 1913 महीना अप्रैल और स्थान मुम्बई का ओलंपिया थियेटर 100 वर्ष पहलेदादा साहब फाल्के ने जब अपनी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का प्रदर्शन किया तबशायद ही किसी को यकीन हो रहा था कि ब्लैक एंड व्हाइट पर्दे पर अभिव्यक्तिके इस मूक प्रदर्शन के साथ भारत में स्वदेशी चलचित्र निर्माण की शुरुआत होचुकी है। http://www.marathimovieworld.com/ima...heb-phalke.jpg^https://encrypted-tbn1.gstatic.com/i...sU7G4UxFNjUYlA दादा साहब फाल्के की 'राजा हरिश्चंद्र' मूक फिल्म थी।फिल्म निर्माण में कोलकाता स्थित मदन टॉकिज के बैनर तले ए ईरानी नेमहत्वपूर्ण पहल करते हुए पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनायी। इस फिल्म कीशूटिंग रेलवे लाइन के पास की गई थी इसलिए इसके अधिकांश दश्य रात के हैं।रात के समय जब ट्रेनों का चलना बंद हो जाता था तब इस फिल्म की शूटिंग कीजाती थी।Dada Saheb Phalke's Raja Harishchandra |
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जाने माने फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने कहा किभारतीय सिनेमा की शुरूआत बातचीत के माध्यम से नहीं बल्कि गानों के माध्यमसे हुई। यही कारण है कि आज भी बिना गानों के फिल्में अधूरी मानी जाती हैं। वाडियामूवी टोन की 80 हजार रूपये की लागत से निर्मित साल 1935 की फिल्म 'हंटरवाली' ने उस जमाने में लोगों के सामने गहरी छाप छोड़ी और अभिनेत्रीनाडिया की पोशाक और पहनावे को महिलाओं ने फैशन ट्रेंड के रूप में अपनाया। गुजरेजमाने के अभिनेता मनोज कुमार ने कहा कि 40 और 50 का दशक हिन्दी सिनेमा केलिहाज से शानदार रहा। 1949 में राजकपूर की फिल्म 'बरसात' ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई। इस फिल्म को उस जमाने में'ए' सर्टिफिकेट दिया गया था क्योंकिअभिनेत्री नरगिस और निम्मी ने दुपट्टा नहीं ओढ़ा था। |
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बिमल राय ने 'दो बीघा जमीन' के माध्यम से देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रणकिया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग जमीन चले जाने पर किसानोंका सत्यानाश हो जाता है, आज भी भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों कीपीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता हैं। यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसेकॉन फिल्म समारोह में पुरस्कार प्राप्त हुआ। व्ही. वीशांताराम की 1957 में बनी फिल्म 'दो आंखे बारह हाथ' में पुणे के खुला जेलप्रयोग को दर्शाया गया। लता मंगेशकर ने इस फिल्म के गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदेहम' को आध्यात्मिक उंचाइयों तक पहुंचाया। फणीश्वरनाथ रेणु कीबहुचर्चित कहानी मारे गए गुलफाम पर आधारित फिल्म 'तीसरी कसम' हिन्दी सिनेमामें कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फिल्मों में 'बदनामबस्ती', 'आषाढ़ का एक दिन', 'सूरज का सातवां घोड़ा', 'एक था चंदर एक थी सुधा', 'सत्ताईस डाउन', 'रजनीगंधा', 'सारा आकाश', 'नदिया के पार' आदि प्रमुख है। |
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'धरतीके लाल' और 'नीचा नगर' के माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिलाऔर अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं के बारेमें लोगों की आंखें खुली। 