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Rajat Vynar 17-08-2015 11:09 PM

फटकार
 
अन्तर्जाल में भ्रमण करते वक्त 'और वह रोती रही...' नामक एक लघुकथा टकरा गई तो हमें विवश होकर उस पर अपनी प्रतिकूल टिप्पणी लगानी पड़ी। हमारी प्रतिकूल टिप्पणी देखकर लेखक महोदय भड़ककर हमसे उलझ गए और उल्टा-सीधा बकने हुए कहने लगे कि हमारे पास भेजा नहीं है। वैसे उन्हें इतना क्रोधित होने की कोई ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि जब आप अन्तर्जाल में कुछ लिखते हैं तो उसकी प्रसंशा या विरोध होना स्वाभाविक ही है। हुआ यह कि लेखक महोदय ने चन्द शब्दों में एक लघुकथा 'और वह रोती रही...' लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिया और यह समझने लगे कि उन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया। यह उनकी गलती नहीं है। सभी रचनाकार ऐसा ही समझते हैं, किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसी गलतफहमी के कारण ही सभी भारतीय भाषाओँ में बड़ी-बड़ी सुपरफ़्लॉप फिल्मों की लम्बी कतार है। बहुत कम बिरले लोग ही ऐसे होते हैं जो यह पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि उनकी लिखी रचना में कितना दम है? यदि आपसे कोई कहता है कि आपकी रचना में दम नहीं है तो उसकी बात ध्यान से सुनिए। उससे तर्क-वितर्क करके अपनी लिखी रचना के बारे में अन्तरिम निर्णय लीजिए। हम तो स्वयं ताल ठोंककर बड़ी बेशर्मी के साथ कहते हैं कि हम अन्तर्जाल में सिर्फ़ कूड़ा ही लिखते हैं और इस बात के लिए अपने मित्रों के मुँह से 'कूड़ा लिखने में अपने दिमाग़ का घोड़ा सरपट दौड़ाने की जगह सार्थक लेखन करो' जैसी कड़ी फटकार भी बहुत ही शान्ति के साथ सुन चुके हैं। अब कैसे बताते कि कूड़ा लिखना हमारी मज़बूरी है। लगभग अर्धदशक पूर्व हमारे दोनों कान के साथ-साथ सिर के बाल भी उस समय खड़े हो गए जब हमने देखा कि कुछ विदेशी रचनाकार कबाड़ लिख-लिखकर बड़े नामी-गिरामी लेखक बन गए हैं। हमने उसी समय निर्णय लिया कि हम कबाड़ का जवाब कूड़े से देकर लेखन के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेंगे, क्योंकि कबाड़ का क़द बड़ा होता है और कूड़े का छोटा। घर का कबाड़ खरीदने के लिए कबाड़ी आता है, किन्तु कूड़ा खरीदने के लिए कोई 'कूड़ी' नहीं आता।

अब आते हैं संदर्भित लघुकथा पर जिसे प्रतिलिप्याधिकार के कारण यहाँ पर उद्घृत नहीं किया जा सकता। जिन्हें सम्पूर्ण लघुकथा पढ़नी हो वे गूगल सर्च अथवा हमारे ट्विटर खाते में प्रकाशित लघुकथा के लिंक द्वारा पढ़ लें। लघुकथा की आधारिका (premise) निम्न है-

"पाश्चात्य सभ्यता की प्रतिमूर्ति लगने वाली एक अत्याधुनिक युवती जो अपने पुरुष मित्रों के साथ सहजता के साथ हँसती-बोलती है, उनके साथ क्लब जाती है, बार जाती है, फ़िल्म देखने जाती है, किन्तु अपने प्रेमी से सहजता के साथ हँसने-बोलने और उसके साथ फ़िल्म देखने के लिए जाने से इन्कार कर देती है जिससे वह स्वयं भी प्रेम करती है। अपनी प्रेमिका के रूखे व्यवहार से प्रेमी आत्मग्लानि और हीनता की भावना से ग्रसित हो जाता है और जब वह अपनी शादी का कार्ड अपनी प्रेमिका को देने पहुँचता है तो वह शादी का कार्ड टुकड़े-टुकड़े करके रोते हुए बताती है कि वह उससे प्रेम करते हुए भी अपनी लज्जा के कारण उससे दूर-दूर रहती थी। प्रेमी विस्मित होकर चला जाता है और वह रोती रहती है।"

