Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
प्रश्न : धनों में उत्तम धन क्या है? (धनानां किमुत्तमं धनम् ?)
उत्तर: धनों में श्रेष्ठ धन शास्त्र ज्ञान है. (धनानामुत्तमं श्रुतम् ?) प्रश्न : लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है ? (कश्चः धर्मः परो लोके ?) उत्तर: लोक में दया ही श्रेष्ठ धर्म है. (आनृशंस्यं परो धर्मः ?) प्रश्न : उत्तम दया किसे कहते हैं ? (दया का परा प्रोक्ता ?) उत्तर: सारे लोगों के सुख की इच्छा ही सच्ची दया है. (दया सर्वसुखैशित्वम्) प्रश्न : किसके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती ? (कैश्च संधिर्नर्जीर्यते ?) उत्तर: सत्पुरुषों के साथ की हुयी मित्रता नष्ट नहीं होती. प्रश्न : पृथ्वी से भारी चीज क्या है ? उत्तर: माता का गौरव पृथ्वी से भारी है. प्रश्न : दुर्जय शत्रु कौन है ? उत्तर: क्रोध दुर्जय शत्रु है. प्रश्न : सुखी कौन है ? उत्तर: जिसके सिर पर ऋण न हों. प्रश्न : संसार में आश्चर्य क्या है ? उत्तर: नित्य ही प्राणी यमलोक में जा रहे हैं. फिर भी जो बचे हुये हैं वे सदा सर्वदा जीने की इच्छा करते हैं. इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ? |
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प्रश्न : जीवित कौन है ?
उत्तर: जो कीर्तिमान है अर्थात कीर्ति देने वाले कार्य करता है, वही जीते जी और जीवनोपरांत जीवित रहता है. प्रश्न : चलने के लिये उत्तम मार्ग क्या है ? उत्तर: जिस मार्ग से महापुरुष या श्रेष्ठजन चलते हैं, वही उत्तम मार्ग है. यक्ष अपने सारे प्रश्नों का समुचित उत्तर पा कर संतुष्ट हो गया और बोला, “हे युधिष्ठिर, तुम पानी पी कर तृप्त होओ. इसके अलावा मैं तुम्हारे मृत भाइयों में से भी एक को जीवित कर दूंगा. बोलो किसे जीवित करूँ?” युधिष्ठिर ने नकुल का नाम लिया. तो यक्ष ने कहा, “अर्जुन जैसे धनुर्धारी और भीम जैसे पराक्रमी को छोड़ कर तुम नकुल के लिये जीवनदान क्यों चाहते हो?” युधिष्ठिर ने कहा, “मेरी दो माताओं में से माता कुंती का पुत्र मैं जीवित हूँ, माता माद्री का भी एक पुत्र जीवित रहना चाहिये.” युधिष्ठिर की धर्म-भावना और उनके बुद्धि-चातुर्य से धर्मराज, जो यक्ष बन कर आये थे, परम संतुष्ट हुये.उन्होंने उनके चारों भाइयों को जीवन-दान दिया. तब पाँचों भाई शीतल और सुस्वादु जल पी कर तृप्त हुये तथा अपने स्थान को लौट आये. (यह अंश श्री भागीरथ कानोडिया के आलेख से प्रेरित) ** |
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भगवान शंकर का पशुपति रूप
(आलेख साभार: डॉ. दिनेश मिश्र) बागमती नेपाल की एक बड़ी पवित्र नदी है. इस नदी से संबंधित एक कथा स्कन्दपुराण में कही गयी है। कहते हैं कि हिमालय के दक्षिण भाग में एक अति प्रसिद्ध श्लेष्मान्तक वन था। वह जंगल नाना प्रकार के पेड़-पौधों-लताओं से भरा पड़ा था और उसमें फलों के वृक्ष भी प्रचुर मात्र में थे जिन पर बहुत से पक्षी निवास करते थे। बागमती नदी के किनारे स्थित इस सुरम्य वन को देख कर भगवान शंकर ने कैलाश पर्वत तथा काशी छोड़ कर पार्वती के साथ श्लेष्मान्तक वन में रहने का निश्चय किया। उन्होंने सबसे छिपे रहने के उद्देश्य से मृग का रूप धारण किया और पार्वती मृगी-रूपा बन कर उनके साथ विहार करने लगीं। देवताओं की दृष्टि से दूर अदृश्य रूप में विराजमान भगवान शंकर के लिए सारा जगत व्यथित हो गया। देवताओं ने भगवान शंकर को खोजने के लिए सभी संभव प्रयत्न किये और उन्हें ग्राम, नगर, वन, नदी और पर्वतादि स्थानों पर खोजा। अन्ततः वे श्लेष्मान्तक वन पहुँचे जहाँ उन्होंने एक सींग और तीन नेत्र वाले सुन्दर और पुष्ट मृग के रूप में महादेव को पहचान लिया। उनके साथ मृगी-रूपा पार्वती भी थीं। >>> |
