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rafik 01-09-2014 03:42 PM

प्रेरणादायी जीवन
 
ऐल्बर्ट आइंस्टाइन का प्रेरणादायी जीवन




http://www.achhikhabar.com/wp-conten...150.jpg?368445
Albert Einstein
सबसे पीछे रहने वाले एक बालक ने अपने गुरु से पूछा ‘श्रीमान मैं अपनी बुद्धी का विकास कैसे कर सकता हूँ?’
अध्यापक ने कहा – अभ्यास ही सफलता का मूलमंत्र है।
उस बालक ने इसे अपना गुरु मंत्र मान लिया और निश्चय किया कि अभ्यास के बल पर ही मैं एक दिन सबसे आगे बढकर दिखाऊँगा। बाल्यकाल से अध्यापकों द्वारा मंद बुद्धी और अयोग्य कहा जाने वाला ये बालक अपने अभ्यास के बल पर ही विश्व में आज सम्मान के साथ जाना जाता है। इस बालक को दुनिया आइंस्टाइन के नाम से जानती है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी मेहनत, हिम्मत और लगन से सफलता प्राप्त कर सकता है।
आइंस्टाइन का जन्म 14 मार्च 1879 को जर्मनी के यूम (Ulm) नगर में हुआ था। बचपन में उन्हे अपनी मंदबुद्धी बहुत अखरती थी। आगे बढने की चाह हमेशा उनपर हावी रहती थी। पढने में मन नहीं लगता था फिर भी किताब हाँथ से नहीं छोङते थे, मन को समझाते और वापस पढने लगते। कुछ ही समय में अभ्यास का सकारात्मक परिणाम दिखाई देने लगा। शिक्षक भी इस विकास से दंग रह गये। गुरु मंत्र के आधार पर ही आइंस्टाइन अपनी विद्या संपदा को बढाने में सफल रहे। आगे चल कर उन्होने अध्ययन के लिये गणित जैसे जटिल विषय को चुना। उनकी योग्यता का असर इस तरह हुआ कि जब कोई सवाल अध्यापक हल नहीं कर पाते तो वे आइंस्टाइन की मदद लेते थे।
http://www.achhikhabar.com/2013/07/1...aphy-in-hindi/

rafik 01-09-2014 03:44 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
ऐल्बर्ट आइंस्टाइन का प्रेरणादायी जीवन



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Albert Einstein
गुरु मंत्र को गाँठ बाँध कर आइंस्टाइन सफलता की सीढी चढते रहे। आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से आगे की पढाई में थोङी समस्या हुई। परन्तु लगन के पक्के आइंस्टाइन को ये समस्या निराश न कर सकी। उन्होने ज्युरिक पॉलिटेक्निक कॉलेज में दाखिला ले लिया। शौक मौज पर वे एक पैसा भी खर्च नहीं करते थे, फिर भी दाखिले के बाद अपने खर्चे को और कम कर दिये थे। उनकी मितव्ययता का एक किस्सा आप सभी से साझा कर रहे हैं।
“ एक बार बहुत तेज बारिश हो रही थी। अल्बर्ट आइंस्टीन अपनी हैट को बगल में दबाए जल्दी-जल्दी घर जा रहे थे। छाता न होने के कारण भीग गये थे। रास्ते में एक सज्जन ने उनसे पूछा कि – “ भाई! तेज बारिश हो रही है, हैट से सिर को ढकने के बजाय तुम उसे कोट में दबाकर चले जा रहे हो। क्या तुम्हारा सिर नहीं भीग रहा है?
आइंस्टीन ने कहा –“भीग तो रहा है परन्तु बाद में सूख जायेगा, लेकिन हैट गीला हुआ तो खराब हो जायेगा। नया हैट खरीदने के लिए न तो मेरे पास न तो पैसे हैं और न ही समय।“
मित्रों, आज जहाँ अधिकांश लोग अपनी कृतिम और भौतिक आवश्यकताओं पर ही ध्यान देते रहते हैं, वे चाहें तो समाज या देश के लिये क्या त्याग कर सकते है,सीमित साधन में भी संसार में महान कार्य किया ज सकता है। आइंस्टीन इसका जीवंत उदाहरण हैं।
ज्युरिक कॉलेज में अपनी कुशाग्र बुद्धी जिसे उन्होने अभ्यास के द्वारा अर्जित किया था, के बल पर जल्दी ही वहाँ के अध्यापकों को प्रभावित कर सके। एक अध्यापक ‘मिकोत्सी’ उनकी स्थीति जानकर आर्थिक मदद भी प्रारंभ कर दिये थे। शिक्षा पूरी होने पर नौकरी के लिये थोङा भटकना पङा तब भी वे निराशा को कभी पास भी फटकने नहीं दिये। बचपन में उनके माता-पिता द्वारा मिली शिक्षा ने उनका मनोबल हमेशा बनाए रखा। उन्होने सिखाया था कि – “एक अज्ञात शक्ति जिसे ईश्वर कहते हैं, संकट के समय उस पर विश्वास करने वाले लोगों की अद्भुत सहायता करती है।“

