युद्ध और शांति
युद्ध और शांति (रेडियो नाटक का एक अंश)
साभार: योगेन्द्र नागपाल लेव तोलस्तोय और उनके उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ को कौन नहीं जानता! उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में यह उपन्यास छपा था| प्रायः डेढ़ सौ साल बाद भी यह विश्व साहित्य की एक सबसे उत्तम रचना माना जाता है| इसी के आधार पर हमने आपके लिए एक रेडियो-नाटक माला तैयार की है| आज आप इसका पहला भाग सुनेंगे| इस उपन्यास की घटनाएं उन्नीसवीं सदी के आरम्भ की हैं जब फ्रांस का सम्राट नेपोलियन विश्व-विजेता बनने का अपना सपना पूरा करने निकला था औए यूरोप के सभी देशों को उसने युद्ध में घसीट लिया था| रूस भी इस विभीषिका से अछूता नहीं रहा था| तोल्स्तोय इस युद्ध के बारे में लिखते हैं: “क्या हाल था उन माताओं, पत्नियों और बच्चों का जिनके सगे लड़ने जा रहे थे; कैसे विलाप कर रहे थे जानेवाले और पीछे रहने वाले! लगता था मानवजाति यह भूल बैठी है कि हमारे सृजनहार परमेश्वर ने तो हमें प्रेम की शिक्षा दी है, दूसरों को क्षमा करना सिखाया है, लगता था कि इसके बिलकुल विपरीत मनुष्य एक दूसरे की हत्या की कला को ही अपना परम गुण मान बैठा है|” |
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तोलस्तोय के लिए युद्ध का अर्थ रणभूमि में होने वाली टक्कर मात्र ही नहीं है| अपने उपन्यास के पात्रों के साथ वह मानव-अस्तित्व का गूढ़ अर्थ खोजते हैं| इस उपन्यास का एक प्रमुख पात्र है प्रिंस आंद्रेई बोल्कोंस्की - कुलीन घराने का महत्वाकांक्षी नौजवान| उसके जीवन का आदर्श है नेपोलियन – एक मामूली घर में जन्मा अफसर, न कोई ऊंची जात, न पात फिर भी अपने साहस के बल पर सम्राट बन गया है| क्या हस्ती है, पूरे-पूरे देशों और जनगण के भाग्य का फैसला कर रहा है - प्रिंस आंद्रेई उस पर विमुग्ध है, मन ही मन ऐसा ही बनने का सपना देखता है और स्वयं सेना में भरती होकर रणभूमि में पहुंच जाता है|... यहां क्या होता है, इसी का वर्णन आप इस अंश में पाएंगे|
एक ओर रूसी-आस्ट्रियाई सेना है और दूसरी ओर फ्रांसीसी सेना| 5 दिसंबर 1805 को ऑस्टरलिट्ज़ के मैदान में उनके बीच पहला मुकाबला होता है| निर्णायक मुठभेड़ से पहले की रात को कोहरा छाया हुआ था, कोहरे से छानकर आती चांदनी रहस्यमय लग रही थी| |
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“बस, कल! कल! मेरा मन कहता है कल मैं सब दिखा दूंगा, क्या कुछ कर सकता हूं मैं|”
उसकी कल्पना में उभरता है रणभूमि का दृश्य – सभी सेनापति असमंजस में फंसे हुए हैं| बस इस क्षण की ही तो उसे कब से प्रतीक्षा थी - आ गया वह सौभाग्यशाली क्षण! वह दृढ़ स्वर में, स्पष्ट शब्दों में प्रधान सेनापति के सामने अपने विचार रखता है| सभी चकित हैं कि उसकी बातें कितनी सटीक हैं, किंतु कोई भी उन पर अमल करने को तैयार नहीं है| तो फिर वह अकेला ही पूरी डिविज़न को हमले में ले जाता है और अकेला ही विजय पाता है| अगली लड़ाई भी वह अकेला ही जीत लेता है|उसे प्रधान सेनापति का पद सौंपा जाता है| “फिर आगे?” वह अपने आप से पूछता है और स्वयं ही उत्तर देता