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देवताओं ने शंकर की स्तुति की और उन्हें मृग-रूप त्याग करके कैलाश या काशी चलने की प्रार्थना की मगर शंकर नहीं माने और न ही उन्होंने मृग रूप ही त्यागा। तब ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि देवता मृग को बलपूर्वक अपने वश में करने की सोचने लगे और जैसे ही उन्होंने मृग के सींग पकड़ने की चेष्टा की, मृग रूपी शंकर कूद कर बागमती के दूसरे तट पर जाकर स्थित हो गए मगर इस भाग-दौड़ में उनके सींग के चार टुकड़े हो गए। इन चार टुकड़ों में से एक-एक टुकड़ा ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र ने लेकर अपने-अपने लोकों में स्थापित कर दिया। चौथा टुकड़ा बागमती के दाहिने तट पर गिरा।
शंकर ने उस रम्य वन को छोड़ कर जाने से मना कर दिया और कहा कि इस लोक में पशु रूप धारण करने के कारण उनका नाम पशुपति होगा। कहा जाता है कि बागमती के किनारे मृग के सींग का जो चौथा टुकड़ा गिरा वही वहाँ शिवलिंग बन कर स्थापित हो गया और बाद में इसी स्थान पर पशुपतिनाथ के नाम से शिवलिंग का पूजन होने लगा। पार्वती भी शंकर के साथ उनके पास रहना चाहती थीं। शंकर ने पार्वती से कहा कि तुम मेरे वात्सल्य के कारण मेरे साथ रहना चाहती हो अतः अब से भक्तगण तुम्हें वत्सला कह कर पुकारेंगे और तबसे पार्वती वत्सला नाम धारण कर वहीं बागमती के किनारे निवास करने लगीं। >>> |
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बागमती के पूर्वी तट पर पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस मन्दिर के बारे में एक दूसरी किंवदन्ती है कि ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शंकर का यह सींग बहुत काल तक मिट्टी के नीचे दबा रहा और उसके ऊपर घास जम गई। किसी ग्वाले की एक गाय नियमित रूप से इस स्थान पर आती थी और अपना दूध वहीं देकर चली जाती थी। कुछ दिनों के बाद ग्वाले ने अनुभव किया कि उसकी दुधारू गाय दूध नहीं दे रही है तब उसने गाय पर नजर रखना शुरू किया और अन्ततः उस स्थान को खोज निकाला जहाँ गाय के थन से दूध अपने आप निकल जाया करता था। ग्वाले ने उस स्थान को खोदा जहाँ उसे शिवलिंग मिला। इसके बाद धीरे-धीरे वहाँ ग्वाले इकट्टा होकर पूजा-अर्चना करने लगे। कालक्रम में इस स्थान की महिमा बढ़ी और यहाँ विधिवत पशुपतिनाथ के भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ।
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चन्द्रमा का पाप और प्रायश्चित
