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jai_bhardwaj 04-05-2013 07:44 PM

एक थी तात्री
 
प्रस्तुत है केरल की एक ऐतिहासिक कथा ...............
(सामग्री अंतरजाल से प्राप्त की गयी है)





Moderation Edit:


ये कथा सर्वप्रथम "जागरण जंक्शन" मंच पर सितम्बर २०१२ में प्रकाशित की गयी थी! इसकी लेखिका "विनीता शुका" उस मंच के प्रिसद्ध लेखकों में से एक है!

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:46 PM

Re: एक थी तात्री
 
यह कथा एक शताब्दी से भी पहले, केरल के उस समाज की है जो रुढियों में जकडा हुआ था. यह कहानी एक ऐसी नारी की है, जो बगावत के उन्माद में, अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर बैठी. यहाँ पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि समाज के साथ लड़ाई के लिए, इसने जो तौर- तरीके अपनाए ; व्यक्तिगत तौर पर मैं कतई उनका समर्थक नहीं. किन्तु फिर भी, इस कहानी में कुछ ऐसा है- जो मन को मथता है, आंदोलित करता है….आभिजात्य वर्ग के दोगलेपन को बेपर्दा करता है; अतः इसे साझा करने से, खुद को रोक नहीं पा रहा.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:47 PM

Re: एक थी तात्री
 
कथा को गहराई से समझने के लिए, उस युग के सामाजिक ढाँचे पर एक नजर डालनी होगी. मलयाली जनसमुदाय में सबसे ऊंची जाति- नम्बूदरी ( ब्राह्मण). नम्बूदरी परिवारों में मात्र ज्येष्ठ पुत्र को विवाह( वेळी ) की अनुमति थी. परिवार के अन्य पुत्र ‘सम्बन्धम’ नामक रीति के तहत, निम्न जातियों की स्त्रियों के साथ दैहिक सम्बन्ध बना सकते थे; किन्तु उत्पन्न संतानों की जिम्मेदारी केवल उनके मातृकुल की होती थी. पुरुष उनसे सर्वथा मुक्त होते थे. इस प्रकार हर परिवार से, एक से अधिक पुरुष; विवाह हेतु उपलब्ध नहीं होता था.( कहानी की जडें यहीं पर है.) विवाह योग्य पुरुषों की अनुपलब्धता के कारण, कई नम्बूदरी स्त्रियों को अविवाहित ही रह जाना पड़ता था. समस्या का आंशिक समाधान इस तरह निकाला गया कि जिस पुरुष को ‘वेळी’ ( विवाह) की अनुमति होती वह एक से अधिक विवाह कर सकता था.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:49 PM

Re: एक थी तात्री
 
किन्तु यह समाधान, समाधान न होकर अपने आप में एक समस्या था. क्योंकि इसके तहत, एक साठ साल का पुरुष भी दसियों विवाह करता चला जाता. यहाँ तक कि पत्नी के रूप, में किसी मासूम किशोरी को भी भोग लेता. विवाह की इस संस्था में, नम्बूदरी स्त्री मात्र उपभोग की वस्तु बनकर रह गयी. उसे जीवन में एक बार ही विवाह की अनुमति थी (विधवा होने के बाद भी नहीं). यही नहीं, ऋतुधर्म के पश्चात वह पति को छोड़कर, किसी अन्य पुरुष को देख नहीं सकती थी.( अपने पिता एवं भाइयों को भी नहीं) . ऐसी स्थिति में उसके विद्रोह को रोकने हेतु, बहुत कठोर व अमानवीय नियम बनाये गये.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:50 PM

Re: एक थी तात्री
 
इन स्त्रियों को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी( तभी इनका दूसरा नाम ‘अंतर्जनम’ भी था. ‘अंतर्जनम’ अर्थात भीतर रहने वाली स्त्रियाँ) किसी कारणवश यदि बाहर जाना पड़ा तो साथ एक दासी व ताड़ का छाता लेकर चलना होता और परपुरुष के सामने पड़ते ही, छाते से अपना मुंह छिपाना अनिवार्य था. उसके चरित्र पर संदेह होने की स्थिति में, उसकी दासी से पूछताछ की जाती और अभियोग सिद्ध होने/ न होने तक जो प्रक्रिया चलती उसे ‘स्मार्तचरितं ‘ कहा जाता. समाज के रसूख वाले पुरुष, दुर्भावनावश, इस प्रक्रिया द्वारा; निर्दोष स्त्रियों को भी अपराधी ठहरा सकते थे- जैसे आज भी दूरदराज के गाँवों में, मासूम स्त्रियों को चुड़ैल करार देकर दण्डित व बहिष्कृत किया जाता है. यहीं से शुरू होती है हमारी कथा! हमारी कहानी की केन्द्रीय पात्र, तात्री नामक नम्बूदरी स्त्री भी; ऐसे ही घिनौने अभियोग में फंस गयी थी. पहले वह अभियुक्त बनी फिर दोषी.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:50 PM

