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soni pushpa 20-09-2016 03:25 PM

Re: इधर-उधर से
 
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 559508)
हमारे समाचार चैनेल कितने ज़िम्मेदार हैं?

हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनेल कितने संवेदनशील व ज़िम्मेदार है, यह मैंने उस समय महसूस किया जब आई बी एन 7 चैनेल पर उरी (जे एंड के) में सेना मुख्यालय पर हुये आतंकी हमले के विषय में एक debate चल रही थी और सम्मानित आमंत्रित अतिथियों द्वारा गंभीर विचार विनिमय हो रहा था.
लगभग 12.40 बजे दोपहर का समय था और एक विशेषज्ञ समस्या से निबटने के लिये अपनी राय और सुझाव रख रहे थे कि इतने में ही महिला एंकर ने उन्हें बीच में रोक दिया और घोषणा करने लगी कि 'अभी अभी एक बड़ी खबर आ रही है. इस वक़्त की बड़ी खबर यह है कि दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के ऊपर स्याही फेंकी गई....

इसके बाद (विज्ञापनों के समय को जोड़ कर) अगले 40 मिनट तक इस चैनेल पर सिसोदिया का स्याही काण्ड चलता रहा यानी 1.40 बजे तक. भारत की सुरक्षा से जुड़ी उस गंभीर बहस का अब कोई नामो निशान तक नहीं था. दरअस्ल, उस डिबेट को बीच में ही अधूरा खत्म कर दिया गया और कोई सूचना तक नहीं दी गई या माफ़ी तक नहीं मांगी गई. क्या हमारा मीडिया इतना विवेकहीन हो गया है कि उसे किसी बात की प्राथमिकता का भी ध्यान नहीं रहता? यह बहुत दुखद है.

भाई हमारे देश की यही विडंबना है की जब भी कोई दुखद घटना हुआ करती है तब बाते लोग बड़ी बड़ी करते हैं पर खुद का फायदा सबसे आगे रखते हैं चैनल वाले भी इसलिए ही एइसे न्यूज़ जल्दी से जल्दी प्रदर्शित करने की ताक में रहते हैं की उनका चैनल नंबर . वन चैनल कहलाये और उन्हें ज्यदा से ज्यदा कमाने को मिले . देश तब ही मजबूत होगा जब खुद का स्वार्थ छोड़कर हम सब एक होकर सरकार का साथ देंगे .बर्बादी का दुःख तो कोई शहीदों के परिवार से पूछे की उनपर क्या बीत रही होगी अभी .

सच बेहद दुःख हुआ है जब यह खबर सुनी की हमारे १७ सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए . शत शत वंदन सह नतमस्तक हैं हम हमारे शहीदों के लिए हम .

desaikiran 06-10-2016 04:39 PM

Re: इधर-उधर से
 
Thanks for sharing

rajnish manga 31-12-2016 06:57 PM

Re: इधर-उधर से
 
एक और बनवास
रजनीश मंगा

आपको शायद याद नहीं होगा कि नेता जी यानि मुलायम सिंह यादव ने प्राचीन काल में अपने छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव को दो वचन दिए थे. यह वचन तब दिये गए जब युद्ध के दौरान उनके रथ की अर्गला टूट कर निकल गई थी और शिवपाल सिंह ने अपनी जान की परवाह न करते हुये अपनी ऊँगली रथ के पहिये में फंसा दी थी. नेता जी की जान बच गई थी और युद्ध में विजय भी प्राप्त हुई. उन्होंने प्रसन्न हो कर अपने छोटे भाई को दो वर प्रदान किये और कहा कि वह जो चाहे मांग सकता है. उस समय शिवपाल सिंह से कहा कि वह सही समय आने पर वर मांग लेंगे. तब नेता जी ने तथास्तु कह कर शिवपाल को आशीर्वाद दिया.

सही समय आया देख कर शिवपाल सिंह ने नेता जी से मीटिंग कर के उनके वचनों की याद दिलाई. छोटे भाई की पीठ थपथपा कर उन्होंने कहा कि वह निर्भय हो कर जो चाहे मांग ले. शिवपाल सिंह ने कहा कि मेरी दो माँगें इस प्रकार हैं:
1. मेरे लिये मुख्य मंत्री पद (भले एक माह के लिये हो).
2. मुख्यमंत्री अखिलेश को छः वर्ष का बनवास.
>>>

rajnish manga 31-12-2016 07:01 PM

Re: इधर-उधर से
 
यह सुनते ही नेता जी के होश उड़ गए लेकिन वचन तो वचन है. खानदान की इज्ज़त का सवाल था. सो बगैर किसी और से मशविरा किये उन्होंने ‘हाँ’ कह कर इन मांगों को मान लिया. भारत की प्राचीन परम्परा की रक्षा हो गई. लेकिन कलयुग के प्रभाव से पुत्र अखिलेश ने पिता मुलायम सिंह के आदेश को मानने से इनकार कर दिया और बनवास के आदेश को वीटो कर दिया. अभी पिता पुत्र दोनों अपने अपने पत्ते सावधानीपूर्वक फेंट रहे हैं. मौसम विभाग के अनुसार उत्तर प्रदेश में तूफ़ान के आसार हैं. वशिष्ठ मुनि (राज्यपाल) स्थिति पर नज़र बनाये हुये हैं.
**

rajnish manga 01-03-2017 09:01 PM

Re: इधर-उधर से
 
उर्दू का एक मशहूर शे'र इस प्रकार है:

शायद मुझे निकाल के पछता रहे हो आप
महफिल में इस खयाल से फ़िर आ गया हूँ मैं
--अब्दुल हमीद अदम

थोड़े परिवर्तन के साथ इस शे’र को यूँ पढिये:
शायद मुझे निकाल के कुछ खा रहे हो आप
महफिल में इस खयाल से फ़िर आ गया हूँ मैं



rajnish manga 01-10-2017 07:30 AM

Re: इधर-उधर से
 
टॉम ऑल्टर (22 June 1950 - 29 Sept 2017)

शुक्रवार रात (29 सितंबर 2017) मुंबई में हमारे प्रिय अभिनेता टॉम ऑल्टर का निधन हो गया. वे 67 वर्ष के थे और स्किन कैंसर से पीड़ित थे. हमने उन्हें अनगिनत फिल्मों में अभिनेता के तौर पर देखा है. अपने हर किरदार में उन्होंने हमें प्रभावित किया. उनकी प्रमुख फिल्मों में गाँधी, शतरंज के खिलाड़ी, सरदार, क्रान्ति, राम तेरी गंगा मैली आदि प्रमुख हैं. चाहे अंग्रेज के किरदार में चाहे देसी किरदार में वे हर भूमिका को जीवंत कर देते थे.