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rafik 01-09-2014 03:48 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
ऐल्बर्ट आइंस्टाइन का प्रेरणादायी जीवन


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Albert Einstein
गुरु का दिया मंत्र और प्रथम गुरु माता-पिता की शिक्षा, आइंस्टीन को प्रतिकूल परिस्थिती में भी आगे बढने के लिये प्रेरित करती रही। उनके विचारों ने एक नई खोज को जन्म दिया जिसे सापेक्षतावाद का सिद्धान्त (Theory of Relativity; E=mc^2) कहते हैं। इस सिद्धानत का प्रकाशन उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका “आनलोन डेर फिजिक” में हुआ। पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों और बुद्धीजीवियों पर इस लेख का बहुत गहरा असर हुआ। एक ही रात में आइंस्टीन विश्वविख्यात हो गये। जिन संस्थाओं ने उन्हे अयोग्य कहकर साधारण सी नौकरी देने से मना कर दिया था वे संस्थाएं उन्हे निमंत्रित करने लगी। ज्युरिक विश्वविद्यालय से भी निमंत्रण मिला जहाँ उन्होने अध्यापक का पद स्वीकार कर लिया।
आइंसटाइन ने सापेक्षता के विशेष और सामान्य सिद्धांत सहित कई योगदान दिए। उनके अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीक्रीत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। सन् 1919 में इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी ने सभी शोधों को सत्य घोषित कर दिया था। जर्मनी में जब हिटलरशाही का युग आया तो इसका प्रकोप आइंस्टाइन पर भी हुआ और यहूदी होने के नाते उन्हे जर्मनी छोङकर अमेरीका के न्यूजर्सी में जाकर रहना पङा। वहाँ के प्रिस्टन कॉलेज में अंत समय तक अपनी सेवाएं देते रहे , और 18 अप्रैल 1955 को स्वर्ग सिधार गए .
ईश्वर के प्रति उनकी अगाध आस्था और प्राथमिक पाठशाला में अध्यापक द्वारा प्राप्त गुरु मंत्र को उन्होने सिद्ध कर दिया। उनका जीवन मानव जाति की चीर संपदा बन गया। उनकी महान विशेषताओं को संसार कभी भी भुला नहीं सकता।
हम इस महान वैज्ञानिक को शत-शत नमन करते हैं.

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rafik 18-09-2014 10:48 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
सपने वे नहीं होते, जो सोते समय दिखते हों, बल्कि सपने तो वे होते हैं, जो इंसान को सोने न दे। सोते समय देखा जाने वाला सपना तो हमें याद भी नहीं रहता। पर जो सपने जागी आंखों से देखे जाते हैं, वे न केवल हमें याद रहते हैं, बल्कि वे हमें सोने ही नहीं देते। सपने वही सच्चे होते हैं, जिसे हमने जागी आंखों से देखा है। जिन्हें सपने सोने नहीं देते, वे महान होते हैं या फिर बन जाते हैं। सपने, दरअसल, हमें बताते हैं कि जिंदगी कैसी होनी चाहिए? प्रगति के पथ पर हमारी न्यूनतम उपलब्धियाँ क्या होनी चाहिए ? असल में हर सफलता का मार्ग सपना देखने से प्रारंभ होता है। हर व्यक्ति सपने में वह देखता है, जो वह वर्तमान में नहीं है, किन्तु भविष्य में अवश्य होना चाहेगा।हर बच्चा सपना देखता है कि आनेवाले कल में वह डाॅक्टर बनेगा, इंजीनियर बनेगा या अपना स्वतंत्र व्यवसाय करेगा। यह सपना उसकी भावी जिंदगी को और उसके प्रयासों को स्वतः वांछित पथ पर डाल देता है। बच्चे के कदम ख़ुद-ब-ख़ुद उस दिशा को पकड़ने लगते हैं।

डा. महेश परिमल

http://www.achhikhabar.com/wp-conten...mal.jpg?03ddc4
संक्षिप्त परिचय : छत्तीसगढ़ की सौंधी माटी में जन्मे महेश परमार ‘परिमल’ मूलत: एक लेखक हैं। बचपन से ही पढ़ने के शौक ने युवावस्था में लेखक बना दिया। आजीविका के रूप में पत्रकारिता को अपनाने के बाद लेखनकार्य जीवंत हो उठा। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसके सपने कभी उसकी पलकों में कैद नहीं हुए, बल्कि पलकों पर तैरते रहे और तैरते-तैरते किनारों को अपनी एक पहचान दे ही दी। आज लेखन की दुनिया का इनका भी एक जाना-पहचाना नाम है।
भाषाविज्ञान में पी-एच.डी. का गौरव प्राप्त। अब तक सम-सामयिक विषयों पर एक हजार से अधिक आलेखों का प्रकाशन। आकाशवाणी के लिए फीचर-लेखन, दूरदर्शन के कई समीक्षात्मक कार्यक्रमों की सहभागिता। पाठच्यपुस्तक लेखन में भाषा विशेषज्ञ के रूप में शामिल। विश्वविद्याल स्तर पर अंशकालीन अध्यापन। अब तक दो किताबों का प्रकाशन। पहली ‘लिखो पाती प्यार भरी’ को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत कुमार स्मृति पुरस्कार, दूसरी किताब ‘अनदेखा सच’ को पाठकों ने विशेष रूप से सराहा।


