जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा विपश्चित् समुद्र के पार जा पहुँचा तब उसके साथ जो मन्त्री पहुँचे थे उन्होंने राजा को सब स्थान दिखाये जो बड़े गम्भीर थे बड़े गम्भीर समुद्र जो पृथ्वी के चहुँ फेर वेष्टित थे वह भी दिखाये और बड़े-बड़े तमालवृक्ष, बावलियाँ, पर्वतों की कन्दरा, तालाब और नाना प्रकार के स्थान दिखाये | ऐसे स्थान राजा को मन्त्री ने दिखाकर कहा, हे राजन्! तीन पदार्थ बड़े अनर्थ और परम सार के कारण हैं-एक तो लक्ष्मी, दूसरा आरोग्य देह और तीसरा यौवनावस्था | जो पापी जीव हैं वे लक्ष्मी को पाप में लगाते हैं, देह आरोग्यता से विषय सेवते हैं और यौवन अवस्था में भी सुकृत नहीं करते, पाप ही करते हैं और जो पुण्यवान् हैं वे मोक्ष में लगाते हैं अर्थात् लक्ष्मी से यज्ञादिक शुभकर्म और आरोग्य से परमार्थ साधते हैं और यौवन अवस्था में भी शुभकर्म करते हैं-पाप नहीं करते | हे रामजी! जैसे समुद्र और पर्वत के किसी ठौर में रत्न होते हैं और किसी ठौर में दर्दुर होते हैं, तैसे ही संसाररूपी समुद्र में कहीं रत्नों की नाईं ज्ञानवान् होते हैं और कहीं अज्ञाननरूपी दर्दुर होते हैं |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे राजन्! यह समुद्र मानो जीवन्मुक्त है क्योंकि जल से भी मर्यादा नहीं छोड़ता और रागद्वेष से रहित है | किसी स्थान में दैत्य रहते हैं, कहीं पंखोंसंयुक्त पर्वत, कहीं बड़वाग्नि और कहीं रत्न हैं परन्तु समुद्र को न किसी स्थान में राग है, न द्वेष हे | जैसे ज्ञानवान् को किसी में रागद्वेष नहीं होता परन्तु सबमें ज्ञानवान् कोई बिरला होता है | जैसे जिस सीपी और बाँस से मोती निकलते हैं सो बिरले ही होते हैं, तैसे ही तत्त्वदर्शी ज्ञानवान् कोई बिरला होता है हे रामजी! सम्पूर्ण रचना यहाँ की देखो कि कैसे पर्वत हैं जिनके किसी स्थान में पक्षी रहते हैं, किसी स्थान में विद्याधर रहते हैं, कहीं देवियाँ विलास करती हैं, कहीं योगी रहते हैं और कहीं ऋषीश्वर, मुनीश्वर, कहीं ब्रह्मचारी, वैरागी आदिक पुरुष रहते हैं |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
यह द्वीप है और सात समुद्र हैं जिनके बड़े तरंग उछलते हैं और पर्वत का कौतुक और आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, ऋषि, मुनि, को देखो और देखो कि सबको आकाश ठौर दे रहा है पर महापुरुष कि नाईं आप सदा असंग रहता है और शुभ-अशुभ दोनों में तुल्य है | स्वर्गादिक शुभस्थान हैं और चाण्डाल पापी नरकस्थान और अपवित्र है परन्तु आकाश दोनों में तुल्य है- असंगता से निर्विकार है | जैसे ज्ञानी का मन सब स्थानों से निर्लेप होता है, तैसे ही आकाश सब पदार्थों से असंग और न्यारा है और महात्मा पुरुष की नाईं सर्वव्यापी है | हे आकाश! तू कैसा है कि प्रकाशरूप तुझमें अन्धकार दृष्टि आता है-यह आश्चर्य है! हे आकाश! तू सबका आधारभूत है और जो तुझको शून्य कहते हैं वे मूर्ख हैं ,दिन को तुझको श्वेतता भासती है, रात्रि को अन्धकार भासता है और संन्ध्याकाल में तेरे में लाली भासती है पर तू तीनों से न्यारा है | ये तीनों राजसी, तामसी और सात्त्विकी गुण हैं पर तू इनके होते भी असंग है | हे आकाश! तू निर्मल है और तम तेरे में दृष्टि आता है परन्तु तू सदा ज्यों का त्यों है |