शायद आप को नहीं पता होगा की वे रंगमंच के भी मंजे हुए कलाकार थे तथा सारी उम्र उससे जुड़े रहे. यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उन्हें फिल्मों के साथ साथ रंगमंच पर भी काम करते हुए देखा है. मुझे याद है की मैंने कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर ऑफ़ आर्ट एंड कल्चर में उनका नाटक 'ग़ालिब' देखा था जिसमे उन्होंने महान उर्दू शायर ग़ालिब का किरदार निभाया था और ग़ालिब की शायरी, जीवन व् व्यक्तित्व से जुड़े कई पहलुओं को बखूबी उभारा. नाटक में ग़ालिब का समय और संघर्ष पूरो शिद्दत के साथ उजागर किया गया था.

टॉम आल्टर का जन्म मसूरी में हुआ था. वे अमरीकी पृष्ठभूमि में पले बढे होने पर भी भारतीय संस्कृति से जुड़े रहे. अंग्रेजी के अलावा हिंदी और उर्दू भाषा पर भी उन्हें पूरा अधिकार था. उर्दू शायरी से उन्हें ख़ास तौर पर बहुत लगाव था.

टॉम ऑल्टर को उनके काम तथा शख्सियत की वजह से हमेशा याद किया जायेगा. उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि.


rajnish manga 01-10-2017 07:37 AM

Re: इधर-उधर से
 
1 Attachment(s)

rajnish manga 17-10-2017 09:06 AM

Re: इधर-उधर से
 
टॉम ऑल्टर
(22 June 1950 - 29 Sept 2017)

1950 में मसूरी में जन्मे ऑल्टर भारत में तीसरी पीढ़ी के अमेरिकी थे। उन्होंने वूडस्टॉक स्कूल में शुरुआती पढ़ाई की जिसके बाद थोड़े दिनों के लिए येल यूनिवर्सिटी गए और 70 के शुरुआती दशक में भारत लौट आए। 1972 में वह उन तीन लोगों में शामिल थे, जिनको पुणे स्थित देश के प्रतिष्ठित फिल्म ऐंड टेलिविजिन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया में दाखिले के लिए उत्तरी भारत के 800 आवेदकों में से चुना गया था। उन्होंने अभिनय में गोल्ड मेडल डिप्लोमा के साथ कोर्स पूरा किया था। उनके अलावा बेंजामिन गिलानी और फुंसोक लद्दाखी को इस कोर्स के लिए चुना गया था। उनके परिवार में उनकी पत्नी कैरल, बेटा जेमी और बेटी अफशां हैं।

rajnish manga 23-10-2017 05:01 PM

Re: इधर-उधर से
 
1 Attachment(s)
आबिद सुरती की पुस्तक 'काली किताब' से एक अंश

आपने ‘लाल किताब’ के बारे में तो सुना ही होगा. क्या आप जानते हैं कि ऐसी ही एक ‘काली किताब’ भी है? जी हाँ, और इसके लेखक हैं कार्टूनिस्ट और कथाकार आबिद सुरती. यह किताब बाइबिल की तर्ज पर लिखी गयी एक व्यंग्य रचना है जिसमें शैतान और उसके पुत्र के ज़रिये आज के समाज का दोहरा चरित्र उघाड़ा गया है. मैंने यह पुस्तक करीब 35 वर्ष पहले पढ़ी थी और यह मेरे संग्रह में शामिल है. इसी किताब से एक मजेदार अंश प्रस्तुत है:

16. यम जमाल ने सबको संबोधित कर कहा 17. कि जो घोड़े अपंग हो जाते हैं, 18. उन घोड़ों को दाग़ दिया जाता है; 19. क्योंकि वे घोड़े किसी काम के नहीं होते. 20. इसी तरह जो स्त्री-पुरूष वृद्ध हो जाते हैं वे किसी काम के नहीं रहते; 21. बल्कि वे युवकों की प्रगति रोकते हैं. 22. इतना ही नहीं वे समाज की प्रगति में भी बाधा बन जाते हैं.
23. इसीलिए-
24. ऐसे वृद्ध कि जो बोझ समान हैं,
25. उन्हें जीवित ही दफना दो...


rajnish manga 27-10-2017 02:47 PM

Re: इधर-उधर से
 
मैं एक बिल्ली हूँ

नमस्ते दोस्तों. मेरा जन्म इस घर के बरामदे मैं हुआ था. जब मैं केवल पन्द्रह दिन की थी तो मेरी माँ मुझे छोड़ कर चली गयी. तब से इस घर के रहने वाले ही मेरा ध्यान रखते आये हैं. समय पर खाना और पूरी सुरक्षा के साथ मेरी परवरिश हो रही है. घर के सभी सदस्य मुझसे बड़ा प्यार करते हैं और मेरी जरूरतों का ख्याल रखते हैं. सब लोग मुझसे मेरी तथा अपनी मिली-जुली भाषा में बात करते हैं.

इस घर में मुझे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है. यह मेरा सौभाग्य ही तो है कि मुझे इतने अच्छे लोगों के बीच रहने का अवसर मिला. मुझे पता है कि आप मेरे बारे में और बहुत कुछ जानने को उत्सुक होंगे. मेरा क्या नाम है? तो मित्रो, मेरा कोई बड़ा परिचय नहीं. मैं तो एक छोटी सी बिल्ली हूँ. मेरा कोई नाम नहीं है. हर कोई अपनी पसंद के नाम से मुझे बुलाता है. कोई मुझे किट्टी कहता है, कोई माउं बिल्ली और कोई बबली. मैं अब पांच महीने की हो गई हूँ और भागती दौड़ती हूँ तथा बॉल से भी खेलती हूँ. घर के सब लोग भी मुझसे खेलना चाहते हैं.

rajnish manga 04-11-2017 11:23 AM

Re: इधर-उधर से
 
रूसी अंतरिक्ष यान सोयूज़ 2

आज के दिन का अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक विशेष स्थान है. साठ वर्ष पूर्व आज ही के दिन यानी 3 नवम्बर सन 1957 को रूस (उस समय सोवियत रूस) ने अपना दूसरा अंतरक्ष यान सोयूज़ 2 अंतरिक्ष में भेजा था. इसकी खासियत यह थी कि इसमें पहली बार किसी प्राणी को मानव निर्मित उपग्रह में बैठा कर अन्तरिक्ष में भेजा गया था. यह प्राणी दरअसल एक कुतिया थी जिसका नाम लाईका था. यद्यपि पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगाते लगाते ही उसकी मौत हो गई थी फिर भी उसका नाम उस इतिहास से जुड़ गया है जो अंतरिक्ष की खोज में मील का पत्थर साबित हुआ.

