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jai_bhardwaj 08-05-2013 07:13 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
हर स्वतंत्रता दिवस पर मेरे दादाजी हमारे घर की छत पर तिरंगा फहराया करते थे और हम राष्ट्रीय गीत गाया करते थे। १९९७ में १५ अगस्त के दिन मैंने यह तय किया कि मेरी तीन साल की बेटी को अपने घर में तिरंगा फहराकर स्वदेश भक्ति के बारे में सचेत किया जाय।

हमने तिरंगा ख़रीदने का निश्चय किया। काग़ज़ के बने छोटे-छोटे तिरंगे झंडे उस समय भी बेचे जाते थे लेकिन मैं कपड़े का बुना हुआ झंडा अपने घर में फहराना चाहती थी। कैंप की एक भी दुकान में मुझे कपड़े का बुना हुआ तिरंगा नहीं मिला। एक बुजुर्ग ने बताया कि कपड़े का बुना हुआ तिरंगा झंडा सिर्फ़ स्कूल, कॉलेज, और सरकारी दफ़्तरों में ही लहराया जाता है। व्यक्तिगत स्थानों जैसे घरों में झंडा फहराना कानून के ख़िलाफ़ था। पुणे में भी मैंने कभी किसी घर में तिरंगे को लहराते नहीं देखा था। सीधे, सत्यवादी और सरल जीवन व्यतीत करने वाले मेरे दादाजी ने इन क़ानूनों और अपने उसूलों को तोड़ना कभी सही नहीं समझा लेकिन हमें हमेशा इस बात को लेकर प्रोत्साहित ज़रूर करते रहते थे। मैंने भी अपने दादाजी की तरह इस बात को लेकर कभी पहल नहीं की मुझे लगा कि इस बात के दूसरे पक्ष को परखने की हिम्मत और उचित अधिकार मुझमें नहीं थे।

१९९८ में १५ अगस्त को एक साल अधिक बड़ी और बुद्धिमान, मैंने अपने दादाजी के देशभक्ति के प्रोत्साहन पर ग़ौर करना ज़्यादा उचित समझा। इस बार मैंने शहर के दूसरे सिरे से तिरंगे की खोज शुरू की, हर जगह जवाब वही था। तभी लौटते समय एक इमारत की चौथी मंज़िल की बालकनी में तिरंगा लहराता हुआ दिखाई दिया। मैंने ऊपर जा कर मालिक से पूछा कि यह तिरंगा उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। उनके जवाब से मैं हैरान रह गई। उन्होंने कहा, "विदेश से।"

ज़रा सोचिए! देश की आज़ादी की ५० वीं सालगिरह पर हम अपने फ़ोन से यंत्रवत तरीके से वंदेमातरम कहकर बधाई देने से लेकर बंकिम चंद्र चटर्जी के वंदेमातरम को ए. आर. रहमान की धुनों में रूपांतरित कर टी.वी. के हर चैनल दिखाते और सार्वजनिक स्पीकरों पर बजाते हैं, बोर्डो से लेकर बसों, ऑटो रिक्शा और लारियों को 'मेरा भारत महान' से पोत देते हैं, इस दिन सुबह से अपने सारे नेता भारत की स्वतंत्रता के गुणगान करते नज़र आते हैं, वहीं ब*ड़ों की दी हुई सीख और गर्व की परंपरा को निभाने के लिए यदि हम हमारा तिरंगा फहराना चाहते हैं तो उसे ख़रीदने क्या हमें विदेश जाना होगा?

