समर्पण :.........
समर्पण - नि:शब्द था पर एक अनुबंध : |
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नि:शब्द था पर एक अनुबंध था हम नहीं बिछड़ेंगे कभी आँसुओं के पतझर में सुंदर स्मृतियों से भरकर एक-दूसरे का दामन हम कहेंगे अलविदा। पर बस निमिष मात्र को हमें मिलना था इस जीवन से परे भी विश्वास की अग्नि के समक्ष हम चल रहे थे सात कदम जन्म-जन्मांतर के लिए। एक धुँधली-सी याद है एक क्षण को बीच में थे धर्म, समाज, नियम के बंधन प्रेम की शक्ति से नियमों के द्वंद्व में जब जीतने को था विश्वास उसने जाने क्यों मान ली हार, देखा नहीं मुड़कर कभी फिर मैं युगों से प्रतिच्छाया-सी चल रही हूँ उसके कदमों पर रख कर कदम भूलाकर अपने अस्तित्व का क्रंदन। (अंतरजाल से) |
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शाश्वत प्रेम की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. कौन जाने यह चिरंतन यात्रा कब तक चलेगी और कहाँ तक जायेगी.
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समर्पण : सुबह के साढ़े आठ बजे थे. अस्पताल में बहुत से मरीज़ थे. ऐसे में एक बुजुर्गवार अपने अंगूठे में लगे घाव के टाँके कटवाने के लिए बड़ी उतावली में थे. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ठीक नौ बजे एक बहुत ज़रूरी काम है. मैंने उनकी जांच करके उन्हें बैठने के लिए कहा. मुझे पता था कि उनके टांकों को काटनेवाले व्यक्ति को उन्हें देखने में लगभग एक घंटा लग जाएगा. वे बेचैनी से अपनी घड़ी बार-बार देख रहे थे. मैंने सोचा कि अभी मेरे पास कोई मरीज़ नहीं है इसलिए मैं ही इनके टांकों को देख लेता हूँ. घाव भर चुका था. मैंने एक दूसरे डॉक्टर से बात की और टांकों को काटने एवं ड्रेसिंग करने का सामान जुटा लिया. अपना काम करने के दौरान मैंने उनसे पूछा – “आप बहुत जल्दी में लगते हैं? क्या आपको किसी और डॉक्टर को भी दिखाना है?” बुजुर्गवार ने मुझे बताया कि उन्हें पास ही एक नर्सिंग होम में भर्ती उनकी पत्नी के पास नाश्ता करने जाना है. मैंने उनसे उनकी पत्नी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी ऐल्जीमर की मरीज है और लम्बे समय से नर्सिंग होम में ही रह रही है. बातों के दौरान मैंने उनसे पूछा कि उन्हें वहां पहुँचने में देर हो जाने पर वह ज्यादा नाराज़ तो नहीं हो जायेगी. उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी उन्हें पूरी तरह से भूल चुकी है और पिछले पांच सालों से उन्हें पहचान भी नहीं पा रही है. मुझे बड़ा अचरज हुआ. मैंने उनसे पूछा – “फिर भी आप रोज़ वहां उसके साथ नाश्ता करने जाते हैं जबकि उसे आपके होने का कोई अहसास ही नहीं है!?” वह मुस्कुराए और मेरे हाथ को थामकर मुझसे बोले: “वह मुझे नहीं पहचानती पर मैं तो यह जानता हूँ न कि वह कौन है!” लेखक – अज्ञात : |
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Re: समर्पण :.........
समर्पण की सुंदर व्याख्या...
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बातों के दौरान मैंने उनसे पूछा कि उन्हें वहां पहुँचने में देर हो जाने पर वह ज्यादा नाराज़ तो नहीं हो जायेगी.
उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी उन्हें पूरी तरह से भूल चुकी है और पिछले पांच सालों से उन्हें पहचान भी नहीं पा रही है. मुझे बड़ा अचरज हुआ. मैंने उनसे पूछा – “फिर भी आप रोज़ वहां उसके साथ नाश्ता करने जाते हैं जबकि उसे आपके होने का कोई अहसास ही नहीं है!?” वह मुस्कुराए और मेरे हाथ को थामकर मुझसे बोले: “वह मुझे नहीं पहचानती पर मैं तो यह जानता हूँ न कि वह कौन है!” इस प्रेरक प्रसंग के लिये धन्यवाद |
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