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rajnish manga 31-03-2014 08:20 PM

Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
 
मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर / देहरादून

तो मैं आपको बता रहा था कि शाम के समय हम लोग नहा धोकर अक्सर पलटन बाजार घूमने निकल जाते थे.
सैर की सैर हो जाती थी और कुछ मस्ती, कुछ चाय-नाश्ता या छोटी-मोटी खरीदारी भी हो जाती थी. खरीदारी में आवश्यकता पड़ने पर कुछ किताबें-कापियां, कपड़े-लत्ते, पत्रिकायें आदि होते थे.

घंटा घर से पलटन बाजार में प्रवेश करने के बाद करीब दो फर्लांग नीचे बाजार के बीचोबीच कुछ फासले पर दो हलवाई थे जिनका मुख्य आकर्षण थे बाहर सजा कर रखे हुये बड़े बड़े कड़ाहे जिनमें गरम गरम गुलाब जामुन देखते ही लोगों को उन्हें खाने की तलब हो जाती थी. इनके अलावा घंटाघर से चलने के थोड़ी दूरी पर दो रेस्टोरेंट थे. जहां तक मुझे याद है इनमें से एक का नाम था जनता रेस्टोरेंट और दूसरे का लक्ष्मी रेस्टोरेंट.

रेस्टोरेंट में मिलने वाली खान-पान की सामान्य वस्तुओं के अतिरिक्त यहाँ ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये एक ऐसे चीज भी उपलब्ध थी जिसका खाने-पीने से कोई सम्बन्ध नहीं था. हाँ, संगीत से गहरा सम्बन्ध जरूर था. यहाँ पर रिकॉर्ड प्लेयर और लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों के रिकॉर्ड रखे जाते थे. साथ में होती थी रेकॉर्डों की सूची या कैटेलॉग (booklet रूप में) ग्राहकों द्वारा एक कैटेलॉग में से छांटे गये और पर्चियों पर लिखे गये गानों के आधार पर रेकॉर्डों को बजाया जाता था. जिसकी पर्ची पहले भेजी जाती उसकी पसंद का गाना या गाने पहले बजाए जाते. इस सेवा के लिये ग्राहकों को पैसे देने पड़ते थे. एक गीत सुनने के दस पैसे अदा करने पड़ते थे. आम तौर पर ग्राहक, जिनमे विद्यार्थी अधिक होते थे, एक या दो गीतों की ही फ़रमाइश भेजते थे.



rajnish manga 16-08-2016 11:33 PM

Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
 
बहुत दिनों से यह श्रंखला टूटी हुयी है. मेरी इच्छा है कि इसमें अपने जीवन से जुड़े कुछ नए प्रसंग और जोड़ना चाहता हूँ. जल्द ही इस दिशा में काम करूँगा.


soni pushpa 24-08-2016 12:11 AM

Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
 
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 559032)
बहुत दिनों से यह श्रंखला टूटी हुयी है. मेरी इच्छा है कि इसमें अपने जीवन से जुड़े कुछ नए प्रसंग और जोड़ना चाहता हूँ. जल्द ही इस दिशा में काम करूँगा.


भाई हमें इंतजार रहेगा आपने इतनी बारीकी से हरेक बात घटना शहर के नाम का उल्लेख किया है की पढ़ते समय लगता है हम भी वहीँ मौजूद हों मानो ..धन्यवाद ...... भाई

rajnish manga 29-08-2016 08:35 AM

Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
 
29 अगस्त 2016
श्रीनगर में अखबार

आज सुबह अखबार में पढ़ा कि श्रीनगर (जम्मू व कश्मीर) में लोगों को अखबार पढ़ने को नहीं मिल रहा है. कारण यह है कि वहाँ पिछले लगभग 50 दिनों से दंगों की वजह से अशांति है, कर्फ्यू लगा हुआ है जिसकी वजह से न तो अखबारें आ रही हैं और न ही वितरित होती हैं. श्रीनगर में लोकल अखबार भी हैं और जालंधर, अमृतसर व जम्मू से भी अखबारें आती हैं. लेकिन अधिकाँश लोगों को दिल्ली से आने वाली अखबारों का इंतज़ार रहता है. वे राजधानी से मिलने वाली ख़बरों से राजनीति की दिशा तथा विभिन्न क्षत्रों में होने वाली गतिविधियों का जायज़ा लेना चाहते हैं और उनका आकलन करना चाहते हैं.

मैं जून सन 1980 से जून 1982 तक श्रीनगर में ही रहा. वहाँ मेरी पोस्टिंग थी. वहाँ दिल्ली और जम्मू से अखबारें हवाई जहाज से आती थी. जब शाम को हम ऑफिस से छुट्टी कर के बाहर निकलते थे तो रास्ते से अखबार खरीद कर ले जाते थे. दिल्ली से आने वाली फ्लाइट 2 बजे के करीब आती थी. उसी में अखबार भी आ जाते थे. मेरा ऑफिस पोलो व्यू में था और वहाँ से पैदल ही या स्कूटर पर शाम को लाल चौक होते हुये घर चला जाता था. उन दिनों मैं Indian Express पढ़ा करता था. शाम को घर पहुँच कर चाय पीते हुये अखबार पढ़ने आ भी अपना ही मजा था.

मैं आशा करता हूँ कि कश्मीर घाटी में जल्द से जल्द सामान्य स्थिति बहाल हो और जीवन फिर से अपनी पुरानी लय पर चलना शरू हो जाये.



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