विज्ञान दर्शन
भौतिकी का नोबेल और फैलता हुआ ब्रह्मांड
रॉयल स्वीडिश एकेडेमी ऑफ साइंसेज ने भौतिकशास्त्र में इस वर्ष का नोबेल पुरूस्कार तीन वैज्ञानिकों, साउल पर्लमटर, ब्रायन श्मिट और एडम रीस, को ब्रह्मांड के फैलाव को समझने की दिशा में किये गये उनके शोध के लिए देने कि घोषणा की है। ब्रह्मांड के शोधकर्ताओं ने फटते हुए तारों द्वारा ब्रह्मांड के फैलने की गति तेज होने के बारे में जानकारियाँ दी हैं। उनके अनुसार ब्रह्मांड का विस्तार जिस तेजी से हो रहा है, उससे एक दिन यह बर्फ में परिवर्तित हो जाऐगा। अमेरिकी मूल के तीनों वैज्ञानिक- साउल पर्लमटर, ब्रायन श्मिट और एडम रीस ब्रह्मांड के भविष्य के बारे में रों के विखंडन का अध्ययन कर ब्रह्मांड के विस्तार में तेजी आने की बात साबित की। इसके पूर्व वैज्ञानिको की धारणा यह थी कि ब्रह्मांड के फैलाव की गति में लगार कमी आ रही है। पर्लमटर बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में सुपरनोवा कॉस्मोलोजी प्रोजेक्ट के अध्यक्ष हैं जबकि श्मिट ऑस्ट्रेलिया के वेस्टन क्रीक स्थित ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी में हाई-जेड सुपरनोवा सर्च टीम के अध्यक्ष और रीस मेरीलैंड के बाल्टिमोर स्थित जॉन हापकिंस युनिवर्सिटी एंड स्पेश टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर हैं। १९९० के दशक में पर्लमुटटर ने अलग और शिमिडट एवं रीस ने एक साथ मिलकर दो अलग-अलग अनुसंधान दलों में काम किया था। एकेडमी ने बताया कि वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रकार के सुपरनोवा यानी फटते तारों के विश्लेषण के जरिए ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में जानकारियां दी हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में बताया कि 5० से अधिक सुपरनोवा से निकलने वाला प्रकाश उम्मीद से कम है जिससे पता चलता है कि ब्रह्मांड का विस्तार तेज गति के साथ हो रहा है। अब तक खगोल वैज्ञानिकों के पास तीन प्रतिद्वंदी सिदांत हैं। प्रत्येक सिद्धांत की भविष्यवाणी को ब्रह्मांड के अवलोकित गुणों से मिलाकर देखने के बाद, वे निर्णय लेते हैं कि कौनसा सिद्वान्त लोकप्रिय है। महा विस्फोट सिद्धांत के अनुसार १८०००० लाख वर्ष पहले एक भयानक विस्फोट में ब्रह्मांड की उत्पति हुई। इस विस्फोट में पदार्थ बाहर निकले जो गुच्छों में संघनित हो गये जिसे आकाशगंगा कहते हैं जो अभी भी बाहर की तरफ बढ़ रही है। इसका विस्तार अनंतकाल से जारी है। जैसे जैसे ब्रह्मांड पुराना हो जायेगा, इसका पदार्थ समाप्त हो जायेगा।। दोलन ब्रह्मांड सिद्वान्त जो महाविस्फोट सिद्धांत का परिवर्तित रूप है, का मानना है कि ब्रह्मांड का विस्तार अंततः धीमा होकर रुक जायेगा और आकाशगंगा सिमटकर एक अन्य महा विस्फोट करेगा इस तरह ब्रह्मांड विस्तार और संकुचन के अंतहीन चक्र से गुजर रहा है। किन्तु प्रकृति का नियम प्रत्येक चक्र में अलग हो सकता है। स्थायी अवस्था सिद्धांत महाविस्फोट सिद्धांत का वैकल्पिक विचार है, इस सिद्धांत का कहना है कि ब्रह्मांड किसी एक क्षण में नहीं पैदा हुआ और न ही कभी एक क्षण में मरेगा। इसके अनुसार जैसे जैसे ब्रह्मांड का विस्तार होता है, वैसे ही खाली स्थान को भरने के लिए नये पदार्थ की रचना हो जाती है। इसीलिये समय के साथ ब्रह्मांड एक जैसा ही दिखता है। वर्तमान अध्ययन में तीनों नोबेल विजेता वैज्ञानिक विशेष तरीके से फटते हुआ तारे यानि सुपरनोवा के अध्ययन के द्वारा ब्रह्मांड के फैलाव को समझने की दिशा में किये गये प्रयोगों व गणनाओं द्वारा अंतिम निर्णय तक पहुँचे। रॉयल स्वीडिश एकेडेमी ऑफ साइंसेज के अनुसार, अपने अध्ययन के दौरान इन वैज्ञानिकों ने पाया कि पचास से भी अधिक सुपरनोवा तारों से निकल रहा प्रकाश अपेक्षा से कम है। जिससे संकेत मिलते है कि ब्रह्मांड तेजी से फैल रहा है। करीब एक शताब्दी तक हम यह जानते थे कि ब्रह्मांड १४ अरब वर्ष पहले महा विस्फोट के अनुसार ही फैल रहा है। लेकिन इन वैज्ञानिकों के प्रयोग व उनकी गणना ने इस अवधारणा को बदल दिया है। इस नई गणना से यह पता लगा है कि ब्रह्मांड में फैलाव आश्चर्यजनक रूप से काफी तेजी से हो रहा है। शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि अगर विस्तार की गति इसी गति से बढती रही तो एक दिन हमारा ब्रह्मांड बर्फ में परवर्तित हो जाएगा। http://www.abhivyakti-hindi.org/vigy...tik_nobel2.jpgतीनों अनुसंधानकर्ता अपनी खोज से अचंभित हैं क्योंकि प्रयोगों के पूर्व इन्हे उम्मीद थी कि अध्ययन के दौरान ब्रह्मांड के विस्तार की गति कम होने का पता चलेगा, लेकिन उनके अनुसंधान का निष्कर्ष एक दम उल्टा निकला। नतीजे बते हैं कि ब्रह्मांड का विस्तार धीमा नहीं तेज हुआ है और ब्रह्मांड में आकाशगंगाएँ कहीं अधिक तेज गति से एक दूसरे से दूर जा रही हैं। यह गतिवर्धन डार्क एनर्जी से संचालित है, जो ब्रह्मांड का एक बड़ा रहस्य है। |
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नैनोटेक्नॉलॉजी या फिर जादुई चिराग
अगर मैं कहूँ कि निकट भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में लगी मशीनों का आकार छोटा होते–होते इतना छोटा हो जाएगा कि हजारों ऐसी मशीनें इस पन्ने के एक वाक्य में समा जाएँगी तो आप कहीं आँखें फाड़ कर इस वाक्य को ही न घूरते रह जाइएगा। विज्ञान की इस नई विधा को नैनोटेक्नॉलाजी का नाम दिया गया है। आगे मैं आप को इसके बारे में और भी बहुत कुछ बताने वाला हूँ, जो आँखों के साथ–साथ आप के दिल–दिमाग को भी चकरा कर रख देगा। अगले पचास सालों में ही हम इन नैनोमशीनों का उपयोग कर अणुओं एवं परमाणुओं को एक–एक कर जोड़ सकेंगे और इसी स्तर पर क्रिकेट की गेंद से लेकर टेलीफोन, कार, हवाई जहाज, कम्प्यूटर सभी कुछ, मनचाहे पदार्थ द्वारा किसी भी आकार–प्रकार में बना पाएँगे। साथ ही इनकी क्षमता भी हजारों गुना अधिक होगी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इस टेक्नॉलॉजी की मदद से हम एमआइपीएस क्षमता वाले बैक्टीरिया के आकार के कंप्यूटर्स से ले कर अरबों लैपटॉप्स की क्षमता से युक्त चीनी के क्यूब के आकार के कंप्यूटर्स अथवा खरबों डेस्क टॉप की क्षमता युक्त आजकल के पीसी के आकार के कंप्यूटरों का निर्माण कर पाएँगे? या फिर ऐसे नैनोबॉट्स का निर्माण संभव होगा जो हमारे शरीर के ऊतकों में घुस कर वाइरस और कैंसर कोशिकाओं की आणविक संरचना को पुनर्गठित कर उन्हें निष्क्रिय कर दें? उपरोक्त उदाहरण तो बस नमूने के तौर पर हैं। भविष्य में इस टेक्नॉलॉजी से जुड़ी संभावनाएँ अनंत हैं, वास्तविक हैं, मात्र कोरी कल्पना नहीं। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि नैनो टेक्नॉलॉजी द्वारा चिकित्सा, इलेक्ट्रॉनिक्स, यातायात, अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर छोटे–बड़े सभी प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण तथा उपयोग के क्षेत्र में एक नई क्रांति आने वाली है और तब हमें आजकल की बड़ी–बड़ी मशीनों एवं औद्योगिक इकाइयों तथा कारखानों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आखिर, यह नैनो टेक्नॉलॉजी है क्या चीज और कैसे इसकी मदद से सारी दुनिया को बदलना संभव हो पाएगा–आइए, इसे समझने का प्रयास किया जाए। किसी भी पदार्थ को परमाणविक पैमाने ह्यनैनो स्केलहृ पर नियंत्रित ढंग से जोड़–तोड़ कर अपनी इच्छानुसार नए रूप में परिवर्तित करने लेने की विधा का नाम नैनोटेक्नॉलॉजी है। लगभग चालीस साल पहले रिचर्ड फिनमैन ने इस अवधारणा का सुझाव दिया था और १९७४ में नॉरियो तानीगूची ने इसका नामकरण किया। इस ब्रह्माण्ड में पाई जाने वाली सभी वस्तुओं की संरचना के मूल में परमाणु हैं या फिर थोड़े से जटिल रूप में इन परमाणुओं से निर्मित अणु हैं। किसी भी वस्तु का गुण उसकी संरचना में प्रयुक्त परमाणुओं एवं अणुओं के विन्यास पर निर्भर करता है। किसी भी वस्तु के अणुओं एवं परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर इसे दूसरी वस्तु में आसानी से बदला जा सकता है। कोयले की संरचना में प्रयुक्त कार्बन के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर हीरे में बदला जा सकता है या फिर बालू के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर और उसमें थोड़ी सी अशुद्धि मिला कर कंप्यूटर चिप्स में बदला जा सकता है । इससे भी आगे बढ़ कर कीचड़, पानी और हवा में पाए जाने वाले परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर घास से ले कर इंसान तक सब कुछ सीधे–सीधे बनाकर ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच तत्व से बना शरीरा’ की कहावत को ही चरितार्थ किया जा सकता है। या फिर हवा में चुटकी बजा कर महल भी बनाया जा सकता है अथवा किसी भी वस्तु को आँखों के सामने से गायब भी किया जा सकता है। हैं न ये करिश्माई ओर जादुई बातें? लेकिन क्या वाकई यह सब संभव है? और यदि सब संभव है, तो अब तक हम ऐसा क्यों नही कर पाए एवं भविष्य में हम ऐसा क्यों और कैसे कर पाएँगे–अब आइए, हम इन सब बातों पर विचार करें। पाषाण युग से वर्तमान युग तक के लंबे सफर में मानव सभ्यता ने समय की गति के साथ, अपनी सुविधा एवं आवश्यकतानुसार, प्रकृतिक संसाधनों द्वारा पत्थर से बने औजार एवं चाकू से ले कर आधुनिक हथियार, कंप्यूटर, टीवी, मोटर, हवाई जहाज, मोबाइल फोन, अंतरिक्ष यान आदि क्या नहीं बना डाला। नि:संदेह दिन प्रतिदिन परिमार्जित होती जा रही तकनीकि के कारण इनकी गुणवत्ता बढ़ती जा रही है साथ ही लागत में लगातार कमी आती जा रही है, परंतु हमारी आधारभूत निर्माण तकनीकि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। कारखानों तथा औद्योगिक ईकाइयों में छिनाई, घिसाई, कुटाई, पिसाई, ढलाई जैसी पुरानी तकनीकि का उपयोग हम आज भी कर रहे हैं। चाहे एक पत्थर के टुकड़े को घिस कर चाकू या भाले का रूप देने वाला आदि मानव हो या फिर छेनी–हथौड़ी से पत्थर को विशेष आकार दे कर बड़े–बड़े स्मारक बनाने वाला मध्य युगीन मानव अथवा पत्थर, धातुओं आदि को कूट–पीस या गला कर मनचाहे आकार में ढाल कर तरह–तरह के उपकरण तथा उपभोक्ता वस्तुएँ बनाने वाला आधुनिक मानव, वह आधारभूत रूप से अब भी कच्चे माल के अणुओं एवं परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित करने की प्रक्रिया में ही लगा हुआ है। ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति के बावजूद उसके उपकरण तथा तकनीकि इतने अपरिष्कृत हैं कि किसी भी वस्तु के निर्माण की प्रक्रिया में अब भी हजारों, लाखों अणु तथा परमाणु एक बडे. समूह में अव्यवस्थित ढंग से प्रतिस्थापित होते हैं। इस प्रकार इनका अपव्यय तो होता ही हैऌ साथ ही नई वस्तु की संरचना में इनके अवांछित स्थान पर अनावश्यक मात्रा मे जमाव के कारण उसका रूप भी पूर्ण रूपेण सटीक एवं शुद्ध नहीं होता। फर्क सिर्फ इतना है कि आदिमानव तथा मध्य युगीन मानव को पदार्थों की आणविक एवं परमाणुविक संरचना का ज्ञान नहीं था, जब कि आधुनिक मानव को इसका ज्ञान है। इस प्रक्रिया में आवश्यकता से कई गुना अधिक ऊर्जा भी खर्च होती है। काश, हम ऐसी तकनीकि एवं उपकरणों का विकास कर पाते जो किसी भी वांछित वस्तु के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले सभी प्रकार के अणुओं एवं परमाणुओं की सही पहचान कर, उन्हें आस–पास की मिट्टी, हवा, पानी या किसी भी प्राकृतिक संसाधन से उपयुक्त मात्रा में अलग कर सकें तथा उस वस्तु की संरचना के अनुसार उन्हें सटीक रूप से। पुनर्व्यवस्थित कर सीधे–सीधे वांछित वस्तु का निर्माण कर सकें। आखिर हमें कोयला पाने के लिए खदानों में जा कर इतनी मेहनत क्यों करनी चाहिए जब कि इसकी संरचना में प्रयुक्त कार्बन के परमाणु हमारे आस–पास की मिट्टी, हवा, पेड़–पौधों आदि में विभिन्न यौगिकों के रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। या फिर इन्हीं कार्बन के परमाणुओं से बने हीरे को खदानों से निकाल कर उसे तराशने में अपनी ऊर्जा एवं समय की बरबादी क्यों करनी चाहिए। उपरोक्त तकनॉलॉजी के विकास के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता ऐसे उपकरणों की है जो वांछित वस्तु की संरचना में प्रयुक्त होने वाले अणुओं एवं परमाणुओं को आस–पास के उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से पहचान कर सही मात्रा में अलग कर उन्हें नए ढंग से व्यवस्थित कर सकें। जब बात परमाणविक स्तर पर असेंब्ली की हो रही है तो जाहिर है कि ऐसे असेंब्लर्स भी उसी स्तर के होने चाहिए एवं उनमें इतनी क्षमता तथा ऊर्जा होनी चाहिए कि वे वांछित अणुओं या परमाणुओं को उपलब्ध यौगिकों से आसानी से अलग कर सकें। ध्यान रहे, ये अणु–परमाणु किसी भी यौगिक में मजबूत रसायनिक बांड से बँधे रहते है जिन्हें तोड़ कर इन अणुओं–परमाणुओं को अलग करने वाले उपकरणों के पास पर्याप्त ऊर्जा होनी चाहिए। आखिर कैसे और कहाँ से हम ऐसे सूक्ष्म उपकरणों एवं तकनॉलॉजी को विकासित करने का सपना देख रहे हैं, जो आणविक–परमाणविक पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में सहायक हो? तो उत्तर है– नैनोअसेंब्लर्स एवं नैनोटेक्नॉलॉजी। इसे अच्छी तरह समझने के लिए सबसे पहले परमाणविक पैमाने ‘नैनोमीटर’ को जानना होगा। एक मीटर के अरबवें हिस्से को नैनोमीटर कहते हैं। यह कितना छोटा है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे एक बाल की मोटाई लगभग चालीस हजार नैनोमीटर होती है या फिर एक नैनोमीटर में ३–५ परमाणु समा सकते हैं। :laughing: क्रमश: :cheers: |
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गत्तांक से आगे
उल्लिखित नैनोअसेंब्लर्स का आकार भी कुछ ही नैनोमीटर्स का होना चाहिए, तभी वे इतने सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर सकते हैं। ऐसे अतिसूक्ष्म नैनोअसेंब्लर्स के निर्माण एवं नैनोटेक्नॉलॉजी के विकास की प्रेरणा वैज्ञानिकों को संभवत: प्रकृति से ही मिली है। एक जैविक कोशिका के निर्माण, वृद्धि तथा कार्यकी में मूल रूप से डीएनए एवं आरएनए जैसे प्राकृतिक नैनोअसेंब्लर्स की ही मुख्य भूमिका है। इनका आकार कुछ ही नैनोमीटर होता है परंतु ये कोशिका की संरचना तथा विभिन्न जैवरसायनिक प्रक्रियाओं को संचालित करने वाले जटिल से जटिल प्रोटीन का निर्माण कोशिका के साइटोप्लाज्म में मौजूद एमीनो एसिड्स द्वारा करने की क्षमता रखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में डीएनए की मुख्य भूमिका होती है। डीएनए की विशेषता यह है कि न केवल ये अपनी प्रतिकृति स्वयं बना सकते हैं बल्कि प्रोटीन निर्माण में असेंब्लर्स एवं असेंब्ली–साइट का कार्य करने वाले राइबोसोमल, ट्रांसफर तथा मेसेंजर आरएनए का निर्माण भी करने की क्षमता रखते हैं। साइटोप्लाज्म से तरह–तरह के एमीनो एसिड्स की पहचान कर उन्हें पकड़ कर असेंब्ली साइट राइबोसोम तक लाने का कार्य ट्रांसफर आरएनए करते हैं। यहाँ इन एमीनो एसिड्स को मेसेंजर आरएनए में निहित कोड के अनुसार एक निश्चित क्रम में व्यस्थित कर प्रोटीन–विशेष का निर्माण कर लिया जाता है। नैनोटेक्नॉलॉजिस्ट कुछ–कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं। वे भी ऐसे नैनोअसेंब्लर्स का निर्माण करना चाहते हैं जो न केवल विभिन्न प्रकार के परमाणुओं की पहचान कर सकें वरंच उन्हें पकड़ कर किसी भी पदार्थ से अलग कर वांछित स्थान पर ला कर पुनव्र्यस्थित सकें। यह सब कोरी कल्पना नहीं है। १९९० में आइबीएम के अनुसंधानकर्ता एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी यंत्र द्वारा ज़ेनॉन तत्व के ३५ परमाणुओं को निकेल के क्रिस्टल पर एक–एक कर व्यस्थित कर, आइबीएम शब्द लिखने में सफल हुए। इनका यह प्रयास इस बात का द्योतक है कि हम एक अकेले परमाणु को भी अपनी इच्छानुसर नियंत्रित एवं परिचालित कर नए ढंग से व्यवस्थित कर सकते हैं। नासा के वैज्ञानिकों ने १९९७ में सुपर कंप्यूटर द्वारा बेंज़ीन के अणुओं को कार्बन के परमाणुओं से बने किसी सामान्य अणु के आकार के अति सूक्ष्म नैनोट्यूब्स के बाहरी सतह पर जोड़ कर आणविक– आकार के यंत्र निर्माण के मिथ्याभासी अनुरूपण (simulation) में सफलता का दावा किया था। ये यंत्र लेज़र द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। भविष्य में इनका उपयोग ‘मैटर कंपाइलर’ जैसे अतिसूक्ष्म यंत्र के निर्माण में हो सकता है। इन मशीनों को कंप्यूटर द्वारा प्रोग्राम कर प्राकृतिक गैस जैसे कच्चे माल के परमाणुओं को एक–एक कर फिर से व्यवस्थित कर किसी बड़ी मशीन अथवा उसके किसी हिस्से को निर्मित किया जा सकता है। किसी भी उपभोक्ता वस्तु के भारी मात्रा में उत्पादन के लिए ऐसे किसी एक नैनोमशीन या नैनोअसेंब्लर से काम नहीं चलने वाला। अणुओं या परमाणुओं को एक–एक कर पुनर्व्यवस्थित कर नई वस्तु के निर्माण में तो ऐसा एक असेंब्लर हजारों साल लगा देगा। तुरंत किसी सामान को बनाने के लिए हमें अरबों एवं खरबों नैनोअसेंब्लर्स की आवश्यकता पड़ेगी। इस कार्य के किए या तो हमें दूसरे प्रकार के नैनोमशीन –‘नैनोरेप्लिकेटर्स’ की आवश्कयता पड़ेगी, जो पलक झपकते ही वांछित प्रकार के नैनोअसेंब्लर्स की अरबों–खरबों प्रतिकृतियाँ बना दें या फिर इन नैनोअसेंब्लर्स को ही हम इस प्रकार प्रोग्राम कर दें कि डीएनए की तरह ये भी आवश्यकतानुसार अपनी प्रतिकृतियाँ स्वयं बना लें। इनका आकार इतना छोटा होगा कि एक घन मिलीमीटर के क्षेत्र में ऐसे अरबों–खरबों रेप्लीकेटर्स तथा असेंब्लर्स समा जाएँगे। ये असेंब्लर्स तथा रेप्लिकेटर्स दिए गए प्रोग्राम के अनुसार एक साथ स्वत: काम करेंगे और वांछित वस्तु की भारी मात्रा के उत्पादन में सहायक होंगे। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की परंपरागत विधियों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और हम पहले से कहीं बहुत ही सस्ती, मजबूत, टिकाऊ एवं बेहतर कार्य क्षमता वाली उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण बहुतायत में कर पाएँगे। इस टेक्नॉलॉजी से लाभ की संभावनाएँ इतनी वास्तविक एवं आकर्षक हैं कि वर्ष २००१ में अमेरिका ने लगभग ५० करोड़ डॉलर का बजट इस दिशा में अनुसंधान हेतु प्रदान किया। आइए, देखते हैं कुछ रंगीन सपने अपने सुनहरे भविष्य के। संभवत: इन नैनो मशीन्स की सहायता से हम और भी मजबूत फाइबर्स बना सकते हैं और बाद में तो हीरे से ले कर पानी या खाना कुछ भी बन सकते हैं। वह भी बड़े सस्ते में औैर आज की तुलना में बहुत ही थोड़े से कच्चे माल द्वारा। इन नव निर्मित सामानों की मजबूती तथा हल्केपन की तो फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए इस तकनीक से बना हीरा वांछित आकार के साथ–साथ उतने ही मजबूत स्टील की तुलना में कम से कम पचास गुना हल्का होगा तथा इसे तोड़ना एक प्रकार से असंभव होगा। जरा सोचिए, यदि आज की कार या हवाई जहाज अथवा अंतरिक्ष यान की बॉडी और उनके कल–पुर्जों का निर्माण इन फाइबर रूपी हीरों से किया जाय तो वे कितने मजबूत, हल्के, टिकाऊ तथा सस्ते होंगे? आज के बोइंग७४७ का वजन पचास गुना कम हो जाएगा। जाहिर है, सामान्य यातायात खर्च में अप्रत्याशित कमी आएगी। सूदूर ग्रहोंकी अंतरिक्ष यात्रा भी बहुत ही सस्ती हो जाएगी। कंप्यूटर की दुनिया में तो क्रांति ही आ जाएगी। कंप्यूटर हार्डवेयर के क्षेत्र में हो रही प्रगति की रफ्तार को बनाए रखने या फिर उससे भी आगे जाने के लिए वर्तमान समय की लीथोग्राफिक तकनीकि से बनाए जाने वाले सिल्किॉन चिप्स की क्षमता अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है। नैनो टेक्नॉलॉजी की मदद से भविष्य में हम थोड़े से ही परमाणुओं का उपयोग कर, नए प्रकार के परमाणविक लॉजिक एलीमेंट तथा गेट बना सकेंगे। इन परमाणविक गेट्स की मदद से ऐसे कंप्यूटर– उपकरण बना सकेंगे, जिनका आकार चीनी के क्यूब जैसा होगा परंतु स्टोरेज क्षमता करोड़ों बाइट्स होगी तथा ये कंप्यूटर्स प्रति मिनट करोड़ों कमांड दे सकेंगे। चिकित्सा के क्षेत्र में नैनोटेक्नॉलॉजी का सर्वाधिक असर होगा। कैंसर कोशिकाओं या वाइरस जनित असाध्य रोगों को ठीक करने के लिए रोगी को बस नैनोबॉट्स युक्त पेय की कुछ बूँदें लेनी होंगी। नैनोबॉट्स कैंसर कोशिकाओं एवं वाइरस पर आक्रमण कर उनकी आणविक संरचना को बदल कर, उन्हें निष्प्रभावी कर देंगे। एक अन्य प्रकार के नैनोबॉट्स हमारे शरीर के वृद्ध होने की प्रक्रिया को रोक सकते हैं या उससे भी आगे बढ़ कर विपरीत दिशा में मोड़ कर हमें फिर से युवा बना सकते हैं। इनसे भी अलग एक दूसरे प्रकार के नैनोबॉट्स अर्थात् ‘नैनोसर्जन’ कठिन से कठिन एवं खतरनाक ऑपरेशन आज के उपकारणों की तुलना में हजार गुना अधिक सफाई तथा कुशलतापूर्वक कर सकते हैं और वह भी शरीर पर बिना किसी दाग–धब्बे के। यही नहीं, कोशिकाओं के वर्तमान आणविक संरचना को बदल कर आँख, नाक, कान ... .. .या फिर पूरे शरीर के कायापलट के लिए भी इन्हें प्रोगा्रम किया जा सकता है। दूसरे ढंग से प्रोग्राम कर इन नैनोबॉट्स की मदद से हम मिट्टी, पानी तथा हवा में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थों को मिनटों में नष्ट कर सकते हैं या फिर दिनों–दिन पतली एवं कमजोर पड़ती जा रही ओज़ोन की परत को फिर से निर्मित कर सकते हैं। भविष्य में नॉन–रिन्युवेबल रिर्सोसेज की आवश्यकता ही नही रहेगी। न पेड़ काटने की जरूरत होगी, न ही खदानों से कोयला निकालना पड़ेगा और न ही जमीन में ड्रिल कर खनिज तेल निकालने के झंझट में पड़ना होगा। ये सारी वस्तुएँ हमें नैनोबॉट्स स्वत: बना कर देंगे। आप पढ़ते–पढ़ते थक जाइएगा और मैं बताते बताते, फिर भी नैनोटेक्नॉलॉजी द्वारा भविष्य में संभावित एवं क्रातिकारी परिवर्तनों की सूची समाप्त नहीं होगी। चलते–चलाते अब आइए जरा एक नज़र इस दिशा में आज–कल किए जा रहे प्रयासों पर डाल लें। वैसे तो इस क्षेत्र में काफी काम हो रहा है एवं वैज्ञानिकों को छोटी–बड़ी सफलताएँ मिलती ही जा रही हैं, परंतु अब तक इनका ध्यान कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, संचार आदि से संबंधित विषयों पर अनुसंधान की तरफ ज्यादा था। हाल ही में इनका ध्यान चिकित्सा से संबंधित विषयों पर भी गया है। इस दिशा में युनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के टॉड क्रास एवं बेंजामिन मिलर द्वारा किया गया कार्य उल्लेखनीय है। इन लोगों ने एक ऐसे डीएनए चिप्स के विकास में सफलता पाई है जिसकी सहायता से भविष्य में किसी भी रोग उत्पन्न करने वाले या जैविक हथियार की तरह इस्तेमाल होने वाले जीवाणु को तुरंत एवं सटीक रूप से पहचाना जा सकता है, जो इसके प्रभावी प्रतिकार में काफी सहायक सिद्ध होगा। फिलहाल, इस चिप्स की मदद से केवल एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधी ‘स्टाल्फ बैक्टिरिया को ही पहचाना जा सकता है। इस बैक्टिरिया के डीएनए की उपस्थिति में इस चिप्स का रंग हरे से पीले में बदल जाता है,जिसे लेज़र की मदद से देखा जा सकता है।ये लोग भविष्य में ऐसे चिप्स के विकास में लगे हुए हैं जिनकी सहायता से किसी भी जीवाणु को आसानी से तथा तुरंत पहचाना जा सके। ऐसे अनुसंधान नैनोटेक्नॉलॉजी की दिशा में प्रगति की ओर बढ़ते कदम अवश्य हैं, परंतु नैनो टेक्नॉलाजिस्ट्स को अपने सपनों को वास्तविक रूप में साकार करने के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना होगा। तब तक आइए हम भी ऐसे सपने देंखें। सपने देखना भी जरूरी है। जो सपने देखता है वही अपनी दृढ़ इच्छा के बल पर उन्हें साकार करने की कोशिश में सफल भी होता है। अट्ठारवीं तथा उन्नीसवीं सदी के मानव ने क्या कभी टीवी, मोबाइल या फिर कंप्यूटर तथा इंटरनेट की वास्तविकता के बारे में सोचा था? नहीं न? आज ये सभी वास्तविकताएँ है। हमारे उपरोक्त सपने भी कल निश्चय ही सच होंगे। |