उपरोक्त ऑफबीट प्रेम-कहानी का 'कॉन्फ्लिक्ट' है- 'नायिका की लज्जा' और यह एक 'इनर कॉन्फ्लिक्ट' है। लघुकथा की कहानी 'सिंगल ट्रैक' पर चलती हुई 'नायिका की लज्जा के भण्डाफोड़' और 'नायिका के रोने-धोने' पर खत्म हो जाती है। कहानी के 'सिंगल ट्रैक' होने के कारण कहानी का प्रस्तुतिकरण अति उत्तम है, इसलिए कहानी का 'ट्रेजिक एण्ड' होने के बावजूद भी कहानी परिपक्व ही समझी जाएगी। अब यक्ष-प्रश्न यह है कि कहानी में कमी क्या है? कहानी की कमी है- कहानी में 'शोक की बाहुल्यता'। लघुकथा की कहानी में कहानी के नायक द्वारा 'अत्याधुनिक और मॉडर्न परिलक्षित होने वाली' नायिका से 'फ़िल्म देखने के निमित्त चलने' के प्रस्ताव का निराकरण कहानी की नायिका द्वारा लज्जावश किया गया है, क्योंकि वह अत्याधुनिक होने के साथ-साथ भारतीय नारी भी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि लघुकथा में एक ऐसी नायिका की परिकल्पना की गई जो भारतीय और पाश्चात्य सभ्यता का मिश्रण थी। वह अपने पुरुष मित्रों के साथ तो बेहिचक होकर फ़िल्म देखने जा सकती थी, किन्तु लज्जावश उसके साथ नहीं जा सकती थी जो उससे प्रेम करता था और वह स्वयं उससे प्रेम करती थी। इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में यह बात सुनने में कितना विचित्र और अनोखी लग रही है और इस लज्जा को पाठकों को हजम भी कराना है! बहरहाल, नायिका की इस लज्जा को सम्पूर्ण कहानी में कहानी के नायक और पाठकों से छिपाकर 'आडिअन्स और करैक्टर सस्पेंस' के रूप में रखा गया। अतः कहानी का 'इनर कॉन्फ्लिक्ट' ही कहानी का प्रधान 'सस्पेंस' बन गया जिसके कारण पाठकों की सिम्पथी कहानी की नायिका की ओर से समाप्त होकर कहानी के नायक की ओर चली गई। पाठकों की दृष्टि में कहानी की नायिका का 'निगेटिव रोल' लगने लगा। अब पाठक शोक में डूबने-उतराने लगे। लघुकथा में स्थानाभाव होने के कारण 'प्रस्ताव और निराकरण' का दृष्य एक ही बार आया है जिसके कारण इस शोक के परिमाण की अधिकता का प्रभाव पाठकों पर बहुत अधिक नहीं पड़ सका। अतः एक सामान्य पाठक को यह कहानी अच्छी ही लगेगी, किन्तु इस कहानी का विस्तार तीन सौ पृष्ठ के एक उपन्यास अथवा ढ़ाई घण्टे की एक फिल्म-कथा के अनुरूप करने पर 'प्रस्ताव और निराकरण' के विभिन्न दृष्यों की 'शोकप्रद पुनरावृत्ति' होने के कारण पाठकों अथवा दर्शकों पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ेगा। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि ज़िन्दगी की वास्तविक कहानी लम्बी चलती है। अतः लघुकथा के रूप में एक लम्बी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी में निहित अपार शोक का आकलन कम करके देखना मूर्खता ही होगी, क्योंकि बिल्ली के आँख बन्द कर लेने से सारे संसार में अंधकार नहीं छा जाता। अब यक्ष-प्रश्न यह है कि पाठक या दर्शक कितना दुःख झेल सकते हैं? एक शोध में यह पाया गया है कि उपन्यास के सामान्य पाठक तीस-पैंतीस पृष्ठ से अधिक का शोक नहीं झेल पाते और ऊबकर उपन्यास पढ़ना बन्द कर सकते हैं। फ़िल्म के सामान्य दर्शक पन्द्रह-बीस मिनट से अधिक के शोक दृष्यों को नहीं झेल पाते और अपना ग़म दूर करने के लिए हॉल से बाहर आकर सिगरेट-बीड़ी-सिगार इत्यादि फूँकने लगते हैं। यदि उन्हें कोई दूसरा ग़म दूर करने वाला समकक्ष मिल जाता है तो दोनों मिलकर निर्माता-निर्देशक की माँ-बहन को याद करके अपने मन की भड़ास को बाहर निकालते हैं।

