'लापतागंज' के 'मामाजी'
‘बेड़ा गर्क तो पिताजी का होता था..’, ‘परेशान तो पिताजी करते थे..’ ऐसे अनोखे तकिया कलाम से ‘लापतागंज’ के मामा यानी अनूप उपाध्याय जहां दर्शकों की वाहवाही बटोर रहे हैं, वहीं ‘सब के अनोखे अवॉर्ड’ से पुरस्कृत भी हो चुके हैं। वर्षो से रंगमंच और टेलीविजन को समर्पित अनूप अपना सफर कुछ इस तरह बयान करते हैं :
बचपन और शिक्षा-दीक्षा मेरा जन्म बरेली (उ.प्र.) में हुआ। पिताजी रेलवे में सर्विस करते थे। इसके बाद अपने पुश्तैनी गांव गंज डुंडवारा (उ.प्र.) आ गया। बचपन बीता व शिक्षा-दीक्षा हुई। तीन भाइयों और दो बहनों के बीच मैं सबसे छोटा था। ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, मेरा रुझान नाच-गाने में बढ़ने लगा। स्कूली दिनों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। धीरे-धीरे मैंने शहर में होने वाले रामलीला और नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया। थिएटर की तरफ बढ़े कदम बीएससी की पढ़ाई के दौरान एक समाचार पत्र में छपे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के बारे में पढ़ा। पढ़कर उत्सुकता बढ़ी तो 1991 में दिल्ली आ गया। यहां मेरी मुलाकात हबीब तनवीर से हुई। उन्होंने अपने नाटक ग्रुप ‘नया थिएटर’ से मुझे जोड़ लिया। 1991 में इनके साथ जुड़कर ‘देख रहे हैं नैन’ नाटक किया, जो देश-विदेश में खूब सराहा गया। इसकी प्रस्तुति के लिए 1993 में लंदन और वहां से गिलास्को (स्कॉटलैंड) गया। हबीब तनवीर द्वारा ही निर्देशित ‘कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना’ में भी खूब सराहना मिली। खैर, 1997 में मुंबई आ गया। संघर्ष और सफलता मुंबई आकर साल भर काम की तलाश में दर-दर भटकता रहा। थिएटर का अनुभव ही मेरे काम आया। इसके दम पर ‘यूटीवी’ के शो ‘शांति’ में कामेश महादेवन के बचपन की भूमिका निभाने का मौका मिला। इसके बाद फिर साल-डेढ़ साल तक घर बैठना पड़ा। एक दिन मेरे मित्र मनोज संतोषी जी ने मेरी मुलाकात राजन वाघधरे से करवाई। उस दौरान वे सीरियल ‘यस बॉस’ निर्देशित कर रहे थे। मैंने इसमें 50-60 अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। इस धारावाहिक के असिस्टेंट डायरेक्टर शशांक बाली थे। उन्होंने ‘एफआईआर’ का निर्देशन शुरू किया और मुझे लगभग 350 भूमिकाएं निभाने का अवसर दिया। इस दौरान ‘वीर सावरकर’, ‘भूतनाथ’ आदि फिल्मों में भी अभिनय किया। एक दिन ‘लापतागंज’ के प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर अश्विनी धीर ने मुझे बुलाकर मामा का किरदार सुनाया। यह करेक्टर मेरे मन को भा गया। इसे करना शुरू किया तो देश-विदेश में बैठे दर्शकों के बीच खूब पसंद किया जाने लगा। संयोग से मिली जीवनसाथी मुंबई आकर हर तरह का सफर तय किया। शुरुआत में लोकल ट्रेन की हवा खाई तो उसके बाद मोटरसाइकिल खरीद ली। ईश्वर की कृपा है, अब चार पहिया वाहन से चलता हूं और यहां आशियाना भी बना लिया है। खैर, 2005 में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान दार्जिलिंग गया था। वह फिल्म नहीं चली तो उसका क्या जिक्र करना!लेकिन फिल्म के जरिए मेरी शादी जरूर हो गई। हुआ यह कि जिस होटल में रुके थे, वहां होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रही एक लड़की से मुलाकात हुई। शिक्षित,सभ्य और सुशील लगी तो शादी का ऑफर दे आए। मां-बाप को आकर बताया तो बात आगे बढ़ी और 2006 में शादी करके मुंबई ले आए। 2007 में एक कन्या की प्राप्ति हुई। |
Re: 'लापतागंज' के 'मामाजी'
वाह मामाजी......... |
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