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ABHAY 08-12-2010 12:13 PM

~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
चन्द्रकान्ता भाग 1
चन्द्रकान्ता: हिन्दी उपन्यास की आधारशिला

प्रेमचन्द-पूर्ववर्ती हिन्दी उपन्यास-साहित्य में दो प्रमुख धारायें प्रवाहित होती दिखाई देती हैं, जिनमें से प्रथम धारा भारतेन्दुयुगीन सुधारवादी नैतिकता प्रधान सामाजिक उपन्यासों की धारा है, जिसका प्रतिनिधित्व लाला श्रीनिवास दास के ‘परीक्षा गुरू’ में मिलता है, और उसकी दूसरी धारा जिसे तिलिस्मी-ऐयारी एवं जासूसी उपन्यास की संज्ञा प्राप्त है, उसके सर्वाधिक चर्चित लेखक बाबू देवकीनन्दन खत्री हैं, और उनकी कलम का जादू है ‘चन्द्रकान्ता’। हम यह निस्संकोच रूप से मानकर चले हैं कि प्रेमचन्द-पूर्ववर्ती उपन्यासकारों में बाबू देवकीनन्दन खत्री सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार हैं और ‘चन्द्रकान्ता’ उनकी प्रथम मौलिक औपन्यासिक सर्जना होते हुए भी उनकी कीर्ति का आधार-स्तम्भ बन गयी है। इसे इन्होंने ‘तिलिस्मी ऐयारी’ उपन्यास का अभिधान दिया है। हिन्दी की यही एकमात्र मात्र ऐसी औपन्यासिक रचना है जिसने तत्कालीन जन साधारण में उपन्यास पढ़ने की प्रवृत्ति जाग्रत की तथा असंख्य निरक्षर उर्दूदां लोगों को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित किया। यदि यह कहा जाये कि इसी रचना ने पहली बार हिन्दी पाठकों को कथारस से अवगत कराकर उन्हें अभिभूत कर लिया तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। अपने युग में (और बहुत बाद तक भी) ‘चन्द्रकान्ता’ का जादू इस प्रकार छाया रहा था कि लोग उपन्यास को उपन्यास न कहकर ‘चन्द्रकान्ता’ कहने लगे थे। जैसे मध्यकालीन भावुक भक्त कवि ‘रसखान’ अपने सवैयों की सरसता और मधुरता के कारण ‘सवैये’ के पर्याय बन गये थे, उसी प्रकार ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास अपने कथा-रस के कारण ‘उपन्यास’ का समानक लगने लगा था। एक अविच्छिन्न, अजस्त्र और अद्भुत प्रवाह है इसके कथा विस्तार में, और अनन्त कौतूहल इसका प्राण है। भारतीय साहित्य संग्रह का जो कार्य पुस्तक.आर्ग ने सन् 2004 में आरंभ किया है, उसके कार्यकाल में अभी तक सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक भी चन्द्रकान्ता ही रही है। इसकी माँग हमारे पास अमेरिका, कनाडा, जापान, मलेशिया और यहाँ तक कि अफ्रीका में कार्यरत भारतीय करते रहे हैं। भारतवर्ष में तो इसकी लोकप्रियता पाठकों में है ही। पुस्तक.आर्ग इस पुस्तक का प्रथम भाग बेबसाईट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध करवा रही है, और भविष्य में अन्य भागों और चन्द्रकान्ता सन्तति को भी उपलब्ध करवायेगी।