Re: विज्ञान दर्शन
स्टेम कोशिकाओं में छिपा मानव कल्याण
मस्तिष्क तथा स्पाइनल कॉर्ड में रोग अथवा चोट के कारण घाव से ग्रसित चूहों के रक्त में मानव अम्बेलिकल कॉर्ड के रक्त से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को मिश्रित करने के बाद यह पाया गया कि ये कोशिकाएँ ऐसे घावों तक पहुँच कर स्नायु तंत्र की नई कोशिकाओं के निर्माण में सहायक हैं तथा इन रोग–ग्रसित चूहों के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ है। अजन्मे मानव–भ्रूण को सुरक्षा कवच प्रदान करने वाले एम्नियॉटिक–द्रव से वैज्ञनिकों ने संभावना युक्त स्टेम कोशिकाओं का पता लगाया है। रक्त से प्राप्त स्टेम सदृश्य कोशिकाओं की सहायता से गंभीर हृदयाघात से पीड़ित चूहों के जैविक क्रिया–कलापों के पुर्नस्थापना में वैज्ञानिकों ने सफलता पाई है। स्टेम कोशिकाओं की सहायता से मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी नामक रोग से ग्रसित चूहों की क़मजोर पड़ती मांसपेशियों को फिर से ठीक करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उम्र के साथ घटती स्टेम कोशिकाओं की संख्या हमारी धमनियों की मरम्मत में गतिरोध उतपन्न करती हैं– जिसके कारण उनमें आर्थेरोस्क्लेरॉसिस होने लगती है। फलत: धमनियों में रक्त के बहाव में बाधा पड़ती है जो अंतत: हृदयाघात का कारण बन सकती है। भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के संबंध में चल रहे अनुसंधान के फलस्वरूप वैज्ञानिकों को डायबिटीज़ के कारणों एवं निदान की दिशा में कुछ नए सूत्र हाथ लगने की संभावना है। चूहे की अस्थिमज्जा की स्टेम कोशिकाएँ अब स्नायुतंत्र की कोशिकाओं में परिवर्तित की जा सकती हैं। वैज्ञानिकों ने पहली बार स्टेम कोशिकाओं से फेफड़े के क्षतिग्रस्त ऊतकों की पुनरोत्पत्ति में सफलता पाई। वैज्ञानिकों ने अब यह समझ लिया है कि मुर्गी के भ्रूणीय विकास के दौरान कान के विकास में संलग्न स्टेम कोशिकाओं को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है। ये चंद सुर्खियाँ हैं— विज्ञान जगत के उस हिस्से से जहाँ वैज्ञानिक हम मनुष्यों के स्वास्थ्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं एवं अनुसंधान द्वारा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहतें हैं कि किस प्रकार जटिल से जटिल समस्याओं का निदान सफलता पूर्वक किया जा सके तथा वर्तमान तकनीकि को परिमार्जित कर हमारी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को और आसानी से सुलझाया जा सके। उपरोक्त खबरें दे कर– केवल खबर देना ही इस आलेख का उद्देश्य नहीं है बल्कि यहाँ इरादा है–इन खबरों के पीछे की खबर लेना। अगर आप ध्यान से इन खबरों को पढ़ें तो आप पाएँगे कि इन सब में स्टेम कोशिका एक ऐसा शब्द है जो सब जगह आया है। तो आइए– सबसे पहले हम इसी बात की जाँच–पड़ताल कर लें कि ये स्टेम कोशिकाएँ हैं क्या बला एवं वैज्ञानिक क्यों इनके पीछे पड़े हुए हैं। बाद में इन खबरों और इन जैसी अन्य महत्त्वपूर्ण खबरों की खबर भी ली जाएगी। इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका का नाम जरूर दिया गया है–परंतु पेड़ के तने से इनका दूर–दूर तक लेना–देना नहीं हैं। ये कोशिकाएँ हमारे–आप के शरीर में–बल्कि यों कहें कि उच्च श्रेणी के सभी जन्तुओं के शरीर में पाई जाती हैं। भ्रूणीय विकास में इनकी भूमिका बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ – साथ विकसित शरीर में भी विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के उत्पादन के मूल में यही कोशिकाएँ होती है। इन कोशिकाओं तथा इनके महत्व को समझने के लिए भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया का थोड़ा–बहुत ज्ञान आवश्यक है। भ्रूणीय विकास का प्रारंभ शुक्राणु एवं डिंब के निषेचन से निर्मित युग्मक की उत्पत्ति के साथ ही हो जाता है। युग्मक तुरंत कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में संलंग्न हो जाता है और कुछ ही समय में सैकड़ों कोशिकाओं का उत्पादन होता है। इन कोशिकाओं की संरचना तथा कार्यकी में कोई अंतर नही होता। मानव भ्रूण में ये कोशिकाएँ ३ से ५ दिन के अंदर पुनर्व्यवस्थित हो कर एक खोखले गेंद के आकार की ब्लास्टोसिस्ट का निर्माण करती हैं। इस ब्लास्टोसिस्ट में एक स्थान पर लगभग ३० से ३५ कोशिकाओं के एक गुच्छे का निर्माण होता है– जिसे इनर सेल मास कहते हैं। इन कोशिकाओं में भी कोई अंतर नहीं होता है। इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका कहा जा सकता है क्यों कि अब इनके विभाजन के फलस्वरूप सैकड़ों उच्च कोटि की विशिष्ट कोशिकाओं का उत्पादन होता है–जिनकी संरचना एवं कार्यकी में अतंर होता है। ये विशिष्ट कोशिकाएँ भ्रूणीय विकास के दौरान विभिन्न प्रकार के ऊतकों के निर्माण में सहायक होती हैं। विकासशील भ्रूण के विकसित हो रहे नाना प्रकार के ऊतकों में भी ये स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो विभाजित हो कर तरह–तरह की विशिष्ट ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण करती हैं, जिनका उपयोग शरीर के विभिन्न अंगों यथा हृदय, फेफड़े, त्वचा आदि या फिर अन्य प्रकार के ऊतकों के निर्माण में होता है। यही नहीं, वयस्कों के विभिन्न अंगों जैसे अस्थिमज्जा, मांसपेशी, मस्तिष्क एवं अन्य ऊतकों में भी ये स्टेम कोशिकाएँ थोड़ी बहुत मात्रा में पाई जाती हैं। सामान्य अवस्था में ये कोशिकाएँ निष्क्रिय पड़ी रहती हैं परंतु बीमारी अथवा चोट या फिर समय के साथ जीर्णता के कारण जब इन अंगों की ऊतकीय कोशिकाओं का ह्रास होने लगता है, तब ये वयस्क स्टेम कोशिकाएँ हरकत में आती हैं एवं इस अंग विशेष या ऊतक में प्रयुक्त विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का निर्माण कर क्षतिपूर्ति में सहायक होती हैं। क्यों कि ऊतकीय कोशिकाएँ सामान्यत: कोशिका–विभाजन द्वारा अपने समान नई कोशिकाओं के निर्माण में अक्षम होती हैं। इन स्टेम कोशिकाओं में तीन विशिष्ट गुण समान रूप से पाए जाते हैं – चाहे ये भ्रूणीय अवस्था की हों अथवा वयस्क शरीर की।
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मोबाइल हो या माइक्रोवेव अवन:
सावधान! ख़तरों की भी है संभावना आजकल सूचना संप्रेषण के क्षेत्र में मोबाइल फोन ने धूम मचा रखी है। क्या शहर, क्या कस्बा, क्या गाँव... सभी जगह- क्या अमीर, क्या गरीब... जिसे देखो वही जेब में मोबाइल लिए घूमता है और जब चाहता है तब देश परदेश कहीं भी अपने प्रियजनों का चलते-फिरते हाल-चाल जानकर आश्वस्त हो जाता है। सूचना संप्रेषण के क्षेत्र में कितनी बड़ी सुविधा एवं क्रांति ले आया है यह मोबाइल! दूसरी तरफ बिना किसी धुएँ-धक्कड़ के त्वरित ढंग से खाना पकाने अथवा गरम करने के लिए माइक्रोवेव अवन का चलन भारत जैसे विकासशील देश में धीरे-धीरे बढ़ ही रहा है। बीसवीं सदी के आविष्कृत क्रांतिकारी घरेलू उपभोक्ता उपकरणों में संभवतः इसका स्थान अनूठा है। वास्तव में मोबाइल फोन पहले से ही उपयोग में आ रहे ट्रांस्मिटर्स का एक प्रकार से परिष्कृत रूप है। फर्क इतना है कि ट्रांस्मिटर पर एक समय में एक ही तरफ से बात की जा सकती है तो मोबाइल पर एक ही समय बात भी की जा सकती है तथा सुनी भी जा सकती है। साथ ही सेल टेक्नॉलॉजी के कारण इसकी सूचना संप्रेषण तथा ग्रहण क्षमता कई गुना बढ़ गई है। मोबाइल फोन में माइक्रोवेव का संप्रेषण एवं संग्रहण दोनों ही होता है। यह उपकरण बहुत ही कम वैटेज तथा निम्न-आवृत्ति दर पर कार्य करता है। वहीं माइक्रोवेव अवन में उच्च-आवृत्ति दर वाले माइक्रोवेव्स (सामान्यत: २५०० मेगा हर्ट्ज या २५ गीगा हर्ट्ज) का उत्पादन होता है (माइक्रोवेव अवन में माइक्रोवेव्स का उत्पादन सामान्यतया विशेष प्रकार के इलेक्ट्रॉन ट्यूब मे किया जाता है। सामान्य ट्रायोड इलेक्ट्रोड ट्यूब्स की तरह माइक्रोवेव्स का उत्पादन करने के लिए भी निर्वातित ट्यूब के अंदर कैथोड,एनोड तथा एक ग्रिड की व्यवस्था की जाती है, परंतु इनकी रूप-रेखा थोड़ी अलग होती है। कारण, इनमें उच्च-आवृत्ति दर वाले माइक्रोवेव्स का उत्पादन करना होता है। ट्यूब में एक इलेक्ट्रोड से दूसरे इलेक्ट्रोड की दूरी तय करने में लगने वाले समय का तरंगों की आवृत्ति का सीधा संबंध होता है। क्लाइस्ट्रॉन, मैग्नेट्रॉन तथा ट्रैवेलिंग-वेव ट्यूब - तीन मुख्य प्रकार के माइक्रोवेव ट्यूब्स हैं जिनका उपयोग रडार से लेकर माइक्रोवेव अवन तक में होता है।) उच्च-आवृत्ति दर वाले ये माइक्रोवेव्स जहाँ पानी, वसा तथा कार्बोहाइड्रेटस द्वारा आसानी से शोषित कर लिए जाते हैं तो वहीं कागज़, प्लास्टिक, ग्लास तथा सिरैमिक द्वारा नहीं शोषित होते तथा अधिकांश धातुओं द्वारा ये परावर्तित हो जाते हैं। जिन पदाथों द्वारा इनका शोषण होता है उनके परमाणुओं को ये उद्वेलित कर ताप उर्जा का उत्पादन करते हैं। इस प्रकार उत्पादित ताप ऊर्जा का उपयोग खाना गर्म करने से ले कर उसे पकाने के लिए होता है। कागज़, प्लास्टिक, ग्लास या सिरैमिक के बर्तन में माइक्रोवेव्स द्वारा खाना पकाने में परंपरागत इलेक्ट्रिकल अवन की तुलना में काफी कम ऊर्जा खर्च होती है तथा बहुत ही कम समय लगता है। कारण, इसमें माइक्रोवेव्स का उपयोग केवल खाने के अणुओं को उद्वेलित करने में ही खर्च होती है तथा भोजन एक सार रूप से एक ही समय अंदर से बाहर की ओर पकता है जबकि इलेक्ट्रिकल अवन में ताप संचालन द्वारा बाहर से अंदर की ओर जाता है, फलत: पहले अवॅन की हवा गर्म होती है, फिर बर्तन, तब कहीं जा कर भोजन बाहर से अंदर की ओर गर्म होता है, वह भी धीरे-धीरे। इसी लिए इसमें समय ज्यादा लगता है। ज्यादा समय लगने का अर्थ है ज्यादा ऊर्जा की खपत। यदि उचित समय तक तथा सही ताप पर भोजन न पकाया जाय तो उसके अंदर से कच्चा रह जाने का अंदेशा रहता है या फिर बाहरी हिस्से के जल जाने का खतरा रहता है। चूँकि मोबाइल फोन तथा माइक्रोवेव अवन की कार्य-विधि के पीछे `माइक्रोवेव्स' का हाथ है, अत: आइए इनके बारे में थोड़ी और जानकारी हासिल कर लें। दृश्य-अदृश्य प्रकाश, गामा एवं एक्स-रे, रेडियो फ्रीक्वेंसीज़ आदि की तरह ये भी एक प्रकार की विद्युत-चुंबकीय तरंगें हैं। इनका तरंग-दैर्ध्य (wavelength) सामान्यतया १ से.मी. से ले कर ३० से.मी. अथवा इससे भी कहीं अधिक ५० से.