एक मित्र ने कहा था कि विश्व के अधिकतर देशों में हर व्यक्ति अपने घर में एक झंडा ज़रूर रखता है और अपने राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर उसे फहराने में गर्व अनुभव करता है जबकि भारतीय स्वदेश में रहकर भी अपने तिरंगे को घर में रखना ज़रूरी ही नहीं समझते। हम भारतीय जो विदेशों की सैर को गर्व से जताने से नहीं चूकते, उन्होंने कभी अपने ही भारत की सैर कर उसे जानने की कितनी कोशिश की है? हम जब विदेशों की सैर करते हैं तब कुछ यादगार चीज़ें वहाँ से लाते हैं लेकिन आज ग़ौर करने का समय आया है कि हम कितने भारतीयों के घरों में कोणार्क चक्र की प्रतिकृति है? जब हम विदेशी झंडों और विश्वविद्यालयों के चिह्नों से अंकित कपड़े गर्व के साथ धारण करते है तो क्या हम उसी शौक से अपनी मातृभूमि के नारों से सजे कपड़े पहनते हैं? सालोंसाल भारत में रहने वाले विदेशी अपने अंग्रेज़ी भाषा बोलने की लहज़े को नहीं बदलते, वहीं थोड़े सालों में अमरीका जाकर हम भारतीय विदेशी लहज़े में हिंदी बोलना सीख कर लौटते हैं ऐसा जब किसी विदेशी ने ही मुझसे कहा होगा तो आप सोच सकते हैं, मैंने कैसे महसूस किया होगा।

बाद में, काफ़ी छानबीन के बाद इस पुणे शहर में हमें एक छोटी-सी दुकान में कपड़े से बुना हुआ तिरंगा मिल ही गया। इस तरह १५ अगस्त १९९८ को हमने अपने घर में तिरंगा फहराया और राष्ट्रीय गीत गाया तब मेरी चार साल की बेटी ने इसे खुशी से देखा और शायद गर्व भी महसूस किया कि भारत का झंडा उसके घर में फहर रहा था।

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:14 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जो हमारे जीवन में प्रेरणा–स्त्रोत बन जाते हैं और अनजाने ही हमें एक ऐसा संदेश भी दे जाते हैं जो हमारे संस्कारों को भी परिष्कृत करता है। एक ऐसा ही प्रसंग स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में आज भी हमें भावविह्वल कर जाता है। बात उस समय की है, जब विवेकानंद जी को शिकागो की धर्मसभा में भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। वे भारत के प्रथम संत थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय सर्वधर्म सभा में प्रवचन देने हेतु आमंत्रित किया गया था।

स्वामी विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो चुका था। इसलिए इस महती यात्रा पर जाने से पूर्व उन्होंने गुरू मां शारदा ह्यस्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नीहृ से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा। वे गुरू मां के पास गये, उनके चरण स्पर्श किये और उन्हें अपना मंतव्य बताते हुए बोले, "मां, मुझे भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमरीका से आमंत्रण मिला है। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं अपने प्रयोजन में सफल हो सकूं।"

मां शारदा ने अधरों पर मधुर स्मित लाते हुए कहा, "आशीर्वाद के लिए कल आना। मैं पहले देख लूंगी कि तुम्हारी पात्रता है भी या नहीं? और बिना सोचे–विचारे मैं आशीर्वाद नहीं दिया करती हूं।"

विवेकानंदजी सोच में पड़ गये, मगर गुरू मां के आदेश का पालन करते हुए दूसरे दिन फिर उनके सम्मुख उपस्थित हो गये। मां शारद रसोईघर में थीं।
विवेकानंदजी ने कहा, "मां मैं आशीर्वाद लेने आया हूं।"
"ठीक है आशीर्वाद तो तुझे मैं सोच–समझकर दूंगी। पहले तू मुझे वो चाकू उठाकर दे दे मुझे सब्जी काटनी है।" मां शारदा ने कहा।

विवेकानंदजी ने चाकू उठाया और विनम्रतापूर्वक मां शारदा की ओर बढ़ाया। चाकू लेते हुए ही मां शारदा ने अपने स्निग्ध आशीर्वचनों से स्वामी विवेकानंद को नहला–सा दिया। वे बोलीं, "जाओ नरेन्द्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। तुम अपने उद्देश्य में अवश्य ही सफलता प्राप्त करोगे।
तुम्हारी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं रहा है।"

स्वामीजी हतप्रभ। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गुरू मां के आशीर्वाद और मेरे चाकू उठाने के बीच ऐसा क्या घटित हो गया? शंका निवारण के प्रयोजन से उन्होंने गुरू मां से पूछ ही लिया, "आपने आशीर्वाद देने से पहले मुझसे चाकू क्यों उठवाया था?"