‘चन्द्रकान्ता’ (सन् 1888) को मूलत: और प्रमुखत: एक प्रेम-कथा कहा जा सकता है। चार हिस्सों में विभाजित इस उपन्यास की कथा अनायास ही हमें मध्यकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों का स्मरण कराती है। इस प्रेम-कथा में अलौकिक और अतिप्राकृतिक तत्त्वों का प्राय: अभाव है और न ही इसे आध्यात्मिक रंग में रंगने का ही प्रयास किया गया है। यह शुद्ध लौकिक * प्रेम-कहानी है, जिसमें तिलिस्मी और ऐयारी के अनेक चमत्कार पाठक को चमत्कृत करते हैं। नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पुत्र वीरेन्द्रसिंह तथा विजयगढ़ के राजा जयसिंह की पुत्री चन्द्रकान्ता के प्रणय और परिणय की कथा उपन्यास की प्रमुख कथा है। इस प्रेम कथा के साथ-साथ ऐयार तेजसिंह तथा ऐयारा चपला की प्रेम-कहानी भी अनेकत्र झलकती है। विजयगढ़ के दीवान कुपथसिंह का पुत्र क्रूरसिंह इस उपन्यास का खलनायक है। वह राजकुमारी को हथियाने के लिए अनेक षड्यन्त्र रचता है।

नाज़िम और अहमद जैसे ऐयार उसके सहायक हैं परन्तु अपने कुकृत्यों के अनुरूप ही उसका अन्त हो जाता है। चुनार का राजा शिवदत्तसिंह भी असत् अथवा खल पात्रों की श्रेणी में आता है। वह भी क्रूरसिंह से प्रेरित होकर चन्द्रकान्ता की प्राप्ति का विफल प्रयत्न करता है। वह विजयगढ़ पर आक्रमण करता है, परन्तु नौगढ़ एवं विजयगढ़ के शासकों और वीरेन्द्रसिंह की वीरता तथा जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह आदि ऐयारों के प्रयत्न से परास्त होता है। इन ऐयारों की सहायता से वीरेन्द्रसिंह अनेक कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करता हुआ तिलिस्म को तोड़ता है और चन्द्रकान्ता को मुक्त कराता है। इस तिलिस्म से उसे अपार सम्पदा प्राप्त होती है और वह चन्द्रकान्ता का पाणिग्रहण करता है। चपला तेजसिंह की परिणीता बनती है और चम्पा का देवीसिंह से विवाह होता है। हूण और मुगल आक्रमणकारियों के समय से भारत में नारियों का सम्मान कम हुआ और क्रमशः पर्दा प्रथा आदि कुरीतियाँ भारतीय जीवन पर अपना प्रभाव दिखाने लगीं कि आज के समय में सामान्य व्यक्ति पर्दा प्रथा को भारतीय देन समझता है। इस उपन्यास में भी कुछ मिश्रित प्रभाव दिखाई देता है। एक तरफ तो ऐयारी जैसा कार्य जिसमें काफी जोख़िम और साहस का प्रदर्शन करना होता है उसमें चपला, चम्पा तथा आगे के भागों में मनोरमा, गौहर आदि बढ़-चढ़कर भाग लेती बताईं गईं है, वहीं राज परिवार कभी-कभी इसी प्रथा का अभ्यास करते भी दिखे हैं।

ABHAY 08-12-2010 12:14 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
देवकीनन्दन खत्री ने समसामयिक नीति-प्रधान उपन्यासों से भिन्न कौतूहल प्रधान ‘तिलिस्मी ऐयारी’ उपन्यास रचना की नयी दिशा को उद्घाटित करने का सफल प्रयास किया। ‘तिलिस्म’ अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है-‘ऐन्द्रजालिक रचना, गाड़े हुए धन आदि पर बनायी हुई सर्प आदि की भयावनी आकृति व दवाओं तथा लग्नों के मेल से बँधा हुआ यन्त्र’। ‘चन्द्रकान्ता’ के चौथे भाग के बीसवें बयान में ऐयार जीतसिंह जरूरत पड़ती थी तो वे बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर, तिलिस्म के सम्बन्ध में कहता है-‘‘तिलिस्मी वही शख्स तैयार करता है, जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो।...पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्मी बाँधने की आवश्यकता होती थी तब ज्योतिषी, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किये जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्मी बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अन्दर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर इसके साथ ही उस आदमी के नक्षत्र एवं ग्रहों का भी खयाल रखते थे, जिसके लिए वह खजाना रक्खा जाता था।’’