soni pushpa 18-09-2014 05:36 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
छत्तीसगढ़ की मिटटी एक ऐसी पावन धरती है. जहाँ अपनी हिंदी का साम्राज्य तो है ही, साथ ही लोगो में एक अपनापन है और साहित्य के प्रति एक अनोखा लगाव देखने को मिलता है बहुत अच्छा लगा bhai इस लेख को पढ़कर ...

Dr.Shree Vijay 18-09-2014 10:53 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 

बेहतरीन शुरुआत.........


soni pushpa 22-09-2014 12:46 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
बहुत समझने योग्य सूत्र है .. बहुत बहुत धन्यवाद bhai ..[/QUOTE]

rafik 22-09-2014 11:49 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
Quote:

Originally Posted by soni pushpa (Post 528625)
बहुत समझने योग्य सूत्र है .. बहुत बहुत धन्यवाद bhai ..

:thanks::thanks::thanks:

Pavitra 23-09-2014 11:31 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
:bravo:
बहुत ही अच्छा सूत्र।
आशा है कि आगे भी ऐसे ही प्रेरणादायक व्यक्तित्वों के बारे में जानने को मिलेगा जिससे हम भी जीवन में सफलता के पथ पर आगे बढ़ सकेंगे।

rafik 24-09-2014 01:27 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
Quote:

Originally Posted by Pavitra (Post 528973)
:bravo:
बहुत ही अच्छा सूत्र।
आशा है कि आगे भी ऐसे ही प्रेरणादायक व्यक्तित्वों के बारे में जानने को मिलेगा जिससे हम भी जीवन में सफलता के पथ पर आगे बढ़ सकेंगे।

:thanks::thanks:

rafik 24-09-2014 04:32 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
महान वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा

आज भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है। देश को इस राह पर लाने का श्रेय होमी जहाँगीर भाभा को जाता है। उनका जन्म 30 अक्टुबर 1909 को मुम्बई में हुआ था। उनके पिता जहाँगीर भाभा ने ऑक्सफोर्ड से शिक्षा पाई थी। वे जानेमाने वकील थे। पारसी कुल के जहाँगीर भाभा टाटा इंटरप्राइजेज के लिए भी काम किये थे। होमी की माता भी उच्च घराने की थीं और पितामह (दादा जी) मैसूर राज्य के उच्च शिक्षा अधिकारी थे। बालक होमी को नींद बहुत कम आती थी, डॉ. के अनुसार कम नींद आना कोई बिमारी न थी बल्की तीव्र बुद्धी के कारण विचारों के प्रवाह की वजह से कम नींद आती थी। होमी के लिए पुस्तकालय की व्यवस्था घर पर ही कर दी गई थी। जहाँ वे विज्ञान तथा अन्य विषयों से संबन्धित पुस्तकों का अध्ययन करते थे।

भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक होमी की प्रारंभिक शिक्षा कैथरैडल स्कूल में हुई और आगे की शिक्षा के लिए जॉन केनन में पढने गये। विलक्षण बुद्धी के धनी होमी जहाँगीर भाभा ने मात्र 15 वर्ष की आयु में आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धान्त पढ लिया था। भौतिक शास्त्र में उनकी अत्यधिक रुची थी। गणित भी उनका प्रिय विषय था। एलफिस्टन कॉलेज से 12वीं पास करने के बाद कैम्ब्रिज में पढने गये और 1930 में मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री हासिल किये। अध्ययन के दौरान तेज बुद्धी के कारण उन्हे लगातार छात्रवृत्ती मिलती रही। 1934 में उन्होने पीएचडी की डिग्री हासिल की, इसी दौरान होमी भाभा को आइजेक न्यूटन फेलोशिप मिली। होमी भाभा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक रुदरफोर्ड, डेराक, तथा नील्सबेग के साथ काम करने का अवसर मिला था।

होमी भाभा ने कॉस्केटथ्योरी ऑफ इलेक्ट्रान का प्रतिपादन करने साथ ही कॉस्मिक किरणों पर भी काम किया जो पृथ्वी की ओर आते हुए वायुमंडल में प्रवेश करती है। उन्होने कॉस्मिक किरणों की जटिलता को सरल किया। दूसरे विश्वयुद्ध के प्रारंभ में होमी भारत वापस आ गये। उस समय तक होमी भाभा विश्व ख्याती प्राप्त कर चुके थे, यदि चाहते तो किसी भी देश में उच्च पद पर कार्य करके अच्छा वेतन पा सकते थे। परन्तु उन्होने मातृभूमी के लिए कार्य करने का निश्चय किया। 1940 में भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलौर में सैद्धान्तिक रीडर पद पर नियुक्त हुए। उन्होने कॉस्मिक किरणों की खोज के लिए एक अलग विभाग की स्थापना की। 1941 में मात्र 31 वर्ष की आयु में आपको रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुना गया था। नोबल पुरस्कार विजेता प्रो. सी.वी. रमन भी होमी भाभा से प्रभावित थे।

