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Dark Saint Alaick 13-09-2012 04:10 AM

Re: कुतुबनुमा
 
पाकिस्तान ने दिखाई है कुछ गंभीरता

पिछले दो दशक से पाकिस्तान की जेल में बंद 49 वर्षीय भारतीय कैदी सरबजीत सिंह के मामले में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने जो गंभीरता दिखाई है और उन्होंने अपने कार्यालय को इस मामले में विस्तृत रूप से गौर करने का निर्देश दिया वह अच्छे संकेत माने जा सकते हैं। जरदारी ने इसे मानवीय मानते हुए यह भी कहा है कि सरबजीत हमारी जेलों में बीस सार काट चुका है और ऐसे में उसकी उम्र और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर विचार करने के भारत के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। सरबजीत पाकिस्तान में वर्ष 1990 में हुए बम विस्फोटों में कथित संलिप्तता को लेकर दोषी है, लेकिन उसके परिवार का कहना है कि वह गलत फंस गया है। हालाकि भारतीय विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा के पिछले सप्ताह के पाकिस्तान दौरे पर अभी कुछ कहना जल्दबादी होगा लेकिन उनके इस दौरे के बाद सरबजीत के मामले में पाकिस्तान की तरफ से आए बयान को सकारात्मक जरूर कहा जा सकता है। इसके अलावा पाकिस्तान ने उदारवादी वीजा नीतियों पर भारत के साथ समझौता करके अतीत के तनाव से आगे बढ़ने की इच्छा का संकेत दिया है। वीजा समझौता महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि खास बात यह है कि इस समझौते का उद्देश्य वरिष्ठ नागरिकों, पर्यटकों, श्रद्धालुओं और कारोबारियों की यात्रा पर लंबे समय से लगी पाबंदियों को कम करना है। वहां के अखबारों ने भी जिस तरह से कृष्णा के दौरे को लेकर खबरें छापी है उससे यह साफ हो जाता है कि देर से ही सही, पाकिस्तान को यह अहसास हो रहा है कि भारत के साथ बेहतर रिश्ते ही उसकी बिगड़ी छवि को साफ कर सकते हैं। उदारवादी ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ और आमतौर पर भारत की आलोचना करने वाले एक दक्षिणपंथी अखबार ने भी अपनी खबर में शीर्षक दिया कि भारत और पाकिस्तान बातचीत की राह पर बढ़ चले हैं। अब पाकिस्तान को यह भी समझना चाहिए कि मुंबई हमलों को लेकर अब तक भारत ने जो सबूत उसके सामने रखे हैं, वह काफी अहम है और बगैर किसी हील हुज्जत के पाकिस्तान को उन सबूतों के आधार पर ठोस कदम उठाने चाहिए, तभी वह भारत का सही मायने में भरोसा जीत पाएगा।

Dark Saint Alaick 15-09-2012 08:59 PM

Re: कुतुबनुमा
 
दिखावे की दोस्ती में अटके भाजपा-जदयू

लगता है कि राजग के दो घटक दल भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यू) केवल दिखावे के लिए ही साथ-साथ हैं, वरना पिछले कुछ महीनों से दोनों के बीच जो खटर-पटर चल रही है, उसे देख कर तो लगता है कि यह ऊपरी दिखावे वाली दोस्ती अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शाब्दिक बाण तो पिछले कई महीनों से चल रहे हैं, लेकिन यदा कदा कुछ अन्य विषयों को लेकर भी दोनों दलों के नेता परस्पर विरोधी बयान देकर यह जता देते हैं कि उनमें कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद जरूर हैं। जदयू और भाजपा के बीच दो दिन पहले ही एक नए मसले पर मतभेद सामने आए। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी की तुलना आपातकाल से कर दी। आडवाणी ने लिखा कि भारत को आजाद हुए 65 साल बीत चुके हैं, इसके बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में देश के हालात 1975-77 जैसे हैं। वर्तमान हालात तो आपातकाल से भी बदतर हैं। आजवाणी के इस विचार से जदयू के अध्यक्ष शरद यादव इत्तेफाक नहीं रखते। यादव ने आडवाणी की टिप्पणी पर आपत्ति जताई है और कहा है कि इस तरह के गिरफ्तारी के मामले को आपातकाल से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है। आपातकाल में मीडिया पर पूरी तरह से प्रतिबंध था, जबकि अभी ऐसा नहीं है। आपातकाल की तुलना किसी छोटी-मोटी घटना से नहीं की जा सकती है। यादव ने यह भी कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने असीम त्रिवेदी के मामले में गलतियां जरूर की हैं। बिना सोचे समझे त्रिवेदी पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया, जिसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि त्रिवेदी की गिरफ्तारी से देश में आपातकाल जैसे हालात पैदा हो गए। इससे यह तो साफ हो ही गया है कि भले ही दोनों दल राजग का हिस्सा बने हुए हैं, लेकिन वैचारिक मतभेदों की तलवार निकालने में कोई भी चूक नहीं रहा है। ऐसे में तो यही अच्छा है कि दोनों एक दूजे से किनारा कर लें, ताकि जनता भी किसी भ्रम में नहीं रहे। ऐसा करके तो दोनों ही दल यही साबित करने में लगे हैं कि वे केवल राजनीतिक हितों के लिए ही साथ हैं। जनता से उन्हें कोई सरोकार नहीं है।