‘ऐयार’ शब्द भी अरबी का है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- धूर्त अथवा वेश या रूप बदलकर अनोखे काम करने वाला व्यक्ति। ‘ऐयार’ उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो, शक्ल बदलना और दौड़ना उसके मुख्य काम हैं। ऐयारों के सम्बन्ध में खत्री जी ने ‘चन्द्रकान्ता’ की भूमिका में लिखा है- राजदरबारों में ऐयार भी नौकर होते थे जो कि हरफनमौला, यानी सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना-बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम करना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग अपनी चालाकी से बिना खून बहाये व पलटनों की जाने गंवाये लड़ाई खत्म करा देते थे।’’ ’चन्द्रकान्ता’ में लेखक चुनार के बाहर के खण्डहर के तिलिस्म का वर्णन करता है, जहाँ काले पत्थर के खम्भे पर संगमरमर का बगुला है जो किसी के पास आते ही मुँह खोल लेता है और उसे उदरस्थ कर लेता है। चन्द्रकान्ता को यही बगुला निगल लेता है तथा वह तिलिस्म में कैद हो जाती है। उसकी सखी चपला का भी यही हाल होता है। इस तिलिस्म के विषय में एक सुर्ख पत्थर पर लिखा है-‘यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी बाहर नहीं निकल सकता। हाँ, अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलत भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए, नहीं तो सारी मेहनत व्यर्थ है।’ इस तिलिस्म को तोड़ने की विधि भी एक पुस्तक में लिखी मिलती है, जिसका अर्थ तेजसिंह और ज्योतिषीजी रमल की सहायता से ज्ञात करते हैं। इस पुस्तक की प्राप्ति से वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयार साथियों की मदद से अनेक कठिनाइयों, बाधाओं एवं संघर्षों का सामना करता हुआ तिलिस्म को तोड़ने में सफल होता है और चन्द्रकान्ता को मुक्त कराता है। उपन्यास के तीसरे और चौथे हिस्से में मुख्य रूप से इसी तिलिस्मी को तोड़ने की कथा रोचक, कौतूहल पूर्ण और अद्भुत वर्णन है। वनकन्या, सूरजमुखी आदि पात्रों का सृजन और उनके कार्य उपन्यास में रोचकता और कौतूहल की वृद्धि करते हैं। कौतूहल प्रेमी पाठकों को विशेषकर यह अंदाजा लगाने में भी काफी आनन्द आता है कि कब कौन सा ऐयार क्या करामात दिखा रहा है। कई पात्रों के चलते यह कार्य काफी चुनौती भरा बन जाता है। इसी श्रृंखला में भूतनाथ तो सबसे गूढ़ पात्र बन जाता है, यहाँ तक उसके चरित्र को सही प्रकार समझाने के लिए देवकीनन्दन खत्री जी को एक और 23 खण्डों का उपन्यास भूतनाथ लिखना पड़ गया। भूतनाथ और रोहतासमठ दोनों पुस्तकें पुस्तक.आर्ग के द्वारा उपलब्ध हैं।