शास्त्रिय संगीत, मूर्तीकला तथा नित्य आदि क्षेत्रों के विषयों पर भी आपकी अच्छी पकङ थी। वे आधुनिक चित्रकारों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके चित्रों को खरीद कर टॉम्ब्रे स्थित संस्थान में सजाते थे। संगीत कार्यक्रमों में सदैव हिस्सा लेते थे और कला के दूसरे पक्ष पर भी पूरे अधिकार से बोलते थे, जितना कि विज्ञान पर। उनका मानना था कि सिर्फ विज्ञान ही देश को उन्नती के पथ पर ले जा सकता हैं।

होमी भाभा ने टाटा को एक संस्थान खोलने के लिए प्रेरित किया। टाटा के सहयोग से होमी भाभा का परमाणु शक्ति से बिजली बनाने का सपना साकार हुआ। भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने की महात्वाकांक्षा मूर्तरूप लेने लगी, जिसमें भारत सरकार तथा तत्कालीन मुम्बई सरकार का पूरा सहयोग मिला। नव गठित टाटा इन्सट्यूट ऑफ फण्डामेंटल रिसर्च के वे महानिदेशक बने। उस समय विश्व में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने वाले कम ही देश थे। जब हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा तब सारी दुनिया को परमाणु शक्ति का पता चला। होमी भाभा और जे.आर.डी. टाटा दोनो ही दूरदर्शी थे, उन्होने केन्द्र को आगे बढाया। इस केन्द्र में पाँच विभाग शुरू किया गया भौतिकी, अभियांत्रिक, धात्विक, इलेक्ट्रॉनिक और जीवविज्ञान। भाभा परमाणु शक्ति के खतरे से भी वाकिफ थे अतः उन्होने वहाँ एक चिकित्सा विभाग तथा विकिरण सुरक्षा विभाग भी खोला। प्रकृति प्रेमी होमी भाभा के प्रयासों से टाम्ब्रे संस्थान निरस वैज्ञानिक संस्थान नही था वहाँ चारो ओर हरे भरे पेङ-पौधे तथा फलदार वृक्ष संस्था को मनोरमता प्रदान करते हैं।

होमी भाभा का उद्देश्य था कि भारत को बिना बाहरी सहायता से परमाणु शक्ति संपन्न बनाना। मेहनती और सक्रिय लोगों को पसंद करने वाले होमी भाभा अंर्तराष्ट्रीय मंचो पर अणुशक्ति की शान्ती पर बल देते थे। वे मित्र बनाने में भी उदार थे। निजी प्रतिष्ठा की लालसा उनके मन में बिलकुल न थी, एक बार केन्द्रिय मंत्रीमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव मिला किन्तु उन्होने नम्रतापूर्ण प्रस्ताव को अस्विकार कर दिया। मंत्री पद के वैभव से ज्यादा प्यार उन्हे विज्ञान से था।

rafik 24-09-2014 04:44 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
महान वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा

1955 में होमी भाभ जिनेवा में आयोजित एक सम्मेलन में भाग लेने गये थे, वहां कनाडा ने भारत को परमाणु रिएक्टर बनाने में सहयोग देने का प्रस्ताव दिया। जिसको उचित समझते हुए भाभा वहीं से तार भेजकर पं. जवाहर लाल से अनुमति माँगे, नेहरु जी ने समझौते की अनुमति दे दी तब कनाडा के सहयोग से सायरस परियोजना प्रारंभ हुई। इसके पहले भारत ने पहले रिएक्टर निमार्ण का कार्य शुरू कर दिया था। 6 अगस्त 1956 को इसने कार्य़ करना प्रारंभ कर दिया था जिसके लिए ईधन ब्रिटेन ने दिया था। इस रिएक्टर का उपयोग न्यूट्रॉन भौतिकी, विकिरण, प्राणीशास्त्र, रसायन शास्त्र और रेडियो आइसोटोप के निर्माण में किया जाने लगा। सायरस परियोजना 1960 में तथा जेरिलिना परियोजना 1961 में पूरी हुई। 1200 इंजिनियरों और कुशल कारीगरों ने दिन-रात इसमें काम किया। कार्य पूरा होने पर भारत का इस क्षेत्र में आत्मविश्वास बढा। रिएक्टरों के निर्माण से देश में परमाणु शक्ति से चलने वाले विद्युत संयत्रों की परियोजना का मार्ग प्रश्सत हुआ। तारापुर अणुशक्ति केन्द्र से बिजली का उत्पादन होने लगा बाद में दो अन्य केन्द्र राजस्थान में राणाप्रताप सागर तथा तमिलनाडु में कल्पकम में स्थापित किये गये। ये सभी डॉ. भाभा के प्रयासों का ही परिणाम था। भाभा विदेशी यूरेनियम पर निर्भर नही रहना चाहते थे। वे स्वदेशी थोरियम, स्वदेशी प्लेटोरेनियम आदि का उपयोग बनाना चाहते थे। विश्व में थोरियम का सबसे बङा भंडार भारत में है। केरल के तट पर स्थित मोनेजाइट बालू को संसोधित करके थोरियम और फॉस्फेट को अलग-अलग करना प्रारंभ कर दिया गया। थाम्ब्रे में अपरिष्कृत थोरियम को हाइड्रोआक्साइड तथा यूरेनियम के संसाधन के लिए संयत्र लगाया गया।

