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jai_bhardwaj 07-09-2013 05:58 PM

कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
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सूत्र में कुछ पत्र-पत्रिकाओं और इन्टरनेट से प्राप्त लेख -आलेख तो समय समय पर शब्दों में परिवर्तित हुयी कुछ अपनी अभिव्यक्तियों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।

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jai_bhardwaj 07-09-2013 05:59 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
"जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहाँपनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले की उँगलियों में बंधी है. कब, कौन, कैसे उठेगा ये कोई नहीं बता सकता है. हाः, हाह, हाह, हाह हा........"

काली पैंट, झक-झक सफ़ेद शर्ट.. और उसके उपर काली हाफ स्वेटर पहने मैं किसी अच्छे रेस्तरां में वायलिन बजने वाला लग रहा हूँ.. कल मैंने म्यूजिक अर्रेंज किया था... १२ लोगों की ओर्केस्ट्रा को जब निर्देश दिया तो सा रे गा मा प ध नी ... सब सिमटते और मिलते जाते थे...

तीन रोज़ पहले जब पुराने झील के किनारे मैं आदतन अपने गाढे अवसाद में बीयर की ठंढे घूँट (चूँकि शराब की इज़ाज़त वहां नहीं है) गटकते हुए एक खास नोट्स तैयार की थी .. तब मेरी वायलिन जिस तरह बजी थी आज लाख चाह कर भी मैं वो धुन नहीं तैयार कर पा रहा हूँ.

दर्द के वायलिन किले में भी सिहरन देती है और हम उन सारे कम्पन को समूची देह में दबाये घूमते हैं.

ट्राफिक पुलिस वाले के लिए चलती रिक्शा का रोक देना कितना आसान होता है.... पर सवारियों को यूँ बिठाये हुए फिर से पहला पैडल मारना बहुत कष्टकारी होता है. भोर की इस सर्द हवा में कलेजा हिल जाता है. त्यागा हुआ पेशाब भी समतल या निचला रास्ता तलाशने लगता है. मैं अपना रिक्शा किसी नोक पर छोड़ दूँ तो वो किधर जायेगा ? इस शहर की कई सड़कें ऊँची हैं.. सरकार हमारे खिलाफ हो गयी है माँ.

हमने चाहा था कि आसमान की नदी में बाल्टी डूबा कर ढेर सारा बादल तुम्हारी मेज़ पर उड़ेल दूँ... फिर तुम अपने हाथों की चारों उँगलियों में अबीर की तरह वो बादल मेरे गालों पर लगा दो... ऐसा करते ही वक़्त और सीमायें हमें एक दूसरे से दूर कर देती....
अच्छा अगर मेरी बातों को को गुज़ारिश के इथन (नायक) से जोड़ कर ना देखो तो तुम्हें नहीं लगता कि मैं भी एक विकलांग हूँ और बैठे बैठे कल्पनाओं कि कोरी ऊँची- नीची, हरियाले और पथरीली उड़ान भरता रहता हूँ ? कितना बेबस हो जाता हूँ अपनी जगह ईमानदार स्वीकारोक्ति में .... तुम गिड़गिडाने का मतलब समझती हो जिंदगी ? क्या एक ईमानदार वक्तव्य गिड़गिडाता है तो संसद में प्रधानमंत्री जैसा हो जाता है जो प्रतिपक्ष से घोटालों के बीच भी संसंद चलने देने कि गुज़ारिश करता है ?

यह शाम का चार से छह बजना कितना दुर्गम है .. शरीर से जन्मा यह माइग्रेन नवजात बच्चे कि तरह गोद में पांव पटक रहा है. अब इसे ढूध कहाँ से दूँ ...

चिता में लगी हुयी चन्दन कि लकड़ियाँ बतियाती हैं - क्या लगता है यह शव कितनी जल्दी यह हमारी गिरफ्त में होगा ?

jai_bhardwaj 07-09-2013 06:03 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
एक सद्यः परिणीता की प्रथम मिलन की अनुभूतियों की साहित्यिक अभिव्यक्ति