संक्षेप में, 'प्रस्ताव और निराकरण' के दृष्यों की पुनरावृत्ति करना पाठकों या दर्शकों का 'दिल जलाने वाला प्रयोग' है और इस 'दिल जलाने वाले प्रयोग' को करके तमिल फ़िल्मों के महारथी निर्माता-निर्देशक-लेखक एवं संगीतकार टी० राजेन्दर मुँह की खा चुके हैं। वर्ष 1999 में लोकार्पित तमिल फ़ीचर फ़िल्म 'मोनिशा एन् मोनालिसा' में टी० राजेन्दर जैसे महारथी ने 'दर्शकों का दिल जलाने वाला' सफल प्रयोग किया था। परिणामस्वरूप फ़िल्म सुपरफ़्लॉप होकर बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह पिट गई थी।

यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि लघुकथा की कहानी का विस्तार करने के लिए 'प्रस्ताव एवं निराकरण' के दृष्यों की पुनरावृत्ति करना ही कहानी विस्तार के नियमों के अनुरूप होने के कारण एक मज़बूरी है। इस लाइन से हटकर कुछ और लिखकर कहानी का विस्तार करना नियमविरूद्ध समझा जाएगा और कहानी अपने पूर्वनिर्धारित मार्ग से भटकती हुई प्रतीत होगी, क्योंकि कहानी की आधारिका में परिवर्तन करने से सम्पूर्ण कहानी बदल जाती है। फिर भी लघुकथा की कहानी के निर्वहण (denouement) में कुछ परिवर्तन करके 21वीं शताब्दी के दर्शकों और पाठकों के अनुरूप बनाया जा सकता है और कहानी का जॉनर (genre) भी परिवर्तित नहीं होगा। अर्थात् कहानी का निर्वहण (denouement) परिवर्तित होने के उपरान्त भी कहानी का 'ट्रेजिक एण्ड' यथावत् रहेगा और कहानी ऑफ़बीट ही रहेगी। कहानी के निर्वहण (denouement) में क्या परिवर्तन किया जाए- इस बात को हम यहाँ पर क्रिब (crib) के भय से नहीं लिख रहे हैं। लघुकथा के रचनाकार अपने भेजे के गूदे का प्रयोग करके स्वयं बताएँ कि लघुकथा के निर्वहण (denouement) में क्या परिवर्तन किया जा सकता है? टिप्स के लिए हम यहाँ पर यह बता दें कि सम्पूर्ण कहानी में 'लज्जा' रूपी 'सस्पेंस' को बरकरार रखकर निर्वहण में 'लज्जा का भण्डाफोड़' करके पाठकों को जो 'सरप्राइज़' दिया गया है उसका परिमाण बहुत कम है। अतः 'सरप्राइज़' की इस मात्रा का उत्थान अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त हमारे द्वारा परिवर्तित निर्वहण हमारे दिमाग़ की उपज नहीं है और हमने इसे एक अति प्रसिद्ध मिथक की कहानी से लिया है।

अन्ततः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हुआ कि अपनी परिपक्वता के उपरान्त भी एक परिपक्व निर्वहण के अभाव में संदर्भित लघुकथा को एक असफल रचना ही माना जाएगा और रचनाकार को अपनी असफल रचना के लिए प्रसंशा के स्थान पर पाठकों की डाँट, फटकार और लताड़ ही सर्वत्र सुनने को मिलेगी।

Deep_ 18-08-2015 12:29 AM

Re: फटकार
 
मेरे विचार से तो भई आप उस लेखक को क्षमा कर ही दें। अब तो मल्टीप्लेक्स थियेटर का खर्चा करने के बाद अगर फिल्म पसंद न आए तो भी दर्शको ने गालीयां देना छोड़ दिया है।

अगर हमने बाजार जा कर कोई पुस्तक खरीदी हो, उसमें कोई एसी रचना मिले तो बहुत स्वाभाविक है की हमें गुस्सा आएगा। लेकिन ब्लोग ईत्यादि पर 'ज्यादातर' लोग अपने आपको लेखक घोषित करते हुए जो लिखतें है, जरुरी नहीं की वह अच्छे लेखन के सभी मुल्यों पर खरा उतरे।