डॉ. होमी जहाँगीर भाभा के प्रयासों का ही परिणाम है कि कृषि उद्योग और औषधी उद्योग तथा प्राणीशास्त्र के लिए आवश्यक लगभग 205 रेडियो आइसोटोप आज देश में उपलब्ध हैं। भाभा ने जल्दी नष्ट होने वाले खाद्य पदार्थों जैसे- मछली, फल, वनस्पति आदि को जीवाणुओं से बचाने के लिए विकिरण के प्रभाव को इस्तेमाल करने की उच्च प्राथमिकता दी और इस दिशा में शोध किया। बीजों के शुद्धीकरण पर भी जोर दिये ताकि अधिक से अधिक उच्च कोटी का अन्न उत्पादन किया जा सके। भूगर्भीय विस्फोटों तथा भूकंपो के प्रभावों का अध्यनन करने के लिए एक केन्द्र बंगलौर से 80 किलोमिटर दूर खोला गया। विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने के लिए उन्होने भारतीय वैज्ञानिकों को भारत वापस आने का आह्वान किया। उनके बुलाने पर कई वैज्ञानिक भारत आए। डॉ.भाभा को वैज्ञानिकों की परख थी, उन्होने चुन-चुन कर कुशल वैज्ञानिकों को टॉम्ब्रे तथा अन्य संस्थानो में योगयता अनुसार पद तथा अनेक सुविधाएं दिलवाई। उन्होने योग्य और कुशल वैज्ञानिकों का एक संगठन बना लिया था। लालफिताशाही से उन्हे सख्त चिढ थी तथा किसी की मृत्यु पर काम बन्द करने के वे सख्त खिलाफ थे। उनके अनुसार कङी मेहनत ही सच्ची श्रद्धांजलि है।

जिनेवा में शान्ति के लिए अणु गोष्ठी में डॉ. होमी भाभा को सभापति बनाया गया। वहाँ पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक इस बात का प्रचार कर रहे थे कि अल्पविकसित राष्ट्रों को पहले औद्योगिक विकास करना चाहिए तब परमाणु शक्ति के पीछे भागना चाहिये । भाभा ने इसका जोरदार खण्डन किया। और कहा कि अल्प विकसित राष्ट्र इसका प्रयोग शान्ति पूर्वक तथा औद्योगिक विकास के लिए कर सकते हैं।

सृजनता को जीवन साथी मानने वाले भाभा आजीवन अविवाहित रहे। उन्होने नाभकीय भौतिकी में महत्वपूर्ण काम किये तथा मेहसाण नामक प्राथमिक तत्व की खोज करने वाले डॉ. भाभा संयुक्त राष्ट्रसंघ और अंर्तराष्ट्रिय अणु शक्ति के कई वैज्ञानिक सलाहाकर मंडलों के सदस्य भी थे। देशभक्त होमी भाभा केवल अपने केन्द्र तक ही सीमित न थे, उन्होने अन्य विज्ञान संस्थानो की भी हर तरह से सहायता की।

अपनी प्रतिभा और विज्ञान की नई उपलब्धियों से उन्हे अनेक सम्मान से सम्मानित किया गया था। 1941 में उन्हे रॉयल सोसाइटी ने फैलो निर्वाचित किया। उस समय उनकी आयु मात्र 31 वर्ष की थी। 1943 में एडम्स पुरस्कार, 1948 में हॉपकिन्स पुरस्कार से सम्मानित होमी भाभा को अनेक विश्व विद्यालयों ने डॉ. ऑफ सांइस जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया। 1959 में ये उपाधी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने भी प्रदान की। 1954 में भारत के राष्ट्रपति ने डॉ. भाभा को पद्मभूषण से अलंकृत किया। होमी भाभा की तीन पुस्तकें क्वांम्टम थ्योरी, एलिमेंट्री फिजीकल पार्टिकल्स एवं कॉस्मिक रेडियेशन बहुत चर्चित पुस्तके हैं।