मलिन आत्मा ने अपनी केंचुल उतारी, ड्रेसिंग टेबल के दराज़ में पड़ी कुंवारी काज़ल की डिबिया से सपनो का काजल निकाल अपने आँखों में लगा लिया. अब दुनिया वैसी नहीं थी जैसी पिछली रात थी. स्याह काली. मुस्कुराकर वस्तुओं को देखना आ गया था. किसी की बात शांत चित्त से सुनता. इन्द्रियों के गुण दुनिया में फिर से सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक लगने लगा था. छूना, देखना, महसूस करना, सुनना इन सब प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए रोमांच हो उठता था. मौसम के साथ यह बदलाव सुखद था. रही सही कसर तब पूरी हो गयी जब हथेली से पतली परत हटा कर प्रार्थना के नदी में बिना तैराक हुए कूद पड़ा और तलहथी से जा लगा. पर शरीर अभी एक पानी में फूला हुआ लाश नहीं था जो तली से टकराने के बाद गेंद के तरह नदी के सतह पर जा जाता.

इस नदी में समर्पण था, अपनी रूह ईश्वर के नाम कर देने का. क्षण -क्षण प्रतिपल रोमांच का अनुभव करते हुए स्वयं को हवाले करने का. आँखों में आंसू थे, रहस्यमयी साक्षात्कार के जिससे लगता पवित्र हाथ आत्मा पर हाथ फेर रही हो और कांटें गिलहरी के त्वचा में बदलती जा रही हो. परिवर्तन संसार का नियम है यह गीता में उसने पढ़ रखा था लेकिन यहाँ स्वयं से साथ घटित होता देख विस्मयकारी अनुभव था.

यह सुख का क्षण था जिसे संत परम आनंद कहते थे. एक गुज़ारा हुआ सुख और भी था जिसे जिंदगी कहते हैं. जिंदगी इसे भी कहते हैं किसी एकाकी पल में लेकिन अभी यह आत्मा की अभिव्यक्ति थी तब जीवन की अभिव्यक्ति थी.

नाभिक पर दोनों तरफ से जोर पड़ने पर शक्तियां बराबर बंट रही थी जिस एक पर पहले गुरूर था वो समय के साथ क्षीण पड़ता जा रहा था. यह दबाव नहीं था पर यह होना था और इस यज्ञ के आवाहन के लिए ही आत्मा ने प्रार्थना की नदी में छलांग लगायी थी. फिलहाल यह सोचना नहीं है कि पहली शक्ति के चले जाने से प्रलय आ जायेगा तो निर्वाह कैसे होगा. आत्मा उदार हो चली थी . वह स्वार्थ छोड़ दूसरे (हुए, अपने ) के लिए विनती करने लगा था. कुछ देर के लिए उसमें माँ का अंश आता तो कभी वो परम पालक पिता बन जाता. लेकिन यह सब अंतरतम में ही घटित हुआ जा रहा था. सम्बन्ध के संबोधन के आधार पर वो माँ था, ना पिता.

शरीर से कपडे उतारे जा रहे थे. कपडे लेने वाला समय था. चीर - हरण हो तो रहा था पर इसकी सहमति देनी ही थी. इस प्रथा में कर्त्तव्य निर्वहन और सामाजिक रीत जैसे बड़े बड़े शब्द थे.

घर से निकल कर जब भी शरीर भारमुक्त अनुभव करता है शरीर सात्विकता छोड़ फिर से रक्तस्नान करना चाहता है. जिसकी धारा गर्म हो उबलती हुई, जिंदगी सी.

Advo. Ravinder Ravi Sagar' 07-09-2013 11:10 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
वाह-वाह बहुत खूब

ndhebar 08-09-2013 04:40 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
माफ किजएगा जय भैया पर कुछ समझ में नहीं आया
सब दिमाग के उपर उपर गुजर गया।

jai_bhardwaj 11-09-2013 06:34 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
एक वाइनरी में अलग अलग तरह की वाइन के बारे में सुनते हुए अनुराग बस ये सोच रहा था कि आज जो कुछ हुआ वो महज संयोग तो नहीं हो सकता। वैसे अनुराग शराब नहीं पीता पर शराब ही नहीं दुनिया के किसी भी चीज के बारे में जानने का उसको नशा है। बात कैसी भी हो रही हो उसके पास हमेशा कुछ नया कहने को होता है। बीच-बीच में वो अपने दोस्तों को कुछ न कुछ नयी जानकारी देता ही रहता है। इतना कि उसके दोस्त उसे 'एनसाइक्लोपेडिया' कहते हैं।