शायद अब ज्यादा जरुरी यह है की जो समर्थ लोग है, क्षमतावान है उन्हें कुछ अच्छा रचने को प्रोत्साहित किया जाए ।

rajnish manga 18-08-2015 02:35 PM

Re: फटकार
 
'और वह रोती रही' लघुकथा का लेखक बड़ा सौभाग्यशाली है जिसकी कहानी के प्रभाव (या उसकी कमी) के चलते रजत जी ने इतनी भरी भरकम समीक्षा लिखने का मन बनाया. जिन सज्जनों ने वह कहानी नहीं पढ़ी, उन्हें निराश होने की जरुरत नहीं है. उन्हें यह सोच कर क्षुब्ध नहीं होना चाहिए कि हाय हसन हम न हुये. वे इसकी समीक्षा नहीं लिख पाये. यह समीक्षात्मक आलेख उन्हें निराशा से बाहर लाने का काम करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है.




Rajat Vynar 19-08-2015 10:06 AM

Re: फटकार
 
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 554175)
'और वह रोती रही' लघुकथा का लेखक बड़ा सौभाग्यशाली है जिसकी कहानी के प्रभाव (या उसकी कमी) के चलते रजत जी ने इतनी भरी भरकम समीक्षा लिखने का मन बनाया. जिन सज्जनों ने वह कहानी नहीं पढ़ी, उन्हें निराश होने की जरुरत नहीं है. उन्हें यह सोच कर क्षुब्ध नहीं होना चाहिए कि हाय हसन हम न हुये. वे इसकी समीक्षा नहीं लिख पाये. यह समीक्षात्मक आलेख उन्हें निराशा से बाहर लाने का काम करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है.

आपकी टिप्पणी से तो यही प्रतीत हो रहा है जैसे कहानी आपको प्रभावित कर गई है। प्रथम दृष्टया सभी को ऐसा ही प्रतीत होता है। हमारी संक्षिप्त टिप्पणी के बाद लघुकथा लेखक के अभद्र व्यवहार के बाद इसीलिए इतनी विस्तृत समीक्षा लिखने के लिए बाध्य होना पड़ा जिससे पाठकगण भ्रमित होकर वाहवाही न करने लगें।

Rajat Vynar 19-08-2015 01:23 PM

Re: फटकार
 
क्या था हमारी संक्षिप्त टिप्पणी में? नीचे पढ़िए-

"बहुत खूब, कमालजी। गजब की लेखनी है आपकी। 21 शताब्दि में मानवता के समस्त मानदण्डों की धज्जियाँ उड़ाती हुई आपकी रचना का समापन (denouement) लिखते समय आपने नायिका के अहंकार की चरमसीमा को मात्र लज्जा बताकर और रोना-धोना दिखाकर कहानी की नायिका के लिए आडियन्स सिम्पैथी बटोरने की कोशिश एकदम असफल सिद्ध हुई है। आज का पढ़ने वाला पाठक बेवकूफ नहीं है जो आपके असफल प्रयास को अपने गले से नीचे उतारकर आसानी से हजम कर जाएगा और कहानी की वाहवाही करेगा। आपकी कहानी पढ़कर तो मूड खराब हो गया। अब एफ०बी० पर जाकर शायरी की तोप शिखा जी की दो-तीन शायरी पढ़नी पड़ेगी, तब जाकर मूड ठीक होगा। और यह सब हुआ अपने ही दोस्त चुलबुली जी की पूँछ पकड़कर उनकी एक टिप्पणी पढ़ने की वजह से!!! गर्रर्र.. गर्रर्र..."

Rajat Vynar 19-08-2015 03:45 PM

Re: फटकार
 
शालीनता से परिपूर्ण हमारी टिप्पणी पर यह रहा लेखक का अभद्र जवाब-

"रजत जी चुलबुली जी और साज़िद जी लगता है आप की बुद्धि घास चरने गयी है
हमारी कहानी पढ़ना है तो पढ़िए नहीं तो छोड़ दीजिये
हमारी कहानी को पढ़ने के लिए भेजे की जरुरत होती है जो आप में नहीं है"


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