(आलेख आभार: डॉ. दिनेश मिश्र) कथा प्रसिद्ध है कि एक बार चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ करने की सोची जिससे तीनों लोकों में वह अपना राज स्थापित कर सके। इसी उद्देश्य से वह देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास गए कि वह उनका पौरोहित्य स्वीकार कर लें। बृहस्पति ने चन्द्रमा को राजसूय यज्ञ न करने की सलाह दी क्योंकि राजसूय यज्ञ की व्यवस्था करने और उसे सम्पन्न करने में बहुत श्रम और कष्ट होता है और यह अगर सम्पन्न हो भी जाए तो राजा के दायित्वों में अप्रत्याशित वृद्धि होती है और उसका निर्वाह करना भी कम कष्टदायक नहीं होता। इन उपदेशों का चन्द्रमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने राजसूय यज्ञ करने की अपनी जिद नहीं छोड़ी और बृहस्पति को उसका यज्ञ सम्पन्न करवाना पड़ गया। चन्द्रमा के पराक्रम को देखते हुए किसी अन्य देवता को उसका विरोध करने का साहस नहीं हुआ। >>> |
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यज्ञ की समाप्ति के बाद जब चन्द्रमा का अभिषेक होने वाला था तभी उसकी दृष्टि गुरुपत्नी तारा पर पड़ी और तारा ने भी चन्द्रमा के संकेतों का प्रतिकार नहीं किया। काम के वशीभूत अहंकारी चन्द्रमा सभी देवताओं की उपस्थिति में तारा को अपने कक्ष में ले गया और उनके साथ रमण किया। बृहस्पति द्वारा बार-बार समझाये जाने के बाद भी कि पर स्त्री का हरण अगर पाप है, तो गुरुपत्नी का हरण तो महापाप होता है, चन्द्रमा ने यह जघन्य कृत्य कर ही डाला। अन्याय की पराकाष्ठा तब हुई जब देवताओं के राजा इन्द्र ने भी चुप्पी साध ली। इस पर क्रोधित महादेव ने चन्द्रमा को दण्ड देने का निश्चय किया और वह उसका शिर विच्छिन्न करने ही वाले थे कि ब्रह्मा ने महादेव से चन्द्रमा को क्षमा करने की प्रार्थना की और प्रायश्चित करने के मार्ग का सुझाव देने को कहा।
महादेव ने चन्द्रमा को महापापी बताते हुए कहा कि यह यक्ष्मा रोग से पीड़ित होकर हमेशा क्षीण होगा और सभी देवों से बहिष्कृत होगा। ऐसा कह कर महादेव कैलाश चले गए। महादेव के शाप से चन्द्रमा कभी शान्ति से नहीं रह सका और यक्ष्मा के कारण उसका शरीर क्षीण होता चला गया। प्रायश्चित के लिए वह बहुत से तीर्थों में घूमा। अन्ततः वह अगस्त्य मुनि के परामर्श पर श्लेष्मान्तक वन में वागमती नदी के तट पर तपस्या में यह सोच कर स्थिर हुआ कि उसने गुरुपत्नी के साथ रमण करके पशुतुल्य कार्य किया है। उसने निश्चय किया कि जब तक वह इस दोष से मुक्त नहीं हो जायेगा तब तक वह अपनी तपस्या भंग नहीं होने देगा। कठोर तपस्या करके चन्द्रमा ने महादेव को प्रसन्न कर लिया और शाप से मुक्त हो गया। वागमती के स्नान, उसके जल का पान और वत्सला देवी (पार्वती) तथा पशुपतिनाथ के दर्शन से उसकी पापमुक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। ** |
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महर्षि अगस्त्य तथा राजकुमारी लोपामुद्रा (1)
ऋषि अगस्त्य के पितरों को शान्ति नहीं मिल पा रही थी। उनके उद्धार के लिए वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की जरूरत थी। उनकी दशा देखकर अगस्त्य ने विवाह का विचार किया, ताकि वंश परंपरा का उच्छेद न हो। किंतु उन्हें कोई भी स्त्री अपने अनुरूप न जान पड़ी। तब उन्होंने विदर्भ देश के राजा के पास जाकर कहा, राजन! पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से मेरा विचार विवाह करने का है। इसलिए मैं आपसे आपकी पुत्री लोपामुद्रा को मांगता हूं। आप मेरे साथ इसका विवाह कर दें। मुनिवर अगस्त्य की यह बात सुनकर राजा के होश उड़ गए। वे न तो अस्वीकार ही कर सके और न कन्या देने का साहस ही कर पाए। उन्होंने महारानी के पास जाकर उन्हें सब वृत्तांत सुनाकर कहा, प्रिये! महर्षि अगस्त्य बडे़ ही तेजस्वी हैं। वे क्रोधित हो गए तो हमें शाप दे कर भस्म कर डालेंगे। और लोपामुद्रा का हाथ उनके हाथों में देते हैं, तो महलों में पली हमारी राजकुमारी जंगलों में भटकती फिरेगी। बताओ, इस विषय में तुम्हारा क्या मत है? लेकिन रानी को भी कोई उपाय नहीं सूझा। >>> |