"तुम्हारा मन देखने के लिए।" मां शारदा ने कहा, "प्रायः जब भी किसी व्यक्ति से चाकू मांगा जाता है तो वह चाकू की मूठ अपनी हथेली में समो लेता है और चाकू की तेज फाल दूसरे के समक्ष करता है। मगर तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने चाकू की फाल अपनी हथेली में रखी और मूठवाला सिरा मेरी तरफ बढ़ाया।

यही तो साधु का मन होता है, जो सारी आपदा को स्वयं झेलकर भी दूसरे को सुख ही प्रदान करना चाहता है। वह भूल से भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहता। अगर तुम साधुमन नहीं होते तो तुम्हारी हथेली में भी चाकू की मूठ होती, फल नहीं।"

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:15 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के काटलुक गांव में एक प्राईमरी स्कूल था. कक्षा चल रही थी.
अध्यापक ने बच्चों से एक प्रश्न किया यदि तुम्हें रास्ते में एक हीरा मिल जाए तो तुम उसका क्या करोगे?
मैं इसे बेच कर कार खरीदूंगा एक बालक ने कहा.
एक ने कहा, मैं उसे बेच कर धनवान बन जाउंगा.
किसी ने कहा कि वह उसे बेच विदेश यात्रा करेगा.
चौथे बालक का उत्तर था कि, मैं उस हीरे के मालिक का पता लगा कर लौटा दूंगा.
अध्यापक चकित थे, फिर उन्होंने कहा कि, मानो खूब पता लगाने पर भी उसका मालिक न मिला तो?
बालक बोला, तब मैं हीरे को बेचूंगा और इससे मिले पैसे को देश की सेवा में लगा दूंगा.
शिक्षक बालक का उत्तर सुन कर गद्गद् हो गये और बोले, शाबास तुम बडे होकर सचमुच देशभक्त बनोगे.

शिक्षक का कहा सत्य हुआ और वह बालक बडा होकर सचमुच देशभक्त बना,
उसका नाम था, गोपाल कृष्ण गोखले.

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:16 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
भारत और रूस के संयुक्त प्रयासों से अम्कलेश्वर में तेल के कुंए खोदे गए. उनमें से तेल निकला तो पंडित नेहरू बडे प्रसन्न हुए. वे अम्कलेश्वर तेल के कुंए देखने पहुंचे, निरीक्षण के दौरान अचानक तेल के कुछ छींटे उनकी अचकन पर जा गिरे. सारे इंजीनियर और दूसरे अधिकारी परेशान हो गए और उन्होंने नेहरू जी से अनुरोध किया कि वे अपनी अचकन बदल लें.

नेहरू जी यह बात सुन कर बोले, वाह, यह कैसे हो सकता है. यह तो मेरे लिये गौरव की बात है. मैं तो इसी अचकन को पहन कर संसद में जाउंगा और वहा/ सभी को दिखाउंगा कि ये धब्बे अपने देश में निकाले गए तेल के हैं.

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:16 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
यूनान के प्रसिध्द दार्शनिक सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ चर्चा में मग्न थे. उसी समय एक ज्योतिष घूमता-घामता पहुंचा, जो कि चेहरा देख कर व्यक्ति के चरित्र के बारे में बताने का दावा करता था. सुकरात व उनके शिष्यों के समक्ष यही दावा करने लगा. चूंकि सुकरात जितने अच्छे दार्शनिक थे उतने सुदर्शन नहीं थे, बल्कि वे बदसूरत ही थे. पर लोग उन्हें उनके सुन्दर विचारों की वजह से अधिक चाहते थे.