24 जनवरी 1966 को जब वे अर्तंराष्ट्रीय परिषद में शान्ति मिशन के लिए भाग लेने जा रहे थे तो उन्हे ले जाने वाला बोइंग विमान 707 कंचन जंघा बर्फीले तुफान में उलझकर गिर गया। जिससे भारत माता का स्वप्नद्रष्टा महान पुत्र आकस्मिक इह लोक छोङकर परलोक सिधार गया। उनके सिद्धान्तो को अपनाते हुए टॉम्ब्रे के वैज्ञानिकों ने इस असहनीय दुःख को सहते हुए पूरे दिन परिश्रम पूर्ण कार्य करके उन्हे सच्ची श्रधांजली दी। भारत सरकार ने 12 जनवरी 1967 को टॉम्ब्रे संस्थान का नामकरण उनके नाम पर यानि की भाभा अनुसंधान केन्द्र कर दिया। डॉ. होमी भाभा असमय चले गये किन्तु उनका सपना साकार हो गया, 1974 में भारत पूर्ण परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बन गया।

असाधारण प्रतिभा के धनि होमी भाभा सिर्फ सपने देखने में ही विश्वास नही करते थे, बल्की उन्हे पूरा करने में जुट जाते थे। उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि आज भारत परमाणु सम्पन्न राष्ट्र की श्रेणी में गिना जाता है। डॉ. भाभा उदार विचार धारा के थे, उनके व्यवहार में मानवियता की झलक सदैव दृष्टीगोचर होती थी। मित्र बनाने में अग्रणी होमी भाभा लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं को भी हल करने में सहयोग देते थे। डॉ. भाभा का प्रयास न सिर्फ भारत के लिए बल्की सभी विकासशील देशों के लिए मूल्यवान है। भारत उनके योगदान का सदैव ऋणी रहेगा। भारत देश को सर्वश्रेष्ठ बनाने की उनकी सोच सदा वंदनीय है। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा की सृजनता तथा मृदुल व्यवहार को शत्-शत् नमन करते हैं।

rajnish manga 25-09-2014 05:33 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
महान वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा

परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को विकसित देशों के समकक्ष ले जाने के लिए डॉ भाभा की सेवाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता. उनके जीवन और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए आपका धन्यवाद, रफीक जी.

soni pushpa 29-09-2014 11:46 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
awww... बहुत अच्छी जानकारी ..... थैंक्स भाई

rafik 29-09-2014 01:09 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
विज्ञान की अमर विभूति सर जगदीश चंद्र बसु



पेङ पौधौं से संबन्धित सवालों की जिज्ञासा बचपन से लिए, धार्मिक वातावरण में पले, जिज्ञासु जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवंबर, 1858 को बिक्रमपुर हुआ था, जो अब ढाका , बांग्लादेश का हिस्सा है । आपके पिता श्री भगवान सिंह बसु डिप्टी कलेक्टर थे। उस दौर में अफसर लोग अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढाकर अफसर बनाना चाहते थे। परन्तु पिता श्री भगवान सिंह बसु अपने बेटे को अफसर नही बल्की सच्चा देश सेवक बनाना चाहते थे। इसलिए जगदीशचंद्र बसु को पास के स्कूल में दाखिला दिला दिया गया, वहाँ अधिकतर किसानों और मछुवारों के बच्चे पढते थे। वे पढाई भी करते थे, साथ-साथ खेती और दूसरे कामों में अपने घर वालों का हाँथ भी बँटाते थे। उन बच्चों के साथ रहकर बसु ने जीवन की वास्तविक शिक्षा को अपनाया। वहीं उन्हे शारीरिक श्रम करने की प्रेरणा मिली। सबको समान समझने की भावना पैदा हुई, मातृभाषा से प्रेम भी हो गया।
पेङ-पौधों के बारे में जब उनके सवालों का उत्तर बचपन में स्पष्ट नही मिला तो वे बङे होने पर उनकी खोज में लग गये। बचपन के प्रश्न जैसेः- माँ पेङ के पत्ते तोङने से क्यों रोकती थी? रात को उनके नीचे जाने से क्यों रोकती थी? अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण आगे चलकर उन्होंने अपनी खोजों से पूरे संसार को चकित कर दिया।
लंदन से रसायन शास्त्र और वनस्पति शास्त्र में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात भारत वापस आ गये। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी विज्ञान के अध्यापक बने। कॉलेज में उस समय अधिकतर अंग्रेज शिक्षक ही थे। प्रिंसीपल भी अंग्रेज थे। वहाँ भारतियों के साथ भेदभाव बरता जाता था। समान कार्य हेतु अंग्रेजों के मुकाबले भारतीयों को कम वेतन दिया जाता था। बचपन से ही उन्होने अपने देश और जाति के स्वाभिमान को समझा था अतः उन्होने इस अन्याय का डटकर सामना किया। भारतियों को कम वेतन देने का कारण ये भी था कि उन्हे विज्ञान की पढाई के योग्य नही समझा जाता था।

rafik 29-09-2014 01:11 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
विज्ञान की अमर विभूति सर जगदीश चंद्र बसु