Dark Saint Alaick 01-10-2012 03:09 PM

Re: कुतुबनुमा
 
चौंकाने वाले हैं सर्वे के आंकड़े

अब इसे इत्तफाक कहें या वक्त का तकाजा कि लोगों का भरोसा धीरे-धीरे उस क्षेत्र से भी कम होता जा रहा है जिसे अब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बाद सबसे ताकतवर और भरोसेमंद माना जाता रहा है। हाल ही में अमेरिका में किए गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि इस देश के लोगों का मीडिया पर भरोसा बहुत कम हो गया है। गैलअप नामक संस्था ने यह सर्वे किया था। उस सर्वे के मुताबिक 60 फीसदी अमेरिकी लोगों का जन मीडिया में बहुत थोड़ा या एकदम यकीन नहीं है। यह सर्वे रिपोर्ट कुछ दिनो पहले जारी की गई थी। सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2004 के बाद पिछले कुछ साल से मीडिया पर अविश्वास बढ़ता जा रहा है। सर्वेक्षण के मुताबिक मीडिया के प्रति नकारात्मक भावना राष्ट्रपति चुनाव के इसी वर्ष में सबसे ज्यादा है। गैलअप ने बताया कि वर्ष 2004 से पहले मीडिया में विश्वास बहुत अधिक और नकारात्मक की तुलना में अधिक सकारात्मक था। सर्वेक्षण से यह जाहिर हुआ है कि मीडिया के प्रति नकारात्मक भावना वे लोग फैला रहे हैं जो रिपब्लिकन और किसी दल से जुड़े हुए नहीं हैं। गैलअप ने बताया कि सर्वेक्षण में शामिल 39 फीसदी लोगों ने मीडिया पर भरोसा होने की बात कही। सितंबर 2008 में राष्ट्रपति चुनाव से पहले यह आंकड़ा 43 फीसदी था। भले ही यह सर्वे अमेरिकी संदर्भ में किया गया है लेकिन इससे इस आशंका को तो बल मिलता ही है कि जब दुनिया के इतने विकसित देश में मीडिया की यह दशा होती जा रही है तो अन्य देशों में इसे किस रूप में लिया जा रहा होगा। अगर हम अपने ही देश का उदाहरण सामने रखें तो यहां भी तस्वीर कोई अच्छी नहीं है। प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, यही छवि बनती जा रही है कि यह क्षेत्र अब पूरी तरह से पेशेवर हो चुका है और समाज सेवा या जन सेवा का इसका मूल उद्देश्य अपनी राह से पूरी तरह भटक चुका है। सब अपनी ढपली और अपना राग अलाप रहे हैं और आम पाठक या आम दर्शक इनसे दूर होता जा रहा है। एक समय था कि जब पेड न्यूज की कल्पना भी नहीं की जा सकता थी वही आज यह विषय ना केवल एक ज्वलंत रूप ले चुका है बल्कि गंभीर रुख भी अख्तियार करता जा रहा है और सरकार को भी इस विषय पर सोचने को मजबूर होना पड़ रहा है। देश में नित नए चैनल बढ़ते जा रहे हैं लेकिन उनकी गुणवत्ता पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहा है। दरअसल इसके पीछे एक कारण यह भी है कि दिनो दिन चैनल तो बढ़ते जा रहे हैं लेकिन उससे जुड़े लोग पत्रकारिता की ज्यादा समझ नहीं रखते हैं जबकि इस क्षेत्र में अनुभव के लिए काफी लंबे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तभी जाकर सटीक और विश्वसनीय पत्रकारिता हो सकती है। अमेरिका की तरह ही अगर भारत में भी सर्वे किया जाए तो यह शायद यह बात खुल कर सामने आ सकती है कि स्तरीय पत्रकारिता के अभाव में देश में मीडिया के प्रति लोगों की सोच अब वैसी नहीं रही जो आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले थी। मीडिया से जुड़े लोगों को इस पर गंभीरता से विचार और जनता का भरोसा जीतने का प्रयास करना चाहिए तभी मीडिया की सच्ची सार्थकता सिद्ध होगी।