मी. होता है तथा आवृत्ति दर (frequency) ३ से ३०० गीगा हर्ट्ज़ (१गीगा हर्ट्ज़, एक अरब हर्ट्ज़ के बराबर होता है) तक परिसीमित होती है। सामान्य रेडियों तरंगों की तुलना में माइक्रोवेव्स की आवृत्ति दर कई गुना अधिक होती है। सूचना संप्रेषण की क्षमता का सीधा संबंध तरंगों की आवृत्ति दर से होता है, फलत: ये तरंगें रेडियो तरंगों की तुलना में कई गुना अधिक सूचना का वहन कर सकती हैं। इन माइक्रोवेव्स की एक और विशेषता यह है कि ये तरंगें `नॉन आयोनाइज़िंग' प्रकार की होती है अर्थात् इनमें इतनी ऊर्जा नहीं होती है कि एक्स-रे जैसी ऑयोनाइज़िंग किरणों की तरह जैविक कोशिकाओं के परमाणुओं से टकरा कर उनसे इलेक्ट्रॉन्स को अलग कर सामान्यतया गंभीर क्षति पहुँचा सकें। हाँ, एक समस्या अवश्य है - उच्च वैटेज पर कार्य करने वाले उपकरणों द्वारा उत्पादित उच्च-आवृति दर वाले माइक्रोवेव्स जैविक कोशिकाओं का ताप बढ़ा कर उन्हें गंभीर क्षति पहुँचा सकते हैं। लेकिन सूचना संप्रेषण के लिए उपयोग में लाए जा रहे मोबाइल फोन्स बहुत ही कम वैटेज का उत्पादन करते हैं। एनॉलॉग फोन्स लगभग ६००mW तथा डिजिटल फोन्स मात्र १२५mW का उत्पादन करते हैं। साथ ही इनमें कम आवृति दर वाले माइक्रोवेव्स (लगभग ९०० अथवा १९०० मेगा हर्ट्ज) का उपयोग होता है (जीएसम फोन्स मात्र १८०० मेगा हर्ट्ज पर कार्य करते हैं)। इतने कम वैटेज पर उत्पादित निम्न आवृति दर वाले मोक्रोवेव्स द्वारा जैविक कोशिकाओं को पहुँचने वाली हानि न के बराबर है - ऐसा बहुतेरे अनुसंधानकर्ताओं तथा मोबाइल कंपनियों का मानना है और ऐसा ही वे अपने द्वारा प्रायोजित अनुसंधानों द्वारा सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं। दूसरी ओर माइक्रोवेव अवन में उच्च आवृति दर वाले माइक्रोवेव का उपयोग अवश्य होता है लेकिन इस अवन में ऐसी पक्की व्यवस्था की जाती है कि ये वेव्स अवन के बाहर न निकल सकें। अत: माइक्रा्रेवेव अवन के उपयोग से हमारे शरीर के किसी भी हिस्से को क्षति पहुंचने की संभावना न के बराबर होती है। शर्त यह है कि माइक्रोवेव अवन किसी भी प्रकार से दोषयुक्त न हो। माइक्रोवेव्स के आधार पर चलने वाले मोबाइल फोन, अवन या ऐसे ही अन्य उपकरण, जिनके कारण हमारा शरीर इन वेव्स के सीधे संपर्क में आता हो अथवा वे पदार्थ, जिन्हें माइक्रोवेव्स के संपर्क में रखने के बाद हम अपने उपयोग में ला रहे हों के संदर्भ में सामान्य जन से ले कर वैज्ञानिकों का एक समूह शुरू से ही शंकालू रहा है। इन उपकरणों के उपयोग की वकालत करने वालों की लाख दलीलों के बावज़ूद इनका मानना है कि माइक्रोवेव्स किसी न किसी रूप में हमारे शरीर को क्षति अवश्य पहुँचाते हैं। हाल ही में यूरोपियन सोसाइटी ऑफ ह्यूमन रिप्रोडक्शन ऐंड एंब्रियोलॉजी की मीटिंग में हंगेरियन वैज्ञानिकों की एक टीम ने मात्र २२१ व्यक्तियों पर एक छोटे से अध्ययन के बाद यह बात उठाई कि मोबाइल फोन को पैंट के पॉकेट में लगातार रखने पर शुक्राणु की संख्या लगभग ३० प्रतिशत की कमी होने की संभावना होती है। हालांकि इस रिपोर्ट को सीमित अध्ययन के कारण सोसाइटी ने जारी करने से मना कर दिया दिया, लेकिन मीडिया में इसका खूब प्रचार हुआ और इसने एक बार फिर से माइक्रोवेव्स के हानिकारक प्रभावों के मुद्दे को गर्मा दिया है। मोबाइल फोन को लोग अक्सर कान के पास रख कर बात करते हैं अर्थात् कान के आस-पास के ऊतक तथा मस्तिष्क के इस हिस्से की कोशिकाएँ लगातार माइक्रोवेव्स के संपर्क में रहती हैं। भले ही ये वेव्स कम आवृत्ति दर तथा वैटेज की हों, फिर भी आस-पास की कोशिकाओं के अणुओं को कुछ सीमा तक उद्वेलित तो करती ही हैं। इस प्रकार के लगातार उद्वेलन के दुष्प्रभाव को ले कर लोग शंकालू भी रहे हैं। इसे ट्यूमर तथा कैंसर से जोड़ कर देखने का प्रयास किया गया है। १९९२ में डेविड रेनार्ड नामक व्यक्ति ने फ्लोरिडा के एक कोर्ट में एक केस किया जिसमें उसने आरोप लगाया कि मोबाइल फोन के उपयोग के कारण उसकी पत्नी को ब्रेन कैंसर हो गया। हालाँकि १९९५ में कोर्ट ने पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इस केस को समाप्त कर दिया, फिर भी इसने मोबाइल फोन के उपयोग के दुष्प्रभावों के प्रति लोगों के कान खड़े कर दिए। नतीजा- कैंसर तथा माइक्रोवेव्स के संदर्भ में वृहद् पैमाने पर शोध कार्य। ध्यान रहे ऐसे अधिकांश शोध-कार्य मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनियों के धन के बल ही चल रहे थे। इन शोध-कार्यों में ध्यान इस बात पर था कि ये फोन वास्तव में कैंसर के कारण हैं या नहीं। लंबे समय तक किए गए ये अनुसंधान या तो जानवरों पर केंद्रित रहे या फिर ब्रेन कैंसर से पीड़ित या मृत व्यक्तियों द्वारा मोबाइल फोन के उपयोग की काल-अवधि के आकड़ों का विश्लेषण करते रहे। इन्हें मोबाइल फोन तथा कैंसर में कोई सीधा संबध नज़र नहीं आया। लेकिन यह भी सिद्ध नहीं हो पाया कि इन दोनों में बिल्कुल ही कोई संबंध नहीं है। यह सिद्ध कर पाना वास्तव में मुश्किल भी है क्योंकि कैंसर किसी एक वजह से नहीं होता। यह उन्हें भी होता है जो मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करते और उन्हे भी जो मोबाइल फोन का उपयोग लगातार करते रहते हैं। शुक्राणुओं की संख्या में कमी के पीछे निश्चित रूप से मोबाइल फोन ही हैं, कह पाना कठिन है। नोकिया के उत्पादन में संलग्न फिनलैंड के लोगों में शुक्राणुओं की संख्या बिल्कुल ठीक-ठाक पाई गई। लेकिन यह कह पाना भी कठिन है कि शुक्राणुओं की संख्या में कमी के पीछे मोबाइल फोन्स का हाथ बिल्कुल ही नहीं है। कुछ भी सुनिश्चित ढंग से कहने के लिए अभी भी लंबी अवधि तक किए जाने वाले व्यवस्थित अनुसंधानों की आवश्यकता है। दूसरी ओर माइक्रोवेव अवन में पकने वाले भोजन पर भी कुछ प्रश्न चिह्न हैं। उच्च वैटेज पर माइक्रोवेव अवन के मैग्नेट्रॉन ट्यूब से २५ गीगा हर्ट्ज की उच्च आवृत्ति दर वाली माइक्रोवेव्स से भोजन को पकाया जाता है। ये माइक्रोवेव्स, भोजन (विशेषकर उसमें उपस्थित पानी) के अणुओं की पोलैरिटी को प्रति सेकेंड लाखों बार परिवर्तित करते रहते हैं। इनके इसी उद्वेलन के फलस्वरूप उत्पन्न घर्षण ऊर्जा द्वारा भोजन गर्म हो कर पकता है। इस अति उच्च आवृत्ति पर उद्वेलित अणु भोजन में उपस्थित आस-पास के अन्य अणुओं-परमाणुओं में स्थाई-अस्थाई संरचनात्मक तथा रासायनिक विकृति की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। इन विकृत भोज्य पदार्थों का हमारे शरीर पर किस सीमा तक कुप्रभाव पड सकता है, यह गंभीर शोध का विषय है। मोबाइल फोन की तरह १९९१ में ओकलहामा के कोर्ट में कमर की शल्य चिकित्सा के दौरान माइक्रोवेव में गर्म कर रक्त दिए जाने के फलस्वरूप नोर्मा लेविट नामक महिला रोगी की मृत्यु से संबंधित एक केस था। इसमें यह दावा किया गया था कि माइक्रोवेव्स द्वारा गर्म किए जाने के कारण रक्त में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए जिनके फलस्वरूप महिला की मृत्यु हुई। हालांकि निचित रूप से कुछ कह पाना संभव नहीं है फिर भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि माइक्रोवेव्स ने दिए जाने वाले रक्त में कुछ ऐसा परिवर्तन किया होगा जो महिला की मृत्यु का कारण बना। इस संदर्भ में १९८९ में स्वीडिश भोजन वैज्ञानिक डॉ हैन्स उल्रिच हर्टेल तथा स्वीडिश फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी से संबद्ध प्रो.बर्नार्ड ब्लॉंक के शोध कार्य उल्लेखनीय है। स्वयंसेवकों के दल के सदस्यों को दूध तथा सब्जियों को कच्चे रूप में तथा उन्हें तरह-तरह से पका कर,जिसमें माइक्रोवेव अवन भी शामिल था, नियंत्रित रूप से दिया गया। ऐसा भोजन देने के पूर्व तथा बाद में इन स्वयंसेवकों के रक्त के नमूने की लगातार जांच की गई। माइक्रोवेव अवन में गर्म किए गए दूध तथा पकी सब्जियों का सेवन करने वाले स्वयंसेवकों के रक्त में हीमोग्लोबिन तथा अच्छे कोलेस्टेरॉल की मात्रा कम अनुपात में थी, साथ ही लिम्फोसाइट प्रकार की श्वेत रूधिर कणिकाओं की संख्या में भी अस्थाई रूप से कमी देखी गई। जैसे ही इन्होंने अपने शोध के परिणामों का प्रकाशन आरंभ किया, स्विश असोसियेशन ऑफ डीलर्स फॉर इलेक्ट्रो-अपरेटसेज़ फॉर हाउसहोल्ड इंडस्ट्रीज़ तुरंत हरकत में आ गई एवं स्वीडिश कोर्ट ने १९९३ में इनके शोध कार्य के परिणामों के प्रकाशन पर रोक लगा दी। एक लंबी लड़ाई के बाद यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने १९९८ में इस रोक को समाप्त किया। माइक्रोवेव्स का हमारे स्वास्थ्य पर क्या-क्या प्रभाव पड़ता है- इस संदर्भ में किए गए तथा किए जा रहे शोध कार्यों की कमी नहीं है। इसमें रूस तथा जर्मनी के वैज्ञानिक अग्रणी रहे हैं। अमेरिका तथा अन्य देशों के वैज्ञानिकों ने भी इस विषय पर काफी-कुछ शोध किया है। रूसी वैज्ञानिकों के शोध के परिणाम निश्चय ही इतने गंभीर थे कि १९७५-७६ में तत्कालीन रशियन सरकार ने माइक्रोवेव्स के आधार पर चलने वाले सभी प्रकार के उपकरणों के सामान्य जन द्वारा उपयोग पर रोक लगा दी थी। |
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हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और
उसके जुझारू सैनिक-1 वैसे तो पौराणिक ग्रंथ महाभारत और उसमें वर्णित अद्भुत दिव्य अलौकिक शक्तियों से युक्त तमाम नायक-नायिकाओं की जानकारी हममें से अधिकांश को है ही, लेकिन यहाँ इस ग्रंथ के एक महानायक कर्ण का उल्लेख करना प्रासंगिक है। यह तथाकथित सूर्य-पुत्र विशिष्ट प्रकार के कवच एवं कुंडल के साथ ही पैदा हुआ था। कवच इसकी त्वचा एवं कुंडल उसके कान के अभिन्न हिस्से थे। इनके रहते इस पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो सकता था। कर्ण को युद्ध में हराने एवं मारने के लिए स्वयं इंद्र को उसके पास जाकर इस सुरक्षा प्रणाली का दान माँगना पड़ा था। कितना भाग्यशाली था न कर्ण? लेकिन उससे ईर्ष्या करने और अफ़सोस करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ हम साधारण मनुष्यों के पास भले ही न हों, लेकिन प्रकृति हम पर भी काफ़ी मेहरबान है। प्रकृति ने हमें भी एक मज़बूत सुरक्षा प्रणाली प्रदान कर रखी है। यह प्रणाली नाना प्रकार के घातक अस्त्र-शस्त्रों के प्रति भले ही अभेद्य न हो, परंतु तमाम प्रकार के सामान्य या फिर घातक रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं से लगातार हमारी रक्षा करने का प्रयास करती रहती है और इस प्रयास में अक्सर सफल भी रहती है। यह सुरक्षा प्रणाली, जिसे प्रतिरोधक तंत्र के नाम से जाना जाता है, सदैव सक्रिय रहती है और अपना काम इतने चुपचाप तरीक़े से करती रहती है कि हमें इसका भान भी नहीं होता है। विज्ञानवार्ता में इसी तंत्र को समझने-बूझने का प्रयास किया जाएगा। अगर मैं यह कहूँ कि इस प्रतिरोधक तंत्र में अर्धसैनिक-बल से ले कर तरह-तरह के हरबा-हथियारों से लैस, आमने-सामने की लड़ाई में दक्ष सैनिकों के दस्ते, नाना प्रकार के रसायनिक हथियारों को स्वयं ही संश्लेषित करने एवं उनका उपयोग करने की क्षमता से लैस उच्चकोटि के तकनीकि सैनिक-बल एवं यहाँ तक कि मरे हुए सैनिक भी इस सुरक्षा प्रणाली में शामिल हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में, ये सैनिक बल और कोई नहीं हमारी अपनी कोशिकाएँ ही हैं जो अलग-अलग विशिष्टताओं से लैस होती हैं। आखिरकार सूक्ष्म जीवाणुओं से लड़ने के लिए सूक्ष्म कोशिकाएँ ही कारगर हो सकती हैं न। बड़े-बड़े विशालकाय योद्धा भला किस काम के! इस प्रणाली की संरचना कैसी है और यह कैसे काम करती है, आइए अब इसे