हम लोग उन दिनों उत्तर प्रदेश (आजकल उत्तराखंड) के हल्द्वानी शहर में रहते थे. मेरे पिता वहां कत्था मिल में इंजीनियर थे. सभी लोगों में इस रूसी अंतरिक्ष यान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी और उत्सुकता थी की रात को उस यान को आकाश में देखा जाए. हालांकि उस छोटे से अन्तरिक्ष में तारों के झुरमुट में देख पाना और पहचान पाना आसन नहीं था फिर भी मुझे अच्छी तरह याद है कॉलोनी के सभी लोग रात को अपने अपने घरों से निकल कर बाहर आ जाते थे और आकाश में टकटकी लगा कर ऐसे देखते थे जैसे हवाई जहाज की तरह से उन्हें वह अंतरिक्ष यान दिखाई दे जाएगा.

सब लोगों के साथ मैं भी तारों भरे आकाश को देख रहा था. उन दिनों प्रदूषण की समस्या नहीं थी इसलिए आसमान साफ़ नज़र आता था. इतने में लोगों ने देखा कि सैंकड़ों तारों के बीच एक तारा एक दिशा से चलता हुआ दूसरी दिशा में बढ़ता जा रहा था. यह दृश्य लगभग 3-4 मिनट तक सब लोग देखते रहे. उसके बाद वह क्षितिज की ओर जा कर नज़रों से ओझल हो गया. अब वह वास्तव में क्या था, कह नहीं सकते. लेकिन वहां उपस्थित सभी को विश्वास था कि जो कुछ उन्होंने देखा वह रूसी अंतरिक्ष यान ही था.

rajnish manga 09-11-2017 09:57 PM

Re: इधर-उधर से
 
1990 से दिल्ली में प्रदूषण

इधर दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में वायु प्रदूषण एक खतरनाक शक्ल अख्तियार करता जा रहा है. प्रदूषण का असर इतना गहरा है कि सड़कों पर पचास मीटर दूर की चीज भी साफ़ नज़र नहीं आती. नॉएडा-आगरा एक्सप्रेसवे पर कल बहुत सी गाड़ियों के एक्सीडेंट हो गए. बच्चों के स्कूल में कुछ दिनों की छुट्टी कर दी गयी है. लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है. अस्पतालों में श्वांस संबंधी बीमारियों के मरीज पहले के मुकाबले अधिक संख्या में भारती हो रहे हैं. अखबारों के अलावा टीवी के न्यूज़ चैनल पर भी प्रदूषण का विषय ही प्रमुखता से छाया रहा. डिबेट में भी इसी विषय पर मुख्य रूप से चर्चा हुयी.

इसी पृष्ठ भूमि में मुझे अपनी डायरी में आज से 27 वर्ष पूर्व के यानी सन 1990 की सर्दियों में दर्ज एक आलेख के अंश दिखाई दे गए. उन दिनों मैं इंडियन एक्सप्रेस अखबार पढ़ा करता था (जिसके एडीटर अरुण शौरी थे). इस अंश को पढ़ कर पता चलता है कि उस समय भी सर्दी के दिनों में दिल्ली गंभीर प्रदूषण की गिरफ्त में थी. सम्पादकीय के अंश इस प्रकार हैं:-

Every winter a natural phenomenon called the atmospheric inversion traps cold air over Delhi and along with it a deadly cocktail of gaseous pollutants.

What is worrisome is that with 650 tonnes of noxious fumes spewed out by vehicles daily, the capital effectively turns into a giant gas chamber between November and January.

हाँ, उस समय वाहनों में C N G का उपयोग नहीं होता था और डीज़ल वाले वाहनों पर किसी प्रकार की कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन तब के मुकाबले वाहनों की संख्या सैंकड़ों गुना बढ़ गई है. साथ ही पंजाब, हरियाणा तथा यूपी में खेतों में धान की फसल कटने के बाद किसानों द्वारा पराली जलाने बुरी प्रथा के चलते इस सारे इलाके में धुआं फ़ैल जाता है जो नमीं के कारण धरती के निकट ही तैरता रहता है. राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस पर भारी जुर्माना तय कर रखा है लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा.

rajnish manga 20-12-2017 01:13 PM

Re: इधर-उधर से
 
इंसानियत का धर्म सर्वोत्तम धर्म है

आपने हिंदी के विद्वान साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नाम अवश्य सुना होगा
वे जितने विद्वान् थे उतने ही अपने सरल स्वभाव के लिए जाने जाते हैं उनमें अहंकार लेशमात्र भी न था।

'सरस्वती' पत्रिका के संपादन से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वे अपने गांव चले गए और वहीं खेती-बाड़ी करने लगे। ग्रामवासियों की इच्छा का आदर करते हुए उन्होंने सरपंच का पद स्वीकार कर लिया।

एक दिन जब वे अपने खेतों से होकर गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक मजदूर औरत मेड़ पर बैठी रो रही थी। आचार्य द्विवेदी ने जब रोने का कारण पूछा तो उस महिला ने बताया कि उसे सांप ने काट लिया था। द्विवेदी जी ने तुरंत वहीं हंसिए से घाव चीरकर जहर निकाला और फिर अपना जनेऊ तोड़कर उसे कस कर बांध दिया, ताकि विष फैलने न पाए। फिर वे उसे किसी डॉक्टर के पास ले जाने का उपक्रम करने लगे।

इस बीच वहाँ गाँव के अनेक लोग आ पहुंचे। सब कुछ देखने-समझने के बाद कुछ गांव वालों ने द्विवेदी जी से कहा, आप ब्राह्मण हैं, यह महिला अछूत है और आपने पवित्र जनेऊ तोड़कर इसके पांव में बांध दिया। यह आपने ठीक नहीं किया। आचार्य ने कहा, "मनुष्य के जीवन की रक्षा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जो जनेऊ इस स्त्री की रक्षा नहीं कर सकेगा, वह मेरी रक्षा क्या करेगा?"

इंसानियत का धर्म सर्वोत्तम धर्म है।

rajnish manga 20-12-2017 01:47 PM

Re: इधर-उधर से
 
आचार्यत्व तथा प्रेम
(आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के वक्तव्य से)

मुझे आचार्य्य की पदवी मिली है. क्यों मिली है, मालूम नहीं. कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं. मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा-इस पदवी से विभूषित किया जाता हूं-

उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः.
संकल्प सरहस्यञच तमाचार्य्य प्रचक्षते.