है: “मैं नहीं जानता, आगे क्या होगा, न जान सकता हूं, न जानना चाहता हूं; पर मैं यश पाना चाहता हूं, इसी की खातिर जी रहा हूं| हे परमात्मा! क्या करूं मैं, मुझे बस यश चाहिए! मेरे पिता, बहन, पत्नी – सभी बहुत प्यारे हैं मुझे, किंतु यश के एक पल की खातिर मैं सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हूं| कितनी भयानक, कितनी अस्वाभाविक है यह बात, पर यही सच्चाई है, मैं सभी लोगों पर विजय पाना, सबसे ऊपर उठना चाहता हूं!” |
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... सुबह जब कोहरा छंटने लगा तो अचानक रूसी कमान चौकी से लगभग सवा मील दूर फ्रांसीसी सैनिक नज़र आए|जनरलों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं|
“क्या? दुश्मन? नहीं-नहीं! देखिए-देखिए! वही है! शायद...क्या है यह सब?” घबराती आवाजें सुनाई दीं| “बस, आ गया निर्णायक क्षण! यही है मेरा दायित्व!” प्रिंस आंद्रेई ने सोचा और घोड़े को चाबुक मारकर प्रधान सेनापति के पास जा पहुंचा|“रोकना चाहिए इन फ्रांसीसियों को, महामहिम!” वह चिल्लाया| ऐन उसी क्षण चारों ओर धुंआ फ़ैल गया, पास ही कहीं गोलियां चलीं और भयभीत भोली आवाज़ में कोई चिल्लाया: “लो भैया, हो गया काम तमाम!” यह आवाज़ मानो कोई आदेश थी| सब भागने लगे| लड़ाई के मैदान में भगदड़ मच गई, पैदल, घुड़सवार, तोपची सभी की मिली-जुली भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी| इस भीड़ को न केवल रोकना असंभव था, खुद अपने को भी इसके साथ भागने से रोक पाना नामुमकिन था| एक बार भीड़ में फंस जाने पर उससे अलग हो पाना मुश्किल था| कोई चिल्ला रहा था: “अबे, चल! क्या खड़ा है?” कोई दौड़ते-दौड़ते पीछे मुड़कर हवा में गोलियाँ दाग रहा था; कोई प्रधान सेनापति के घोड़े को ही चाबुक मार रहा था| “रोको इन कमबख्तों को!” भागते सिपाहियों की ओर इशारा करते हुए प्रधान सेनापति उखड़ती आवाज़ में चिल्लाए| पर ऐन उसी क्षण सनसनाती गोलियां चिड़ियों के झुंड की तरह बगल से गुज़रीं| फ्रांसीसी सेना तोप बैटरी पर हमला कर रही थी, प्रधान सेनापति को देखकर उनकी दिशा में गोलिया दाग दीं| कुछ जवान ढह गए, झंडा लिए खड़े अफसर के हाथ से झंडा छूट गया और डगमगा कर गिरने लगा, बगल में खड़े सिपाहियों की संगीनों पर थम गया| शर्म और गुस्से से भावाभीभूत प्रिंस आंद्रेई का गला रुंध आया था, वह घोड़े से उतरकर झंडे की ओर दौड़ रहा था| “आ गया वक्त!” झंडे का डंडा पकड़ते हुए उसके दिमाग में यह विचार कौंधा, गोलियों की सनसनाहट उसके मन में उत्साह भर रही थी| ये गोलियां प्रत्यक्षतः उसी पर चलाई जा रही थीं| “चलो, जवानो!” बालकों की खनकती आवाज़ में प्रिंस आंद्रेई चिल्लाया| “हुर्रा!” प्रिंस आंद्रेई ने हुंकारा भरा और आगे दौड़ चला, भारी झंडे को वह मुश्किल से संभाल पा रहा था| रती आवाज़ें उसे सुनाई दीं| उसने आंखें खोलीं| उसके ऊपर फिर वही ऊंचा आकाशथा, तिरते बादल और भी ऊपर चले गए थे और उनके पार फ़ैली हुई थी निस्सीम नीलिमा| यह था युद्ध और शांति उपन्यास पर आधारित रेडियो-नाटक का पहला भाग | |
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