समझा जाए। इस प्रणाली का एक हिस्सा हमें जन्म के साथ विरासत में मिलता है और दूसरा हिस्सा हम जन्म के बाद नाना प्रकार के जीवाणुओं का सामना करते हुए अर्जित करते हैं। नैसर्गिक (innate) अथवा जन्म से मिली सुरक्षा प्रणाली लगभग सभी प्रकार के जीवाणुओं या फिर अन्य प्रकार के अनजाने, अनचीन्हे पदार्थों का शरीर में प्रवेश अवरुद्ध करने का प्रयास करती है। इस नाकेबंदी के बाद भी यदि बाहरी तत्व शरीर में प्रवेश कर पाने में सफल हो जाते हैं तो इसी प्रणाली के अन्य अवयव उन्हें तुरंत मार डालने या फिर कम से कम उन्हें निष्क्रिय करने का प्रयास अवश्य करते हैं। हमारे शरीर की खूबसूरत त्वचा एवं आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाला एंडोथीलियल मेंब्रेन, इस प्रणाली के महत्वपूर्ण अवयव हैं। ये दोनों ही सीमा पर तैनात सजग प्रहरियों के समान सदैव सक्रिय रहते हैं। सबसे पहले तो ये विदेशी तत्वों को शरीर में घुसने ही नहीं देते यदि वे किसी तरह घुस भी गए तो उन्हें पकड़ना और बाहर खदेड़ना भी इनके ज़िम्मे है। त्वचा का बाहरी हिस्सा लाखों-करोड़ों कोशिकाओं की कई परतों का बना होता है। इसकी सबसे भीतरी परत की कोशिकाओं में ही विभाजन की क्षमता होती है एवं यह प्रक्रिया इनमें सदैव चलती रहती है। इस प्रकार नवनिर्मित कोशिकाएँ पुरानी कोशिकाओं की परतों को बाहर की ओर ठेलती रहती हैं। जैसे-जैसे पुरानी परतें बाहर की ओर आती हैं, इनकी कोशिकाएँ चिपटी होती जाती हैं एवं इनके अंदर पाया जाने वाला एक विशेष प्रोटीन अघुलनशील किरैटिन में बदलता जाता है। त्वचा की बाहरी सतह तक आते-आते ये कोशिकाएँ मृतप्राय: हो जाती हैं और सूख कर त्वचा से अलग होती रहती हैं। इन किरैटिनयुक्त मृतप्राय: कोशिकाओं को जीवाणुओं के लिए भेद पाना मुश्किल होता है और यदि इसे भेदने में ये सफल भी हो जाते हैं तो जब तक ये त्वचा की भीतरी परतों में प्रवेश करें, इन्हें मृतप्राय: कोशिकाओं के साथ शरीर से अलग कर दिया जाता है। यही नहीं, यह त्वचा हमें गर्मी-सर्दी के साथ-साथ वातावरण के तमाम हानिकारक अवयवों यथा रेडिएशन, अम्लीय, क्षारीय वस्तुओं के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है। शरीर के कई आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाली एंडोथीलियल मेंब्रेन की कोशिकाएँ प्राय: एक ही परत में सिमटी होती हैं लेकिन ये कई प्रकार की होती हैं और तरह-तरह से हमें सुरक्षा प्रदान करती है। यथा- आहार नाल, श्वसन तथा प्रजनन तंत्र के विभिन्न हिस्सों में ये एक प्रकार के गाढे द्रव का श्राव करती है जो इन तंत्रों में घुसे जीवाणुओं तथा अन्य बाहरी तत्वों को फँसाने का कार्य करती हैं एवं अन्य प्रकार की कोशिकाएँ जिनके बाहरी सतह पर अत्यंत बारीक बालनुमा संरचनाएँ होती हैं, इन जीवाणुओं को इन अंगों से बाहर निकालने के प्रयास में लगी रहती हैं। छींकना, खाँसना आदि इसी प्रयास के उदाहरण हैं। कई अंगों में ये एंडोथिलियल कोशिकाएँ ग्रंथि का रूप ले लेती हैं, जिनके श्राव तरह-तरह से हमारी सुरक्षा करते हैं। यथा- मुख में लार, आँखों में आँसू या फिर स्तन में दूध का उत्पादन करने वाली ग्रंथियाँ लाइसोज़ाइम एवं फास्फोलाइपेज़ नामक एंज़ाइम का श्राव भी करती हैं, जो बैक्टीरिया के सेलवाल को ही पचाने की क्षमता रखती हैं और इस प्रकार इन अंगों में उनका विनाश करती रहती हैं। हमारे आमाशय में ऑक्ज़िटिक नामक एंडोथीलियल कोशिकाएँ हाइड्रोक्लोरिक एसिड के उत्पादन में संलग्न रहती हैं। यह एसिड भोजन के साथ घुस आए अधिकांश बैक्टीरिया का सफाया कर देने की क्षमता रखता है। त्वचा एवं श्वसन तंत्र की कोशिकाएँ भी बीटा डिफेंसिन जैसे एंटीबैक्टीरियल रसायन का श्राव करती हैं, जो जीवाणुओं के विनाश में काम आते हैं। हमारे शरीर की कुछ विशिष्ट कोशिकाएँ जब वाइरस से संक्रमित होती हैं तो एक विशेष प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स इंटरफेरॉन्स का उत्पादन करती हैं। ये रसायन आसपास की कोशिकाओं को वाइरस संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता से सुसज्जित करने में सहायक होते हैं। परिणाम स्वरूप व्यक्ति की वाइरस प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त प्रकृति ने हमारे जनन, उत्सर्जन एवं आहार नाल के शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्रों एवं उनसे जुड़ी नलिकाओं में हानिरहित सहभोजी बैक्टीरिया का जंगल उगा रखा है। इन रास्तों से शरीर में घुसने वाले हानिकारक जीवणुओं का प्रतिरोध ये सहभोजी बैक्टीरिया भी करते हैं। ये बैक्टीरिया इन संक्रामक जीवाणुओं से भोजन एवं आवास के लिए प्रतिस्पर्धा करने के साथ-साथ इन स्थानों की क्षारीयता एवं अम्लीयता मे परिवर्तन कर संक्रामक जीवाणुओं का जीवन दूभर कर देते हैं। इन कारणों से इन रास्तों से घुसने वाले जीवाणुओं की संख्या उस सीमा तक नही पहुँच पाती जिससे व्यक्ति रोग-ग्रसित हो जाए। नाना प्रकार के प्रतिरोधकों-अवरोधकों से सुसज्जित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली का वरदान प्रकृति ने हमें दिया है। भला हम किस कर्ण से कम सौभाग्यशाली हैं? लेकिन बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है। इन तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भी रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु हमारे शरीर मे घुस ही जाते हैं एवं तरह-तरह के रोगों का कारण बनते हैं। आख़िर ये संक्रामक जीवाणु कोई हँसी खेल तो है नहीं। इनके पास भी तरह-तरह के रसायनों के रूप मे सक्षम आक्रमक क्षमता होती है, जो हमारी नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर सकती है और इन्हें हमारे शरीर में प्रवेश दिला सकती है। ये रसायन मुख्य रूप से एंज़ाइम्स ही होते हैं जो हमारी बाह्य सुरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं को नष्ट कर शरीर में इनके प्रवेश को सुगम बनाते हैं। शरीर में ये जीवाणु येन-केन प्रवेश पा गए इसका मतलब यह नहीं है कि बस, अब शरीर पर इनका साम्राज्य स्थापित हो गया। शरीर के अंदर भी इनसे निपटने के हमारे पास तमाम कारगर तरीक़े हैं। कुछ तरीक़े तो ऊपर वर्णित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के ही अंग हैं लेकिन बाकी हमारे द्वारा अर्जित सुरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं, जिनकी कार्य प्रणाली जटिल परंतु ज़्यादा कारगर है। आइए, पहले इस अंक में नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए, फिर अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली (aquired) पर बातचीत की जाएगी। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के सभी अवयव निर्विश्ष्टि प्रकार के होते हैं अर्थात ये रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं अथवा अन्य हानिकारक तत्वों के (जिनका प्रवेश शरीर में बाहर से होता हो) खिलाफ़ समान रूप से कार्रवाई करते हैं। इस कार्रवाई में ऐसे जीवाणुओं एवं हानिकारक तत्वों की पहचान से लेकर उनका विनाश सब कुछ शामिल होता है। जीवाणुओं के किसी अंग या ऊतक में प्रवेश करते ही सबसे पहली प्रतिक्रिया उस अंग विशेष अथवा ऊतक में प्रदाह के रूप में देखी जाती है। यह प्रदाह उस अंग या ऊतक में सूजन एवं लालिमा के साथ-साथ दर्द एवं बुखार के रूप में परिलक्षित होता है। इसका कारण है, इस संक्रमित क्षेत्र में रक्त प्रवाह का अचानक बढ़ जाना। संक्रमण के कारण घायल अथवा संक्रमित कोशिकाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार के रसायन समूहों का उत्पादन एवं श्राव करने लगती हैं- एइकोसैन्वाएड्स तथा साइटोकाइन्स। एइकोसैन्वायड्स समूह का एक उदाहरण प्रोस्टाग्लैंडिंस है, जो ताप बढ़ाने एवं रक्त वाहिनियों को फैला कर उस क्षेत्र मे रक्त प्रवाह को बढ़ाने का काम करते हैं। इसी समूह के रसायन का दूसरा उदाहरण है- ल्युकोट्रीन्स, जो संक्रमित क्षेत्र में ल्युकोसाइट्स (श्वेत रक्त कणिकाओं) को अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित करती है। बढ़ा हुआ ताप जीवाणुओं को मारने या फिर उनकी संख्या कम करने में सहायक होता है क्योंकि उच्च ताप पर जीवाणुओं के एन्ज़ाइम्स नष्ट होने लगते हैं। ल्युकोसाइट्स (जो हमारी मुख्य सुरक्षा सेना है) की उपयोगिता के बारे में आगे बताया जाएगा। इंटरल्युकिंस, ल्युकोसाइट्स के मध्य संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा इंटरफेरॉन्स, जो वाइरस-संक्रमित कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण को बंद कर वाइरस प्रतिरोधी प्रभाव उत्पन्न करते हैं- साइटोकाइन्स समूह के उदाहरण हैं। साइटोकाइन्स तथा इसी प्रकार के अन्य रसायन संक्रमित क्षेत्र मे अधिक से अधिक संख्या में नाना प्रकार के प्रतिरोधी कोशिकाओं को आकर्षित करते हैं ताकि घायल ऊतकों की मरम्मत के साथ-साथ जीवणुओं का सफाया भी किया जा सके। उपरोक्त प्रतिरक्षा उपायों में ल्युकोसाइट्स ज़िक्र आया है। वास्तव में ये मुख्य रूप से पाँच प्रकार के होते हैं - इयोसिनोफिल्स, बेसोफिल्स, न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स एवं लिम्फोसाइट्स। इन सभी का उत्पादन हमारी अस्थियों की श्वेत मज्जा में ही होता है, परंतु इनकी संरचना एवं कार्यविधि में अंतर होता है। न्युट्रोफिल्स तथा मोनोसाइट्स स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली भक्षक कोशिकाओं की श्रेणी मे आती हैं। मोनोसाइट्स संक्रमित ऊतक में पहुँच कर मैक्रोफेजेज़ में पविर्तित हो जाती हैं। ये कोशिकाएँ संक्रमित ऊतकों में घूम-घूम कर जीवाणुओं का न केवल पहचान करती हैं, बल्कि उनसे चिपट कर (यदि वे आकार में बड़े हैं) या फिर उनका भक्षण कर (यदि वे आकार में छोटे हैं), सफाया करती हैं। इनके अतिरिक्त ऊतकों में उपस्थित नेचुरल किलर सेल्स वाइरस संक्रमित एवं ट्युमर कोशिकाओं के मेंब्रन में छिद्र बनाते हैं जिनके द्वारा इनमें पानी घुसने लगता है और अंत में ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ सीमा तक इओसिनोफल्सि, बेसेफिल्स, ऊतकों में पाए जाने वाले डेंड्राइटिक तथा मास्ट कोशिकाएँ भी इस नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं जो येन-केन-प्रकरेण जीवाणुओं का सफाया करनें में सहायक होती हैं। इनके अतिरिक्त तीस से भी अधिक प्रोटीन्स से सुसज्जित एक पूरक तंत्र भी होता है जो न केवल नैसर्गिक अपितु अर्जित सुरक्षा प्रणाली में भी भागीदार है। इस तंत्र के प्रोटीन्स तरह-तरह के तरीक़ों से इन संक्रामक जीवाणुओं से हमारी रक्षा करने में जुटे रहते हैं। कैसे? इसकी चर्चा अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली की चर्चा के साथ की जाएगी। |
Re: विज्ञान दर्शन
हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और