यह लक्षण मुझ पर तो घटित होता नहीं; क्योंकि मैंने कभी किसी को इक्का एक भी नहीं पढ़ाया. शंकराचार्य्य, मध्वाचार्य्य सांख्याचार्य्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरजःकण की बराबरी मैं नहीं कर सकता. बनारस के संस्कृत-कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रखा. फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया? विचार करने पर, मेरी समझ में इसका एक-मात्र कारण मुझ पर कृपा करनेवाले सज्जनों का अनुग्रह ही जान पड़ता है. जो जिसका प्रेम-पात्र होता है उसे उसके दोष नहीं दिखाई देते. जहां दोष देख पड़ते हैं, वहां तो प्रेम का प्रवेश ही नहीं हो सकता. नगरों की बात जाने दीजिए, देहात तक में माता-पिता और गुरुजन अपने लूले, लंगडे, काने, अंधे, जन्मरोगी और महाकुरूप लड़कों का नाम श्यामसुन्दर, मदनमोहन, चारुचन्द्र और नयनसुख रखते हैं. जिनके कब्जे में अंगुल भर भी जमीन नहीं वे पृथ्वीपति और पृथ्वीपाल कहाते हैं. जिनके घर में टका नहीं वे करोड़ीमल कहे जाते हैं. मेरी आचार्य्य-पदवी भी कुछ-कुछ इस तरह की है. अतः इससे पदवीदाता जनों का जो भाव प्रकट होता है उसका अभिनंदन मैं हृदय से करता हूं. यह पदवी उनके प्रेम, उनके औदार्य्य, उनके वात्सल्य-भाव की सूचक है. अतएव प्रेमपात्र मैं अपने इन सभी उदाराशय प्रेमियों का ऋणी हूं. बात यह है कि-

वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुनि

अर्थात गुणों का सबसे बड़ा आधार प्रेम होता है, वस्तु-विशेष नहीं. जो जिस पर कृपा करता है-जिसका प्रेम जिसपर होता है-वह उसे आचार्य्य क्या यदि जगद्गुरु समझ ले तो आश्चर्य की बात नहीं.

rajnish manga 24-12-2017 09:47 PM

Re: इधर-उधर से
 
गुजराती थेपला

हमारे यहाँ यह गुजराती थेपला सुबह नाश्ते के समय महीने में कई बार बनाया जाता है. सब लोग इसे लाइक करते हैं और रूचि पूर्वक खाते हैं. अब सवाल उठता है कि गुजराती थेपला पंजाबियों के यहाँ कैसे बनने लगा. सो यह भी एक मजेदार घटना है. लगभग पांच वर्ष पहले मैं और मेरी पत्नि प्रगति मैदान में लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय मेले में घूमने गए थे. कई पवेलियन घूमने के बाद हम गुजरात के पवेलियन में पहुंचे. वहां घूमते घूमते शाम के लगभग चार बज गए थे. हमें भूख भी लगने लगी थी. इतने में हमें पता लगा कि छत पर खाने पीने के कई स्टाल लगे हैं. हम ऊपर गए तो एक स्टाल पर सामने थेपला बना रहे थे. काफी लोग खा रहे थे. पूछने पर हमें बताया गया कि यह थेपला है.

हमने दो प्लेट थेपला का आर्डर दिया. एक प्लेट में दो थेपले, आलू की तरीदार सब्जी तथा प्याज टमाटर का रायता दिए गए थे. वहां बैठने की जगह नहीं थी. अतः हम उसे ले कर नीचे आ गए और पवेलियन की तीन फुट ऊंची बाउंड्री वाल पर बैठ कर खाने लगे. सच पूछिए तो यह खाना इतना स्वादिष्ट लगा कि हम उसके हमेशा के लिए मुरीद हो गए.

rajnish manga 01-04-2018 11:49 AM

Re: इधर-उधर से
 
अप्रेल फूल की शुरुआत


हर साल एक अप्रैल पूरी दुनिया में ‘अप्रैल फूल डे’ के रूप में मनाया जाता है. आज के दिन लोग एक दूसरे से मजाक करते हैं और मूर्ख बनाते हैं. कोई अपने मजाक से डरा देता है तो कोई हंसा देता है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है एक अप्रैल को फूल डे मनाने की परंपरा की शुरुआत क्यों और कैसे हुई? आंकड़ों की मानें तो इसकी शुरुआत 1 अप्रैल 1392 के दिन पहली बार हुई थी. इस बात का सबूत अंग्रेज कवी लेखक चॉसर के कैंटबरी टेल्स में दिया गया है. चलिए हम आपको ‘अप्रैल फूल’ का इतिहास बताते हैं.

सबसे पहला अप्रैल फूल साल 1381 को बनाया गया था. कहा जाता है कि इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द्वितीय और बोहेमिया की रानी एनी ने अपनी प्रस्तावित सगाई 32 मार्च 1381 के दिन होने की सूचना दी थी. वहां के लोगो ने इस बात को बिना सोचे समझे गंभीरता से ले लिया और इंतज़ार करने लगे. जब सभी ने अपने घर जाने के बाद इस बात पर गौर किया तब उन्हें पता चला की उन्हें इस तरह से एक अप्रैल के दिन मूर्ख बनाया गया था.

rajnish manga 03-04-2018 05:23 PM

Re: इधर-उधर से
 
प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं
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मस्तिष्क का काम है रहस्य को रहस्य न रहने दे, उसे सुस्पष्ट परिभाषा में बांध ले। मगर कुछ चीजें हैं जो परिभाषा में बंधती नहीं। प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, परिभाषा छोटी पड़ जाती है। व्याख्या में समाता नहीं। बड़े बड़े हार गए, सदियां बीत गईं, प्रेम के संबंध में कितनी बातें कही गईं और प्रेम के संबंध में एक भी बात कही नहीं जा सकी है। जो कहा गया, सब ओछा पड़ा। जो कहा गया, सब थोथा सिद्ध हुआ। प्रेम इतना बड़ा है, इतना विराट है कि यह आकाश भी छोटा है।

प्रेम के आकाश से यह आकाश छोटा है। ऐसे कितने ही आकाश उसमें समा जाएं। महावीर ने इस आकाश को अनंत कहा है, और आत्मा के आकाश को अनंतानंत। अगर अनंत को अनंत से गुणा कर दें। असंभव बात। क्योंकि अनंत का अर्थ ही हो गया कि उसकी कोई सीमा नहीं, अब उसका गुणा कैसे करोगे? कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन महावीर ने कहा, अगर यह हो सके कि अनंत को हम अनंत से गुणा कर सकें, तो अनंतानंत, तो हमारे भीतर के आकाश की थोड़ीसी रूपरेखा स्पष्ट होगी।
लेकिन मन हर चीज को समझ कर, जान कर स्पष्ट कर लेना चाहता है। क्यों? मस्तिष्क की यह आकांक्षा क्यों है?
>>>

rajnish manga 03-04-2018 05:25 PM

Re: इधर-उधर से
 
प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं
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यह इसलिए कि जो स्पष्ट हो जाता है, मस्तिष्क उसका मालिक हो जाता है। जो राज राज नहीं रह जाते, मस्तिष्क उनका उपयोग करने लगता है साधन की तरह। लेकिन कुछ राज हैं जो राज ही हैं और राज ही रहेंगे। मस्तिष्क उन पर कभी मालकियत नहीं कर सकता और उनका कभी साधन की तरह उपयोग नहीं हो सकता। वे परम साध्य हैं। सभी साधन उनके लिए हैं। प्रेम जिस तरफ इशारा करता है, वह इशारा परमात्मा की तरफ है। प्रेम का तीर जिस तरफ चलता है, वह परमात्मा है।