ABHAY 08-12-2010 12:15 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
ऐयारी प्रधान होने के कारण ‘चन्द्रकान्ता’ में ऐयारों की चालों, फनों और घात-प्रतिघातों का बड़ा ही सजीव, रोचक और चमत्कारिक वर्णन मिलता है। उपन्यास में कई ऐयार हैं। वीरेन्द्रसिंह के पक्ष के ऐयार हैं- जीतसिंह, तेजसिंह, और देवीसिंह। क्रूरसिंह के ऐयार हैं- अहमद और नाजिम। शिवदत्त के छ: ऐयार हैं- पण्डित बद्रीनाथ, चुन्नीलाल, रामनारायण, भगवानदत्त, पन्नालाल और घसीटासिंह। उनके पास रमल का ज्ञाता ज्योतिषी जगन्नाथ भी है। चपला और चम्पा ऐयारिनें हैं जो कि चन्द्रकान्ता के साथ रहती हैं। उपन्यास में इन ऐयारों के कार्य पाठकों को चमत्कृत और विस्मित करते हैं। कहीं ये सुंघनी सुंघाकर किसी को बेहोश कर देते हैं और कहीं लखलखा सुंघाकर होश में ले आते हैं। ऐयारी बटुआ इनके पास हमेशा रहता है और इसमें वे सभी आवश्यक सामग्री रखते हैं। जासूसी करने, लड़ने-भिड़ने, गाने-बजाने, नाचने आदि में ये कुशल होते हैं। ऐयारों के कार्य उपन्यास की कथा को मोड़ देते हैं। कहीं देवीसिंह साधू का वेष बनाकर तेजसिंह को सावधान करता है तो कहीं चपला और चम्पा की नकली लाशें हैं। कहीं वनकन्या और सूरजमुखी के करतब हैं, कहीं नकली चन्द्रकान्ता शिवदत्तसिंह से प्रेम प्रदर्शन करती है तो कहीं जालिमखाँ और आफतखाँ अपने-अपने ढंग से आफत और जुल्म ढाते हैं, जीतसिंह रहस्यमय रूप से साधु बाबा बन जाता है। सारे उपन्यास में इन ऐयारों के चमत्कारपूर्ण कार्य पाठक को मुग्ध और स्तम्भित करते हैं। इन ऐयारों की अपनी आचार-संहिता भी है, जिसका पालन करना वे अपना कर्तव्य मानते हैं। उपन्यास में वर्णित ऐयारों के घात-प्रतिघात विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस’ में वर्णित चाणक्य और राक्षस के राजनीतिक दांव-पेचों का स्मरण करा देते हैं।

वस्तु-संगठन में उत्सुकता और कौतूहल की प्रधानता, पात्रों के सृजन में विविध क्षेत्रों से उनका चयन, बातचीत के संवाद, चुनार, विजयगढ़, नौगढ़ आदि की नदियों, तालाबों, बावड़ियों, खोहों, टीलों, खण्डहरों, पक्षियों, वृक्षों आदि का चित्रात्मक शैली में प्रकृति-चित्रण, युगीन परिस्थितियों का अप्रत्यक्ष रूप में अंकन, बोलचाल की सजीव भाषा, आदर्श चरित्रों की सर्जना द्वारा नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा आदि ‘चन्द्रकान्ता’ की कतिपय ऐसी विशेषतायें हैं; जो लेखक के जीवन अनुभव, कल्पना की विस्मयकारी उड़ान तथा कथा-निर्माण की अद्भुत क्षमता की परिचायक हैं। वस्तुत: तिलिस्म और ऐयारी के सूत्रों से गुंथी हुई प्रेम और रोमांस की यह औपन्यासिक कथा हिन्दी के घटना-प्रधान रोमांचक उपन्यासों की ऐसी शुभ शुरूआत थी, जिसने असंख्य पाठकों को हिन्दी भाषा का प्रेमी बना दिया और हिन्दी उपन्यास को दृढ़ आधारशिला प्रदान की।

ABHAY 08-12-2010 12:16 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
पहला भाग
पहला बयान

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त-दुरूस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।

कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’’

ABHAY 08-12-2010 12:17 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
‘‘ इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।’’

वीरेन्द्र : जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।

तेजसिंह : मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आकर पुन: हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।

वीरेन्द्र : मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।

ABHAY 08-12-2010 12:19 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
दूसरा बयान
विजयगढ़ में क्रूरसिंह* अपनी बैठक के अन्दर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।

क्रूर : देखो नाजिम, महाराज का तो यह खयाल है कि मैं राजा होकर मन्त्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाये कि चन्द्रकान्ता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेन्द्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर खपा डाला जाये कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पाकर महाराज को मारने की फिक्र की जाये, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चन्द्रकान्ता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएंगे।

नाजिम : हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सबों को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?