उसके जुझारू सैनिक-2 हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक-1 में आप का परिचय आप की सुरक्षा प्रणाली के न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स, एवं नेचुरल किलर सेल्स जैसे उन योद्धाओं से कराया गया था जो नैसर्गिक तंत्र का हिस्सा हैं। ये हमारे जन्म से ही रक्षा-कार्य में संलग्न रहते हैं। न इन्हें किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है और न ही इन्हें किसी हरबा-हथियार से सुसज्जित करने की। ये योद्धा सभी शत्रुओं के साथ समभाव रखते हैं यानि उनमें अंतर नहीं कर पाते। सभी पर समान भाव से आक्रमण करते हैं। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ये ज़रा कम बुद्धि के होते हैं। गनीमत है, बल्कि आप इनका एहसान मानिए कि इनमें कम से कम अपने-पराए का भेद करने की तमीज़ होती है वर्ना दुश्मन तो दुश्मन, आप के शरीर की अपनी कोशिकाओं को भी ये खा-पी कर बराबर कर देते। इन शूरमाओं के रहते हुए भी आप पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दुश्मन बड़े ही चालाक होते हैं। बड़ी आसानी से इन शूरमाओं को धता बता देते हैं। ऐसे चालाक दुश्मनों से निपटने के लिए ही प्रकृति ने हमें अर्जित सुरक्षा प्रणाली से लैस कर रखा है। लिंफोसाइट्स इस सुरक्षा प्रणाली के प्रमुख योद्धा हैं। न्युट्रोफिल्स एवं मोनोसाइट्स के समान ये भी एक प्रकार के ल्युकोसाइट्स ही हैं। बस इनके काम करने का तरीका अलग और बुद्धिमत्तापूर्ण होता है। इनमें अपने - पराए की विभेदक क्षमता उच्चकोटि की होती है। न केवल ये आक्रमक जीवाणुओं एवं उनसे श्रावित रसायनों की पहचान आसानी से कर लेते हैं बल्कि उन जीवाणुओं या फिर अन्य बाहरी रसायनिक पदार्थों के अणुओं में भेद कर पाने की क्षमता भी इनमें होती है। साथ ही ये यह भी सुनिश्चित करते हैं कि शरीर की अपनी कोशिकाओं एवं उनसे श्रावित रसायनों पर किसी भी प्रकार की प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई न हो और उन्हें किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। यही नहीं, एक बार किसी जीवाणु या उनके द्वारा श्रावित रसायन का सामना कर लेने के पश्चात इनमें उन्हें याद रखने एवं भविष्य में दुबारा सामना होने पर तुरंत पहचान लेने की भी क्षमता होती है, साथ ही उनसे किस प्रकार निपटा जाना चाहिए, यह भी इन्हें याद रहता है। यही कारण है कि शरीर में किसी जीवाणु-विशेष का आक्रमण होने पर इस प्रणाली द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई त्वरित एवं प्रभावी होती है। कैसे होता यह सब? आइए, अब इसे समझने का प्रयास किया जाए।सामान्यतया एक स्वस्थ मनुष्य में लगभग बीस खरब लिम्फोसाइट्स होती हैं एवं इनका उत्पादन मुख्य रूप से हमारी अस्थिमज्जा में होता है। जिस प्रकार सेना के विभिन्न अंगों एवं दस्तों का प्रशिक्षण अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से होता है, इसी प्रकार उत्पादन के बाद कुछ लिम्फोसाइट्स का प्रारंभिक प्रशिक्षण, परिमार्जन एवं परिपक्वन तो अस्थिमज्जा में ही होता है एवं बाकी को थाइमस नामक ग्रंथि में भेज दिया जाता है। अस्थिमज्जा में प्रशिक्षित, परिमार्जित एवं परिपक्वित होने वाले लिम्फोसइट्स को बी लिम्फोसाइट्स एवं थाइमस वाले को टी लिम्फोसाइट्स नाम दिया गया है। इन प्राथमिक लिंफ़्वॉयड अंगों में परिपक्वन के बाद इन्हें लिम्फ़ऩोड्स, स्प्लीन एवं टांसिल जैसे परवर्ती लिंफ्वॉयड अंगों में भेज दिया जाता है, जहाँ जीवाणुओं एवं उनसे उत्पादित विशिष्ट रसायनों एंटीजेंस का सामना करते हुए इनकी संख्या में वृद्धि होती है एवं एंटीजेन-विशिष्ट से निपटने के लिए इनमें सक्रियता आती है।यह प्रणाली तभी सक्रिय होती है जब इसका सामना जीवाणु-विशेष या फिर उनके एंटीजेन-विशेष से होता है। वास्तव में ये एंटीजेंस केवल प्रोटीन या फिर प्रोटीनयुक्त अन्य रसायनों के बड़े अणु होते हैं एवं इनका निर्माण शरीर की अपनी कोशिकाएँ भी करती हैं तथा जीवाणुओं की कोशिकाएँ भी। इन बी एवं टी लिंफोसाइट्स में यह अद्भुत क्षमता होती है कि ये इन बाहरी एंटीजेंस को अपने शरीर की कोशिकाओं द्वारा उत्पादित स्व-एंटीजेंस से अलग कर तुरंत पहचान लेती हैं एवं उन्हीं के विरुद्ध प्रतिरोधक कार्रवाई करती हैं। ऐसा इस लिए संभव हो पाता है क्योंकि हरेक एंटीजेन के भाग-विशेष में अणुओं-परमाणुओं का ऐसा संयोजन होता है जो इन्हें विशिष्ट पहचान देता है। एंटीजेंस के इन विशिष्ट अंशों को एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स की संज्ञा दी गई है। इन्हीं एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स को ये लिंफोसाइट्स अपने द्वारा उत्पादित एंटीबॉडी-विशेष या फिर अपने बाहरी सतह पर अवस्थित रिसेप्टर-विशेष की मदद से तुरंत पहचान लेते हैं एंव उनके विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं। निश्चय ही नाना प्रकार के विदेशी एंटीजेंस की पहचान के लिए नाना-प्रकार के एंटीबॉडीज़ उत्पादित करने वाले एवं नाना प्रकार के एंटीजेन-रिसेप्टर से युक्त लिंफोसाइट्स की आवश्यकता पड़ती है। हालाँकि बी एवं टी लिंफोसाइट्स अर्जित प्रतिरक्षा तंत्र के ही हिस्से हैं और एक दूसरे से संबद्ध भी हैं फिर भी इनके काम करने का तरीका अलग-अलग होता है। बी लिंफोसाइट्स एंटीजेन-विशेष को उसी प्राकृतिक रूप में पहचाने की क्षमता रखते हैं। यह क्षमता इनके बाहरी सतह पर अवस्थित बी सेल रिसेप्टर्स या फिर विशेष प्रकार के इम्युनोग्लोबिन्स की उपस्थिति के कारण होती है। टी लिंफोसाइट्स एंटीजेंस को उनके प्राकृतिक रूप में नहीं पहचान सकते। ये केवल परिमार्जित एंटीजेंस की ही पहचान कर सकते हैं। यह परिमार्जन मुख्य रूप से डेंड्राइटिक, बी या फिर मैक्रोफेजेज़ कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। इसी लिए इन कोशिकाओं को एंटीजेन प्रजेटिंग कोशकाओं के नाम से भी जाना जाता है।बी लिंफोसाइट्स भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो अपने संपर्क में आए एंटीजेन-विशेष के विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई के लिए सीधे तौर पर सक्रिय हो जाते हैं एवं विशिष्ट प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स (इन ग्लाइकोप्राटीन्स को इम्युनोग्लोबिन्स या फिर एंटीबॉडीज़ के नाम से भी जाना जाता है) का उत्पादन करने लगते हैं और दूसरे वे जिन्हें सक्रिय करने के लिए विशेष प्रकार के टी हेल्पर लिंफोसाइट्स सेल्स की सहायता की आवश्यकता होती है। पहले प्रकार के बी लिंफोसाइट्स की संख्या बहुत कम होती है। अधिकांश बी लिंफोसाइट्स सक्रियता के लिए टी सेल्स पर आश्रित ही होते हैं। अस्थिमज्जा में बनने वाले बी लिंफोसाइट्स एक प्रकार से निष्क्रिय एवं अनुभवहीन कोशिकाएँ होती हैं। जब ये कोशिकाएँ परवर्ती लिंफ्यॉड अंगों में आती हैं तो घुलनशील प्रकार के एंटीजेन-विशिष्ट को स्वयं में आत्मसात कर लेती हैं। यदि ये बी सेल्स पहले प्रकार के हैं तो इतना काफ़ी है। ये एंटीजेंस ही इन कोशिकाओं को सक्रिय कर देते हैं और ये एंटीबॉडी का उत्पादन करने लगती हैं। और यदि ये दूसरे प्रकार के होते हैं, तो ये आत्मसात किए गए एंटीजेन को मेजर हिस्टोकांपैटैबिलिटी कॉमप्लेक्स क्लास २ प्रकार के विशेष प्रोटीन से युक्त कर परिमार्जित करते हैं एवं इस पुन: अपने आवरण पर स्थापित कर देते हैं। यह कॉम्लेक्स समान संरचना वाले विशेष टी हेल्पर कोशिकाओं द्वारा पहचान लिए जाते हैं। टी हेल्पर सेल्स इनसे जुड़ कर साइटोकाइन्स प्रकार के रसायन का उत्पादन करते हैं जिसके फलस्वरूप बी लिंफोसाइट्स सक्रिय हो जाते हैं एवं विभाजित होने के साथ इस एंटीजेन विशेष के विरुद्ध एंटीबॉडी संश्लेषित करने वाले प्लाज़्मा सेल्स (इफेक्टर सेल्स) में परिवर्तित हो जाते हैं। इनमें से कुछ मेमोरी सेल्स में भी परिवर्तित हो जाते हैं। दूसरी बार उसी प्रकार के एंटीजेन का सामना होने पर ये त्वरित गति से एवं पहले की तुलना में काफ़ी तीखी प्रतिकिया व्यक्त करते हैं फलस्वरूप उन्हें उत्पादित करने वाले जीवाणुओं का तुरंत सफ़ाया हो जाता है।चाहे ये बी लिंफोसाइट्स प्रहले प्रकार के हों या दूसरे प्रकार के, इनके द्वारा प्रतिरक्षा का तरीका एंटीबॉडी उत्पादन के माध्यम से ही होता है। उत्पादन के पश्चात या तो ये एंटीबॉडीज़ स्वतंत्र रूप से प्लाज़्मा में विचरण करते रहते हैं या फिर कोशिकाओं के आवरण से युक्त हो जाते हैं। इन एंटीबॉडीज़ या इम्युनोग्लाबिन्स की संरचना में एमीनो एसिड्स से निर्मित चार पॉलीपेप्टाइड शृंखलाओं का उपयोग होता है, जिनमें दो लंबी एवं भारी शृंखलाएँ होती हैं और दो छोटी तथा हल्की शृंखलाएँ होती हैं। अंग्रेज़ी के वाई अक्षर' के आकार में व्यस्थित इन अणुओं के शिखर अंश की संरचना इस प्रकार की होती है कि यहाँ एंटीजेन-विशेष के अणु चाभी-ताले के समान एक-दूसरे से युक्त हो कर निष्प्रभावी हो जाते हैं। एंटीजेंस के निष्प्रभावी होते ही जीवाणुओं के सफ़ाये का रास्ता खुल जाता है। या तो ये जीवाणु एक दूसरे से चिपक कर थक्के के रूप में नष्ट होने लगते हैं या फिर इनके ऊपर ऐसी तह बनने लगती है जिसके बाद भक्षक कोशिकाओं द्वारा इनका भक्षण आसान हो जाता। इसके अलावा ये एंटीबॉडीज़ जीवाणुओं द्वारा श्रावित विषाक्त रसायनों को निष्क्रिय करने में भी सहायक होते हैं।जैसा कि पहले ही बताया गया है, टी लिंफोसाइट्स की प्रतिरक्षात्मक क्रियाविधि अलग होती है। प्राथमिक परिमार्जन के पश्चात ये कई रूप धारण करते हैं। इनमें एक रूप होता है, टी हेल्पर कोशिकाओं का। ये कोशिकाएँ तब तक निष्क्रिय रहती हैं जब तक एंटीजेन प्रजेंटिंगकोशिकाएं एंटीजेन-विशेष को पमिार्जित कर इनके सम्मुख पस्तुत नहीं करतीं।एक बार सक्रिय हो जाने के बाद या तो ये बी लिंफोसाइट्स को सक्रिय कर उन्हें विभाजन एवं एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करते हैं ह्यइसकी चर्चा विस्तार से पहले भी की जा चुकी है हृ या फिर टी लिंफोसाइट्स के एक अन्य प्रकार टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं को सक्रिय कर उनके विभाजन को प्रोत्साहित कर उसी प्रकार के अनगिनत कोशिकाओं के समूह (क्लोन्स) को उत्पादन में सहायक होते हैं। इन सक्रिय टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं के क्लोन जिन्हें टी किलर सेल्स के नाम से भी जाना जाता है, अब लिंफनोड्स से निकल कर पूरे शरीर में घूमते हैं एवं ऐसी रोगग्रस्त कोशिकाओं की खोज कर तरह-तरह से नष्ट करने में लग जाते हैं जिनके अंदर उस प्रकार के बैक्टीरिया या वाइरस पनप रहे हों जिनसे उत्पादित एंटीजेन को परिमार्जित कर प्रजेंटिंग कोशिकाओं ने इन्हें सक्रिय किया था। रोगग्रस्त कोशिकाओं के संपर्क में आने के बाद ये किलर सेल परफोरिन एवं ग्रैन्युलाइसिन जैसे कोशिका-विष का उत्पादन करते हैं। ये विषैले रसायन इन रोगग्रस्त कोशिकाओं के आवरण में छिद्र बनाते हैं। इन छिद्रों से इन कोशिकाओं में पानी एवं तरह-तरह के ऑयन्स भरने लगते हैं जिसके कारण ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट होने लगती हैं। जब रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को पालने वाली कोशिकाएँ ही नष्ट हो जाती हैं तो भला जीवाणु रहेंगे कहाँ? वे भी समाप्त हो जाते हैं।पिछले अंक में चलते-चलाते पूरक तंत्र की चर्चा की गई थी। जैसा कि उस समय ही इंगित किया गया था- यह तंत्र नाना प्रकार के छोटे-छोटे प्रोटीन्स से मिल कर बनता है। मुख्य रूप तो नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली की सहायता करता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर यह अर्जित सुरक्षा प्रणाली की सहायता हेतु भी सदैव तत्पर रहता है। इस पूरक सेना में शामिल प्रोटीन्स का उत्पादन मुख्य रूप से हमारी लीवर कोशिकाओं में होता है तत्पश्चात ये रक्त एवं अन्य ऊतक-द्रव में ये निष्क्रिय ज़ाइमेजेन एंज़ाइम्स के रूप में भ्रमण करते रहते हैं या फिर अन्य कोशिकाओं से मेंब्रेन रिसेप्टर्स के रूप जुड़ जाते हैं। उत्पादन के पश्चात मनुष्य शरीर में आजीवन इसी प्रकार बने रहते हैं इनमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। इनमें से कुछ तो ऐसे होते हैं जो एंटीबॉडी-विशेष के संपर्क में आने पर ही सक्रिय होते है एवं कुछ ऐसे होते हैं जो जीवाणुओं द्वारा उत्पादित एंटीजेंस के संपर्क में आने पर ही सक्रिय हो जाते हैं। इन प्रोटीन्स के कुछ अणुओं का इस प्रकार सक्रिय होना ही पर्याप्त है। इसके बाद तो ये सक्रिय अणु रसायनिक प्रतिक्रियाओं की ऐसी शृंखला प्रारंभ करते हैं कि आनन-फानन में इसी प्रकार के हज़ारो-लाखों प्रोटीन-अणु सक्रिय रूप धारण कर लेते हैं एवं तुरंत एक ज़बरदस्त प्रतिरोधक कार्रवाई का बिगुल बज जाता है। ये सक्रिय प्रोटीन्स या तो जीवाणुओं के आवरण झिल्ली में छेद बनाने लगते हैं जिससे उनके अंदर पानी एवं अन्य तरल घुसने लगते हैं, फलस्वरूप ये जीवाणु फट कर नष्ट होने लगते हैं या फिर ये सक्रिय प्रोटींस जीवणुओं के आवरण से चिपक कर उनके चारों तरफ़ ऐसी तह बनाते हैं जिससे रक्त की भक्षक कोशिकाओं के लिए उनका भक्षण आसान हो जाता है। |