प्रेम का लक्ष्य सदा परमात्मा है। इसलिए तुम जिससे भी प्रेम करो उसमें तुम्हें परमात्मा की झलक अनुभूत होने लगेगी।

इसीलिए तो प्रेमियों को लोग पागल कहते हैं। मजनू को लोग पागल कहते हैं; क्योंकि उसे लैला परमात्मा मालूम होती है। शीरीं को लोग पागल कहते हैं, क्योंकि फरहाद उसे परमात्मा मालूम होता है। पागल न कहें तो क्या कहें?? एक साधारणसी स्त्री, एक साधारणसा पुरुष परमात्मा कैसे? लेकिन उन्हें प्रेम के रहस्य का कुछ अनुभव नहीं है। प्रेम की जहां भी छाया पड़ती है, वहीं परमात्मा का आविष्कार हो जाता है। प्रेम भरी आंख से फूल को देखोगे तो फूल परमात्मा है। और प्रेम भरी आंख से कांटे को देखोगे तो कांटा भी परमात्मा है। प्रेम की आंख जहां पड़ी, वहीं परमात्मा उघड़ आता है।
(ओशो)

rajnish manga 16-06-2018 04:52 PM

Re: इधर-उधर से
 
औरंगज़ेब की कब्र
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संत सिंह मसकीन साहब सिख पंथ के बड़े विद्वान थे। उनका एक बार औरंगजेब की मजार पर जाना हुआ, उस समय का प्रसंग है।
ज्ञानी संत सिंह मस्कीन जी के मुगल शहंशाह औरंगज़ेब के बारे में उन्हीं की जुबानी ....
कुछ अरसा पहले मुझे औरंगाबाद जाने का मौक़ा मिला । कई बार हजूर साहिब (महाराष्ट्र) जाते समय उधर से ही जाना होता था ।
एक बार प्रबन्धकों ने कहा ज्ञानी जी यहाँ से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर खुलदाबाद में औरंगज़ेब की क़ब्र है । अगर आप चाहें तो आप को दिखा लायें । कभी उधर से गुज़रते हुए देखी भी थी फिर देखने की इच्छा हुई चलो देख आते हैं ।
हम वहाँ पहुँचे । वहाँ पर मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ़ वाले के पड़पोते के मक़बरे के नज़दीक ही औरंगज़ेब की कच्ची क़ब्र है । निज़ाम हैदराबाद ने चारों ओर जालीनुमा संगमरमर लगवा दिया है ।
मैंने उस क़ब्र को देखा, सामने पत्थर की तख्ती पर कुछ शेर लिखे थे और कुछ थोड़ा बहुत समकालीन इतिहास लिखा था, उसको मैंने नोट किया ।
जैसे ही मैं वहाँ से चलने लगा, वहाँ देखभाल के लिये जो आदमी (मजौर) बैठा था, मुझसे बोला सरदार जी कुछ पैसे दे के जाओ । मैंने पूछा, तुम्हारी आजीविका का कोई मसला है ?
उसने कहा नहीं । यहाँ जो भी लोग (जायरीन) आते हैं, आप जैसे लोग आते हैं, हमें कुछ दे के जाते हैं । उन्हीं पैसों से रात को तेल लाकर यहाँ दिया जलता है। इसलिये तेल के लिए कुछ पैसे चाहिये । आप भी हमें तेल के लिये कुछ पैसे दे कर जाओ ।
>>>

rajnish manga 16-06-2018 04:54 PM

Re: इधर-उधर से
 
औरंगज़ेब की कब्र
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मैंने जेब से कुछ पैसे निकाले और व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहा : ये लो पैसे, ले आना तेल और जला देना औरंगज़ेब की क़ब्र (मडी) पे दिया । उसके बोल मैंने अपनी डायरी में लिख लिये के कहीं मैं भूल ना जाऊँ । मेरे अन्दर से एक आवाज़ आई : "ऐ औरंगज़ेब, तेरी क़ब्र पर रात को दिया जलाने के लिये तेरी क़ब्र पर बैठा मजौर आने वाले यात्रियों से पैसे माँगता है ...
...परन्तु जिस सतगुरू को तूने दिल्ली की चाँदनी चौक में शहीद किया (करवाया), जिन साहिबजादों को तूने सरहन्द (फतेहगढ साहिब पंजाब) में ज़िन्दा दीवारों में चिनवा दिया...
...जा कर देख वहाँ पैसे के दरिया बहते हैं । भूखों को भोजन मिल रहा है । दिन रात कथा- कीर्तन के परवाह चल रहे हैं । लोग सुन-सुन कर रबी सरूर का आनंद प्राप्त कर रहे हैं ।"
और ये सब देख कर कहना पड़ता है :
"कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही" ।।२।।
( गुरू ग्रन्थ साहिब अंग 953 ) अर्थात् "सच ने हमेशा क़ायम रहना है । सच की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी । झूठ की अन्ततः हार होती है।"

rajnish manga 17-06-2018 07:49 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

बात बहुत पुरानी है। आठ-दस साल पहले की है ।
मैं अपने एक मित्र का पासपोर्ट बनवाने के लिए दिल्ली के पासपोर्ट ऑफिस गया था।
उन दिनों इंटरनेट पर फार्म भरने की सुविधा नहीं थी। पासपोर्ट दफ्तर में दलालों का बोलबाला था और खुलेआम दलाल पैसे लेकर पासपोर्ट के फार्म बेचने से लेकर उसे भरवाने, जमा करवाने और पासपोर्ट बनवाने का काम करते थे। मेरे मित्र को किसी कारण से पासपोर्ट की जल्दी थी, लेकिन दलालों के दलदल में फंसना नहीं चाहते थे।
हम पासपोर्ट दफ्तर पहुंच गए, लाइन में लग कर हमने पासपोर्ट का तत्काल फार्म भी ले लिया। पूरा फार्म भर लिया। इस चक्कर में कई घंटे निकल चुके थे, और अब हमें किसी तरह पासपोर्ट की फीस जमा करानी थी।
हम लाइन में खड़े हुए लेकिन जैसे ही हमारा नंबर आया बाबू ने खिड़की बंद कर दी और कहा कि समय खत्म हो चुका है अब कल आइएगा।
मैंने उससे मिन्नतें की, उससे कहा कि आज पूरा दिन हमने खर्च किया है और बस अब केवल फीस जमा कराने की बात रह गई है, कृपया फीस ले लीजिए।
बाबू बिगड़ गया। कहने लगा, "आपने पूरा दिन खर्च कर दिया तो उसके लिए वो जिम्मेदार है क्या? अरे सरकार ज्यादा लोगों को बहाल करे। मैं तो सुबह से अपना काम ही कर रहा हूं।"
मैने बहुत अनुरोध किया पर वो नहीं माना। उसने कहा कि बस दो बजे तक का समय होता है, दो बज गए। अब कुछ नहीं हो सकता।
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rajnish manga 17-06-2018 07:51 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