Re: एक थी तात्री
 
वह कन्या जिसके शील और आचरण का बड़ी- बूढ़ियाँ उदाहरण देतीं थी, समाज ही नहीं अपने परिवार द्वारा भी ठुकरा दी गयी. उसकी अपनी माँ और भाभियों ने, रसोईं में उसके प्रवेश और भोजन- ग्रहण करने पर रोक लगा दी. पति की ऐय्याशियों के कारण पतिगृह तो वह पहले ही छोड़ आई थी; अब उसके लिए मायका भी पराया हो चला था. कारण- पति की उपेक्षा से, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ सा गया था. वह नित्य सज-संवर कर खिड़की पर खडी होती और निरुद्देश्य बाहर को ताकती रहती. कुलीन वर्ग के पुरुष भी उस राह से आते जाते और जब तब तात्री को देखकर मुस्कुरा देते. तात्री भी उन मुस्कान भरे अभिवादनों का प्रत्युत्तर, मुस्कान से ही देती. परन्तु इस सबके पीछे उसकी कोई दुर्भावना नहीं वरन सुंदर दिखने की मासूम सी चाह थी. उन गणमान्य व्यक्तियों की मुग्ध मुस्कानों से, उसका आहत अहम कहीं न कहीं संतुष्ट होता. उसे लगने लगता कि उसके पति के साथ शयन करने वाली स्त्रियों की तुलना में, वह कहीं अधिक सुंदर है! लेकिन उसकी इन चेष्टाओं ने उसे, ‘स्मार्तचरितं’ के तहत अपराधी बना दिया.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:51 PM

Re: एक थी तात्री
 
वह ‘अंतर्जनम’, बचपन से ही पुष्प- सज्जा में माहिर थी. देव- मालाओं को गूंथना, देवालय को पुष्पों से सजाना उसे खूब आता था लेकिन एक दिन उसके पति ने, एक गणिका के लिए सेज सजाने पर उसे विवश कर दिया. वह उस वेश्या को, राह से उठाकर घर ले आया था. यहीं पर तात्री की सहनशक्ति जवाब दे गयी और उसने पति को सदा के लिए छोड़ दिया. और फिर एक नया दंश- उसके चरित्र पर दोषारोपण! पति के शब्द, उसके मन में उबाल मारने लगे थे- “हाँ मुझे वेश्याओं से प्यार है. तुम भी वेश्या बन जाओ….तो तुम्हें भी प्यार करूंगा!” तब स्त्री और पुरुष की हैसियत, एक ही तराजू में तौलने के लिए; क्या इससे बेहतर उदाहरण हो सकता था?! तात्री को उस अपराध का दंड मिला जो उसने किया ही नहीं! उन आत्मघाती क्षणों में उसने जो निर्णय लिया- नितांत अकल्पनीय था!!!

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:52 PM

Re: एक थी तात्री
 
उस रात के बाद, उत्सव- क्षेत्रों में एक नयी स्त्री दृष्टिगोचर होने लगी जिसका सौंदर्य और आकर्षण, उच्च- वर्ग के पुरुषों को उसकी तरफ खींचते. धीरे धीरे कई ‘कुलीन’ पुरुष उसके पाश में बंधते चले गये. आश्चर्य! वह मात्र गणमान्य- व्यक्तियों के लिए ही उपलब्ध थी. किन्तु यदि उन पुरुषों को, स्वप्न में भी ये आभास होता कि वह एक नम्बूदरी स्त्री थी; तो वे उसके आस- पास फटकने का भी साहस नहीं करते( उस समाज में उच्च कुल की नारी के साथ शारीरिक सम्बन्ध अवैध माना जाता था, किन्तु यही नियम निम्न कुल की स्त्रियों पर लागू नहीं होता था). फिर वह दिन आया- जिसकी उस युवती तात्री को बरसों से प्रतीक्षा थी! आखिर उसका पति, उसके साथ रात बिताने के लिए आ गया. एक सुन्दरी गणिका के बारे में सुनकर, वह खुद को वहां आने से रोक न सका. अपनी पत्नी से वह पूरे पांच वर्षों के बाद मिल रहा था. किन्तु रात के अँधेरे में उसे पहचान नहीं पाया. कैसे पहचानता? क्या अपनी सरल, पतिव्रता पत्नी से वह ऐसी उम्मीद कर सकता था?!!! प्रेमजाल में फांसकर, तात्री ने (प्रेम की निशानी के तौर पर) उसकी अंगूठी ले ली.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:53 PM

Re: एक थी तात्री
 
दिन के उजाले में जब उसने, अपनी इस नवीन सहचरी को देखा- वह चीखा और वहां से भाग खड़ा हुआ. उसके बाद…!!! जैसे ही तात्री की असलियत उसके अन्य प्रेमियों को पता चली, वह तत्क्षण वहां से पलायन कर गये. किन्तु फिर भी बच न सके!! तात्री के पास से, उन भद्र पुरुषों की अंगूठियाँ, अंगोछे और कमरबंद जैसे अनेक सबूत बरामद हुए; जिनके आधार पर अनैतिक संसर्ग के आरोप में, समाज के ६५ गणमान्य व्यक्तियों को धर लिया गया. यह था एक नम्बूदरी स्त्री का प्रतिशोध- अपने पति और पुरुषवादी व्यवस्था के विरुद्ध! इस प्रकार ऐतिहासिक ‘स्मार्त चरितं’ का समापन हुआ और समाज के ठेकेदार ‘सम्बन्धम’ जैसी कुरीतियों पर पुनर्विचार करने को विवश हो गये.

jai_bhardwaj 04-05-2013 07:54 PM

Re: एक थी तात्री
 
१९०५ में घटित इस घटना ने, रुढियों के मूल पर प्रहार किया और पहली बार क्रान्ति की वो चिंगारी जलाई; जिसने कालान्तर में अग्नि बनकर कुरीतियों को भस्म कर दिया. तात्री एक निंदनीय स्त्री- जिसका नाम लेना तक पाप था! किन्तु इस स्त्री ने, अकेले दम पर, समाज को बदलाव की तरफ मोड़ दिया.
अफसोस ये है कि काश तात्री ने विद्रोह के लिए, कोई साफ़- सुथरा तरीका आजमाया होता! काश कि उसके अस्तित्व के साथ, गणिका जैसा संबोधन नत्थी नहीं हुआ होता!!

जानकारी सूत्र -
आकाशवाणी कोच्ची द्वारा प्रसारित, तात्री की कथा का नाट्य- रूपांतरण


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