ज्योतिषी सुकरात का चेहरा देखकर कहने लगा, इसके नथुनों की बनावट बता रही है कि इस व्यक्ति में क्रोध की भावना प्रबल है.

यह सुन कर सुकरात के शिष्य नाराज होने लगे परन्तु सुकरात ने उन्हें रोक कर ज्योतिष को अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया.

''इसके माथे और सिर की आकृति के कारण यह निश्चित रूप से लालची होगा. इसकी ठोडी क़ी रचना कहती है कि यह बिलकुल सनकी है, इसके होंठों और दांतों की बनावट के अनुसार यह व्यक्ति सदैव देशद्रोह करने के लिये प्रेरित रहता है.

यह सब सुन कर सुकरात ने ज्योतिषी को इनाम देकर भेज दिया, इस पर सुकरात के शिष्य भौंचक्के रह गये.सुकरात ने उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिये कहा कि, सत्य को दबाना ठीक नहीं. ज्योतिषी ने जो कुछ बताया वे सब दुर्गुण मुझमें हैं, मैं उन्हें स्वीकारता हू/. पर उस ज्योतिषी से एक भूल अवश्य हुई है, वह यह कि उसने मेरे विवेक की शक्ति पर जरा भी गौर नहीं किया. मैं अपने विवेक से इन सब दुर्गुणों पर अंकुश लगाये रखता हू/. यह बात ज्योतिषी बताना भूल गया.

शिष्य सुकरात की विलक्षणता से और प्रभावित हो गये.

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:16 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
विश्वविजित होने का स्वप्न देखने वाले सिकन्दर और उनके गुरु अरस्तू एक बार घने जंगल में कहीं जा रहे थे. रास्ते में उफनता हुआ एक बरसाती नाला पडा.

अरस्तू और सिकन्दर इस बात पर एकमत न हो सके कि पहले कौन नाला पार करे. उस पर वह रास्ता अनजान था, नाले की गहराई से दोनों नावाकिफ थे. कुछ देर विचार करने के बाद सिकन्दर इस बात पर ठान बैठे कि नाला तो पहले वह स्वयं ही पार करेंगे. कुछ देर के वाद विवाद के बाद अरस्तू ने सिकन्दर की बात मान ली. पर बाद में वे इस बात पर नाराज हो गये कि तुमने मेरी अवज्ञा की तो क्यों की. इस पर सिकन्दर ने एक ही बात कही, मेरे मान्यवर गुरु जी, मेरे कर्तव्य ने ही मुझे ऐसा करने को प्रेरित किया. क्योंकि अरस्तू रहेगा तो हजारों सिकन्दर तैयार कर लेगा. पर सिकन्दर तो एक भी अरस्तू नहीं बना सकता.

गुरु शिष्य के इस उत्तर पर मुस्कुरा कर निरुत्तर हो गये.

jai_bhardwaj 08-05-2013 07:19 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और वह कई तरह के व्यापार करता था। बड़े विशाल क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे, जहां पर भांति-भांति के फल लगते थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे, जो दक्ष मालियों की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे। उस व्यक्ति के पास अपार संपदा थी, किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर अति विशाल था। शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था। उन थालों पर लिखा होता था ‘आप कम से कम एक तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।’ लोग इधर-उधर से देखते हुए निकलते, किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक नहीं लगाता था। तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा, बल्कि उन थालों पर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा ‘हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की अपेक्षा अधिक लगेगा।’और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के, बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन्हें खरीदने के लिए टूट पड़े।