मैं समझ रहा था कि सुबह से दलालों का काम वो कर रहा था, लेकिन जैसे ही बिना दलाल वाला काम आया उसने बहाने शुरू कर दिए हैं। पर हम भी अड़े हुए थे कि बिना अपने पद का इस्तेमाल किए और बिना उपर से पैसे खिलाए इस काम को अंजाम देना है।
मैं ये भी समझ गया था कि अब कल अगर आए तो कल का भी पूरा दिन निकल ही जाएगा, क्योंकि दलाल हर खिड़की को घेर कर खड़े रहते हैं, और आम आदमी वहां तक पहुंचने में बिलबिला उठता है।
खैर, मेरा मित्र बहुत मायूस हुआ और उसने कहा कि चलो अब कल आएंगे।
मैंने उसे रोका। कहा कि रुको एक और कोशिश करता हूं।
बाबू अपना थैला लेकर उठ चुका था। मैंने कुछ कहा नहीं, चुपचाप उसके-पीछे हो लिया। वो उसी दफ्तर में तीसरी या चौथी मंजिल पर बनी एक कैंटीन में गया, वहां उसने अपने थैले से लंच बॉक्स निकाला और धीरे-धीरे अकेला खाने लगा।
मैं उसके सामने की बेंच पर जाकर बैठ गया। उसने मेरी ओर देखा और बुरा सा मुंह बनाया। मैं उसकी ओर देख कर मुस्कुराया। उससे मैंने पूछा कि रोज घर से खाना लाते हो?
उसने अनमने से कहा कि हां, रोज घर से लाता हूं।
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rajnish manga 17-06-2018 07:53 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

मैंने कहा कि तुम्हारे पास तो बहुत काम है, रोज बहुत से नए-नए लोगों से मिलते होगे?
वो पता नहीं क्या समझा और कहने लगा कि हां मैं तो एक से एक बड़े अधिकारियों से मिलता हूं।
कई आईएएस, आईपीएस, विधायक और न जाने कौन-कौन रोज यहां आते हैं। मेरी कुर्सी के सामने बड़े-बड़े लोग इंतजार करते हैं।
मैंने बहुत गौर से देखा, ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पर अहं का भाव था।
मैं चुपचाप उसे सुनता रहा।
फिर मैंने उससे पूछा कि एक रोटी तुम्हारी प्लेट से मैं भी खा लूं? वो समझ नहीं पाया कि मैं क्या कह रहा हूं। उसने बस हां में सिर हिला दिया।
मैंने एक रोटी उसकी प्लेट से उठा ली, और सब्जी के साथ खाने लगा।
वो चुपचाप मुझे देखता रहा। मैंने उसके खाने की तारीफ की, और कहा कि तुम्हारी पत्नी बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है।
वो चुप रहा।
मैंने फिर उसे कुरेदा। तुम बहुत महत्वपूर्ण सीट पर बैठे हो। बड़े-बड़े लोग तुम्हारे पास आते हैं। तो क्या तुम अपनी कुर्सी की इज्जत करते हो?
अब वो चौंका। उसने मेरी ओर देख कर पूछा कि इज्जत? मतलब? >>>

rajnish manga 17-06-2018 07:56 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

मैंने कहा कि तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम्हें इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है, तुम न जाने कितने बड़े-बड़े अफसरों से डील करते हो, लेकिन तुम अपने पद की इज्जत नहीं करते।
उसने मुझसे पूछा कि ऐसा कैसे कहा आपने? मैंने कहा कि जो काम दिया गया है उसकी इज्जत करते तो तुम इस तरह रुखे व्यवहार वाले नहीं होते।
देखो तुम्हारा कोई दोस्त भी नहीं है। तुम दफ्तर की कैंटीन में अकेले खाना खाते हो, अपनी कुर्सी पर भी मायूस होकर बैठे रहते हो, लोगों का होता हुआ काम पूरा करने की जगह अटकाने की कोशिश करते हो।
मान लो कोई एकदम दो बजे ही तुम्हारे काउंटर पर पहुंचा तो तुमने इस बात का लिहाज तक नहीं किया कि वो सुबह से लाइऩ में खड़ा रहा होगा,
और तुमने फटाक से खिड़की बंद कर दी। जब मैंने तुमसे अनुरोध किया तो तुमने कहा कि सरकार से कहो कि ज्यादा लोगों को बहाल करे।
मान लो मैं सरकार से कह कर और लोग बहाल करा लूं, तो तुम्हारी अहमियत घट नहीं जाएगी? हो सकता है तुमसे ये काम ही ले लिया जाए। फिर तुम कैसे आईएएस, आईपीए और विधायकों से मिलोगे?
भगवान ने तुम्हें मौका दिया है रिश्ते बनाने के लिए। लेकिन अपना दुर्भाग्य देखो, तुम इसका लाभ उठाने की जगह रिश्ते बिगाड़ रहे हो।
मेरा क्या है, कल भी आ जाउंगा, परसों भी आ जाउंगा। ऐसा तो है नहीं कि आज नहीं काम हुआ तो कभी नहीं होगा। तुम नहीं करोगे कोई और बाबू कल करेगा।
पर तुम्हारे पास तो मौका था किसी को अपना अहसानमंद बनाने का। तुम उससे चूक गए।
वो खाना छोड़ कर मेरी बातें सुनने लगा था।
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rajnish manga 17-06-2018 07:58 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