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राजा और रानी को अत्यंत दुखी देख राजकन्या लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, पिता जी! मेरे लिए आप खेद न करें, मुझे अगस्त्य मुनि को सौंप कर अपनी रक्षा करें। शादी के मामले में ज्यादातर बेटियां ही माँ-बाप के लिए इस तरह का त्याग करती हैं।
पुत्री की बात सुनकर राजा ने शास्त्र विधि से अगस्त्य के साथ उसका विवाह कर दिया। पत्नी मिल जाने पर अगस्त्य ने उससे कहा, देवी! तुम इन बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को त्याग दो। तब लोपामुद्रा ने अपने दर्शनीय बहुमूल्य और महीन वस्त्रों को वहीं उतार दिया तथा पेड़ की छाल के वस्त्र और मृग चर्म धारण कर वह अपने पति के समान ही व्रत और नियमों का पालन करने लगी। तदनंतर ऋषि अगस्त्य हरिद्वार क्षेत्र में जाकर अपनी अनुगता भार्या के साथ घोर तपस्या करने लगे। लोपामुद्रा बडे़ ही प्रेम और तत्परता से अपने पति की सेवा करती थीं तथा अगस्त्य भी अपनी भार्या के साथ बड़े प्रेम का बर्ताव करते थे। जब इसी प्रकार बहुत समय निकल गया तो एक दिन मुनिवर अगस्त्य ने ऋतु स्नान से निवृत्त हुईं लोपामुद्रा को देखा। उस समय तप के प्रभाव से वह अत्यंत कांतिमय दिख रही थीं। उनकी सेवा और रूपमाधुरी ने मुनि को पहले से ही मुग्ध कर रखा था। अत: उन्होंने प्रसन्न होकर समागम के लिए उनका आह्वान किया। >>> |
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महर्षि अगस्त्य तथा राजकुमारी लोपामुद्रा (2)
तब लोपामुद्रा ने कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर कहा, मुनिवर इसमें संदेह नहीं कि पति संतान के लिए ही पत्नी को स्वीकार करता है। किंतु मेरे प्रति आपकी जो प्रीति है, उसे भी सार्थक करना ही चाहिए। मेरी इच्छा है कि मैं अपने पिता के महलों में जिस प्रकार के सुंदर वेशभूषा से विभूषित रहती थी, वैसी ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही, आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषाय वस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी। अगस्त्य ने कहा, लोपामुद्रे! तुम्हारे पिता जी के घर में जो धन था, वह न तो तुम्हारे पास है और न मेरे ही पास है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है? लोपामुद्रा बोली, इस जीवलोक में जितना धन है, वह सब आप अपने तप के प्रभाव से एक क्षण में ही प्राप्त कर सकते हैं। अगस्त्य बोले, प्रिये, तुम जो कहती हो, सो ठीक है, किंतु ऐसा करने से मेरे तप का क्षय होगा। तुम कोई ऐसी बात बताओ, जिससे मेरा तप क्षीण न हो। तब लोपामुद्रा ने कहा, तपोधन, मैं आपके तप को नष्ट नहीं करना चाहती, इसलिए आप उसकी रक्षा करते हुए ही मेरी कामना पूर्ण करें। अगस्त्य ने कहा, तब ठीक है, यदि तुमने अपने मन में ऐश्वर्य भोगने का ही निश्चय किया है, तो तुम यहां रहकर इच्छानुसार धर्म का आचरण करो, मैं तुम्हारे लिए धन लाने बाहर जाता हूं। >>> |
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