खासकर ऐसी जगहों पर तो वो इन बातों में खो सा जाता है। आश्चर्य था कि आधे घंटे से उसने कुछ नहीं कहा ! आज वो कहीं और ही खोया हुआ है। उसके कानों से कुछ शब्द टकराते तो उसे अंदाजा होता कि यहाँ क्या चल रहा है। थोड़ी देर बाद बिना किसी से कुछ कहे वो उठ कर अंगूर के बागान में टहलने चला गया। आज उसे वो सभी याद आ रहे हैं जिनसे जीवन में पता नहीं कैसे मिलना हो गया! वो अपने खुद के जीवन के बारे में सोच आश्चर्यचकित सा हो रहा है। एक दार्शनिक के से विचार उसके दिमाग में चले जा रहे हैं - दुनिया के किस-किस कोने में जन्मे, कहीं से कहीं होते हुए कैसे 'अनजान' लोगों से जीवन के रास्ते टकराए और जीवन की दिशा बदलती गयी। इतने ही सालों में कितनी जगहें और कितने लोगों से मिलना हुआ - कितने अच्छे लोग। जहां कोई और भी मिल सकता था उसे वही लोग क्यूँ मिले? जैसे लॉटरी में हर बार उसका वही नंबर लगा हो जो लगना चाहिए था। वो पीछे मुड़ कर देखे तो क्या ऐसा नहीं है कि वो इन्हीं सब के लिए ही तो बना था ! चुन-चुन कर तराशे हुए ऐसे लोग मिले जैसे उसकी किस्मत बड़ी फुर्सत से किसी ने बैठ कर लिखी हो। कुछ चेहरे अब तक कितने साफ दिखाई देते हैं... वहीं कुछ के पीछे के इंसानी नाम तक याद नहीं। और कुछ जिनके नाम तो याद हैं पर और कुछ भी याद नहीं ! एक समय जो सब कुछ थे आज बस हल्की यादें हैं... जैसे किसी पुराने गड्ढे को साल दर साल बरसात धीरे धीरे भर कर लगभग समतल कर गयी हो। स्कूल के दिन के दोस्तों के चेहरे धुंधले पड़ गए हैं। फेसबुक के जमाने में भी किसी से संपर्क नहीं रहा। उसका बचपन रहा भी तो ऐसा जहां अब भी किसी को फेसबुक नहीं पता ! कहाँ से चला और किन-किन मोड़ों से होते हुए कहाँ तक आया है वो । और अब जो जीवन में हैं ये भी तो बस संयोग से आते गए... कुछ सालों बाद क्या ये भी वैसे हीं धुंधले हो जाएँगे? कभी तो स्थिर नहीं रहा उसका जीवन... कितना तेज और बदलता रहा है - सब कुछ ! कभी रुककर कुछ देखने का वक़्त ही न मिला हो जैसे !


आज जो हुआ ये तो निश्चय संयोग ही था। पर शायद कुछ भी एक बार घटित हो जाये उसके बाद जब हम पीछे मूड कर देखते हैं तो लगता है कि नहीं ये महज संयोग नहीं हो सकता। ये तो नियति ही रही होगी।


इन दिनो अनुराग अपने कुछ दोस्तों के साथ यूएस-कनाडा के सीमावर्ती इलाके में छुट्टियाँ बीताने आया है। आज होटल वापस आते हुए अनुराग ने जीपीएस बंद कर दिया। गाँवो से होकर जाने वाला एक दूसरा रास्ता निकाल लिया था उसने। अगर एक जैसी ही जगहें हों तो उसे घूमना बेकार लगने लगता है। जिस रास्ते गया उसी रास्ते से वापस तो वो आ ही नहीं सकता था। कल ही तो वो कह रहा था कि यायावरी में बुरे अनुभव भी होने चाहिए बस दो चार जगहें देखने और तस्वीरें खीचने को घूमना नहीं कहते। अनुभव याद रहते हैं... जगहें और तस्वीरें तो बस कहने और दिखाने के लिए होती हैं। अंजान रास्ते से गुजरते हुए उसने अचानक एक हरे भरे फार्म के सामने गाड़ी रोक दी और कहा चलो देख कर आते हैं। आनाकानी करने के बावजूद उस 'प्राइवेट प्रॉपर्टी' पर सभी उसके पीछे आ ही गए। यूँ भटकते हुए अनायास ही कहीं रुक जाने को संयोग ही तो कहेंगे? या सचमुच ऐसा है कि जहां जहां जाना लिखा है, जिनसे मिलना लिखा है... वहाँ हम चले ही जाते हैं? और कुछ हो जाता है जीवन के रैंडमनेस में खूबसूरत पैटर्न सा।