Dark Saint Alaick 28-10-2012 01:17 AM

Re: कुतुबनुमा
 
छत्तीसगढ़ सरकार के सभी दावे खोखले

जागरूकता अभियान चलाने के छत्तीसगढ़ सरकार के दावों की उस समय पोल खुल गई जब नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ कि छत्तीसगढ़ में भ्रूण हत्या के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में एक साल में भ्रूण हत्या के 21 मामले सामने आए हैं। इस आधार पर छत्तीसगढ़ भ्रूण हत्या के मामले में पहले पांच राज्यों की सूची में दूसरे पायदान पर आ गया है। इसी तरह शिशु हत्या के मामले में भी छत्तीसगढ़ देश में दूसरे स्थान पर है। यहां 2011 में कुल 8 शिशुओं की हत्या के मामले दर्ज किए गए। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2010 में भ्रूण हत्या के नौ मामले दर्ज किए गए थे जबकि भाजपा शासित मध्यप्रदेश में 18 मामले दर्ज हुए। हालांकि प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री लता उसेंडी रिपोर्ट को सिरे से नकार रही हैं और कह रही हैं कि ये आंकड़े पूरी तरह से गलत हैं लेकिन बढ़ते मामले इनके दावों को साफ नकार रहे हैं। वैसे भ्रूण हत्या के मामले में ही पहले नंबर पर मध्य प्रदेश है। यहां 38 मामले दर्ज किए गए। ब्यूरो के अनुसार लैंगिक असमानता और भ्रूण हत्या के लिए बदनाम पंजाब की स्थिति छत्तीसगढ़ से बेहतर है। पंजाब में वर्ष 2011 के दौरान भ्रूण हत्या के मात्र 15 प्रकरण सामने आए वहीं छत्तीसगढ़ में 21 प्रकरण दर्ज हुए। गौरतलब है कि तमाम तरह की जागरूकता अभियानों के बावजूद देश में भ्रूण हत्या के मामले में 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। ब्यूरो की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर अब क्राइम कैपिटल में तब्दील होती जा रही है। महिला आयोग में इस वर्ष अब तक महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के 1170 मामले दर्ज हुए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में रायपुर नम्बर एक पर है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राज्य सरकार इन दोनों विषयों पर गंभीर नजर नहीं आ रही। अपराध बढ़ते जा रहे हैं और जन्म से पहले ही कन्याएं मारी जा रही हैं। वैसे सच यह भी है कि बाक़ी देश की स्थिति भी इस परिदृश्य से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं है, जो बहुत चिंताजनक है।

Dark Saint Alaick 31-10-2012 01:25 AM

Re: कुतुबनुमा
 
कालिख पुते सूरज का दिन

हर साल वे दो क्रूर दिन आते हैं जो उन कालिख भरे सूरज के दिनों की याद दिलाते हैं। वर्ष 1948 का 30 जनवरी और 1984 का 31 अक्टूबर । निश्चय ही स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक कालिख पुते सूरज को दिन रहे, इसलिए कि पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और फिर धर्मनिरपेक्ष भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी धर्मान्धता की शिकार हुई। दोनों हत्याओं में कुछ नहीं बदला। बदले तो सिर्फ सन्दर्भ, अंधेरे की धुरी में फर्क नहीं आया। फिलहाल आज का दिन। अपने ही सुरक्षाकर्मियों की गोलियों से दिवंगत संसार की सर्वाधिक शक्तिशाली और विशाल लोकतंत्र की प्रधानमंत्री ‘लौह महिला’ इंदिरा गांधी की हत्या से उस समय सारा देश शोक संतप्त, तो विश्व स्तब्ध था। यह केवल एक प्रधानमंत्री की हत्या नहीं, भारत के नैतिक मूल्यों, शाश्वत आदर्शों और उन संवैधानिक मान्यताओं की हत्या थी जिनके लिए श्रीमती गांधी जीवन पर्यन्त संघर्ष करती रही। इस जघन्य कृत्य को याद रखने वालों का कहना है कि इंदिरा गांधी की हत्या से समस्त देशवासी दु:खी थे, चाहे उनके सिद्धान्तों, आदर्शों, मान्यताओं और राजनीतिक शैली से इत्तफाक रखने वाले हो अथवा नाइत्तफाकी वाले। दु:खी थे तो इसलिए कि तत्कालीन समय में अंदर और बाहर विखंडन, आतंक और अराजकता की सैंकड़ों चुनौतियों का साहसिक मुकाबला करने वाला चट्टान की तरह अटल रहने वाल व्यक्तित्व सदैव के लिए हमसे छीन लिया गया था। संताप इस बात का भी रहा कि अहिंसा के पुजारी भारत देश को अपना नेतृत्व हिंसक कृत्य में गंवाना पड़ा। अधिक अवसाद इस बात का भी रहा कि प्रधानमंत्री पार्टी का नहीं, संपूर्ण देश का होता है और प्रधानमंत्री की हत्या देश की महिमा-गरिमा की हत्या होती है। मगर इंदिरा गांधी का स्वयं का गौरव तो शिखर पा गया। देश प्रेम इंदिरा गांधी की सांसों में बसता और लहू में बहता था, सो उन्होंने अपनी हत्या से पूर्व की रात्रि में ही उड़ीसा में विशाल आम सभा में कहा था, ‘देश सेवा की खातिर यदि मैं मर भी जाती हूं तो मेरा गौरव बढेगा।’ उन्होंने अपने बलिदान से गौरव ही नहीं अमरत्व भी प्राप्त कर लिया। श्रीमती गांधी में धर्म निरपेक्षता का अद्भुत गुण था। जब उनके सामने एक समय उनके अंगरक्षकों में से सिखों को हटा देने का प्रस्ताव आया, तब उस साहसी महिला का जवाब था कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री को यह शोभा नहीं देता। उनके स्वयं और मनुष्य के कर्त्तव्यों पर यह एक तरह का विश्वासघात था और निर्णय लेते वक्त घातक संभावना उनके मन में नहीं रही होगी, यह नहीं माना जा सकता, फिर भी वे अपने निर्णय पर अड़िग रहीं ताकि आत्मोत्सर्ग होने पर देश की आंखों पर बंधी धर्मान्धता की पट्टी की एकाध पर्त खुल सके और धर्मान्ध लोगों में दृष्टि का थोड़ा भी संचार हो सके। वस्तुत: उनके बलिदान को देश के हित में सार्थक कहा जा सकता है। बस, उन्होंने अंधेरा छांटने के लिए अनुकरणीय आत्मोत्सर्ग कर दिखाया।