'देवदास', 'बन्दिनी', 'सुजाता' और 'परख' जैसीफिल्में उस समय बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद ये फिल्मों केभारतीय इतिहास के नये युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं। महबूबखान की साल 1957 में बनी फिल्म 'मदर इंडिया' हिन्दी फिल्म निर्माण केक्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। सत्यजीत रे की फिल्म 'पाथेरपांचाली' और 'शम्भू मित्रा' की फिल्म जागते रहो फिल्म निर्माण और कथानक काशानदार उदाहरण थी। इस सीरीज को स्टर्लिंग इंवेस्टमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड केबैनर तले निर्माता निर्देशक के आसिफ ने मुगले आजम के माध्यम से नईऊंचाईयों तक पहुंचाया। त्रिलोक जेतली ने गोदान के निर्माता निर्देशक के रूपमें जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किये बिना प्रेमचंद की आत्मा कोसामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कतियों पर फिल्मबनाने का सिलसिला शुरू हुआ। प्रयोगवाद की बात करें तो गुरूदत्तकी फिल्में 'प्यासा', 'कागज के फूल' तथा 'साहब बीबी' और 'गुलाम' को कौन भूलसकता है। मुजफ्फर अली की 'गमन' और विनोद पांडेकी ‘एक बार फिर’ ने इससिलसिले को आगे बढ़ाया। |
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रमेश सिप्पी की 1975 में बनी फिल्म 'शोले' ने हिन्दी फिल्म निर्माण को नई दिशा दी। यह अभिनेता अमिताभ बच्चन केएंग्री यंग मैन के रूप में उभरने का दौर था।। हालांकि 80 के दशक में बेसिरपैर की ढेरों फिल्में भी बनीं, जिनमें न कहानी थी न विषय। वैसे यह दौर कलरटेलीविजन का था जब हर घर धीरे धीरे थियेटर का रूप ले रहा था। ^ https://encrypted-tbn1.gstatic.com/i...giE9tIa8T5HSnw^https://encrypted-tbn0.gstatic.com/i...fbzReLwnfz4MXg^https://encrypted-tbn2.gstatic.com/i...RtD4SbTXSSFc3w 60 और 70 का दशक हिंदी फिल्मों के सुरीले दशक के रूप में स्थापित हुआ तो 80 और 90 के दशक में हिन्दी सिनेमा बॉलीवुड बनकर उभरा। हालांकि 90 के दशक मेंफिल्मी गीत डिस्को की शक्ल ले चुके थे। इसी दशक में आमिर, शाहरूख और सलमानका प्रवेश हुआ। मनोज कुमार ने कहा कि आज हिन्दी फिल्मों में सशक्त कथानक काअभाव पाया जा रहा है और फिल्में एक खास वर्ग और अप्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर बनायी जा रही है, जिसके कारण लोग सिनेमाघरों से दूर हो रहेहैं क्योंकि इन फिल्मों से वे अपने आप को नहीं जोड़ पा रहे हैं। |
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पुराने जमाने में 'तीसरी कसम' से लेकर 'भुवन शोम' और 'अंकुर', अनुभव और आविष्कार तक फिल्मों का समानान्तर आंदोलन चला। इन फिल्मों के माध्यम से दर्शकों ने यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर आधारित कथावस्तु को देखा परखा और उनकी सशक्त अभिव्यक्तियों से प्रभावित भी हुए। नए दौर में विजय दान देथा की कहानी पर आधारित फिल्म ‘पहेली’ श्याम बेनेगल की 'वेलकम टू सज्जनपुर' और 'वेलडन अब्बा', आशुतोष गोवारिकर की 'लगान', 'स्वदेश', आमिर खान अभिनीत 'थ्री इडियटस', अमिताभ बच्चन अभिनीत 'पा' और 'ब्लैक', शाहरूख खान अभिनीत 'माई नेम इज खान' जैसे कुछ नाम ही सामने आते हैं जो कथानक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से सशक्त माने जाते है। मनोज कुमार ने एक मुलाक़ात में कहा कि फिल्मों के नाम पर वनस्पति छाप मुस्कान, प्लास्टिक के चेहरों की भोंडी नुमाइश हो रही है, जिसके कारण सिनेमाघरों (खासतौर पर छोटे शहरों में) दर्शकों की भीड़ काफी कम हो गई है। आज फिल्में मल्टीप्लेक्सों तक सिमट कर रह गई हैं। इस सबके बीच एक वाक्य में कहें तो 'राजा हरिश्चंद्र' की मूक अभिव्यक्ति से हिन्दी सिनेमा उच्च प्रौद्योगिकी क्षमता के स्तर तक पहुंच चुका है। ** |
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very nice ...........
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बढ़िया जानकारी
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Raja Harishchandra in 1913 by Dadasaheb Phalke, He is known as the first silent feature film made in India. By the 1930s, the industry was producing over 200 films per annum. The first Indian sound film, Ardeshir Irani's Alam Ara in 1931 was a major commercial success.
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