कथा का संकेत यह है कि भावना से दी जाने वाली अच्छी वस्तुओं को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता गलत है। सभी सस्ती या नि:शुल्क वस्तुएं या सेवाएं निकृष्ट नहीं होतीं। वस्तुत: आवश्यकता वह दृष्टि विकसित करने की है, जो भावना और व्यापार में फर्क कर सके और वस्तुओं की गुणवत्ता का ठीक-ठाक निर्धारण कर सके।

jai_bhardwaj 09-05-2013 07:33 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
एक शिक्षण संस्थान की यह परंपरा थी - अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों में जो योग्यतम आठ-दस होते थे, उन्हें देश की औद्योगिक संस्थाएँ नियुक्त कर लेती थीं। उस साल भी वही हुआ। ऊपर के नौ लड़के ऊँची पद-प्रतिष्ठा वाली नौकरियाँ पाकर खुशी-खुशी चले गए। लेकिन उनके बीच का एक लड़का जो चुने गए साथियों से कम नहीं था, रह गया।

चूँकि वह बहुत परिश्रमी था और अपने संस्थान को उसकी सेवा से लाभ ही होता इसलिए उसे अस्थायी तौर पर कुछ भत्ता दे कर काम पर लगा लिया गया। फिर भी अपने साथियों की तुलना में उसकी यह नियुक्ति आर्थिक दृष्टि से बड़ी मामूली थी। वह उदास रहने लगा। लोग भी उसके भाग्य को दोष देने लगे थे।

लेकिन यह स्थिति अधिक दिन नहीं रही। एक बहुत नामी औद्योगिक संस्था ने अचानक उस शिक्षण संस्थान से संपर्क कर जैसे व्यक्ति की माँग की, यह युवक पूरी तरह उसके अनुकूल सिद्ध हुआ।

उसे अपनी योग्यता के अनुरूप काम और वेतन मिला, बात इतनी ही नहीं थी, उसकी यह नियुक्ति अपने साथियों की तुलना में बहुत ऊँची भी थी। अर्थ और सामाजिक प्रतिष्ठा - दोनों ही दृष्टि से वह उन सबसे श्रेष्ठ हो गया था।

इसी तरह कभी-कभी अनुकूल समय के लिए प्रतीक्षा की घड़ियाँ आया करती हैं। अक्सर ही जिसे लोग भाग्य का दोष मान बैठते हैं, वह होता है एक बेहतर भविष्य का संकरा मुहाना।

jai_bhardwaj 09-05-2013 07:37 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
अब्दुर्रहीम (रहीमदास) खानखाना की विनम्रता

अब्दुर्रहीम खानखाना हिंदी काव्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनके दोहे आज भी लोगों के कंठ में जीवित हैं। ऐसा कौन हिंदी-प्रेमी होगा जिसे उनके दस-पाँच दोहे याद न हों। उनके कितने ही दोहे तो लोकोक्तियों की तरह प्रयोग में लाएँ जाते हैं।

खानखाना अकबर के दरबार के सबसे बड़े दरबारी थे और तत्कालीन कोई भी अमीर या उभरा पद-मर्यादा या वैभव में उनसे टक्कर न ले सकता था। किंतु वे बड़े उदार हृदय व्यक्ति थे। स्वयं अच्छे कवि थे और कवियों का सम्मान ही नहीं, उनकी मुक्तहस्त से सहायता करते थे। इतने वैभवशाली, शक्तिमान और विद्वान तथा सुकवि होते हुए भी उनमें सज्जन सुलभ विनम्रता भी थी।

उनकी दानशीलता और विनम्रता से प्रभावित होकर गंग कवि ने एक बार उनसे यह दोहा कहा -
'सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचौं कियौं, त्यों-त्यों नीचे नैन।।'

खानखाना ने बड़ी सरलता से दोहे में ही उतर दिया -
'देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, तासों नीचे नैन।।'

रहीम के समान ऊँचे व्यक्ति ही यह उतर दे सकते हैं।

(साहित्य अमृत से)

jai_bhardwaj 09-05-2013 07:43 PM

Re: प्रेरक प्रसंग
 
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया। उसमें शिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे।

सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर हर्षाया। पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी। बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खड़ा।

कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया। सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया।

तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा। दोनों टकराए, गिरे, काँटे चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे।

हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये। धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये।

कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई। काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों को समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते।

अभी भी समय है... बड़े हो जाओ...
आदमीं बन जाओ।


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