rajnish manga 23-11-2012 02:49 PM

Re: कुतुबनुमा
 
[QUOTE=Dark Saint Alaick;173308]कालिख पुते सूरज का दिन

आपके ब्लॉगपुंज “कुतुबनुमा” के अन्तर्गत प्रकाशित ब्लॉग ‘कालिख पुते सूरज का दिन’ भीतर तक आंदोलित कर गया. हम कितना भी अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता का नाम लेते रहें, सच्चाई यह है कि देश में अभी भी बहुत से तबके या संगठन ऐसे हैं जो हमारे राष्ट्र, संस्कृति और संविधान के इन आधारभूत स्तंभों पर चोट करने से गुरेज़ नहीं करते. बल्कि कुछ लोग तो ऐसे घृणित कामों को अन्जाम देने वालों को ही सम्मानित करने में अपना गौरव समझते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और लौह पुरुष (जी हाँ, लौह पुरुष) इंदिरा गाँधी का बलिदान भारत की गरिमा और अस्मिता का ध्वज वाहक बन कर हर वर्ष हमें ३० जनवरी और ३१ अक्टूबर के कालिख पुते दिन याद दिलाने आएगा और साथ ही उन आदर्शों की भी याद दिलाएगा जिनके लिए उन दोनों महान आत्माओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. कृपया श्रंखला बढ़ाने का उद्यौग करते रहें. धन्यवाद.

Dark Saint Alaick 26-11-2012 01:14 AM

Re: कुतुबनुमा
 
दरअसल कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने से यह अहसास हो रहा था कि मैं कहीं कोई ताला लगी डायरी तो नहीं लिख रहा। अब आपकी टिप्पणी के बाद लगता है कि सृजन जारी रहना चाहिए। आपके आग्रह का मान रखते हुए मैं शीघ्र ही कुछ नई टिप्पणियां प्रस्तुत करूंगा, मित्र। आभार।

raju 26-11-2012 07:42 AM

Re: कुतुबनुमा
 
Quote:

Originally Posted by Dark Saint Alaick (Post 184156)
दरअसल कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने से यह अहसास हो रहा था कि मैं कहीं कोई ताला लगी डायरी तो नहीं लिख रहा। अब आपकी टिप्पणी के बाद लगता है कि सृजन जारी रहना चाहिए। आपके आग्रह का मान रखते हुए मैं शीघ्र ही कुछ नई टिप्पणियां प्रस्तुत करूंगा, मित्र। आभार।


अलैक जी, सृजन जारी रखे, यहाँ आपके काफी पाठक है और नए बनते जा रहे हैं। लेकिन कमेंट करना सबके बस की बात नहीं होती। :gm:

arvind 26-11-2012 10:34 AM

Re: कुतुबनुमा
 
हे तमस ऋषि,
पढ़ने का काम तो हम भी कर रहे है, परंतु समयाभाव के कारण टिप्पणियाँ टिप नहीं पाते।

आप लिखते रहे, हम पढ़ते रहेंगे।

:egyptian::egyptian:

ndhebar 26-11-2012 10:57 AM

Re: कुतुबनुमा
 
अलैक भाई आपका ये ब्लॉग तो इस फोरम की जान है


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