घास के मैदान में अपनी मशीन दौड़ाते हुए एक बुजुर्ग सबसे पहले मिले। पर ऐसे मिले जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों। उन्होने अपने फार्म की जानकारी बड़े गर्व और प्यार से दी। फिर उनकी पत्नी भी मिल गयीं। दोनों उम्र के सत्तर वर्ष पार कर चुके हैं... पता चला वो किसी जमाने में मशहूर ठीकेदार और शिकारी थे और उनकी पत्नी शिक्षिका। उन्होने अपने फार्म और घर की एक एक चीज ऐसे दिखायी जैसे कोई म्यूजियम की गाइड रहीं हो। एक घंटे से ज्यादा का वक़्त कैसे निकला किसी को कुछ पता ही नहीं चला।


सब कुछ पर्फेक्ट ! इतना अच्छा जैसे सपना हो। इतनी गर्मजोशी से उनका मिलना। एक एक बात प्यार से बताना... कैसे सब कुछ उन्होने खुद अपने हाथों से बनाया। टाइल, पर्दे, दीवार, हीटिंग सिस्टम ... सबकुछ उन्होने खुद डिज़ाइन किया। सब कुछ अविश्वसनीय सा लगा। कितनी तो नयी बातें पता चली। उनके घर का तीन तरफ से मिट्टी में होना। सब कुछ अत्याधुनिक के साथ साथ प्राकृतिक भी। सेव और ब्लूबेरी के बागान, भेड़ें, तालाब, बतखें, मछलियाँ... घर में शिकारी बंदूक, अलास्का में शिकार किए हुए भालू के साथ पत्रिका में छपी तस्वीर और दीवारों पर ढेर सारे शिकार किए हुए जानवर ।

सभी को बहुत अच्छा लगा.। सबने यही कहा - ये होती है जिंदगी ! कितने अच्छे लोग हैं ।


अनुराग के लिए सब कुछ इतना रोचक था कि वो खुद बीच बीच में बताता जा रहा था कि इसका क्या मतलब है। पर सब कुछ ही बदल गया जब एक कोने में लगे पत्थर और उन पर पड़े फूलों पर नजर गयी... पूछने पर पता चला उनके एकलौते बेटे... 25 साल पहले प्लेन क्रैश... उनका इस दुनिया में अब कोई नहीं... इस अंजान जगह में ये विशाल फार्म और...


उसके बाद उन्होने और क्या-क्या बताया... उसे याद नहीं। वो सुन ही कहाँ पाया कुछ। डिज़ाइन वाली बात में से बस एक ही लाइन उसके कानो में गूँजती रही... "हमने ये इसलिए ऐसा बनाया कि व्हील चेयर आसानी से आ जा सके "!


वो सोचता रहा... क्या ऐसा नहीं है कि इन सबके होते हुए भी जो खालीपन है वो कहीं ज्यादा गहरा है? क्या ये इसलिए इतने प्यार से सब कुछ बता रहे थे क्योंकि इन्हें बात करने को लोग ही नहीं मिलते? क्या सब कुछ होने और कुछ न होने में इतना महीन अंतर है? ये सब कुछ क्या वो खालीपन दूर करने को है जो भरा ही नहीं जा सकता ? क्या हर पूर्णता में खालीपन होता ही है? उसे याद आ रही हैं उसके दोस्त की माँ... उनके पास भी सब कुछ है। बेटे ऐसे जो कोई भी सपना देखता है। दुनिया जीत सी ली हो उन्होने.... वो अनुराग से घंटो बात करती हैं... बस बड़ी हवेली में अकेली रहती हैं। अजीब दर्द दिखता हैं उसे उनकी बातों में ! जीवन की हर उपलब्धि बताते हुए एक अजीब खालीपन... बेटों की सफलता वाली पत्रिकाओं की कतरन दिखाते हुए गर्व और खालीपन का जो मिश्रण होता है उसे पता नहीं क्या कहते हैं !