मैंने कहा कि पैसे तो बहुत कमा लोगे, लेकिन रिश्ते नहीं कमाए तो सब बेकार है। क्या करोगे पैसों का? अपना व्यवहार ठीक नहीं रखोगे तो तुम्हारे घर वाले भी तुमसे दुखी रहेंगे। यार दोस्त तो नहीं हैं,
ये तो मैं देख ही चुका हूं। मुझे देखो, अपने दफ्तर में कभी अकेला खाना नहीं खाता।
यहां भी भूख लगी तो तुम्हारे साथ खाना खाने आ गया। अरे अकेला खाना भी कोई ज़िंदगी है?
मेरी बात सुन कर वो रुंआसा हो गया। उसने कहा कि आपने बात सही कही है साहब। मैं अकेला हूं। पत्नी झगड़ा कर मायके चली गई है। बच्चे भी मुझे पसंद नहीं करते। मां है, वो भी कुछ ज्यादा बात नहीं करती। सुबह चार-पांच रोटी बना कर दे देती है, और मैं तनहा खाना खाता हूं। रात में घर जाने का भी मन नहीं करता। समझ में नहींं आता कि गड़बड़ी कहां है?
मैंने हौले से कहा कि खुद को लोगों से जोड़ो। किसी की मदद कर सकते तो तो करो। देखो मैं यहां अपने दोस्त के पासपोर्ट के लिए आया हूं। मेरे पास तो पासपोर्ट है।
मैंने दोस्त की खातिर तुम्हारी मिन्नतें कीं। निस्वार्थ भाव से। इसलिए मेरे पास दोस्त हैं, तुम्हारे पास नहीं हैं।
वो उठा और उसने मुझसे कहा कि आप मेरी खिड़की पर पहुंचो। मैं आज ही फार्म जमा करुंगा।
मैं नीचे गया, उसने फार्म जमा कर लिया, फीस ले ली। और हफ्ते भर में पासपोर्ट बन गया।
बाबू ने मुझसे मेरा नंबर मांगा, मैंने अपना मोबाइल नंबर उसे दे दिया और चला आया।
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rajnish manga 17-06-2018 08:00 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

कल दिवाली पर मेरे पास बहुत से फोन आए। मैंने करीब-करीब सारे नंबर उठाए। सबको हैप्पी दिवाली बोला।
उसी में एक नंबर से फोन आया, "रविंद्र कुमार चौधरी बोल रहा हूं साहब।"
मैं एकदम नहीं पहचान सका। उसने कहा कि कई साल पहले आप हमारे पास अपने किसी दोस्त के पासपोर्ट के लिए आए थे, और आपने मेरे साथ रोटी भी खाई थी।
आपने कहा था कि पैसे की जगह रिश्ते बनाओ।
मुझे एकदम याद आ गया। मैंने कहा हां जी चौधरी साहब कैसे हैं?
उसने खुश होकर कहा, "साहब आप उस दिन चले गए, फिर मैं बहुत सोचता रहा। मुझे लगा कि पैसे तो सचमुच बहुत लोग दे जाते हैं, लेकिन साथ खाना खाने वाला कोई नहीं मिलता। सब अपने में व्यस्त हैं। मैं
साहब अगले ही दिन पत्नी के मायके गया, बहुत मिन्नतें कर उसे घर लाया। वो मान ही नहीं रही थी।
वो खाना खाने बैठी तो मैंने उसकी प्लेट से एक रोटी उठा ली,
कहा कि साथ खिलाओगी? वो हैरान थी।
रोने लगी। मेरे साथ चली आई। बच्चे भी साथ चले आए।
साहब अब मैं पैसे नहीं कमाता। रिश्ते कमाता हूं। जो आता है उसका काम कर देता हूं।
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rajnish manga 17-06-2018 08:02 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

साहब आज आपको हैप्पी दिवाली बोलने के लिए फोन किया है।
अगल महीने बिटिया की शादी है। आपको आना है।
अपना पता भेज दीजिएगा। मैं और मेरी पत्नी आपके पास आएंगे।
मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा था कि ये पासपोर्ट दफ्तर में रिश्ते कमाना कहां से सीखे?
तो मैंने पूरी कहानी बताई थी। आप किसी से नहीं मिले लेकिन मेरे घर में आपने रिश्ता जोड़ लिया है।
सब आपको जानते है बहुत दिनों से फोन करने की सोचता था, लेकिन हिम्मत नहीं होती थी।
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rajnish manga 17-06-2018 08:05 AM

Re: इधर-उधर से
 
रिश्ते निभाना बड़ी बात है

आज दिवाली का मौका निकाल कर कर रहा हूं। शादी में आपको आना है। बिटिया को आशीर्वाद देने। रिश्ता जोड़ा है आपने। मुझे यकीन है आप आएंगे।
वो बोलता जा रहा था, मैं सुनता जा रहा था। सोचा नहीं था कि सचमुच उसकी ज़िंदगी में भी पैसों पर रिश्ता भारी पड़ेगा।
लेकिन मेरा कहा सच साबित हुआ। आदमी भावनाओं से संचालित होता है। कारणों से नहीं। कारण से तो मशीनें चला करती हैं
पसंद आए तो अपनें अज़ीज़ दोस्तों को जरुर भेजें एंव इनसांनीयत की भावना को आगे बढ़ाएँ
पैसा इन्सान के लिए बनाया गया है, इन्सान पैैसै के लिए नहीं बनाया गया है!!
""" जिंदगी में किसी का साथ ही काफी है,, कंधे पर रखा हुआ हाथ ही काफी है,,,,
दूर हो या पास क्या फर्क पड़ता है,, क्योंकि अनमोल रिश्तों का तो बस एहसास ही काफी है *** । ।
अगर आपके दिल को छुआ हो तो इस मैसेज से कुछ सीखने की कोशिश करना ,,
शायद आपकी दुनिया भी बदल जाये ।।।
*अगर मरने के बाद भी जीना चाहो तो एक काम जरूर करना पढ़ने लायक कुछ लिख जाना या लिखने लायक कुछ कर जाना i
(समाप्त)
यह प्रसंग मुझे व्हाट्सएप से प्राप्त हुआ था

rajnish manga 19-06-2018 10:10 AM

Re: इधर-उधर से
 
इक दिया जलता रहे

एक घर मे *पांच दिए* जल रहे थे।
एक दिन पहले एक दिए ने कहा -
इतना जलकर भी *मेरी रोशनी की* लोगो को *कोई कदर* नही है...
तो बेहतर यही होगा कि मैं बुझ जाऊं।
वह दिया खुद को व्यर्थ समझ कर बुझ गया ।
जानते है वह दिया कौन था ?
वह दिया था *उत्साह* का प्रतीक ।
यह देख दूसरा दिया जो *शांति* का प्रतीक था, कहने लगा -
मुझे भी बुझ जाना चाहिए।
निरंतर *शांति की रोशनी* देने के बावजूद भी *लोग हिंसा कर* रहे है।
और *शांति* का दिया बुझ गया ।
*उत्साह* और *शांति* के दिये के बुझने के बाद, जो तीसरा दिया *हिम्मत* का था, वह भी अपनी हिम्मत खो बैठा और बुझ गया।
*उत्साह*, *शांति* और अब *हिम्मत* के न रहने पर चौथे दिए ने बुझना ही उचित समझा।
*चौथा* दिया *समृद्धि* का प्रतीक था।
सभी दिए बुझने के बाद केवल *पांचवां दिया* *अकेला ही जल* रहा था।
हालांकि पांचवां दिया सबसे छोटा था मगर फिर भी वह *निरंतर जल रहा* था।