Re: विज्ञान दर्शन
सदुपयोग मकड़ी के जाले का
इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियाँ जाल बनाने में बड़ी मितव्यता तथा कलात्मक ढंग से करती हैं। इनके बनाए जाल लगभग वृत्ताकार होते हैं। सबसे पहले तो ये एक अकेले परंतु तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी मोटे तथा मज़बूत रेशमी धागे (support or bridge line) की कताई करती हैं। इस धागे का सिरा हवा में तब तक खुला छोड़ दिया जाता है जब तक वह किसी पेड़ की टहनी या किसी अन्य ठोस आधार पर चिपक नहीं जाता। इस आधारभूत धागे को सही ढंग से व्यवस्थित करने के बाद त्रिज्जीय तंतुओं (Radial thread) की कताई की जाती है जिनके द्वारा आधारभूत तंतुओं को जाल के मध्य स्थित संयोजन क्षेत्र (attachment zone) से जोड़ा जाता है। तत्पश्चात इन त्रिज्जीय तंतुओं को न चिपकने वाले तंतुओं द्वारा कुंडलाकार (spiral) ढंग से अस्थाई रूप से जोड़ा जाता है ताकि ये त्रिज्जीय तंतु अपने स्थान पर बने रह सकें। अंत में इन त्रिज्जीय तंतुओं को पतले परंतु चिपचिपे तंतुओं द्वारा पुन: कुंडलाकार रूप में जोड़ कर पुराने अस्थाई कुंडलाकार तंतुओं को हटा लिया जाता है। इन चिपचिपे कुंडलाकार तंतुओं से बना जाल शिकार फँसाने के काम आता है। बड़ी मकडियाँ प्राय: इस जाल के केन्द्र में इस प्रकार बैठती हैं जिससे उनके प्रत्येक पैर न चिपकने वाले अलग-अलग त्रिज्जीय तंतुओं पर सधे रहें। जब भी शिकार फँस कर छटपटाता है, जाल के तंतुओं में कंपन होने लगता है जिसे मकड़ी त्रिज्जीय तंतुओं पर अपने पैर होने के कारण आसानी से महसूस कर लेती है। फिर तेज़ी से दौड़ कर शिकार को विष दंश से मार डालती है अथवा तेज़ी से उसके चारों ओर रेशमी तंतुओं का जाल बुन कर उसे निष्क्रिय कर देती हैं। छोटे आकार की मकड़ियाँ जाल के किनारे या उसके आस-पास घात लगा कर बैठी रहती हैं। हर प्रजाति के जाल में कुछ न कुछ अपनी विशिष्टता होती ही है। मकड़ियाँ अक्सर पुराने जाल के रेशम को खाती भी रहती हैं। क्योंकि निर्माण के एक दिन के अंदर ही इसमें प्रयुक्त रेशमी तंतुओं का चिपचिपापन हवा तथा धूल के कारण समाप्त होने लगता है। पुराने जाल के रेशम को खा कर उसे पचा लिया जाता है और संभवत: नए तंतु के उत्पादन में कच्चे माल की तरह इसका उपयोग फिर से किया जाता है। मितव्ययता का यह एक नायाब नमूना है। रेशमी तंतुओं के उत्पादन एवं जाल बुनने की कला में निपुणता के कारण काल्पनिक कहानियों तथा मिथकों में इन्हें आदिकाल से ले कर आज तक स्थान मिलता रहा है। स्पाइडर मैन के नाम से कॉमिक्स, कार्टून्स तथा फिल्मों की लोकप्रियता से भला कौन नहीं परिचित है। एक पुराने ग्रीक मिथक के अनुसार देवी एथेना की कताई एवं बुनाई कला की कोई तुलना नहीं थीं। लेकिन अरैक्ने नामक गँवारू लड़की ने देवी एथेना को चुनौती देने की ठानी और इस प्रतियोगिता में देवी एथेना को हरा भी दिया, जिससे देवी नाराज़ हो गईं। देवी एथेना के गुस्से से डर कर अरैक्ने ने बाद में फाँसी लगा ली। जब देवी एथेना का गुस्सा शांत हुआ तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने अरैक्ने के शरीर को मकड़ी में परिवर्तित कर उसे कताई एवं बुनाई की कला को बनाए रखने का वरदान दे दिया। जंतुओं के आधुनिक वर्गीकरण में भी मकड़ियों को फाइलम आर्थोपोडा के अरैक्निडा वर्ग में ही रखा गया है। अरैक्निडा नाम अरैक्ने से ही प्रेरित है। मकडियों तथा मकड़ियों के बनाए जाल से भला कौन नहीं परिचित है? तरह-तरह के रेशमी तंतुओं के उत्पादन में दक्ष होती है ये मकड़ियाँ। इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियाँ केवल शिकार फंसाने के लिए ही नहीं करतीं बल्कि अपने बिलों के द्वार को ढकने तथा इनकी भीतरी दीवारों पर नरम स्तर के निर्माण के लिए भी करती हैं। इसके अतिरिक्त अपने अंडों को सुरक्षित रखने के लिए ककून रूपी मजबूत आवरण के निर्माण तथा फँसे शिकार के चारों ओर मज़बूत शिकंजा कसने में भी ये मकड़ियाँ इन तंतुओं का प्रयोग करती हैं। इसका एक ही तंतु इतना मज़बूत होता है कि इसका उपयोग ये मकड़ियाँ रस्सी के रूप में करती हैं जिसके बल ये सर्कस के निपुण कलाकार की तरह किसी भी ऊँचाई से पलक झपकते ही बड़ी सरलता पूर्वक नीचे उतर सकती हैं। कुछ छोटी मकड़ियाँ इन तंतुओं की सहायता से गुब्बारे जैसी संरचना का निर्माण कर उनकी सहायता से हवा में बह सकती हैं। दर असल ये मकडियाँ स्वाभाविक रूप से कुशल बुनकर एवं दक्ष शिकारी हैं और अपने इस रूप में प्रकृति की कृतित्व क्षमता का अदभुत उदाहरण हैं। मकड़ियाँ हमारे पर्यावरण में कीट-पतंगों की संख्या को नियंत्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं, साथ ही इनके द्वारा उत्पादित बारीक रेशमी तंतुओं का उपयोग ऑप्टिकल उपकरणों के क्रॉस हेयर्स के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त मकड़ियों का उपयोग कुछ औषधियों के परीक्षण में भी किया जाता है, कारण- इन औषधियों का प्रभाव इनके द्वारा उत्पादित रेशमी तंतुओं तथा उनसे निर्मित जाल की गुणवत्ता पर पड़ता है। इनके अतिरिक्त रेशमी तंतुओं के और भी छोटे-मोटे उपयोग तो हैं ही, लेकिन हमारे वैज्ञानिक बंधु इतने पर ही भला कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? वे तो इन तंतुओं की बरीकी एवं मज़बूती पर मुग्ध हैं और इस फेर में पड़े हुए हैं कि किस प्रकार इनका उत्पादन व्यापारिक स्तर पर किया जा सके तथा इनका उपयोग नाना प्रकार के ऐसे कार्यों में किया जा सके जिससे अर्थव्यवस्था पर बोझ भी कम पड़े एवं प्रकृति में प्रदूषण की मात्रा भी कम हो जाए। इस संदर्भ में किए जा रहे अनुसंधानों तथा उनसे जुड़ी उपयोगिता संबंधी संभावनाओं की चर्चा के पहले आइए इन मकड़ियों के बारे में ज़रा ठीक से जान लें। सिवाय अंटार्कटिका के यत्र-तत्र-सर्वत्र यानि इस धरती पर जीव-जंतुओं के जीवन यापन के लिए उपयुक्त लगभग सभी स्थानों, यहाँ तक कि पानी में भी इन मकड़ियों की कोई न कोई प्रजाति मिल ही जाएगी। और हो भी क्यों न? कम से कम इनकी तीस हज़ार प्रजातियों के बारे में तो हम वर्तमान समय में भी जानकारी रखते हैं। फाइलम आर्थोपोडा के आर्डर अरैक्निडा से संबंधित आठ पैरों वाले इन मांसाहारी जीवों की विभिन्न प्रजातियों का आकार ०.५ मिलीमीटर से ले कर ९ सेंटीमीटर तक हो सकता है। प्रजाति चाहे कोई भी हो, लगभग सभी में बारीक रेशमी तंतु के उत्पादन की क्षमता अवश्य होती है, साथ ही अधिकांश में मुख के पास विष-ग्रंथि युक्त डंक भी पाया जाता है। अधिकांश मकड़ियों के विष प्राय: कीट-पतंगों पर ही प्रभावी होते हैं। कुछ ही प्रजातियाँ ऐसी हैं जिनका विष रीढ़धारी जीवों तथा मनुष्यों के लिए कुछ सीमा तक हानिकारक है। जैसा कि पहले पहले भी बताया जा चुका है कि मकड़ियाँ दक्ष शिकारी होती हैं। इसके लिए ये तरह-तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इनके शिकार अधिकांशत: छोटे-मोटे कीट-पतंगे होते हैं। कभी ये उनके पीछे दौड़ती हैं तो कभी घात लगा कर उनका इंतज़ार भी करती हैं। लेकिन अधिकांश प्रजातियाँ रेशमी तंतुओं द्वारा विशिष्ट प्रकार के जाल का निर्माण कर शिकार को फँसाने में यकीन रखती हैं। फँसे शिकार को अपने विष-डंक से मार डालती हैं और फिर उसके चारों ओर पाचक-रस का स्त्राव कर उन्हें बाहर से ही पचाती हैं। इस प्रकार के बाह्य-पाचन के फलस्वरूप निर्मित पोषक-रस को ही ये चूस सकती हैं, क्योंकि ये ठोस भोजन नहीं ग्रहण कर सकती हैं। अब चूँकि जाल बना कर शिकार फँसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या-क्या हरबा-हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है। इनके उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियाँ (silk glands) होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है। सभी प्रजातियों में कुल मिला कर ७ प्रकार की रेशम उत्पादक ग्रंथियाँ पाई गई हैं परंतु किसी भी एक प्रजाति में सातों प्रकार की ग्रंथियाँ नहीं पाई जाती। ये ग्रंथियाँ मकड़ी के पश्च भाग में गुदा द्वार के नीचे अवस्थित पतली उँगलियों के रूप में चार से आठ कताई उपांगों (spinenrets) में खुलती हैं। इन कताई उपांगों के मुख पर हज़ारों नलिकाएँ (spigots) होती हैं। रेशम-ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुज़रता है तो पॉलीमराइज़ हो कर ठोस रेशम के तंतु मे परिवर्तित हो जाता है। अब आइए इन किस्से-कहानियों से अलग हो कर इस बात पर गौर किया जाए कि हमारे वैज्ञानिक बंधु इन तंतुओं के व्यापारिक उत्पादन तथा उपयोग के संदर्भ में क्या-क्या जुगत भिड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो इन तंतुओं की रासायनिक संरचना तथा मज़बूती के संबंध मे विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की गई। कताई उपांगों से निकालता हुआ तरल रेशम किस प्रकार ठोस तंतु का रूप ले लेता है इसकी सही एवं पूरी जानकारी तो अभी हमें नहीं है, फिर भी इतना अवश्य पता है कि इसके निर्माण में भाग लेने वाले फाइबर्स प्रोटीन्स के अणु इस प्रकार व्यवस्थित हो जाते हैं कि तरल रेशम ठोस रेशमी तंतु में परिवर्तित हो जाता है। कितना मज़बूत होता है यह तंतु और किस हद तक लचीला? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए! समान मोटाई वाले स्टील के तंतु की तुलना में यह लगभग पाँच गुना अधिक मज़बूत होता है तथा लचीला इतना कि तनाव बढ़ने पर इसकी लंबाई ३० से ५० प्रतिशत तक बढ़ सकती है फिर भी यह नहीं टूटता। ये तंतु जल-प्रतिरोधी भी होते हैं एवं -४० डिग्री जैसे कम ताप पर भी नहीं टूटते। वास्तव में इन तंतुओं के निमाण में अडर्फ् ३ तथा अडर्फ् ४ जैसे दो प्रकार के प्रोटीन-अणुओं का उपयोग होता है। आधुनिक संयंत्रों एवं संसाधनों की मदद से इस तंतु की संरचना एवं गुणवत्ता के बारे में और भी विस्तृत जानकारी पाने के उद्देश्य से युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सांता बारबरा के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व जो अनुसंधान कार्य किए, उससे कुछ नए तथ्य सामने आए हैं। एटोमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी तथा मॉलिक्युलर पुलर जैसे अत्याधुनिक संयंत्रों की सहायता से प्राप्त तस्वीरों एवं तनाव संबंधी आँकड़ों द्वारा उन्हें यह पता चला कि अन्य भार वाहक प्रोटीन्स की तुलना में इसके गुण कुछ अनूठे हैं। इस तंतु में स्फटिकीय (crystalline) तथा लचीलेपन (elasticity) का गुण एक साथ होता है। ये दोनों गुण इसके एक अणु में भी पाए जाते हैं। स्फटिकीय गुण इसे मज़बूती देता है तो लचीलापन तनाव बढ़ने पर इसे टूटने से बचाता है। जब इस पर भार देने के कारण तनाव बढ़ता है तो इसकी संरचना में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के बीच के बंध (bonds) स्वत: खुलते जाते हैं तथा किसी स्प्रिंग की तरह इसकी लंबाई बढ़ती जाती है। भार हटा लेने पर ये बंध स्वत: जुड़ने लगते हैं एवं तंतु पुन: अपने पुराने आकार में वापस आ जाता है। इन तंतुओं के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण वैज्ञानिक इनमें उपयोगिता की अनगिनत संभावनाएँ देख रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान से ले कर रक्षा विज्ञान, यहाँ तक कि प्रक्षेपास्त्रों तक में इस तंतु के उपयोग की संभावनाएँ देख रहे हैं वैज्ञानिक। इन तंतुओं का उपयोग पैराशूट, बुलेटप्रूफ जैकेट तथा सुरक्षा कवच के लिए मज़बूत एवं लचीले कपड़े बनाने, मज़बूत तथा लचीली रस्सी एवं मछली पकड़ने के जाल बनाने, घावों को और भी प्रभावी ढंग से बंद करने तथा बेहतर प्लास्टर बनाने, सर्जरी मे काम आने वाले कृत्रिम टेंडन्स तथा लिगामेंटस बनाने में तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त बायोइंजीनियरिंग द्वारा बायोकेमिकली अथवा बायोलाजिकली सक्रिय रासायनिक पदार्थों के साथ मिला कर इनका उपयोग ऐसे नए प्रकार के रेशमी रेशों के उत्पादन में किया जा सकता है जो स्वयं में एक सीमा तक प्रज्ञावान होंगे और तब इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं, रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा। लेकिन ये सारे सपने तभी साकार हो सकते हैं जब हम इन तंतुओं या फिर इनसे मिलते-जुलते तंतुओं का उत्पादन वृहत पैमाने पर व्यापारिक रूप से कर सकें। इस संदर्भ में सभी संभावनाओं की जाँच-पड़ताल की जा रही है। इनमें से कुछ को लागू करना संभव ही नहीं है तो कुछ में हमें फिलहाल आंशिक सफलता ही मिल पाई है, परंतु भविष्य में पूर्ण सफलता की संभावना प्रबल है। इनमें से सबसे अच्छा और आसान तरीका तो इन मकड़ियों को पाल कर उनसे उसी प्रकार रेशम प्राप्त करना था, जिस प्रकार हम रेशम के कीडों (Bombyx) को शहतूत के पत्ते पर पाल कर उनसे रेशम प्राप्त करते हैं। लेकिन मकड़ियाँ स्वभावत: शिकारी तथा अपने अधिकार क्षेत्र पर कब्ज़े के प्रति सजग होती हैं। साथ ही ये प्राय: स्वजाति-भक्षक भी होती हैं। अत: इन्हें पालना तथा इनसे रेशम प्राप्त करना संभव नहीं है। दूसरी संभावना है- इन तंतुओं का कृत्रिम उत्पादन। इस कार्य के लिए हमें चाहिए ऐसी व्यवस्था जहाँ इस प्रकार के रेशमी तंतुओं के निर्माण में प्रयुक्त प्रोटीन्स या उससे मिलते-जुलते अन्य रासायनिक अणुओं का वृहत स्तर पर कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जा सके तथा ऐसी कताई मिले जहाँ इन अणुओं को संयोजित कर मकड़ियों के रेशमी तंतुओ के समान गुणवत्ता वाले तंतुओं का उत्पादन किया जा सके। इस दिशा में काफ़ी समय से किए जा रहे प्रयासों का फल आंशिक रूप से ही सही, अब वैज्ञानिकों को मिलने लगा है। इसका मुख्य श्रेय जेनेटिक इंजीनियरिंग तथा बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे त्वरित विकास को दिया जाना चाहिए। मकड़ियों में रेशम के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के संश्लेषण करने वाले जीन्स की पहचान कर उसे जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तकनीक की मदद से अन्य जैव कोशिकाओं या जीवों में स्थानांतरित कर कृ्त्रिम रूप से ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में आंशिक रूप से सफलता मिली है। यह विधा इतनी आसान नहीं है। कारण, ऐसे जीन्स काफ़ी जटिल संरचना वाले हैं जिनमें एक ही प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज़ की शृंखला बार-बार दुहराई गई है तथा ये जीन्स प्रोटीन संश्लेषण में हमारी कोशिकाओं से भिन्न प्रकार के कोडॉन तंत्र का उपयोग करते हैं।फिलहाल हाल के कुछ प्रयोगों में इन जीन्स के कुछ भाग को इश्रिशिया कोलाई जैसे बैक्टीरिया, कुछ स्तनधारी जीवों तथा कीटों की कोशिकाओं में स्थानांतरित कर ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में सफलता हाथ लगी है। परंतु ऐसे प्रोटीन्स गुणवत्ता में प्राकृतिक प्रोटीन्स की बराबरी नहीं कर सकते तथा इनका उत्पादन बहुत थोड़ी मात्रा में हो रहा है। इन प्रोटीन्स को तंतु के रूप में परिवर्तित करना एक अलग चुनौती है। प्रयोगशाला में इस प्रकार संश्लेषित प्रोटीन्स के अणुओं द्वारा सिलिकॉन के सूक्ष्म कताई यंत्रो द्वारा जिस प्रकार के तंतुओं का निर्माण हो पाया है, वे प्रकृति रूप से उत्पादित २.५ मिलीमीटर- ४ मिलीमीटर व्यास वाले प्राकृतिक रेशम के तंतुओं की तुलना में काफ़ी मोटे- लगभग १० से ६० मिलीमीटर व्यास वाले हैं। इस संदर्भ में इज़राइल के हेब्य्रू युनिवर्सिटी, म्युनिक युनिवर्सिटी तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों के दावे का उल्लेख करना प्रासंगिक भी है एवं उत्साहवर्धक भी। करेंट बायोलॉजी के २३ नवंबर २००४ के अंक में प्रकाशित एक लेख में वैज्ञानिकों की इस टीम ने दावा किया है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग की जटिल तकनीकि का उपयोग कर फाल आर्मी वर्म नामक कीट के कैटरपिलर लार्वा से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में न केवल इच्छित प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण करने में सफलता पाई गई है, बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं के निर्माण में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है।सबसे पहले तो इन लोगों ने गार्डेन स्पाइडर (Araneus diadematus) के जीन्स के उन अंशों को अलग किया जो मकड़ी के रेशमी तंतु के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन के अणुओं - अडर्फ् ३ तथा अडर्फ् ४ के संश्लेषण के लिए आवश्यक हैं। फिर इन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा कीटों को संक्रमित करने वाले बैकुलोवाइरस में स्थानांतरित किया गया। तत्पश्चात इन ट्रांसजेनिक वाइरसेज़ को फाल आर्मी वर्म नामक कीट के कैटरपिलर से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में स्थानांतरित कर वहाँ प्रवर्धन के लिए छोड़ दिया गया। |
Re: विज्ञान दर्शन
खोज युक्तियों का प्रयोग
इन्टरनेट पर जब भी हमें कोई जानकारी चाहिए होती है तो हम सबसे पहले किसी सर्च इंजन जैसे गूगल या याहू पर ही जाते हैं। हालाँकि अक्सर केवल शब्द डालने से ही हमें वह जानकारी मिल जाती है परन्तु कभी-कभी हम चाहते कुछ हैं और सर्च इंजन हमें कुछ और दिखा रहा होता है। ऐसी स्थिति में हम कुछ युक्तियों का उपयोग करके अपनी मनचाहे खोज परिणाम पा सकते हैं। आइए गूगल की इन युक्तियों के बारे में जानें :- १. वाक्यांश खोज (" ") :- यदि हम शब्दों के समूह के दोनों ओर उद्धरण चिह्नों (" ") का प्रयोग करते हैं तो हमारा सर्च इंजन बिना कोई बदलाव किए, उसी क्रम में हमें परिणाम दिखाता है। गूगल आपके द्वारा दिए गए शब्दों के क्रम को तथा उनकी युग्मता को ध्यान में रखते हुए खोज करता है इसलिए बिना उद्धरण चिह्नों के भी हमें अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। ध्यान दें कि उद्धरण चिह्न लगाने पर हमसे कुछ परिणाम छूट भी सकते हैं जैसे अगर आपने उद्धरण चिन्हों में "पंडित नेहरू" दिया तो पंडित जवाहरलाल नेहरू वाले परिणाम छूट सकते हैं। इसके उलट अगर आपको किन्हीं "जवाहरलाल मिश्रा" के बारे में खोज करनी है तो आपको उद्धरण चिह्न लगाने पड़ेंगे नहीं तो आपके परिणामों में अत्यधिक प्रसिद्धता के कारण जवाहरलाल नेहरू के भी परिणाम आ जायेंगे। २. किसी एक ही जालघर पर खोज (site:) :- गूगल के द्वारा हम अपनी खोज को किसी एक जालघर तक सीमित कर सकते हैं या किसी एक जालघर पर ही खोज कर सकते हैं। उदाहरण के लिए [अमृतलाल नागर site:abhivyakti-hindi.org] से हमें abhivyakti-hindi.org पर अमृतलाल नागर का उल्लेख करने वाले सभी पृष्ठों की जानकारी मिल सकती है। हम अपनी खोज को किसी टॉप लेवल डोमेन तक भी सीमित कर सकते हैं। जैसे :- [site:.ac.in] साथ में दे कर हम उन सभी जालघरों पर खोज कर सकते हैं जिनके नाम के अन्त में ac.in लगा हो। (भारत में पंजीकृत शैक्षिक संस्थाओं के जालघर) [site:.in] साथ में दे कर हम उन सभी जालघरों पर खोज कर सकते हैं जिनके नाम के अन्त में .in लगा हो। (भारत में पंजीकृत जालघर) [site:.edu] साथ में दे कर हम उन सभी जालघरों पर खोज कर सकते हैं जिनके नाम के अन्त में .edu लगा हो। (समपूर्ण विश्व में (मुख्यतः संयुक्त राज्य अमरीका में) पंजीकृत शैक्षिक संस्थाओं के जालघर) ३. वर्जित शब्द (-) :- किसी भी शब्द के पहले ऋण चिह्न (-) लगाकर हम अपनी खोज से उस शब्द से सम्बन्धित जालपृष्ठों को हटा सकते हैं। ध्यान दें कि ऋण चिह्न शब्द के आरम्भ में होना चाहिए और उससे पहले एक खाली जगह होनी चाहिए। उदाहरण के लिए अगर हम [anti-virus software] लिखते हैं तो यहाँ पर सर्च इंजन ऋण चिह्न (-) को वर्जित शब्द की तरह प्रयोग नहीं करेगा और आपको ऐंटीवाइरस अनुप्रयोगों के बारे में परिणाम दिखाएगा। इसके उलट अगर आपको विषाणुरोधियों के बारे में खोज करनी है तो [antivirus -software] ऐसे पृष्ठों की खोज करेगा जिसमें antivirus शब्द होगा लेकिन software शब्द नहीं होगा। एक बार में एक से ज्यादा शब्दों को भी वर्जित किया जा सकता है। ४. अनजाने शब्दों का प्रयोग (*) :- अगर आपको किसी वाक्यांश का कोई शब्द याद नहीं है या किसी वाक्यांश में आप एक जगह पर कई शब्दों को रख कर खोजना चाहते हैं तो * चिह्न का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिये [google *] लिखने पर हमें गूगल के कई प्रयोगों तथा अनुप्रयोगों के बारे में पता चल जायेगा। [भारतीय * की स्थिति] देने पर हम भारत की बहुत सी चीज़ों की स्थिति के बारे में जान सकते हैं। ५. अनिवार्य शब्द (+) :- धन चिह्न (+) के दो प्रयोग होते हैं :- (१) किसी बहुशब्दीय खोज में किन्हीं शब्दों की उपस्थिति अनिवार्य करना। (२) गूगल अपने आप खोज में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग कर लेता है लेकिन कभी-कभी हमें बिलकुल उसी शब्द की खोज करनी होती है तब ऐसी स्थिति में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग रोकने के लिए हम धन चिह्न (+) का प्रयोग करते हैं। ६. OR शब्द :- गूगल आपके खोज के सभी शब्दों को ध्यान में रखकर खोज करता है। अगर आप "कुछ शब्दों में से किसी एक" की तरह की खोज करना चाहते हैं तो हम OR शब्द का प्रयोग करते हैं। OR शब्द का बड़े अक्षरों (कैपिटल लेटर्स) में लिखा जाना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए [World Cup 2003 OR 2007] आपको 2003 या 2007 के वर्ल्ड कप के परिणाम दिखायेगा। अगर आप OR शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे तो आपको केवल वही परिणाम दिखेंगे जिनमें दोनों वर्ल्ड कप की जानकारी होगी। |
Re: विज्ञान दर्शन
फोरम के बेहतरीन सूत्रों में से एक । कुछ पढ़ा है, शेष कुछ देर बाद ।
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