ग़ ज़ ल/ बहुत दूर तक है हवा उस शहर की
बहुत दूर तक है हवा उस शहर की.
सुनाऊंगा मैं दास्ताँ उस शहर की. पढ़ी हैं विवशताएं, विपदाएं बाँची, सीख ली है मैंने ज़बां उस शहर की. चिमनियाँ धुँआ नहीं थूकती ज़हर हैं, ज़हर वो के जो है दवा उस शहर की. लोगजागतेथे तो सोया था राजा, जगा राजा ऊंघी प्रजा उस शहर की. राजनीति की शराबी भूमिका का फल, है झूलते पुलों में आस्था उस शहर की. कोढ़ पर लिपटी हुयी अभिजात बस्तियाँ, रूह देखिएगा ज़रा उस शहर की. चिने गए जो स्वप्न हैं अट्टालिकाओं में, उन्हीं से जवां हर अदा उस शहर की. अँधेरे का वरदान हाय चारों तरफ़ है, है हर चीज़ सुन्दर अन्यथा उस शहर की. रहते रहते भी है अजनबी अजनबी, जैसे पहचान हो लापता उस शहर की. अनुमोदित सांचे में जो ढल ना पाये, मिलेगी उन्हीं को सजा उस शहर की. |
Re: ग़ ज़ ल
अति श्रेष्ठ सृजन ! प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार !
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Re: ग़ ज़ ल
समझ गया कि अच्छा लिखते हैं आप रजनीश मंगा जी किन्तु यदि आप चाह लें तो और भी अच्छा लिख सकते हैं . कोशिश रहे कि हर पंक्ति पाठक को झंकझोर दे .ऐसी मेरी व्यक्तिगत सोच है .
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Re: ग़ ज़ ल
बहुत खूब /
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Re: ग़ ज़ ल
Quote:
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