जगदीश चंद्र बसु के विरोध जताने पर वहाँ के प्रिंसिपल ने उनका वेतन और कम कर दिया, जिसे बसु ने लेने से इंकार कर दिया। बगैर वेतन के वे अपना काम करते रहे। आर्थिक तंगी के कारण उन्हे अनेक परेशानियों का सामना करना पङा किन्तु वे धैर्य के साथ अपनी बात पर अङे रहे। परिणाम स्वरूप उन्हे उनके स्वाभीमान का उचित फल मिला। उनकी ढृणता के आगे कॉलेज वालों को झुकना पङा। वे अन्य भारतियों को भी पूरा वेतन देने को तैयार हो गये। जगदीशचंद्र बसु की नौकरी भी पक्की कर दी गई तथा उनका बकाया वेतन भी उन्हे मिल गया।
बसु पढाने के बाद अपना शेष समय वैज्ञानिक प्रयोग में लगाते थे। उन्होने ऐसे यंत्रो का आविष्कार किया जिससे बिना तार के संदेश भेजा जा सकता था। उनके इसी प्रयोग के आधार पर आज के रेडियो काम करते हैं। जगदीशचंद्र बसु ही बेतार के तार के वास्तविक आविष्कारक हैं परंतु परिस्थिति वश इसका श्रेय उन्हे नही मिल सका।
बसु हार मानने वाले इंसान नही थे, उन्होने पेङ-पौधों पर अध्यन करना शुरु किया वैसे भी इसमें तो उनकी बचपन से जिज्ञासा थी। पेङ-पौधों पर की गई खोज उनके लिए वरदान सिद्ध हुई। उनकी खोज ने ये सिद्ध कर दिया कि पौधे भी सजीवों के समान सांस लेते हैं, सोते जागते हैं और उन पर भी सुख-दुख का असर होता है। उन्होने ऐसा यंत्र बनाया, जिससे पेङ-पौधों की गति अपने आप लिखी जाती थी।इस यंत्र को क्रेस्कोग्राफ (crescograph) कहा जाता है । लंदन स्थित रॉयल सोसाइटी ने उनके आविष्कार को एक अद्भुत खोज कहा और उन्हे रॉयल सोसाइटी का सदस्य भी मनोनित कर लिया।

rafik 29-09-2014 01:12 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
विज्ञान की अमर विभूति सर जगदीश चंद्र बसु

इसी खोज को प्रदर्शित करते समय उनके साथ बहुत ही मजेदार घटना घटी। पेरिस में उन्हे पौधों पर तरह-तरह के जहरों का असर दिखाना था। उन्होने एक पौधे पर पोटेशीयम साइनाइड का प्रयोग किया किन्तु पौधा मुरझाने की बजाय और अधिक खिल उठा। पोटेशिय साइनाइड बहुत तेज किस्म का जहर होता है। उसका पौधे पर उलटा असर देख कर उन्हे बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होने उसे चखा तो वो चीनी थी। वहीं वो कैमिस्ट भी था जिससे पोटेशियम साइनाइड उन्होने मँगाया था। कैमिस्ट ने कहा कि “कल मेरे पास एक नौकर पोटेशियम साइनाइड लेने आया था, मैने सोचा कहीं ये आत्महत्या न कर ले अतः मैने इसे चीनी का पाउडर दे दिया था।“
जगदीशचंद्र बसु निरंतर नई खोज करते रहे, 1915 में उन्होने कॉलेज से अवकाश लेकर लगभग दो साल बाद “बोस इन्स्ट्यूट” की स्थापना की। जो ‘बोस विज्ञान मंदिर’ के नाम से प्रख्यात है। 1917 में सरकार ने उन्हे सर की उपाधी से सम्मानित किया।
सर जगदीश चंद्र बसु केवल महान वैज्ञानिक ही नही थे, वे बंगला भाषा के अच्छे लेखक और कुशल वक्ता भी थे। विज्ञान तो उनके सांसो में बसता था। 23 नवंबर, 1937 को विज्ञान की ये विभूति इह लोक छोङ कर परलोक सीधार गई। आज भी वैज्ञानिक जगत में भारत का गौरव बढाने वाले सर जगदीसचन्द्र बसु का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ है। ऐसी विभूतियाँ सदैव अमर रहती हैं।

rafik 15-10-2014 09:49 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
“मौत का सौदागर"

1888 की बात है, एक व्यक्ति सुबह-सुबह उठ कर अखबार पढ़ रहा था , तभी अचानक उसकी नज़र एक “शोक – सन्देश ” पर पड़ी। वह उसे देख दंग रह गया , क्योंकि वहां मरने वाले की जगह उसी का नाम लिखा हुआ था। खुद का नाम पढ़कर वह आश्चर्यचकित तथा भयभीत हो गया। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अखबार ने उसके भाई लुडविग की मरने की खबर देने की जगह खुस उसके मरने की खबर प्रकाशित कर दी थी। खैर , उसने किसी तरह खुद को समभाला, और सोचा , चलो देखते हैं की लोगों ने उसकी मौत पर क्या प्रतिक्रियाएं दी हैं।
उसने पढ़ना शुरू किया, वहां फ्रेंच में लिखा था , “”Le marchand de la mort est mort”
यानि , “मौत का सौदागर” मर चुका है”