अनुराग को उत्तर नहीं मिल पा रहा क्यूँ मिलना हुआ इस दंपत्ति से. उसे इतना पता है कि कुछ भी यूँ ही तो नहीं होता संयोग हो या नियति.. फिलहाल वो इतना जानता है कि जिनका नाम भी नहीं पता उन्हें वो इस जन्म भुला नहीं पाएगा ।


'इतने सेंटी क्यूँ हो बे? हुआ क्या तुम्हें?" जब ये आवाज कानो में पड़ी तो अनुराग ने बस इतना कहा - "नहीं, कुछ नहीं। चलो"।


उसे पता है वो बुद्ध नहीं हो सकता... दो चार दिन में... ये बातें वैसे ही समतल हो जाएंगी जैसे हर साल की बरसात से कुछ सालों में गड्ढे... !

jai_bhardwaj 11-09-2013 06:44 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
Quote:

Originally Posted by advo.ravinderravi'sagar' (Post 368883)
वाह-वाह बहुत खूब

Quote:

Originally Posted by ndhebar (Post 370087)
माफ किजएगा जय भैया पर कुछ समझ में नहीं आया
सब दिमाग के उपर उपर गुजर गया।


सूत्र भ्रमण एवं प्रतिक्रियाओं के लिए आभार बन्धुओं।

@ निशांत बन्धु : सामान्यतया उपरोक्त दोनों ही प्रविष्टियों में कुछ अधिक क्लिष्ट तो नहीं है। जहाँ तक पहली प्रविष्टि है उसमे नायक हिंदी चलचित्र 'आनंद' का एक अमर संवाद से अपनी जिन्दगी के कुछ पलों की समीक्षा करता है और अंत में अंतिम सच (मृत्यु) पर परिहास करता है। वहीं पर दूसरी प्रविष्टि में एक नव विवाहिता के प्रथम मिलन से ठीक पहले से महातृप्ति तक के उन अनुपम पलों का सुन्दर शब्द चित्रण है। निश्चित ही आपने कुछ शीघ्रता में इन प्रविष्टियों को देखा होगा अन्यथा आप ऐसा न लिखते ... बन्धु, एक बार पुनः देखने का कृपा करें। मुझे विश्वास है कि प्रविष्टियाँ आपकी समझ में आ जायेंगी। धन्यवाद।

jai_bhardwaj 12-09-2013 06:56 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
कल शाम जब रेल प्लेटफोर्म को छोड़ चली गयी, बाद उसके मुझे उदासियों ने आ घेरा. और फिर हर नए सैकण्ड लगने लगा कि तुम मुझसे दूर, बहुत दूर चली जा रही हो. हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे किन्तु फिर भी ना जाने क्यों यह कैसा सिलसिला है जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा. उन बेहद निजी पलों में कई ख़याल आते और चले जाते रहे.

तुम्हारी बहुत याद आई.

सुबह बेहद वीरान और उदासियों से भरी हुई सामने आ खड़ी हुई. मन किया कि कहीं भाग जाऊं, कहाँ ? स्वंय भी नहीं जानता. जिस एकांत में तुम्हारी खुशबू घुली हुई हो और मैं पीछे छूट गयी तुम्हारी परछाइयों से लिपट कर स्वंय को जिंदा रख सकूँ. उस किसी एकांत की चाहना दिल में घर करने लगी है. देर सुबह आई तुम्हारी आवाज़ की खनक, मेरे बचे रहने को इत्मीनान कराती रही .

तुम्हारी सादगी के भोलेपन पर अपनी जिंदगी लुटा देने को मन करता है. और बाद उसके जब तुम कहती हो कि मेरे साथ का हर लम्हा तुम्हें मेरे पास होने का एहसास दिलाता है. सोचता हूँ कितने तो बेशकीमती लम्हें होंगे जो पास होने का एहसास दे जाते हैं. मेरी उदासियों के साए में उन जगमगाते रौशन कतरों को शामिल कर दो. मैं भी तुम्हारे पीछे इन दिनों को जी सकूँ. नहीं तो सच में, तुम बिन मर जाने को जी चाहता है.

तुम मेरे वजूद में इस कदर शामिल हो जैसे तुम्हारे बिना मैं कोई सूखी नदी हूँ.

ndhebar 12-09-2013 07:59 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
नि:संदेह मैंने जल्दबाजी में पढ़ा था.....
आपके कहने पर जब दुबारा पढ़ा तो अच्छा लगा।

Advo. Ravinder Ravi Sagar' 12-09-2013 11:47 PM

Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
 
बहुत उम्दा!!!!!!!!!!


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