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यह अनित्य रूप है | चन्द्रमा तेरे में शीतलता करता है, सूर्य दाहक होते हैं, तीर्थ आदिक पवित्र स्थान हैं और पापमय अपवित्र स्थान हैं परन्तु तू सब में एक समान ज्यों का त्यों रहता है और वृक्ष को बढ़ने और ऊँचे होने की सत्ता तू ही देता है | अपनी महिमा को तू आप ही जाने और कोई तेरी महिमा पा नहीं सकता | तू निष्किञ्चन अद्वैत है, सबको धार रहा है और सबका अर्थ तुझसे ही सिद्ध होता है | जल नीचे को जाता है और तू सबसे ऊँचा है और विभु है | अनेक पदार्थ तेरे में उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं पर तू सदा ज्यों का त्यों रहता है | जैसे अग्नि से चिनगारे उपजते और अग्नि ही में लीन हो जाते हैं, तैसे ही तेरे में अनन्त जगत् उपजते और लीन होते हैं और तू सदा ज्यों का त्यों रहता है जो तुझको शून्य कहते हैं वे मूढ़ हैं | हे राजन! ऐसा आकाश कौन है सो भी सुनो | ऐसा आकाश आत्मा है जो चैतन्य आकाश है और जिसमें अनन्त जगत् उत्पन्न और लीन हो जाते हैं |
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उसको जो शून्य कहते हैं वे महामूर्ख हैं-जो सबको अधिष्ठान है, सबको धार रहा है और सदा निःसंग है ऐसे चिदाकाश को नमस्कार है | हे राजन्! यह आश्चर्य है कि वह सदा एक रस है पर उनमें नाना तरंग भासते हैं-यही माया है | हे राजन्! एक विद्या धरी और विद्याधर थे | उनके मन्दिर में एक ऋषि आ निकला पर उस विद्याधर ने उनका आदरभाव न किया इससे ऋषीश्वर ने शाप दिया कि तू द्वादशवर्ष पर्यन्त वृक्ष होगा | निदान वह विद्याधर वृक्ष हो गया | पर अब जो हम आये हैं हमारे देखते ही वह शाप से मुक्त हो वृक्षभाव को त्यागकर फिर विद्याधर हुआ है | यह ईश्वर की माया है कि कभी कुछ हो जाता है और कभी कुछ हो जाता है | हे मेघ! तू धन्य है! तेरी चेष्टा भी सुन्दर है, तीर्थों में सदा तेरी स्थिति है, तू सबसे ऊँचे विराजता है और सब आचार तेरा भला दृष्टि आता है परन्तु एक तुझमें नीचता है कि ओले की वर्षा करता है जिससे खेतियाँ नष्ट हो जाती हैं और फिर नहीं उगतीं |
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तैसे ही अज्ञानी की चेष्टा देखनेमात्र सुन्दर है और हृदय से मूर्ख हैं, उनकी संगति बुरी है और ज्ञानवान् की चेष्टा देखने में भली नहीं तो भी उनकी संगति कल्याण करती है | हे राजन्! सबमें नीच श्वान हैं क्योंकि जो कोई उसके निकट आता है उसको काट लेता है, घर घर में भटकता फिरता और मलीन स्थानों में जाता है, तैसे ही अज्ञानी जीव श्रेष्ठ पुरुषों की निन्दा करता है पर मन में तृष्णा रखता है और विषयरूपी मलीन स्थानों में गिरता है | वह मूर्ख मनुष्य मानो श्वान है और श्वान से भी नीच है | ब्रह्मा ने सम्पूर्ण जगत् को रचा है परन्तु उसमें श्वान सबसे नीच है पर श्वान क्या समझता है सो सुनो | एक पुरुष ने श्वान से प्रश्न किया कि हे श्वान! तुझसे कोई नीच है अथवा नहीं? तब श्वान ने कहा कि मुझमें भी नीच मूर्ख मनुष्य है और उससे मैं श्रेष्ठ हूँ क्योंकि प्रथम तो मैं सूरमा हूँ, दूसरे जिसका भोजन खाता हूँ उसकी रक्षा करता हूँ और उसके द्वारे बैठा रहता हूँ पर मूर्ख से ये तीनों कार्य नहीं होते |इससे मैं उससे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मूर्ख को देहाभिमान है इससे वह श्वान से भी नीच है |