यह उसके लिए और बड़ा आघात था , उसने मन ही मन सोचा , ” क्या उसके मरने के बाद लोग उसे इसी तरह याद करेंगे ?”
यह दिन उसकी ज़िन्दगी का टर्निंग पॉइंट बन गया, और उसी दिन से डायनामाइट का यह अविष्कारक विश्व शांति और समाज कल्याण के लिए काम करने लगा। और मरने से पहले उसने अपनी अकूत संपत्ति उन लोगों को पुरस्कार देने के लिए दान दे दी जो विज्ञान और समाज कलायन के क्षत्र में उत्कृष्ट काम करते हैं।
मित्रों , उस महान व्यक्ति का नाम था , ऐल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल , और आज उन्ही के नाम पर हर वर्ष “नोबेल प्राइज ” दिए जाते हैं। आज कोई उन्हें “मौत के सौदागर के रूप” में नहीं याद करता बल्कि हम उन्हें एक महान वैज्ञानिक और समाज सेवी के रूप में याद किया जाता है।
जीवन एक क्षण भी हमारे मूल्यों और जीवन की दिशा को बदल सकता है , ये हमें सोचना है की हम यहाँ क्या करना चाहते हैं ? हम किस तरह याद किये जाना चाहते हैं ? और हम आज क्या करते हैं यही निश्चित करेगा की कल हमें लोग कैसे याद करेंगे ! इसलिए , हम जो भी करें सोच-समझ कर करें , कहीं अनजाने में हम “मौत के सौदागर” जैसी यादें ना छोड़ जाएं !!!

Dr.Shree Vijay 15-10-2014 07:27 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 

प्रिय रफीक जी,
एक से बढकर एक प्रेरणादायक कथानक प्रस्तुत करने के लिये आपका हार्दिक आभार.........



Dr.Shree Vijay 15-10-2014 07:31 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
स्वयं का सही मूल्यांकन :

एक बार स्वामी विवेकानन्द रेल में यात्रा कर रहे थे. एक भिखारी ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए उनसे भीख मांगी. पहले स्वामीजी ने कुछ जबाब नहीं दिया , फिर दूसरी बार भिखारी ने कहा, ‘‘श्रीमान्, मैं बहुत गरीब हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं है, मुझ पर दया करो.’’

उसके दुबारा भीख मांगने पर स्वामी जी के आंखों से आंसू टपकने लगे. तपाक से सहयात्री ने पूछा, ‘‘श्रीमान्, क्या बात है ?’’

विवकेकानन्द ने कहा, ‘‘इस अमीर आदमी द्वारा दयनीय जीवन जीने एवं भीख मांगने के कारण मुझे कष्ट हुआ.’’

इस पर सहयात्री ने कहा, ‘‘अरे, यह तो भिखमंगा है. आप इसे अमीर कैसे कह रहे हैं ?’’


तब स्वामीजी ने भिखारी से पूछा, ‘‘क्या आप मुझे अपना बांया हाथ एक लाख रुपयों में बेचोगे ? मैं खरीदना चाहता हूं, रुपये अभी दूंगा.’’ भिखारी ने मना कर दिया.
‘‘क्या दांया हाथ एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं!’’‘‘क्या बांया पांव एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं!’’‘‘दूसरा पांव दो लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं, यह बेचने के लिये नहीं है.’’
‘‘क्या एक आंख दो लाख में दोगे ?’’ यहां पर भी उत्तर नकारात्मक ही था.‘‘दूसरी आंख के पांच लाख दूंगा’’
‘‘नहीं, मैं इन्हें कैसे बेच सकता हूं?’’

इस पर स्वामीजी बोले, ‘‘बेच तो नहीं सकते, लेकिन इनका उपयोग भीख मांगने के लिये करते हो. इतना सब कुछ होते हुए भी क्या तुम अब भी गरीब हो ? क्या तुम्हारे पास कुछ नहीं है ?

जिसके पास इतना कीमती मानव शरीर है उसे आप क्या कहेंगे ? भिखारी लज्जित होकर चला गया:.........

" हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमारे पास बहुत कुछ है, पर हम हमेशा जो नहीं है उसी की चिन्ता में दुखी रहते हैं.जीवन में बाधाएं तो अक्सर आती हैं. परन्तु विजेता वही बनता है जो स्वयं का सही मूल्यांकन कर सकता हो !"



rafik 16-10-2014 09:25 AM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
Quote:

Originally Posted by Dr.Shree Vijay (Post 533546)

प्रिय रफीक जी,
एक से बढकर एक प्रेरणादायक कथानक प्रस्तुत करने के लिये आपका हार्दिक आभार.........

:thanks::thanks::thanks:

sapfullform 28-03-2016 11:10 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
rafik ji , ye motivation story muje bahut behtrin lagi. :thanks::thanks:

desaikiran 19-10-2016 05:10 PM

Re: प्रेरणादायी जीवन
 
Thanks for sharing


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