क्रूरसिंह : अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?
अहमद : तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।

क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिखकर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा, ‘‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिये। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किये जाएंगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिये कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलटकर देते हैं।’’

क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोग चन्द्रकान्ता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चन्द्रकान्ता जरूर बाग में गयी होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता के बीच में क्या हो रहा है।’’
ये कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा लेकर वहाँ से चले गये।

ABHAY 08-12-2010 12:20 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
तीसरा बयान

कुछ-कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर-सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।
चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला : न मालूम चम्पा किधर चली गयी?
चन्द्रकान्ता : कहीं इधर- उधर घूमती होगी।
चपला : दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।
चन्द्रकान्ता : देखो वह आ रही है।
चपला : इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।

इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’’

वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊंची-ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से-ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुंवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’’

ABHAY 08-12-2010 12:21 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
एकाएक चपला ने चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।
चपला के इशारे को समझ चन्द्रकान्ता चुप हो रही और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रुमाल उसी जगह जान-बूझकर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा, ‘‘ सखी देख तो, फौव्वारे के पास कहीं मेरा रुमाल गिर पड़ा है।’’

चम्पा रुमाल लेने फौव्वारे की तरफ चली गयी तब चन्द्रकान्ता ने चपला से पूछा, ‘‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’’

चपला ने कहा, ‘‘ मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।’’ इतने में चम्पा ने रुमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चम्पा से पूछा, ‘‘सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तैने किया?’’ चम्पा बोली, ‘‘नहीं, मैं तो भूल गयी।’’ तब चपला ने कहा, ‘‘भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गयी?’’ चम्पा बोली, ‘‘बात तो याद है।’’ तब फिर चपला ने कहा, ‘‘भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।’’

इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गयी और कुछ मामूली बातें करके बोली,‘‘देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती ? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’’ नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गयी और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सुँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश होकर गिर पड़ी।

चपला ने चन्द्रकान्ता को पुकार कर कहा, ‘‘ आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।’’ चन्द्रकान्ता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, ‘‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े !’’ नहीं, ऐसा न होगा।’’ कहकर चपला चम्पा को पीठपर लाद फौव्वारे के पास ले गयी और चन्द्रकान्ता से बोली, ‘‘तुम फौव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ !’’ चन्द्रकान्ता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गयी और साफ नाजिम की सूरत निकल आयी। देखते ही चन्द्रकान्ता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, ‘‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की !’’
‘‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’’ कहकर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गयी, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अन्दर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया।

ABHAY 08-12-2010 12:23 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा !’’ इत्यादि कहकर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी ? वह कोड़ा जमाये ही गयी और बोली, ‘‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी ! तू यहाँ क्यों आया था ? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी ? क्या बाग की सैर को जी चाहा था ? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी ? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया ? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ !’’ यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, ‘‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई ?’’

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, ‘‘चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गयी, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो !’’

चपला ने कहा, ‘‘ठहर, छोड़ती हूँ।’’ मगर फिर भी दस पाँच कोड़े और जमा ही दिये, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चन्द्रकान्ता से कहा, ‘‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो!’’

चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघाकर होश में लायी और पूछा, ‘‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’’

चम्पा ने कहा, ‘‘ मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूंघते ही मैं बेहोश हो गयी, फिर न मालूम क्या हुआ ! हाय, हाय ! न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे !’’

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढंका और तब यह कहकर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की’ चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चन्द्रकान्ता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी !’’ चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, ‘‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’’

चपला ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ !’’ बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाये, यहाँ तक कि नाजिम घबड़ा उठा और जी में कहने लगा, ‘‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई !’’

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चन्द्रकान्ता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

ABHAY 08-12-2010 12:24 PM

Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
 
चौथा बयान
तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रूखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, ‘‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे !’’

‘‘हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए !’’कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खांसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, ‘‘मियां तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता !’’

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, ‘‘तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, ‘‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे !’’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए ! तेजसिंह ने कहा, ‘‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’’

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूं तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहां से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।


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