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हे राजन्! परम अनर्थ का कारण देहाभिमान है | देहाभिमान से जीव परम आपदा को प्राप्त होता है | वह मूर्ख नहीं मानो कौवा है जो सबसे ऊँची टहनी पर बैठकर कां कां करता है | हे राजन्! कमल की खानों के ताल के निकट एक कौवा जा निकला तो क्या देखे कि भँवर बैठे कमल की सुगन्ध लेते हैं, उनको देखकर वह हँसने लगा और कां कां शब्द किया | तब उसको देख भँवरे हँसे कि यह कमल की सुगन्ध क्या जाने, तैसे ही जिज्ञासु भँवरे के समान हैं जो परमार्थरूपी सुगन्ध लेते हैं | जो अज्ञानरूपी कौवे हैं वे परमार्थ रूपी सुगन्ध लेते हैं | जो अज्ञानरूपी कौवे हैं वे परमार्थ रूपी सुगन्ध नहीं जानते इस कारण मूर्ख को देखकर जिज्ञासु हँसते हैं जो आत्मरूपी सुगन्ध को नहीं जानते | अरे कौवे! तू क्यों हंस की रीत करता है? हंस तो हीरे और मोती चुगनेवाले हैं और तू नीच स्थानों को सेवनेवाला है |
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मन्त्री ने कहा, हे कोयल! तुम कमल को देखकर क्या प्रसन्न होते हो? प्रसन्न तो तब हो जब बसन्तऋतु हो पर यह तो वर्षाकाल का समय है-यह फूल ओलों से नष्ट हो जावेंगे | राजन्! कोयलरूपी जो जिज्ञासु हैं उनको यह उपदेश है हे जिज्ञासु! जो सुन्दर पदार्थ तुमको दृष्ट आते हैं इनको देखकर तुम क्यों प्रसन्न होते हो? प्रसन्न तो तब हो जो यह सत्य हों पर यह तो मिथ्या हैं और अविद्या के रचे हैं | तुम क्यों प्रसन्न होते हो? अपने कुल में जा बैठो और अज्ञानी का संग छोड़ दो | जैसे कौवा हंसों में जा बैठता है तो भी उसका चित्त गन्दगी के भोजन में होता है और हंस का आहार जो मोती है उन मोतियों की ओर देखता भी नहीं, तैसे ही अज्ञानी जीव कदाचित् सन्तों की संगति में जा भी बैठता हे तो भी उसका चित्त विषयों की ओर ही भ्रमता फिरता है और स्थिर नहीं होता |
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जैसे कोयल का बच्चा कौवे को माता-पिता जानकर उनमें जा बैठता है तब उनकी संगति से यह भी गन्दगी के भोजन करनेवाला हो जाता है | इससे कोयल उसको बर्जन करते हैं कि रे बेटा! तू कौवे की संगति मत बैठ, अपने कुल में बैठ, क्योंकि तेरा भी नीच आहार हो जावेगा, तैसे ही जिज्ञासु जो अज्ञानी का संग करता है तो उसके अनुसार भी विषयों की तृष्णा उत्पन्न होती है तब उसको बर्जन करते हैं कि रे जिज्ञासु! तू मूर्ख अज्ञानियों में मत बैठ, अपना कुल जो सन्तजन हैं उनमें बैठ | जैसे कोयल के बच्चे को कौवे सुख देनेवाले नहीं होते, तैसे ही मूर्ख तुझको सुख देनेवाले नहीं होंगे | मन्त्री फिर कहने लगा, अरी चील! तू क्यों हंस की रीत करती है? तू भी बहुत ऊँचे उड़ती है परन्तु हंस का गुण तेरे में कोई नहीं | जब तू माँस को पृथ्वी पर देखती है तब वहाँ गिर पड़ती है और हंस नहीं गिरते, तैसे ही जो मूर्ख हैं वे सन्तों की नाईं ऊँचे कर्म भी करते हैं परन्तु विषयों को देखकर गिरते हैं पर सन्त नहीं गिरते तो मूर्ख सन्तों की रीत कैसे करें |
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