तब उस घर मे एक *लड़के* ने प्रवेश किया।
उसने देखा कि उस घर मे सिर्फ *एक ही दिया* जल रहा है।
वह खुशी से झूम उठा।
चार दिए बुझने की वजह से वह दुखी नही हुआ बल्कि खुश हुआ।
यह सोचकर कि *कम से कम* एक दिया तो जल रहा है।
उसने तुरंत *पांचवां दिया उठाया* और बाकी के चार दिए *फिर से* जला दिए ।
जानते है वह *पांचवां अनोखा दिया* कौन सा था ?
वह था *उम्मीद* का दिया...
इसलिए *अपने घर में* अपने *मन में* हमेशा उम्मीद का दिया जलाए रखिये ।
चाहे *सब दिए बुझ जाए* लेकिन *उम्मीद का दिया* नही बुझना चाहिए ।
ये एक ही दिया *काफी* है बाकी *सब दियों* को जलाने के लिए ....

rajnish manga 25-06-2018 11:41 PM

Re: इधर-उधर से
 
*बाबा फरीद ने पंजाबी में क्या खूब कहा है*

वेख फरीदा मिट्टी खुल्ली, (कबर)
मिट्टी उत्ते मिट्टी डुली; (लाश)
मिट्टी हस्से मिट्टी रोवे, (इंसान)
अंत मिट्टी दा मिट्टी होवे (जिस्म)
ना कर बन्दया मेरी मेरी, (पैसा)
ना ऐह तेरी ना ऐह मेरी; (खाली जाना)
चार दिना दा मेला दुनिया, (उम्र)
फ़िर मिट्टी दी बन गयी ढेरी; (मौत)
ना कर एत्थे हेरा फेरी, (पैसे कारन झुठ, धोखे)
मिट्टी नाल ना धोखा कर तू, (लोका नाल फरेब)
तू वी मिट्टी मैं वी मिट्टी; (इंसान)
जात पात दी गल ना कर तू,
जात वी मिट्टी पात वी मिट्टी, (पाखंड)
*जात सिर्फ रब दी उच्ची
बाकी सब कुछ मिट्टी मिट्टी*
**

rajnish manga 25-06-2018 11:44 PM

Re: इधर-उधर से
 
नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) की प्रसिद्ध ठुमरी :

बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये,
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये

चार कहर मिल मोरी डोलिया सजावें,
मोरा अपना बेगाना छूटो जाये।
बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये

अंगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेस,
ले बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस,
बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये...

पंडित भीमसेन जोशी, बेगम अख्तर, गिरिजा देवी और शोभा गुर्टु, किशोरी अमोनकर से लेकर कुन्दन लाल सहगल, जगजीत सिंह- चित्रा सिंह ने राग भैरवी की इस ठुमरी को अपने स्वर दिए | कहते हैं .. ठुमरी और कत्थक के जन्मदाता नवाब वाज़िद अली शाह इसी को गाते हुए अवध रियासत से निर्वासित हुए थे | वही दर्द और पीड़ा इन पंक्तियों में है ...

rajnish manga 28-06-2018 07:46 PM

Re: इधर-उधर से
 
अभिमान और नम्रता
------------------
एक बार नदी को अपने पानी के प्रचंड प्रवाह पर घमंड हो गया नदी को लगा कि ...
मुझमें इतनी ताकत है कि मैं
पहाड़, मकान, पेड़, पशु, मानव आदि सभी को बहाकर ले जा सकती हूँ
एक दिन नदी ने बड़े गर्वीले अंदाज में समुद्र से कहा ~ बताओ ! मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या लाऊँ ?
मकान, पशु, मानव, वृक्ष जो तुम चाहो, उसे ...मैं जड़ से उखाड़कर ला सकती हूँ.
समुद्र समझ गया कि ...
नदी को अहंकार हो गया है
उसने नदी से कहा ~यदि तुम मेरे लिए कुछ लाना ही चाहती हो, तो ...थोड़ी सी घास उखाड़कर ले आओ.
नदी ने कहा ~ बस ... इतनी सी बात. अभी लेकर आती हूँ. नदी ने अपने जल का पूरा जोर लगाया पर ... घास नहीं उखड़ी नदी ने कई बार जोर लगाया*,लेकिन ...असफलता ही हाथ लगी आखिर नदी हारकर ... समुद्र के पास पहुँची और बोली ~ मैं वृक्ष, मकान, पहाड़ आदि तो उखाड़कर ला सकती हूँ. मगर जब भी घास को उखाड़ने के लिए जोर लगाती हूँ, तो वह नीचे की ओर झुक जाती है और मैं खाली हाथ ऊपर से गुजर जाती हूँ.
समुद्र ने नदी की पूरी बात ध्यान से सुनी और मुस्कुराते हुए बोला ~ जो पहाड़ और वृक्ष जैसे कठोर होते हैं,
वे आसानी से उखड़ जाते हैं.किन्तु ...घास जैसी विनम्रता जिसने सीख ली हो,
उसे प्रचंड आँधी-तूफान या प्रचंड वेग भी नहीं उखाड़ सकता।

जीवन में खुशी का अर्थ
लड़ाइयाँ लड़ना नहीं,
... बल्कि ...
उन से बचना है कुशलता पूर्वक पीछे हटना भी अपने आप में एक जीत है
... क्योकि ...
अभिमान* ~ फरिश्तों को भी शैतान बना देता है,
... और ...
नम्रता ~ साधारण व्यक्ति को भी फ़रिश्ता बना देती है।

rajnish manga 04-07-2018 01:15 PM

Re: इधर-उधर से
 
पासवर्ड

एक 'अजनबी' एक आठ साल की बच्ची से स्कूल के बाहर मिला और उससे बोला - "तुम्हारी माँ एक मुसीबत में है इसलिये तुम्हें लाने के लिए मुझे भेजा है, मेरे साथ चलो।" उस बच्ची ने बिना झिझके पूछा -

"ठीक है। पासवर्ड क्या है??"

इतना सुनते ही वह आदमी निरुत्तर होकर वहाँ से खिसक लिया!

दरअसल माँ बेटी ने एक पासवर्ड तय किया था जो आपातकाल में माँ के द्वारा भेजे गये व्यक्ति को मालूम होता।

बात छोटी सी है, परन्तु नन्हीं सी सूझ-बूझ बड़ा संकट टाल सकती है।।

अभिभावक, बच्चों को विद्यालयों में 'मोबाईल' नहीं दे सकते, मगर 'पासवर्ड' तो दे ही सकते हैं।

rajnish manga 30-01-2024 01:49 PM

Re: इधर-उधर से
 
सभी दोस्तों का शुक्रिया.


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